सोमवार, 20 जून 2016

पचास साल पहले तीसरी कसम



हिन्दी सिनेमा चमत्कार और त्रासदियों के सैकड़ों किस्सों का बिम्बीय साक्ष्य है। ऐसी अनेक कहानियाँ हैं जिनकी स्मृतियाँ सच्चाइयों से बढ़कर हैं, अनेक सच्चाइयाँ हैं जो कहानियों की तरह हमारे जहन में आज तक बैठी हैं। यह साल हिन्दी सिनेमा के विख्यात लेखक, पटकथाकार, शौकिया अभिनेता और एक पूरी तथा एक अधूरी फिल्म के निर्देशक नवेन्दु घोष की जन्मशताब्दी है। नवेन्दु घोष की बेटी वरिष्ठ पत्रकार और सिनेमा आलोचक रत्नोत्तमा सेनगुप्ता अपने पिता के जन्मशताब्दी वर्ष में अनेक उपक्रम कर रही हैं जिसकी शुरूआत वे आज रविवार को कोलकाता से कर रही हैं। इस अवसर पर उनके पिता का आखिरी उपन्यास कदम कदम का लोकार्पण हो रहा है। इसी अवसर पर एक लघु फिल्म मुकुल भी जो उनके पिता, पिता की लिखी एक महत्वपूर्ण फिल्म तीसरी कसम और गीतकार-निर्माता शैलेन्द्र का स्मरण करती है, दिखायी जा रही है। भावुक स्मृतियों में ये सतत संयोग हैं कि नवेन्दु घोष की जन्मशताब्दी के साल ही तीसरी कसम के पचास साल पूरे हो रहे हैं। 1966 में इस फिल्म का प्रदर्शन हुआ था और यही त्रासद साल फिल्म के निर्माता शैलेन्द्र के निधन का भी है, इस साल फिल्म के साथ ही शैलेन्द्र के निधन को भी पचास साल हो गये हैं।

तीसरी कसम को लेकर उसके प्रदर्शन के बाद, उसकी विफलता और विफलता से आहत होकर शैलेन्द्र के देहावसान के बाद जिस तरह से चर्चा होनी शुरू होती है, वो अपनी तरह का अचरज है। सिनेमा को बहुत गहराई से जानने वाले, सिनेमा के प्रदर्शन और उसके परिणामों का आकलन करने वाले कई बार श्रेष्ठ और उत्कृष्ट फिल्मों के बुरे परिणामों को लेकर चर्चा करते हैं। हम सभी के सामने किसी भी अच्छी या उत्कृष्ट फिल्म का असफल हो जाना कई तरह से चिन्तित भी करता है। हम उसके कारणों में जाना चाहते हैं। कहानी से लेकर पटकथा तक, कलाकारों के अभिनय से लेकर एक-एक दृश्य के निर्वाह तक, चुस्त और कसे हुए सम्पादन, मन को छू लेने वाली गीत रचना, कर्णप्रिय संगीत और आत्मा तक तरलता से बह जाने वाले स्वरों में पगे होने के बावजूद तीसरी कसम का विफल हो जाना वाकई एक गहरी चोट ही कही जाती है जो फिल्म के गीतकार और निर्माता शैलेन्द्र को लगी थी।

