रविवार, 26 फ़रवरी 2017

कलियों की ख्वाहिशऔर काँटों का हार.........

प्यासा : साठ साल पहले..........



एक संवेदनशील सिनेमा को देखते हुए संवेदनशील अनुभवों से गुजरना अपने आपमें अविस्मरणीय अनुभूति हुआ करती है। कुछ दिन पहले ध्यान आया कि महान फिल्मकार स्वर्गीय गुरुदत्त की मील का पत्थर मानी गयी फिल्म प्यासा के प्रदर्शन को इसी फरवरी माह में साठ साल हो रहे हैं तो न जाने क्यों एक बार उसे फिर से देखने और उतनी देर उसमें रमे रहने की इच्छा बलवती हो उठी। प्यासा को देखना सचमुच अपने आपमें सिहरे बने रहने की तरह है। हमारे सामने इस चलती फिल्म के माध्यम से जो कुछ भी घटित होता है वह साठ साल पहले का है, वातावरण, समाज, लोग आदि। आज हम बहुत सी बातों के लिए त्राहि-त्राहि किया करते हैं। अनेक स्थितियों की कल्पना करके आँख मूंद लिया करते हैं। अनेक अप्रिय घटनाक्रमों की चर्चा भी नहीं करना चाहते। लेकिन एक गुणी और गहरा फिल्मकार प्यासा के माध्यम से हमारे सामने व्यवहारिकी और अनुभवों का जैसा दृश्‍य-बिम्ब रच रहा है वह देश की आजादी के ठीक एक दशक बाद का आकलन है। छल, कपट, लोभ, लालच, अपने-पराये, प्रेम, बेचैनी और भी अनेक स्थितियाँ जैसे शीशे में दिखायी देता आज है। 

प्यासा को लेकर प्रदर्शन से लेकर इस पूरे समय में अनेक बार अनेक गहरे विश्‍लेषण हुए हैं। इस फिल्म पर ज्ञानियों ने बात करना चाही है। अपनी-अपनी तरह से फिल्म की एक प्रकार से गहन व्याख्या ही की है जिसके माध्यम से हमें इस फिल्म के मर्म को समझने में सहजता हुई है। आज की बात नहीं कही जा सकती लेकिन हाँ कल की बात करते हुए इतना कहा जा सकता है कि हर सिनेमा मनोरंजन के लिए नहीं हुआ करता था और न ही बना करता था। सिनेमा को यदि जीवन का हिस्सा माना जाता है, सिनेमा को यदि समाज का प्रतिबिम्ब माना जाता है तो यह स्थितियों को गढ़ने में देर नहीं किया करता था। फिल्मकारों ने अपनी संवेदना, दृष्टि और अनुभवों को सर्जनात्मक अभिव्यक्ति का आधार बीसवीं शताब्दी की इस सबसे चमत्कारी विधा के माध्यम से बनाया। इसीलिए सिने-इतिहास की अनेक फिल्म लैण्डमार्क मानी जाती हैं।

प्यासा की गणना सौ साल की दस श्रेष्ठ फिल्मों में सहजतापूर्वक की जाती है। यह उस काल की फिल्म है जब आसपास संगठित अपराध को लेकर फिल्में बना करती थीं, रोमांटिक ट्विस्ट को लेकर फिल्में बना करती थीं, सपने देखने, उसे बोलकर बताने और उसे साकार करने को लेकर फिल्में बना करती थीं और हाँ सपने टूटने को लेकर भी। गुरुदत्त ऐसे वातावरण में कुछ अलग सी बात करने जैसे आये थे। एक तरफ वे दूसरे निर्माताओं की फिल्मों में बड़े अलग से रोमांटिक नायक बनकर नायिका के साथ रोमांस करने और अफसाने गढ़ने का काम कर रहे थे वहीं दूसरी ओर उनका फिल्मकार एक अलग पथ पर जाने की साहसिक पहल कर रहा था जिसका पहला सबसे पढ़ा जोखिम तो अस्वीकार या खारिज किया जाना ही था। लेकिन जैसी कि बात कहने में आयी साहसिक पहल, सो वे अपनी नजर और रचनाशीलता के हठ या आग्रहों के साथ होकर ही आगे बढ़े। प्यासा में वे उस नायक को बहुत सशक्त अर्थों में जीने में सफल रहे जो बहुत सारे भवनों, अट्टालिकाआेंं, महलों, के विद्रूप को छुपाने वाली चटाइयों-चिकों को उठाने में सफल होता है। प्यासा आदमी के चेहरे से भी परदा हटाती है और उसकी आँख के परदे की भी उतने ही साहस के साथ शल्य-क्रिया करती है। 

