मंगलवार, 29 अगस्त 2017

अरुणा राजे की आत्‍मकथा के बहाने.......


महिला फिल्मकारों की सर्जनात्मक दृष्टि और उनका सिनेमा 


भारतीय सिनेमा में महिला फिल्मकारों की अपनी अहम जगह है। समय-समय पर सिने छायांकन, सम्पादन और उससे ऊपर निर्देशन के क्षेत्र में उन्होंने अपनी पहचान और प्रतिष्ठा बनायी है। इस क्षेत्र में भी दो धाराएँ काम करती रही हैं। एक तरफ बहुलोकप्रिय सिनेमा में महिलाओं ने अभिनय से अलग अपना कैरियर चुनते हुए लगातार सक्रियता का परिचय दिया है, विशेष रूप से इसमें कोरियोग्राफी को लिया जा सकता है जहाँ सरोज खान से लेकर फराह खान, वैभवी मर्चेन्ट और पोनी वर्मा आदि के नाम याद आते हैं। इनमें फराह खान की यात्रा निर्देशक तक हुई है और उन्होंने अच्छी फिल्में भी बनायीं, यह सहज ही कहा जा सकता है। 

इधर भारतीय सिनेमा में सार्थक सर्जनात्मक हस्तक्षेप करने वाली महिला फिल्मकारों में जिस तरह से अपर्णा सेन, विजया मेहता, सईं परांजपे, कल्पना लाजमी, दीपा मेहता, मीरा नायर और अरुणा राजे का नाम प्रमुखता से लिया जाता है वह वास्तव में स्त्री सर्जनात्मकता का उल्लेखनीय अध्याय है। समय-समय पर इनके द्वारा किया गया काम बहुत मायने रखता है। ध्यान करें तो शायद सत्तर के दशक से हमारे यहाँ सार्थक सिनेमा आन्दोलन और कला फिल्मों की धारा के बरक्स स्त्री फिल्मकारों का इस क्षेत्र में आना स्वागतेय रहा है। एक के बाद एक इन फिल्मकारों ने अपने सिनेमा से चैंकाने का काम किया है। इतना ही नहीं इनके सिनेमा पर चर्चा, विचारोत्तेजक बहसें और विश्लेषण भी हुए हैं और तत्समय प्रेक्षकों और आलोचकों की राय इन फिल्मकारों की दृष्टि और सृजन के पक्ष में रही है।

अपर्णा सेन ने हाल ही में अपनी एक नयी फिल्म पूर्ण की है जो मराठी के विख्यात नाटककार महेश एलकुंचवार की कृति सोनाटा पर आधारित है। यह नाटक उन्होंने वर्ष 2000 में लिखा था जो मुम्बई में रहने वाली प्रौढ़ उम्र की एकाकी कामकाजी महिलाओं की कहानी है। इस फिल्म में अपर्णा ने स्वयं अभिनय भी किया है शाबाना आजमी और लिलेट दुबे के साथ। उम्र के इकहत्तरवें साल में सक्रिय अपर्णा सेन का नयी फिल्म के साथ फिर चर्चा में होना मायने रखता है। यों हम उनको छत्तीस चैरंगी लेन, परोमा, सती, युगान्त, पारोमितार एक दिन, मिस्टर एण्ड मिसेज अय्यर, फिफ्टीन पार्क एवेन्यू आदि फिल्मों के माध्यम से खूब जानते रहे हैं। वे भारतीय सिनेमा की उत्कृष्ट सर्जनात्मक एवं वैचारिक उपस्थिति वाली एक अहम फिल्मकार हैं।

