शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

नदी की सन्निधि में.........

लगता है वो मुझे अपने में एकाग्र होने नहीं देतीं। वो जहाँ पर हैं वहाँ वे इस बात का प्रयत्न करने में और आसानी से सक्षम हैं। धीरे-धीरे दिन सालों में बदलते जा रहे हैं। मैं काँच में अपना चेहरा हर दिन ही देखा करता हूँ। जान नहीं पाता, बड़े आघात कहाँ से क्या कुछ छुड़ाकर अपने साथ ले जाते हैं। ऊपर से कुछ समझ में नहीं आता। भीतर से भी कितना आता है, कहना मुश्किल है। 

स्मृतियों में कौंधता है, एफ टाइप दो मकानों में लगने वाला वह स्कूल जिसमें मैंने पढ़ना शुरू किया था। पहले दिन मुझे अच्छा तैयार किया गया था और बस्ता, जूता-मोजा, हाफ पैण्ट, बुशर्ट आदि पहनाकर वो मुझे स्कूल छोड़ने आयीं थीं। टीचर से भीतर बात की थी और थोड़ी देर में जब प्रार्थना की घण्टी बजी तो बाहर बच्चों की लाइन लगने लगी जिसमें मैं भी खड़ा कर दिया गया। प्रार्थना हो रही थी और लाइन में खड़े मैं उनको देख रहा था। आधी प्रार्थना हो चुकी तो वे मुझे देखते हुए मुस्कराकर जाने लगीं। उनको जाते देखकर मैं रो कर उनकी ओर दौड़ पड़ा और पीछे से जाकर उनकी साड़ी पकड़ ली, कहने लगा घर जाना है। उनको हँसी आ गयी पर मेरा रोना बन्द नहीं हुआ। 

बड़े होते हुए पता नहीं कितने ऐसे अवसर आये होंगे जब उनकी तबियत खराब हुई, वे बीमार पड़ीं पर साथ बनी रहीं। पिछली बार फिर उनको मैं पकड़ न सका, वो एकदम अन्तर्ध्यान हो गयीं अपने भीतर से। ओर-छोर हम कुछ भी न समझ पाये। अब वे बहुत सारी फोटुओं में हैं जिन्हें देख पाना सहज नहीं होता, जिन्हें देखते हुए अपने आपको सह पाना भी सहज नहीं होता। वे अक्सर अपनी माँ, हमारी नानी को याद करके कहा करती थीं, नहीं रहने के बाद अम्माँ हमें कभी सपने में भी नहीं दीखीं। कभी-कभी वे बतलाती थीं कि तुम्हारी नानी को सपने में देखा, उन्होंने कहा, मुनियाँ, हम अकेली हैं। अब हमारे पास घर भी बड़ा है, तुम भी वहीं चलो। इस पर मैं उनके हाथ जोड़ लिया करता था, यह कहते हुए कि ऐसे सपने मत देखा करो। और नानी की बात भी मानने की जरूरत नहीं है तब वे शरारतन हँसने भी लगतीं, वे हम सबकी घबराहट को भाँप जातीं थीं। त्यौहारों को लेकर उनके अपने सिद्धान्त बड़े स्पष्ट और साफ से थे। हम लोगों के प्रायः अलसाये रहने पर वे कहा करती थीं, सब दिन चंगे, त्यौहार के दिन नंगे। वे चाहती थीं घर के लोग तीज-त्यौहार के दिन सुबह से ही तैयार हो जायें और घर को भी उसी तरह व्यवस्थित करें। 

अब उनके बिना ये त्यौहार पूरे दिन सहना बड़ी हिम्मत का परिचय देने जैसे हैं जिसमें संयत बने रहना ही सबसे बड़ी परीक्षा होती है। पीर-पके मन में बहुत उथल-पुथल मचती है। कोई कोना-छाता समझ में नहीं आता जहाँ दो पल अपने में उसी व्यथा के साथ रहा जा सके। चारों तरफ ऐसे व्यवधान हैं जो पूरे जीवनभर भ्रमित करते रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे। दीपावली पर उनको अनार बहुत पसन्द थे। पटाखों के साथ अनार उनकी इच्छा से चार-पाँच जरूर लाये जाते। उन अनारों को छुटाने (जलाने) के समय उनको बाहर बुला लिया करते थे। अनारों का भरपूर दम भर ऊपर जाना और एकदम से दानों का बिखर जाना उनको बहुत सुहाता। उतना देखकर वे भीतर चली जातीं हम लोगों का खाना बनाने के लिए। 

