मंगलवार, 24 अक्तूबर 2017

गिरिजा देवी : मेरा तो संगीत ही पूजा है

(बनारस घराने की अप्रतिम गायिका से यह बातचीत 2007 में भोपाल में की गयी थी)


भारतीय शास्त्रीय संगीत परम्परा की यशस्वी और मूर्धन्य विभूति सुश्री गिरिजा देवी से बात करना जैसे सुरीले अमृत तत्वों को अपनी शिराओं में निरन्तर प्रवाहित होना, अनुभव करना है। दो वर्ष बाद गिरिजा देवी अस्सी बरस की हो जाएँगी लेकिन बचपन में पिता बाबू रामदास राय ने अपनी बिटिया को संगीत के साथ-साथ बहादुरी की और भी जिन साहसिक कलाओं में दक्ष किया था, उसी का परिणाम है कि वे चेहरे से हर वक्त तरोता$जा और ऊर्जा से भरपूर दिखायी पड़ती हैं। पाँच वर्ष की उम्र से उन्होंने बनारस घराने के निष्णात कलाकारों स्वर्गीय पण्डित सरजू प्रसाद मिश्र और पण्डित श्रीचंद मिश्र से संगीत सीखना शुरू किया। शास्त्रीय और उप शास्त्रीय संगीत में निष्णात गिरिजा देवी की गायकी में सेनिया और बनारस घराने की अदायगी का विशिष्ट माधुर्य, अपनी पाम्परिक विशेषताओं के साथ विद्यमान है। ध्रुपद, ख्य़ाल, टप्पा, तराना, सदरा, ठुमरी और पारम्परिक लोक संगीत में होरी, चैती, कजरी, झूला, दादरा और भजन के अनूठे प्रदर्शनों के साथ ही उन्होंने ठुमरी के साहित्य का गहन अध्ययन और अनुसंधान भी किया है। भारतीय शास्त्रीय संगीत के समकालीन परिदृश्य में वे एकमात्र ऐसी वरिष्ठï गायिका हैं जिन्हें पूरब अंग की गायकी के लिए विश्वव्यापी प्रतिष्ठïा प्राप्त है। गिरिजा देवी ने पूरबी अंग की कलात्मक विरासत को अत्यन्त मोहक और सौष्ठïवपूर्ण ढंग से उद्घाटित करने का महती काम किया है। संगीत मेें उनकी सुदीर्घ साधना हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के मूल सौन्दर्य और सौन्दर्यमूलक ऐश्वर्य की पहचान को अधिक पारदर्शी भी बनाकर प्रकट करती है।

सुनील मिश्र ने गिरिजा देवी से उनके जीवन-सृजन का सर्वस्व मुग्ध भाव से सुना और जस का तस प्रस्तुत कर दिया। पूरब अंग की मिठास उनकी गायकी में ही नहीं उनकी इस पूरी बातचीत में भी गहरा सम्मोहन रचती है - 

बनारस, मेरा घर और घराना

मेरा जन्म वाराणसी में हुआ और मैं वहीं पर अपने पापा के साथ रहती थी। उन्हें संगीत का बड़ा शौक था और उनको सुनने से मुझे भी शौक हो गया मगर शौक ऐसा हो गया कि पापा ने फिर मेरी पाँच साल की उम्र में ही संगीत सिखाने के लिए गुरु जी को बुलाया और शुरूआत की। वो मेरे पिताजी के गुरु भी थे, उन्होंने भी गाना-वाना उनसे सीखा था लेकिन वो थे सारंगी के नवाज थे स्वर्गीय पण्डित सरजू प्रसाद मिश्र जी बनारस के। लेकिन मेरे पिताजी मुझे गाना सिखाना चाहते थे तो इस तरह फिर मेरा गाना शुरू हुआ, उनसे सीखना। फिर मैं चौदह साल की उम्र तक उन्हीं से गाना सीखती रही और उसके बाद उनकी डेथ हो गयी। अठारह साल की उम्र में फिर मेरे दूसरे गुरु जी हुए। उस बीच मेरी शादी भी हो गयी। उस समय, ज़माने मेें छोटेपन में शादी हो जाया करती थी, मेरी शादी सोलह साल में हो गयी थी। अठारह साल मेें बेबी हो जाने की वजह से बाद में फिर मैंने गाना शुरू किया और बहुत रियाज और बहुत अच्छी तरह से सब करना पड़ता है। 

उस समय ऐसा था कि लड़कियाँ गुरु जी के घर नहीं जाती थीं, गुरु जी ही घर आते थे। घर में शिक्षा-दीक्षा होती थी और मेरे दादा गुरु जी जो थे वो इतना मानते थे कि सुबह नौ, साढ़े नौ बजे आ जाते थे और शाम को चार बजे, साढ़े चार बजे जाते थे, गर्मी के दिन में और जाड़े के दिन में तो जल्दी चले जाते थे। तो वे खाना-वाना खा करके आराम करते थे, हम लोग उनकी तमाखू भरते थे, उनका पीठ दबाना, उनका सिर खुजलाना ये सब करते थे, बच्चे थे तब। तो उस समय गुरु की सेवा करना और गुरु का हमारे माँ-पिता कैसे सम्मान करते थे, तो ये देख-देखकर के बच्चों में एक ची$ज बन जाती है न, इसके बाद पढ़ाई मेरी स्कूल में शुरू किया था लेकिन तीसरे क्लास में जाते-जाते मैंने कहा, मैं नहीं पढूँगी क्योंकि इतना टीचर्स मेरे पिताजी ने रख दिया था, एक संस्कृत, हिन्दी पढ़ाते थे, उर्दू उस जमाने में पढ़ाते थे, एक इंगलिश पढ़ाने वाले आते थे और एक गाने के लिए। चार टीचरों का काम करने से घबड़ा जाते थे, बच्चे तो थे ही, तो इसलिए हमने कहा, हम पढ़ेंगे नहीं, गायेंगे। इस पर मेरी माँ बहुत नारा$ज हुई थीं कि गाना ही गाना सीखेगी, पता नहीं इसका गाना चलेगा कि नहीं चलेगा, पता नहीं क्या, आ आ करवाते रहते हैं दिन भर। तो माँ-पिताजी में कभी-कभी ये भी हो जाता था कि लडक़ी को खाना बनाना, घर गृहस्थी सम्हालना, ये सब भी बताना चाहिए, तो इस पर पिताजी ने कहा, नहीं, ये कुछ और ही लडक़ी हुई है हमको, इसलिए सुबह को जब हमें ले जाते थे टहलने के लिए पिताजी, तो चार बजे, साढ़े चार बजे उठकर पाँच बजे हम लोग जाते थे टहलने के लिए। उस $जमाने में पिताजी ने हमें फिर घोड़ा चलाना सिखा दिया, स्वीमिंग करना सिखा दिया, लाठी चलाना सिखा दिया, याने एक तरह से पूरी बहादुरी और पूरा संगीतमय जीवन उन्होंने कर दिया था। 

तो वो जो असर पड़ा था मेरे सिर पर, तो वो उतरने का नाम ही नहीं लिया। फिर उसके बाद शादी हो जाने के बाद बच्चे को सम्हालें, क्या करें, तो बेबी एक साल की हुई तब इसको माँ के पास छोड़ करके  मैं चली गयी सारनाथ। एक बगीचे में जहाँ कि मैं तीन बजे रात को उठ करके, नहा-धो करके सात बजे तक रिया$ज करती थी। फिर उसके बाद नाश्ता-वाश्ता बना करके, खाना-वाना बना करके, एक मेरे साथ नेपाली नौकर था, एक आया खाना बनाने वाली थी, हम तीन जने ही जाकर वहाँ रहते थे और बच्चे को रोज बुला के, देख-दाख करके छोड़ देते थे। इस तरह से हमारा जीवन चला। पति भी हमारे रात को वहाँ चले जाते थे और गुरु भी जाते थे। तो वो लोग एक क मरे मेें, मने, वरण्डा था, वहाँ सोते थे और कमरे में मैं रहती थी। उस समय बिजली भी नहीं थी और हम लोगों को लालटेन जला करके रहना पड़ता था, सारनाथ में। ये बात मैं बता रही हूँ आपको करीब, पैंसठ साल तो हो ही गया, हाँ तेरसठ-चौंसठ साल पहले की बात है। उस समय बनारस में बिजली आ गयी थी परन्तु सारनाथ तरफ नहीं थी। तो इस तरह से एक बरस वहाँ पर, जिसको कहिए कि हमने अपने को बन्द कर लिया था। न किसी से मिलना, न जुलना। खाली संगीत का अध्ययन। फिर गुरु जी हमारे बैठ के सिखा देते थे। फिर वो लोग रिक्शे में चले आते थे शहर फिर मैं दिन को तीन बजे उठकर रिया$ज करती थी। शाम को गुरु जी फिर आते थे, तब रात आठ बजे से लेकर दस बजे तक उनका रियाज, इस तरह से छ: - सात घण्टे का रियाज चलता था।

इलाहाबाद के रेडियो स्टेशन में पहला प्रोग्राम



फिर जब मैं घर आयी तो सारी गिरस्ती पड़ गयी मेरे ऊपर। मेरे भाई, बहनें, ये सब कोई और रिश्तेदार-नातेदार, शादी - बयाह सभी मेें हिस्सा लेना था लेकिन मैं संगीत के लिए अपना टाइम निकाल लेती थी। इतना सब करते-करते, फिर फॉट्टीनाइन में इलाहाबाद रेडियो स्टेशन बना तो उसमेें मैंने पहला प्रोग्राम दिया, तो उस $जमाने में ऐसा नहीं था, कि ए ग्रेड मिले, बी ग्रेड मिले, सी ग्रेड मिले। ग्रेडेशन का ऐसा कुछ था ही नहीं। सामने ही स्टेशन डायरेक्टर वगैरह बैठे थे, सुनकर ही वो लोग कर देते थे, तो फिर मुझको रैंक वैसा ही दिया जैसे बिस्मिल्लाह भाई, सिद्धेश्वरी देवी और रसूलन बाई का, हरिशंकर मिश्रा जी का, जो लोग गायक वगैरह थे, उन्हीं के ग्रेड में। क्योंकि पता इस तरह से लगा कि जो चेक उन्हें मिलता था, वो ही चेक हमें मिलता था। तो इस तरह पता लगा कि नबबे रुपया उनकी फीस थी तो नबबे रुपया मुझे भी मिल गयी। फस्र्ट क्लास उन्हें भी तीन मिला, हमें भी तीन मिला। तो एक बराबर, समझ में आया कि उन लोगों ने किया था। तो कोई बात नहीं थी, सब भगवान की, गुरु की कृपा थी, मिला, मिला। तो फॉट्टीनाइन से मैंने इलाहाबाद रेडियो स्टेशन से गाना शुरू किया।

