गुरुवार, 29 जून 2017

टॉयलेट एक प्रेमकथा के बहाने

सम्‍पादक-निर्देशक के सिनेमा पर बात



हिन्दी सिनेमा में मुझे निजी तौर पर सम्पादक से निर्देशक बने फिल्मकारों की फिल्मों को लेकर सदैव जिज्ञासा बनी रहती है। तब और जब खासकर सम्पादक, एडीटर अपने काम से ध्यान आकृष्ट करता हो और बाद में उसकी आगे की धारा उसे निर्देशन की ओर ले जाती हो। यह परम्परा हृषिकेश मुखर्जी से शुरू हुई है और डेविड धवन, लीना यादव, राजकुमार हीरानी से होते हुए निरन्तर जारी रही है। समय-समय पर आदि निर्देशकों ने अपनी फिल्मों से ध्यान आकृष्ट किया है और वे सम्पादक की लाइन से निर्देशन के क्षेत्र में आये हैं।

दरअसल निर्देशक के लिए लगभग पूरी फिल्म बहुत ही गहनता और समझदारी से गढ़कर देने का काम सम्पादक या एडीटर ही करता है। एक दृश्य से दूसरे दृश्य तक जाने, दृश्य की लम्बाई या सुदृढ़ करने के लिए उसको आवश्यकतानुसार लेना, शेष छोड़ देना, संवादों की आवश्यकता, अपरिहार्यता और निरर्थकता की वह ऐसी विकसित समझ वाला व्यक्ति होता है जो लगभग दर्शक की निगाह से फिल्म को देखते हुए अनुशासित करता है। वह वास्तव में निर्देशक का काम आसान करता है।
श्रीनारायण सिंह को एडीटर के रूप में उनके कामों के साथ ही जाना है, अक्षय कुमार की पिछली अनेक सफल फिल्मों के वे एडीटर रहे हैं, बेबी, स्पेशल छब्बीस, रुस्तम आदि और इसके अलावा ए वेडनेस्डे, एम एस धोनी, सात उचक्के आदि। श्रीनारायण सिंह की चर्चा इन दिनों निर्देशक के रूप में अपनी पहली फिल्म टाॅयलेट एक प्रेमकथा के साथ हो रही है। स्वाभाविक रूप से निर्देशक होते हुए वे सम्पादन के अपने अनुभवों और आवश्यकताओं के अनुसार ही काम भी करते रहे होंगे। उतना ही शूट हो रहा होगा, जितना जरूरत हो, विकल्प भी यदि लिए होंगे तो बहुत आवश्यकता होने पर।
आमतौर पर फिल्म में भी भोजन की मात्रा और राशन की जरूरत का तालमेल बनाया जाना बेहतर रहता है। यदि निर्देशक, सम्पादक भी है तो उसको पता है बल्कि वह काम करते हुए बहुत सारे अतिरेकों को भी खत्म करता है। वह निर्देशक के रूप में पहले सक्रिय है, एडीटर के रूप में बाद में काम करेगा, एडीटिंग टेबल पर और पुनरावलोकन करेगा निर्देशक के रूप में पुनः।
टाॅयलेट एक प्रेमकथा का टीज़र दिलचस्प है। जिज्ञासा, कौतुहल और आकर्षण जगाने वाला। हमें एक ऐसे निर्देशक का स्वागत या अभिनंदन करना चाहिए जो अपने आपको अनेक बार एडीटर के रूप में सफलतापूर्वक प्रमाणित कर चुका है और उन्हीं तजुर्बों के साथ दर्शकों के लिए एक अच्छे विषय की फिल्म लेकर आ रहा है..........

बुधवार, 28 जून 2017

हिन्दी सिनेमा और हिन्दी मीडियम

विडम्बनाएॅं एक सी हैं....




सिनेमा की एकरस धारा में कई बार अचानक भूचाल सा आता है जब अपनी विषय वस्तु और लीक से अलग हटकर बनी फिल्म को चर्चा मिलना शुरू होती है तो वह फिर दर्शकों की निगाह पर चढ़ती है और सफल होने लगती है। ऐसी फिल्म की सफलता के लिए बहुत बड़ा या चमकदार सितारा होना आवश्यक नहीं है और न ही ऐसी किसी हीरोइन की आवश्यकता है जो आज की आधुनिकता से दो कदम आगे आधुनिक हो और सुर्खियों में बनी रहने के लिए तरह-तरह के हथकण्डे इस्तेमाल करती हो। सार्थकता और श्रेष्ठता के मापदण्ड पर खरी उतरी फिल्में जब सचमुच हम देखने का समय निकालते हैं और एक से मानस के दर्शकों के बीच उसको सुरुचि और आनंद के साथ देखते हैं तब हमें वह चर्चित फिल्म स्वतः यह प्रमाणित करती हुई आगे बढ़ती है कि उसकी खूबी या विशेषता क्या है, क्यों उसको उसकी साधारणतया के बावजूद पसन्द किया जा रहा है, देखा जा रहा है।

