सोमवार, 16 नवंबर 2015

नौ

धरा पर जो भी कालातीत है, वह हमारी धरोहर है। हमारे अपने जीवन और समझ से बहुत पहले, सैकड़ों, हज़ारों साल पहले इसी धरा पर वह सब कुछ रचा और गढ़ा गया है जिसकी स्मृतियाँ आज भी हमारे सामने गौरवशाली और दुर्लभ सम्पदा के रूप में विद्यमान हैं। हम सभी अनेक दुर्गम रास्तों और सुगम दूरियों पर दौड़ते, लाँघते, फलांगते वहाँ जाया करते हैं। समृद्ध इतिहास, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत, आध्यात्मिक पूर्वार्द्ध हमें अचम्भित करता है। आज हम जिस अधुनातन युग में हैं, बहुत सारे आविष्कारों, शोधों और तकनीकी चमत्कारों से लैस हैं, बहुत हद तक उसके सम्मोहन में भी हैं और उसकी आसक्ति की कुछ-ब-कुछ प्रामाणिकता के रूप में भी देखे, दिखाये जाते हैं, वास्तव में ऐसे दुर्लभ साक्ष्यों और अचम्भों पर कोई सार्थक अवधारणा और विचार बना नहीं पाते। एक पीढ़ी है जो अपनी विरासत को लेकर जिज्ञासु नहीं है। उसके पास धीरज और धैर्य भी नहीं है। अध्ययन और अध्ययन के प्रति रुचि का भी पता नहीं है। ऐसे मानस के साथ आप भारतीय परम्परा और अस्मिता की धरोहरों के बीच अपनी उपस्थिति भर दर्ज कराते हैं। हमारे लिए सैकड़ों वर्ष पुराना कोई भी बरगद का पेड़ जिसकी जड़ें शाख से झूलती हुईं धरती का स्पर्श करती हैं, झूला झूलने के अलावा कोई महत्व नहीं रखता। हम अपने होने की सार्थकता को ऐसे स्थानों और अवसरों पर किस तरह प्रमाणित करते हैं, इसके ऐसे अनेक उदाहरण प्रायः दिखायी पड़ते हैं..............

गुरुवार, 12 नवंबर 2015

आठ

गहरी नींद में निरन्तर जागते रहने की अवस्था का पता नहीं है लेकिन ऐसा लगा करता है कि बहुत जागकर नींद में सपनों के साथ रहना असहज बनाये रखता है। न जाने कौन कितनी तरहों के चेहरों के साथ सामने आता है और उसकी उपेक्षा करना सम्भव नहीं हो पाता। उसको देखते रहना, कितनी ही कठिनाई से उसको सहन करना होता है प्रायः। वह करना पड़ता है। सपनों में कई बार चरित्र किले से धराशायी हो जाया करते हैं। सपनों में आगे बढ़ती कथा, व्यतीत को विस्मृति में धकेलकर आगे बढ़ जाती है। यह सब अपने सामने घटित होता देखना होता है। मैं अक्सर तुमको याद करके नहीं सोया करता हूँ लेकिन तुम्हारा आना, अपनी गहरी नींद में बखूबी जागते हुए इसी विरोधाभास से जूझना और इसे हल करने का विफल प्रयत्न करना होता है। स्मृतियों के किवाड़ और कुण्डियाँ जैसे खुले पड़े होते हैं। ऐसा लगता है कि कोई चटखनी लगाना भूल गया है। आले में कुछ सामान रखा हुआ है। अल्मारियों में पुरानी किताबों के भीतर अब भी मोर पंख और तुम्हारी तस्वीर रखी है। वही सीढि़याँ भूल आया हूँ जिनके सहारे यहाँ तक चढ़कर आया था। अब यहाँ से लौटना चाहता हूँ और वे सीढि़याँ दिखायी नहीं देतीं। इन्हीं बेचैनियों में जैसे एक चरम पर जाकर कहानी अधूरी रहेगी और नींद खुल जायेगी। नींद खुलने के बाद इत्मीनान से कौन सोया है भला......................!!!