तीसरी कसम के बारे में कहा जाता है कि इस फिल्म में काम करते हुए राजकपूर ने निर्माता से एक भी पैसा नहीं लिया था। बासु भट्टाचार्य जो कि बिमल राॅय स्कूल के प्रशिक्षित निर्देशक थे, तीसरी कसम के एक-एक दृश्य, एक-एक फ्रेम पर घण्टों बहस करने और उसके बाद उसे अनुमोदित करने की जिद के साथ आगे बढ़ने वाले फिल्मकार थे। यह उनकी अपनी संवेदनशील सर्जना थी जिसमें उनके लिए पटकथा लेखन का काम नवेन्दु घोष ने किया था जो बिमल राॅय के लिए परिणीता, बिराज बहू, परख, बन्दिनी, देवदास आदि अनेकों श्रेष्ठ फिल्में लिख चुके थे। उनके लिए फणीश्वरनाथ रेणु की यह कहानी, फिल्मांकन के लिए गढ़ना एक बड़ी चुनौती रही है। तीसरी कसम पर बात करते हुए नवेन्दु घोष की बेटी रत्नोत्तमा सेनगुप्ता बतलाती है कि नवेन्दु दा को बचपन से अभिनय का शौक था। वे एक लेखक, कहानीकार होने के साथ-साथ छोटी भूमिकाओं के लिए लगभग लालायित रहते थे। उनके निर्देशक इस बात को जानते थे। यही कारण रहा कि बिमल राॅय, हृषिकेश मुखर्जी, बासु भट्टाचार्य आदि की फिल्मों में वे छोटी मगर किसी न किसी उद्देश्य के लिए गढ़े गये किरदार के रूप में दीखते थे। तीसरी कसम में वे उस शराबी की भूमिका में हैं जो नौटंकी प्रदर्शन के समय हीराबाई के लिए बुरे शब्दों का इस्तेमाल करता है और इसके बदले उसकी हीरामन से हाथापाई हो जाती है। इस छोटी सी भूमिका को करने के लिए नवेन्दु दा ने अपने को खूब तैयार किया था। राजकपूर उनसे हँसते थे, आपके साथ झूमा-झटकी का, मारपीट का दृश्य करना कठिन है, मेरे नायक के स्वभाव में भी लड़ाई-झगड़ा किसी फिल्म में नहीं रहा है लेकिन हीराबाई के मोह में मेरे चरित्र का यह उग्र पक्ष भी आपने ही लिख दिया है। सेनगुप्ता जोड़ती हैं कि दृश्य की गम्भीरता और बासु दा के निर्देशन ने पूरी फिल्म को ही एक यादगार बिम्बीय अनुभूति में बदलकर रख दिया था।

तीसरी कसम की सीधी-सच्ची कहानी है जिसका नायक हनुमान चालीसा पढ़ता है, गरीब गाड़ीवान है, बुद्धू सा जिसे जमाने की अकल नहीं है। कैसे वह एक के बाद एक मुसीबत में पड़ता है और चोरी की ढुलाई में पुलिस से पकड़ा जाना, बाँस ढोने से होने वाली दुर्घटना और पिटने पर कसमे खाता है। ये दो कसमें फिल्म के शुरू होने के बीस मिनट के अन्दर हीरामन खाता है। वह दृश्य भुलाये नहीं भूलता जब अपनी भाभी दुलारी से लिपटकर फूट-फूटकर रोने लगता है कि अब ऐसी गलती कभी नहीं करेगा, भाभी का उसके प्रति स्नेहिल होना, हिन्दी सिनेमा का मन को छू जाने वाला मार्मिक दृश्य है। उसकी तीसरी कसम के साथ ही फिल्म का अन्त होता है। एक कथा सी चलती है, उसे एक सवारी मिलती है जिसे उसको चालीस मील दूर के एक गाँव तक छोड़कर आना है। एक अच्छी सी बैलगाड़ी है, स्वस्थ सलोने से बैल हैं, घुंघरू बंधे हैं और हीरामन चला जा रहा है। हीरामन पहले नहीं जानता है कि बैलगाड़ी के भीतर जो भी है वो कौन है? एक स्त्री है, वह कौन है, कैसी है! कल्पनाओं के साथ वह स्मृतिलोक में है। सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है, सजनवा बैरी हो गये हमार, दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी.......सारे गाने शैलेन्द्र के लिखे हुए, शंकर-जयकिशन संगीत रचनाकार, मुकेश गायक.............गानों का एक-एक शब्द गहरे अर्थों से भरा हुआ, सारा का सारा जीवन दर्शन, जीवन की क्षणभंगुरता का सन्देश, नैतिकता और चरित्र के विरोधाभासों पर बात। 

तीसरी कसम के बारे में इतने वर्षों में कितनी ही बार सोचने का अवसर आया है। अनेक बार इस फिल्म को देखना हुआ है, जितनी परिपक्वता में यह फिल्म देखी है, उतना ही ज्यादा विचलन बढ़ता गया है। इस फिल्म को बनाते हुए शैलेन्द्र इसकी सफलता की कामना के विपरीत परिणामों से छार-छार होकर चले गये लेकिन बाद में जैसे हर कोई इस फिल्म की संवेदना और मर्म की पड़ताल करने लगा। शैलेन्द्र के जीवन के बाद तीसरी कसम जैसे आत्मोत्सर्ग से परिणाम प्राप्त करने वाली उत्कृष्ट फिल्म के रूप में स्थापित हो गयी। राजकपूर और वहीदा रहमान का श्रेष्ठ अभिनय इस फिल्म को दर्शन और अनुभवों में कहाँ से कहाँ ले जाता है। श्वेत-श्याम फिल्म और खूबसूरत छायांकन कमाल है, विशेष रूप से सुब्रत मित्रा के सिने-छायांकन की यह अद्भुत फिल्म है, विशेष रूप से जिस प्रकार हीरामन और हीराबाई की चालीस किलोमीटर की यात्रा को यह फिल्म परदे पर सजीव करती है, ऐसा लगता है कि दर्शक आप इस यात्रा का हिस्सा है, वह अपने आपको डूबा हुआ महसूस करता है जब हीरामन गाते हुए कहता है, चिठिया हो तो हर कोई बाँचे, भाग न बाँचे कोय....................

