रविवार, 26 मार्च 2017

जीवन की पटकथ्‍ाा और नबेन्‍दु घ्‍ाोष


जन्‍मशती   
(27 मार्च 1917- 27 मार्च2017) 

बिमल राय जब मुम्बई गये, 1951 में माँ फिल्म बनाने, उस समय विभाजन के बाद का सिनेमा का परिदृश्य नरम, साहित्य का परिदृश्य नरम, न्यू थिएटर्स वाले भी परेशानियों में थे। वे एक फिल्म बनाने के लिए बॉम्बे टॉकीज आये पर वो अपनी टीम लेकर आये जिसमें उनके साथ नबेन्दु घोष भी थे क्योंकि लेखन और साहित्य के काम उन्हीं के जिम्मे होते थे। उस समय बॉम्बे टॉकीज की भी हालत खराब थी। उस समय दस माह से लोगों को तनख्वाह नहीं मिली थी। उस समय एस. एच. मुंशी ने बाप-बेटी फिल्म बनायी। इस फिल्म के लिए उन्हें साइन किया और उसके बाद किस तरह का संघर्ष शुरू हुआ, वह इसके आगे की बात है। बाम्बे टॉकीज से तनख्वाह मिलना शुरू होने तक यह संघर्ष चलता रहा। 
बाप-बेटी में एक लडक़ी की कहानी थी जो होस्टल में रहती है और सब लोग मिलकर उसे चिढ़ाते हैं कि कोई तुमसे मिलने नहीं आता। एक दिन वो लडक़ी स्टेशन पर जाती है और एक व्यक्ति के सामने जाकर उससे कहती है कि आप मेरे पापा हो। रंजन ने वो कैरेक्टर किया था। वो आश्चर्य में पूछते हैं, पापा? इस पर लडक़ी कहती है कि देखो आप मुझको न मत करना। मेरे दोस्त मेरे पीछे खड़े हैं, और वो मुझे बहुत चिढ़ाते हैं। आप बस हाँ-हाँ बोलते जाना, जो मैं कहूँ। एक दिन यह रिश्ता सचमुच ऐसा हो जाता है कि वो व्यक्ति उस बच्ची को एक पिता की तरह प्यार करने लगता है। उसमें एक सीन होता है कि उंगली पर उंगली रखकर झूठ बोलो तो उसमें कोई पाप नहीं लगता। 

ये कहानी उन्होंने पहले एस. मुखर्जी को सुनायी थी। इस पर एस. मुखर्जी ने कहा था कि ये कहानी अच्छी है पर मैं नहीं बनाऊँगा। पूछा गया, क्यों? तो वे बोले, क्योंकि आय एम ए बिजनेस परसन। उनसे पूछा, इसका मतलब? तो वे बोले, बिजनेस के लिए बहुत अच्छी कहानी भी अच्छी नहीं होती। उनसे नबेन्दु ने पूछा कि फिर बिजनेस के लिए क्या चाहिए? एस. मुखर्जी ने कहा कि उसके भी कुछ केलकुलेशन हैं। जैसे आप कोई खाना बनाते हो और उसमें स्वाद लाना चाहते हो, उसके लिए पाँच मसाले होते हैं। उसी तरह इसके भी स्पाइसेज होते हैं। उसकी प्रभाव में ये कहानी मुंशी जी ने सुनी और बनाना मंजूर किया। 51-52 में ये फिल्म बनी और इसके प्रदर्शन के बाद फिर बिमल राय ने दो बीघा जमीन बनाना तय किया और अशोक कुमार चाहते थे कि बिमल राय परिणीता निर्देशित करें। ये दोनों ही फिल्में एक साथ बनी थीं। 

