सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

तेरह


एक पूरा दशक बीत गया लेकिन निदा फाजली के नहीं रहने की खबर के साथ जैसे वह याद बस एक देहरी सामने ही नजर आयी। 2005 की बात थी जब निदा फाजली भोपाल आये थे, शिखर सम्मान ग्रहण करने जो उनको साहित्य के क्षेत्र में सुदीर्घ सृजन के लिए प्रदान किया जाने वाला था। उसी दिन कुछ सम्मानों का अलंकरण और होना था जिनमें एक इकबाल सम्मान भी जो जो शहरयार साहब को दिया जा रहा था। शहरयार साहब से पहले की आत्मीयता के कारण सहजतापूर्वक सान्निध्य सम्भव हुआ और निदा साहब से पहली बार मिलना हो रहा था। मेरे लिए यादगार यह रहा कि मैं शहरयार साहब और निदा फाजली के आपस के रिश्तों से बहुत आनंद प्राप्त करता रहा। शहरयार साहब लगभग हर दूसरी बात निदा साहब को छेड़कर ही करते थे लेकिन निदा साहब उसका जवाब बड़े प्रेम और इत्मीनान से दिया करते। जैसे शहरयार साहब का तैयार होकर निकलने के लिए व्यग्र होना और निदा साहब को अभी समय लगना, तब शहरयार साहब का कहना, उनके सजने-सँवरने में खासा वक्त लगता है........निदा साहब जब होटल की लाॅबी में तैयार होकर आये तब उन्होंने ज्यो का त्यों कह भी दिया जिस पर निदा हँसने लगे। वैसे शायद वह सान्निध्य बहुत बड़ा न होता लेकिन शहरयार साहब सम्मान के अगले दिन जो शायद इतवार था, पुराने भोपाल में रहने वाले एक बड़े शायर मित्र अख्तर सईद खाँ से मिलने जाना चाहते थे। बरसों से आपस में मिले नहीं थे और वह बेचैनी दीख रही थी। इस साथ में निदा भी थे, वे भी चले। हम लोग पुराने भोपाल मेें अख्तर सईद साहब के बड़े से मकान में पहुँचे। मेरे लिए वह दृश्य यादगार था जब शहरयार साहब, निदा साहब से अख्तर सईद खाँ साहब खूब भावुकता में अच्छे से लिपटकर मिले। ये नम आँखों की मुलाकात रिश्तों के नमक को बयाँ करने के लिए काफी थी। मैं यह सब देखता रहा। उस दिन शायद तीन-चार घण्टे सब साथ रहे। मुलाकात एक दिन पहले तय हो गयी थी, अख्तर सईद साहब का ज्यादा चलना-फिरना नहीं हो पाता था, सो मुलाकात के समय मित्रों के लिए उन्होंने घर में क्या कुछ नहीं बनवाया था, वह सब, एक-एक कह कह करके खिलाया। अलीगढ़ की यादें, एक-एक बात ताजा होती रहीं। साथ के दोस्तों, रूठे-बिछड़े लोगों की खूब बातें हुईं। बाद में जब मिलकर विदा हुए तो उसी तरह भाव भरकर गले मिले। आने वाले समय की असहजता, फिर मिल पाने-न मिल पाने के अन्देशों के साथ यह पल उन मित्रों के लिए तो अनमोल थे ही, मेरे जैसे व्यक्ति के लिए भी जिसके मन में वह छाप आज तक है। मैं व्यक्तिशः मुम्बई में भी निदा साहब से कुछेक बार मिला और मंच पर उनकी अनेक रचनाओं जिनमें पिता पर, माँ पर और खास बेटी पर जो उन्होंने उस समय अपनी नन्हीं बेटी को देखते हुए लिखी, भुलायी नहीं जातीं। कुछ ही समय पहले वे ऐसे ही मंच-मुशायरे के मौके पर भोपाल आये थे। भोपाल आकर जाना, फिर आने की उम्मीद थी और यह जाना बड़े सख्त सच के साथ नाउम्मीद कर देता है....................