बुधवार, 31 मई 2017

बाहुबली की भुजाओं में देश के सिनेमाघर

तीन सप्ताह से दिलचस्प तमाशा देखने में आ रहा है। दक्षिण से दो-तीन साल पहले बनकर आयी फिल्म बाहुबली ने जैसे बॉलीवुड की सारी प्रतिभाआेंं और क्षमताओं पर तुषारापात करके रख दिया था। बॉलीवुड के ही बरसों से खाली बैठे एक निर्माता उसके वितरक बन बैठे और इतना धन अर्जित किया जितना यदि वे खुद कोई फिल्म बनाते भी तो न अर्जित कर पाते। केवल डिस्ट्रीब्यूशन से उनके चेहरे पर आर्थिक सफलता की वो मुस्कान तिर गयी कि उनको बैठे-बिठाये सबसे लाभ का धंधा ही यह नजर आया। जबकि उनकी पहचान एक ऐसे युवा फिल्मकार के रूप में बनी हुई है जो नये जमाने के समझबूझ वाले सिनेमा का जानकार है और नब्ज भी समझता है। ऐसा निर्माता, एक वितरक के रूप में अपनी कमाई पर गर्व तो कर रहा था लेकिन शायद वह यह समझने को तैयार नहीं था कि वह और जिस मुम्बइया फिल्म इण्डस्ट्री के दो-चार निर्माता घरानों में से वो एक है किस तरह लाचार और पंगु किए जाने की भूमिका अनायास ही एक स्वस्थ और बड़ी स्पर्धा से तैयार हो गयी है। 

बाहुबली का निर्माण और उसके पहले संस्करण की सफलता की घटना, दरअसल मुम्बइया सिनेमा को एक बार जमकर चकाचौंध से भरा आइना दिखा देने का एक बड़ा काम था। इतिहास गवाह है, भारतीय सिनेमा में, सिनेमा के प्रति प्रतिबद्धता, समर्पण, सिनेमा को एक बड़ा और सबसे ज्यादा सांस्कृतिक रूप से सम्प्रेषणीय आयाम मानकर तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम में बनने वाली अनूठी और असाधारण फिल्मों की एक परम्परा रही है। आज भी तो दक्षिण से ही फिल्मों को सबसे ज्यादा श्रेणियों में नेशनल अवार्ड मिलता है तो उसकी वजह ही यह है कि वे सिनेमा को अपनी संस्कृति और परम्परा के विस्तार का अविभाज्य अंक मानते हैं। हिन्दी सिनेमा में मुम्बइया सिनेमा के साथ-साथ बरसों दक्षिण का पारिवारिक और सामिजक सिनेमा चला है जिसमें जैमिनी और प्रसाद प्रोडक्शन्स जैसे घरानों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। 

बॉलीवुड के कलाकार तीस साल से ज्यादा समय से अपनी सुरक्षित, व्यावसायिकता की आदर्श शर्तों से भरी रोजी-रोटी दक्षिण के सिनेमा से प्राप्त कर रहे हैं। बॉलीवुड भले उदार न रहा हो पर दक्षिण के सिनेमा में बॉलीवुड के सितारों को बहुत उदारतापूर्वक अपनाया गया है। लगभग इतना ही समय दक्षिण भाषायी फिल्मों के हिन्दी में निर्माण को भी होता आ रहा है बल्कि विगत एक दशक में यह और अधिक हो गया है। दक्षिण में ही सिनेमा के पचास दिन चलने पर निर्माता फिर से हजारों-लाखों पोस्टर दीवारों पर लगवाकर जश्न मनाता है और दर्शकों का उपकार मानता है, जब सौ दिन या सिल्वर जुबली होती है तो बात अलग ही होती है। बॉलीवुड के सितारे सलमान खान को भी दक्षिण से अच्छी स्क्रिप्ट की तलाश रहती है और अक्षय कुमार को भी दक्षिण से प्रेरित कहानियों ने सितारा बनाने में योगदान किया है।

ऐसे केन्द्र से बाहुबली का प्रदर्शित होना सब तरफ जैसे चमत्कार की तरह विस्तारित और प्रचारित कर दिया गया है। बाहुबली का प्रथम प्रदर्शन और उससे जुड़े कौतुहलपूर्ण प्रश्नों को देखते हुए शोले का ही समय याद आ गया जिसके संवाद आज भी भुलाये नहीं जा सके हैं। पहले बाहुबली से उपजे प्रश्न का समाधान हमारे देश को इस बाहुबली में जाकर जितनी आसानी से मिल गया वह कम हास्यास्पद नहीं है लेकिन यह भी उल्लेखनीय है कि दक्षिण की फिल्म निर्माण संस्थाएँ और लोग सस्पेंस, रहस्य और गोपनीयता को आखिरी समय तक जाहिर नहीं होने देते। उन्हें यदि दर्शकों को अचम्भित करके रख देना है तो उसकी पूरी तैयारी होती है जबकि बॉलीवुड में अनेक ऐसे उदाहरण होंगे जब फिल्में सिर्फ इसलिए डिब्बाबन्द होकर रह गयीं क्योंकि प्रदर्शन से पहले ही लीक हो गयीं थीं। 

इधर बॉलीवुड के दूसरे भाग के लिए हमारे देश के सिनेमाघर पूरी तरह शरणागत होकर रह गये। अपनी ही क्षमताओं और विश्वासों में डरे निर्माता, निर्देशक और सितारों ने अपना ध्यान खेल में लगाया और पलक पाँवड़े बिछाकर बाहुबली के भाग दो का स्वागत किया। सारे सिनेमाघर, सारे शो ऐसे इस फिल्म ने मुट्ठी में कर लिए जैसे दूसरी फिल्मों को देशनिकाला दे दिया गया हो। आत्महीनता और गिरे आत्मविश्वास की बात है कि इस तूफान से भयभीत दूसरे निर्माता पीठ करके खड़े हो गये। हाल यह है कि देश के हर सिनेमाघर, हर शो में बाहुबली। देखो तो बाहुबली, न देखो तो बाहुबली। वास्तव में यह दयनीय स्थिति है सिनेमा के लोकतंत्र के लिए, सिनेमा की संस्कृति के लिए। बाहुबली के बाँहों में देश के सिनेमाघर चरमरा रहे हैं, घुटकर पिस रहे हैं और हम सब इस बात पर अपार प्रसन्न हैं जानकर कि अरे वही..........निरर्थक सा प्रश्न जिसे दोहराये जाने का जरा सा भी मन नहीं है। 





सोमवार, 29 मई 2017

ऐसे रहो कि धरती.......

