शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

विनोद खन्ना


सधा हुआ और अनुशासित कलाकार


विनोद खन्ना पर लिखने के लिए बहुत गुंजाइश है। खासकर तब जब आप ऐसे नायक की फिल्में देखते हुए बड़े हुए हो, संघर्ष में रहे हो या रूमानी चेतना में आये हो, यह नायक आपके दिमाग में अपनी एक जगह के साथ मौजूद मिलता है। विनोद खन्ना का खलनायक होना याद है क्योंकि मेरा गाँव मेरा देश, पत्थर और पायल और कच्चे धागे जैसी फिल्म याद है। उनका सहनायक होना याद है क्योंकि हाथ की सफाई, हेराफेरी, परवरिश, मुकद्दर का सिकन्दर, अमर अकबर एंथनी याद हैं। उनका स्वतंत्र नायक होना याद है क्योंकि मेरे अपने, इम्तिहान से लेकर इधर बँटवारा तक की याद है। बीच-बीच की कुछ इन्कार जैसी फिल्में भी याद हैं जिसमें उनका रोल एकदम जेम्सबॉण्ड की तरह था। उनको शक और रिहाई फिल्‍म के लिए भी याद रखता हूँ।
कुछ अच्छी स्मृतियों के साथ कुदरत, राजपूत आदि को नहीं भूल सकता। गुलजार जैसे निर्देशक के साथ मेरे अपने, अचानक, परिचय, मीरा, लेकिन नहीं भूल सकता। विनोद खन्ना का परदे पर होना सम्मोहन के एक ऐसे प्रभाव का होना था जो मारक होता था, मादक होता था और भीतर से खासा मजबूत भी जब आप देख रहो हो, हाथ की सफाई में पर्स उड़ाते हुए वो रणधीर कपूर का हाथ पकड़ लेते हैं या अमर अकबर अंथनी में अंथनी अमिताभ बच्चन की दादागीरी, पुलिस का बेल्ट और वरदी उतारकर धुनाई करते हुए उतारते हैं।
वे फिरोज खान के साथ कुरबानी में बराबर की भूमिका लेकर आते हैं फिर यही फिरोज खान दयावान में अपनी भूमिका को छोटी और विनोद खन्ना की भूमिका को बड़ी विस्तारित कर देते हैं। इधर का उत्तरार्ध जो पिछले कुछ चार-पाँच-छः सालों का था, बड़ा दिलचस्प था जिसमें वे वाण्टेड, दबंग और दबंग-2 में सलमान के पिता बनते हैं। दबंग के दोनों भाग, खासकर दूसरा तो पिता-पुत्र की केमेस्ट्री का लाजवाब साक्ष्य है। विनोद खन्ना के पूरे कैरियर को आप देखिए, देखेंगे कि वो किरदार में कलाकार का जरा सा भी अतिरेक नहीं है बल्कि सधा हुआ और अनुशासित है। उसकी देहयष्टि, आँखें, हस्की आवाज और मुस्कान में बड़ी क्षमताएँ थीं जो नायक के रूप में औरों से कई बार ज्यादा प्रभावी होती थीं।
बॉलीवुड में इधर कुछ वर्षों क्या कई वर्षों से निर्मम होते रिश्तों और समाज की जितनी चर्चा होती है उतना ही धिक्कारा भी जाता है पर यह संवेदनहीनता उसका ही नहीं हमारे समाज का भी हिस्सा होती जा रही है। वातावरण विनोद खन्ना के शोक से तत्काल मुक्त होना चाहता है और बाहुबली के साथ सेलीब्रेट करना चाहता है। ठीक है, बाहुबली को आने दीजिए, ऐसा भी क्या, कुछ देर तो विनोद खन्ना की स्मृति के साथ रहिए................

गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

कहानी

प्रतीक्षास्मृति.......



उस रात स्टेशन के प्लेटफॉर्म नम्बर तीन पर पीछे की तरफ एक खाली बैंच पर बैठे रेल का इन्तजार करते हुए मुझे लग रहा था कि जाती हुई सर्दी में यहाँ से वहाँ तक इक्के-दुक्के लोग ही दीख रहे हैं। मेरी रेल को दो घण्टे बाद आना था। अपने लिए मैंने खुली हवा वाली बेंच चुनी थी जो प्लेटफॉर्म की छत से आगे जाकर थी, जहाँ खुला आसमान, सामने और पीछे की पटरियाँ और उनमें आती-जाती रेलें अपनी आवाज और छाती पर उनकी ध्वनियों का प्रभाव शिथिल नहीं होने दे रहा था।

