शनिवार, 31 दिसंबर 2016

धैर्य-अधैर्य की परीक्षाएँ और आता हुआ 2017

उत्सवधर्मिता हमारा स्वभाव है और उससे चार कदम आगे बढ़कर जश्न हमारा उन्माद। पूर्णता के निकट पहुँचते हुए हमारा धीरज छूटने लगता है, शेष के प्रति हम लगभग आक्रामक हो उठते हैं। कई बार हमारे जीवन में वही शेष बहुत कठिन और जोखिम भरा होता दिखायी देता है, कई बार हो भी जाता है। अनुभवी, सदाशयी, गुणी और जानकार लोग इसीलिए सब्र या धीरज की बात कहते हैं। आज 2016 का आखिरी माह और आखिरी तारीख, सभी के जैसे धैर्य की परीक्षा लेने जा रही है। जो सुबह जागा है, उसे रात की चिन्ता है, जो दोपहर में है वह शाम को फलांगना चाहता है और रात को जीना चाहता है। कहने का आशय यह कि हम तैयार हैं.............
न जाने कितने वाहनों के टैंक फुल हो गये होंगे। कितने ही लोग दो-चार दिन पहले से कहीं-कहीं अपनी पसन्द की संगत में आज दिन तक आ गये होंगे, धीरे से उन सभी की जिन्दगी में कल भी आ ही जायेगा लेकिन दोहराता हूँ कि उन सबकी अपनी तैयारी होगी। विश्व में बड़े से बड़े होटल में आरक्षण हो चुका होगा, बैठने और नियंत्रण में बने रहने से लेकर नियंत्रण छूटने तक सब देख लिया जायेगानुमा। रात को बहुधा जनसंख्या और समाज जब सो रहा होगा तब रह-रहकर तेज रफ्तार की गाडि़यों की आवाज सुनायी देगी, पुलिस का सायरन और एम्बुमलन्स भी। आकाश रोशनी से पट पड़ेगा। आत्म प्रचार का एैब (एप-वाट्सअप) सन्देशों से भरता चला जायेगा, मेसेजेस भी। पढि़ए, न पढि़ए, खाली करते रहने की जद्दोजहद से जूझिए।
यह वैभवीयता महानगरों और रसूखदारों के उस संसार का एक भाग है जहाँ रुपए और आतिशबाजी एक बराबर है। ऐसे ही क्षण हमें उन सबकी कल्पना होती रहे, जिन्होंने इसी साल कोई अपना खोया है, गम्भीर बीमारी से जूझना जारी रखा है, अनेक मुश्किलों का सामना किया है, लक्ष्य अर्जित किए हैं, धोखे से गिरे हैं, कठिनाई से उठे हैं और अपनी धारा पर आये हैं। वाट्सअप के दौर में हम अपना बताने में इतना हठी हैं कि अपने ही किसी के हाल से अवगत होना लगभग भूल गये हैं। थोड़ी बहुत स्पेस संगियों के लिए भी जरूरी है। हम किस बड़े के बगल में खड़े थे, वह बगल वाला हमें अगले ही क्षण भूल चुका है, पता होता ही होगा हमको। कहाँ हो आये, क्या कर आये, ठीक है, समय रहते सब जान लेंगे।
हमारी आबोहवा हमें हर क्षण सतर्क रहने के लिए सचेत करती है। खानपान, रहन-सहन, परिवेश, सड़क पर निर्मम होकर तेज रफ्तार से जाती गाडि़याँ, लो-फ्लोर बसें, पटरी छोड़कर खेत में घुस जाने वाली रेलगाडि़याँ, चिकित्सा, आदतें, स्वभाव सब जगह वही जोखिम हैं और अपराधियों से हैं। बचपन में कई बार अपने आसपास अचानक हो जाती किसी की मृत्यु पर माँ बड़े धीरे से बतलाती थी, रात को बेतहाशा शराब पीकर लौटे थे, सोते ही रह गये या दोस्तों में जमकर पी या पिलायी, आग्रह और हठ करके ज्यादा हो गयी, मस्तिष्क या हृदय बैठ गया या फिर होश में नहीं थे, ऐसी गाड़ी चला रहे थे कि अंधेरे में कुछ नहीं दिखा, सामने से आती गाड़ी न दिखी और यह भयानक घट गया। ऐसे ही देखते देखते दृश्य बदल जाने की स्थितियों को निर्मित करने से बच सकें तो बचें। मन, मस्तिष्क, देह और चेष्टाओं से बिना अनियंत्रित, अराजक, मादक या विवश हुए भी नया साल आ जायेगा। अच्छी सुबह होगी, पंछियों का अलार्म होगा, वे आकाश में भोर में उड़ेंगे भी अपने पुरुषार्थ के लिए, उनके साथ जागने और उन्हीं के साथ भोर का हिस्सा बनने के अलग सुख हैं।
मैं मध्यप्रदेश कैडर की वरिष्ठ आय एस अधिकारी श्रीमती स्नेहलता श्रीवास्तव जो कि वर्तमान में भारत सरकार में सचिव हैं, कुछ वर्ष पहले वे संस्कृति विभाग की अविभावक थीं, उनका हम सबकी एक बड़ी बैठक में किया गया कथन भूल नहीं पाता जिसमें उन्हों ने सभी से कहा था कि आप लोग कितना काम करते हैं, वर्षों से आपके अनुभवों को समृद्ध होते देखा है, देश-दुनिया के कलाकारों के साथ जुड़ने के इस रचनात्मक काम को आप बहुत सारा समय देकर अंजाम देते हैं। मेरा आप सभी से यह अनुरोध है कि अपनी सेहत, तबियत का ख्याल रखा करें, अपने परिवार का ख्याल रखा करें, जो स्वस्थ हैं, वे सदैव स्वस्थ रहें यह कामना है लेकिन जो दवाइयाँ खाते हैं, वे समय पर दवाइयाँ जरूर खाते रहा करें, अपने मन को ऐसे ही सहज बनाये रखें क्योंकि आपके परिवार को आपकी बहुत जरूरत है..................इतना कहते हुए वे बिल्कुल माँ की तरह भावुक हो गयीं..........मैं उनकी इस बात को आज तक नहीं भूल पाया और इतनी आत्मीयता के साथ जो जगह उन्होंने मन में बनायी है, परमस्थायी है। ये बातें, इस 2016-2017 की मन:स्थितियों के आसपास भी उतनी मौजूँ हैं मित्रों.............#happynewyear #snehlatashrivastava #lifestyle #mordanity #thinking

गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

दुनिया सदा ही हसींं है.........

गुलशन बावरा का व्यक्तित्व अत्यन्त सहज और आत्मीय था। छोटी उम्र की एक भयानक घटना ने उनके पूरे व्यक्तित्व को एक डरे-सहमे मनुष्य में तब्दील कर दिया था लेकिन पतली छरहरी काया में ये जीने और संघर्ष करने का हौसला भी खुद इकट्ठा करने में कामयाब हुए थे। यह सच है कि पश्चिम पाकिस्तान के शेखपुरा में अब से लगभग सत्तर वर्ष पहले बैसाखी के दिन १३ अप्रैल को जन्मे गुलशन बावरा विभाजन के बाद जब हिस्दुस्तान आ रहे थे, तभी रास्ते में उनकी आँखों के सामने उनके माता-पिता को निर्मम ढंग से मार दिया गया था। इस घटना से सिहरे गुलशन की पूरी काया में वह भय ऐसा बैठा कि जीते-जी उसके प्रभाव उनके व्यक्तित्व और अभिव्यक्ति में महसूस किए जा सकते थे। उनकी पढ़ाई-लिखाई जयपुर और फिर उसके बाद दिल्ली में हुई। 

गुलशन बावरा ने छठवें दशक में तकरीबन छः साल रेलवे में नौकरी भी की। बचपन से गीत और शेरो-शायरी के शौकीन गुलशन ने अपनी माँ विद्यावती के भजन और मौलिक गीत गाने से प्रेरणा लेकर अपनी इस रुचि का विस्तार किया। बाद में उन्होंने रेलवे की नौकरी छोड़ दी और फिल्मों में गीत लिखने के लिए संघर्ष करना शुरु किया। उनको पहला अवसर फिल्म चन्द्रसेना में मिला जिसका गीत ‘मैं क्या जानूँ कहाँ लागे ये सावन मतवाला रे’, उन्होंने लिखा जिसे लता मंगेशकर ने कल्याण जी-आनंद जी के निर्देशन में गाया था। कल्याण जी-आनंद जी के ही निर्देशन में उन्होंने फिल्म ‘सट्टा बाजार’ के लिए भी गीत लिखे, चाँदी के चन्द टुकड़ों के लिए, तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे और आँकड़े का धंधा। युवावस्था में जमाने और रुमान को लेकर उनकी दृष्टि भी खूब थी। बीस साल की उम्र में वे इतने अच्छे गीत लिख रहे थे। दुबले-पतले गुलशन को रंग-बिरंगे कपड़े पहनने का बड़ा शौक था। अपनी गोल-मोल आँखें नचा-नचाकर ये अजब ढंग से बात करके सबको आकृष्ट कर लेते थे। एक वितरक शान्तिभाई पटेल ने गुलशन कुमार मेहता को गुलशन बावरा नाम दे दिया और तभी से वे इस नाम से लोकप्रिय हो गये।