फिफ्टीवन में मैंने पहला कान्फ्रेन्स आरा में किया। बिहार में आरा एक जगह है, पटना, आरा। तो आरा में जब मैंने वहाँ पर गाया तो बहुत बड़ी बात ये हुई कि एक तो खुले पण्डाल में हो रहा था प्रोग्राम और दूसरे पण्डित ओंकारनाथ जी आने वाले थे बनारस से, उस समय वहीं थे यूनिवर्सिटी में पण्डित ओंकारनाथ जी ठाकुर, तो वो आने वाले थे लेकिन उनकी गाड़ी बीच रास्ते में खराब हो गयी और सुबह उनका प्रोग्राम था ग्यारह बजे से। तो वो नहीं आये और उस जगह हमको बिठा दिया लोगों ने गाने के लिए। इतनी पबलिक आयी थी उनके नाम से कि कह नहीं सक ते, सिर दिख रहा था आदमी का, पता नहीं लग रहा था कितने भरे हुए लोग हैं। तो उस वक्त मैंने जो गाना गाया वहाँ पर। करीब डेढ़ से पौने दो घण्टे मैंने गाना गाया, ख्य़ाल गायी, टप्पा गाया, उसके बाद ठुमरी गायी मगर उसी दिन पहली बार मैंने बाबुल मोरा नैहर छूटो जाये, गाया था, तब से लेकर लगातार उसको कितनी ही बार गया। आज तक लोग पूछते हैं मगर अब मैंने उसे गाना बन्द कर दिया है। गाते-गाते हद्द हो गयी, वो जन गण मन हो गया था मेरे लिए (हँसती हैं) बाबुल मोरा नैहर छूटो जाये। इसलिए वहाँ गायी इक्यावन दिसम्बर में और जनवरी में बनारस में हुआ सन बावन में। तो वहाँ पर हमारे पति ही इसके पे्रसीडेण्ट थे और सारे बड़े लोग जितने वहाँ के थे, सारे मिल कर के इसको किए थे और तीन दिन का कॉन्फ्रेन्स था जिसमें केसर बाई, पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर, पटवर्धन जी, डी वी पलुस्कर, पण्डित रविशंकर जी, अली अकबर खाँ, उस्ताद विलायत खाँ, मने कौन ऐसा नहीं बचा था सितारा देवी, गोपीकृष्ण मने कोई ऐसा, सिद्धेश्वरी देवी, रसूलन बाई, बिस्मिल्ला भाई जितने लोग थे सब भरे हुए थे उसमें और उसमेें मैंने पहला गाना गाया जनवरी में।

डॉ राधाकृष्णन ने फरमाइश की, एक ठुमरी और ..............


पण्डित रविशंकर जी उस समय रेडियो में थे दिल्ली के। तो उन्होंने जाकर जिकर किया, एक होता था कॉन्स्टेशन क्लब का प्रोग्राम तालकटोरा में, तालकटोरा गार्डन में, उसको करने वाली थीं पटौदी, बेगम पटौदी और सुमित्रा, शीला भरतराम, नैना देवी इन सबने मिलकर उसे बनाया था और निर्मला जोशी, डॉ जोशी की लडक़ी थीें, वो ही सेकेट्री थीं। तो किसी तरह उन लोगों को मालूमात हुई तो मुझे बुलाया। मैं भी पहली बार दिल्ली गयी मार्च में और पलुस्कर जी भी पहली बार गये, बड़े गुलाम अली खाँ साहब पहली बार गये। शायद है कि कहीं वो पत्रिका पड़ी होगी मेरे पास। फस्र्ट टाइम था मेरा। तो वहाँ पर सारे राष्टï्रपति, उपराष्टï्रपति, प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरु जी सब लोग आने वाले थे। लेकिन उन लोगों को तो काम हो गया तो वो लोग नहीं आये लेकिन उपराष्‍ट्रपति जी आये डॉ राधाकृष्णन। बाकी सारे पट्टभिसीतारमैया, सुचेता कृपलानी जितने भी थे सारे उन लोग के लिए एक घण्टे का प्रोग्राम वो लोग करती थीं। फिर रात साढ़े नौ बजे से एक-दो बजे तक चलता था उन लोग का प्रोग्राम। तो उसमें मुझे और डी वी पलुस्कर साहब को और बिस्मिल्लाह खाँ साहब को बीस-बीस मिनट टाइम मिला। कहा गया बीस-बीस मिनट सब लोग गा लीजिए। तो पहले बिस्मिल्लाह खाँ साहब ने बजाया फिर डी वी पलुस्कर साहब ने गाया उसके बाद हमें गाना पड़ा। तो जब हमें गाना पड़ा तो पण्डित जी ने कहा, रविशंकर जी जिनको हम दादा बोलते हैं, हम बोले क्या गायें, वो बजा लिए राग-रागिनी, वो गा दिए ख्य़ाल बीस मिनट में मध्य लय का, तो वो बोले तुम पाँच मिनट टप्पा गा दो और पन्द्रह मिनट की ठुमरी। तो हमने कहा, ठीक है, चलिए, अइसइ गा देते हैं। तो मैंने पाँच-छ: मिनट का टप्पा गाया, उस समय तो बहुत तैयारी थी और यंग एज था तो टप्पा गाया और फिर ठुमरी गा लिया और मैंने करीब दो-तीन मिनट पहले ही खतम कर दिया, कि वो लोग न कहें कि खतम करो। शुरू से मेरी आदत थी कि कोई न, न करे हमें। हम हट जाएँ लेकिन हम न नहीं सुनना चाहते। तो इसलिए हमने सत्रह-अठारह मिनट में खतम कर दिया तब तक डॉ राधाकृष्णन ने आदमी भेजा कि हमें एक और ठुमरी सुननी है। तो मैं बोल्ड तो थी क्योंकि मैं तमाम ये घोड़ा चढऩा, ये करना, लडक़ों के जैसा काम करना, सबके ऊपर अपना रुआब जमाये रहती थी। तो मैं स्टेज से बोली कि मैं गाऊँगी $जरूर मगर ऐसा न हो कि बीच में से उठ जाइएगा आप लोग (हँसती हैं) । तो वो थोड़ा हँस दिए फिर कहने लगे, नहीं। तो मैंने कुछ आधा घण्टा एक और ठुमरी गायी। एक ठुमरी मैंने आधा घण्टा गायी। तो उस समय सारे पत्रकार लोग एकदम सक्रिय हो गये। सबने फिर लिखा। पेपर में आ गया। तो पहला आरा, दूसरा बनारस, तीसरा दिल्ली में मैंने गाया। 

सात समुंदर पार तक शिष्य परम्परा की अमरबेल


इसके बाद तो भगवान की कृपा थी। सब जगह मैंने गाया। हिन्दुस्तान में ऐसी कोई जगह नहीं, जहाँ मैंने न गाया हो। विदेशों में भी गयी, विदेशों में भी लोगों ने मेरा देखरेख अच्छी तरह से किया। बहुत इज्जत दिया वहाँ पर भी। कई शिष्याएँ भी हो गयीं वहाँ पर भी जो अपने एन आय आर थे, उन लोगों में भी। इस तरह से तो मेरे संगीत का जीवन चलता रहा मगर संगीत में सबसे बड़ी बात है कि एक तो गुरु को बहुत इज्जत देकर के क्योंकि माँ-पिताजी जन्म देते हैं। पहला गुरु तो माँ ही है जो हमें बात करना सिखाती है, जो ये सिखाती है कि ये माँ है, ये तुम्हारे चाचाजी हैं, पिताजी हैं, काकाजी हैं, इसके बाद के मेरे ज्ञान के गुरु जो थे वे मेरे दादा गुरु जी थे और मेरे पिताजी ने मुझे बहुत सम्हाल करके रखा मगर हम लोग क्या, बहुत छोटेपन में ही शादी हो जाती थी, सोलह-सत्रह की उमर में, शादी हो गयी तो मेरी एक बेबी भी हो गयी अठारह साल की उमर में तो इस व$जह से थोड़ा रुक गया था, मगर इसके बाद फिर मैंने बहुत तबियत से गाना-वाना गाकर के मुकाम बनाया। बस भगवान को याद करके, अपने गुरु को याद करके, बड़ों को याद करके आज तक संगीत का मेरा सफर चला आ रहा है। और ऐसे भी मेरे कई शिष्यों, मतलब ज्य़ादा नहीं दस-पन्द्रह हैं क्योंकि अभी मुझ ही को जानकारी लेने से फुर्सत नहीं मिलती, मेरे रिया$ज से फुर्सत नहीं मिलती। हम कहाँ तक दे सकें लेकिन आई टी सी संगीत रिसर्च एकेडमी ने एक बनाया कलकतते में 1977 में। उसमेें वे लोग मुझे ले गये बनारस घराना की वज़ह से और वहाँ पर भी मैंने तीन-चार शिष्यों को बनाया। अच्छी गाती हैं वो लोग क्योंकि हर गुरु को तीन शिष्य मिलते थे। एक तो मेरे गुरु जी का लडक़ा ही गया था। मेरे गुरु जी की डेथ हो गयी थी, दूसरे वाले, उनका लडक़ा। दो वहाँ से मिले थे लेकिन मेरे गुरु जी का लडक़ा था, एक ही लडक़ा था, चला आया था घर वापस। दूसरी की डेथ हो गयी, तीसरी गाती है। 