शिथिल होने से मेरा आशय सुस्ताने या सो जाने से है, हालाँकि अपने आपसे तय किए बैठा था कि किसी भी हाल में मुझे सोना नहीं है नहीं तो कब रेल आकर चली जायेगी, सोता रह गया तो पता नहीं चलेगा। अपने खाने को लेकर दस तरह के आग्रह रहते हैं तो घर से हठ किए जाने पर भी खाना लेकर नहीं आया था कि देर से खाया ठीक नहीं रहेगा। रेल चलेगी तो पेट हिलेगा, सोना मुश्किल हो जायेगा। लेकिन रेल की देरी की वजह से मुझे लगने लगा कि कुछ खाने को पास रहता तो कितना अच्छा होता, फिर वही घर में हुई बहस से ध्यान हटाते हुए मैं अभी-अभी सामने खाली हुई पटरी की ओर देखने लगा।

इधर दूर तक निगाह गयी तो जमीन पर इत्मीनान से ओढ़कर सो रहे यात्रियों को देखा, बड़े आश्वस्त होंगे, गाड़ी छूटने का डर न होगा, गाड़ी भी शायद इनकी सुबह ही आये.......यही सब सोचता हुआ। थोड़ी देर में पटरी चढ़कर आया एक लड़का सीधे मेरे पास आ गया और अपनी अल्यूमीनियम की केतली लहराते हुए मुझसे कहने लगा, बाबूजी चाय पियेंगे, अभी-अभी घर से बनाकर ले आ रहा हूँ, बढ़िया है, अदरक-इलायची पड़ी हुई..............मैंने उसको देखा। वाकई वो प्लेटफॉर्म का चाय वाला नहीं था। मैं उसको देखकर मुस्कुरा दिया, उत्तर में उसने कागज का कप भर दिया और मुझसे पैसे लेने ठहर गया। मैंने उसे दस रुपए दिये, तीन रुपये उसने जेब से खन्न से खूब सारी चिल्लर निकालकर गिने, मुझे दिये और आगे आवाज लगाता चला गया। हाँ, उसकी चाय वाकई अच्छी थी।  

चाय पी चुकने के बाद भी समय खूब बाकी था रेल आने में। मैंने अपना मोबाइल फोन निकाला, सबसे पहले वाट्सअप खोला, सोच रहा था इस समय कौन भला जागता होगा! जरूर वही जो मेरे जैसा घर और मंजिल के बीच अधर में, यहाँ प्लेटफॉर्म पर जाग रहा होगा। खैर सभी स्वाभाविक रूप से ऑफलाइन ही थे। मुझे हँसी आ गयी, चार घण्टे बाद तो सब शुरू होंगे ही सबकी सुबह की खैर मनाते हुए, दुआएँ देते हुए। फेसबुक में भी चहल-पहल नहीं के बराबर, बिल्कुल वैसे ही जैसे बीच रात को शहर और ध्वनियों का संज्ञान हम लेते हैं।

मैं सब जगह होकर आ गया। हाँ फेसबुक में कुछ छबियों को पसन्द करते हुए चिन्हित किया, कुछ के लिखे को भी पसन्द किया, कुछ ऐसे मित्रों के लिखे और दीखे को भी लाइक किया और सराहा जिनसे मुझे आगे कोई काम हो सकता था या जो मुझे काम हो सकने की स्थिति में जाने रहें या उदार रहें। हालाँकि अपने ऐसे सोच पर हँसी भी आ रही थी और कुछ असहजता का बोध भी लेकिन.........

खैर सच कहूँ तो इस पूरे बड़े बैठे व्यतीत होते अवकाश में मुझे तुम्हारी बहुत याद आयी। मुझे एकबारगी लगा कि तुम्हें जगा लूँ और तुमसे बात करूँ लेकिन फिर यही सोचकर रह गया कि तुम ठीक इस समय गहरी नींद में हो। गहरी नींद की कल्पना बड़ी अनुपम है। किसी को भी गहरी नींद में सोये देखो, कुछ सुन्दर से गाने भी ध्यान आये। गहन निद्रा जब सारे तनावों से मुक्त करके आती है तो वो सबसे पहले चेहरे को सारी व्याधियों से मुक्त कर देती है। वह एक सौम्य, सुदर्शन मुस्कान भी देती है। निद्रा की पूरी की पूरी आवृत्ति में दो या तीन करवटें निहित होती हैं। प्रतीत हो सकता है कि नींद न हो जैसे कोई सुखकारी यात्रा हो। ऐसी यात्रा जिसमें पहाड़ लांघ लिए जाते हैं, जिसमें नदिया उड़कर पार कर ली जाती हैं, जिसमें पैदल चलते हुए जैसे पंख लग जाते हैं। 