इधर हार्पर काॅलिन्स से प्रकाशित अपनी आत्मकथा फ्रीडम को लेकर तीस साल के सक्रिय कैरियर के बाद एक बार फिर चर्चा में आयीं अरुणा राजे पाटिल इन दिनों देश के विभिन्न शहरों की यात्राएँ कर रही हैं। सम्पादन से अपना कैरियर शुरू करने वालीं अरुणा को स्त्री के पक्ष में बहुत मजबूूत, साहसिक और विचारोत्तेजक विषयों पर काम करते हुए फिल्म बनाने का लम्बा अनुभव रहा है। गहराई से लेकर शक, सितम, रिहाई, पतित पावन, भैरवी और तुम जैसी फिल्में बनाने वालीं अरुणा राजे ने बाद में मुम्बई के बड़े फिल्मकारों के प्रशिक्षण स्कूलों को स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभायी और सक्रियता का परिचय दिया है। उन्होंने पुणे, मुम्बई, दिल्ली, अहमदाबाद आदि शहरों में इसका लोकार्पण कराया है और इसके कुछ चेप्टर भी पढ़े हैं जिनके माध्यम से हम जान पाते हैं कि एक जुझारू, संघर्षशील और गुणी फिल्मकार की सर्जनात्मक यात्रा कितने उतार-चढ़ावों भरी रही है। वे हाल ही भोपाल भी आयीं थीं और अगली बार शायद वे अपनी आत्मकथा के पाठ के साथ फिर आयें।

विजया मेहता भी एक गुणी फिल्मकार हैं जिन्होंने मराठी रंगमंच से मराठी और हिन्दी सिनेमा की ओर कुछ अहम हस्ताक्षर किए। उनकी अनुपम खेर और तन्वी आजमी अभिनीत फिल्म राव साहब अब दुर्लभ है। हवेली बुलन्द थी, हमीदा बाई की कोठी, पेस्टन जी, स्मृतिचित्रे, शाकुन्तलम फिल्में और लाइफ लाइन धारावाहिक उनके समयातीत सृजन हैं। एक पल, रुदाली, दरमियाँ, दमन, क्यों और चिंगारी जैसी फिल्मों की निर्देशक कल्पना लाजमी ने भी एक दृष्टिसम्पन्न हस्तक्षेप भारतीय सिनेमा में किया। स्वर्गीय गुरुदत्त के परिवार की ये फिल्मकार भी उसी धारा से प्रभावित हैं जो स्त्री के अछूते संघर्ष और साहसिक निर्णय के परिप्रेक्ष्य में अपना सिनेमा बनाती हैं। 

इधर मीरा नायर और दीपा मेहता की विचारधारा और आधुनिक और विचारोत्तेजक है। उन्होंने अपनी फिल्मों के जरिए अत्याधुनिक समाज और एलीट विश्व में परदे के भीतर, दबा-छुपा, मर्यादा और आडम्बर का चोला धारण किए यथार्थ को रेखांकित करने का काम किया। मीरा नायर की फिल्में सलाम बाॅम्बे, मिसीसिपी मसाला, कामसूत्र, मानसून वेडिंग, वेनिटी फेयर, द नेमसेक, अमेलिया और क्वीन आॅफ केटवे तथा दीपा मेहता की फिल्में फायर, अर्थ, वाटर, मिडनाइट्स चिल्ड्रन, बीबा बाॅयज़ और एनाटाॅमी आॅफ वाॅयलेंस वे फिल्में हैं जिनका स्वर अधिक आन्दोलनात्मक है और विचार के स्तर पर दोनों ही फिल्मकार अधिक साहसी मानी जाती रही हैं जिन्होंने अपनी फिल्मों से खड़े हुए विवादों का सामना भी निर्भीक होकर किया है। 



रविवार, 20 अगस्त 2017

देर आयद / टॉयलेट एक प्रेमकथा......