मुंशी जी बिहार के रहने वाले थे। नबेन्दु उसी समय तीसरी कसम पर काम कर रहे थे। उनको किसी ने बताया था कि मैला आँचल बहुत ही मर्मस्पर्शी और ग्राह्य करने वाला उपन्यास है, रेणु का। नबेन्दु ने वो उपन्यास पढ़ा और तय किया कि मुझे इस फिल्म पर काम करना है। यह डाग्दर बाबू के बनने का प्रसंग है। मुंशी जी ने नबेन्दु दा को कहा कि यदि आप करेंगे तो हम इसे प्रोड्यूज करेंगे। इसकी तैयारी तब से थी, साठ के दशक से लेकिन इसकी शुरूआत में ज्यादा समय लग गया। शूटिंग की गयी बिहार में। रेणु तब थे। धर्मेन्द्र तब डॉक्टर का रोल कर रहे थे। जया भादुड़ी और उत्पल दत्त की बेटी बनी थीं। उसमें और भी बहुत सारे कैरेक्टर, बहुत अच्छे-अच्छे लोग थे। अजितेश बंदोपाध्याय, बहुत सारे और भी। शूटिंग अस्सी प्रतिशत हो गयी थी। उसी समय निर्माता और वितरक में कुछ असहमतियाँ हो गयीं, तो उन्होंने आगे फिल्म को पूरा ही नहीं किया। बीस प्रतिशत काम बाकी रह गया था। इस फिल्म में संगीत आर.डी. बर्मन का था। बड़ा ही खूबसूरत संगीत। आंचलिक आस्वाद का, मेलोडियस, गेय प्रभाव से भरा। आशा जी ने इसमें गाया था। एक गाना लता जी का था। इस गाने की रेकॉर्डिंग तब नहीं हुई थी। पंचम का यह काम बड़ा महत्वपूर्ण था। दो गाने तो बहुत ही अच्छे थे। 

बहुत दिनों बाद नबेन्दु घोष एक फिल्म निर्देशित कर रहे थे, प्रेम एक कविता। अशोक कुमार, इन्द्राणी मुखर्जी, ऐसे ही और लोग थे। सौमित्र चटर्जी उसमें काम करने वाले थे। अशोक कुमार-सौमित्र चटर्जी, जैसे बन्दिनी में एक उम्रदराज और एक युवा। वैसी ही कहानी लगभग। उसके लिए एस.डी. बर्मन ने गाना रेकॉर्ड भी किया था। दो गाने थे, उसमेें। एक गाना था, नींद चुराए, चैन चुराए, जो बाद में अनुराग फिल्म में ले लिया गया। उसमें अच्छी बात तो यह रही कि वो गाना भी आगे आया और अलग इस्तेमाल हुआ। कई बार ऐसा होता है कि किसी के लिए तैयार किया गया मगर वहाँ उसका इस्तेमाल नहीं हो पाया। दुख होता है कि आर.डी. बर्मन के गाने जो उन्होंने डाग्दर बाबू के लिए कम्पोज किए थे, वो कई काम में भी नहीं आ पाये, इस्तेमाल भी नहीं हुए और खो गये। डाग्दर बाबू के प्रोड्यूसर भी गुजर गये। उनके बेटे थे, पता नहीं उन्होंने क्या किया। बाद में मेरे भाई ने भी पता लगाना चाहा मगर कुछ पता नहीं चला। अधिकार की लड़ाई थी। निर्माता ने वितरक से पैसे लिए थे, उसी की वजह से सब बिगड़ गया। 

एक और दूसरी फिल्म नबेन्दु घोष बनाने वाले थे, उसका भी किस्सा है, बनी नहीं वो भी। गौरीचंद्र, वो गुरुदत्त बनाने वाले थे। गीता दत्त उसमें काम करने वाली थीं। वो भी फिल्म नहीं बनी और ये मोतीलाल पादरी जो आखिरी फिल्म उनकी है, अगर ये फिल्म बनती, जैसी कि उनकी इच्छा थी, त्रयी बनाने की जब उन्होंने तृषाग्रिी बनायी थी। तृषाग्रि का जो कोर है, ये एक संत जो भगवान, ईश्वर, अल्लाह, गॉड किसी भी नाम को कह लीजिए, से सीधे सरोकार स्थापित करने के भ्रम को जीता है। एक दिन उसका विश्वास डगमगाता है, उस विश्वास के डगमगाने की कहानी थी तृषाग्रि। मोतीलाल पादरी, एक पादरी व्यक्ति की कहानी थी। ये भी वही कहानी थी कि एक आदमी अपने विश्वास को ही अस्थिर होते देख रहा है। एक दिन वह इस बात को महसूस करता है कि यह किस तरह का यथार्थ है? मैं दुनिया को ज्ञान दे रहा हूँ मगर अपने भीतर के अंधकार का क्या करूँ? नबेन्दु दा ने जब तृषाग्रिी बनायी थी तभी वे सत्तर साल के हो चुके थे। वे उस समय दूसरी फिल्म मोतीलाल पादरी बनाना चाहते थे। एक तीसरी फिल्म उनके मन में पण्डित कैरेक्टर को लेकर थी। एक निर्देशक के रूप में यदि वे ये फिल्में बना पाते तो उनकी पहचान और होती, निश्चित ही। 