अपने लिखे नये नाटक पर मंचित होने तक कुछ फुटकर नोट्स


एक

नौ दिन बचे हैं
अढ़ाई कोस से ज्‍यादा चलना है....
पूर्वाभ्‍यास जारी है...........
ज्‍यों-ज्‍यों दिन पास आ रहे हैं, निर्देशक व्‍यग्र है, 
कलाकार पसीना बहा रहे हैं, हर दिन और और ज्‍यादा.....

ऐसे रहो कि धरती..........
शहीद भवन, भोपाल में 28 मई को मंचित होगा

निर्देशक आनंद मिश्रा Anand Mishra हैं.

दो

........पता नहीं तब भोपाल से ननिहाल तक जाने के लिए दो रेलें बदलनी पड़ती थीं लेकिन सुबह चार पांच बजे पहुंच जाया करते थे। शुरू शुरू में मैं ही था, मम्‍मी के साथ, पांच साल की उम्र के आसपास। मम्‍मी स्‍टेशन से उतरने और नानी के घर पहुंचने के बीच एक काम जरूर करतीं, एक बड़ी ब्रेड खरीदतीं, एक मक्‍खन का पैकेट, इसके साथ ही नानी के घर के दरवाजे पर उतरतीें, हालांकि उजाला होने पर रामचन्‍दर हलवाई के यहां से जलेबी-समोसा भी मंगवा लेतीं, मुहल्‍ले के किसी भी युवा से जो कि सब के सब मामा होते थे, जिज्‍जी चरन छुई, अबहीं आयी हओ का.........कहते हुए मिलना शुरू करते।
लेकिन नानी जैसे ही मम्‍मी के आमने-सामने होतीं, अन्‍दर आने के बाद एक घण्‍टे में छ: माह का घटनाक्रम सुनातीं, जिसमें गोली चलने, मारपीट होने, खून-कत्‍ल की भी दास्‍तान, इतने धीरे धीरे फुसफुसाते हुए जैसे कोई बाहर कान लगाये सुन ही रहा हो.............अपन उस अवस्‍था सुन-सुनकर सिहरा करते...........ये नाटक तभी हमारे माथे पर एक पैसा चिपका गया था....

तीन

जब जन्म हुआ था तिलकू का तब सब मातापिता की तरह वह भी उनको बड़ा सुंदर लगता था। माँ प्यार से माथे पर काला टीका लगा देती तो और सुंदर दिखता। छुटपन का यह तिलकधारी तिलकू बनकर बाहर-भीतर से इतना कुरूप कैसे हो गया?
मेरी स्मृतियों के तिलकू को अभिनेता के रूप में विशाल और निर्देशक के रूप में आनंद ने परिश्रमपूर्वक और क्षमता के अतिरेक में जाकर प्रदर्शन के लिए तैयार किया है।
नाटक के सहयोगी कलाकार ही दृश्य और प्रभाव की बेहतरी के प्रबल अनुषंग होते हैं। प्रस्तुति में दृश्य पूर्णतः सृजित हों लिखने के स्तर पर, बंधे हो प्रभाव के स्तर पर और परिणामित हों सार्थकता के स्टार पर, यह सोच और स्वप्न रहा है।

चार

ऐसे रहो कि धरती..............
कवि, ऋषि, देव आदि पीछे हों
मानव पहले
ऐसे रहो कि धरती
बोझ तुम्हारा सह ले

महान कवि त्रिलोचन की यह कविता मन और मस्तक पर शायद पच्चीस वर्षों से स्थापित है। एक बार जब वे भारत भवन आये थे तो वागर्थ की दीवार पर चाक से यह पंक्तियाँ उन्होंने स्वयं लिखी थीं और मैं उनको लिखते देखने वाला। तब से यह जीवन में साथ-साथ चल रही है।

इधर बचपन की स्मृतियों में ननिहाल कानपुर और मोहाल का एक अपराधी आदमी जिसे तब देखकर दिल में डर के मारे रेल से चलने लगती थी क्योंकि नानी बतलाती थीं कि वो कितना गुस्सैल और निर्मम है, इस तरह एक चरित्र और यह चिन्तनीय विचार कि यदि सचमुच मृत संवेदना वाले ऐसे लोगों के आसपास कोई समाज जीवनायापन कर रहा हो, तो कैसे करता होगा?
तिलकू रात को अपने घर में जाकर कमरे में बन्द हो जाता है, सुबह उसके चार गुण्डे अनुचर उसे बुलाने और फिर दिन शहर में अपराध करने निकलते हैं। उनकी हिंसा, अराजकता, अपमान के शिकार लोगों के सामने चारा क्या है? किसको कहें? एक पुलिस अधिकारी है, युवा ऊर्जावान जो लगातार उसके पीछे है, निगरानी में है पर रंगे हाथों पकड़ा नहीं जाता। त्रासदी पाये लोग पुलिस में शिकायत करने से डरते हैं क्योंकि उसके बाद उनका जीवन खतरे में है। क्या एक बुरे आदमी से निजात पाने के लिए उससे बड़े बुरे आदमी की शरण में जाना चाहिए? बाद में उस बड़े बुरे आदमी से बचे हुए समय में डरे हुए बने रहना चाहिए? क्या बुरे आदमी को करनी का फल मिले, इसके लिए ईश्वर की आराधना करना चाहिए, मन्दिर में भजन गाना चाहिए?
बहुत सारे उद्वेग दिमाग में चलते रहे हैं। किसी भी मनुष्य को यह कहाँ पता है कि अगल क्षण या पल क्या है, आगे मोड़ पर क्या है........उसके बाद भी क्यों लोग दृष्टिबाधित हैं, मस्तिष्कबाधित हैं, संवेदनाबाधित हैं...............तिलकू जैसा अन्त किसी के साथ भी हो सकता है। आह, बद्दुआए एँ, शाप, कोसना, हौकना यह सब शब्द हमारी चेतना और स्मृतियों में आदिकाल से भय और अन्देशे के पर्याय रहे हैं। क्या हम सब ऐसे भयों और अन्देशों से उबर चुके हैं? हमें किसी का डर नहीं.......?
त्रिलोचन जी की कविता से ही इस नाटक का शीर्षक रखने की भावनात्मक चाह रही सो रख ही दिया, हालाँकि एक महान कवि की कालजयी काव्यात्मकता से यह प्रेरणीय पंक्तियाँ जितनी उच्चकोटि की हैं, वहाँ तक नाटक पहुँच पाये, इसके लिए इस नाटक से जुड़ा प्रत्येक सदस्य निष्ठित रहा है तथापि दर्शकों के मन तक थोड़ी सी भी चेतना जा सकी तो हम सभी का मनोरथ सफल होगा..........
सच कहूँ तो इस नाटक में मनोरंजन बिल्कुल नहीं है, तनाव है पूरी तरह। और तनाव में रखना भी चाहता हूँ इस नाटक के दर्शक को क्योंकि आमने भी और सामने भी हल्का दीखने और हल्का करने के बहुत से अवसर हमारे जीवन में आया करते हैं। लोग ध्यान, औषधि, योग आदि की और भी इसीलिए प्रवृत्त हैं लेकिन कम से कम एक नाटक ऐसा भी लिखने का मेरा अपने आपसे हठ था, सो किया, शेष सब आप कह दीजिएगा................