और भीगी आँखों और हृदय में भरे गुस्से से हीरामन जब बैल को चाबुक मारकर स्टेशन से चल पड़ता है, तीसरी कसम खाते हुए कि अब किसी नाचने-गाने वाली बाई को बैलगाड़ी में नहीं बिठायेगा तो उसके साथ हमारी आँखें भी नम हो जाती हैं......................क्योंकि हीरामन का गुस्सा उन बैलों पर उतरा है जिनको वह बहुत प्यार करता था।

Keywords - Teesri Kasam, Raj Kapoor, Waheeda Rehman, Shailendra, Snunil Mishr, Ratnottama Senguta, तीसरी कसम, राजकपूर, वहीदा रहमान, शैलेन्‍द्र गीतकार, सुनील मिश्र, रत्‍नोत्‍तमा सेनगुप्‍ता

शनिवार, 18 जून 2016

चर्चा / उड़ता पंजाब : ठहरने को कहती एक फिल्म............


अभिषेक चौबे Abhishek Chaubey ने इसके पहले डेढ़ इश्किया फिल्म विशाल भारद्वाज के लिए बनायी थी। उड़ता पंजाब ने उनको यकायक सुर्खियाँ और चर्चा प्रदर्शन से पहले जिन कारणों के चलते दिला दीं, वह आप सभी को पता है, दोहराने का अर्थ नहीं है। उड़ता पंजाब फिल्म दो सप्ताह करीब जिन कारणों से चर्चा में रही, उसने हमेशा की तरह एक काम किया कि सिनेमाघरों में भीड़ भेज दी। यकायक सभी के संज्ञान में आ गयी इस फिल्म के साथ अनुराग कश्यप जो कि इस फिल्म के अनेक निर्माताओं में से एक हैं, लड़े और अखबारों के पहले पेज की सुर्खियाँ भी बने रहे, खैर फिल्म प्रदर्शन से दो दिन पहले वायरल होने के बाद अब सिनेमाघर में है, लोग देख रहे हैं, अपने आकलन कर रहे हैं, राय दे रहे हैं................
उड़ता पंजाब (Review : udta punjab by sunil mishr) एक स्थान पर पीढ़ी विशेष की ही बात नहीं करता बल्कि वह सारे वातावरण को देखता है जिसमें बचपन से लेकर प्रौढ़ता तक हानिकारक नशे का शिकार है, लत में है। बात इस तरह से ज्यादा जोर से की गयी है कि एक जनप्रतिनिधि इसके नेपथ्य में है जिसके प्रभाव से बड़ी आसानी से सारी व्यवस्था अनेक लाभों के चलते इस कारोबार में सहायक है। व्यवस्था में तंत्र से लेकर मनुष्य तक स्थूल और लचर अराजकताएँ कही-सुनी जाती हैं, सिनेमा में अनेक बार दिखायी गयी हैं, यहाँ भी उसी तरह से हैं। निर्देशक, अपनी पटकथा और कसे हुए सम्पादन से छोटे-छोटे दृश्यों में अपनी बात कहता, खत्म करता पूरे विषय को शुरू में ही उसकी भयावहता के साथ स्थापित करता है।
एक सिनेमा बनाते हुए दरअसल दिखाये जाने के उद््देश्यों और उसकी सार्थकता को लेकर हमारा दर्शक बहुत गम्भीर नहीं रहता, इसीलिए वह निर्देशक से भी कोई मांग नहीं करता। हमारे आसपास प्रायः कूड़ा फिल्में इसीलिए बहुतायात में आती हैं। सशक्त विषय और परिश्रमपूर्वक निर्वाह कई बार कुछ फिल्मों को अचानक से सुर्खियों में लाता है, उड़ता पंजाब के बारे में यही कहा जा सकता है। फिल्म में व्यवस्था, अनुशासन, प्रशासन और दायित्व की जगहों पर बैठे लोगों को उनकी जिम्मेदारियों के प्रति आगाह किया गया है। एक घातक नशा केवल घर या परिवार ही नहीं, राज्य और देश को भी किस तरह आर्थिक, सामाजिक और व्यवहारिक दृष्टि से ध्वस्त करता चला जाता है, यह चेतावनी फिल्म का सन्देश है।