सारी बातें स्वाभाविक रूप से तुमको ही ध्यान में रखकर सोच रहा था। मुझे नींद के साथ ही ध्यान आया, अक्सर हम बहुत आनंदप्रदाता नींद को गहरी अथवा मीठी नींद कहकर परिभाषित करते हैं। तुम्हें याद होगा एक बार मैंने तुमसे कहा था कि तुम्हारे मन की मिठास और गहराई है ही ऐसी कि तुमको नींद जब भी आयेगी, वो तुम्हें आने के बाद मीठी और गहरी अपने आप ही हो जायेगी या यों कह लूँ बिना मीठी और गहरी हुए बच न पायेगी। तुमने उसके उत्तर में मुस्कुराते हुए कुछ अधिक ही सहज होकर अपने दोनों हाथों को आपस में बींध लिया था और मेरे सिर पर मार दिया था, हालाँकि बाद में सॉरी भी कहा था और बड़ी देर तक पूछतीं रहीं थीं कि मुझे सिर में लग तो नहीं गयी.............

प्लेटफॉर्म पर होने वाली उद्घोषणा मुझे अचानक ही सब जगह से हटा लेती है और जैसे मैं पल भर में सारे रूमान से बाहर आ जाता हूँ। नींद के मीठे और गहरे होने का एहसास, उस भरोसा दिलाकर अच्छी चाय पिलाने वाले लड़के का चेहरा, थोड़ी-थोड़ी दूर पर सोये यात्री.............और अब सच में थोड़ी ही देर में प्लेटफॉर्म पर आने वाली अपनी रेल के लिए मैं अपना मफलर अपने गले में फिर से संयोजित करने को होता हूँ। मफलर बाँये कंधे से पीछे मोड़ते हुए मुझे फिर तुम्हारा स्मरण हो आता है, हर बार की तरह तुम्हें याद करके फिर मुस्कुराता हूँ। आज भी तुम्हें अच्छी नींद आयी होगी, इसका विश्वास अपने आपमें पुख्ता करके खड़ा हो जाता हूँ। 

थोड़ी देर टहलूँगा कि रेल आ ही जायेगी। एक बार अपनी जगह पर पहुँचकर सामान रखकर लेट जाऊँगा तो मैं भी सो ही जाऊँगा.....

सोमवार, 17 अप्रैल 2017

A long interview with ratnottama sengupta about her father great script writer nabendu ghosh

अफवाहों की आँच पर सितारों की ज़िन्दगी

जल्‍दबाजी और श्रेय का शगल


सितारों की जिन्दगी अफवाहों की आँच पर तप रही है। अपने जमाने के सुपर खलनायक और बाद में हीरो बनकर भी राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन और धर्मेन्द्र के समकालीन अपनी जगह बनाये रखने वाले विनोद खन्ना के नहीं रहने की खबर प्रायः इधर से उधर तक फैलायी जा रही है। सचमुच का वायरल बुखार जितना दुखदायी, हानिकारक और घबराहट-कोफ्त से भरा नहीं है उससे ज्यादा वायरल होती खबरों ने वातावरण को नकारा लोगों का ऐसा शगल बना दिया है कि लोग दिनभर इसी में दिमाग खब्त किया करते हैं। पिछले दो-तीन सालों में ये सबसे ज्यादा हुआ है। इसका सबसे ज्यादा, शायद दो-तीन बार शिकार हुए बोनी कपूर जिनके बारे में दुर्घटनाग्रस्त होने की खबरें खूब सनसनी फैलाती रहीं। बाद में उनका खण्डन आता रहा। शुक्र है कि सही सलामत हैं और अपने काम से लगे हैं। दो महीने पहले अमिताभ बच्चन की वह फोटो जब उनके पेट में संक्रमण हुआ था, स्ट्रेचर पर ले जाते हुए मंकी कैप पहने, उस फोटो के साथ अप्रिय समाचार सारे आधुनिक माध्यमों से फैलना शुरू हो गया। लोग तमाम जगह पड़ताल करते नजर आये। तीसरा शिकार विनोद खन्ना हैं जिनकी एक रुग्ण अवस्था की तस्वीर के प्रकाश में आते ही लोगों ने अपना-अपना आकलन शुरू कर दिया। यह हद ही है कि एक चैनल जिसने शायद प्रत्याशा में कार्यक्रम बना ही रखा होगा, रोकने का लोभसंवरण न कर पाया और रविवार सुबह उसे प्रसारित करके ही राहत की साँस ली। आखिर उसे सबसे आगे जो रहना है.........।

