मंगलवार, 26 जुलाई 2016

सुभाष घई का सिनेमा और दृष्टि

सुभाष घई को अभिनय का शौक था। मुझे याद है मैंने उनकी खलनायक की भूमिका वाली एक फिल्म नाटक 1975 में देखी थी। इस फिल्म के हीरो विजय अरोरा थे और हीरोइन मौसमी चटर्जी। जिन्दगी एक नाटक है, हम नाटक में काम करते हैं.....यह गाना भी इन पंक्तियों को लिखते हुए याद आता है। कुछेक छोटी-मोटी भूमिकाओं के बाद घई ने यह तय पाया कि वे अभिनय में सफल नहीं हो पायेंगे। बाद में निर्देशक के रूप में उनका सक्रिय होना सफल रहा। कालीचरण से लेकर कांची तक फिर उनकी एक लम्बी यात्रा है जिसमें राजकपूर के बाद दूसरे बड़े शोमैन का रुतबा भी उनको हासिल हुआ है।

सुभाष की निर्देशक के तौर पर सफलता उनको अपने समय का एकछत्र साम्राज्य भी दिलाती है। वे कालीचरण के बाद विश्वनाथ, गौतम गोविन्दा, कर्ज, क्रोधी, विधाता, हीरो, कर्मा, रामलखन, सौदागर, खलनायक, त्रिमूर्ति, परदेस, ताल आदि फिल्में बनाते गये और विस्तार लेते गये। सुभाष घई ने सचमुच सिनेमा में निर्देशक के वजूद का एहसास कराया। सशक्त फिल्में, सफल फिल्में, अनेक अभिनेत्रियों माधुरी, मनीषा, महिमा और अभिनेता जैकी श्राॅफ के गाॅडफादर की तरह वे जाने गये। हालांकि बाद में उनका करिश्मा कम हुआ। किसना टाइप फिल्में याद आती है लेकिन एक अच्छी फिल्म ब्लैक एण्ड व्हाइट उन्होंने निर्देशित की। युवराज में हीरो, कर्मा, रामलखन और सौदागर सा चमत्कार नहीं हुआ और कांची बिल्कुल पटरी से उतरी फिल्म।

सुभाष घई सचमुच में निर्देशकों के बीच एक शख्सियत हैं। इधर अन्तराल उनके हाथ से सफलता की पकड़ छुटाता चला गया है। कांची की पटकथा और संवाद ऐसे प्रतीत हुए जैसे सेट पर ही तय कर करके फिल्म शूट करते चले गये हों। खैर, सुखद है कि वे अगली फिल्म के बारे में सोच रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि नयी फिल्म पर उनकी पकड़ उनके स्वर्णिम इतिहास का अगला पड़ाव साबित होगी.............

भव्यता, प्रस्तुतिकरण, बंधे-सधे हुए दृश्य और संगीत की अनूठी समझ और दृष्टि उनकी खूबी है। उनकी फिल्मों में नायक-नायिका ही सब कुछ नहीं होते बल्कि चरित्र अभिनेताओं पर भी वे अधिक ध्यान देते हैं, यही कारण है कि दिलीप कुमार, राजकुमार, संजीव कुमार, शम्मी कपूर, अमरीश पुरी, सुषमा सेठ, सतीश कौशिक, अनुपम खेर, प्रेमनाथ, प्राण आदि के चरित्र खूब उभरकर सामने आये हैं। वे अपनी फिल्मों में जज्बाती दृश्यों, रसूखदार और अमीर किस्म के अहँकारी किरदारों, कुटिल, धूर्त और छलछिद्री रिश्तेदारों के चरित्र भी बखूबी पेश करते हैं। सुभाष घई की फिल्मों में प्रेम, रिश्ते-नाते, भावनाओं का प्रकटीकरण ऐसा होता है कि आपका हृदय सजल हो जाये। ये बातें युवराज फिल्म तक बखूबी आयी हैं। वे अपनी फिल्मों में अपने अभिनेता को कम से कम एक दृश्य का हिस्सा बनने से नहीं रोक पाते, यह भी उनकी खूबी है।

सुभाष घई हमारे हिन्दी सिनेमा के निर्देशकों में उन चन्द प्रमुख फिल्मकारों में से हैं जिनसे सिनेमा, सिनेमा के सितारे नियंत्रित होते हैं और वह भी उनकी शर्तों, उनके अनुशासन और उन पर विश्वास करते हुए..................