ताजा उदाहरण हिन्दी मीडियम फिल्म का है जिसको एक के बाद एक राज्य करमुक्त करते चले जा रहे हैं। इस फिल्म को साकेत चैधरी ने निर्देशित किया है। यों तो कुछ माह पहले इस फिल्म के प्रोमोज़ ने ही प्रभावित किया था और लग रहा था कि यह भेड़चाल से अलग हटकर फिल्म होगी, दूसरा इस फिल्म में इरफान का काम करने की सहमति का अर्थ ही निकाला जाता है कि यह सितारा पटकथा पढ़ने और उसे सार्थक पाने पर किसी फिल्म में काम करने की स्वीकृति प्रदान करता है। चमकदार बैनर या बड़ा नामचीन निर्देशक ही उनकी प्राथमिकताओं में शामिल नहीं है, बहरहाल हिन्दी मीडियम के माध्यम से जिस तरह भारतीय शिक्षा और संस्कृति में अंग्रेजी की घुसपैठ और फिर उसका विस्तार लगभग चलन में शामिल हो चुका हो, यह फिल्म एक सधा हुआ कटाक्ष भर नहीं है बल्कि कई तरह से आपकी आँखें खोल देने के लिए पर्याप्त है। 

अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा अब प्रत्येक अविभावक के सिर पर लटकी तलवार है। हिन्दी भाषा और व्यवहार की स्थिति यह है कि कुछ साल पहले जानकारी यह हुई थी कि उत्तरप्रदेश में एक सत्र में सबसे ज्यादा पूरक श्रेणी हिन्दी विषय में विद्यार्थियों को प्रदान की गयी थी। बच्चा बोलना सीखे उसके पहले उसके मुँह में अंग्रेजी के शब्द शहद और घुट्टी की तरह पिलाना शुरू कर दिया जाता है। ऐसे में बच्चा और उससे तैयार होने वाली पीढ़ी न तो हिन्दी को पहचान पाती है और न ही उसको जान पाती है। जब जान-पहचान ही न होगी तो उस भाषा में दक्ष या पारंगत होना कभी भी आसान न होगा।

यह तो ठीक है कि हम अपनी शिक्षा प्रणाली या पद्धति में हिन्दी की स्थिति को निरन्तर दयनीय बनाते चले गये हैं, महानगरों की भाषा की तरह सिनेमा की भाषा भी अंग्रेजी हो गयी है। यदि मैं सिनेमा के किसी भी गुणी या ज्ञानी से उसके तकनीकी, ऐतिहासिक या दृष्टिसम्मत ज्ञान का लाभ लेना चाहूँ, जानना, सुनना या समझना चाहूँ तो मैं उसमें विफल रहूँगा। विफल इसलिए भी रहूँगा कि वे अपना ज्ञान सारी जटिलताओं के साथ अं्रग्रेजी में ही देना चाहेंगे! ऐसे में मेरी सारी की सारी जिज्ञासा वंचित रह जायेगी। ऐसा ही हो रहा है। एक अच्छी फिल्म के जरिए यह चिन्ता तो सामने लाने की कोशिश की गयी कि हिन्दी माध्यम की पढ़ाई के लिए कोई सकारात्मक वातावरण ही नहीं बचा है और यदि हिन्दी की अस्मिता को बचाये रखना है तो उसके शिक्षा केन्द्रों को देखा जाये, भाषा को धूमिल होने से बचाया जाये।

अब हिन्दी मीडियम फिल्म हमारी मातृभाषा के लिए सशक्त रचनात्मक पैरवी मानी जा सकती है लेकिन इसी के साथ-साथ यह प्रश्न भी खड़ा होता है कि हिन्दी सिनेमा की स्वयं की भाषा का क्या होता चला जा रहा है? देखने में तो यही आता है कि पूरा का पूरा कारोबार ही अंग्रेजी आधारित है। कलाकार केवल डायलाॅग बोलने के लिए उसको हिन्दी में रट लिया करते हैं, शेष समय उनको हिन्दी आती ही नहीं, वे अंग्रेजी में ही मुँह खोलते हैं और जुबाँ से अंग्रेजी के शब्द ही उच्चारित किया करते हैं। भारत सरकार में सिनेमा की संस्थाएँ अंग्रेजी में व्यवहार करती हैं। उनके कार्यक्रम, कार्यशालाएँ, रसास्वाद पाठ्यक्रम, प्रशिक्षण पाठ्यक्रम एवं पद्धति में अंग्रेजी लगभग अपनी ठसक के साथ हावी है। हिन्दी सिनेमा की अपनी भाषा को समृद्ध कर सकने वालों की भाषा ही अंग्रेजी हो गयी है। 