सभ्यता, सोच, संस्कृति सबकी बात है जिस फिल्म में


संगीत, दृश्य तक कैमरे की सधी हुई पहुँच और प्रभाव उत्पन्न करने के लिए रोमांचक अनुभवों और अवस्था से गुजरना आज के सिनेमा की पहचान बन गयी है। यह सारी पहुँच की कवायद ज्यादातर हमारी यानी दर्शकों की जेब तक आकर ही सीमित हो जाती है। मन तक कितना पहुँची, कितनों के पहुँची, इसको मापने का यंत्र हमारे आज के फिल्मकार और उनके बाजार सम्हालने वाले गणितज्ञ आज तक नहीं बना पाये और न ही उसको माप पाये। 

अपने प्रदर्शन के इतने दिनों बाद देश के सिनेमाघरों में अगर मुझे टिकिट के लिए कठिनाई होती है या कई घण्टों पहले टिकिट प्राप्त करने का प्रयत्न करने के बावजूद बहुत आगे की जगह मिलती है तो मेरे लिए श्रीनारायण सिंह के निर्देशन की पहली फिल्म टाॅयलेट एक प्रेमकथा देखना रोमांचक लगने लगता है। श्रीनारायण सिंह अपनी दृष्टि और कल्पनाशीलता के सधे हुए एडीटर के रूप में एक दशक में अपनी अच्छी पहचान बना चुके हैं। अनेक फिल्में एडिट की हैं, संयोग यह है कि अक्षय कुमार की पिछले पाँच वर्षों की स्पेशल छब्बीस, बेबी, रुस्तम आदि फिल्में भी इनमें शामिल हैं। नीरज पाण्डे की ए वेडनेस्डे का नाम इन सबके पहले आना चाहिए।

टाॅयलेट एक प्रेमकथा के बारे में आजकल में ही पढ़ने में आया कि अब वह सौ करोड़ अर्जन के क्लब में शामिल हो गयी है। मेरा कहना पहले पैराग्राफ के ही अनुसरण में है कि वास्तव में यह धनअर्जन से अधिक मनअर्जन के करोड़ों के क्लब में पहले ही पहुँच चुकी है। पाठक अतिश्योक्ति न समझें, मनोरंजन के सारे तत्वों, संवादों में तत्परता के गिमिक, प्रत्युत्पन्नमति, हाजिर जवाबी, तनाव के विषय को डील करते हुए भी चरित्रों के चेहरे पर तनाव या हताशा का न आना जैसे बहुत सारे पक्ष हैं जो इस फिल्म को सुरुचिपूर्ण बनाते हैं।

कैसे टाॅयलेट एक प्रेमकथा ब्याह कर लायी जाने वाली अपनी उस जीवन संगिनी के मान-मर्यादा की एक चुनौती नायक के लिए बनती चली जाती है जो बाद में पिछड़े और दकियानूसी मानस से लगभग झगड़ती है, यह सब एक के बाद एक घटित होते देखना जितना दिलचस्प बना रहता है, उतना ही मन को भी छूता है, उतना ही संवेदना को जाग्रत करता है, उतना ही करुणा को भी उपजाता है। वास्तव में यह बहुत बड़ी सचाई है जब गाँवों, कस्बों और छोटे शहरों में घरों में शौचालय का अभाव होने के कारण लोग खेत, जंगल, झाड़ियों और झुरमुटों में जाने को विवश हैं। लाज, मान-सम्मान और दुर्घटनाओं तथा हादसों के भय इन सबके बीच उतनी ही ज्वलन्तता के साथ काम करते हैं। स्वयं हमारे सामने ऐसे उदाहरण मौजूद होते हैं जब हमारी रेल या सड़क यात्रा करते हुए हम रात के झुटपुटे में या गहरी भोर में किसी शहर, गाँव या सड़क से गुजरते हैं तो घबराकर, सहमकर, शर्म और ग्लानि के मारे लोग एकदम से खड़े हो जाते हैं। निश्चित ही वह क्षण हमारे लिए भी, यदि हम जरा भी संवेदनशील हैं तो लज्जा से भरा होता है।