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शनिवार, 23 जुलाई 2016

रंगों के रसिक थे सैयद हैदर रजा



रजा साहब का जाना मध्यप्रदेश में जन्मे, अपनी मातृभूमि को बेहद प्यार करने वाले एक ऐसे संवेदनशील कलाकार की विदाई है जिन्होंने बड़ी ही छोटी उम्र से जीवन की सूक्ष्मताओं और भावनाओं को बड़े महीन एहसासों के साथ ग्रहण किया। उनसे कुछ वर्ष पूर्व भोपाल में एक लम्बी मुलाकात में बहुत सी बातों को सुनने और जानने का मौका मिला था। उस समय करीब 86 की उम्र में भी जिस तरह से वे बात कर रहे थे, सचमुच लग रहा था कि अपनी मिट्टी के नजदीक बने रहने वाला इन्सान दुनिया में कहीं भी चला जाये, मिट्टी से छूटता नहीं।

रजा साठ साल से ज्यादा पेरिस में रहे लेकिन साल में एक बार हिन्दुस्तान, मध्यप्रदेश और अपनी जन्मभूमि बावरिया, नरसिंहपुर, मण्डला, शिक्षास्थली दमोह के निकट तक जाना, वहाँ की मिट्टी को माथे से लगाना उनका छूटता नहीं था। उन्होंने बताया था कि कैसे नर्मदा के आसपास विंध्याचल और सतपुड़ा के प्राकृतिक सौन्दर्य ने बचपन को एक अलग ही अनुभूतियों में ढालने का काम किया। रजा साहब को अपने मास्टर बेनीप्रसाद स्थापक याद रहे जो हिमालय के आश्रम में जाते थे तो लौटकर प्रकृति और जीवन के बारे में बताते।

रजा किशोर अवस्था में ड्राइंग बनाते थे, तारों को पर्वतों को देखकर। उनके शिक्षक दरियाव सिंह राजपूत उनकी ड्राइंग की बड़ी प्रशंसा करते थे। आगे चलकर वे नागपुर गये जहाँ वे अपने गुरु बापूराव आठवले को कभी भूल न पाये। रजा कहते थे कि युवावस्था में मेरा दिमाग उतना जाग्रत नहीं था जितना हृदय। गांधी जी की बात वे बताते थे, बुद्धि तो हृदय की दासी है। रजा साहब अपने अध्यापकों, गुरुजनों के प्रति जितना कृतज्ञ होते थे वह बात अनूठी है।

रजा साहब को चित्र और कविता दोनों ही का समान रुझान रहा है तथापि वे ख्यात एक बड़े चित्रकार के रूप में हुए। उनके घर में कवि गोष्ठी और शायरी की सभाएँ होती थीं। मैथिलीशरण गुप्त, सुमित्रानंदन पन्त की कविताएँ उनको स्मरण रहीं। वे भगवद्गीता से लेकर आचार्य विनोवा भावे को लेकर बहुत बातें किया करते थे। रजा साहब की सृजन यात्रा नागपुर से जे जे स्कूल आॅफ आर्ट्स मुम्बई और अपने समकालीन कलाकारों आरा सूजा, बाकरे, गाडे सबके साथ मिलकर एक ग्रुप भी बनाया। उनका फ्रांस जाना यहीं से हुआ।

रजा ने बताया था कि फ्रांस में अनेक वर्ष रहते हुए कला पर व्यापक विचार के अवसर मिले लेकिन मुझे अपने बचपन के गुरु जड़िया जी का स्मरण हो आया तब मैंने बिन्दु को अपना मूलमंत्र बना लिया। बिन्दु की सम्भावनाएँ, विसर्ग, प्रकृति पुरुष की अवधारणा, मेरा मण्डला। भारतीय संस्कृति, चित्रकला, मूर्तिकला को समझने की कोशिश की। नंदलाल जड़िया, अपने गुरु को आदर देते हुए वे बिन्दु पर गहन एकाग्र हुए। रजा ने बिन्दु सीरीज के चित्रों में स्याह-सफेद के बाद रंगों का प्रयोग किया। बताया था, क्षिति जल पावक गगन समीरा, ये पंचतत्व, भारतीय संस्कृति। मेरे चित्रों में पाँच रंग, मेरा संसार पाँच रंगों का, क्यों न इनको ही मैं अपना पंचतत्व बना लूँ? मैंने ऐसा किया। कुछ समय बाद सबको यह पसन्द आने लगा।