सिनेमा के इतिहास से परे, उसको जाने बगैर केवल फौरी और साधारण जानकारियों के साथ सिनेमा पर संवाद होते देखता हूँ और तर्क-वितर्क यहाँ तक कि कुतर्क होते भी देखता हूँ तो लगता है कि आने वाले समय में हिन्दी सिनेमा में पात्र संवाद शत-प्रतिशत अंग्रेजी में बोलेंगे। अभी सिनेमा की भाषा गेहूँ और चने का मिश्रण की तरह है, धीरे से भारतीयता और उसकी अस्मिता कही जाने वाली भाषा का अन्न हट जायेगा और कब आपके सामने एक फास्टफूट शैली की भाषा प्रकट होकर व्यवहार और बरताव का हिस्सा बन जायेगी, आपको पता भी नहीं चलेगा। हिन्दी मीडियम और हिन्दी सिनेमा की विडम्बनाएँ वास्तव में एक सी ही हैं।





मंगलवार, 27 जून 2017

देश के दूसरे स्वच्छ शहर से.......

मध्यप्रदेश के अनेक शहर हाल ही के सर्वेक्षण के बाद देश के स्वच्छ शहरों में शुमार हुए हैं। भोपाल उनमें से दूसरा है और इन्दौर पहला। ऐसे शहर का नागरिक होते हुए गर्व तो होगा ही जो सफाई, स्वच्छता के विषय में दूसरे क्रम पर आता है। पहले नम्बर पर आने वाला शहर इन्दौर भी हमारे पड़ोस का है जिसे मिनी मुम्बई कहा जाता है और उसी तरह की सुन्दरता, भव्यता और आधुनिकता का प्रतिबिम्ब देखने को मिलता है। भोपाल का दूसरा साफ शहर चुना जाना सचमुच किसी भी भोपाली के लिए खुशी की बात हो सकती है, क्यों न हो, आखिर वह इस शहर का बाशिंदा जो है, एक शहर गंगा-जमुनी तहजीब से भरा। मूर्धन्य शायरों की जन्म और कर्मस्थली, एशिया की सबसे बड़ी मस्जिद ताजुल मसाजिद, भोपाल ताल से न जाने कितने सौ तालाब भोपाल की पहचान हैं।

भोपाल की विरासत उसकी अस्मिता के साथ ही विस्तीर्ण हुई है। यह जानना दिलचस्प होगा कि जब देश के सात राज्यों उत्तरप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, आंधप्रदेश, उड़ीसा और बिहार के हिस्सों को मिलाकर मध्यप्रदेश का निर्माण 1956 में किया था तब भोपाल मध्यप्रदेश की राजधानी बना था। यहाँ राज्य सरकार का सचिवालय और अनेक शासकीय कार्यालय स्थापित हुए थे। उस वक्त देश के इन्हीं सात राज्यों से लोग यहाँ आये थे और अपना घर बनाया था। यहीं सब एक-दूसरे के पड़ोसी हुए। रिश्ते-नाते बने। सुख-दुख मिलकर बाँटे। एक-दूसरे के लिए कपड़े और स्वेटर बनाकर पहनाये। घर और हुनर की सब्जियाँ बनाकर खिलायीं, पकवान बनाकर खिलाये। सब तीज-त्यौहार मिलकर मनाये। इन सबकी एक यात्रा है, निरन्तर यात्रा, अनवरत यात्रा जिसमें परिष्कार शामिल है, समय-समय पर हुआ परिमार्जन शामिल है। 

देश का यह दूसरे क्रम का सबसे स्वच्छ शहर अनेक उतार-चढ़ावों से गुजरा है। इस शहर ने गैस त्रासदी जैसी भयावह दुर्घटना को झेला और जिया है। हर उम्र ने सड़क पर बदहवासी देखी है। बहुत धीरे-धीरे जाकर यह दुख कम हुआ है। यह शहर रंगपंचमी के जुलूस से लेकर ईद के त्यौहार की मिठास को बराबरी से आदर और मान देता है। शहर की रचनात्मक धारा, सांस्कृतिक जागरुकता हमेशा मौलिक और चित्ताकर्षक वातावरण के साथ विद्यमान रहती है। यहाँ एक ओर जनजातीय संग्रहालय, शौर्य स्मारक, इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, राज्य संग्रहालय जैसे विरासत और मानवीय अस्मिता का बोध कराने वाले केन्द्र हैं वहीं भारत भवन, रवीन्द्र भवन, शहीद भवन जैसे सांस्कृतिक सभागार अपनी सक्रियता के नित नये प्रमाण देते हुए। 