पिछले साल मन किया, उनकी आभासी सन्निधि में कुछ अनार जलाऊँ। नर्मदा, गंगा, संगम और शिप्रा में उनकी आभासी सन्निधियाँ हैं क्योंकि उनके दिव्यांश वहाँ प्रवाहित किए थे। साँझ को इन्हीं इरादों के साथ अपनी व्यथा का मलहम लिए दीपावली के दिन रामघाट पहुँच गया। माँ शिप्रा अपने पूरे ठहराव में थीं किन्तु उनका स्पन्दन महसूस किया जा सकता था। दोनों ओर कुछ दिये जल रहे थे। इक्का-दुक्का लोग। मेरे अनुज से मित्र अमित वहाँ मेरे पास थे। हम लोगों ने वहीं किनारे अनार जमाये। अनार जलाने के लिए फुलझड़ी का प्रयोग ज्यादा सहज है। हमने जलायीं, तभी वहीं एक बच्चा कहीं से आ पहुँचा, आठक साल का जिसने कहा, अंकल मैं जलाऊँ अनार, हमने कहा, बेटा क्यों नहीं। वह खुश हुआ। हमने फिर मिलकर एक-एक करके सभी अनार जलाये। अनार जल चुके, फुलझड़ी के चार पैकेट बचे थे, इस बीच तीन बच्चे-बच्चियाँ वहाँ से निकले गरीब परिवार के जो दोने में आटे की गोली मछलियों को डालने के लिए बेच रहे थे मगर वहाँ उनका कोई गाहक नहीं था। उनको पास बुलाकर एक-एक पैकेट फुलझड़ी का दिया, एक जो बचा वो अनार चलाने वाले बच्चे को। सबके चेहरे पर जो खुशी आयीं वह अनूठी, प्रीतिकर और सुखकारी थी। सबने अपने विवेक से जले हुए अनार कचरे के डब्बे में डाले और हम लोगों को हैप्पी दीवाली अंकल कहते हुए दौड़ते-भागते अपने घर को चले गये। इस बार भी यही किया। दीपावली के दिन तीन बजे दोपहर को उज्जैन की ओर चल पड़ा। बीते साल की तरह रामघाट जैसे बुला रहा था। इस साल भी ऐसा ही। लोग घरों में थे, त्यौहार की तैयारी करते, घाट सूना था। वही इक्के-दुक्के लोग, बच्चे, एक-दो मांगने वाले। इस बार भी अमित और आदित्य मेरे आने से पहले आ गये। हम सबने अनार जलाये, वहाँ घूम रहे बच्चों को भी बुलाकर। आधे घण्टे ठहराव के बाद फिर भोपाल वापसी। 

मैं जानता था कि यह मेरा अपना हठ, अपने आप से है, मुझे लगा कि शायद इसमें मैं अकेले ही शामिल हो सकता हूँ। इसलिए मैंने अपनी निजता में यह कर लिया। लौटते हुए रामघाट पर बिताया समय मेरे लिए अपने मन को जीने का मेरा हठ थे, जिन पर मैं अपना दृश्यबोध छोड़ आया था। शिप्रा का ध्यान करते हुए मोक्षदायिनी नदियों के विषय में मैं सोचने लगा, लाखों-करोड़ों लोगों की पीड़ा और बहते हुए आँसुओं को ये नदियाँ कितनी उदारता से अपने आँचल में समेट लेती हैं। उतना ही सच यह भी है कि इतनी पीर अपने में सहेजे-समेटे वे स्वयं कितनी पीर से भरी रहा करती होंगी। शायद यही कारण है कि नदी के किनारे थमकर बैठना, जीवन के अर्थ का सात्विक और सच्चा व्याकरण ग्रहण करने के बराबर है। हमारे पूर्वज नदी की धरोहर हैं और नदी हमारी समूची मानवीय अस्मिता की.................