सैयद हैदर रजा को वर्ष 1992-93 में रूपंकर कलाओं के क्षेत्र में राष्ट्रीय कालिदास सम्मान प्रदान किया गया था। उस्ताद अलाउद्दीन खाँ संगीत अकादमी में अपनी सहभागिता से उन्होंने कविता और पेंटिंग के क्षेत्र में रजा पुरस्कारों की स्थापना की पहल भी की। उनको पद्मश्री, पद्मभूषण एवं पद्मविभूषण अलंकरण भी प्राप्त हुए। दुनिया के अनेक देशों और हिन्दुस्तान के अनेक कला संग्रहालयों में उनकी कलाकृतियाँ संग्रहीत हैं। नईदिल्ली में रजा फाउण्डेशन उनकी स्थापना है।

रजा को भारतीय संस्कृति और परम्परा पर गर्व रहा है। रजा वास्तव में ऐसे कलाकार थे जिनको रंगों का रसिक कहा जा सकता है। इस बात को उन्होंने स्वयं भी कहा था। रंग, कविता और संगीत मिलते-जुलते हैं। वे कहते थे कि भारतीय संस्कृति शताब्दियों से उपस्थित है। मूर्ति में, कला में, गुफाओं में, पहाड़ों में इसका दर्शन होता है। हमारे मन्दिरों में, हमारे घरों में, हमारी परम्पराओं में भी। वे कहते थे कि प्रत्येक भारतीय को इसका बोध होना चाहिए, केवल कला ही नहीं पत्रकारिता, कविता, तकनीक, आॅफिस में काम करने वाले, राजदूत, सरकार के लोग सबकी जिम्मेदारी देश की संस्कृति को आगे बढ़ाना है। यह आवश्यक है क्योंकि भारतीय संस्कृति महान है।

कुछ वर्ष पूर्व एक आत्‍मीय बातचीत को याद करते हुए श्रद्धां‍जलि.

Keywords - sayed haider raza : a tribute by sunil mishr.............rangon ke rasik the raza.... रंगों के रसिक थे सैयद हैदर रजा - सुनील मिश्र

बुधवार, 20 जुलाई 2016

मुबारक बेगम की याद


एक बड़े समाचार पत्र के प्रथम पृष्ठ पर मुबारक बेगम के नहीं रहने की मुकम्मल खबर थी। खबर थी जिसमें उनके अन्त समय की त्रासद स्थितियों का वर्णन था और इस बात का उल्लेख भी कि कितने कष्ट और मुसीबत में उनका परिवार था। आर्थिक कठिनाइयों ने उनका जीवन दुरूह कर दिया था जिसकी परिणति अन्ततः उस यथार्थ के रूप में जिसे मन अमान्य करता है पर सच में स्मृति ही तो शेष है। मुबारक बेगम के जाने से सबकी स्मृतियाँ पीछे दौड़ पड़ीं। हमारी याद आयेगी से लेकर मुझको अपने गले लगा लो ऐ मेरे हमराही..............अब ये गाने ही हमारी याद हैं। पहले गाहे-बगाहे कोई उनकी चिन्ता करते हुए अखबार में लिख देता था तो कुछ संवेदनशील चाहने वाले क्षमताभर मदद कर दिया करते थे। अब वे नाते भी न रहे। 

फिल्म डिवीजन ने कुछ वर्ष पहले मुबारक बेगम पर एक लघु फिल्म बनायी थी, लगभग 25 मिनट अवधि की। आज मुझे उस फिल्म की बड़ी जरूरत लगी, खूब देखने का मन किया मगर कहीं न मिली तब फिल्म प्रभाग मुम्बई के अपने अधिकारी मित्र को फोन कर के मैंने उनसे आग्रह किया कि वे इसे जरूर यू-ट्यूब पर प्रस्तुत करें। दरअसल इस समय उनको याद करने वाले, इस फिल्म को भी देखकर भावुक होंगे। बड़े-बड़े कलाकारों का संध्याकाल ऐसा ही हृदयविदारक हुआ करता है जब हमारा निष्ठुर पास-पड़ोस पहचानना बन्द कर दिया करता है। साथ काम करने वालों के पास वक्त नहीं होता। कुछ दूरियाँ तो भौगोलिक होती हैं और बड़ी दूरियाँ मन की। रिश्ते-नाते ऐसे ही निर्मम वर्तमान की भेंट चढ़ जाया करते हैं। 