फिल्मी दुनिया और अफवाहें एक दूसरे से बहुत जुड़ा करती हैं। आमजन को सितारों से जुड़ी खबरों को जानने में रस आता है। अंग्रेजी फिल्म पत्रकारिता ने इसकी शुरूआत बहुत पहले कर दी थी जब कलाकारों का फिल्मों में काम करना, फिल्म की प्रगति, घटनाएँ और फिल्म का पूरा होकर प्रदर्शित होना और इन सबसे पाठकों को अवगत कराना पहले उद्देश्य रहा करता था। बाद में पत्रिकाओं और उनके रिपोर्टरों, कॉलमिस्टों को लगा कि ये सूचनाएँ साधारण और रसहीन हैं तो उसके बाद सितारों के स्वभाव, उनकी विनम्रता, उनकी उग्रता, उनका दिलफेंक होना, रोमांस के किस्से, होटलों से लेकर बेडरूम तक अंग्रेजी फिल्म पत्रकारिता ने साहस-दुस्साहस दिखाया। हालाँकि उसके परिणामों का सामना भी करना पड़ा समय-समय पर पत्रकारों, रिपोर्टरों को जब उनको अपमान, बेइज्जती और हिंसा का सामना करना पड़ा लेकिन एक सिलसिला चल पड़ा तो फिर यह थमा नहीं। हिन्दी फिल्म पत्रकारिता में इसका प्रवेश सावधान और सहमे ढंग से हुआ क्योंकि हिन्दी फिल्म पत्रकार उतना खुलकर लिख नहीं सकते थे और न ही उनके अखबार या पत्रिका के घराने सालों सितारों से मुकदमा लड़कर उनके साथ सम्बन्ध ही बिगाड़ सकते थे। यह धारा लेकिन बन्द न हुई।

सिनेमा सौ साल पार कर गया, सिनेमा की पत्रकारिता भी उसी का अनुसरण कर रही है। पत्रकारिता का स्वरूप जो बिगड़ना शुरू हुआ था, वह और बिगड़ता चला गया है। आज यद्यपि स्थिति यह है कि हिन्दी में सिनेमा की पत्रिकाएँ बची ही नहीं हैं। जो बड़ी, अच्छी और महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ हुआ करती थीं वे कभी की बन्द हो चुकी हैं। देश के अखबारों में सिनेमा को रोज ही एक-दो पन्नों में ग्लैमर के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है जिनमें एक जैसे स्रोत होने के कारण एक जैसी सूचनाएँ हैं। अंग्रेजी फिल्म पत्रिकाओं के पाठक और समाज दोनों ही बहुत सीमित है लिहाजा वहाँ का घटनाक्रम वहीं तक सिमटकर रह गया है। 

फेसबुक, ट्विटर और वाट्सअप ऐसे ही माध्यम हो गये हैं जिनमें ऐसी खबरों का सम्प्रेषण एक कान से दूसरे कान में कह देने और फिर दूसरे कान से तीसरे कान में संक्रमित कर देना ज्यादा आसान हो गया है। चिढ़ इस बात की है कि कल तक रोमांस, रिश्तों, लड़ाई-झगड़े की कानाफूसियाँ अब सीधे-सीधे इधर लक्षित हो गयी हैं कि समाज और वातावरण को भावनात्मक रूप से उसके प्रिय कलाकार के सम्बन्ध में जीवन से जुड़ी अप्रिय खबर फैलाकर व्यावधानित कर दो। एक बार देर रात मैं फेसबुक पर ऑनलाइन था, तब एक चर्चित कवि की पोस्ट में गम्भीर अस्वस्थ दारा सिंह को श्रद्धांजलि दे दी गयी। उनको तुरन्त कहा गया कि जीवित हैं तो उन्होंने हटा ली। बाद में दारा सिंह दो दिन बाद नहीं रहे थे। विनोद खन्ना को लेकर भी ऐसी ही अप्रिय सूचनाएँ टिप्पणी लेखक के पास चार दिन की अवधि में दो बार आयीं जिनमें अन्तिम यात्रा के दो चित्र भी शामिल थे जिसमें एक में अमिताभ बच्चन और दूसरे में रणधीर कपूर शामिल दिखायी दे रहे थे। इधर एक दिन पहले हद यह हो गयी कि मेघालय में विनोद खन्ना को सत्तासीन पार्टी के लोगों ने श्रद्धांजलि भी दे दी। इस बात पर आश्चर्य ही होता है कि क्या हम अपना विवेक पूरी तरह खो बैठे हैं? दौड़कर आगे निकल जाने, श्रेय बटोरने और खुद को महिमा मण्डित करने की ऐसी अफरातफरी में खुद की संवेदना, चरित्र और गरिमा को नहीं मारे डाल रहे हैं? ये हम कर क्या रहे हैं?