केशव और जया का प्रेम ही इस विद्रूपता से जूझकर लड़ता है। केशव का असली संघर्ष अपने पिता पण्डित जी और उनके संकीर्ण सोच से है। स्थितियों को पीढ़ियों से यथास्थिति स्वीकार करने वाली महिलाएँ विवशता का चेहरा हैं। केशव का भाई नारू हमेशा उसके साथ है, हर मुश्किल से लेकर रोमांस पकने तक। इतना कि सुहागरात में बीच में सोने की बात भी करता है। नायक का अपनी प्रेमिका को जुगाड़ के साथ टाॅयलेट मुहैया कराने के प्रसंग दिलचस्प हैं फिर चाहे वो प्रधान जी का घर हो, रेल हो या फिर शूटिंग लोकेशन से पोर्टेबल टाॅयलेट चुराकर लाने तक। फिल्म डायरेक्टर नायक को छुड़ाता है यह कहकर कि आज तक इस तरह की चोरी सुनने में नहीं आयी। इस मानसिक चुनौती के बीच नायक-नायिका का रोमांस दिलचस्प है, वाट्सअप पर रात को बारह बजे तक एक-दूसरे को आॅललाइन देखकर लगाये गये अनुमान भी।

अक्षय कुमार की बड़ी उम्र को नायिका के मुँह से भी कहलवाया गया है। हालाँकि नायक बताता है कि किन वजहों से वह उतना बड़ा होता चला गया और शादी न हो सकी। उसके लाॅजिक कम उम्र प्रेमिका को रास आते हैं और प्रेम हो जाता है। कई संवेदनशील दृश्य हैं जब आप भावुक हो जाते हैं। नायक कई बार नायिका की शिक्षा और हाजिर जवाबी के मुकाबले पिछड़ जाने के बावजूद हार नहीं मानता। सायकिल के पीछे रेडियम वाली प्लेट लगाने का हुक्म देने वाला नायक प्रभावित करता है।

अंशुमान महाले की सिनेमेटोग्राफी बहुत अच्छी है। वो शहर को बहुत भव्यता के साथ एक्सपोज करते हैं। लट्ठमार होती के हवाई दृश्य भी कमाल के हैं। श्रीनारायण सिंह की यह पहली फिल्म है जिसे उन्होंने एडीटिंग काम की अपनी प्रतिभा और दक्षता के साथ ही बहुत गम्भीरता से लिया है। एक मुकम्मल सिनेमा के रूप में वे इसे जिस तरह आगे बढ़ाते हैं, वह उनका मौलिक कौशल है जिसकी यह पहली सफल परीक्षा उन्होंने पास की है। वे अपनी जिम्मेदारी में खरे उतरे हैं, कहीं भी पीछे नहीं हटे, यह दर्शक भी स्वीकारते होंगे तभी आज भी सिनेमाहाॅल खाली नहीं हैं। 

यह फिल्म बाद के आधे घण्टे में सरकार के समर्थन और उसके लक्ष्यों को भी अपनी कहानी में शामिल करती है। सनसनी, कौतुहल और लोकप्रियता के लिए निरर्थक सवाल मुँह में डालकर रेटिंग बढ़ाने वाले चैनलों को संवादों में आड़े हाथों लिया गया है। भूमि पेड़नेकर और अक्षय कुमार अपनी प्रतिभा अनुरूप परदे पर बहुत आश्वस्त करते हैं। सुधीर पाण्डे बड़े दिनों बाद दीखे हैं लेकिन सिनेमा में एक महत्वपूर्ण किरदार के साथ। आखिरी दृश्य अच्छा है जब उनका हृदय परिवर्तन होता है तो नायक कहता है, तबियत खराब तो नहीं हो गयी! भाई की भूमिका में दिव्येन्दु शर्मा और नायिका के पिता अतुल श्रीवास्तव और माँ आयशा रजा मिश्रा ने अपने चरित्र बखूबी अदा किए हैं। अनुपम खेर का सनी लिओनी आकर्षण साधारण क्षेपक सा है जो नजर आता है। 

#akshaykumar #bhumipednekar #anupamkher #shreenarayansingh #toiletekpremkatha 


गुरुवार, 10 अगस्त 2017

प्रेम गुप्ता : रंगमंच-विश्व में एक रमता जोगी.....