मुबारक बेगम शिक्षित नहीं थीं लेकिन उनमें ग्राहृय करने की क्षमता, याद कर लेने की क्षमता असाधारण थी। वे अपने गाने बड़े आत्मविश्वास से रेकाॅर्ड करवाया करती थीं। उनके गाये गाने मिसाल हैं, भले ही कम हों। उनका योगदान असाधारण है भले ही बड़ी स्पर्धाओं और पक्षपात में रेखांकित न हो पाया हो। मुबारक बेगम का जाना, हमारे समय से, हमारे सिनेमा से उस तीखी आवाज़ की विदाई है जो कान से होती हुई हृदय में नर्म वेग से पहुँचती थी और हृदय से शिराओं में हमारे खून के संग-संग। दुख और पछतावे से हम इसलिए भी उनको याद कर सकेंगे कि हमने उनकी फिक्र न की...............

Keywords - mubarak begum : a tribute by sunil mishr.............hamari yad aayegi.....  मुबारक बेगम की याद........हमारी याद आयेगी...........मुझको अपने गले लगा लो, ऐ मेरे हमराही..............सुनील मिश्र

मंगलवार, 19 जुलाई 2016

फिर आग बिरहा की मत लगाना

संगीतकार रोशन की जन्‍मशती - 14 जुलाई 2016 - 2017


हिन्दी सिनेमा का इतिहास सौ साल पार कर गया है। हमारे सामने देखते ही देखते ऐसे गुणी कलाकारों की जन्मशताब्दी का वह समय भी आता चला जा रहा है जब हम उनको बीसवीं सदी की सबसे चमत्कारिक विधा में उनके अविस्मरणीय योगदानों के लिए याद कर सकते हैं। यह ऐसे समय में और महत्वपूर्ण और रचनात्मक दृष्टि से अपरिहार्य लगता है जब हमारे आसपास समकालीन के ही विस्मरण का एक अजीब सा, संवेदनात्मक दृष्टि से यदि कहें तो निर्मम सा सिलसिला चल पड़ा है जब आज को आज की खबर नहीं है। ऐसे में एक बड़े संगीतकार रोशन music director roshan को कैसे याद किया जायेगा, जब उनकी जन्मशताब्दी का साल 14 जुलाई से शुरू हो रहा हो। रोशन का याद आना एक बार फिर से अपने समय की उन महत्वपूर्ण फिल्मों का उनकी समग्रता में याद आना है जिसमें उन्होंने संगीत दिया था। रोशन सरोकारों और विशिष्टताओं में कुछ खास गुणों के साथ जाने, जाने वाले संगीतकार थे जिनके समय सिनेमा में बेशक एक से एक श्रेष्ठ संगीतज्ञों के योगदान ने एक स्वस्थ किस्म की स्पर्धा खड़ी की थी लेकिन उनके बीच रोशन का रास्ता भी उजासभरा था। 

कुछ समय पहले ही उनके गुणी बेटे और अब तक के समय के शायद आखिरी मौलिक संगीतकार राजेश रोशन rajesh roshan से कुछ मुलाकातें हुईं हैं। अपने पिता के बारे में उन्होंने कहा था कि बेहद सादगी, मैत्रीपूर्ण व्यवहार और बिना किसी नाज-नखरों अथवा आवश्यकताओं की मांग किए बिना ही पिताजी को श्रेष्ठ रचने का शगल था। वे अपनी धुनों, अपनी रचनाओं को अन्तिम निर्णय पर तब तक नहीं ले जाते थे जब तक उनके पाश्र्व गायक और वे कलाकार जिन पर उनके गीत फिल्माये जाने हैं, उनके साथ अनेक बैठकें नहीं हो जाती थीं और वे परस्पर सन्तुष्ट नहीं हो जाते थे। रोशन को विविध वाद्यों, विशेषकर दुर्लभ वाद्यों के साथ काम करने की चुनौतियाँ उठाने में बहुत आनंद आता था। वे स्वयं इसराज बहुत अच्छा बजाते थे। चालीस के दशक में भातखण्डे संगीत संस्थान लखनऊ में उन्होंने इस साज को साधने की तालीम ली थी और अपने आपको परिष्कृत भी किया था। उस समय के उनके गुरु पण्डित श्रीकृष्ण नारायण रातजनकर जो कि भातखण्डे के प्रमुख थे, उनसे बहुत प्रभावित रहते थे। 