पांच

ओह, यह त्रिलोचन जी की जन्माशती का साल है.......
सचमुच नहीं पता था कि यह त्रिलोचन जी की जन्मीशती का साल है। नाटक "ऐसे रहो कि धरती का" ब्रोशर छपने से पहले उसको खूब भली प्रकार सुदृढ़ करने को जतनशील था कि मन हुआ कि जब उनकी कविता से प्रेरणा लेकर नाटक लिखा है तो उनका छायाचित्र भी मेरे नोट के साथ जाना चाहिए। इसी ढूँढ़ा-खखोरी में जब यह जाना कि वे 1917 में जन्मे थे जो सुखद विस्मय से भर गया। उनका निधन 2007 में हुआ था। मेरा सौभाग्य जो कविता मेरी देह-मन में पचीस बरस पहले पैठ कर गयी उससे प्रेरित नाटक 2017 में हो रहा है। यह सुखद संयोग ईश्वरीय हैं और मैं ईश्वार का कृतज्ञ हूँ............
ब्रोशर का आवरण कई बार बदला, अन्तत: विश्व प्रसिद्ध सांची के स्तूप में द्वार के एक शिल्प को गुणी परिकल्पेनाकार आदरणीय भाई हरचन्दंन सिंह भट्टी के मार्गदर्शन में चयन किया। उसमें एक सुन्दार सा वट वृक्ष है और प्रांगण में देवगण।
दरअसल कामना तो यही है न कि मनुष्यता ऐसी हो कि धरती उसका बोझ सह ले, मानव पहले के पीछे भाव दरअसल कवि का क्याे है.........कवि, ऋषि, देव आदि पीछे हों/मानव पहले/ऐसे रहो कि धरती/बोझ तुम्हारा सह ले......
सो मैं, मेरे निर्देशक और नाटक की पूरी टीम भावनात्मक निष्ठा से इस प्रस्तु ति के साथ मंचन स्थल पर सम्मान्य प्रेक्षकों के समक्ष होगी, सच्चे मित्रों की शुभकामनाओं के सिवा जगत में कुछ नहीं है, दे कर उपकृत कीजिएगा.............

छ:

ऐसे रहो कि धरती.....
(प्रदर्शन के कुछ घण्‍टे पहले)

आज शाम 7 बजे शहीद भवन में इस नाटक का प्रदर्शन होने को है। कुछ ही घण्‍टे बचे है। इस बीच नेपथ्‍य के संकट, व्‍यवस्‍थाएँ और अपरिहार्यताओं की चिन्‍ता निर्देशक प्रस्‍तुति की चिन्‍ता के साथ कर रहे हैं। नये विषय के साथ सामने आना अपनी चुनौती है, खासकर तब जब यह दिमाग में ठीक-ठीक बैठा हुआ हो कि सवा घण्‍टे की गम्‍भीरता में दर्शक को बीच में वैसा सहज बनाते नहीं चलना है कि कहकहे लगाने या हँसने के आग्रह वाले संवाद हों। मुझे लगा कि वह भी विषय के बीच व्‍यवधान होगा।
एक सीख नानी से सुनता था, फिर मम्‍मी से भी क्‍योंकि नानी से ही मम्‍मी ने भी सीखा था, नन्‍हें ऐसे हुई रहो, जैसे नन्‍हीं दूब, और घास जर-बर जायें, दूब खूब की खूब। नाटक में इस पंक्ति का प्रयोग भी है, अन्‍तत: इसी प्रार्थना के साथ नाटक सम्‍पन्‍न होगा। संगीतकार सुरेन्‍द्र वानखेड़े ने इसे कम्‍पोज किया और कल संजय उपाध्‍याय जी ने इसको विनम्रता की वो गरिमा दी, कि मन भावुक हो गया।
दूब, दूर्वा भारतीय परम्‍परा में अनेक गुणों से युक्‍त है। अनुष्‍ठान में उसको जो महत्‍व और आदर मिला हुआ है, हम सभी के वह संज्ञान में है। इस प्रसंग, रचना और स्‍मृतियों के साथ मुझे नाटक में अपनी माँ की भी मौजूदगी का परम आभास, विश्‍वास रहेगा..........