नबेन्दु घोष ने अपने जीवन में सृजनात्मक सक्रियता के साथ बहुत सारी छबियों को सराहनीय ढंग से जिया और लोगों में आदर की निगाह से देखे गये। उन्होंने जितनी कहानी लिखी हैं, जितने उपन्यास लिखे हैं वो अपने आपमें विलक्षण  है। इतना व्यापक, विविध और प्रशंसनीय लेखन सचमुच कई बार अचम्भित करता है।
#nabendughosh 



बुधवार, 15 मार्च 2017

।। बद्रीनाथ की दुल्हनियाँ।।




बहुधा कम ऐसा होता है कि सुरुचिपूर्ण सिनेमा को एक दर्शक के रूप में देखते हुए आपका प्रवेश दिलचस्प तिलिस्म में हो जाये और वहाँ आप लगभग उतने समय सम्मोहित होकर उसकी अन्तःदीर्घाओं में घूमते रहें। जब आप सब कुछ देख चुकें, आपका काम हो जाये और आप बाहर आयें तो आपको सहज और हल्का महसूस हो और इतना तो कहते ही बने कि यार घाटे का सौदा नहीं था, फिल्म अच्छी थी......... बद्रीनाथ की दुल्हनियाँ देखकर मुझे ऐसा ही लगा है। सच कहूँ तो मुझे उसके पोस्टर ने आकर्षित किया। वह एक बड़े से घर के आगे खड़े कलाकार-किरदारों के माध्यम से एक ऐसा रंग-आकर्षण रचता है कि आपको उसमें कुछ मोहक नजर आने लगता है। मुम्बइया सिनेमा अपनी परिधि तोड़कर जब देश के दूसरे शहरों में कथा रचता है तो उसका प्रभाव अलग ही होता है। हालाँकि आंचलिकता और लोकभाषा की अपनी शुद्धता को लेकर समस्या आती है लेकिन दूसरे प्रभाव और गुण ऐसे होते हैं कि भूलों को आप देखते चलते हो और अपने से ही यह तय करते हो, कि बाद में देखेंगे।
यह एक रोमांटिक युवा की कहानी है जो बड़े परिवार का है और दसवीं पास करना उसके लिए विशेष योग्यता है। बाकी पिता और पिता का आर्थिक प्रबन्धन और साम्राज्य है ही। इसी के साथ वह प्रेम की परीक्षा देने निकलता है। कहानी झाँसी से कोटा आती-जाती है। नायिका एक रिश्ते में ठगी गयी है और वह इस हार से बड़ी एक सफलता की तलाश में है। उसकी बहन की शादी की उलझन और इस नायक का मिलना एक अलग से समीकरण बनाता है। कहानी यों बहुत छोटी होती लिहाजा मध्यान्तर में नायिका को उस पूरे मांगलिक दृश्य से हटा देना और फिर कहानी को अपेक्षाकृत कम सार्थक प्रतीत होने वाले स्वप्न से जोड़ना इसलिए बहुत प्रभावित नहीं करता क्योंकि फिल्म के अन्त में नायिका झाँसी में एयर होस्टेस के प्रशिक्षण वाला इन्स्टीट्यूट चलाना तय करती है। बेहतर होता, नायक शादी करके नायिका के साथ विदेश चला जाता। खैर करण जौहर ज्यादा समझदार हैं क्योंकि फिल्म बनाने में धन उन्होंने ही लगाया है, अपनी सलाह लगभग व्यर्थ की है.....
बद्रीनाथ की दुल्हनियाँ के अच्छे लगने के पीछे उसका मनोरंजन का सीधा-सादा सिद्धान्त है। कोई घुमाव-फिराव नहीं है। इसीलिए सीधी धारा पर कहानी चलती है। फिल्म में संवाद निरन्तर और दिलचस्प हैं। खासकर वाक्चातुर्य चरित्रों के व्यवहार में झलकता है, नायक वरुण धवन, नायिका आलिया भट्ट और दूसरे सहायक कलाकार। फिल्म को सहायक कलाकारों ने भी बखूबी जमाया है। शादी-ब्याह के मसले, पारिवारिक मांगलिक उल्लास, विसंगतियाँ, रूढ़ियाँ, अविश्वास इन सबके बीच से समय को देखने की कोशिश है। गाने निरर्थक हैं, ज्यादा हैं और पुराने गानों को दोहराने की भी आवश्यकता नहीं थी।
नयी पीढ़ी का जीवन को लेकर सोच, स्वप्न और यथार्थ के बीच जो घटित होता है, वह फिल्म के मूल में है। नायिका की माँ की भूमिका में कनुप्रिया शंकर पण्डित Kanupriya Shankar Pandit, पिता की भूमिका में स्वानंद किरकिरे, सहनायकों की भूमिकाओं में अपाशक्ति खुराना, नायक के मित्र की भूमिका में साहिल वैद आदि पूरक हैं और अपनी भूमिकाओं को बखूबी निबाहते हैं। मुम्बई से बनकर आने वाली फिल्मों में हम कई बार भ्रम और धोखे में अच्छी समझकर बुरी फिल्म को भुगत आया करते हैं, उस लिहाज से बद्रीनाथ की दुल्हनियाँ बेहतर फिल्म है। देख लेना चाहिए। यदि सितारा देना ही मापदण्ड है तो मानिए कि लगभग तीन सितारे देने योग्य है यह फिल्म, अपने बजट, अपनी सीमाओं, अपनी सितारा बिरादरी के साथ...........