रोशन का पूरा नाम रोशनलाल नागरथ roshanlal nagrath था। पंजाब के गुजरांवाला में उनका जन्म 14 जुलाई 1917 को हुआ था। संगीत के प्रति उनका लगाव शुरू से था, इसका कारण उनके परिवेश का आंचलिक संगीत था। धीरे-धीरे उनकी शास्त्रीय संगीत के प्रति भी गहरी रुचि बनती गयी। ऐसे समय में जब कला के विस्तार के लिए अपने आसपास के विश्व में रेडियो और सिनेमा दोनों का ही आकर्षण संगीत और अभिनय में रुचि रखने वाले युवा के लिए खासा आकर्षण रखता हो, रोशन को लखनऊ का मार्ग अपने लिए ज्यादा उपयुक्त लगा और वहीं से उनकी आगे की यात्रा मुम्बई की ओर होती है। उनको आॅल इण्डिया रेडियो नई दिल्ली में संगीतज्ञ के रूप में काम कर रहे ख्वाजा खुर्शीद अनवर की शागिर्दी भी हासिल हुई जो दरअसल मुम्बई की ओर रुख करने में अनुसरण बनी। रोशन को राजकपूर के गुरु किदार शर्मा एक प्रोत्साहक और यथापूरक भगीरथ की तरह मिले। इसके बाद रोशन की अपनी यात्रा अनेक उतार-चढ़ावों भरी है। 

एकाध फिल्म में छोटे-मोटे किरदार करते हुए वे अपने आपको एक संगीतकार के रूप में बड़ी मेहनत से साबित करने धीरे-धीरे कामयाब हुए। उनकी आरम्भिक फिल्में बावरे नयन, मल्हार, हम लोग, नौबहार, बाप बेटी, चांदनी चैक, बराती, घर घर में दिवाली, दो रोटी, अजी बस शुक्रिया, हीरा मोती से उनको काम करने की निरन्तरता तो मिली लेकिन इतनी फिल्मों में काम करने के तजुर्बे के बाद वह सब बड़ा सुखद और चकित कर देने वाला आया जब उनकी फिल्म बरसात की रात प्रदर्शित हुई। जिन्दगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात और न तो कारवाँ की तलाश है न तो हमसफर की तलाश है जैसे गानों ने जब धूम मचायी तब लोगों ने उसके पीछे संगीत रचयिता रोशन को लाना। इन गीतों के सफल होने के बाद ही दर्शकों को फिर नौबहार में लता मंगेशकर से उनका गवाया गीत, ऐ री मैं तो प्रेमदीवानी मेरा दरद न जाने कोय याद आया। भारतीय दर्शकों के मन-मस्तिष्क में रोशन एक सम्भावनाभरे संगीतकार के रूप में दर्ज हुए। न तो कारवाँ की तलाश है एक लम्बी कव्वाली थी और बाद में रोशन इस बात के लिए भी ख्यात हुए कि उनसे बेहतर कव्वाली कोई और संगीत-संयोजित नहीं कर सकता।

रोशन की ही एक फिल्म आरती का मीना कुमारी पर फिल्माया गीत, कभी तो मिलेगी कहीं तो मिलेगी, बहारों की मंजिल राही लता मंगेशकर के स्वर का एक अविस्मरणीय गीत है जिसका फिल्मांकन और संगीत रचना कमाल की है। बाद में उन्होंने सूरत और सीरत, ताजमहल, दिल ही तो है, चित्रलेखा, नयी उमर की नयी फसल, भीगी रात, बेदाग, ममता, देवर, दादी माँ, बहू बेगम, अनोखी रात आदि फिल्मों की भी संगीत रचना की। वे अपने समय के सभी श्रेष्ठ गायक-गायिकाओं के साथ काम करते थे जिनमें लता मंगेशकर, आशा भोसले, हेमन्त कुमार, मुकेश, मोहम्मद रफी आदि। सभी से उनका अपनापा था, इसलिए भी क्योंकि वे तटस्थ थे और अपने काम के अलावा व्यक्तिगत रागद्वेष और खेमों से दूर रहा करते थे। राजेश रोशन अपना बचपन याद करके बताते हैं कि हम बहुत छोटे थे, घर में उस समय एयरकण्डीशन या कूलर की स्थितियाँ नहीं थीं। छत पर पंखा रहता था और पिताजी कलाकारों के साथ रियाज और अभ्यास में दिन-रात एक कर दिया करते, बिल्कुल पसीने से लथपथ और बड़ी बात यह भी कि बैठक में सहयोगी कलाकार भी उतना ही सहयोग करते और उदारतापूर्वक अपेक्षा किए जाने पर हर समय आ जाया करते। 