इसी भोपाल को स्वच्छता के एक नये आन्दोलन में बदलने का काम पिछले एक-दो वर्षों के उस आव्हान का परिणाम है जो देशव्यापी स्वच्छता अभियान से शुरू हुआ। इसी बीच राजधानी में महापौर परिषद का पुनर्गठन हुआ और पुराने भोपाल के बाशिन्दे जो अपने पार्षद काल में सबसे ज्यादा सक्रिय और मुखर माने जाते थे, महापौर बने। महापौर आलोक शर्मा के रूप में उनके व्यक्तित्व का यह आयामकाल वास्तव में इस दृष्टि से प्रशंसनीय है कि उन्होंने मुख्यमंत्री की निगाह से राजधानी के आधुनिक स्वरूप को देखा, परिकल्पित किया और उसे यथार्थ में बदलने का संकल्प उठाया। शायद यह बात ध्यान देने की है कि अब न तो उनके भाषण की चर्चा होती है और न ही उनके वक्तव्य बढ़-चढ़कर प्रकाशित होते हैं, अतिरेक न कहा जाये तो उनका काम और दृष्टि बोलती है। 

भोपाल का नगर निगम सचमुच पिछले कुछ समय में आधुनिकीकरण, जिम्मेदारियों, तत्पर और उत्तरदायी ढंग से कार्य निर्वाह का एक मानक बनकर उभरा है। अब मुहल्लों में घर-घर जाकर कचरा नगर निगम की गाड़ियाँ और उनके कर्मचारी प्राप्त करते हैं। कचरे को यहाँ-वहाँ फेंकने के बजाय थैलियों में रखकर ट्राॅली और सायकल रिक्शा में सुबह एक बार दे दीजिए और अपना घर और परिवेश साफ रखिए। युवा और ऊर्जावान नगर निगम आयुक्त छबि भारद्वाज की प्रशासकीय दृष्टि और दिये गये निर्देशों के पालन और प्रगति पर तत्पर निगाह रखने के कारण ही शहर में सड़कें साफ हैं, मुहल्ले साफ हैं और आवश्यकतानुसार रात में रोशनी के सुव्यवस्थित इन्तजाम हैं।

स्वच्छता का मानस या उसका बोध दरअसल मानवीय चेतना और मानवीय सजगता का ही एक अहम हिस्सा है। हम हमेशा किसी भी मुसीबत या शिकायत के लिए सरकार और व्यवस्था को आड़े हाथों लेना नहीं चूकते लेकिन सही बात यह है कि बहुत सारी बनी-बनायी व्यवस्था, साफ-सुचारू परिवेश और वातावरण को बिगाड़ने का काम हम ही शुरू करते हैं। गन्दगी और कचरा फेंकने के मामले में यह बात बहुत बनी-बनायी है और जग प्रमाणित है। मुझे याद है एक बार प्रसिद्ध फिल्म लेखक, पटकथा एवं गीतकार जावेद अख्तर ने मेरे एक प्रश्न के उत्तर में कहा था कि जिस तरह हम किसी रेस्टोरेंट में जाकर बैठते हैं तो हमें मेज साफ-सुथरी मिलती है, सब चीजें व्यवस्थित एवं करीने से रखी होती हैं, चारों तरफ खुशनुमा वातावरण मिलता है। ऐसे में हमारा फर्ज बनता है कि ऐसे स्थान को सलीके से बरतें ताकि हमारे बाद जो यहाँ आकर बैठें वे इस बात के लिए हमारे प्रति अच्छी भावना रखें कि हम उनको एक अच्छा वातावरण उपलब्ध करा कर गये हैं। जावेद अख्तर ने कहा कि यही जीवन के साथ भी लागू होता है, हमारे दुनिया में आने और जाने के सन्दर्भ में भी। यह खूबसूरत और स्वच्छ दुनिया हमारे पूर्वजों ने जिस सुन्दरता के साथ भेंट की है, हम जब यहाँ से जायें तो इसे इतना ही खूबसूरत और साफ-सुथरा कर के जायें ताकि हमारे बाद जो इस दुनिया का हिस्सा हों, उनके मन में हमारे प्रति कोई विपरीतता न हो।

देश के दूसरे क्रम के स्वच्छ शहर का नागरिक होते हुए मुझे यह बात एक नैतिक जिम्मेदारी के साथ रह-रहकर कौंधती है। मुझमें इस बात का बोध हो गया है कि मैं अपना कचरा मुट्ठी में बन्द रखता हूँ। यहाँ-वहाँ नहीं फेंकता। मेरा भोपाल इसीलिए स्वच्छ और साफ दीखता है क्योंकि यह मेरे अकेले भर का बोध नहीं बल्कि भोपालवासियों का हो गया है, भोपालियों का हो गया है।



शनिवार, 24 जून 2017

ट्यूबलाइट................