फिर उसके बाद मैं हिन्दू यूनिवर्सिटी में आयी। वहाँ एज़ ए वि$जीटिंग प्रोफेसर मैं दो साल थी और फिर उसके बाद घर में ही और फिर प्रोग्राम वगैरह अमेरिका, लन्दन, इधर-उधर जाने में ही बहुत टाइम लग जाता है। दो-दो महीने, डेढ़-डेढ़ महीने वहाँ का प्रोग्राम सब रहता था। फिर इसके बाद मैं घर में सिखाती थी बच्चों को। लेकिन वाराणसी मेें मुझे शिष्य कुछ अच्छे नहीं मिले। जैसा कि मैंने कलकतते मेें देखा शिष्य, तो उनको बहुत ज्य़ादा लालसा होती थी कि संगीतज्ञ बनें, चाहें वो सरोद हो, सितार हो, तबला हो, गाना हो, कुछ भी हो। वहाँ लड़कियाँ सुरीली, समझदार, अच्छी तरह से इसीलिए मैंने कलकतते में ही अपना एक और घर बना लिया। बनारस में तो ही मेरा घर, अभी तक है मेरा घर। मैं हर दो-तीन महीने में जाती हूॅं बनारस। लेकिन कलततते मेें मैं चली आयी क्योंकि मेरी एक ही बेटी है। उसी शादी कलकतते में हुई थी। हमारी देखरेख के हिसाब से भी हम चले आये क्योंकि हमारे पति की डेथ हो गयी थी सेवन्टीफाइव में और सेवन्टीसेवन में मैं चली आयी थी कलकतते। तब से वहीं रहती हूॅं बस आना-जाना लगा रहता है। कलकतते में मुझे चार-पाँच शिष्य बहुत अच्छे मिले। उनको मैंने बहुत प्रेम से सिखाया और गाते भी बहुत अच्छे हैं। वक्त आने पर सबका नाम बताएँगे क्योंकि एक शिष्य का नाम बता दें तो दूसरे शिष्य दुखी होते हैं कि मेरा नाम क्यों नहीं लिया, तो इसलिए। बड़े अच्छे शिष्य तैयार हो रहे हैं और पूरा गायकी हमारे घराने की, बनारस घराने की , सेनिया घराना। जितना ख्य़ाल अंग और ये सब है और बनारस का भी उसमें अंग है ख्य़ाल गाने का, वो मैंने तो याद किया लेकिन इसके बाद टप्पा, तत्कार, सदरा, तराना, ध्रुपद, धमार फिर आपके ठुमरी और होली, चैती, कजरी, झूला ये सब मैंने वहाँ पर सीखा। 

हमें शौक था शादियों के गीत, बच्चा होने के गीत इन सबका, हमेें बचपन मेें गुड्डïा-गुडिय़ों की शादियाँ करने का शौक बहुत था। इसमें गुरु माँ के घर की लड़कियों को और अपने दोस्तों को बुला के ढोलक पर उनका गाना सुनती थी और सबको खाना खिलाती थी। मुझे खाना खिलाने का बहुत शौक है। तो वो सब मेरा बचपन से ही चला आया। उसको कोई रोक नहीं सका। और मैं खाना बनाती हँू चार आदमी का और आठ आदमी को बुला लिया, आओ मेरे साथ खाना खाओ, कुछ इस तरह का रहा है मेरा। और न ही मेरा कोई सिनेमा देखने का शौक है, न ही कोई क्लब, न ही ये सब करने का शौक नहीं था। एक भारतीय स्त्री को जो वास्तव में $जरूरत है, वो ची$जें मुझे मेरे घर से, लोगों के  यहाँ देखने से, मेरे गुरु घराने से, वो ची$ज में मैं पली और बढ़ी। मगर जब बाहर गयी तो वहाँ का भी देखा कि कैसे फॉरेन में लोग रहते हैं, जाते हैं लेकिन मेरी जो चाल थी, उसमें उनकी तरह वैसा कुछ भी मैंने आने नहीं दिया। अपना पहरावा-ओढ़ावा, खान-पान, बातचीत सब कुछ इस तरह से किया जो मेरा अपना संस्कार था। ऐसे दस-बार शिष्य अमेरिका, लन्दन, न्यू जर्सी में हैं, फ्र ांस और इटली में भी हैं, लेकिन बहुत कायदे से, मैंने कहा कि सा रे गा मा से शुरू करके तुम्हारी नींव मजबूत करें फिर तुम्हें अच्छी तरह से बना सकते हैं हम। तो दो-तीन लड़कियाँ अच्छी हैं और खुद भी टीचिंग कर रही हैं अभी। 


फिफ्टीवन से दो हजार सात तक..........


तो ये सब भगवान की और गुरु की कृपा है और मेरे बड़ों का आशीर्वाद है कि जो चला आ रहा है अभी तक पचपन-छप्पन साल हो गये। फिफ्टीवन से शुरू किया और आज तो हो गया दो ह$जार सात (पूछतीं हैं, दो ह$जार सात है न, फिर हॉं कहकर आगे बोलती हैं) । दो ह$जार सात चल रहा है और मैं तो आज भी जब भी श्रोताओं के सामने जाती हँू, तो मुझे लगता है कि ये श्रोता नहीं हैं बल्कि भगवान ने जो बनाया है, ईश्वर के सारे रूप यहाँ बैठे हुए हैं और मैं आँख बन्द करके भगवान और अपने गुरु का स्मरण करके गाती हूॅं। लेकिन हर ची$ज का एक समय है। जैसे आज मैं डेढ़ घण्टे बैठकर यमन कल्याण गाऊँ तो कुछ लोग आते हैं टिकिट लेकर के टप्पा सुनने को, कुछ लोग आते हैं ख्य़ाल सुनने को, कुछ लोग आते हैं ठुमरी सुनने को, कुछ लोग आते हैं दादरा सुनने, कुछ लोग आते हैं लोकगीत सुनने, कुछ लोग भजन सुनने आते हैं तो हम पहले ही ऑर्गेनाइ$जर से पूछ लेते हैं कि भई हमें समय कितना है, उन्होंने कहा कि डेढ़ घण्टा तो हम आधे घण्टे, चालीस मिनट में ख्य़ाल थोड़ा कम्पलीट जैसा मेरे गुरु ने सिखाया वैसा ही मैं गा देती हूँ। उसके बाद पन्द्रह मिनट एक ठुमरी, दस मिनट वो, पाँच मिनट वो करके उनका डेढ़ घण्टा मैं पूरा कर देती थी कि लगता ही नहीं था कि समय कहाँ चला जाता है। लोग तब और सुनने की फरमाइश करते थे। हम समय की बहुत इज्ज़त करते हैं। अगर आपने हमको पाँच बजे का समय दिया गाने के लिए तैयार रहने के लिए तो हम चार चालीस पर तैयार होकर के खड़े रहेंगे। इतनी समय की पाबन्दी मुझे हो गयी है। समय की कदर करना चाहिए क्योंकि जो समय चला जाता है फिर वापिस नहीं आता। 

नयी सदी की संस्कृति


ये सब बातें और हिन्दी के बड़े-बड़े लोगों की कहानियाँ, कविताएँ ये सब पढ़ती थी, इसलिए मुझे हिन्दी साहित्य से बहुत ही लगाव है। उसके बाद बंगाल के लोग, महाराष्टï्र के लोग, उनके बारे में जैसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बारे में, का$जी न$जरूल के बारे में जानते हैं और इन लोगों की कविताएँ सुनते हैं तो मुझे बहुत पसन्द आती हैं। महाराष्टï्र में भी इतने लोग हुए हैं, मराठी गाना, मराठी ड्रामा सब मैंने देखा, समझ में नहीं आता था तो पूछ लेते थे। इसलिए हर जगह की अपनी-अपनी एक वेल्यू है और हर जगह में ही विद्वान लोग हैं। मगर अब क्या हो गया है, पहले की फिल्म के, या ऐसे भी गजल, कव्वाली सब होती थी मगर तब उसकी इज्ज़त और सम्मान रखकर लोग बैठते थे। आज न वो गजल में चीज रह गयी, न कव्वाली में, न वो फिल्म संगीत में। इतना कुछ, ज्य़ादा ही कुछ हटता जा रहा है साहित्य से कि कुरता फाड़ के देख लो, कि कऊआ बोल रहा है, और कोई शबद नहीं मिल रहा है सबको कि कोयल बोलती है, मोर बोल रहा है, ये सब नहीं। तो इसलिए दुख भी लगता है कि बहुत दुनिया बदलती चली जा रही है। उस जमाने में कॉन्फ्रेन्स शुरू होती थी रात को नौ बजे तो सुबह पाँच बजे-छ: बजे खत्म करते थे। पूरे रात हम लोग देखते थे उसको। मगर आज तो रात को नौ बजे भी निकलने मेें डर लगता है कि कोई छीना-झपटी न कर दे, कोई कुछ न कह दे। फिर हम तो गाड़ी में जा रहे हैं लेकिन सबके पास तो गाडिय़ाँ नहीं हैं। कोई रिकशे से जा रहा है, कोई मोटर साइकिल से, कोई साइकिल से। तो इस समय इतनी ज्य़ादा घबराहट हो गयी है कि रात का प्रोग्राम नौ-साढ़े नौ बजे तक लोग बन्द कर देते हैं। 

गुरु-शिष्य परम्परा : धीरज और बाजार


आजकल के गुरु को, हम शिकायत नहीं कर रहे हैं, जो शिष्य हैं वो भी चाहते हैं कि हमें इतना जल्दी सिखा दें कि हम एकदम टॉप पर पहुँच जाएँ। टेलीविजन और रेडियो, कॉन्फ्रेन्स सब गाएँ और गुरु सोचता है कि इसको फँसाकर रखो कि इससे पाँच सौ-हजार सिटिंग का जो मिलता है वो बन्द न हो जाए। दोनों में बन नहीं रही है। लेकिन अभी भी अगर खोजा जाए हिन्दुस्तान में, तो दस-बीस अच्छे गुरु मिल सकते हैं जो कि बैठकर के बच्चों को आगे बढ़ाने का जैसा हौंसला मैं किए हूँ कि दस-बीस बच्चे भी हमारे अच्छे निकल जाएँ तो वे सौ अच्छे शिष्य तैयार कर सकेेंगे, ह$जार शिष्य तैयार कर सकेंगे। हम लोग ऐसे अपने दस ही शिष्य बनाएँ तो बहुत है। मगर खाली अपने बच्चों को सिखाकर, अपने परिवार को सिखाकर कला को बांध लेना उचित नहीं है। देखिए, तकदीर भी कोई ची$ज होती है। ईश्वर की कृपा हो, गुरु की कृपा हो, उसकी तकदीर भी होना चाहिए। माँ जन्म देती है लेकिन कर्मदाता नहीं होती, वो जन्मदाता है। तो इसीलिए कितना भी गुरु कर दे, कोई-कोई गुरु इतने तकदीर वाले होते हैं कि जैसे केलूचरण महापात्र। जितनी भी शिष्याएँ निकली हैं, जितने भी शिष्य निकले हैं सबने नाम किया, चाहें संयुक्ता पाणिग्रही हों, चाहें प्रोतिमा बेदी हों, चाहें कुमकुम मोहन्ती हों, चाहें उनका बेटा हो शिबू, और वो क्या नाम है, डोना, वो क्रिकेट खेलते हैं सौरव, उनकी पत्नी, सारे बच्चे लोग अच्छा डांस कर रहे हैं। ऐसे गुरु भी जिनका कि भाग्य हो, ऐसे शिष्य उनका नाम रोशन करें, भाग्यवान हैं। 