प्यासा को देखिए कितने बड़े लोग मिलकर एक महान फिल्म का रूप देते हैं......गुरुदत्त को खुद खैर केन्द्र में, ठीक है, वहीदा रहमान, रहमान, जॉनी वाकर, माला सिन्हा, मेहमूद, लीला मिश्रा वगैरह। फिल्म को लिखने वाले अबरार अलवी, श्वेत-श्‍याम सिनेमा को गहरे कलाबोध और शास्त्रीयता के साथ कैमरे की निगाह से देखने वाले सिनेमेटोग्राफर व्ही. के. मूर्ति, गीतकार साहिर, संगीतकार सचिन देव बर्मन, सम्पादक वाय. जी. चव्हाण, मोहम्मद रफी, गीता दत्त और हेमन्त कुमार जैसे स्वरों के सम्मोहक और भी प्रत्यक्ष तथा नेपथ्य में न नजर आने वाली अपनी अहम भूमिका और जवाबदारी से पल भर भी न डिगने वाले लोग। 

प्यासा, वास्तव में एक कवि कथा है। इस फिल्म को देखते हुए इसमें, जैसा कि तब हल्के-हल्के प्रचारित भी हो गया, गीतकार साहिर और फिल्मकार गुरुदत्त के जीवन से जैसे जतनपूर्वक, सूक्ष्मता और सावधानी के साथ कुछ अन्तर्वस्तु सर्जना के लिए जुटायी गयी हो, ऐसा लगता है। सिनेमा के आलोचक मनमोहन चड्ढा प्यासा के बारे में हिन्दी सिनेमा का इतिहास पुस्तक में लिखते हैं कि प्यासा की विषेषता यह है कि यह एक अनगढ़ फिल्म है। इसमें गुरुदत्त की पहली फिल्मों जैसा कसाव नहीं है, न ही इसमें, साँचे में ढली-ढलाई कथा ही है। इसीलिए कुछ हिस्से में यह फिल्म कमजोर लगती है लेकिन कुछ हिस्से दर्शक पर ऐसी छाप छोड़ते हैं कि वे उसकी स्मृति में हमेशा के लिए बस जाते हैं। प्यासा में साहिर लुधियानवी का कवि पूरी तरह हावी है। विशेषतया वेश्‍याओं के बाजार वाले दृश्‍यों में, जहाँ धुंधली आकृतियाँ, कोठे, उनके बीच घूमता कवि और उसकी कविता सभी आपस में घुलमिल जाते हैं और उसकी कविता शुद्ध चाक्षुष बिम्ब बन जाती है। ऐसा ही प्रभाव अन्तिम दृश्‍य का है जहाँ कवि विजय उसे श्रद्धांजलि देने के लिए आयी भीड़ में शामिल होता है। 