यह दर्शकों का गढ़ा गया नायक नहीं है


अपेक्षाएँ बढ़ा देना या बढ़ा लेना दोनों कालान्तर में बड़ी सावधानी की मांग करते हैं। किसी एक व्यग्रताभरी जिज्ञासा के मानस पर दर्शकों को पहुँचाकर फिर आगे विकल्प की मुश्किलों के बीच समझौते वाली राह पर सहमत करना बहुत कठिन होता है। कल सुबह से ही अंग्रेजी अखबारों की समीक्षाएँ जिस तरह ट्यूबलाइट के प्रति निराशा का प्रदर्शन कर रही थीं, उन पर बिना देखे विश्वास वैसे भी होना नहीं था लेकिन धीरे-धीरे हिन्दी अखबारों के समीक्षक भी जब समीक्षा लिखने से पहले उसी निराशा में फँसे तो फिर लगा कि देख लेना चाहिए, देखकर बात करना चाहिए.......? ट्यूबलाइट की पृष्ठभूमि भारत और चीन युद्ध का कालखण्ड, एक गाँव का परिवेश और वहाँ से युवकों का फौज में जाना, युद्ध लड़ना आदि है, जिसमें हमारे नायक की कहानी चलती है जो मनःस्थिति में कमजोर है, बातों को देर से समझ पाता है जिसके लिए वह गाँव भर के उपहास का पात्र है लेकिन संवेदना, साहस, यकीन और अच्छी बातों के अनुसरण के लिहाज से वह कुछ लोगों के लिए राजा बेटा भी है।

सलमान खान ने यह भूमिका की है। पिछली आठ फिल्मों की तरह जब वे इस फिल्म में परदे पर पहली बार आते हैं तो उस मात्रा में सीटी या ताली नहीं बजती क्योंकि दर्शक शुरू में ही जान गया है कि नायक का चरित्र ईश्वर, बेटा जैसी फिल्मों के नायक का मिला-जुला रूप है। भाई का फौज में जाकर न लौटना, बड़े भाई की व्याकुलता और आस्था, यकीन और विश्वास के सहारे कहानी का सकारात्मक रूप से सम्पन्न करना बहुत प्रभावी नहीं रह गया है। उसमें कबीर खान कुछ नहीं कर सकते क्योंकि वे पटकथा लेखक से इसी तरह की फिल्म के लिए सहमत हैं।

सलमान खान को एक चीनी बच्चे और उसकी माँ के साथ दोस्ती और अपने कस्बे में उस दोस्ती के आये दिन भुगतने वाले बुरे नतीजों के साथ देखते हुए कोई जिज्ञासा या उत्सुकता नहीं होती। सोहेल खान शुरू में भाई के साथ एक गाना गाकर फौज में भरती हो जाते हैं। गाँव के बुजुर्ग ओमपुरी और उनके गांधीवादी आदर्शों का पालन करने वाला केवल हमारा नायक ही है सो वह लिखा दृष्टान्त साथ में रखे दर्शकों की भी भावुकता को जाग्रत करता है। फिल्म बनाना महँगा काम है, फिर बड़े सितारे और निर्देशक जब यह काम, बड़े लाभ की कामना के साथ करते हैं तो और भी जोखिम बढ़ जाते हैं। आज के समय में इस फिल्म के विषय की प्रासंगिकता को फिल्म की टीम ही रेखांकित कर सकती है।

बड़ा अजीब सा लगता है, गाँव में एक फौजी अधिकारी यशपाल शर्मा आया है, वह दुश्मनों से लड़ने की युवाओं को चुनौती देता है और गाँव के दरजनभर लड़के चार दिन के प्रशिक्षण के बाद युद्ध लड़ने पहुँच जाते हैं, जाहिर है हारे जाते हैं, मारे जाते हैं। फिल्म का नायक हमेशा पैण्ट की जिप बन्द करना भूल जाता है जिसके लिए उसकी सब हँसी उड़ाते हैं। कहानीकार और पटकथा लेखक यह नहीं सोचते कि पैण्ट 1962 में पैण्ट-पतलून में जिप नहीं बटन लगाये जाते थे, जिप बहुत बाद में आयी। हमें फिल्म के नायक और सहनायक अधिक कद्दावर लगे, वजह यह रही होगी कि सुल्तान के साथ-साथ इसकी भी शूटिंग शुरू हो गयी होगी। फिल्म में नायिकाओं की जगह थोड़ी सी है लेकिन फिर भी ईशा तलवार, जूजू प्रभावित करती हैं। यशपाल शर्मा एक बड़ी भूमिका को यथासम्भव आत्मविश्वास से निबाहते हैं, यद्यपि उसमें ज्यादा कुछ करने को होता नहीं। ओमपुरी को देखना भावुक करता है। मोहम्मद जीशान अय्यूब थिएटर और दिल्ली के जुझारू युवा वातावरण के अनुरूप अपने काम से ज्यादा प्रभावित करते हैं। ब्रजेन्द्र काला को देखना, अंजन श्रीवास्तव की याद दिलाता है जो अब फिल्मों में दिखायी नहीं देते। असीम मिश्रा सिने छायाकार हैं, लैण्डस्कैप के साथ-साथ वे भीड़ दृश्यों, क्लोज-शॉट्स और लांग शॉट्स में अपनी कल्पनाशीलता का अच्छा परिचय देते हैं। अनगढ़ पहाड़ों पर बसायी गयी लोकेशन, नायक के सायकिल चलाने के दृश्यों को उन्होंने खूबसूरती से प्रस्तुत किया है।

कुल मिलाकर ट्यूबलाइट दर्शक के लिए एक हताशा है, एक उम्मीद का पूरा न होना, एक नायक को उसकी पिछली जिन आठ फिल्मों में सराहते-पसन्द करते इस ऊँचाई तक ले आना है, वहाँ यह उम्मीद आकर ठिठक गयी है। सलमान खान के लिए यह सोचने का विषय है, इस बीच करोड़ों के कलेक्शन के आँकड़े दिन-ब-दिन कुछ भी कहते रहें, यह बात नजरअन्दाज करने की नहीं है............