सात

बस थोड़ा और..............
कई बार आपकी ओर से सोचता हूँ तो अपने ही पर हँसी आने लगती है कि आखिर मित्र कितना सुनना, जानना चाहेंगे किसी भी विषय, घटना, बात, उपलब्धि या गतिविधि पर। कुछ दिनों से अपने आज मंचित हुए नाटक पर लिखते हुए आज यह बात मन में आ ही गयी। चिढ़कर कहने का हक है, इनका तो हर दिन वही नाटक.........या इनका तो हर दिन नया नाटक.......
बहरहाल, ऐसे रहो कि धरती आप सभी की स्पर्शीय आत्मीयताओं से उस तरह से मंचित हो गया जो व्यवहारिक और बाहृय तौर पर सफल उपक्रम के दिखायी देने वाले मानदण्ड या प्रमाण हैं। कल इस नाटक पर अखबारों में टिप्पणी आयेगी, सो आज और कल दो दिन ऐसे रहो कि धरती की बची-खुची चर्चा और......
रंगप्रेमियों से हाॅल भर गया था, यह बात। एक घण्टे पन्द्रह मिनट करीब की अवधि। स्क्रिप्ट रिलेक्स नहीं करती थी, मंच पर कलाकारों ने भी महीने भर की तैयारी में भरपूर क्षमता के साथ दर्शक को तनावरहित नहीं होने दिया। ज्वलन्त और विषम को सहन करना, अपने भी संयम की परीक्षा है जैसे घुटन में जिए रहने की जद्दोजहद........
एक-दो प्रदर्शनों और पूर्वाभ्यासों में यह अपनी व्यवस्थित जगह लेगा। महान कवि त्रिलोचन की कविता से प्रेरित शीर्षक है, एकदम से नाटक को नहीं खोलता और न ही पूर्वानुमान करने देता है। त्रिलोचन जी की जन्मशती के चलते इस साल इसे कुछ जगह प्रस्तुति के अवसर मिलना चाहिए, यह आकांक्षा रहेगी।
हीरू चटर्जी और विशाल आचार्य से प्रभाव से यह नाटक दर्शक को बाहर आने नहीं देता। घटनाएँ संयोजित की गयी हैं। अपराधी के लिए प्रेमियों को लूटना, वृद्धा की पेंशन छुड़ाना, बैसाखी नाम के एक पैर से चलकर चाय बेचकर जीवनयापन करने वाले युवक को प्रताड़ित करना और अपने रास्ते जाते एक संस्कारी युवा को दो पल में मार देना सब चुटकियों का काम है लेकिन एक चुटकी ऊपरवाला भी बजाता है, जिसके हाथ हम सरीखी कठपुतलियों के धागे हैं। क्षणभंगुरता के यथार्थ में वही पल भर में किसी की भी भूमिका को खत्म कर देता है............
हमारा यही मैसेज है, सन्देश है। हाॅल में अनेक दर्शकों की आँखों में आँसू आये, घटनाओं को देखते हुए। अन्तिम दृश्यों में द्वंद्व कमाल का है, विशाल आचार्य Vishal Acharya ने तिलकू के किरदार को खूब मेहनत से निभाया है। मार दिये गये युवा के पिता की भूमिका में हीरू चटर्जी ने चरित्र को जैसे पी लिया। संगीतप्रभाव विशेषकर उस दृश्य में जब देह में चाबुक मारने वाला दृश्य है, सिहरा देता है। ज्यादा नहीं लिखता, अपना बेबी है.............
आनंद मिश्रा Anand Mishra, अनुज, हमेशा लो-प्रोफाइल, सबके लिए सहयोगी, साथ देने वाले, हर मजबूत पट्टी पर धार होने को तैयार, इस नाटक के बहुत अच्छे निर्देशक लगे, मेरी ओर से उनके लिए यही..............
और ड्रामा स्‍कूल के डायरेक्‍टर संजय उपाध्‍याय जी Sanjay Upadhyay ने जो कि हमारे मार्गदर्शक भी रहे, परिष्‍कारकर्ता भी, आज पूरा नाटक देखने के बाद मंच से उन्‍होंने हौसलाआफजाई की और नाटक के अन्‍त या परिणाम को लेकर एक बहुत अच्‍छा श्‍ाब्‍द प्रयोग किया पाेएटिक जस्टिस, अर्थात अपराधी को ईश्‍वर से दण्‍ड मिलता है, न कोई गैंगवार, न एनकाउण्‍टर........किए की सजा। सामाजिक प्राणी को इस भय सताना चाहिए, आज के समय की तरह अराजक और निर्भीक नहीं........
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सोमवार, 15 मई 2017

बॉलीवुड में चौथे और उठावने का ग्‍लैमर

सितारा समाज में सम्बन्ध, कृपणता और संवेदनहीनता



हिन्दी सिनेमा के एक बड़े सितारे विनोद खन्ना अब स्मृति शेष हैं। सोशल मीडिया में तमाम उत्साही, बौराये और मूर्ख किस्म के व्यग्र लोगों ने उनको महीने भर पहले से ही परलोक भेज दिया था। यह तो था कि वे गम्भीर रूप से बीमार थे जिसकी परिणति अन्ततः मृत्यु हुई लेकिन उसके अगले दिन ट्विटर पर अभिनेता ऋषि कपूर ने जिस तरह से दो-एक लोगों को आड़े हाथों लेते हुए इस बात को शिद्दत से उठाया कि विनोद खन्ना के अन्तिम संस्कार के समय ऐसे बहुत से लोग दिखायी नहीं दिये जिनके साथ विनोद खन्ना का लम्बा जुड़ाव रहा है या जिनके साथ विनोद खन्ना ने ज्यादातर काम किया है। इस बात को ज्यादा तूल देने का कोई अर्थ इसलिए नहीं था कि हमारे सितारों की आँखों में प्रायः एक बड़ा सा काला चश्मा चढ़ा रहता है जिससे वे अपने सारे भाव छिपाये रहते हैं। सार्वजनिक रूप से उनकी उपस्थिति इसी बड़े से काले चश्मे के साथ हुआ करती है जिससे कुछ भी जाहिर नहीं होता। वे बाकायदा सफेद परिधान का चयन करते हैं या ऐसे अवसरों के लिए तैयार करते रखते हैं और अपने आपको पूरी तरह आवरण में लपेटकर चुनिन्दा या तयशुदा घटनाओं या हादसों में उपस्थित होकर अपनी संवेदना प्रकट करने का अभिनय करते हैं। 