गुरुवार, 6 अप्रैल 2017

धर्मेन्द्र : शिकार, प्यार ही प्यार और रखवाला

शिकार करने को आये, शिकार हो के चले..........


इधर साठ के दशक के अन्तिम वर्षों में धर्मेन्द्र की कुछ फिल्में देखने का अवसर मिला, खासकर शिकार, प्यार ही प्यार और रखवाला। 68 से 71 के बीच ये फिल्में आयीं थीं तब वे साल में कम से कम सात-आठ फिल्में कर रहे होते थे। 66 में फूल और पत्थर से यह सितारा सिनेमा के आकाश में एक नक्षत्र की तरह जगमगा रहा था। शख्सियत के अनुरूप किरदार लिखे जा रहे थे जिनमें ज्यादातर पुलिस अधिकारी, सी आई डी अधिकारी, फॉरेस्ट ऑफीसर, जासूस टाइप के रोल हुआ करते थे। 68 के साल में ही रामानंद सागर ने आँखें बनाकर उनको गोल्डन जुबली सितारा बना दिया था। इस समय धर्मेन्द्र अपने प्रशंसकों को खूब मिल रहे थे। वे सामने से आते हुए अपने मुरीद की आँखों में अपने लिए जो प्यार देखते थे, वह उन जैसे मध्यमवर्गीय परिवेश से आये कलाकार के लिए अतुलनीय था।
एक मुलाकात में उन्होंने बताया था कि जब थोड़ा यहाँ जम गया और अपने पक्ष का समय हो गया तब माँ को बुला लिया था। वह पहली बार मुम्बई आयी तो शहर में प्रवेश करती रेल से उनको बाहर सिनेमा के बहुत से होर्डिंग और पोस्टर दिखायी दिये जिसमें अनेक धर्मेन्द्र के थे। उन पोस्टरों और होर्डिंग्स को देखकर माँ इतनी भावविभोर हो गयी कि उनको चक्कर आ गये और बेहोश हो गयीं। धर्मेन्द्र जब माँ को अपने बड़े से घर में लाये तो उनके अचम्भे का ठिकाना न था। माँ फिर जीवनपर्यन्त उनके साथ ही रहीं और उनका यश-वैभव देखकर आनंदित बनी रहीं।
शिकार, प्यार ही प्यार और रखवाला की बात करते हैं। इन फिल्मों के नायक धर्मेन्द्र निर्देशक के अभिनेता दिखायी देते हैं। उनका अपना आत्मविश्वास उनके किरदार को और स्मार्ट बनाता है। रोमांटिक दृश्य करना उनके लिए सदैव प्रीतिकर रहा। यह संयोग ही है कि उनकी नायिकाएँ ज्यादातर उनसे सीनियर होती थीं, सीनियर अर्थात फिल्मों में उनसे पहले से सक्रिय सो प्रायः फिल्मों में नायिका का नाम पहले आता था फिर धर्मेन्द्र का। धर्मेन्द्र में नायक होने या अच्छे मार्केट का दम्भ नहीं था इसीलिए वे दुराग्रहों में नहीं पड़ते थे। वे मुसीबत में फँसी नायिका को खलनायक के चंगुल से बखूबी बचाते थे।
संवेदनशील दृश्यों में उनका माँ, बहन या भाई के साथ होना, संवाद कहना अनूठा है। फिल्म में गाने, खासकर जो मोहम्मद रफी ने उनके लिए गाये, कमाल हैं। गानों का फिल्मांकन, नायिका के साथ उनका होना उस समय आपको एकाग्र करता है जब नाचती, खिली-खुली-डूबी नायिका के साथ उनको नाचने में बहुत सहज न हो पाने के बाद भी यथाकोशिश बेहतर दृश्य कर जाने की क्षमता पर सराहे बिना नहीं रहेंगे।
मुझे, रहने दो गिले-शिकवे..........रखवाला के गाने के उत्तरार्ध में लीना चन्द्रावरकर के साथ उनका नाचना बहुत पसन्द है.................प्रायः फिल्म के अन्त में जब वे सरप्राइजली पुलिस अधिकारी घोषित होते हैं तब दर्शक खूब ताली पीटता है.............