यह फिल्म अपने सम्पादक के कौशल, निर्देशक की सूझबूझ और दृश्य गढ़ने की समझ, सधे हुए सिने-छायांकन, पटकथा और संवादों से दर्शकों से सीधे जुड़ती है। उड़ता पंजाब दूसरी साधारण फिल्मों की श्रेणी की फिल्म नहीं है। निर्देशक, पटकथा में मूल लेखक का सहयोगी होते हुए अनेक विवरणों तक जाता है। कई बार किसी गहरे दर्शक को फिल्म विचलित करती है तो आप उसकी सार्थकता का अन्दाज लगा सकते हैं। शाहिद कपूर, करीना कपूर, आलिया भट्ट, दिलजीत जोसांझ, सतीश कौशिक और अनेक सहयोगी कलाकारों के बेहतर काम के कारण आकृष्ट करती है लेकिन आलिया भट्ट और पहली बार परदे पर परिचित हुए दिलजीत जोसांझ के अभिनय की लम्बे समय याद दिलाती है।
आलिया भट्ट ने अपनी उम्र से बहुत आगे जाकर बेहद आश्वस्त होकर अपनी भूमिका निभायी है। दिलजीत तो खैर पूरी तरह किरदार लगते भी हैं। शाहिद कपूर रातोंरात ऊँचाई पर पहुँचे, एक साधारण युवा से बड़े गायक बने शाहिद की पूरी प्रतिभा दायीं आँख से जिस तरह व्यक्त होती है, निर्देशक और इस सितारे ने इस बात को समृद्ध किया है आपस में, दर्शक शाहिद के चरित्र निर्वाह को इस नजरिए से देखें, लोकप्रियता का अहँकार, पराभव की कुण्ठा, भय, चिढ़, गुस्सा और भीतरी पराजय को वे मेहनत से सामने लाते हैं। करीना की भूमिका सीमित है। फिल्म में उनका मारा जाना सहानुभूति प्राप्त करता है, उसी दृश्य को दिलजीत के छोटे भाई के हाथ हुई दुर्घटना से मजबूत किया गया है। सतीश कौशिक ने इस फिल्म में एक दिलचस्प किरदार निभाया है जो बाजार और संवेदना की लोटपोट के साथ धन लगाने और चौगुना करने के कारोबार में बाजार साधने में लगे तथाकथित हितैषियों की छबि को सामने लाता है। सतीश कौशिक, पंकज कपूर के अच्छे मित्र हैं और शाहिद के अंकल भी। दोनों के बीच अनेक बार ऐसे दृश्य घटित होते हैं जो बाजार के गणित को बखूबी जाहिर करते हैं।
गाने-वाने तो खैर ठीक हैं, एक गायक की जिन्दगी से बात ली गयी है पर पाश्र्व संगीत को लेकर इधर युवा प्रतिभाशाली निर्देशक अच्छी मेहनत करते हैं। वातावरण में दृश्य के लिए उतनी ही ध्वनि या प्रभाव जितना उसको सहयोग करे।
फिल्म को समीक्षकों ने भी अपनी-अपनी तरह से देखा है।अलग-अलग सितारे बाँटे हैं जो शायद तीन के भीतर ही हैं। मुझे लगता है कि यह तीन से अधिक सितारे देने वाली फिल्म है...................दर्शक* भी प्रदर्शन के इन तीन-चार दिनों में अपनी उपस्थिति से कुछ कहेंगे ही..................हाँलाकि फिल्म में भी बीच-बीच में दर्शक अनेक गम्भीर दृश्यों, चिन्ताजनक परिस्थितियों को हँसकर या ठिठोली करते हुए प्रतिक्रियित हो रहे थे
*कल दो बजे रात फिल्म देखकर निर्गम द्वार से बाहर निकला तो तीन-चार प्रौढ़ता की ओर बढ़ते युवाओं ने एकदम मुझे पकड़ लिया, पूछने लगे, अंकल आपको फिल्म कैसी लगी............और फिर सभी समवेत खिलखिलाते हुए बोले, डिस्प्रिन के लायक न................मैं उनको चकित भाव से देखता हुआ बिना कुछ कहे आगे चला गया...................हमारे दर्शक वर्ग......

