बुधवार, 30 मार्च 2016

चौदह......

अनेक बार अपने लिए सोची और जी हुई सीख के विपरीत होता हूँ। सीख पता नहीं कितने लोगों की है, कही गयी, देखी गयी, महसूस की गयी। शिक्षाएँ घुट्टी में भी पिलायी जातीं हैं। ऐसी पी हुई शिक्षाएँ रक्तकणों में जीवनभर बहा करती हैं। बाद में मिली शिक्षाएँ देह-मानस में धीरे से शामिल होती हैं, वे मानसिक अनुकूलताओं-प्रतिकूलताओं के अनुरूप ठहरे रहती हैं, प्रतीक्षा करती हैं और उनको जब सहज मार्ग मिलता है, तब वे हम में प्रवेश करती हैं। यह एक सोचा हुआ सोच है वह भी अपनी स्वीकार्यता के लिए क्योंकि जीवन और उसकी धारा में दैहिक और मानसिक सन्तुलन की अपनी अवस्थाएँ हुआ करती हैं। मैं कई बार सिरे और छोर में अन्तर नहीं कर पाता, बड़े दिनों बाद पैराग्राफ लिखते हुए यह विफलता मुझे कचोटती है। विफलताएँ आहत नहीं करतीं, विफलताएँ निरन्तर अपने आपमें अनेक प्रतिकूलताओं से अतिक्रमित होने और उसके परिणामों का पर्याय होती हैं। इनसे समय-समय पर थकान महसूस होती है। ऐसा लगता है कि थोड़ा आराम किसी ऐसे पत्थर पर बैठकर किया जाये जिसके चारों ओर दूर-दूर तक मैदान हों या पहाड़ हों। अब यह सब बहुत दूर हो चले हैं। ऐसा समय छूना भी मुश्किल लगता है, ऐसा लगता है जैसे समय को पकड़ने का प्रयत्न भी एक दूसरी तरह की विफलता के सामने लाकर खड़ा करता हो। इत्मीनान का समय, कभी हाथ न आने वाला पंछी है, वह देखता तो रहता है लेकिन आहट होते ही उड़कर थोड़ी और दूर जाकर बैठ जाया करता है, वहाँ से वह फिर निहारा करता है, दुनियाभर की भावशून्यता के साथ । सिरे और छोर एक-दूसरे की ओर पीठ किए हुए हैं, एक धीरज भरे उपन्यास की तरह जीवन सिरे और छोर के बीच अनन्त अस्त-व्यस्त पथ पर पैदल है.....................हाँ पैदल है क्योंकि शेष अब कोई भी पैदल नहीं बचा है....................