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

सात


यह आभास कर पाना या अनुमान लगा पाना किसी के लिए भी मुश्किल होगा कि कैसा हूँ? इस प्रश्न का वही उत्तर सहजतः स्वीकार होता है जो दिया जाता है। सभी दिये गये उत्तर को मान्य करते हैं। इस उत्तर को प्राप्त करने के बाद वे तत्परतापूर्वक विषय पर आते हैं। दरअसल विषय ही आजकल ओट में हो गया है। वह धीरे से प्रकट होता है, दो औपचारिक लफ़्ज़ों के बाद। ये ही औपचारिक प्रश्न और उसके उत्तर एक-दूसरे को आश्वस्त कर दिया करते हैं। आज के समय में यह पूछना कि कैसे हैं, कैसा हूँ इसकी ध्वनि भीतर से हँसाती भी है और अब के समय के दस्तूर का पर्याय भी बन गयी लगती है। लम्बे समय से चेहरे के साथ न होना अनेक स्मृतियों में आपको ठीक ही धीरे-धीरे धूमिल करता चला जाता है। चेहरे के साथ उपस्थिति का अपना सरोकार है और चेहरे के बिना आप भले छः महीने न दीखें, संज्ञान में नहीं आते। कोई नहीं जान पाता कि बिना चेहरे के आप कैसे हैं? समय ने आपको कैसा कर दिया है? आपकी देह में कहाँ-कहाँ विपत्तियाँ आयीं हैं? शरीर का नमक घट गया है? अब मिले तो पहचानेंगे कैसे अथवा पहचान में आयेंगे भी कि नहीं? ऐसे अनेक आदि, आदि हैं। चेहरा विस्मृत हो जाने के बाद उसका आकलन कल्पनाभर है, उसमें सुनिश्चित या सच वह नहीं जो सोचा गया है। दूरियाँ जो विस्मृति गढ़ती हैं वह प्रतिकूलताओं के विस्तार में सारी प्रश्नाकुलताओं को भी धीरे-धीरे समाप्त करती जाती है। खालीपन भौतिकी का अपना सच है..................

शनिवार, 7 नवंबर 2015

छ:

अभी चार दिन पहले ही राजेश रोशन का संगीत उनकी ही अगुवाई में लगभग बीस से ज्यादा संगीत सहयोगियों एवं चार या पाँच कलाकारों के साथ सुनने का अवसर आया था तो जैसे अपनी स्मृतियों के चालीस साल ताजा हो गये। वे सब गाने जो अलग-अलग समय में अनेक फिल्मों में सुनते रहे, उनको यहाँ सिलसिलेवार सुनना अन्त:स्फुरण से कम न था। कितने ही गाने, एक रास्ता है जिन्दगी, तुझ संग प्रीत लगायी सजना, तुमसे बढ़कर दुनिया में न देखा कोई और, नजर लगे न साथियों, थोड़ा है थोड़े की जरूरत है, आ री आ जा निंदिया तू ले चल कहीं, छू कर मेरे मन को किया तूने क्या इशारा, सारा जमाना हसीनों का दीवाना वगैरह, वगैरह। इन सारे ही गानों के संगीत के विवरण जब स्म तियों के आधार पर जाग्रत होने लगे तो लगने लगा जैसे अलग-अलग, उन-उन उम्रों में पहुँच गया हूँ जो किशोर अवस्था की थीं, युवाअवस्था की थीं। वे सब ध्वनियाँ फिर से कौंधी जब तब सुनी थीं, जैसे तुझ संग प्रीत गाने में, तूने मुझे चोरी से अपना बनाया  या तुम से बढ़कर दुनिया में गाने में की शुरूआत चंदू आत्मा की दो पंक्तियों से ग्रामोफोन रेकॉर्ड में चलते हुए बजना और फिर उस गाने को किशोर कुमार द्वारा उठा लेना जिसमें एक लाइन आती है, क्या खूब आँखें हैं तेरी..............जलतरंग भी कमाल का बजा है इसमें। एक रास्ता है जिन्दगी तो मेरा प्रिय गाना, फिल्मी काला पत्थर का, यह बात और है कि यह फिल्म ही मेरी प्यारी स्मृतियों से जुड़ी है, इस गाने में लता जी का स्वर दो बार, ओ जाते राही और ऐसा गजब नहीं ढाना पिया मत जाना बिदेसवा रे, ओह क्या‍ अनुभूति है, एक गाना और सोचा था पर वह उनकी सूची में नहीं था, इस फिल्म का, बाँहों में तेरी मस्ती के घेरे । राजेश रोशन हिन्दी सिनेमा में माधुर्य के उस दौर के सम्राट रहे हैं जब सम्भवत: वे अकेले ही मूल वाद्यों के साथ संगीत रचना कर रहे थे। कोयला में उनका एक गीत देखा तुझे तो हो गयी दीवानी, तबले पर क्या उठता चला जाता है, शीर्ष तक, अन्त तक तबला ही उस गाने को निभाता है। एक और फिल्म लावारिस, अक्षय खन्ना वाली जिसमें आ कहीं दूर चले जायें हम, इसमें बाँसुरी कमाल की बजती है, एक खास मोड़ पर। बहरहाल, इन सब गानों के साथ राजेश रोशन की जीवन्त प्रस्तुति देखते हुए दिमाग में अपनी क्षतियों का भारी द्वंद्व भी साथ चला, एक वक्त जमकर आँखें छलक आयीं, गहरे बिछोह को याद करके, फिर पोंछ-पाँछ कर मंच देखने लगा, आगे-पीछे की व्यवस्थाएँ, और भी तमाम कुछ। स्मृतियों का सन्दूक जब भी खुलता है, जाने क्या‍-क्या देने-दीखने लगता है, सच में..............