शुक्रवार, 16 जून 2017

सांस्कृतिक आयोजनों की उद्घोषणा : एक रचनात्‍मक कार्यशाला भोपाल में

पिछले साल संस्कृति विभाग की ओर से सांस्कृतिक आयोजनों की उद्घोषणा की कार्यशाला प्रयोग बतौर आयोजित की गयी थी जिसमें मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए वरिष्ठ देशव्यापी ख्याति के उद्घोषकों सुश्री साधना श्रीवास्तव Sadhna Shrivastav, श्री संजय पटेल Sanjay Narhari Patel एवं श्री विनय उपाध्याय Vinay Upadhyay की भागीदारी के साथ लगभग 16-20 के बीच जिज्ञासु और उत्साही युवाओं ने हिस्सा लिया था।
जनजातीय संग्रहालय की वर्षगाँठ पर यह प्रयोग दोहराया गया और 6 से 11 जून तक पुनः यह कार्यशाला आयोजित की गयी तो जिस तरह का प्रतिसाद मिला वह बहुत सुखद और उल्लेखनीय रहा। लगभग 28-30 युवाओं ने इस बार के प्रकल्प को आगामी ऊर्जा और सम्भावना से भर दिया।
इस बार मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए सुश्री समीना अली सिद्दीकी Sameena Ali Siddiqui और श्री विनय उपाध्याय थे। सुश्री समीना राज्यसभा टेलीविजन के लिए कलाकारों से साक्षात्कार करती हैं और दिल्ली में अनेक महत्वपूर्ण आयोजनों की उद्घोषिका होती हैं। श्री विनय उपाध्याय, रंग संवाद के सम्पादक, वरिष्ठ सांस्कृतिक अध्येता, विश्लेषक एवं उद्घोषक। बीच में विशेष उपस्थिति हिन्दी फिल्मों के सफल कला निर्देशक एवं मूलतः रंगकर्मी श्री जयन्त देशमुख Jayant Deshmukh और भोपाल से सुपरिचित रंग संगीतकार श्री माॅरिस लाजरस Morris Lazarus। छहों दिन सूत्र सम्हालने वाले अनुभवी उद्घोषक श्री अरविन्द सोनी इस प्रयास का लगातार हिस्सा बने रहे।
मार्गदर्शकों ने प्रतिभागियों से खूब रचनात्मक परिश्रम कराया, सुधार कराया, सुझाव दिये, आत्मविश्वास बढ़ाया और इस अत्यन्त सम्भावनाशील माध्यम में मंच पर से लेकर मंच परे तक के व्याकरण, आत्मविश्वास, संयत अभिव्यक्ति, प्रत्युत्पन्नमति और कौशल को लेकर परामर्श दिया और सार्थक हस्तक्षेप भी।
इस बार भी हम सबके प्रेरणा स्रोत और उत्तरी अमेरिका में एक दशक से भी अधिक समय हुआ बस गये बड़े भाई श्री मुकेश कुन्दन थाॅमस जी Mukesh Kundan की तैयार की हुई जमीन, तत्समय के सीमित संसाधनों के बावजूद कण्ठ से निकलकर सीधे मन तक जाता ओज का स्वर और दरअसल इसे साधना मानकर बहुत ही गम्भीरता से उसमें एकाकार होने वाले प्रेरक की बात होती रही। हमने भाई साहब को इस बार भी आत्मीयतापूर्वक आग्रह करके इस बात के लिए सहज राजी कर लिया कि वे प्रतिभागी बच्चों के लिए अपनी एक पाती लिखें। उन्होंने कार्यशाला सम्पन्न होने के दो दिन पूर्व ही हमें वह सम्बोधन लिखकर भेज दिया, जो अविकल यहाँ प्रस्तुत है.............
श्री मुकेश कुन्‍दन थॉमस.......
आदरणीय मित्रों नमस्कार.
उद्घोषणा कार्यशाला के समापन सत्र में, मैं विशेषज्ञ आदरणीय सुश्री समीना अली सिद्दीकी, आदरणीय श्री विनय उपाध्याय , इस कार्यशाला के अभिकल्पक और समन्वयक आदरणीय श्री सुनील मिश्र और यहाँ एकत्र सभी उत्साही,आकांक्षी और भावी उद्घोषकों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ.
स्वागत इसलिए कि आपने कुछ दशकों पूर्व अनदेखी की जाती रही एक महान कला और उसकी कार्यशैली को समझने,सीखने और साधने का मन बनाया है और अभिनन्दन इसलिए,कि यहाँ आपकी उपस्थिति,उद्घोषणा कला की महत्ता के प्रति सम्मान ,समर्थन और भागीदारी का द्योतक है.