फिल्म का नायक विजय अपनी आँखों से जमाने की बात कह रहा है। उसकी उपेक्षा उसके परिवार से शुरू होती है जहाँ उसको सूझने-समझने वाला कोई नहीं है। उसका कवि होना, उसका निकम्मा होना परिवार के लिए बड़ा बोझ है। प्रकाशकों को उसकी कविताओं से लगाव इसलिए नहीं है क्योंकि वह आम आदमी के दुख दर्द की कविताएँ लिखता है। प्रकाशकों को रोमांटिक कविताएँ चाहिए। वह दृश्‍य बड़े हृदयविदारक हैं जब भाई विजय की कविताएँ, पाण्डुलिपि रद्दी वाले को बेच देते हैं और विजय को उसके तथाकथित निकम्मेपन के लिए आड़े हाथों लेते हैं। विजय का अपनी खो गयी कविताओं की तलाश में भटकना संवेदनशील दर्शक को व्यथित करता है। उसके चेहरे पर टूटती उम्मीदें, दर्षक को भी विचलित करती हैं। हताशे विजय के घर से चले जाने, लौटकर नहीं आने पर भाइयों की खुशी और उसके ठीक विपरीत माँ का बिलखना जैसे दर्षक के सारे उद्वेलन को बाहर ले आता है। प्यासा जिस तरह से दृश्‍य दर दृश्‍य जोड़े रखती है, इस तरह पैठ जाती है कि हम आसानी से अपने आपको उससे अलग नहीं कर पाते। प्यासा में तेल मालिश करने वाले जॉनी वाकर का किरदार और गाना भी भुलाया नहीं जा सकता, वह फिल्म में लगातार महसूस होने वाले भारीपन के बीच सहज करने के लिए एक खूबसूरत प्रयोग है। भरोसे, प्रेम और समर्पण से भरे दूसरे गाने भी आज सजन मोहे अंग लगा लो, हम आपकी आँखों में, ये हँसते हुए फूल, जाने क्या तूने कही यह कुछ पल के लिए हमें उस तनाव से परे हटाते हैं लेकिन अन्ततः प्यासा में दर्शक के लिए वह तनाव ही गढ़ा भी गया है। वैसे भी हर सिनेमा से आपको बाजारू मनोरंजन की अपेक्षाऍं करनी भी नहीं चाहिए। 

किसी भी सिनेमा का अर्थवान हो जाना अचानक सी कोई घटना नहीं होती। उसके पीछे बहुत बड़ी दृष्टि, बहुत बड़ा सर्जनात्मक परिश्रम काम करता है। गुरुदत्त एक छोटी जीवनआवृत्ति वाले ऐसे फिल्मकार के रूप में हमारे बीच आये और चले गये जिन्होंने अपनी दो-चार फिल्मों से ही वह अर्जित कर लिया था जिसके लिए लोग जीवनभर लगे रहते हैं। क्लैसिकी की उनकी अद्वितीय समझ को ही इस बात का श्रेय जाता है कि उनकी पहचान प्रमुख रूप से प्यासा, कागज के फूल और साहब बीवी और गुलाम से की जाती है। उन पर जितनी भी गहराई से बात करना हो, उनकी रचनाशीलता को जितने विस्तार से जानना हो, हम इन तीन फिल्मों पर एकाग्र होकर चाहे जितनी देर बात कर सकते हैं। गुरुदत्त के बारे में यह बात लगभग उनके नहीं रहने के बाद, उनकी अनुपस्थिति में स्थापित ही कर दी गयी थी कि वे नैरार्श्‍य के फिल्मकार थे या अवसाद को अपने में बनाये रखने वाले मनुष्य थे। स्वाभाविक रूप से गुरुदत्त इसका प्रतिवाद करने नहीं आ सकते थे लिहाजा यह बात अनेक जगह ज्यों की त्यों दर्ज होगी लेकिन प्यासा का विजय, एक किरदार अन्ततः एक विद्रोही युवक है जो अपनी भरपूर क्षमता के साथ दुनिया को धिक्कारता है। वह बहुत से लोगों को शर्मसार करके रख देता है जो भद्रता और बनावटीपन का आवरण ओढ़े, चेहरे की चाशनी बढ़ाये लेकिन शरीर का नमक घटाये हमारे आसपास विचरण करते हैं।

प्यासा दरअसल गला ही नहीं सुखाती, एक निरन्तर लड़ते और षडयंत्रों से परास्त होते भले इन्सान की आत्मा के भी सुखा जाने की बेचैनी को व्यक्त करने वाली फिल्म है। भारतीय सिनेमा की उपलब्धियों की चर्चा कभी भी इसके बगैर नहीं की जा सकती है।


रविवार, 5 फ़रवरी 2017

जीवन का मिलान........