हमारे पण्डित बिरजू महाराज के भी अनेक शिष्य हैं। बहुत अच्छे शिष्य निकले उनके, बहुत अच्छा कर भी रहे हैं वो। अब गायन मेें पण्डित ओंकारनाथ जी के शिष्य हैं, वो लोग सर्विस में चले गये क्योंकि उनको इक_ïा रुपया मिल जाता है उनके खर्च के लिए, पन्द्रह हजार-बीस हजार। और आजकल मँहगाई इतनी बढ़ गयी है, कि घर का किराया ले लीजिए, कि घर का खाना ले लीजिए, कि बच्चों की पढ़ाई ले लीजिए, सब इतना ज्य़ादा हो गया है कि वो लोग कड़ी से कड़ी मेहनत करके घर को चलाते भी हैं और उसी मेें शिक्षा भी देते हैं। मैं बुरा नहीं कहती हूँ शिक्षकों को, उनकी भी अपनी बहुत जरूरतें हैं। हर लोग तो लाख रुपया, दो लाख रुपया नहीं ले सकता या पाँच लाख रुपया लेकिन जो लोग बहुत अच्छे हो गये हैं जिनके पास करोड़ों सम्पतित है, उन लोगों को आज जो भारतीय संगीत की इज्ज़त दब रही है, जो माहौल है, ऐसा चलेगा, उतने ही बच्चे हमारे बरबाद होंगे। उन्हेें अच्छी चीज सुनाने-सुनने का मौका मिलना चाहिए। जैसा कि स्पिक मैके कर रहा है, यूनिवर्सिटीज और स्कूल में, कॉलेज मेें प्रोग्राम करते हैं, बहुत अच्छा लेक्चर डिमॉस्ट्रेशन देना, उन्हें समझाना, वैसा हम लोग प्रयत्न कर रहे हैं कि ऐसी कोई और भी संस्था बनना चाहिए जिसमें लोग वर्कशॉप करवाएँ, चाहें भोपाल हो, इन्दौर हो, मुम्बई हो। 

मैंने भी वर्कशॉप किया, मुम्बई में जाकर नेहरु सेंटर में। सभी लोग आए, बच्चियाँ भी, आरती अंकलीकर से लेकर अश्विनी भिड़े भी, पद्मा तलवलकर, सब लोग आये, बहुत लोग आये मगर सात दिन के अन्दर, पाँच दिन के अन्दर हम कितनी ची$जें उन्हें बता सकते हैं। गायकी का रूप या भाव नहीं बता सकते जब तक बैठकर कुछ दिन नहीं सीखेंगे। यदि रेकॉर्ड से सीखेंगे तो भी मैं कैसे उसको कहती हूँ, यह थोड़ी पता लग पायेगा। तो बच्चों को गवर्नमेेंट हेल्प करे या कम्पनीज हेल्प करेें क्योंकि देखिएगा, एक गुरु को भी तो कुछ चाहिए। फ्री तो आ नहीं सकते। अपना खर्चा-वर्चा लगा के आएँ, उनको रहने का, सात-आठ दिन का जैसा, उनकी इज्ज़त हो, उसके ऊपर तो खर्च होगा लेकिन वो बच्चे जो सीखेंगे, कुछ सार्थक रहेगा। इसके ऊपर ध्यान देना चाहिए। सीखने-सिखाने वाले सब लोगों को अच्छी राह दिखानी चाहिए, अच्छी राह पर चलना चाहिए।

पिताजी की याद.......


बाबू रामदास राय मेरे पिताजी का नाम था। मेरे पिताजी तो हर बखत याद आते हैं। हम लोग गाँव में रहते थे। $जमींदारी थी, थोड़े हिस्से की। आधी हमारी और आधी हमारे रिश्तेदारों की जो दादा-परदादा के $जमाने से चली आ रही थी। बाद में पिताजी वो सब हमारे परिवार मेें रखकर के बनारस चले आये थे। काशी आने के बाद ही हमारे घर में गाने-बजाने का माहौल बना। पहले पापा ने सीखा, मेरे को भी आ गया। तो पापा की तो हर बखत याद आती है। जिस समय मैंने सीखा उस समय वो कठिन दौर निकल चुका था जब लड़कियों को गाने-बजाने से रोका जाता था। पण्डित मदन मोहन मालवीय की बेटियाँ सीख रही थीं, इधर महाराष्टï्र में लोग निकल गये थे हीराबाई बड़ोदेकर, केसर बाई, गंगूबाई हंगल ये लोग निकल चुकी थीं। सिद्धेश्वरी देवी भी गा रही थीं लेकिन ये लोग राज दरबार में भी गाती थीं मगर मेरे पिताजी ने और मेरे पति ने कहा, नहीं, हम राज दरबार में नहीं गाएँगे। चाहें वो लाखों दे देते, करोड़ों दे देते, नहीं जाते। 

कलाकार का सच्चा धर्म


एक कलाकार का सच्चा धर्म यही है कि वो अपनी सत्यता को न छोड़े। सत्य का जीवन में पालन करेे। जहाँ तक हो सके, हम यह नहीं कहते कि कृष्ण, राम सब सामने खड़े हैं लेकिन मैं उन्हें मानसिक रूप से मानती हूँ। उनका जो रूप है उसकी मैं पूजा करती हूँ क्योंकि उन्होंने बहुत बड़ा कार्य किया है। वो मोक्ष दिए कि नहीं दिए लेकिन इतने बड़े हो गये हैं कि उन्हें हमें मानना पड़ता है। उनकी बातों को अपने शास्त्रों के  अनुसार अपनी रामायण में, अपनी गीता में जो पढ़ते हैं तो कुछ तो किया है उन्होंने। ऐसे तो कोई निकालेगा नहीं उनकी किताबें। चाहे हिन्दू हों या मुसलमान हों, पहले हम लोगों में कितना मेल था, इतना मेल रहता था, आज के जीवन में देखिए छोटी-छोटी सी बात पर कटुता बढ़ती चली जा रही है। पहले उस्ताद लोग भी बहुत ही सीधे थे और बहुत ही सच्चे थे। जिसको भी वे सचमुच मानते थे कि ये लडक़ा या लडक़ी ठीक है, उसे आशीर्वाद देते थे नहीं तो उसको तुरन्त कहते थे कि न, अभी तुम बाहर जाने लायक नहीं हो। अभी तुम गुरु या उस्ताद से सीखो। ये ची$ज ठीक करो, वो तुम्हारी तानें ठीक नहीं हैं, स्वर सही नहीं हैं, ताल ठीक नहीं है, ये सब वो लोग बताते थे। आज किसी बच्चे को कह दो तो वो कहेगा, वाह, मैं कोई खराब थोड़े ही हूँ, मैं तो बढिय़ा हूँ। ऐसे में कौन बोलेगा भला, झगड़ा मोल लेगा। भाई आप जानिए, आपका काम जाने। तो इस तरह से चलता है ये समाज, ये दुनिया। कुछ न कुछ ऋतु बदलती रहती है।

ईश्वर के बारे में


भइया ईश्वर के बारे में तो बहुत..........हम तो हर बखत उनको याद करते हैं। थोड़ा मेडिटेशन, खरज, ऊँकार मेरा तो संगीत ही पूजा है। उसी से मैं उन्हें सजाती हूँ, उसी से फूल चढ़ाती हूँ और न मेरे पास फूूल है न पतती है। उनका तो हर वक्त हृदय में वास रहता है, जैसे माँ सरस्वती हैं, शिव हैं मेरे आराध्य, उनका ध्यान तो रखना ही पड़ता है। 

दुनिया को कैसे खूबसूरत बनाया जा सकता है?


दुनिया को खूबसूरत बनाया जा सकता है, कि सब लोग बहुत प्यार-मोहबबत के आदमी हो जाएँ, बहुत सच्चाई आ जाए सबमें और बहुत शालीनता, खासकर के लड़कियों में भी और लडक़ों में भी। उद्दण्ड रहकर के दुनिया को बिगाडऩा ठीक नहीं है। उद्दण्डता कभी ठीक नहीं रही है क्योंकि मैंने सुना है कि जो उद्दण्ड होते थे वो मार दिए जाते थे या खतम कर दिए जाते थे या जेल बन्द कर दिया जाता था। जैसे कंस हुए। हुआ कि नहीं उनका खात्मा। कृष्ण ने किया जिनके वे मामा थे। लेकिन ये नहीं है कि कृष्ण सखियों के साथ दौड़े भी, रासलीला भी किया, खेल भी किए मगर आन्तरिक उनका ये था कि सबको अपने में बुला रहे हैं, अपने पास बुला रहे हैं। मतलब यही था कि मेरे में वो हो जाएँ। तो आपमेें, हमारे में सब जगह तो भगवान बसे हुए हैं फिर क्यों लोग एक दूसरे के शत्रु इस तरह से बनते जा रहे हैं? दुनिया को खूबसूरत बनाना है तो सबको एक ही विचार ले करके चलना होगा, चाहे वो किसी भी जाति के हों। मैं यह नहीं कहती कि अमीर और गरीब पहले भी रहे हैं। क्या राम के वक्त धोबी, नाई नहीं था? क्या वो पालकी उठाने वाला आदमी नहीं था? क्या वो राजा बन जाता था? नहीं। राजा राज करते थे, प्रजा को देखते थे और प्रजा को अपना बेटा, अपनी बेटी, अपनी सन्तान मानते थे पर आज के जमाने में पहले अपने ही पास सब भर लेते हैं मगर उसके बाद खाली हाथ चले जाते हैं। वो भी बेकार है। लेकिन भगवान जब किसी को कुछ देता है तो तुम्हें भी कुछ देना चाहिए। सब लेकर नहीं जाना चाहिए और ले के जाएगा कहाँ से? हम तो खाली हाथ आये थे और खाली हाथ चले जाएँगे। कहा है न मुट्ठी बांधे आते हैं और खाली हाथ चले जाते हैं। आप देखिए छोटा बच्चा पैदा होता है तो मुट्ठियाॅँ उसकी बंधी होती हैं और जब जाता है आदमी तो हाथ खाली रहता है। तो अगर अच्छा काम करके हम जाएँगे तो सैकड़ों वर्ष हमेें लोग याद रखेंगे और यदि हम किसी की बुराई, किसी का ये, किसी की चोरी, किसी का करजा, किसी का खून, किसी को मारा तो वो बदनाम ही रह जाएगा। इसलिए सब कोई जब तक मिलेंगे नहीं, एक जने कुछ नहीं कर सकते हैं। 