न तो कारवाँ की तलाश है कव्वाली के जिक्र के समय यह बात आयी थी कि रोशन कव्वाली तैयार करने में बड़ी दिलचस्पी लेते थे। दिल ही तो है फिल्म में निगाहें मिलाने को जी चाहता है की बात इससे जुड़ती है। उनकी अनेक फिल्में ऐसी हैं जिनके गाने हमारी संवेदना को सीधे जाकर छूते हैं। ताजमहल, जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा या पाँव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी, प्रेम में वचन के निबाह और पैरों की नजाकत को फूलों से बढ़कर ठहराते हैं। चित्रलेखा का गाना मन रे तू काहे न धीर धरे, शास्त्रीय राग पर आधारित है वहीं अनोखी रात के गाने ओह रे ताल मिले नदी के जल में गहरा दार्शनिक, खुशी खुशी कर दो विदा गहन उद्वेलन से भरा भावपूर्ण गाना है। देवर में आया है मुझे फिर याद वो जालिम गुजरा जमाना बचपन का, बहारों ने मेरा चमन लूटकर, दुनिया में ऐसा कहाँ सबका नसीब है भावपूर्ण और मन को गहरे छू लेने वाले गाने हैं। असित सेन निर्देशित फिल्म ममता में उनके गाने छुपा लो यूँ दिल में प्यार मेरा और रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह प्रेम की महानता और अनुभूतियों के चरम उत्कर्ष के गाने हैं। रोशन ऐसे गीतों का संगीत रचकर आज भी अमर संगीतकार की तरह याद आते हैं।

राजेश रोशन rajesh roshan अपने पिता को याद करते हैं तो स्मृतियों में बड़े पीछे जाते हैं। वे लगभग दस-बारह वर्ष के रहे होंगे जब रोशन साहब का पचास वर्ष की उम्र में निधन हो गया था। उन्होंने अपने पिता को अपनी चेतना में बहुत सक्रिय और धुनी स्वरूप में देखा था। बड़े भाई पहले नायक और बाद में निर्देशक बने लेकिन राजेश रोशन ने संगीत निर्देशक ही बनना चाहा। वे बताते हैं कि भैया राकेश रोशन भी संगीत की गहरी समझ रखते हैं, यह पिता का ही संस्कार है और यही कारण है कि उनकी फिल्मों का संगीत तैयार करते हुए मेरे उनसे रचनात्मक द्वन्द्व खूब चलते हैं लेकिन श्रेष्ठता के धरातल पर हम आकर एक हो जाते हैं। अपने पिता के योगदान को राजेश रोशन कृतज्ञतापूर्वक याद करते हैं और कहीं न कहीं अपने आपको गहरी अन्तरात्मा के साथ मौलिकता और माधुर्य के गुणों का बोध बनाये रखने के पीछे पिता के संस्कारों का स्मरण करते हैं। संगीतकार रोशन की आभा रोशनी को उनके अभिनेता और निर्देशक बेटे राकेश रोशन और पोते हि‍ृतिक रोशन ने और समृद्ध किया है। राजेश रोशन का संगीत आज भी जीवन की लय और माधुर्य की असीम अनुभूतियों का अनूठा साक्ष्‍य और उदाहरण माना जाता है।

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रविवार, 10 जुलाई 2016

सुल्तान (Film Review : Sultan)