प्रेम गुप्ता के साथ मैत्री निबाहते हुए करीब तीस साल से अधिक हो गये, उनको नब्बे के पहले से ही बेहद जुझारू रंगकर्मी के रूप में भटक-भटककर बच्चों के साथ काम करते हुए देखा है। उस समय के उपलब्ध साधारण साधनों के साथ गुप्ता मध्यप्रदेश में जगह-जगह जाकर कार्यशालाएँ किया करते थे और नाटक मंचन की जमीन तैयार किया करते थे बच्चों के साथ। सागर में बाल संरक्षण गृृह के बच्चों के साथ, भोपाल में आशा निकेतन के निशक्त बच्चों के साथ, किशोर बालिका गृह के बच्चों के साथ और ऐसी ही अनेक संस्थाओं के साथ काम करते हुए इस आदमी ने अपने आपको होम किया है। साथ में इनके हर जुनून, हर संघर्ष में कंधे से कंधा मिलाकर साध देतीं अर्धांगिनी वैशाली गुप्ता जो स्वयं कल्पनाशील, सोच और दृष्टिसमृद्ध कोरियोग्राफर हैं, ने लगातार कठिन और मुश्किल क्षणों को देखा है। मन देखो तो इतना बड़ा कि किशोर बालिका गृह की बच्चियों के साथ काम करते हुए एक बच्ची बीमार थी, उसे पीलिया हो गया था, तो अधीक्षिका से ज्यादा इनको फिक्र जो स्कूटर में बैठाये-बैठाये उसका इलाज कराते फिरे। प्रस्तुति में जो मिला तो उन बच्चों को दीवाली पर कपड़े दे आये। 

कहने और पुनरावलोकन करने से यह बात भावुक कर देती है लेकिन रंगमंच और विशेष रूप से बच्चों के साथ काम करने का इस आदमी का जुनून कमाल का है। यह रास्ता प्रेम गुप्ता ने खुद चुना नहीं तो पुराने भोपाल में चूड़ियों के बड़े कारोबारी का यह बड़ा बेटा आज आराम की रोटी का रहा होता, घरबार जायदाद सब होती लेकिन आमद से अधिक खर्च करने में अग्रणी और हर बार मिले से अधिक खपा देने वाले ये शख्स जब मिले, हाथ झाड़े ही मिले। लेकिन ऐसे कठिन संघर्ष, पीड़ा, तनाव और व्यथा के साथ भी अपनी यात्रा जारी रखी, यह बड़ी बात है।

कारन्त जी ने प्रेम गुप्ता की संस्था का नामकरण चिल्ड्रन्स थिएटर अकादमी किया था। उनकी ही प्रेरणा से ये इस ओर आये तो यहीं के होकर रह गये। बच्चों के साथ इनकी तैयार की प्रस्तुतियाँ अनन्य हैं, चिड़ियों की चतुराई, कलिंग, सिर्फ इतिहास नहीं, लालच बुरी बला, एकलव्य का दान, सपनों का महल, एक राष्ट्र एक रंग, आदरांजलि, झाँसी की रानी, आजाद हिन्द के नारे, अंधेर नगरी, मुर्गे का ब्याह, ईदगाह, टिम्बक टू तत्काल याद आये नाम हैं। इनका ईदगाह अन्तिम दृश्यों में रुला देता है। प्रेम गुप्ता को मध्यप्रदेश के अलावा दिल्ली, सतारा आदि शहरों में बड़ी और वृहद कार्यशालाओं में प्रस्तुतियाँ तैयार करने के लिए भी निमंत्रित किया गया है, अब तक गुप्ता लगभग तीन से पाँच हजार बच्चों के साथ बैले भी तैयार कर चुके हैं। 