मगर मैं तो अपने बच्चों को, श्रोताओं को अपने सामने जो होते हैं, यही कहती हूँ कि आपस का प्यार रखो अगर तुम्हें किसी से कुछ बुराई है तो मुँह पर ही बोल दो कि अच्छा नहीं लगा हमें। मन में मैल रखकर कभी जीवन चल नहीं सकता। दोस्त भी मानते हो और मैल भी रखते हो, ऐसा क्यों है? और सबमें संगीत है। आप अगर सही नहीं चलिएगा तो लुढक़ जाइएगा। लोग कहेंगे कि बेताले चल रहे हैं। अगर स्वर में नहीं बोले, बाँ बाँ बाँ बाँ किए तो सब कहेंगे बड़ा बेसुरा बोल रहा है भैया। ऐसी औरतें भी हैं और पुरुष भी हैं। तो स्वर और लय तो हर एक की जिन्दगी में है मगर उसकी खोज करना पड़ता है। अरे अभी तो एक ही जिन्‍दगी हमारे लिए कम है कि ठीक से जी सकें। इसके लिए कई जीवन चाहिए हमें। न मेरा रियाज ही पूरा हुआ और न मेरी शिक्षा ही पूरी हुई। मैं इसके बारे में क्या बोलूँ? जो मेरे गुरु ने बताया, जो हमारे बाप, माँ, दादा, दादी ने बताया उन्हीं की बात सार्थक है, मेरी अपनी बात तो कुछ कहने की ही नहीं है, उसके लिए तो एक जीवन और चाहिए तब शायद अपनी बात बता सकें। ये सब सुनी सी, देखी सी और सिखायी बात मैं कर रही हूँ। मेरे में कुछ नहीं है। मेरा सब कुछ अर्पण है मेरे गुरु और मेरे भगवान के ऊपर। मैं कुछ नहीं हूँ। और जो करते हैं वही करते हैं। अभी कोई बात कहना है और गला बन्द हो जाए, बोल ही न पाएँ तो कोई तो है सब करने वाला जिसको हम देख नहीं पा रहे मगर है कोई। तमाम दिमाग, आँख, नाक, कान ये सब बनाया है ईश्वर ने। जानवरों को बनाया, कितने जीव बनाए, करोड़ों जीव-जन्तु। ये किसने बनाया? उसका अगर दर्शन हो जाए, उसकी खोज हो जाए तब तो हम बोलने लायक नहीं रहेंगे। हम तो कहीं चले जाएँगे कैलाश पर्वत। फिर आप लोग हमें छू नहीं सकते, बोलना तो बड़े दूर की बात है। 

लेकिन जब हम जीवन में रह रहे हैं, संसार के जीवन में तो हमें सब कुछ करना पड़ता है। कभी-कभी झूठ भी बोलना पड़ता है। लोग खूब फोन करते हैं तो बेटी से कहते हैं, कह दो सो गयी हैं, कहीं चली गयीं हैं। भगवान का नाम लेते हैं दस बार कि मैंने झूठ बोल दिया। उचित नहीं है यह लेकिन क्या करें, परेशान हो जाते हैं। एक तो उमर भी हो गयी है न, इस उमर में औरतों के लिए, जबकि पचास बरस मेें वो बुड्ढी हो जाती हैं, लडक़े तो साठ-पैंसठ बरस में भी लडक़े ही रह जाते हैं। ऐसा कुछ ईश्वर ने बनाया कि पचास बरस में वो बुड्ढी ही कहलाती हैं लेकिन कोई अस्सी बरस, अठहततर बरस, उन्यासी बरस में इतना साहस करके आते हैं तो इसीलिए कि हमारे लिए संगीत को सर्वोपरि रहना चाहिए। ये कभी नीचे नहीं जा सकता। हमारे लिए हमारे पिता से मिली हिम्मत सबसे बड़ी ची$ज है। यह भगवान की दी हुई है कि गुरु की दी हुई है कि पापा की दी हुई है, पता नहीं मगर मैं हिम्मत कभी नहीं हारती। मेरा तो दो साल पहले बायपास ऑपरेशन हुआ उसके बाद हम तो तीन महीने में ही चले गये थे फ्रांस लन्दन और इटली और अमेरिका प्रोग्राम करने। तो मतलब हिम्मत रखते हैं और उसी हिम्मत से भगवान आप लोग तक हमें पहुँचाए हैं। 
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#girijadevi #appaji #appajee 


शनिवार, 21 अक्तूबर 2017

नदी की सन्निधि में.........



दीपावली के अनारों के साथ......


लगता है वो मुझे अपने में एकाग्र होने नहीं देतीं। वो जहाँ पर हैं वहाँ वे इस बात का प्रयत्न करने में और आसानी से सक्षम हैं। धीरे-धीरे दिन सालों में बदलते जा रहे हैं। मैं काँच में अपना चेहरा हर दिन ही देखा करता हूँ। जान नहीं पाता, बड़े आघात कहाँ से क्या कुछ छुड़ाकर अपने साथ ले जाते हैं। ऊपर से कुछ समझ में नहीं आता। भीतर से भी कितना आता है, कहना मुश्किल है। 

स्मृतियों में कौंधता है, एफ टाइप दो मकानों में लगने वाला वह स्कूल जिसमें मैंने पढ़ना शुरू किया था। पहले दिन मुझे अच्छा तैयार किया गया था और बस्ता, जूता-मोजा, हाफ पैण्ट, बुशर्ट आदि पहनाकर वो मुझे स्कूल छोड़ने आयीं थीं। टीचर से भीतर बात की थी और थोड़ी देर में जब प्रार्थना की घण्टी बजी तो बाहर बच्चों की लाइन लगने लगी जिसमें मैं भी खड़ा कर दिया गया। प्रार्थना हो रही थी और लाइन में खड़े मैं उनको देख रहा था। आधी प्रार्थना हो चुकी तो वे मुझे देखते हुए मुस्कराकर जाने लगीं। उनको जाते देखकर मैं रो कर उनकी ओर दौड़ पड़ा और पीछे से जाकर उनकी साड़ी पकड़ ली, कहने लगा घर जाना है। उनको हँसी आ गयी पर मेरा रोना बन्द नहीं हुआ। 

बड़े होते हुए पता नहीं कितने ऐसे अवसर आये होंगे जब उनकी तबियत खराब हुई, वे बीमार पड़ीं पर साथ बनी रहीं। पिछली बार फिर उनको मैं पकड़ न सका, वो एकदम अन्तध्र्यान हो गयीं अपने भीतर से। ओर-छोर हम कुछ भी न समझ पाये। अब वे बहुत सारी फोटुओं में हैं जिन्हें देख पाना सहज नहीं होता, जिन्हें देखते हुए अपने आपको सह पाना भी सहज नहीं होता। 

वे अक्सर अपनी माँ, हमारी नानी को याद करके कहा करती थीं, नहीं रहने के बाद अम्माँ हमें कभी सपने में भी नहीं दीखीं। कभी-कभी वे बतलाती थीं कि तुम्हारी नानी को सपने में देखा, उन्होंने कहा, मुनियाँ, हम अकेली हैं। अब हमारे पास घर भी बड़ा है, तुम भी वहीं चलो। इस पर मैं उनके हाथ जोड़ लिया करता था, यह कहते हुए कि ऐसे सपने मत देखा करो। और नानी की बात भी मानने की जरूरत नहीं है तब वे शरारतन हँसने भी लगतीं, वे हम सबकी घबराहट को भाँप जातीं थीं। त्यौहारों को लेकर उनके अपने सिद्धान्त बड़े स्पष्ट और साफ से थे। हम लोगों के प्रायः अलसाये रहने पर वे कहा करती थीं, सब दिन चंगे, त्यौहार के दिन नंगे। वे चाहती थीं घर के लोग तीज-त्यौहार के दिन सुबह से ही तैयार हो जायें और घर को भी उसी तरह व्यवस्थित करें। 

अब उनके बिना ये त्यौहार पूरे दिन सहना बड़ी हिम्मत का परिचय देने जैसा है जिसमें संयत बने रहना ही सबसे बड़ी परीक्षा होती है। पीर-पके मन में बहुत उथल-पुथल मचती है। कोई कोना-छाता समझ में नहीं आता जहाँ दो पल अपने में उसी व्यथा के साथ रहा जा सके। चारों तरफ ऐसे व्यवधान हैं जो पूरे जीवनभर भ्रमित करते रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे। दीपावली पर उनको अनार बहुत पसन्द थे। पटाखों के साथ अनार उनकी इच्छा से चार-पाँच जरूर लाये जाते। उन अनारों को छुटाने (जलाने) के समय उनको बाहर बुला लिया करते थे। अनारों का भरपूर दम भर ऊपर जाना और एकदम से दानों का बिखर जाना उनको बहुत सुहाता। उतना देखकर वे भीतर चली जातीं हम लोगों का खाना बनाने के लिए। 

इस बार मन किया, उनकी आभासी सन्निधि में कुछ अनार जलाऊँ। नर्मदा, गंगा, संगम और शिप्रा में उनकी आभासी सन्निधियाँ हैं क्योंकि उनके दिव्यांश वहाँ प्रवाहित किए थे। साँझ को इन्हीं इरादों के साथ अपनी व्यथा का मलहम लिए दीपावली के दिन रामघाट पहुँच गया। माँ शिप्रा अपने पूरे ठहराव में थीं किन्तु उनका स्पन्दन महसूस किया जा सकता था। नदी की अपनी भाषा और व्‍याकरण होते हैं, ध्‍यान से सुनो तो शब्‍द भी। मेरा अपना बहिरंग बहुत कोलाहाल से भरा था जबकि अन्‍तरंग, भीतर का लम्‍बा गलियारा पूरी तरह चुप, शान्‍त कमोवेश मौन। 

नदी के दोनों ओर कुछ दिये जल रहे थे। इक्का-दुक्का लोग। मेरे अनुज से मित्र अमित वहाँ मेरे पास थे। हम लोगों ने वहीं किनारे अनार जमाये। अनार जलाने के लिए फुलझड़ी का प्रयोग ज्यादा सहज है। हमने जलायीं, तभी वहीं एक बच्चा कहीं से आ पहुँचा, आठक साल का जिसने कहा, अंकल मैं जलाऊँ अनार, हमने कहा, बेटा क्यों नहीं। वह खुश हुआ। हमने फिर मिलकर एक-एक करके सभी अनार जलाये। 