विनोद खन्ना एक बड़े सितारे थे। आखिरी समय तक अच्छे काम की कमी उनको कभी नहीं रही। उनका मान-सम्मान भी बहुत था क्योंकि सम्बन्धों के मामलों में वे निर्विवाद रहा करते थे। तब भी उनके संगी साथी, सहकर्मी नहीं जुटे, यह बात उस निर्मम सत्य की ओर इशारा करती है जिसका आदी मुम्बइया सिनेमा समाज लगभग पचास सालों में खूब हो गया है। यहाँ अब सारे रिश्ते संवेदना से उठकर लाभ-हानि के हो गये हैं। आपस में एक-दूसरे की जरूरत या वकत तभी तक है जब तक आप लाभ देने के योग्य हैं। आपसे हानि उठाकर आपको कोई सिर पर बैठाकर नहीं रखेगा। ऐसा दिल बहुत कम लोगों का होता है। एक घटना की बात सिनेमा जगत के इतिहास में दर्ज है जिसमें लव एण्ड गाॅड में काम करते हुए अभिनेता गुरुदत्त नहीं रहे थे तब शोकाकुल माहौल में निर्माता के आसिफ से कान में किसी ने पूछा था कि आपका तो बड़ा नुकसान हो गया, इनके चले जाने से तब जानते हैं आसिफ का जवाब क्या था, आपको शर्म आनी चाहिए, ऐसे वक्त यह बात कर रहे हैं जब मेरा एक अच्छा दोस्त मुझे छोड़कर चला गया। वे सज्जन आसिफ के जवाब से हतप्रभ रह गये थे। 

फिल्मी दुनिया में कलाकारों की मृत्यु पर संवेदना प्रकट करने जाना साथी सितारों के लिए एक अलग तरह की जद्दोजहद का काम होता है। ज्यादातर लोग शूटिंग पर हुआ करते हैं। ज्यादातर लोग शूटिंग जारी रखते हैं। कुछ संवेदना में अपनी शूटिंग निरस्त करते हैं तो कुछ चुपके से अपना काम पूरा करना चाहते हैं वरना दिन भर का नुकसान कौन भुगतेगा। ज्यादातर लोगों को चौथे की प्रतीक्षा रहती है। उस दिन सबका जाना, एक तरह से सबसे मिलने जैसा ही होता है और शोकाकुल परिवार का दुख जरा-बहुत कम भी हो जाता है। कितनी ही घटनाएँ इस रंगीन संसार की कृपणता की बात सामने लाती हैं। अभिनेत्री कुक्कू से लेकर, अभिनेता भगवान और इधर दिनेश ठाकुर से लेकर राममोहन और ओमपुरी और विनोद खन्ना तक सैकड़ों किस्से होंगे। जब शक्ति सामन्त नहीं रहे थे तो इस बात को ध्यान से देखा गया था कि राजेश खन्ना उनकी अन्तिम यात्रा में शामिल नहीं हुए थे, शायद चौथे में भी नहीं। 

अभिनेता और बड़े अच्छे गीतकार स्वर्गीय गुलशन बावरा को कौन नहीं जानता। उनसे आत्मीय अपनापन था। वे कैंसर की बीमारी का शिकार हुए। उनके बच्चे नहीं थे, पत्नी अंजु के साथ उनका सुखमय जीवन था। वे बड़े संवेदनशील थे। अपने आसपास फिल्मी दुनिया के चलन और उसके नकलीपन से वे बहुत व्यथित रहते थे। जीवन के आखिरी समय तक उन्होंने पत्नी को नहीं बताया था कि वे अपनी देहदान कर चुके हैं लेकिन वे यह जरूर कहते थे कि मेरा चौथा मत करना। मैं नहीं चाहता कि मेरे मरने के बाद वे चार लोग आकर झूठी हमदर्दी जतायें तो मेरे कभी अपने नहीं रहे। ऐसे निर्णय करने वाला शख्स निश्चित ही अपने संसार को बेहतर जानता था।

वास्तव में यह हमारे समय और संसार की ऐसी गिरावट का यथार्थ है जिसमें रचनात्मक और सर्जनात्मक समाज के लोग यह सब कर रहे हैं, वे लोग जो परदे पर कितनी तरह की भूमिकाओं में बंधते हैं, आपस में दिखावे के लिए अपनापन बखान करते हैं, दुख-सुख और तकलीफों में गलदश्रु बहाने वाले गाने गाते हैं, पता चला शाॅट खत्म हो जाने के बाद एक-दूसरे की सूरत देखना नहीं चाहते या एक-दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते। न जाने हम जब ऐसे आज की बात कर रहे हैं तो आने वाले कल क्या होगा?


गुरुवार, 11 मई 2017

नाटक - गजमोक्ष (gajmoksha - drama)


नाटक - गजमोक्ष

(तथागत बुद्ध की जातक कथा पर आधारित)


निर्देशक - के. जी. त्रिवेदी
लेखक - सुनील मिश्र
संगीत - सुरेन्‍द्र वानखेड़े

सारांश


तथागत बुद्ध की संवेदनशील और प्रेरणीय जातक कथा पर आधारित यह नाटक हर हृदय पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ता है। यह एक लालची आदमी और तथागत के अवतार हाथी गजराज की मैत्री की कहानी है जिसमें गजराज आदमी की वृत्ति और प्रवृत्ति जानते हुए भी देवत्‍व की महान परम भावना के अनुरूप अपने बहुमूल्‍य दांत दे देते हैं लेकिन कृतघ्‍न आदमी के मन में जो कुटैव है वह उसके भारी दण्‍ड का कारण बनता है। मित्रता को ठोकर मारने वाला आदमी, धरती फट जाती है और उसमें समा जाता है।

गजमोक्ष का प्रथम प्रदर्शन दो वर्ष पहले साॅंची में हुआ था। उसके बाद भोपाल, महाकुम्‍भ सिंहस्‍थ उज्‍जैन, नई दिल्‍ली और पुन: भोपाल में इसके प्रदर्शन हुए हैं। यह नाटक यों तो सभी के लिए प्रेरणा है लेकिन अविभावक आज के समय में अपने बच्‍चों को गजमोक्ष दिखाते हैं तो सम्‍भव: बच्‍चों को संस्‍कारशील और नैतिक मनुष्‍य बनाने का स्‍वप्‍न देखने वाले प्रत्‍येक माता-पिता की ओर से अपने बच्‍चों के लिए यह खूबसूरत, सुन्‍दर सा, लिरिकल उपहार होगा।

मंचन के लिए गजमोक्ष देश-दुनिया में कहीं भी निमंत्रित किया जा सकता है। इसके लिए नीचे उल्‍लेखित ईमेल पर प्रस्‍ताव कर सकते हैं.......