एक गीतकार के रूप में उनको ख्याति दिलाने का काम उनके गीतों ने ही किया। मनोज कुमार की फिल्म उपकार में उनका लिखा गीत, मेरे देश की धरती, बीसवीं शताब्दी का एक अमर और यादगार देशभक्ति गीत है। सालों-साल यह गीत जवाँ होता है और अपने ही अर्थों से ऊर्जा प्राप्त करता है। अभिताभ बच्चन को स्थापित करने वाली फिल्म जंजीर में उन्होंने यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिन्दगी और दीवाने हैं दीवानों को न घर चाहिए जैसे बेहद सफल और लोकप्रिय गीत लिखे। कहा जाता है कि अमिताभ बच्चन ने अपनी प्रिय फिएट कार जंजीर की सफलता पर गुलशन बावरा को तोहफे में दे दी थी, जिसे वे अभी तक सहेजकर रखे थे और शौक से चलाया करते थे।

गुलशन बावरा ने अपनी सक्रियता के निरन्तर समय में लगातार लोकप्रिय गीत लिखे। कल्याण जी-आनंद जी से उनकी ट्यूनिंग खूब जमती रही। लगभग सत्तर से भी ज्यादा गाने उन्होंने उनके लिए लिखे। बाद में उनका जुड़ाव राहुल देव बर्मन से भी हुआ। एक बार गुलशन उनकी टीम में क्या आये, गहरे मित्र बन गये। राहुल देव बर्मन को गुलशन सहित उनके तमाम दोस्त पंचम कहकर बुलाया करते थे। इस टीम ने भी अनेक सफल और लोकप्रिय फिल्मों में मधुर और अविस्मरणीय गीतों की रचना की। एक सौ पचास से ज्यादा गाने गुलशन और पंचम की जोड़ी की उपलब्धि है। जिन फिल्मों के लिए गुलशन बावरा ने गीत लिखे उनमे सट्टा बाजार, राज, जंजीर, उपकार, विश्वास, परिवार, कस्मे वादे, सत्ते पे सत्ता, अगर तुम न होते, हाथ की सफाई, पुकार ,सनम तेरी कसम, हकीकत, ये वादा रहा, झूठा कहीं का, जुल्मी आदि प्रमुख हैं। गुलशन बावरा ने पंचम के साथ उनकी फिल्म पुकार और सत्ते पे सत्ता में गानों में भी सुर मिलाए।

मेरे देश की धरती सोना उगले, यारी है ईमान मेरा, दीवाने हैं दीवानों को न घर चाहिए, हमें और जीने की चाहत न होती अगर तुम न होते, प्यार हमें किस मोड़ पे ले आया, जिन्दगी मिल के बिताएँगे हाल ए दिल गा के सुनाएँगे, कस्मे वादे निभाएँगे हम, वादा कर ले साजना, कितने भी तू कर ले सितम, जीवन के हर मोड़ पे मिल जायेंगे हमसफर, तू तो है वही दिल ने जिसे अपना कहा, आती रहेंगी बहारें जैसे गाने हमारे बीच जब-जब ध्वनित होंगे, गुलशन बावरा हमें बहुत याद आयेंगे।

एक गीतकार के रूप में खासे ख्यात रहे गुलशन बावरा की एक और विशेषता उनका छोटी-छोटी भूमिकाओं में कुछ-कुछ फिल्मों में दिखायी देना थी। वे शौकिया अभिनय करते थे। कई निर्देशक, जिनके लिए वे गीत लिखा करते थे, या न भी लिखा करते थे, वे उन्हें अपनी फिल्मों में एकाध कॉमिक रोल उन्हें देते थे, जिसे वे आत्मविश्वास के साथ निभाया करते थे। उपकार में सुन्दर और शम्मी के मूर्ख बेटों में मोहन चोटी के साथ एक वे भी थे। दोनों सोम-मंगल की भूमिका में थे। इसी तरह जंजीर में दीवाने हैं दीवानों को न घर चाहिए, गाने का फिल्मांकन भी उन्हीं पर हुआ जिसमें वे एक नर्तकी के साथ हारमोनियम गले में बाँधे गाते दिखायी देते हैं। विश्वास, परिवार, गँवार, पवित्र पानी, लफंगे, ज्वार भाटा, जंगल में मंगल, हत्यारा, अगर तुम न होते, बीवी हो तो ऐसी, इन्द्रजीत और एक पंजाबी फिल्म सस्सी पुन्नू में उनकी ऐसी ही भूमिकाएँ पहचानी जा सकती हैं।