ठीक-ठीक नहीं बता पाता, बहता किस तरह हूँ। बहना मेरे लिए उस तरह का रूमान शायद नहीं रहा है कि बाँह फैलाये डूबने के डर के बिना बह रहा होऊँ। मैं उस पूरे समय में जब बह रहा होता हूँ तैरने की चेष्टा नहीं करता। हो सकता है एक बड़ा सा आलस्य जिसे बहुत बार उपेक्षा की तरह भी ग्राहृय होते देखा है, इसका हिस्सा रहा हो। मुझे अपने वेग की चिन्ता जरूर रही है। इस बात की प्रतीति बनी रही है कि वेग अन्ततः मुझे मेरी चोट के लिए भी उत्तरदायी बनायेगा। मेरी मुट्ठी में कोमल रुमाल अपनी सलवटों और घुटन के बाद भी मुझे भरोसा देता है। 

मैं कागजों में एक-एक करके घटते समय को देखा करता हूँ। प्रत्येक दिन हस्ताक्षर करते हुए, पीछे किए हस्ताक्षरों से कुछ जीवन का मिलान करने का मन होता है। कभी हार कर, कभी साथ और पास में रखे हुए, कभी संचित के भरोसे से तो कभी कुछ भी अर्जित न हो पाने की निराशा के बीच भी मेरी धड़कनों का नाप सही रहा है। मुझे लगता है वो सब मेरे पास, दूर से मेरी नब्ज को थामे हुए हैं, शायद उस समय या उस दिन के बाद से यह ज्यादा ही हो गया है, पीछे मुड़कर देखता हूँ तो जैसे कल ही मेरी काया खण्डित हो गयी हो और नब्ज को छूने वालों ने आपस में ही एक-दूसरे के हाथ तक अपना हाथ कर दिया हो, एक-दूसरे के विखण्ड को और धराशायी होने से रोकने के लिए...........एक का हाथ दूसरा पकड़ता है, दूसरे का तीसरा और सबमें बँटा एक जीवन, सबमें ही आता-जाता है। 

स्वप्न बहुत अधूरी और मिथ्यानींद में भी निस्तब्धता में दौड़ती सुनायी देती एम्बुलेंस और किंचित पीड़ाओं या अव्यक्त व्यथाओं में विलाप करते श्वानों के प्रभाव में अपनी पटकथा बदलने को होते हैं। बहुत देर से जागना एक आदत या स्वभाव ही है लेकिन बहुत देर में जागने पर अकेलापन जीवन में स्थायीभाव की तरह आया जा रहा है...........सम्भवतः अपने जागने के समय पर अपना सवेरा घोर अप्राप्ति में प्राप्ति का भ्रम ही है...........

बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

काबिल : केवल हृतिक का सम्मोहन


सोचता हूँ कुछ दिनों की अतिशय कार्यविधि के बाद सिनेमा देखने का आप-हठ इस तरह बुरा नहीं था कि काबिल फिल्म देख ली। अक्सर जो बैनर अपने मुखिया के नाम पर ही जाने जाते हैं वहाँ किसी दूसरे निर्देशक का फिल्म निर्देशित करना फ्लेवर बदलने जैसा शायद होता हो या एकरसता के विरुद्ध नवाचार का उपक्रम, फिर भी फिल्म क्राफ्ट और राकेश रोशन की, हृतिक रोशन की फिल्म वो संजय गुप्ता कर रहे हैं जिनकी एक्शन फिल्मों को देखने का अनुभव बहुत यादगार रहा है, मेरे लिए, काबिल में उससे बहुत कम एक्शन है, हालाँकि विषय प्रतिशोध का है वह भी एक नेत्रबाधित नायक का।
कहानी बहुत जल्दी ही अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर देती है जब हादसे की शिकार नायिका को कहानीकार मार देता है। नायक-नायिका दोनों ही देख नहीं सकते, दो में प्रेम होता है और शादी भी लेकिन मुहल्ले के ही एक ओछे अपराधीनुमा नेता के भाई की बुरी दृष्टि एक हादसे की वजह बनती है। नायक फिर उन्हीं को एक-एक करके अपनी चतुराई से मारता है। हृतिक रोशन को एक जबरदस्त हिट की जरूरत है जो फिलहाल पूरी होती नजर नहीं आ रही। काबिल भी वैसी नहीं है। वह सब छोड़ दें कि दो फिल्में एक दिन क्यों रिलीज की गयीं, बहरहाल कुछ हद तक काबिल अच्छी फिल्म इसलिए है क्योंकि वह एक नायक की निष्ठा और प्रेम को बड़ी भावात्मकता के साथ प्रस्तुत करती है। खालिस एक्शन फिल्म बनाने वाले संजय गुप्ता ने अरसे बाद कोई फिल्म निर्देशित की और वह उनके स्वभाव से अलग है, उस तरह से देखना रोचक लगता है कि निर्देशक ने कथ्य और उसके मर्म को समझने का प्रयास किया है।
काबिल की कहानी कमजोर है, यह बात मान लेनी चाहिए क्योंकि नायक-नायिका का रोमांस परिपाक तक पहुँचा ही नहीं, जल्दी ही विवाह घटित हो गया, जल्दी ही दुर्घटना भी फिर एक लम्बा और बोझिल निर्वाह अन्त तक पहुँचने का। ठीक मध्यान्तर पर फिल्म मोड़ लेती तो दर्शकीय दिलचस्पी बनी रहती। बहुत से दर्शक उसको साधारण नजरिए से लेते हैं। हमारे चुहलबाज दर्शकों को तो वेदना, विडम्बना और हादसे भी मूर्खतापूर्ण ढंग से सिनेमाहॉल में हँसाते हैं। हाँ, फिल्म में पुलिस इन्स्पेक्टर बने नरेन्द्र झा अपनी छोटी लेकिन महत्वपूर्ण भूमिका में प्रभावित करते हैं। उनको जितने भी दृश्य मिले, उन्होंने अपने व्यक्तित्व और आवाज से उसको हासिल करने की कोशिश की। नायिका यामी गौतम के साथ तो खैर अन्याय हुआ ही। फिल्म में बड़ा सितारा तामझाम नहीं है सो कम लोगों में ही फिल्म सिमट गयी है। फिल्म के खलनायक थके हुए और शिथिल लगते हैं। रोहित राय भावशून्य मगर अतिआत्मविश्वास से भरा लेकिन उनकी कोई इमेज नहीं है। वैसे ही रोनित राय भी सारी दादागीरी स्वतःपस्त आदमी की तरह करते हैं जो न तो यह व्यक्त कर पाता है कि उसका व्यक्तित्व कितना वजनदार है और न ही यह साबित कर पाता है कि राजनैतिक रूप से वो कितना रसूखदार है!! ऐसे यह फिल्म दो स्टार से आगे नहीं बढ़ पाती।
जब आप एक संवेदनशील विषय अपनी फिल्म में लेकर चल रहे हों तो दो तरफ से जवाबदारी बनती है, एक फिल्मकार के रूप में अतिरिक्त संवेदना की और दूसरी दर्शकों की ओर से अधिकतम सोच को समझने की ताकि प्रयोग सतही न हो जाये। गाने याद नहीं रहेंगे, एक याराना का दोहराव है, सारा जमाना और राजेश रोशन के संगीत को लेकर कुछ भी विपरीत कहने की स्थिति मुश्किल से आती है क्योंकि वे समृद्ध इतिहास के व्यक्ति हैं, यहाँ जैसे वे कुछ कर ही न सके हैं।
काबिल, केवल हृतिक के सम्मोहन में एक बार देख ली जाने वाली फिल्म है क्योंकि वे पटकथाओं के मारे हैं, मोहन जोदारो में भी उम्मीद में सिनेमाघर बुला लेते हैं, अभी भी ऐसा ही हुआ है...........
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