Email

sunilmishrbpl@gmail.com

kgtrivedi2010@gmail.com


शनिवार, 6 मई 2017

के. विश्‍वनाथ/दादा साहब फाल्के अवार्ड


व्यक्तित्व और सर्जना में एक योगी फिल्मकार





ऐसा कभी-कभार ही देखने में आता है जब हमें सच्चे फिल्मकार के व्यक्तित्व में कोई साक्षात योगी दीखे। इसी सप्ताह जब दक्षिण के महान फिल्मकार, निर्देषक एवं अभिनेता के. विश्‍वनाथ को राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी अड़तालीसवें दादा साहब फाल्के सम्मान से विभूषित कर रहे थे तब उनके योगदान का मस्तिष्क में पुनरावलोकन करते हुए यह बात मन में आयी। इधर हमारे हिन्दी जगत या संसार में कहें तो इस बात को लेकर कोई रोचकता या सुखद आभास प्रतीत नहीं होता, यह जानकर भी कि के. विश्‍वनाथ ऐसे फिल्मकार हैं, जिन्होंने हिन्दी में भी कम से कम दस फिल्में बनायीं हैं सरगम, कामचोर, शुभकामना, जाग उठा इन्सान, संजोग, सुर संगम, ईश्‍वर, संगीत, धनवान और औरत औरत औरत। शायद ही किसी को याद हो कि सतीश्‍ा कौशिक ने जब अनिल कपूर के साथ बधाई हो बधाई फिल्म का निर्देशन किया था तो वे के. विश्‍वनाथ को इस फिल्म में एक चरित्र निभाने के लिए राजी करके बड़े खुश हुए थे, मिस्टर डिसूजा का। इस तरह सतीश्‍ा  कौशिक को यह श्रेय जाता है कि के. विश्‍वनाथ को निर्देश्‍ाक के रूप में हिन्दी सिनेमा में जानने वाले लोग अच्छे चरित्र अभिनेता के रूप में उनकी इस फिल्म से जानते हैं। 

सामाजिक चेतना अब बहुत सारे एकालाप में इतनी मषगूल है कि उसे घटित होते ऐसे यशस्‍वी क्षण रोमांचित नहीं करते। उत्कृष्ट सिनेमा के निर्माण का श्रेय जिन्हें प्राप्त है, उनकी हमारे बीच उपस्थिति और उनका मान-सम्मान बहुत मायने रखता है। वास्तव में दरअसल ये ही वे विभूतियाँ हैं जिनकी वजह से सिनेमा के स्वर्णयुग या स्वर्णिम दौर की चर्चा की जाती है और की जाती रहेगी। क्या हमारा जनमानस बहुत से निरर्थक फितूरों से बाहर या बाज आकर थोड़ा-बहुत समय अपनी सांस्कृतिक विरासत और खुद की रचनात्मक चेतना के लिए भी नहीं संजोना चाहता?

खैर, ऐसा हो, न हो तब भी हमारी सांस्कृतिक विरासत को समय-समय पर समृद्ध होने से कोई रोक नहीं सकता, दरअसल यह रोके रुकेगी भी नहीं क्योंकि प्रत्येक कालखण्ड में यदि इतनी भी सजगता समय के साथ है कि के. विष्वनाथ को फाल्के अवार्ड की चयन समिति इस सम्मान के लिए चुनती है तो यह सम्मान की भी सार्थकता है। के. विश्‍वनाथ दक्षिण भारतीय, विषेषकर तेलुगु सिनेमा के शीर्षस्थ फिल्मकारों में सम्मानित हैं जिनकी फिल्मों न केवल आंध्रप्रदेश्‍ा  राज्य के सिनेमा के बीस पुरस्कार जीते बल्कि पाँच नेश्‍ानल अवार्ड, अनेक फिल्मफेयर अवार्ड और एक एकेडमी अवार्ड भी हासिल किया। अपने लगभग साठ साल के सिनेमाई योगदान में लगभग साठ से भी ज्यादा फिल्में उनके सृजन का बड़ा साक्ष्य हैं। सिनेमा में उनकी प्रतिष्ठा एक ऐसे अविभावक, पितामह की होती है जिनके प्रति नंदमूरि तारक रामाराव, शोभन बाबू, कमल हसन, रजनीकान्त, चिरंजीवी, ऋषि कपूर, मिथुन चक्रवर्ती, जयाप्रदा, माधुरी दीक्षित, श्रीदेवी जैसे बड़े सितारे सदैव कृतज्ञ भाव रखते रहे। के. विश्वनाथ का सिनेमा सशक्त पटकथा, प्रभावी सम्प्रेषण, प्रतिबद्ध निर्वाह और सांस्कृतिक चेतना तथा विश्वसनीयता का ऐसा प्रमाण है जिसका समानान्तर उदाहरण किसी दूसरे व्यक्तित्व में नजर नहीं आता। 
उनकी सप्तपदी, स्वयंकृषि, शुभालेखा, सूत्रधारालु वे बहुचर्चित फिल्में हैं जिनमें दहेज, अस्पृश्यता और हिंसा जैसी सामाजिक बुराइयों पर प्रभावी ढंग से सार्थक विचार रखा गया है जो देखने वाले को झकझोरकर रख देता है। ऐसे ही उनकी सारदा और सिरीवेल्केला शारीरिक और मानसिक निशक्तता को केन्द्र में रखकर जो कथानक प्रस्तुत करती हैं, जिस तरह से हमें हमारी जिम्मेदारियों के प्रति जाग्रत करती हैं, वो अचम्भित करके रख देता है। के. विश्वनाथ वो फिल्मकार हैं जिनके बारे में यह अनुशासन जाहिर है कि वे विषयों को समझकर उसके संवेदनशील निर्वाह की जैसी दृष्टि रखते हैं वो विलक्षण है। एक पटकथाकार, एक निर्देशक के रूप में वे अपने माध्यम के प्रति अगाध निष्ठा रखने वाले फिल्मकारों में से एक हैं। लगभग सत्यासी वर्ष की आयु में सिनेमा का सबसे बड़ा गौरव सम्मान ग्रहण करते हुए उनके व्यक्तित्व पर प्रतिभा की चमक देखते ही बनती है। एक ऐसा फिल्मकार जो एक समय में समानान्तर और मुख्यधारा के सिनेमा में समान रूप से आदर रखता हो, के. विश्वनाथ के अलावा और कोई नहीं है। 