अनार जल चुके, फुलझड़ी के चार पैकेट बचे थे, इस बीच तीन बच्चे-बच्चियाँ वहाँ से निकले गरीब परिवार के जो दोने में आटे की गोली मछलियों को डालने के लिए बेच रहे थे मगर वहाँ उनका कोई गाहक नहीं था। उनको पास बुलाकर एक-एक पैकेट फुलझड़ी का दिया, एक जो बचा वो अनार चलाने वाले बच्चे को। सबके चेहरे पर जो खुशी आयीं वह अनूठी, प्रीतिकर और सुखकारी थी। सबने अपने विवेक से जले हुए अनार कचरे के डब्बे में डाले और हम लोगों को हैप्पी दीवाली अंकल कहते हुए दौड़ते-भागते अपने घर को चले गये। 

मैं जानता था कि यह मेरा अपना हठ, अपने आप से है, मुझे लगा कि शायद इसमें मैं अकेले ही शामिल हो सकता हूँ। इसलिए मैंने अपनी निजता में यह कर लिया। लौटते हुए रामघाट पर बिताये दस मिनट मेरे लिए अपने मन को जीने का मेरा हठ थे, जिन पर मैं अपना दृश्यबोध छोड़ आया था। माँ शिप्रा का ध्यान करते हुए मोक्षदायिनी नदियों के विषय में मैं सोचने लगा, लाखों-करोड़ों लोगों की पीड़ा और बहते हुए आँसुओं को ये नदियाँ कितनी उदारता से अपने आँचल में समेट लेती हैं। उतना ही सच यह भी है कि इतनी पीर अपने में सहेजे-समेटे वे स्वयं कितनी पीर से भरी रहा करती होंगी। 

शायद यही कारण है कि नदी के किनारे थमकर बैठना, जीवन के अर्थ का सात्विक और सच्चा व्याकरण ग्रहण करने के बराबर है। हमारे पूर्वज नदी की धरोहर हैं और नदी हमारी समूची मानवीय अस्मिता की.................


मंगलवार, 10 अक्तूबर 2017

75 के अमिताभ बच्चन

दूसरी सदी भी उनके होने के सार्थक अर्थ से खचाखच भरी है



अपने चाहने वालों के चेहरे पर अपना आभामण्डल देखकर वे संकोच और उपकृत भाव से लगभग अव्यक्त से हो जाया करते हैं। ऐसे किसी व्यक्ति से जिसके प्रति उसके अपार चाहने वालों का गहरी आसक्ति वाला भाव हो, उसके एवज की प्रतिक्रिया प्राप्त कर पाना कठिन होता है। हमेशा एक तरह की असहजता महसूस होती है, ऐसा लगता है कि यह ऐसा ज्वार है जिसकी न तो थाह पायी जा सकती है और न ही वेग का अन्दाजा ही लगाया जा सकता है। 

शब्दों की यह बुनावट दो सदियों के महानायक पर बात करते हुए करनी पड़ रही है। स्वाभाविक रूप से ऐसे व्यक्तित्व की बात की जा रही है जो अपनी पहचान के आयाम में एकदम अजेय है। लगभग आधी सदी बराबर संघर्ष, श्रम-परिश्रम, स्वप्न, दृष्टि और दृष्टिकोण, तमाम उतार-चढ़ाव, घटना-दुर्घटनाएँ, हारी-बीमारी, आरोप-प्रत्यारोप और प्रशंसा-आलोचनाएँ जैसे सब की सब बीज बोने, फलित होने और वट वृक्ष बनने के अनेकानेक जतनों के हिसाब हैं, उपकरण हैं, औजार हैं। इन सब परिधियों के केन्द्र में एक ही व्यक्ति है जिसे आप सदी का महानायक कहते हैं, मुझे लगता है वे दो सदियों के महानायक हैं क्योंकि दूसरी सदी के इन दो दशकों में वे स्वयं यश और उत्कर्ष के उस अवस्था के साक्ष्य हैं जब प्रायः वानप्रस्थ की तैयारी होती है, आराम और अवकाश की कामना होती है, विश्राम का आकर्षण बंधता है। अमिताभ बच्चन ऐसे समय के आदर्श हैं तो यह माना जाना चाहिए कि यह दूसरी सदी भी उनके होने के सार्थक अर्थ से खचाखच भरी है। 

अभी अपने जन्मदिन के पाँच दिन पहले ही वे भोपाल आये थे। स्मरण हो, भोपाल उनका ससुराल है, जया जी का मायका। वे आये थे एक ज्वैलरी के शो रूम का उद्घाटन करने। देर रात मुम्बई जाकर उन्होंने ट्वीट किये तीन छायाचित्र, सुबह मुम्बई का, पूर्वान्ह में भोपाल का, दोपहर बाद लखनऊ का और बताया कि रात को फिर मुम्बई में आ गया हूँ। जहाज से ही सही, इतनी चहलकदमी पचहत्तर की उम्र में कमाल की है। प्रेरणा होती है जब पन्द्रह-बीस दिन पहले ही कौन बनेगा करोड़पति में वे लीवर को लेकर बात कर रहे होते हैं और बातों-बातों में बतलाते हैं कि उनका लीवर शायद बीस प्रतिशत ही काम कर रहा है! दुनिया में लोग बेवजह घुटन, कुण्ठा और संत्रास में अपनी बीमारियाँ चीन्हते, उसका बखान करते और उस पर दूसरों की हमदर्दी प्राप्त करने का प्रायः अजीब सा शगल पाले रहते हैं, ऐसा लगता है जैसे वे असाधारण दुख और मुसीबत से घिरे हुए हैं। दूसरी तरफ अमिताभ बच्चन हैं, आठ आने भर यश और बारह आने भर उम्र के साथ आज भी चिंगारी का स्रोत बने हुए हैं।

अमिताभ बच्चन उच्चारण में एक नाम हैं, समय के साथ-साथ बहुत सी धारणाओं के बीच अवधारणाओं का लेकिन वह अपनी सक्रियता के माध्यम सिनेमा को अपने होने के अर्थ से बेतरह सशक्त बनाते हैं। किसी भी मनुष्य की तरह उनके साथ भी परिस्थितियों ने बिना किसी पक्षपात के परीक्षाओं में खड़ा किया है। वे चोट खाने से लेकर बीमारियों का शिकार होने, उससे बुरी तरह ग्रस्त रहने और बाद में उनसे निजात पाने या उनसे जूझते रहने में एक जीते हुए व्यक्तित्व की तरह हमारे बीच उपस्थित होते हैं। दिलचस्प यह है कि बीमारी भी उन्होंने शाही पायी और उसका मुकाबला भी भीतर की उस शक्ति से किया जिसकी अन्तर्मुखीयता को परिभाषित करना आसान नहीं है। गम्भीरता उनका जन्मजात गुण है, यह उनके स्वभाव का हिस्सा है। इसे वे अपने केन्द्र में दशमलव की तरह स्थापित किए रहकर दिलचस्प आयामों में आवाजाही करते हैं। स्वाभाविक रूप से यह उनकी प्रतिभा का हिस्सा रही है लेकिन इसने ही उनको लड़ने का माद्दा भी दिया है, जैसी कि उनकी एक फिल्म का नाम भी था, इन्द्रजीत बनाया है।

अमिताभ बच्चन पचहत्तर साल के हो रहे हैं। आज पूरे देश के अखबार उनकी महिमा, व्यक्तित्व और प्रभाव के साथ-साथ उनकी अनवरत यात्रा से भरे होंगे। हो सकता है आलेख से लेकर पेज और पेज से लेकर परिशिष्ट तक का अतिरेक दिखायी दे लेकिन अपने देश के इस अतिअभिव्यक्त स्नेह, प्यार और प्रतिक्रिया से अलग किसी दूसरे देश में अपना जन्मदिन मनाने की उनकी पहले की घोषित योजना थी सो वे गये ही होंगे। वे दरअसल उत्तेजना, अविवेक और संयमरहित प्यार की इस अभिव्यक्ति से पूरी तरह सन्तृप्त हो चुके हैं। अब जो वे पिछले दो-पाँच सालों से सिनेमा में अपने जीवन के उत्तरार्ध की सक्रियता में नजर आते हैं, एक अलग ही तरह का मानस लेकर वे काम कर रहे हैं। वे अपने प्रत्येक निर्देशक और उसकी दृष्टि की खूब प्रशंसा करते हैं। प्रत्येक साथी सहयोगी कलाकार के साथ वे निर्विकार भाव से समरस होते हैं। वे इस समय खूब सराहते हैं और अपने ही शब्दों में इस समय की उनकी व्यस्ततता, लगातार काम मिलना इन सबको लेकर सबके उपकृत भी होना व्यक्त करते हैं। यह पितामह की उम्र का एक अत्यन्त सुलझा हुआ दृष्टिकोण है जो चालीस, पचास या साठ साल के अमिताभ बच्चन की पहचान नहीं था। यह रंग अब का है, अब इसे देखना और भी महत्वपूर्ण लगता है।


अमिताभ बच्चन और 1969 में सात हिन्दुस्तानी का प्रदर्शित होना, कल ही की बात की तरह सोचकर देखा जाये तो कितना कौतुहलपूर्ण लगता है। आज जरा वक्त निकालकर ये और बाॅम्बे टू गोवा दोनों फिल्में देखी जायें और इसके बाद फिर सीधे दीवार को देखा जाये, पुनरावलोकन का शायद इससे बेहतर कोई दूसरा तरीका न होगा। आप बीच में गहरी चाल को थोड़ी देर को भूल जाइये, बंधे हाथ को भूल जाइये, बेनाम को भूल जाइये, सीधे दीवार पर आइये, रोचक लगेगा, कैसे एक महानायक की यात्रा शुरू होती है। कैसे अमिताभ बच्चन अपनी अनगढ़ कायिक शख्सियत को किरदारों के अनुकूल बनाकर परदे के स्थपति होते चले जाते हैं! बड़ा अचरज तो लगता है लेकिन यह सब है बड़ा परिश्रम और पुरुषार्थ से भरा हुआ। 