बुधवार, 5 अप्रैल 2017

हवलदार महावीर प्रसाद

नाटक

हवलदार महावीर प्रसाद 

लेखक - सुनील मिश्र
निर्देशक - मृदुला भारद्वाज एवं प्रथमेश त्रिवेदी
आभार - के. जी. त्रिवेदी
यू-ट्यूब पर 200 से अधिक दर्शक

किशोरी अमोणकर

क्‍या गुस्‍साना, क्‍या डूबकर गाना.....



विभूतियों का हमारे बीच बना रहना किसी भी रचनात्‍मक व्‍यक्ति को उससे एक भीने अनुराग से जोड़े रखता है। आप उनके बहुत अधिक निकट नहीं भी होते तब भी प्रतिभा और सर्जना का एक ऐसा अचूक अचम्‍भा आपको उस अनुभूति से पगाये रखता है जितना यथाक्षमता आप उनके बारे में जान पाते हैं।

किशोरी जी कल तक हमारे बीच असाधारण प्रतिभासम्‍पन्‍नता के साथ कायिक उपस्थिति के रूप में हमारी चेतना का हिस्‍सा थीं। अचानक गहराती रात उनके स्‍मृतिशेष होने का अकल्‍पनीय यथार्थ सामने ले आती है। आज अपरान्‍ह में यह विदुषी पंचतत्‍व में विलीन हो जायेंगी लेकिन विभूति के रूप में उनको और उनकी कमी को और ज्‍यादा अहसासा जायेगा......कुछ समय बाद जमाना, हम सब अपनी चाल में फिर चलते-फिरते नजर आयेंगे लेकिन यह दुखद सच है कि निरन्‍तर मूर्धन्‍यों का जाना और इस धरा से रिक्‍त होना बहुत असहज करता है..........

स्‍वर ऊष्‍मा भी होते हैं, ताप भी और मन पर शीतल चन्‍दन सा लेप भी। किशोरी अमोनकर जी को हम ऐसे ही स्‍मरण-स्‍फुरण में याद करेंगे। अमोल पालेकर ने एक घण्‍टे की एक सुन्‍दर फिल्‍म उन पर हाल ही कुछ वर्ष पहले बनायी थी, भिन्‍न षडज.......उस फिल्‍म को किशोरी जी के कृतित्‍व का सबसे महत्‍वपूर्ण दस्‍तावेज माना जा सकता है। फिल्‍म में किशोरी जी से एक लम्‍बा संवाद, टुकड़े-टुकड़े बातचीत और उनके सर्जनात्‍मक अवदान पर उनके समकालीन और अनुसरणीय संगीतज्ञों से चर्चा की गयी है जिनमें उस्‍ताद जाकिर हुसैन, पण्डित हरिप्रसाद चौरसिया, उस्‍ताद राशिद खाँ आदि शामिल हैं।

भोपाल इस मामले में सौभागी है कि यहाँ के रसिकों को कुछेक बार उनको सुनने के अवसर मिले। भारत भवन में वे 1995 में आयीं। 2007 में उनका आना हुआ और फिर 2013 में। एक बार तो सुबह की सभा में उनको यहाँ पर सुना गया। उनका सबसे बड़ा गुण अपने स्‍वभाव में होना था। वे मर्यादित और अनुशासित परिवेश की आग्रही कलाकार थीं। 

कण्‍ठ से लेकर मन तक किशोरी जी जिस विलक्षणपन को जीती थीं, वह अनूठा अद्भुत था। अब उनका सब याद रह जायेगा, गुस्‍साना और अतल गहराइयों में डूबकर गाना। वो विलक्षण सभा-संगत अब और देखने को नहीं मिलेगी.............


अलविदा किशोरी ताई.................

रविवार, 2 अप्रैल 2017

सान्निध्य / धर्मेन्द्र

एक महानायक से कुछ देर उनके मन की..........