के. विश्वनाथ का यश तेलुगू सिनेमा के साथ-साथ तमिल और हिन्दी सिनेमा में भी समान रूप से फैला हुआ है। यह जानना दिलचस्प ही होगा कि उनका कैरियर एक साउण्ड रिकाॅर्डिस्ट के रूप में तेलुगू सिनेमा से आरम्भ हुआ था। आगे चलकर वे कहानी और पटकथा लेखक के रूप में सक्रिय हुए और अवसर पाने पर सहायक निर्देशक के रूप में भी काम किया। वे लम्बे समय ए. सुब्बाराव, के. बालचन्दर, बापू आदि निर्देशकों के सहायक रहे। यह सब करते हुए उनको यदाकदा कुछ भूमिकाएँ मिलीं तो वो भी उन्होंने करनी चाहीं। गुणी निर्देशकों के साथ काम करते हुए फिल्म निर्माण की उनकी स्वयं की दृष्टि और प्रखर, परिमार्जित और परिष्कृत होकर सामने आयी जब उनको पहली फिल्म बतौर निर्देशक करने को मिली और इस फिल्म को आंध्रप्रदेश सरकार ने सिनेमा के प्रतिष्ठित नांदी अवार्ड से सम्मानित किया। यह फिल्म थी आत्मगौरवम जिसमें अक्कीनेनी नागेश्वर राव ने नायक की भूमिका निभायी थी। इसके बाद वे निरन्तर एक के बाद एक उत्कृष्ट फिल्में बनाते गये। उनकी फिल्मों को पसन्द करने वाला एक विशाल-विराट दर्शक वर्ग था जिसकी सीमा प्रान्त या देश नहीं बल्कि दुनिया तक विस्तारित थी तभी स्वयम्कृषि, स्वाति किरनम और स्वर्णकमलम जैसी फिल्मों को ताशकन्द, मास्को, फ्रांस और एशिया पेसीफिक में देखा और सराहा गया और ये फिल्में इन जगहों तक अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह का हिस्सा बनकर पहुँचीं।

शंकराभरणम, सप्तपदी, स्वाति मुथयम, सूत्रधारालु और स्वराभिषेक के. विश्वनाथ की वे फिल्में थीं जिनको नेशनल अवार्ड प्राप्त हुए बल्कि स्वाति मुथयम को इस बात का श्रेय जाता है कि वह उनसठवें अकादमी अवार्ड को हासिल करने वाली श्रेष्ठ विदेशी फिल्म के रूप में पुरस्कृत हुई थी। के. विश्वनाथ बतौर चरित्र भूमिका 1995 में शुभसंकल्पम फिल्म में आये और इस आयाम में ऐसे सराहे गये, ऐसे रमे कि फिर नरसिम्हा नायडू, पुडिया गीतई, टैगोर, स्वराभिषेकम, पाण्डुरंगाडु में उनके चरित्रों को दर्शकों ने खूब पसन्द किया। उनकी फिल्में जिस तरह से सामाजिक सरोकारों, विद्रूपताओं, विसंगतियों को रेखांकित करने वाली मनोरंजक और प्रेरक होती थीं उसी प्रकार वे कला, संगीत, संस्कृति के विभिन्न आयामों की पृष्ठभूमि में अनेक महत्वपूर्ण विषयों के साथ कला और साधना की परम्परा, ऐतिहासिकता, अस्तित्व और सच्चे तथा प्रतिबद्ध साधक गुरुजनों की संजोयी-संचित करके रखी गयी सांस्कृतिक थाती का भी वह दर्शक प्रभावी और समृद्ध ढंग से कराते थे कि लगता ही नहीं था कि सामने परदे पर हम जो देख रहे हैं वह सदियों पहले की मूल्यवान सन्निधियाँ हैं या हमारे आनंद के साथ-साथ विरासत के पुनस्मर्रण का ईमानदार, सार्थक और सच्चा सर्जनात्मक प्रयत्न! ऐसी फिल्मों में हम शंकराभरणम, सागरसंगमम, सुरसंगम, स्वातिकिरणम आदि को भूल नहीं सकते। 

निरन्तर दूसरी सदी में सिनेमा इतिहास के इन लगभग एक सौ पन्द्रह वर्षो में के. विश्वनाथ का स्थान बहुत सम्मानजनक है। हिन्दी सिनेमा में राकेश रोशन और टी सीरीज जैसे निर्माताओं को इस बात का श्रेय है कि वे ऐसे महान फिल्मकार से कुछ फिल्में ऐसी बनवा सके जिनका स्मरण-स्पर्श हमें उन स्मृतियों में ले जाने में सफल होता है जब ऋषि कपूर और जयाप्रदा अभिनीत सरगम याद आ जाती है, राकेश रोशन और जयाप्रदा अभिनीत कामचोर याद आ जाती है, जैकी श्राॅफ और माधुरी दीक्षित अभिनीत संगीत याद आ जाती है या अनिल कपूर और विजयाशान्ति अभिनीत ईश्वर याद आ जाती है। के. विश्वनाथ का सम्मान इन मायनों मेें सिनेमा की सार्थकता में विश्वास करने वाले, सार्थकतापूर्वक सर्जनात्मक उद्यम करने वाली विभूति का सम्मान है। 



