शनिवार, 16 जनवरी 2016

बारह

ऐसा लगता है कि अपनेे सहेजे एकान्त को मैं खुद ही सुहाने लगा हूँ। कभी मैं अपने लिए एकान्त की तलाश करता हुआ एक जगह पर आकर स्थिर हुआ था। मुझे पता नहीं है कि एकान्त की वास्तविक परिभाषा क्या होती है? ऐसा इसलिए लिख रहा हूँ कि आज भी नहीं जान पाया हूँ, तब भी नहीं जान पाया था। यह था कि एकान्त आकाश का, एकान्त धरती का या एकान्त अधर का सबके विषय में अलग-अलग जिज्ञासाएँ थीं। जाकर तो बैठा मैं धरती के ही एकान्त में। फिर वहाँ से अधर और आकाश के एकान्त को निहारते हुए जैसे सदियाँ जी गया। मुझसे बहुत कुछ छूटता चला गया। एकान्त की अपनी आत्मरति होती है जिसका आनंद भले न हो, अवसाद भी उसकी संगत से बाहर नहीं आने देता। मैं उसी परिधि में था। जाने किस क्षण मुझे स्वयं के रचे हुए निर्वात ने पूरी तरह घेर कर एक जगह आपको एकत्र बने रहने के लिए कह दिया हो जैसे। मैं वहीं कितनी बार सूरज उगे, चढ़े और अस्तांचल की ओर चले। मैं सभी का साक्षी था। एक तरह से सभी का साक्षी बना रहा। यह एक छोटा सा ही पैराग्राफ कहा जायेगा, अनेक समतल, रेतीले और भोथरे रस्तों पर चला और गिरा। भौतिकी में हम बहुत कुछ जेब में भर लिया करते हैं। आत्मावलोकन में जेब में भर लिए जाने लायक कुछ भी नहीं होता, यह बड़ा सा सच है............