Keywords - Udta Punjab, Anurag Kashyap, Abhishek Chaubey, Sunil Mishr, उड़ता पंजाब, अनुराग कश्‍यप, अभिषेक चौबे, सुनील मिश्र
+Sunil Mishr 

मंगलवार, 14 जून 2016

सदियॉं और समय


नहीं पता होता कि कभी-कभी समय सदियों की तरह व्यतीत होता है। ऐसा लगता है कि एक बार हाथ से छूटा फिर हाथ में आकर इकट्ठा हो गया है। उसको देखने की कोशिश करता हूँ। छूने या स्पर्श करने से पहले अजीब सा भय सताता है। समय अपना चेहरा उस ओर मोड़े हुए है, मैं उसको बिना बाधित किए उसकी ही ओर से जाकर उसे देखना चाहता हूँ। मैं समय में प्राणों का स्पन्दन देखता हूँ। मुझे फिर छूने की इच्छा होती है। कुछ भय मेरे साथ चलते हैं और थोड़ी ही देर में उनको मुझमें आकर ही मर जाना होता है। पता नहीं कितने भय, कब-कब आकर मर गये। साँस अपनी तरह की एक अलग ही घड़ी है। उसकी सेकेण्ड की सुई पता नहीं कौन छेड़ दिया करता है। वह हमेशा एक स्पर्श के साथ समरस होती है। अनेक बार ऐसा होता है कि स्पर्श कामनाओं के पक्षी के पंख मारे डर के मजबूती से थामे एक देश से दूसरे देश उड़ा चला जाता है। स्पर्श का छूटना, सपनों का टूटना होता है। सपनों के टूटने पर नींद खुल जाती है। नींद खुलती है तो सच दिखायी देने लगता है। स्वप्न अपने भरम है, जागे यथार्थ मेरा अपना साधारण सा चेहरा.............................प्रयत्नपूर्वक मैं उसी चेहरे के साथ मुस्कुराकर अच्छा लगने की कोशिश करता हूँ......................निष्फल कोशिश...........

शनिवार, 11 जून 2016

तीन : स्‍थूल पटकथा, ईमानदार निर्वाह और महानायक के लिए............