इस बार कुछ अधिक समय हो गया है, उनसे मिले हुए। दो वर्ष पहले उनके जन्मदिन पर मुम्बई जाना इसलिए नहीं हो पाया था कि अपनी माँ के बिछोह से बेहद व्यथित था। बीते साल धरम जी का जन्मदिन नहीं मना क्योंकि जीवनभर उनके साथ रहने वाले, उनका साथ निभाने वाले उनके अनुज, छोटे भाई अजीत सिंह देओल (अभय के पिता) का लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया। धरम जी भावुक हैं, एक महानायक के रूप में हिन्दी सिनेमा के परदे पर यह शख्सियत अपने दर्षकों और चाहने वालों का जितना बड़ा भरोसा है, जीवन में उससे अधिक संवेदनषीलता और कोमलता को वे सहेजे-पोसे रखते हैं। जब धरम जी मुम्बई हिन्दी सिनेमा में अपनी किस्मत आजमाने आये थे, तब पीछे से उनके साथ उनके छोटे भाई अजीत भी आ गये थे। जो धरम जी से जुड़ा है वो अजीत भाई साहब का अर्थ भी जानता था जो घर में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति, मुरीद, अतिथि का बड़ा ख्याल रखते थे। सबसे प्रेमपूर्वक मिलना, बैठना, बात करना, समय देना और खासकर वो समय जिसमें अतिथि के साथ प्रतीक्षा या इन्तजार जुड़ा हो, अजीत साहब उसके आतिथ्य का पूरा ध्यान रखते। बहुत ही कम मगर षौकिया तौर पर उन्होंने कुछ फिल्मों में अतिथि भूमिकाएँ भी कीं। जब बाॅबी देओल बरसात से साथ पहली बार फिल्म में आये थे, भतीजे की जिद पर चाचा अजीत ने फिल्म के क्लायमेक्स में ट्रेन ड्रायवर की भूमिका निभायी थी।

दो साल पहले जब अजीत सिंह देओल नहीं रहे तब धरम जी बहुत फूट-फूटकर रोये थे। अपने अनुज का इस तरह जाना उनको बहुत खलता है। वे आज भी अपनी माँ और पिताजी को उतना ही महसूस करते हैं और वह व्यथा उनके मन से मिट नहीं पायी है। भाई का जाना एक और बड़ा दुख है उनके लिए। वे धीमे से कहते हैं, अपने तो अपने होते हैं.......

मैं इस घटनाओं से भरे अन्तराल के बाद उनसे मिलने चला था। धर्मेन्द्र मेरे जीवन के नायक हैं। सभी चाहने वालों के कोई न कोई नायक होते हैं। मन-मस्तिष्क में महानायक की देवता सी उपस्थिति और है क्या! मुझे अचरज होता है कैसे सत्यकाम फिल्म का यह नायक मेरे मन में आकर ऐसा बैठा कि समय के साथ-साथ अनन्य फिल्मों से वह पैठ और भी स्थायी होती चली गयी। इसे अपनी खुषकिस्मती मानता हूँ कि लगभग दो दषकों में मुम्बई उस तरह से बहुत अपना लगने लगा जब से अपने मन की पैठ वाले धरमजी से मिलना शुरू हुआ। पहली मुलाकात जिसमें एक बड़ा और करीब-करीब पूरा सा ही साक्षात्कार हुआ, जिसको रेकाॅर्ड भी नहीं किया लेकिन ऐसा रट गया कि ठहरने वाली जगह आकर रात भर में पूरा का पूरा जस का तस लिख डाला था। लौटते समय लोकल ट्रेन में कब अंगूठी उतर गयी, यह भी पता नहीं लेकिन खुषी इस बात की थी कि स्वप्न पूरा हुआ था, धरम जी से मिलने का।

वह शुक्रवार की शाम थी जब मैं उनके घर जा सका था। वे प्रायः खण्डाला अपने फार्म हाउस में रहा करते हैं। आवष्यकतानुसार मुम्बई आया-जाया करते हैं। सिनेमा के प्रतिष्ठित समारोहों में उपस्थित होते हैं। अपनों से जुड़े लोगों के सान्निध्य का हिस्सा बनते हैं, स्वभाव के मुताबिक दुख-सुख बाँटते हैं, हल्का करते हैं। मुझसे भी पूछा इस बीच कैसा चलता रहा है सब, घर-परिवार के बारे में, कहाँ लिख रहा हूँ उसके बारे में। मैंने उनको अपने मातृषोक की बात कही जिससे वे व्यथित हुए और कहने लगे, माँ की जगह कोई नहीं ले सकता। मैं भी अपनी माँ को ढूंढ़ता हूँ। याद करो तो लगता है कि आसपास ही है वो मेरे। उन्होेेंने बताना चाहा कि बेटे के सदा आसपास ही होती है माँ। उन्होंने अपने बंगले के परिसर में लगे विषाल नीम के वृक्ष की ओर इषारा करके बताया कि ये मेरे पिता ने रोपा था। नन्हा सा पौधा। आज यह इतना बड़ा पेड़ बन गया। ये मुझे पिता की याद दिलाता है, धरम जी कहने लगे। इसकी शाखें, मेरे पिता की बाँहें हैं जिन्होंने मुझे गोद में उठाया है।