पाँच फुट से कुछ ही इंच बड़े, डिबिया जैसे मुँह पर दोनों ओर कान से शुरू होती हुई घनीभूत दाढ़ी काली से अब पूरी तरह सफेद हो चुकी है। यह सही है कि प्रेम गुप्ता के काम करने के बाद ही बच्चों के साथ काम करने का जुनून भोपाल में फैला और विभा मिश्रा, के.जी. त्रिवेदी, इरफान सौरभ जैसे वरिष्ठ रंगकर्मियों ने इस धारा को पकड़ा लेकिन गुप्ता जितना खटे हैं वह अपना सबकुछ होम कर देने के बाद प्राप्त होने वाले आत्मसुख का अकेला साक्ष्य है। दो बार वे संस्कृति विभाग द्वारा उस्ताद अलाउद्दीन खाँ संगीत अकादमी में बाल रंगमण्डल के निदेशक भी रह चुके हैं। 

तीस साल से ज्यादा हुए संस्था चिल्ड्रन्स थिएटर अकादमी को बने हुए जिसमें से समय-समय पर अनेक कलाकार आते-जाते रहे। बच्चों, किशोरों से काम कराना कितना बड़ा जोखिम, यह मैंने उनके साथ अनेक अवसरों और स्थलों पर देखा। क्लास में आने वाले, जरा से गुणी और ज्ञानी हो जाने वाले जिद्दी बच्चों और किशोरवय के कलाकारों में एक तरह की मनमानी, अराजकता और अनुशासन तथा कहे की अव्हेलना का सामना करते भी प्रेम गुप्ता को देखा। पंख ऊगने के बाद उड़ जाने वाले, समर्थन में खड़े होने वालों को स्पर्धी-प्रतिस्पर्धी के रूप में अपने सामने देखने के कड़वे-खट्टे अनुभव भी प्रेम गुप्ता की इस वृहद यात्रा के पड़ाव हैं। कई अवसरों पर उनको फूट-फूटकर रोते भी देखा है लेकिन हर हाल में यह आदमी है रंगमंच का, रंगमंच के लिए अपने साथ-साथ अपनों को भी दाँव पर लगा देने वाला।

प्रेम गुप्ता की रंगयात्रा बहुत कठिन उतार-चढ़ावों से भरी रही है। नाटकों के व्याकरण से लेकर उसकी पूरी की पूरी आचार संहिता को लेकर अपनी एक अलग दृष्टि बनाने वाले इस शख्स ने बहुत पापड़ बेले और मुश्किलों को सहा है। एक खासियत इतने वर्षों में इस आदमी की यह भी देखी कि पास का कोई काम नहीं किया और खर्च से समझौता नहीं किया चाहे कुछ भी बेच-बहा देना पड़े। सर्जनात्मक कार्यों से देश भर की यात्रा करते हुए बरसों-बरस जहाँ-जहाँ गये, नाटक और मंच के लिए जो-जो उपयोगी मिला, पास का सब खर्च करके, उधार करके खरीद लाये। मंच का काम जिस प्रभाव, जरूरत और अपरिहार्यता का होना चाहिए, उसमें कोई कमी न आने पाये। तो संगीत के लिए वाद्य, फिर वह लकड़ी के हों या खासर मिट्टी के, कास्ट्यूम, मुखौटे, आभूषण और दुनिया भर की चीजें जो उनको, उनकी कल्पनाशीलता को अपने काम के लिए अहम लगीं, ले लीं और भारी बक्स, लगेज के साथ भोपाल आकर उतरे। 


इतना ही नहीं भोपाल के रंगकर्मियों के लिए प्रेम गुप्ता के दरवाजे हमेशा खुले रहे, जिसको जो सहयोग करना होता, पीछे नहीं हटे। इस बात की खिन्नता लिए हुए भी बस यही अपराध हर बार करते रहे कि लोग उनसे बहुत सा दुर्लभ और कीमती सामान अपनी जरूरत के लिए ले जाते रहे, उनमें से कई ने उनका सामना वापस नहीं किया। तो ऐसी और इस तरह की अनेक क्षतियों के साथ भी प्रेम गुप्ता की रंग-यायावरी जारी रही। प्रेम गुप्ता ने भोपाल से लेकर देश के अनेक हिस्सों में जो अपनी एक लम्बी यात्रा की है उसका परिणाम उनके लिए लिए आत्मसुख रहा है। इस तरह उन्होंने आत्मसंघर्ष में आत्मसुख प्राप्त करने का एक तरह से जीवनभर का जोखिम लिया। निश्चित रूप से इस काम में उनकी अर्धांगिनी, जानी-मानी कोरियोग्राफर वैशाली गुप्ता की बहुत बड़ी भूमिका है। 

