सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

पाँच

हमेशा अधूरी बात करने के लिए धिक्कारा जाता रहा हूँ। कहा जाता है कि बात लेकर तो पूरी गया हूँ लेकिन कर के अधूरी आया हूँ। नहीं पता इसके पीछे वज़हें क्या रहती होंगी। यह भी इस नादानी के साथ जुड़ता रहा है कि बात पूरी सुनता नहीं हूँ। अपना सच यह है कि बात पूरी सुनता हूँ। अपना सच यह भी है कि पूरी बात सुनने से ज़्यादा समझता भी हूँ। फिर भी बात पूरी नहीं कर पाता। सुनने से ज़्यादा समझ लेना शायद गलत होता है। यही कारण रहता होगा कि पूरी बात नहीं कर पाता। अपने-आपमें एक अधूरा वक्तव्य जैसा ही हूँ शायद। कभी-कभी यह भी लगता है कि बहुत अधिक इकट्ठा कर लेना और वह भी सारा का सारा अधूरा ही क्योंकि जो कह दिया गया होता है वह तो अध्ूारा होता ही है और जो अनकहा रह जाता है वह नितान्त अधूरा ही कहा जायेगा। कहा जायेगा, यह अपनी समझ हो सकती है। उपेक्ष के लिए इसका अर्थात कुछ दूसरा ही होगा। अधूरे कथ्यों का संज्ञान भी कोई नहीं लिया करता। कहे और शेष रहे अधूरे कथ्य कहीं अपना अर्थ खो भी रहे होते हैं और अर्थ बचा भी रहे होते हैं। अन्तस धरातल पर स्वप्न निरे बचपन में नये चमकदार कंचे खेल रहे होते हैं। ठहर गया अधूरापन भीतर ही भीतर इन्हें देखकर मुग्ध हो रहा होता है....................

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

चार

कुछ दिन पहले से स्मृति में बैठ गया था, अक्टूबर सत्रह को स्मिता पाटिल का 60वाँ जन्मदिन था। उनके होने में यह दिन कुछ और होता, स्वाभाविक है, सतत सर्जना में आज उनकी जगह भी कुछ और होती। उनकी क्षमताओं पर गहरा विश्वास करने वाले फिल्मकार श्याम बेनेगल से एक लम्बे रास्ते पर गाड़ी में बैठे हुए एक बड़ी बातचीत हुई थी तब उन्होंने स्मिता पाटिल के बारे में बात की थी। वे निशान्त की बात कर रहे थे, उसी बीच अपनी स्मृतियों से मैंने चरणदास चोर की रानी के किरदार की बात भी जोड़ दी थी जिसके बारे में उन्होंने बताया था कि कैसे निशान्त के बराबर यह बाल फिल्म उनको बनाने को मिली और उन्होंने स्मिता को इस फिल्म में एक छोटी सी भूमिका में भी रख लिया। स्मिता पाटिल की असाधारण अभिव्यक्ति क्षमता को उनकी अनेक फिल्में रेखांकित करती हैं। याद करने पर वे एक के बाद एक याद आती हैं, निशान्त, भूमिका, बाज़ार, मण्डी आदि। अपनी सम्मोहक श्यामला छबि में उनके पास आँखों और आवाज़ का सशक्त वजन महसूस करता रहा हूँ, खासकर उनको देखते हुए देखना और खास-खासकर दृढ़ता के साथ बोले जाने वाले उनके संवाद जिसमें उनका पात्र जूझ रहा होता है या अपने जीवट के साथ प्रस्तुत होता है। स्मिता पाटिल का विश्लेषण थोड़े में स्वत: ही सन्तुष्ट नहीं होता, देर तक बात करने को जी चाहता है, ऐसे ही में उनका असमय जाना तकलीफ के साथ उनका स्मरण कराता है। स्मिता पाटिल थोड़े में असाधारण कर गयी थीं। यह उस असाधारण का ही प्रभाव है कि वे स्मृति शेष होते हुए भी स्मृतियों में रत्ती भर की सकारात्मक धारा के कौंधते ही उपस्थित हो जाती हैं, अपनी सम्पूर्णता में..................

तीन

नहीं पता होगा कितनी कहानियाँ होंगी जो सुनने पर भी बिसरी न होंगी। हम कभी-कभार कहानियों को अपने पास रख लिया करते हैं। कुछ कहानियाँ ऐसी होती हैं जो हमने भले अपने पास रखी नहीं होतीं पर वो हमें छोड़कर कहीं जाती भी नहीं हैं। ऐसी कहानियाँ हमारे ही आसपास अपने छोटे-छोटे घर बना लिया करती हैं। हम जाने-अनजाने भटके पथिक की तरह उन घरों में जाकर जब बैठतें हैं तो हमें महकते हुए शब्द आभासित होते हैं। यह महक ही हमें स्मृतियों में ले जाती है। अच्छी कहानियाँ सुगन्ध की तरह होती हैं। पढ़ लिए जाने के बाद भी बड़ी देर तक उनकी महक बनी रहती है। कहानियों के घर हमारे पास ही होने चाहिए। जो शब्द मिलकर कहानी होते हैं वे अपने मौन में स्पर्श प्रदान करने वाली प्रार्थनाओं में लीन रहते हैं, हम सबको बिना बताये। उन प्रार्थनाओं में किन्हीं-किन्हीं अच्छे लोगों के लिए चिरंजीविता हुआ करती है। हम थमे रहकर उनको अनुभूत कर सकते हैं। नयी कहानियाँ बिरवे की तरह मन की धरा से दो पत्तियाँ लेकर फूटती हैं, एक पत्ती जीवन के लिए औषधि होती है और एक मन के लिए। सच तो यह है कि मन और जीवन ही कहानियों की सर्जनाभूमि है और यही हमारी देहात्मकता के अन्त:राग........