गुलशन बावरा फिल्मी दुनिया में रहने के बावजूद उस दुनिया के स्याह रंग का हिस्सा कभी नहीं बने। उनकी दोस्तियाँ बड़ी सीमित थीं। वे अड्डेबाजी का हिस्सा कभी नहीं रहे मगर राहुल देव बर्मन से उनकी दोस्ती खूब निभी। पंचम की स्मृतियों और गीतों की कम्पोजिशन के पहले की सृजनात्मक प्रक्रिया और घटनाक्रमों पर उनका एक ऑडियो सीडी भी दो वर्ष पहले जारी हुआ था। सारा जीवन वे चुस्त-दुरुस्त रहे। कोई बीमारी न हुई। सुबह-शाम घूमने का खूब शौक था। रात को समय पर खाना खाकर सो जाते थे। उनकी पत्नी अंजू उनका बड़ा ख्याल भी रखती थीं। कैंसर जैसी बीमारी उनको बमुश्किल छः माह पहले हुई और देखते ही देखते इस बीमारी ने उनके जीवन को अचानक ऐसा संक्षिप्त कर दिया कि वे अलस्सुबह अचानक चले गये। गुलशन बावरा को एक प्रेक्टिकल गीतकार कहना ठीक न होगा, वे एक संवेदनशील मनुष्य थे जिन्होंने जीवन के अर्थात को बड़ी गहराई से समझा था। मृत्यु से पहले ही देहदान का संकल्प और निर्णय ले चुके गुलशन बावरा आज भले ही इस दुनिया में नहीं हैं मगर अपने अनेक गानों के जरिए शब्द-माधुर्य रचकर वे ऐसा इन्तजाम कर गये हैं कि हम उनको कभी न भुला पाएँ।
#gulshanbawara #sunilmishr #film #lyrisist 

अनुपम वाणी में मर्म तक उतर जाने की क्षमता थी.........

हमारे आदरणीय और देश के विद्वान आलोचक डॉ विजय बहादुर सिंह जी का अनुपम मिश्र पर लगभग आधे पेज का आलेख आज सुबह, भोपाल के अखबार सुबह सवेरे में पढ़ा। दो दिन पहले नयी इण्डिया टुडे भी लाया था, उसमें अनुपम भाई साहब पर सोपान जोशी का एक पेज का लेख छपा था, उसे भी पढ़ा। उसके पहले आदरणीय श्री ओम थानवी की वाल पर जाकर उनकी लिखी टिप्पणियाँ भी पढ़ता रहा था। कितनी तरहों से, कितने गुणी और संजीदा लेखकों, विचारकों और जानकारों ने अनुपम जी को लिख-लिखकर याद किया है, याद कर रहे हैं, याद करते रहेंगे। इन टिप्पणियों में वह खिंचाव है जो अपने अव्यक्त में मानो यह कह रहा है, कौन कहता है कि तुम चले गये हो, तुम कहीं नहीं गये हो, सबमें तो हो, तुमको कौन जाने देगा................

आदरणीय ओम थानवी जी ने उस आखिरी रात पर लिखा था जिसकी सुबह ने व्याकुल करके रख दिया था। सोपान जोशी की टिप्पणी में वह बात कितनी अच्छी लिखी है कि कभी-कभी कुछ ऐसे मानसिक रोगी अनुपम जी के पास आते थे जिनको उनके अपने घर परिवार ने तज दिया होता था, अनुपम जी उनसे बात करने के लिए गम्‍भीर से गम्भीर मंत्रणा तक छोड़कर उनसे कुछ खुफिया बात करने बाहर चले जाते। जब वापस आते तो याद दिलाते, मानसिक असन्तुलन एक लॉटरी है, किसी भी दिन, किसी की भी खुल सकती है........