शब्द के बगैर आवाज़ बेजान है और अन्दाज़ के बगैर शब्द.

उद्घोषणा संगीत है – शब्द का ,आवाज़ का , उसके निर्वाह और उसके अन्दाज़ का.
ये कला और इसकी उपयोगिता उतनी ही प्राचीन है जितनी मानव सभ्यता. हर कला की तरह ये भी किसी समय अपरिष्कृत रही ,समय के साथ इसमें बदलाव होते रहे और शब्द और आवाज़ के साधकों के सतत योगदान से अब ये एक सुगठित आकार ले चुकी है.
इस विधा का कोई पाठ्यक्रम नहीं है मित्रों और न ही इसके परिष्कार के लिए ज्ञान अर्जन की कोई सीमा . ये लगातार अभ्यास और साधना का विषय है जिसका कोई अंत नहीं है. आप जानते ही हैं जैसे, कार्यक्रमों के विभिन्न रूप हैं उसी तरह अलग-अलग विषयों पर केन्द्रित कार्यक्रम और समारोहों के लिए उद्घोषणाकी विभिन्न शैलियाँ हैं.इन सभी शैलियों में कहीं न कहीं गाम्भीर्य एक आवश्यक तत्व है, पर संगीत और नृत्य विशेषकर शास्त्रीय संगीत और नृत्य के आयोजनों के लिए ये परम आवश्यक है कि उसे स्तरीय उद्घोषणा के माध्यम से गरिमामय स्वरूप प्रदान किया जाए. इस कला को सीखने का सबसे आसान तरीक़ा है कि आप ज़्यादा से ज़्यादा समारोह को सुनें- देखें और कला से जुडी हर विधा का अध्ययन करें ,अच्छा लिखने का अभ्यास करें और अपनी भाषा को सवाँरने-निखारने का यत्न करें.
एक विद्यार्थी के रूप में, मैं उद्घोषणा कार्यशाला के अभिकल्पकों ,परिकल्पकों और मध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग को एक स्तुत्य कार्य और योजना को कार्यान्वित करने के लिए, विशेष रूप से धन्यवाद देना चाहूँगा.ये सर्वविदित है कि हमारे प्रदेश के संस्कृति विभाग ने सांस्कृतिक आयोजनों की इस अभिन्न और महत्वपूर्ण कर्मविधा की उपयोगिता को न सिर्फ हमेशा ध्यान में रखा बल्कि अब उसके प्रशिक्षण ,विस्तार, प्रोत्साहन और नयी पीढ़ी को दीक्षित करने की दिशा में भी एक अत्यन्त सार्थक क़दम उठाया है. इस प्रसंसनीय पहल के सकारात्मक परिणाम कला जगत में जल्द ही सामने आएंगे .
मित्रो, आपने बीते दिनों उद्घोषणा कला से जुडी हर आवश्यक और गहरी बात का निकट से साक्षात्कार किया .ये सम्भव न हो पाता अगर इस कार्यशाला के विशेषज्ञों ने पहल न की होती. आप सौभाग्यशाली हैं कि आपको उद्घोषणा संसार के श्रेष्ठतम साधकों का सान्निध्य प्राप्त हुआ है.
आप सब उद्घोषणा परंपरा और शैली के संवाहक और ध्वजवाहक बनने जा रहे हैं जो एक ज़िम्मेदारी का काम है.आप कुछ भी खोने नहीं जा रहे हैं बल्कि आपको गर्व होगा कि आपने इस कला और क्षेत्र को अपनी प्रतिभा प्रदर्शन का माध्यम बनाया.
आप आने वाले कल की आवाज़ें हैं. आप भविष्य के रंगपटल और कलाभूमि के सूत्रधार हैं.
मेरी शुभकामना है कि आप सब के काम को नाम मिले - सम्मान मिले 
धन्यवाद, नमस्कार.

बुधवार, 14 जून 2017

A shower of film study courses from FTII

Delhi, June 14, 2017: She is a 20-year-old whose views about cinema barely extend beyond beauty, romance and her favorite actors. But she got a good peep into how cinema voices and shapes opinions on serious issues after attending a film appreciation course in Delhi in mid-May.