धरम जी के सामने से बाॅबी का छोटा बेटा दौड़कर निकल जाता है, वे और मैं दोनों ही उसको देखकर मुस्कुराते हैं। जिक्र एकदम करण (राजवीर), सनी के बेटे से आकर जुड़ जाता है। धरम जी की आँखों में चमक फैल जाती है जब वे कहते हैं उसको लांच करने जा रहे हैं। वे यह भी बतलाते हैं कि एक पटकथा पर काम चल रहा है जिसमें मैं, सनी और बाॅबी फिर एक साथ आयेंगे। बात इस तरह आगे बढ़ी कि करण को भी वही प्यार मिलेगा जो आपसे सब तक सबको मिलता आया है। इसके उत्तर में धरम जी एक लाइन बोलते हैं, शोहरत की सीढ़ी से मोहब्बत का मकाम बड़ा होता है। अपने दर्षकों के प्रति सदैव एहसानमन्द और शुक्रगुजार इस महानायक ने अपने चाहने वालों को हमेषा सिरमाथे पर बैठाया है। अक्सर ऐसे अवसरों का साक्षी हुआ हूँ जब उनके चाहने वालों की बड़ी संख्या उनके आसपास इकट्ठा हो गयी है और अपनी सुरक्षा करने वालों को सजग होते देख धरम जी ने उनको सहज और संयत रहने को कहा है। सबसे खूब मिलते हैं वे। देखा है कि अनेक बार उनके चाहने वाले ही उनका मजबूत सुरक्षा कवच बन जाते हैं। इतनी सब बातों के बीच फिर उनके चेहरे की ओर एकाग्र होता हूँ। चाय और बिस्कुट उनके साथ खाते हुए मैं कहता हूँ कि एक किताब पर काम करने का कब से मन है पर आपकी ओर से अनुमति चाहा करता हूँ कई बार। वे बात से बात जोड़ते हैं, मन करता है, अपनी फिल्मों को और खासकर उनसे जुड़ी घटनाओं को लिखूँ उस पर कोई किताब आये। मैं मन ही मन कौतुहल में भर गया, कैसा हो आप बोलें और कोई लिखकर आपसे जँचवा ले! ऐसे कुछ तैयार हो जाये। 

मैंने इतना जरूर कहा कि कम से कम एक ऐसी ही किताब मुझे करने दीजिए जिसमें उन दस, बीस या पच्चीस फिल्मों की विस्तार से चर्चा की जाये जो आपको स्वयं बेहद पसन्द रहीं। इस बात पर वे सजग हुए, उनका सजग होना अच्छा लगा। फिर उन्होंने एक-एक करके नाम लेना शुरू किए। उनमें दो-चार फिल्में मैंने वो भी जुड़वा लीं जो मुझे बहुत पसन्द हैं आज तक। यह काम मैं गम्भीरतापूर्वक नोट करके उतना ही सन्तुष्ट हुआ जैसे इस सोचे को कभी साकार कर सकने की स्थिति में सन्तुष्ट होऊँगा। 

मेरे जाने का समय होता आ रहा था। इसी बीच एक जाना-पहचाना चेहरा बेखटके बंगले से परिसर और परिसर से कमरे में दाखिल हुआ जिसने धरम जी के पैर छुए। ये गुरुबचन सिंह हैं, अपने समय के जाने-माने फाइट मास्टर और खलनायक। राज एन सिप्पी की फिल्म इन्कार मुझे आज भी याद है जिसमें अमजद खान के साथ गुरुबचन सिंह की पन्द्रह मिनट की फाइट खूब चर्चित हुई थी। धरम जी की अनेक फिल्मों में भी गुरुबचन ने उनसे अनेक घूँसे खाये हैं। उनको पहले भी इस बंगले में देखा है। अपनेपन में वे धरम जी के पास प्रायः आते हैं, पंजाबी में खूब बातें करते हैं, अच्छा लगता है।

इस बार लम्बे अन्तराल और अनेक भीतरी-बाहरी आवेगों और अनुभूतियों के बीच धरम जी से मिलना फिर लम्बे समय तक खुषी, सन्तुष्टि और ऊर्जा प्रदान किए रहेगा। अब आया हूँ तो बढ़िया काम लेकर आया हूँ, उन सब फिल्मों के नाम साथ में हैं, पास में हैं जो धरम जी को प्रिय हैं। उनको देखना शुरू करने से ही काम भी शुरू होगा। दुआ कीजिए, एक किताब हो जाये....