एक नाना, अपनी नातिन की आठ साल पहले हुई हत्या के बाद से ही एक-एक दिन हत्यारे के पकड़े जाने, उसका कुछ सुराग मिलने, कुल मिलाकर इन्साफ के लिए हर दिन भटक रहा है। वह रोज पुलिस स्टेशन जाता है, आता है। महिला थानेदार, फिल्म की नायिका विद्या बालन जिनकी छोटी भूमिका है, वो बड़े हल्के ढंग से उससे कहती हैं कि अपनी सुन्दर बीवी को छोड़कर क्यों भटका करते हो या यहाँ आ जाया करते हो, तो वह बताता है कि उसी के लिए यहाँ रोज आता हूँ। रिभु दासगुप्‍ता की नयी फिल्‍म तीन (film review : Te3n by Sunil Mishr) पर चर्चा करते हुए बात इस सन्‍दर्भ से इसलिए शुरू कर रहेे हैंं क्‍योंकि इस फिल्‍म के दफ्तर, सार्वजनिक सुविधा सहूलियतों के स्‍थान, पुलिस स्‍टेशन में एक आदमी रोज अपनी घुटन और बेचैनी में चक्‍कर लगा रहा है, दरअसल वह सोयी और उदासीन मानसिकताओं को जगाने की कोशिश में है...............
अमिताभ बच्चन Amitabh Bachchan फिल्म के केन्द्र में हैं। जब नातिन को दफनाया जा रहा था तब दामाद ने जाॅन पर आरोप लगाया था कि तुम्हारी वजह से वो मारी गयी। जाॅन यही सब क्लेश लिए भटकता है। वह घर में खाना भी पकाता है, व्हील चेयर पर पत्नी है, उसको परोसता भी है। बाजार भी जाता है, मछली खरीदने। महँगे सौदे के खिलाफ बहस भी करता है। पुलिस से पादरी हो गये मार्टिन दास से वह निरन्तर मिलता है और अब भी मदद मांगता है। यह दिलचस्प है कि एक दिन अपने ही जुनून में वह अपराधी तक पहुँच जाता है और वही घटना दोहरायी जाती है। इस बार अपराधी के नाती का अपहरण जाॅन ने किया है, लक्ष्य है अपराधी पकड़ा जाये। अन्ततः अपराधी को ऐसा बेबस कर देता है कि वो पहले के साथ दूसरा अपराध भी अपने सिर ले लेता है।
सिनेमाघर में ऐसी गम्भीर फिल्म के दर्शक बहुत ज्यादा नहीं होते। धोखे से कुछ आ भी गये तो जल्दी चले जाते हैं, कई बार निस्तब्धता में खर्राटों की आवाज भी सुनायी देती है। फिर भी सिनेमा में बुनी गयी कथा, उसके साथ किया गया, कलात्मक और तकनीकी बरताव, गीत-संगीत, यहाँ तक कि पाश्र्व संगीत और कलाकारों का अभिनय आदि इतने सब के साथ जो फिल्म देखना चाहते हैं उनको यह फिल्म एक हद तक बांधती है।
निर्देशक रिभु दासगुप्ता, सुजाॅय घोष के शिष्य हैं। सुजाॅय जिन्होंने कहानी फिल्म बनायी थी, रिभू को एक बड़ा चैलेन्ज देते हैं। रिभु इसके पहले युद्ध धारावाहिक कर चुके हैं।
अमिताभ बच्चन और नवाजउद्दीन के साथ वे सूझबूझ के साथ काम करते हैं। नवाज का किरदार अमिताभ बच्चन के दृश्य और संवादों के बीच बहुत ज्यादा अर्थपूर्ण नहीं हो पाता लेकिन अलग से उनके दृश्य अच्छे हैं। बेडौल होती विद्या बालन एक अच्छी पुलिस इन्सपेक्टर भी साबित नहीं हो पातीं, यह अनेक बार दिखायी देता है। रिभु ने बंगला सिनेमा के सब्यसाची मुखर्जी और दक्षिण से पद्मावती राव को लिया है। इधर हिन्दी सिनेमा के दर्शकों के लिए ये चेहरे उतने परिचित न हों पर गुणी कलाकार हैं। अमिताभ बच्चन जिस तरह से इस फिल्म में दिखायी देते हैं, ऐसा लगता है कि पूरी पटकथा को उनको ही केन्द्र में रखकर लिखा गया है। निर्देशक-निर्माता की पहले ही यह स्वीकारोक्ति ईमानदार है कि उन्होंने कोरियन फिल्म मोंताज को इस रूप में बनाया है बजाय इसके कि खोजी समीक्षक यह बात कहीं से ढूँढ़कर लिखा करें।
अमिताभ बच्चन की पूरा व्यक्तित्व कैमरे की खासी पहुँच के कारण उस उम्र को प्रकट करता है, जितने के वे हैं, वे अपनी उम्र के विपरीत हौसले का परिचय देकर बहुत ज्यादा आकृष्ट करते हैं। किरदार पर की जाने वाली मेहनत का कुछ बार प्रत्यक्षदर्शी मैं भी हूँ, लगता है कि कैसे एक वृद्ध आदमी, एक गहरी व्यथा मन में लिए अपने आसपास से जूझ रहा है, आठ साल से पुलिस स्टेशन रोज जा रहा है, सुराग मिलने पर कब्रिस्तान दो महीने से रोज चक्कर लगा रहा है, सरकारी दफ्तरों में जाकर परिणाम प्राप्त करने की कोशिश हैं। इन सबके बीच में बाबू तंत्र, काम टालने की प्रवृत्तियाँ, फरियादी को चक्कर लगवाने का शगल और अन्य सामाजिक-व्यवहारिक व्याधियाँ भी इस फिल्म में देखने को मिलती हैं। फिल्‍म में अमिताभ का सड़क पर स्‍कूटर पर होना, पीछे नवाज के साथ एक जगह से दूसरी जगह जाने के दृश्‍य उल्‍लेखनीय हैं। उल्‍लेखनीय यह भी है कि नातिन के कातिल को तलाशते हुए वे दुखी, हारे-थके और व्‍यथा से भरे दीखते हैं मगर जब वे कातिल के नाती को अपहरित कर उसके साथ खेल रहे होते हैं तो नवाज से बातचीत करते हुए उनका विजयी सा व्‍यक्तित्‍व अलग ही दिखता है, यहाँ वे उस तरह से शिथिल या दीनहीन नहीं दिखायी देते।
निर्देशक और उसका सिनेछायाकार तुषार कांति रे बखूबी अपनी कथा को स्‍थानों और दृश्‍यों में सार्थक करते हैं। कोलकाता है तो वहाँ का परिवेश है, पुराने से पुराने और अजाने स्थानों का प्रकट और प्रतीक दीखता है, ट्राम हैं तो उनके पुराने डिपो हैं जिनको पुराने वृक्षों की जड़ों ने जकड़ रखा है। पाश्र्व संगीत की अपनी ट्यून है, जितना जरूरी है, उतना ही, मुम्बइया कर्कशाँय नहीं। इन सबके बावजूद पटकथा के स्तर पर काम स्थूल जान पड़ता है। मध्यान्तर के पहले का भाग अधिक लम्बा हो गया है, रहस्य भी देर तक रहस्य नहीं रह पाता इसीलिए सवा दो घण्टे की फिल्म भी बड़ी लगती है। इन सबके बावजूद फिल्म को देखा जाना चाहिए। वो सिनेमा जो मेहनत से किया गया हो, उस तक जाना अच्छे दर्शक का फर्ज भी है, यही...................