हृषिकेश मुखर्जी, प्रकाश मेहरा, मनमोहन देसाई जैसे फिल्मकार उनको अमर और स्मरणीय किरदारों में गढ़ते हैं। सलीम-जावेद जैसे लेखक उनके एक्शन कद को अपनी कलम से बढ़ाते चले जाते हैं। राखी, रेखा, शर्मिला टैगोर, हेमा मालिनी, वहीदा रहमान जैसी नायिकाएँ उनको अभिसार और अभिव्यक्ति के सलीके में व्यवहार के अनुकूल बनाती हैं। मेहमूद और किशोर कुमार जैसे सहृदय सान्निध्य उनको पंख फैलाने में मदद करते हैं। प्रोत्साहन और उपकार उनको सीढ़ियों पर दौड़ने के लिए शाबाश कहने को आतुर होता है। ऐसी और ऐसी कितनी ही शुभाकांक्षाओं की बयार लहरों में रास्ता बनाती आगे बढ़ती नाव सा बोध कराती है। स्थापित अमिताभ बच्चन कभी प्रेस मीडिया का बायकाॅट करते हैं तो कभी बीती ताहि बिसारि दे के पथ पर भी चलते हैं। वे अपने साथी कलाकारों की भूमिकाओं को कम, प्रभावहीन या निष्प्रभावी करने के आरोप पर भी अपने पक्ष में अव्यक्त होते हैं। शत्रुघ्न सिन्हा जैसे कलाकार खम्भ ठोंककर उनसे दो-दो बात करके सुर्खियों में इसी कारण लम्बे समय बने रहे। वे सिनेमा से टेलीविजन और टेलीविजन से विज्ञापन फिल्मों तक सबके हक मार लेने तक की भरपूर चुस्ती-फुर्ती और कमोवेश हर जगह मौजूद होने के तंज को भी उत्तर देने के योग्य नहीं समझते।

अमिताभ बच्चन की खूबियाँ बहुत सी हैं जो स्वाभाविक रूप से उनके पहले उनसे वरीय, उनके समकालीन और उनके बाद आये कलाकारों में भी नजर नहीं आतीं। दुर्घटना से लेकर बीमारी तक वे अनेक बार काल के गाल से लौटे हैं लेकिन उन्होंने अपने को स्थितियों के अनुकूल बनाने की एक अलग सी साधना की है और वह साधना इन्हीं तमाम सक्रियताओं से होती हुई आयी है जो कभी उनको भीतर से मजबूत करती है तो कभी ऊपर या बाहर से। अदम्य जिजीविषा अमिताभ बच्चन की वह पूँजी है जो समाप्त होना तो दूर, कम भी नहीं पड़ती। वे बहुत ऊँचाई पर हैं। अड़तालीस साल की लगातार सक्रियता को आप आधी शती बराबर सक्रियता ही मानिए, इतना कम नहीं होता। नाम लेकर उदाहरण देना सभ्यता नहीं है लेकिन सच्चाई है कि इतने साल, ऐसे वजूद के साथ कोई भी कलाकार सक्रिय नहीं रहा है। अपनी इस यश यात्रा में वे, टैगोर की उसी रचना की पंक्ति की तरह हैं जिसे कुछ समय पहले उन्होंने गाया था, एकला चलो.........!


सोमवार, 9 अक्तूबर 2017

सिनेमा और जीवन की रचनात्मकता में साम्य स्थापित करने वाले फिल्मकार

स्मृति शेष: कुन्दन शाह



गहरी नींद में महाप्रयाण बहुत कुछ सोचने को विवश करता है। सुबह जागने पर, अपने मित्र, वरिष्ठ फिल्मकार कुन्दन शाह के नहीं रहने की सूचना देने वाले फिल्म इन्स्टीट्यूट पुणे के प्रशिक्षित सिनेछायाकार एवं निर्देशक राजेन्द्र जांगले ने अफसोस व्यक्त करते हुए कहा कि मुम्बई अभी जागी नहीं है, शायद खास लोगों को भी पता नहीं है पर मेरे पास सूचना आयी है कि कुन्दन शाह नहीं रहे। तुम उन पर जरूर कुछ लिखो, यह मेरा आग्रह है। कुछेक उन लोगों में से हम भी कुछ लोग ऐसे हैं जिनको सिनेमा जीवन के बिम्ब-प्रतिबिम्ब की तरह आकृष्ट करता रहा है। अच्छे सिनेमा को देखने के हर सुयोग को अपना सौभाग्य माना है और जो जतनपूर्वक देखा उसके सुख को भी महसूस किया है। कुन्दन शाह के सिनेमा को लेकर धारणा इससे और आगे की है। 

भारतीय सिनेमा में नवाचार की आहट पश्चिम बंगाल और दक्षिण से होते हुए हिन्दी सिनेमा तक आयी थी। यह लगभग अस्सी का दशक था जब श्याम बेनेगल और गोविन्द निहलानी ने इस माध्यम को सम सामयिकता, घटनाक्रम और यथार्थ के दृष्टिकोण से देखा वहीं सईद अख्तर मिर्जा, कुन्दन शाह, विधु विनोद चोपड़ा, अजीज मिर्जा, सुधीर मिश्रा आदि फिल्मकारों ने एक-दूसरे के साथ-संगत से, एक-दूसरे से सीखते और अनुभव लेते हुए सामूहिकता में ही वह सब दिलचस्प रचा जिसे हमारे सिनेमा में हृयूमर की तरह लिया गया। लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि ऐसे में संवेदना या संवेदनशीलता की स्थितियों या सम्भावना को ही ताक पर रख दिया गया हो। इसे साथ लेकर चलते हुए, जीवन की कठिनाइयों, मुसीबतों, विडम्बनाओं के साथ हँसने और हँसाने के लिए सुन्दर सी परिपाटियाँ शोध करने और प्रयोग में लाने का काम जिन फिल्मकारों ने किया था उनमें कुन्दन शाह की अपनी मौलिकता बहुत मायने रखती है। 

व्यक्तित्व में कुन्दन शाह प्रदर्शनपरक (शो बाज़) नहीं थे। वे पटकथा लेखक, निर्देशक प्रतीत भी नहीं होते थे। एक लम्बी बातचीत का सुयोग टिप्पणीकार को कुछ वर्ष पहले रहा है। उनमें व्यक्तित्व, व्यवहार या बातचीत में इस बात का भी गर्व नहीं झलकता था कि उन्होंने जिस शाहरुख खान को कभी हाँ कभी ना में अवसर दिया, एक पूर्णकालिक नायक का, वह सुपर स्टार हो गया है। वे ऐसे कर्मयोगी थे जो कर्म करके नये सोच में प्रवृत्त होते थे, स्मृतियों या व्यतीत वैभव से वर्तमान में आनंदित होने वाले मनुष्य नहीं थे। जाने भी दो यारों के लिए पूर्णकालिक व्यस्तता, अनुभव और श्रेय के बाद उन्होंने अपने साथी विधु विनोद चोपड़ा के लिए खामोश फिल्म की पटकथा भी लिखी थी। 

जाने भी दो यारों उनका पहला और श्रेष्ठ सिने सृजन था। अपनी इस पहली फिल्म को याद करते हुए एक बार प्रतिष्ठित निर्देशक और अभिनेता सतीश कौशिक ने बताया था कि जब मुम्बई आये थे तो बहुत सारे सपने थे। निर्देशक बनने का स्वप्न था लेकिन उसके पहले कलाकार के रूप में अवसर सामने आने लगे। जब दो-तीन अवसर बाद उपलब्धियाँ नहीं आयीं तो लगा फिल्म लिखी जाये तो हम कुछ मित्रों ने बैठकर जाने भी दो यारों के बारे में सोचा। जाने भी दो यारों कुछ अलग हटकर, कुछ अनोखा और कुछ अनूठा करने वाले अनेक मित्रों के सकारात्मक सोच, सार्थक बहसों और उत्तरोत्तर परिष्कार से तैयार हुई पटकथा थी जिसमें अभिनय करने वाले कलाकार भी उसी सामूहिकता का हिस्सा थे। यही कारण है कि आज भी उस फिल्म को देखना गहन एकाग्रता के बोध के साथ उन सारे अचरजों से गुजरना है जो हमारे आसपास के ही हैं, एकात्मकता में वे कष्टप्रद या असहनीय हो सकते हैं पर सामूहिकता में उनका अपना रोमांच है, तमाम जोखिमों के बावजूद।

कुन्दन शाह ने नुक्कड़ धारावाहिक के कुछ एपिसोड, ये जो है जिन्दगी के लगभग सभी एपिसोड, वागले की दुनिया धारावाहिक को निर्देशित करते हुए अपनी प्रखर रचनात्मकता का परिचय दिया था। बीसवीं सदी का समापन कहें या अवसान काल कहें, हमारे आसपास बहुत सारे विकास और आधुनिकता के आग्रहों के बावजूद विडम्बनाओं और समस्याओं के स्तर पर जिस तरह गरीबी, बेकारी, मध्यमवर्गीय स्वप्नों और चुनौतियों को लेकर जूझ रहा था वहाँ कलाएँ अपने लिए जगह तलाश रही थीं, संगीत और नाटक के संसार में प्रबुद्धों का अपना वर्चस्व स्थापित हो रहा था। सिनेमा में दर्शक समाज अमिताभ बच्चन के महानायकत्व और उन अनुभूतियों से अपने आपको दूर करते हुए नये और प्रतिभाशाली चेहरों में कल का नायक तलाश रहा था। इस पूरे के पूरे दौर में कुन्दन शाह और उनके अनेक गुणी और कर्मठ साथियों ने उस खाली जगह का सार्थक सदुपयोग किया जहाँ पैर टिकाने के लिए, खड़े रहने के लिए और पहचाने जाने के लिए लगभग सभी को समान अवसर थे। तभी तो नुक्कड़ के तमाम चरित्रों में तकलीफों के साथ-साथ खुशी भी बोलती है। ये जो है जिन्दगी में जीवन की नीरसता को भंग कर देने के लिए रोचक बातें और घटनाक्रम हैं। वागले की दुनिया में साधारण नौकरी करते हुए अपने छोटे-बड़े स्वप्नों के साथ जीवननैया को उस पार तक खेने की सादगी और सहजता है। कहीं कोई शिकायत नहीं है पर अपने पुरुषार्थ को परीक्षा में लगाया हुआ है, यह सब बातें कुन्दन शाह अपने धारावाहिकों, अपने सिनेमा में संजोते थे।