अली अब्बास जफर (Ali Abbas Zafar) ने लम्बे समय यशराज फिल्म्स में सहायक निर्देशकी की है। उनको शाद अली, संजय गढ़वी और विजय कृष्ण आचार्य के साथ काम करने का लम्बा अनुभव है। मेरे ब्रदर की दुल्हन और गुण्डे उनको स्वतंत्र रूप से निर्देशित करने को मिलीं और सुल्तान (Sultan) उनकी तीसरी फिल्म जिसके लेखक, पटकथाकार, संवाद लेखक और निर्देशक वे हैं। बाजार देखकर कहें तो फिल्म सफल है, सबसे लम्बा सप्ताहान्त फिल्म को मिला है। आकलन करें तो अनेक खूबियों के साथ एक बेहतर फिल्म है। सम्पादन के स्तर पर और सम्हाल लिया जाता तो साढ़े तीन अन्यथा तीन सितारों वाली फिल्म है सुल्तान।

यशराज फिल्म्स (Yash Raj Films) के मूल स्वभाव में पंजाब और हरियाणा के परिवेश, वहाँ की बोली-बानी और नैसर्गिकता को किसी फिल्म की पृष्ठभूमि बनाने का चलन शुरू से है। सुल्तान में हरियाणा है। निश्चित रूप से सुल्तान की कहानी और पटकथा तैयार करते वक्त नायक के रूप में सलमान (Salman) तय हो गये थे लिहाजा उसी हिसाब से चरित्र रचा गया है। मनुष्य को जीवन में लक्ष्य किसी न किसी तरह की चोट खाकर ही दिखायी देता है। यहाँ भी नायक के गाल पर नायिका की हथेली है। एक दिलचस्प फिलाॅसफी है, डाॅक्टर की शादी डाॅक्टर के साथ, इंजीनियर की शादी इंजीनियर के साथ तो पहलवान की शादी भी पहलवान के साथ।

सफलता और लोकप्रियता के साथ अपनी जमीन से उखड़ना, टूटना और अहँकार ओढ़ लेना फिल्म का मोड़ है। यहीं पर एक घटना, दुर्लभ श्रेणी का खून न मिलने की समस्या, ब्लड बैंक स्थापित करने के लिए मंत्री की बरसों से भेजी फाइल के लौटकर न आने की विडम्बना। घोर नैराश्र्य के बाद फिर अपनी शक्तियों को संचित करना, जूझना और जीतना फिल्म का सार है। अनिल शर्मा की अपने, राकेश ओमप्रकाश मेहरा की भाग मिल्खा भाग आदि बीच-बीच में याद आती हैं। हमारे यहाँ पूर्णतः मौलिकता हमेशा समस्या है। प्रेरित या प्रभावित किसी से भी हुआ जा सकता है।

देसी पहलवानी से आधुनिक कुश्ती तक एक माहौल फिल्म में है। एक ऐसा खेल जिसका हीरो एक ही होता है जो जीतता है। फिल्म के दो भाग हैं, एक नायिका को पाने के लिए विजेता बनना जिसमें प्रेम और ख्वाहिशें चरम पर हैं दूसरी ओर दोबारा अपनी पत्नी के हृदय में अपना वही स्थान बनाना जिसे खोया जा चुका है। निर्देशक दोनों जगहों पर अपनी क्षमताओं का परिचय देता है लेकिन पहले भाग में उसकी कल्पनाशीलता निखर कर आती है। हालाँकि पतंग लूटने की दक्षता और उसके प्रसंग आवश्यक नहीं लगते लेकिन रखे गये हैं। इसी प्रकार बाद में भी अप्रासंगिक गाने फिल्म के लिए कोई मददगार नहीं होते। जितनी देर नायक नासमझ दीखता है, उतने समय में सुल्तान अपनी खूबियों के साथ स्थापित होता है। पत्रकारों से बात करते हुए पहले और दूसरे भाग के दृश्य और प्रसंग किसी भी लोकप्रिय या प्रतिष्ठित इन्सान के विवेक को जाँचने के लिए काफी हैं। उत्तरार्ध में कुश्ती में जीतने के जुनून और उसमें हर अगले पल के प्रति अनिश्चितता वह रोमांच खड़ा नहीं करती जो फिल्म को सार्थक रूप से अन्त तक ले जाये। उसमें जितनी देर, कैमरे के जितने नजदीक से सलमान की छबि को लिया गया है, उम्र नजर आती है। यदि पहले भाग की खूबसूरत रूमानी कहानी को ही उत्तरार्ध में भी संवेदनशील विस्तार देते हुए समाधान निकाल लिया जाता तो फिल्म यशराज का एक और बड़ा और इस दौर का अच्छा उदाहरण बन जाती। 