डॉ विजय बहादुर सिंह ने लेख में उस समय जब वे पं. भवानी प्रसाद मिश्र रचनावली पर गहरा काम करने में जुटे थे, एक लम्बा संवाद अनुपम जी से चाहते थे जिसका मौसम ही नहीं बन रहा था। लेख में उन्होंने याद किया कि अनुपम के बड़े भाई अमिताभ ने उनसे कहा था कि वो बातें शुरू करेगा तो बमुश्किल उसकी बातें खत्म होंगी। विजय बहादुर जी ने भवानी दादा की एक कविता की पंक्ति को अनुपम जी के साथ इस तरह उल्लेख में याद किया है कि भवानी दादा ने कहा था कि हर व्यक्ति/ फूल नहीं हो सकता/ किन्तु खुश्बू सब फैला सकते हैं........अनुपम वाणी में मर्म तक उतर जाने की क्षमता थी.........

अनुपम भाई साहब के साथ कई बार मिलना याद आता है, वहीं पिछले एक साल न मिल पाना झुंझलाहट भी देता है, जो कि अब वह भी किसी काम की नहीं रही। वही उनका कहना कि केवल हमें भर देखने के लिए यहाँ तक आने की जरूरत नहीं है...........वे बस ऐसे ही हालचाल लेने/पूछने का मन होने पर फोन किया करते थे। वे एक छोटे से पास पड़े कागज पर घर का पता लिख देने को कहते थे और फिर गांधी मार्ग का चन्दा जमा करके अंक भिजवाना शुरू कर देते थे। किताबों की पार्सल-पै‍किंग में उनकी सफाई, बच रह गये कागज, पुट्ठे-गत्ते के टुकड़े और ऐसी ही अनेक चीजों का इस सृृष्‍टा के पास पुनर्जीवन का मंत्र था। ऐसा सृृष्‍टा कहाँ जा सकता है, कहीं नहीं......आपको कौन जाने देगा भाई साहब...........#anupammishra #gandhishantipratishthan 

शनिवार, 24 दिसंबर 2016

दंगल : एक स्‍वप्‍नद्रष्‍टा की जिन्‍दगी को घटित होते देखना........


दंगल फिल्म को लेकर सिनेमाप्रेमियों में बहुत जिज्ञासा रही है। ट्विटर में बहुत सारे कलाकार और सिनेमा से जुडे़ लोगों ने कल फिल्म प्रदर्शित होने के बाद अपनी प्रतिक्रियाओं को लगातार जारी रखा है। जाहिर है, एक स्वर में तारीफ है। तारीख सच्ची है। तारीफ के अलावा कोई चारा भी नहीं क्योंकि देश में फिल्म को बड़े पैमाने पर स्वीकार कर लिया गया है। फिल्म विषयवस्तु और उसके पीछे के सार्थक उद्देश्यों के कारण आरम्भ से ही चर्चा का विषय रही है। सत्यमेव जयते प्रस्तुत करते हुए आमिर खान न केवल सिनेमा बल्कि अपनी खुद की भूमिका के प्रति और ज्यादा गम्भीर हुए हैं। दंगल उसी का एक प्रशंसनीय रचनात्मक परिणाम है।

कहानी यही है कि पहलवानी छोड़े, एक सरकारी नौकरी कर रहे नेशनल चेम्पियन का स्वप्न विश्व स्तर पर पहलवानी के लिए मैडल लाना था जो अधूरा रह गया। वह स्वप्न अब होने वाले बेटे पर अवलम्बित है। चार बेटियों का पिता बनने के बाद अपने स्वप्न के प्रति गुमसुम पिता तब जाग्रत होता है जब अपनी दो बड़ी बेटियों के द्वारा गाँव के दो लुच्चों की पिटायी करने की शिकायत घर तक आती है। यहीं से उसका स्वप्न फिर हरा हो जाता है। दंगल फिल्म इसी स्वप्न को साकार करने आगे चलती है। फिर सिनेमा है तो ड्रामा है, संघष है, अभाव हैं तो रास्ते हैं, हताशा है, आशा है और बहुत सारे द्वन्द्वों के बाद जीत भी जिसका अर्थ है स्वप्न का साकार होना।