गुरुवार, 4 मई 2017

याद / विनोद खन्‍ना

अपनी बनायी छबियों को लाँघता एक कलाकार



यह सत्तर के दशक से थोड़ा पहले की बात रही होगी, अभिनेता, निर्देशक और निर्माता सुनील दत्त अपनी फिल्म मन का मीत में एक बहुत ताजा, युवा चेहरा प्रस्तुत करते हैं जिसका नाम विनोद खन्ना था। दर्शकों के सामने लगभग बाइस साल का यह सुन्दर, छरहरा और स्मार्ट युवा नकारात्मक भूमिका में अपना प्रभाव छोड़ जाता है और कहीं न कहीं सुनील दत्त को लगता है कि आने वाले समय में इस लड़के का भविष्य बहुत अच्छा हो सकता है यदि मौके ठीक-ठाक मिलते रहें। फिल्मों में प्रवेश से लेकर सारी जिन्दगी विनोद खन्ना भले परदे पर एक से बढ़कर एक दुर्दान्त नकारात्मक चरित्र निबाहते रहे लेकिन अपने जीवन में विनम्र और शिष्टाचारी रहे, यही कारण था कि उनकी व्यवहारकुशलता के कारण जिससे जुड़े, रिश्ते निबाहते चले गये। यही कारण था कि वे सुनील दत्त के साथ ही मनोज कुमार, गुलजार, मेहमूद आदि के साथ अपनी धारा बनाने में जुट गये। वह समय ऐसा था जब निर्देशकों को नायक के समानान्तर एक उसी मयार का खलनायक चाहिए होता था जो परदे पर आखिरी तक हिम्मत न हारे, जिसके तेवर पैनेपन की हद तक नुकीले हों और जो नायक के दो घूँसे पर अपने भी दो घूँसे चलाने का दुस्साहस रखे। ऐसा खलनायक जो बेदर्दी से निर्मम होकर नाजुक नायिका की बाँह भी मरोड़ सके। विनोद खन्ना ने परदे पर ये सारे दुस्साहस किए और तेजी से अपना स्थान बनाते चले गये।

यह सच था कि विनोद खन्ना हिन्दी सिनेमा के परदे पर नायक बनने का स्वप्न लेकर ही आये थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा बहुत अच्छी हुई थी। वे तीन बहनों के अकेले भाई थे और समृद्ध परिवार के बेटे थे। उनके परिवार ने उनको सिनेमा में अभिनय के क्षेत्र में किस्मत आजमाने के लिए पूरा प्रोत्साहन दिया था। विनोद खन्ना को, यह सच बात है कि बहुत कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा अपना स्थान बनाने के लिए लेकिन अपने दिनोदिन मजबूत होते स्थान पर बने रहने के लिए जरूर उन्होंने खूब परिश्रम किया, अनुशासन का पालन किया, हर प्रकार के जोखिम लिए जिनसे अक्सर सुरक्षित चलने वाले कलाकार पीछे हट जाया करते हैं और खासकर निर्देशक के लिए प्रत्येक अपेक्षाओं पर खरे उतरने वाले कलाकार के रूप में वे खूब तारीफ पाया करते थे। 

सत्तर का दशक भारतीय सिनेमा के लिए सबसे रोमांचकारी दस साल कहे जायेंगे जिसमें प्रतिभाओं ने खूब जमकर काम किया, स्वस्थ स्पर्धाएँ की और दर्शक समाज के सामने एक साथ छः-सात ऐसे चेहरों का सम्मोहन रचा कि दर्शक किसे चाहे, किसे छोड़े कहा नहीं जा सकता था। विनोद खन्ना सर्वश्रेष्ठ युवा खलनायक थे क्योंकि उस समय तक प्राण प्रौढ़ हो चले थे जो कि खलनायकों के राजा कहलाते थे। दूसरे खलनायक मदन पुरी, अनवर हुसैन, जीवन आदि जीवन और कैरियर के उत्तरार्ध में थे। परदे पर विनोद खन्ना का आना भी नायक के आने के बराबर मायने रखता था फिर चाहे वो कच्चे धागे हो, मेरा गाँव मेरा देश हो, पत्थर और पायल हो, रखवाला हो, सच्चा झूठा हो या ऐसी ही और कोई फिल्म। लेकिन खलनायकों में सुपरस्टार होने के बावजूद बड़ी ही सावधानी और अच्छे अवसरों के साथ उन्होंने नायक बनने की शुरूआत भी की। उनके कैरियर में गुलजार की फिल्म मेरे अपने की बड़ी भूमिका है। वहाँ से एक सम्भावना, एक रास्ता बना। पूरब और पश्चिम, मस्ताना, परिचय, अचानक, इम्तिहान के रास्ते हाथ की सफाई तक आना विनोद खन्ना जिसमें चाभी ने तार को नहीं छुआ, सायरन नहीं बजा और जोखिम पार हो गया। इसके बाद विनोद खन्ना अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र, शत्रुघ्न सिन्हा, सुनील दत्त आदि के साथ अनेकानेक फिल्मों में बराबर की भूमिकाओं में आते रहे। 

सकारात्मक चरित्रों में भी विनोद खन्ना का स्वागत हुआ। हालाँकि एक्शन फिल्मों में अंग्रेजी में कहा जाये तो उनके व्यक्तित्व के अनुरूप डेशिंग भूमिकाएँ लिखवायी जाती रहीं लेकिन उल्लेखनीय यह भी है कि इसी के समानान्तर विनोद खन्ना, गुलजार जैसे महत्वपूर्ण निर्देशक की प्रिय पसन्द रहे और उनके लिए हर सौंपी जाने वाली भूमिका को गम्भीरता से जिया फिर चाहे वो लेकिन हो या मीरा हो, पहले की फिल्म का तो खैर जिक्र पूर्व में आया ही। विनोद खन्ना सत्तर और अस्सी के दशक के दो प्रमुख सफल निर्देशकों प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई की फिल्मों के सफल नायक रहे। उन्हें जे.पी. दत्ता ने बँटवारा और क्षत्रिय में अहम भूमिकाएँ सौंपी। वे यश चोपड़ा की फिल्मों चांदनी, परम्परा आदि में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाते रहे। फिरोज खान की वे पहली पसन्द रहे और दयावान में श्रेष्ठ भूमिका निभायी। और उल्लेखनीय फिल्मों में रिहाई, इन्कार, लीला, मार्ग, राजपूत, मैं तुलसी तेरे आंगन की, कुदरत आदि का उल्लेख आवश्यक है।

विनोद खन्ना इधर पिछले कुछ वर्षों में सलीम खान से अपने सदाबहार अच्छे रिश्तों के कारण वाण्टेड से लेकर दबंग तक फिल्मों का हिस्सा रहे। उनका निधन हिन्दी सिनेमा की एक बड़ी क्षति है। एक ऐसे अभिनेता का जाना है जो अपीयरेंस में, तेवर में और प्रभाव में अपने किसी भी समदर्शी से उन्नीस नहीं रहा............