मंगलवार, 14 मार्च 2017

फिर विस्थापन..............





पता नहीं विस्थापन क्यों होता है? अपने पास इसका ठीक ठीक उत्तर नहीं होता। विस्थापन जब होता है तो हमारे सामने विकल्प नहीं होता, सिवाय विस्थापन का अनुसरण करने के। एक विस्थापन न जाने कितने-कितने बदलाव करता है! शहर से लेकर समाज तक नवाचार करने, नया वातावरण गढ़ने, आधुनिकता की परिभाषा सूझने से लेकर उसको स्थापित करने या लाद देने तक कुछ पता नहीं होता। अमली जामा या कह लें खाका तैयार हो जाने के बाद हमें पता चलता है कि हमारे पीछे से दीवार हटा ली जा रही है। जितना अधिक असावधान होंगे, उतना ही तेजी से विचलित या हतप्रभ हो जायेंगे। सम्हलेंगे तो उस विस्थापना के समर्थन, स्वाभाविक तौर पर मन मारकर आप हो जायेंगे। चलो, उठो, पिछली बार यहाँ कब आये थे, कितना ठहरे रहे और अब कहाँ जाओगे तत्काल तो यह किसी को पता नहीं। दिषायें आपको कितना बदल देंगी, सिरहाना और पैताना बदला हुआ होगा। नये सिरे और पैरे का अभ्यस्त होने में फिर समय लग जायेगा। बदलाव आता है, बदलकर जाता है। थोड़ी-बहुत कतरब्यौंत के बाद आप भी प्रारब्ध के लिए तैयार होते हैं। यह बात अलग है कि आप कितना सहज होते हैं, कितना हँस रहे होते हैं, कितनी उदासी होती है, क्या भीतर-क्या बाहर, सिवा आपके कोई नहीं जानता। आपका हाल दरअसल उसे तो पता ही नहीं होता जिसकी आवाज मतलब का पूर्वरंग होती है और वह आपका हाल पूछ रहा होता है............