कभी हाँ कभी ना उनकी एक अत्यन्त मर्मस्पर्शी फिल्म है। एक ऐसी फिल्म में जिसमें गलतफहमियाँ खड़ी करके, झूठ बोलकर भी एक चरित्र पूरे नायकत्व को जीता है, उसका निर्वाह करता है। वह प्रेम करता है उससे जो उससे नहीं उसके मित्र से प्रेम करती है, उनके बीच प्रायः भ्रम फैलाना उसका प्रयोजन है। बांधे रखने वाले घटनाक्रम हैं, हम देखते हैं कि लड़के-लड़कियों का एक मित्र समूह है जिसमें कोई किसी का शत्रु नहीं है मगर अपनी-अपनी तरह से असहमतियाँ काम करती हैं। ऐसे युवा हैं जिनका अभी कोई धरातल नहीं है। कुन्दन शाह इन सबके बीच से होते हुए एक प्यारा सा, भावनात्मक क्लायमेक्स ले आते हैं जिसमें सब मिलकर नायक के लिए गाते हैं, वो तो है अलबेला, हजारों में अकेला...........दरअसल यह उदारता, यह दर्शन और यह समाधान किसी भी खूबसूरत सिनेमा की पहचान है। ऐसे खूबसूरत सिनेमा के रचयिता थे कुन्दन शाह। 

उनकी एक फिल्म क्या कहना को अलग ढंग से चर्चा और बहस के दायरे में लाया गया था जिसमें एक परिवार की लड़की को उसका प्रेमी धोखा देता है और बाद में लड़की को अपने गर्भवती होने का पता चलता है। इस फिल्म में कुन्दन शाह के पास बड़ी स्टार कास्ट थी, प्रीति जिण्टा थीं, सैफ और चन्द्रचूड़ थे, अनुपम खेर और फरीदा जलाल थीं। कुन्दन ने इस फिल्म को भी जिस नरमी के साथ, कोमल आभासों और समय को संवेदना के साथ बरतने के फलसफे स्थापित किए थे, वो सचमुच बहुत महत्वपूर्ण और मायने रखते थे। समाज में ऐसे अनेक उदाहरण हुए हैं पर ऐसे विषय पर इतनी कोमल फिल्म केवल कुन्दन शाह ही बना सकते थे। वे तनाव भरे विषय में आँसू, मुस्कराहट, हँसी और संवेदना के साथ यदि किसी हल पर पहुँचते हैं तो उसको अनुभव क्या कहना में किया जा सकता है। 

कुन्दन शाह के सिनेमा में एक रोचक साम्य कम से कम दो फिल्म में मेरे देखे आया, वह यह कि क्लायमेक्स में सभी किरदार मिलकर एक गीत गाते हैं। कभी हाँ कभी ना में वो तो है अलबेला और क्या कहना में ऐ दिल लाया है बहार, अपनों का प्यार, क्या कहना, यह प्रयोजनपूर्वक प्रयोग परिवार, समाज और समाज से जुड़कर बनने वाले देश में आपस की मजबूती, सहमति और एकता-एकजुटता के साथ किसी भी कठिनाई या चुनौती से जूझ जाने का जज्बा है। कुन्दन शाह जैसा फिल्मकार अपने ऐसे ही गहरे सृजन से हमेशा हमारे बीच बना रहेगा, हमारी चिरस्मृतियों में पूरे रचनात्मक स्थायित्व के साथ।

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सोमवार, 2 अक्तूबर 2017

समग्रता में एक सशक्त वजूद होना चाहिए सेंसर बोर्ड


सेंसर बोर्ड का विवादास्पद अध्यक्ष बदल दिये गये हैं और प्रमुख रूप से गीतकार लेकिन पटकथा लेखन में भाग मिल्खा भाग जैसी श्रेष्ठ फिल्म देने वाले प्रसून जोशी को नया दायित्व दिया गया है जिसका औपचारिक तौर पर अच्छा स्वागत भी हुआ है। पहलाज निहलानी को यह पद धारण कराया जाना ही चर्चा का विषय बना था क्योंकि एक फिल्मकार के रूप में, निर्माता बनकर उन्होंने जो फिल्में बनायीं उन्हें दो दशक पहले ब श्रेणी की फिल्मों की मान्यता ही मिलती रही थी। वे सार्वजनिक रूप से ऐसी उपस्थिति भी कभी नहीं रहे जो उनको विचारवान या दृष्टिसम्पन्न साबित कर सके लेकिन सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष चुनते हुए सरकार को अपने ही बीच के शत्रुघ्न सिन्हा, हेमा मालिनी जैसे वरिष्ठ और अनुभवी कलाकारों से इतर पहलाज निहलानी तत्समय उपयुक्त लगे। 

पद सम्हालने के बाद जब निहलानी ने अपनी प्रतिभा का परिचय देना शुरू किया तो पता चला कि वे बोर्ड के सदस्यों के लिए भी अजीर्ण साबित हुए क्योंकि बोर्ड के सदस्यों में अनेक लोग ऐसे थे जिनकी दक्षता निहलानी से ज्यादा थी। ऐसे में असहमतियों और विरोधाभासों को उठने का मौका मिला। निहलानी की आपत्तियों और सिद्धान्तों का स्रोत क्या होता था यह तो पता नहीं लेकिन व्यवहारिकता और तार्किकता के धरातल पर सभी बुरी तरह मार खाती थीं। इसी कारण सेंसर बोर्ड का वजूद बन नहीं सका। सम्भवतः बहुत बाद में सदस्यों ने भी अध्यक्ष को उनके और उनकी समझदारी के हाल पर छोड़ दिया था जिससे बात और बिगड़ी जिसका परिणाम हाल में उनकी विदायी और प्रसून जोशी की स्थापना के रूप में हुआ है।

हिन्दी सिनेमा में प्रसून जोशी एक चहेती उपस्थिति हैं। उनके गीतों ने पिछले पाँच-सात सालों में बाजारजीवी हिन्दी सिनेमा को यथासम्भव थोड़ी-बहुत संवेदना और मनभावन रूमान लौटाने का काम किया है। अपने योगदान और दक्षता में प्रसून जोशी निर्विवाद हैं। उन्होंने निरन्तर अपनी एक स्तरीय धारा बनायी है जिसको सदैव दर्शकों का समर्थन भी मिलता रहा है। गुलजार और जावेद अख्तर के गीतों के सम्मोहन से सन्तृप्त हो चले भारतीय दर्शक समाज को प्रसून जोशी के बीच अनुभूतियों में नये मुहावरे और मन की छुअन के नये एहसास, नये स्पर्श कराते हैं। व्यक्तित्व के अनुरूप उनकी रचनाधर्मिता भी उतनी ही सौम्य है। उनको सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष बनाया जाना अभी एक बेहतर सम्भावना, एक बेहतर उम्मीद कहा जा सकता है।

सेंसर बोर्ड का अस्तित्व हमारे संज्ञान में सदा से ही किसी न किसी कारण चर्चा में बना रहा है। हम सेंसर बोर्ड को सरकार का आबकारी विभाग तो नहीं मान सकते जहाँ शराब की बिक्री का राजस्व प्रमुख जरूरत है लेकिन शराब बन्दी और उसके साथ जुड़ा सामाजिक सुधार का मुद्दा भी दूसरा और आवश्यक पक्ष है। इसी तरह सिनेमा है। सिनेमा से सरकार को राजस्व प्राप्त होता है। सिनेमा का अस्तित्व बना रहना चाहिए लेकिन सिनेमा को अनुशासित किए जाने के लिए सेंसर बोर्ड का भी अस्तित्व बनाया गया है। सेंसर बोर्ड उसे अपने हस्तक्षेप या अनुमोदन से कैसे बैक्टीरियारहित कर पाता है, यह उसकी दक्षता पर निर्भर करता है। बच्चों के खेलों में साँप-सीढ़ी और लूडो के खेल का बोर्ड जैसे अलग-अलग ओर खुलता था वैसे ही शराब और सिनेमा के मसले भी हैं और दोनों ही ज्यादा संवेदनशील हैं क्योंकि एक का शारीरिक और दूसरे का मानसिक फैलाव यदि विकार या विकृति से भरा होगा तो दुर्घटनाएँ अधिक होंगी।

सिनेमा करोड़ों दर्शकों के स्वप्नों से आज भी जुड़ा है। आज भी सिनेमा देखने कोई अकेला नहीं जाता। देखा सिनेमा भले अकेले ही जाता हो लेकिन संगत हमको प्रिय लगती है, ऐसे या तो परिवार या मित्र साथ होते हैं। अगर सिनेमा देखना रचनात्मक कर्म माने तो इसके साथ सामूहिकता जुड़ी हुई है। हम यह भी जानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति की पसन्द भिन्न होती है, जो हमारे साथ है उसकी भी। ऐसे में यदि सिनेमा अच्छा नहीं हुआ तो उसका प्रभाव कैसा होगा? 

साहित्य और सिनेमा में दो बड़े सच्चे और आसान से फर्क हैं। उत्कृष्ट साहित्य पढ़ने के लिए आपको उस स्तर की योग्यता या दक्षता की जरूरत है मगर सिनेमा के बारे में ऐसा मापदण्ड नहीं है। सिनेमा का दर्शक सिनेमा देखने की योग्यता धारण करके नहीं जाता। सेंसर बोर्ड कोतवाल न बने मगर उसका अनुशासन सिनेमा में दिखायी देना चाहिए। लिपिस्टिक अण्डर माय बुर्का टाइप घटिया फिल्मों का अनेक आपत्तिजनक दृश्यों और संवादों के साथ सिनेमाघर तक पहुँच जाना वैसा ही है जैसे तमाम तरह के बल-वजूद धारण करने के बावजूद आपके हाथ से एक बुरी बीमारी फिसलकर लोगों तक पहुँच गयी। पिता वह नहीं है जो औलादों को गाली देता, मारपीट करता और पूरे मोहल्ले में शोर मचाता फिरे, पिता वह है जिसकी निगाह का डर हो और आदर भी। हमारे फिल्मकारों को खुद सेंसर बोर्ड की तरह होना चाहिए। कतिपय इस बोध से परे हैं कि एक फिल्मकार के रूप उनके उत्तरदायित्व हैं क्या? इतिहास गवाह है कि सुपरहिट और बाजार लूटने वाली फिल्में अश्लील या घटिया नहीं रही हैं। ख्वाजा अहमद अब्बास, व्ही. शान्ताराम, मेहबूब खान, बिमल राॅय, हृषिकेश मुखर्जी ने सिनेमा बनाने से पहले देश, समाज और अपने सृजन के प्रति, अपनी प्रतिबद्धता पहले तय की थी।