“I had seen the Charlie Chaplin classics as a child and found them hilarious but watching Modern Times in the class opened my eyes to the serious side; the course class about the portrayal of women in cinema was also very interesting and educative,” said Manmeet K Bherauchi, a student of journalism at Toronto’s Sheridan College. Organized by the prestigious Film and Television Institute of India (FTII)--for the first time outside Pune--the course aims to promote cinematic literacy. The first four-day course received an “overwhelming response”, according to FTII Director Bhupendra Kainthola. The Directorate of Film Festivals was a partner in the course conducted in Delhi’s Siri Fort auditorium, and a side show of award-winning films kept some students happily engaged in the evening.

Filmmakers, students and journalists were not the only ones drawn to the course. The 150 participants included engineers, IT professionals, government servants and university teachers, who came from far off places like Tripura, Gujarat and Maharashtra. The maximum number came from Delhi and neighboring Punjab, Haryana, Uttrakhand, U.P. and Rajasthan. Referring to an IT professional who came all the way from Pune to attend the Delhi course, Kainthola light-heartedly said, “It is unpardonable”but shows the response they got. “He really wanted to attend and the month-long Pune course is too long for a busy professional like him.” Responding to the demand, another short FA course will be held in Delhi June 23 onwards. In fact, FTII’s June calendar is dotted with screenplay writing, acting and film appreciation courses in Delhi. Bherauchi however felt that the four-day course, packed with seven long hours of study, from the history of cinema to the treatment of sensitive issues like violence against women, in the Delhi summer are too exacting.

 “The course should be lighter, more fun than study and the interactive sessions about a discussion on films we watch should be longer,” she remarked. She also felt that the course should have separate categories for amateurs and professionals because “one size does not fit all.” Kainthola said the future courses would weave in these suggestions. Digital cinematography and documentary film-making courses along with advanced versions of the short courses are also on the anvil. FTII’s domain expertise in promoting film education goes back to the summer of 1967 when the first film appreciation course was held in Pune. Since 1975, FTII and National Film Archives of India (NFAI), both under the Union Information and Broadcasting Ministry have jointly conducted month-long residential courses during the summer. As part of its new outreach initiative SKIFT (Skilling India in Film and Television) “to democratize film education”, FTII is presently in talks with various state governments, universities and NGOs to conduct similar courses countrywide, including Chandigrah. Canon, the digital imaging giant, is SKIFT’s technology partner, and FTII is stitching up partnerships with other sponsors. 

An acting workshop for children aged seven to 14 years together with the Punjab, Haryana and Chandigarh Chamber of Commerce (PHDCC) is also scheduled in Delhi from June 16. Kainthola said, subject experts would be enlisted for each course for “additional enrichment”. Eminent film personalities Ms Bela Negi and Shubamoy Sengupta were the teachers for the debut course. The cost of the different courses—ranging from 2,500 for the four-day course to 25,000 rupees for the three-week course—some students felt was high. Kainthola said, short courses, particularly skill-oriented ones, “by their very nature are always slightly expensive”. Careful budgeting, he added, was done before deciding the fee.

“Considering the duration, the intensive rigour and FTII’s brand value, it is value for money,” he said. 

रविवार, 4 जून 2017

GURU VANDANA

MOMENTS OF TRUTH: MY DAYS WITH ACTING


It was a 'walking down memory lane' moment on 3rd June, Saturday in Film & Television Institute of India when over 20 actors of yesteryears--students of legendary acting guru Sh Roshan Taneja-- came together for the release of Taneja ji's much-awaited biography MOMENTS OF TRUTH: MY DAYS WITH ACTING.

Sh Taneja was presented a designed-for the-occassion silk stole, carrying FTII logo and Wisdom Tree insignia. Sh Shatrughan Sinha honored him with a Puneri pagdi.The 90-minute show was compered by Tom Alter (Head,Dept of Acting,FTII) who in his inimitable style also read aloud the 3-page foreword to the book, written by Ms Shabana Azmi . 

Sh Shatrughan Sinha, Actor-MP and Sh Subhash Ghai,eminent film maker recalled their life journey, from school days to FTII student days under 'Dronacharya' Taneja saab's tutelage. Roshan Taneja was HoD Acting for 13 years in FTII,from 1963-1976. Jaya Bachchan, Naseeruddin Shah, Om Puri,Danny Denzongpa and many others studied at FTII under him. 13 actors who trained under him won National Awards.

Sh Taneja studied Acting from the prestigious New York Film School,and has been teaching Acting non-stop for last 53 years ! He's now 86. Late actor Om Puri, also a student of Sh Taneja, was also fondly remembered. His wife Nandita Puri and son Ishaan announced that the newly-formed Om Puri Foundation intends to initiate Om Puri Scholar Award for the most deserving student at FTII. 

To mark the occassion of Roshan Taneja felicitation, Sh Shatrughan Sinha announced a new GURU VANDANA scholarship of Rs 50,000/- for Acting Dept and also presented a cheque of Rs 50,000/- towards  Sonakshi Sinha Scholarship for any female acting student coming from economically challenged background. 

The felicitation of Sh Roshan Taneja is the first in the GURU VANDANA series under which living legends of cinema associated with FTII will be honoured by the Institute.