।। लिखे-बोले के प्रूफ़।।



उस रात जब नींद नहीं आ रही थी, तब पड़े-पड़े मैं यही सोचता रहा कि लिखे हुए पैराग्राफों और कम्पोज़ की हुई कितनी ही किताबों के प्रूफ़ पढ़ने में अपनी दक्षता हासिल करने के बाद भी बहुत सी बातें मैं खुद न समझ पाया। जब नया-नया सीखा था तब प्रायः गल्तियाँ छूट जाया करती थीं। उन छूटी हुई गल्तियों को मुझे बड़े पकड़ लिया करते थे जो स्वाभाविक रूप से मुझसे ज़्यादा ज्ञानी थे। वे मुझे उन गल्तियों का एहसास कराया करते थे। अधिकतर तो मेरे साथ यही हुआ कि जब-जब गल्तियाँ चिन्हित हुईं, मुझे उन्होंने इंगित करते हुए यही बताया कि इस सही शब्द का ज्ञान तुम्हें अब हो जाना चाहिए और अगली बार जब यह शब्द तुम्हारी निगाह से गुजरे तब सही-सही ही जाये। मैं एक तरह से, इसे अपने बच जाने का एक अवसर ही माना करता था। हाँ लेकिन वह भी सोच लिया करता था कि अब की बार यह शब्द उस ही सच की तरह जायेगा जैसा बता दिया गया है। अगर नहीं गया तो शायद लज्जित होना पड़ेगा।

कुछ डर कह लीजिए और कुछ अपने लिए सबक भी कह सकते हैं कि धीरे-धीरे वे गल्तियाँ सुधारता गया जो किया करता था। तब मैं यह भी सोचता था कि जिस तरह से जानकार और मेरी गल्तियों पर पेंसिल रखकर जताने वाले मुझे सही का ज्ञान कराया करते हैं, जब मैं इन सब बातों को अच्छी तरह समझने लगूँगा और फिर मुझे किसी की गल्ती जाँचने का मौका मिलेगा तो मैं भी इसी तरह उन्हें चिन्हित करूँगा और जिससे गल्ती हुई होगी, वह आगे चलकर उन्हें ठीक करने के अवसर पाये, इतनी उदारता रखूँगा।

यह भी कहने की बात ही है कि एक समय बाद वह दौर भी आ गया। पढ़ा हुआ इस बात का भी प्रूफ़ होता था कि कोई सी भी प्रूफ मिस्टेक नहीं है। लेकिन इधर यह भी देखने का बोध नहीं हो पाया कि अपने कहे-बोले में कितने प्रूफ सुधार की गुंजाइश है? बरसों ही बीत गये, कहिए तब यह बात प्रश्नवाचक चिन्ह लगाकर लिख पा रहा हूँ। ऐसा लगता है कि जीवन में प्रूफ की गल्तियाँ कभी भी हो जाया करती हैं। समय के साथ मैं यह उदारता बरत रहा हूँ कि छपे हुए में प्रूफ की भूलों को देखकर कुछ नहीं कहता। एकाध बार इस तरह का उत्तर मिला कि मैंने देखा तब सही था या सही तो लिखा था, पता नहीं कैसे हो गया? अबोध उत्तरों पर यही लगा कि व्यवहार में अब इसकी बहुत जरूरत नहीं रह गयी है। प्रूफ़ की भूलों से तैयार छपे हुए का भी स्वागत किया जाना चाहिए। 