सलमान खान, स्वाभाविक रूप से अपने पहले भाग में खूब जँचते और फबते हैं। अंग्रेजी न जानना, अंग्रेजी में की गयी फजीहत को भी अपने लिए पुरस्कार मानकर उसे अपने लिए दोहराना दिलचस्प है। बड़ी उम्र तक जीवन के अर्थ को न समझना, परिवार में बच्चा बने रहना, मोहल्ले और आसपास भी गम्भीरता से न लिया जाना, बहुतों का बचपन रहा है लेकिन यह भी उदाहरण हैं कि अनेक ऐसों को जीवन एक दिन समझ में खूब आया है। इस फिल्म का खूबसूरत पक्ष यह भी है कि इसमें कोई खलनायक नहीं है, गुण्डे नहीं हैं, उस तरह की मारपीट नहीं है। फिल्म को सीधे-सीधे जीवन और लक्ष्यों के साथ-साथ प्रेम और निष्ठा पर केन्द्रित किया गया है। सलमान इन जगहों पर अपनी क्षमताओं का परिचय देते हैं। झूले पर पदक छोड़ आना और आखिरी लड़ाइयों में वह स्मृतियों में कौंधना प्रभावी लगता है। अपने स्पर्धी को पछाड़ने के बाद नमस्कार करके क्षमा मांगना भी दिलचस्प है। अनुष्का शर्मा यशराज कैम्प की नायिका हैं। सलमान पहली बार उनके साथ हैं। उनको एक पहलवान की बेटी और संस्कार में कुश्ती की दक्षता एक अच्छी स्थापना है। वे मेकअपरहित हैं लेकिन भावपूर्ण दृश्यों में अपनी छाप छोड़ती हैं। उनका अपने नायक से रूठना और बड़ी मुश्किल से माफ करना दोनों गहरे हैं। 

यह फिल्म वास्तव में सहयोगी कलाकारों के अच्छे और आश्वस्त काम से और बेहतर लगती है जिसमें अनुष्का के पिता के रूप में कुमुद मिश्रा, सलमान के मित्र गोविन्द के रूप में अनंत शर्मा, छोटी सी भूमिका में परीक्षित साहनी, दोबारा कुश्ती की दुनिया में लेकर आने वाले परीक्षित के बेटे की भूमिका में अमित साध के किरदारों को याद रखना चाहिए। कुमुद मिश्रा का बांदर वाला संवाद दिलचस्प है। फिल्म के गीत इरशाद कामिल ने खूब लिखे हैं। विशाल-शेखर ने संगीत अच्छा तैयार किया है। राहत फतेह अली, सुखविन्दर सिंह, मीका सिंह और स्वयं शेखर का तैयार किया हुआ पाश्र्व गीत खून में तेरे मिट्टी प्रभावित करते हैं। सुल्तान को आॅर्टर जुराव्स्की की सिनेमेटोग्राफी  के लिए भी प्रशंसा की जानी चाहिए। यह पोलिश सिनेछायाकार मर्दानी से रानी मुखर्जी के सम्पर्क में आये और उनको सुल्तान की सिनेमेटोग्राफी मिली। सुल्तान आॅर्टर की कल्पनाशीलता और जोखिमपूर्ण सिनेछायांकन से ही रोमांचक बनी है। रामेश्वर एस. भगत को सम्पादन करने की थोड़ी स्वतंत्रता और मिलती या वे इसे कसी हुई ढाई घण्टे की फिल्म बनाते तो बात कुछ और होती। सलमान के लिहाज से कहें तो अब भी बजरंगी भाई जान उनकी सुल्तान से श्रेष्ठ फिल्म है। जोड़ने की बात यह भी है कि सुल्तान को इसके बावजूद दर्शक दोबारा देखना चाहेंगे अर्थात इस फिल्म की फिलहाल रिपीट वैल्यू भी है...............

Keywords - Sultan-Movie Review, Salman Khan, Anushka Sharma, Kumud Mishra, Amit sadh, Anant Sharma, Irshad Kamil, Vishal-Shekhar, Artur Zurawski, Ali Abbas Zafar Sunil Mishr, सुल्‍तान, आदित्‍य चोपड़ा, अली अब्‍बाास जफर, सलमान खान, अनुष्‍का शर्मा.