दो

18 अक्टूबर जनसत्ता के रविवारी में एक सामयिक आवरण कथा प्रकाशित है - सेल्फी की सनक। आजकल हर अखबार चूँकि ई-पेपर के रूप में हमसे जुड़े हैं इसलिए यदि आधे घण्टे का धीरजपरक समय हो तो इसे पढ़ना चाहिए जिसमें विशेष रूप से इसके रोमांचकारी ढंग या अवस्था में बरतने के जोखिमों की ओर भी इशारा किया गया है। मुझे इस विषय के साथ एक अलग बात लिखने का मन हुआ जो देख-देख कर कौंधती कई दिनों से रही है। अपने दायित्वों में मेरी नियमित आवाजाही एक सांस्कृतिक और जीवनिक विरासत को दर्शाने वाले केन्द्र पर हुआ करती है। बहुत महत्व का है। हमारी चेतना और विशेषकर जनजातीय अस्मिता, संस्कृति और जीवनशैली को वहाँ, अगर हम ज़रा भी अपनी जड़-चेतन के स्पर्शी होते हों, तो बहुत महत्व के साथ स्थापित और यथारूप देख सकते हैं। लोग बहुत वहाँ आते भी हैं। वहाँ मैं प्राय: अनेक उदाहरण अनायास देखा करता हूँ जिसमें किशोर और युवा प्रेमी जिनमें से उदात्त भी और लुके-छुपे भी, आया करते हैं। वे प्राय: या तो कोई आड़ या ओट में बैठ जाया करते हैं, बड़े धीमे बात कर रहे होते हैं या कई बार झगड़ भी रहे होते हैं, उलाहने देते उनके शब्द कभी वेग में सुनायी दे जाते हैं। कुछ खानपान रेस्त्राँ में मनपसन्द का पूछ-बताकर खाया खिलाया करते हैं। इसी में फिर सेल्फी अपनी याददाश्तों या यादगारों के लिए। दीर्घाओं से लेकर मुक्ताकाश और ढूँढ-ढूँढ़कर मनोरम स्थानों पर। इस बात का हम मित्रों, जिनमें सहकर्मी साथी, साहब और सहयोगी में अक्सर विषय छिड़ता है कि सांस्कृतिक जिज्ञासाओं, सृजनात्मक संसार और आदि-अस्मिता के प्रति इनकी चेतना कितनी सीमित है! यहाँ अपनी ओर से कोई रुचि, लगन या यहाँ तक चढ़ाई-पहाड़ी चढ़कर आने के पीछे लक्ष्य भी कितना क्षणभंगुर और परिवेश तथा पूरे वातावरण के प्रति उपस्थित रहते हुए भी कितनी उपेक्षा से भरा है.................

एक

संगियों और पड़ोसियों की यदि सहृदयता न हो तो जीवन कितना कठिन हो जाता है, कितना अकेलापन और शून्यता। सड़क पर अक्सर मैं इसे महसूस करता हूँ। हमारे आसपास घोर अपरिचय का विश्व होता है। कोई किसी को नहीं जानता। हम अपनी गति में होते हैं, सब अपनी गति में होते हैं। हम-सब बड़े-छोटे वैभव और सादगी में भी होते हैं जो पहनावे से लेकर सवारी तक और उस सबसे ऊपर हम सबके चेहरे से प्रकट होता है। कहीं भी पहुँचने के लिए हम इसी विश्व से गुजरते हैं। हमारा सकुशल चलना हमारे हाथ में होता है और सकुशल पहुँचना इसी विश्व के अपरिचित संगियों के के हाथ। देखता हूँ सब जल्दी में होते हैं, बड़ी सुबह से और देर रात तक भी। दुपहरी में भी। दिन चढ़ने पर काम पर जाने और साँझ लौटते हुए भी। पहुँचना मूल में है। पहुँचने की खुशी बड़ी है, हमारी भी और हम से जुड़े-जुड़ों की भी। इस पूरे परिदृश्य में जिस तरह की बदहवासी और बेरुखी गति तथा मिजाज़ देखता हूँ वह अब बहुत डराता है। आप सब की तरह मैं भी इसी भीड़ भरी सड़क में अपरिचय और अकेलेपन का भाग होता हूँ जो कई बार अपने आसपास, दूर से आती हुई या न दिखायी देती हुई एम्बुलेंस की आवाज़ से सहम जाता है पल भर को। क्या सभी को जगह नहीं दी जाती सकती, क्या सभी को रास्ता नहीं दिया जा सकता? प्रत्येक रास्ते को बाधित करते हुए हम निकल जाना चाहते हैं, हम पहले जाना चाहते हैं लेकिन कहाँ? क्या हमें अगले चार कदमों का पता होता है? क्या हम अगले मोड़ पर अपनी कल्पना कर पाते हैं? फुटपाथ से लेकर पैदल पार पथ तक हम सबसे छुड़ा लेना चाहते हैं। हम सबसे सड़क भी छुड़ा लेना चाहते हैं। हम सड़क पर इतना निर्मम क्यों हो गये हैं................?