यही कारण रहा कि जब पहली बार बच्चों के लिए काम करने वाली राष्ट्रीय स्तर की शीर्षस्थ संस्था नटरंग ने उनको अभी रेखा जैन बाल रंगमंच सम्मान के लिए सम्मानित करने नईदिल्ली बुलाया तो उनके चेहरे पर मैंने मुस्कराहट देखी। उनको सम्मान पट्टिका, पचास हजार रुपये की राशि वहाँ प्राप्त हुई। ओडिसी की सुप्रतिष्ठित नृत्यांगना माधवी मुद्गल ने उनको यह सम्मान प्रदान किया। 

आपका पथ सच्चा, विनयशील और नैतिक है तो आप कभी न कभी, कहीं न कहीं तो सार्थक ढंग से पूछे जाओगे ही, बात अलग है कि देर-सवेर होती है, अंधेर नहीं हुआ, यही क्या कम है। सम्मान लेकर लौटने के बाद प्रेम गुप्ता ने चाव से सबकुछ दिखाया, वे तब नहीं जान पाये थे कि इस बार आँख मेरी भीगी है.......

कथादेश के अगस्‍त अंक में प्रकाशित




बुधवार, 2 अगस्त 2017

धरमछबि

प्रतिज्ञा की राधा ने अजीत को राखी क्‍यों नहीं बांधी.......!!



किसी भी कलाकार के हम क्यों मुरीद हो जाते हैं, आकर्षण के पीछे हमारा क्या मन्तव्य रहता है इस पर प्रायः हमारे पास कोई ऐसा उत्तर नहीं होता जो सामने वाले को सन्तुष्ट ही करे किन्तु उसको लेकर भी कोई विशेष चिन्ता हमें नहीं होती क्योंकि पसन्द-नापसन्दगी हमारी निजता का विषय है, किसी सलाह या प्रभाव का उससे कोई सरोकार नहीं होता।

धरम जी मुझे पसन्द बचपन से, सत्यकाम अपनी चेतना की पहली फिल्म फिर योगवश और भी अनेक फिल्में देखते हुए उनसे एक पक्का किस्म का अनुराग बन गया। रामानंद सागर जिनका जन्मशताब्दी वर्ष है यह, उनकी निर्देशित आँखें तो कितनी ही बार देख सकता हूँ, इण्डियन जेम्सबाॅण्ड धर्मेन्द्र, ऐसे ही प्रचारित किया गया था उनको, गोल्डन जुबली फिल्म, फिर फूल और पत्थर ओह..........क्या फिल्म। फिर तो हर फिल्म ही देखता रहा। रफ्ता-रफ्ता देखो आँख मेरी लड़ी है, कहानी किस्मत की सुपरहिट फिल्म, फिर उस समय यादों की बारात जिसमें धरम जी की कोई नायिका ही नहीं थी।

धरम जी को लेकर निर्देशकों ने सचमुच अच्छी फिल्में बनायीं। उनके रूप में नायक जिस तरह गढ़ा जाता था, धरम जी उसी का पर्याय नजर आते। एक पारिवारिक आदमी की उनकी छबि का बनना उनके लिए बहुत महत्व रखता था। एक लम्बे इण्टरव्यू में मैंने पूछा था उनसे कि आपको स्वयं अपनी इस प्रतिष्ठा के पीछे क्या कारण दीखता है, आप फिल्में करते रहे, निर्देशक के बताये किरदार में रंग भरते रहे। तब उन्होंने कहा था कि यह मेरा सौभाग्य रहा कि मेरे दर्शकों में माताओं ने मुझमें अपना बेटा देखा, बहनों ने अपना भाई..............इसमें धीरे से सावधानीपूर्वक मैंने जोड़ा और युवतियों ने............इसके उत्तर में वे जिस तरह शरमा गये, वह मुद्रा कमाल की थी।