देखता हूँ कि अब अपनी ज़िन्दगी में सब लिखे, अधलिखे फलसफों के प्रूफ ठीक से देखे जाना चाहिए। बहुत जल्दी हुआ करती है लिखने की, पन्नों को भरते रहने की और पता नहीं इसी में शब्दों का हिसाब-किताब गलत हो जाता है। हिसाब-किताब शब्द का अर्थ गुणा-भाग सा नहीं है, ज़ाहिर है पर मन करता है, फिर जैसे पन्ने उलटने की कोशिश करूँ। अब तक सारी आपाधापी पन्ने पलटने की रही है। मन करता है कि ठहर जाऊँ और पलटना बन्द करके, पन्ने लिखने के बजाय पन्ने उलटकर ध्यान से प्रूफ देखूँ। व्यवहार और चलन दोनों के ही इस बदल चुके ज़माने में उन सारी पटरियों को, जितना बन सके, दूर तक देख लेना चाहता हूँ, मुड़ने के बाद जिनका पता नहीं चलता। मुझे मोड़ के पश्चात उस अदृश्य से घबराहट महसूस होती है। 

रात गहराती है, वे पंछी अपनी आवाज़ से भ्रम पैदा करते हैं जो सुबह-सुबह आकाश में उड़ते हुए अपने पुरुषार्थ को समूह में जाया करते हैं। भौंकते हुए कुत्ते अचानक रोने लगते हैं, उनके रूदन पर न गुस्सा आता है और न ही डर लगता है। नींद में ही समझने की कोशिश करता हूँ कि वे जरूर पीड़ा महसूस कर रहे होंगे, असहृय पीड़ा जिस बर्दाश्त न कर पाने के कारण वो रो रहे हैं....................

शुक्रवार, 10 जून 2016

अपने हिस्से का सच

अपने हिस्से का सच बताना मुश्किल होता है। कहना मुश्किल है कि कई बार या हमेशा ही पर मुश्किल तो होता है। अपने हिस्से का स्वार्थ छुपाया नहीं जाता, अपने हिस्से की नफरत छुपायी नहीं जाती, अपने हिस्से का प्रेम छुपाया नहीं जाता, अपने हिस्से की ईष्र्या छुपायी नहीं जाती, बहुत कुछ ऐसा जो अपने हिस्से का प्रकट हो ही जाया करता है। पता नहीं क्यों बिना कहे अपने हिस्से का झूठ जाना जाता है, सच जाने, जाने से रह जाता है। स्वप्न अक्सर आधे रास्ते में छोड़ दिया करते हैं। नींद कई बार नहीं आती। नींद का आधा होना कौन जानता होगा? नींद का टूटना और फिर न आना सब जानते हैं। अधूरी इच्छाएँ और कामनाएँ लिए हम नींद की खोह में चले जाते हैं। नींद में हमारे लिए वही स्वप्न रचे रखे रहते हैं जो साकार के प्रतिपक्षी हैं फिर भी हमें स्वप्न चाहिए। बिना स्वप्न के नींद व्यर्थ है। स्वप्न जीवन को सिलसिला देते हैं और जीवन स्वप्न को बार-बार नींद में आने का अवसर। जागते हुए दिन में हम मन के सन्दूक से बहुत सा मस्तिष्क के सन्दूक में और मस्तिष्क के सन्दूक से बहुत सा मन के सन्दूक में उठाया-धरा किया करते हैं। हमारी चेष्टाएँ नींद के साथ ही मूच्र्छित हो जाया करती हैं। उसके बाद हम स्वप्नकथाओं में अपने आपको ही घटित होते देखा करते हैं। देखे हुए स्वप्न अधूरे सिनेमा की तरह होते हैं और बहुत दिनों तक उत्तरार्ध की बाट जोहते हुए हम नींद की खोह में जाया करते हैं पर हमारे हाथ एक और अधूरा सिनेमा लगता है। कई बार समझ में आता है कि नींद से जागना और उठना दो अलग-अलग स्थितियाँ हैं। हम जागे होते हैं मगर उठे नहीं होते, प्रायः हम उठ गये होते हैं पर कितने जागे हैं, यह पता नहीं चल पाता। सच इन सारी चेष्टाओं के बीच एक अन्तहीन धागा है जिसे हम विश्वास रूपी एक विराट बरगद के तने पर जीवनभर लपेटकर परिक्रमा सी किया करते हैं अपने को साबित या प्रमाणित किया करने की। न तो धागा खत्म होता है और न ही परिक्रमा। अपने हिस्से का सच अनन्तकाल तक अव्यक्त ही बना रहता है.......................