दंगल जैसी फिल्म का बड़ा सीधा सा सन्देश यही है कि असाधारण काम और उपलब्धियाँ भी इस धरा के मनुष्य से सम्भव होती हैं। कठिन अभ्यास, आराम का त्याग और लक्ष्य के प्रति सबकुछ छोड़कर जुटना उसके लिए जरूरी तत्व हैं। इन सबसे मनुष्य की देह से लेकर दिमाग तक सब खुल जाता है। मिल्खा, सुल्तान और दंगल फिल्में क्रमशः हम सबके बीच अनेक विरोधाभासों, झंझावातों और मुश्किलों के बाद सफलता की हवा पसीने से भीगे माथे पर उड़ाती हैं। दंगल उल्लेख में आयी दो फिल्मों से अधिक बेहतर इसलिए है क्योंकि इसमें वो महानायक है जो लक्ष्य और चुनौतियों का सीमा में बने रहने वाला ऐसा प्रतीक बनकर फ्रेम में दिखायी देता है जो खुद कुछ नहीं कर रहा है। आमिर खान पूरी फिल्म में जरा से भी हीरो नहीं हैं। सब काम लड़कियाँ कर रही हैं या परिस्थितियाँ, वह केवल एक बड़े स्वप्न के केन्द्र में है, यह एक महानायक की बड़ी दृढ़ता, अपनी छबि के साथ बड़े त्याग और जोखिम और इन सबके साथ अपनी दृष्टि का लोहा मनवा लेने का कौशल है।

फिल्म के कलाकार एक कैप्टनशिप के अनुसरण में हैं सो सब अनुशासित और परिश्रम करके दिखाते हैं। सहायक कलाकारों का गढ़न फिल्म के तनाव को सहज किए रहता है, भतीजा अपारशक्ति खुराना, आयुष्मान के भाई की कमाल संगत है, वे फिल्म के नैरेटर भी हैं। आमिर खान तो खैर पूरी फिल्म में, पूरी देह में एक द्वन्द्व लेकर चलते हैं। उनको उस रूप में देखकर बहुत अच्छा लगता है। अधूरे लक्ष्य और उससे जुड़े स्वप्न में खोये हुए कहें या जीते हुए, वे खाना खाते हुए, रात को बिस्तर पर सोते हुए, उठकर बेचैनी में बैठ जाते हुए बेहद सच्चे नजर आते हैं। 

फिल्‍म के क्‍लायमेक्‍स में जब बेटी का कोच अपने श्रेय की क्षुद्रता में पिता को स्‍टेडियम के एक कमरे में बन्‍द करवा देता है और लड़ती हुई बेटी दर्शकों में अपने पिता की जगह खाली देखकर परेशान और हतोत्‍साहित होती है तब पूर्वदीप्ति में बेटी काे पिता की बचपन में उस वक्‍त दी शिक्षा याद आती है जब एक सुबह वह दोनों बेटियों को गाँव की नदी में छलांग लगवाता है और पानी के भीतर डूब रही बेटी तक पुल पर से चिल्‍लाकर अपनी आवाज पहुँचाता है कि मैं हर वक्‍त तेरे साथ या तेरे सामने नहीं रहूँगा। तुझे जीत अपने हौसले और हिम्‍मत से ही मिलेगी। इस स्‍मरण के साथ वह प्रतिस्‍पर्धी से भिड़ती है और जीतती है। फिल्‍म का यह सबसे सशक्‍त दृश्‍य है। 

नितेश तिवारी, इटारसी के रहने वाले हैं, गर्व है कि मध्यप्रदेश मूल के फिल्मकार ने इतनी अच्छी फिल्म बनायी है। पटकथा के अनुरूप एक-एक शॉट बहुत सधा हुआ और प्रभाव और तकनीकी दृष्टि से बहुत अप टू द मार्क है। दोनों बेटियों का पिता से संवाद दिलचस्प लगता है, वहीं तीसरी और चौथी बेटियाँ बीच में एक ओर साक्षी और एक ओर आमिर लेटे हुए हैं, सोती बच्चियों के साथ यह दृश्य कमाल का है, अनुभव करो तो लगता है कि बच्चियों के रूप में सोये स्वप्न बस जागने को हैं.................

गाने, एक-एक जैसे लोकेशन पर बैठकर लिखा हुआ, संगीत कमाल का, अमिताभ भट्टाचार्य और प्रीतम ने गढ़ दिया सचमुच और दलेर का टाइटिल ट्रेक - माँ के पेट से मरघट तक तेरी कहानी पग पग प्यारे दंगल दंगल और ऐसे ही एक दो गाने सूफियाना और शाश्वत रचनाएँ हैं। निहायत व्यक्तिगत रूप से लगता है कि ऐसी फिल्म को बिना आवेदन की प्रतीक्षा किए राज्य करमुक्त कर सकते हैं, खासतौर पर बेटियों के लिए अभियान और योजनाओं में शीर्ष पर आये राज्य............#dangal #amirkhan #niteshtiwari #niteshtivari #kiranrao #filmreview