सच है, मुझे अपने शहर के अखबार नवभारत में फिल्म प्रतिज्ञा के विज्ञापन में वो दो लाइनें आज भी याद हैं, रक्षाबन्धन के दिन पूरे गाँव की लड़कियों ने अजीत को राखी बांधी लेकिन राधा ने नहीं, क्यों, जानने के लिए देखिए..........मुझे उस फिल्म का गाना याद आता है - परदेसी आया देस में, देस से मेरे गाँव में.......।

धरम जी ने एक नायक के रूप में दर्शकों के बीच पारिवारिक छबि बनायी। यह नायक जब कहानी किस्मत की में पहलवान को हरा कर रुपए जीतता है तो साड़ियों की दुकान जाकर बहन के लिए साड़ी खरीदता है फिर राखी बंधवाता है। ऐसे ही रेशम की डोरी में बड़े भावुक दृश्य हैं। उसका गाना बहना ने भाई की कलाई पे..............एक अन्तरा देखिए..........सुन्दरता में जो कन्हैया है, ममता में यशोदा मैया है, वो और नहीं दूजा कोई, वो तो मेरा राजा भैया है........।

निरूपाराॅय, सुलोचना, पूर्णिमा, इन्द्राणी मुखर्जी, सीमा देव उनकी माँ अनेक फिल्मों में बनीं हैं। माँ के प्रति प्रेम, आदर और माँ के लिए बहादुरी और चुनौती के साथ किसी भी सीमा तक जाना धर्मेन्द्र नायक की बड़ी पहचान है। धर्मेन्द्र के निर्देशकों ने उनको अनेक बार शेर से लड़वाया, ऐसे दृश्य उनके ही बस के रहे हैं। उस दौर के गुण्डे-खलनायक शेट्टी जिनके चेहरे पर क्रूरता के अलावा कोई भाव ही नहीं आते थे, धर्मेन्द्र के साथ कितनी ही फिल्मों में अच्छी खासी फाइटिंग.............। धर्मेन्द्र का मुक्का, चीते के पंजे जैसा हाथ कमाल का है। 

नायिकाओं के साथ उनके दृश्यों के भी दिलचस्प उदाहरण रहे हैं। परदे पर अनेक अभिनेत्रियों के साथ उनके रोमांस, गाने और नजदीकी दृश्य बड़े मर्यादित रहे हैं। ऐसी नायिकाओं में वहीदा रहमान, शर्मिला टैगोर, आशा पारेख, मीना कुमारी, स्मिता पाटिल आदि शामिल हैं। इसके विपरीत हेमा मालिनी, जयाप्रदा, श्रीदेवी, अनीता राज, जीनत अमान, अमृता सिंह, परवीन बाॅबी के साथ काम करने वाले धर्मेन्द्र थोड़ा बोल्ड भी हो जाते हैं। 

धर्मेन्द्र की खासियत उनका सहज होना है। यह गौर करने की बात है कि वे एक समय में उन अभिनेत्रियों के भी नायक रहे हैं जो सनी की नायिकाएँ रहीं। उनके साथ काम करने के लिए हर अभिनेत्री लालायित रहीं हैं। व्यक्तिशः मुझे उनकी पिछली फिल्म अपने बहुत ही प्रभावित करती है। वे निरन्तर सक्रिय हैं। दो साल पहले पद्मभूषण से सम्मानित होने वाले धर्मेन्द्र को दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिलना चाहिए। हालाँकि पुरस्कारों सम्मानों की बात पर वे कहते हैं कि मुझे अपने चाहने वालों से जो मिला, उससे बड़ा मान-सम्मान-पुरस्कार कुछ नहीं है........................