शनिवार, 15 दिसंबर 2018

।। केदारनाथ ।।

एक प्रेमकहानी में कुछ प्रेमरस

 



केदारनाथ उस तरह से कोई साधारण फिल्म नहीं है जैसी प्रत्युत्पन्नमति समीक्षकों ने आनन-फानन उसे देखकर समीक्षा कर डाली है। कुछ वर्षों से इन्स्टेण्ट समीक्षा का अजीब सा कायदा बन गया है हमारे यहाँ मीडिया में जिसमें देखने के लिए भी वक्त नहीं है और सोचने के के लिए भी। लिख देने की जल्दी है, दौड़कर आगे निकल जाने की भी जल्दी है भले ही ठहरकर विचार भी न कर पाये हों। केदारनाथ अभिषेक कपूर निर्देशक एक अच्छी प्रेमकथा है जिसकी पृष्ठभूमि में शीर्षक अनुरूप केदारनाथ में पाँच साल पहले आयी आपदा लगातार साथ चलती है लेकिन आप उसको उस स्थान, उस कस्बे की एक काल्पनिक कहानी मानकर देखो, जैसा कि फिल्म के शुरू में स्पष्ट भी किया गया है, तो उसे एक सुरम्य स्थल पर युवा प्रेमकहानी के रूप में देखना अच्छा लगता है। मैंने यह फिल्म कल रात में देखी और आधा हॉल भरा भी पाया, यह दूसरे सप्ताह की स्थिति है जो बाजार की दृष्टि से भी बुरी नहीं है।

केदारनाथ तीर्थ में मन्दिर तक पहुँचने में असहाय और असमर्थ श्रद्धालुओं को अपनी पीठ पर बैठाकर मन्दिर की चौखट तक छोड़ने वाला नायक है जिसके पिता भी यही काम करते थे लेकिन एक दुर्घटना में, जब वह छोटा था, चल बसे थे। माँ और एक शायद भांजा उसके साथ, यही परिवार है। नायिका, दो बहने हैं, माँ और पिता। इनकी अलग कहानी है, नायिका छोटी बहन है जिसके लिए जिन्दगी का उस समय तक अर्थ उच्छश्रृंखलता है जब तक वह नायक से नहीं मिलती। नायक से मिलने के बाद फिर प्रेमकहानी है, मिलना है, नायक का नायिका को पिट्ठू पर बैठाकर घुमाना फिराना और गाना गाना भी।

नायक-नायिका के प्रेम के फलीभूत होने की अपनी बाधाएँ हैं, विशेषकर आसपास, समाज, धर्म यही सब। इसके बीच नायक बहुत विनम्रता और आत्मविश्वास के साथ मनुष्यता के पक्ष में अच्छे तर्क रखता है। फिल्म में नायक की माँ का अन्देशों और डर से भरा हुआ होना, नायक का अपने आपमें नायिका के प्रति, प्रतिबद्ध होना कहानी के महत्वपूर्ण पक्ष हैं। फिल्म में सहायक अभिनेता अपनी तरह से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं, वे सीमित भी हैं। प्राकृतिक संकट और विनाश की भयाक्रान्तता क्लाइमेक्स में बखूबी प्रस्तुत की गयी है। एक बड़े सजीव से सेट पर यह फिल्म चरितार्थ होती है। खूबसूरत गानों और उनके संगीत के साथ। विशेषकर आरम्भ में शिव की वन्दना का जो गीत है, संगीतकार अमित त्रिवेदी का ही गाया हुआ, पूरे परिवेश और भव्यता में गजब का लगता है। यह जितनी सुशान्त की फिल्म है उतनी ही सारा की भी।

सुशान्त के चेहरे पर प्रकृतिप्रदत्त सौम्यता बहुत सुहाती है। संवेदनशील और कोमल भावों की अभिव्यक्ति में वे मन को छूते हैं। सारा को देखते हुए अमृता याद आती हैं बेताब की। मिलता हुआ चेहरा, दुस्साहसी और चंचल चरित्र में वे जितना कमाल करती हैं भावनात्मक दृश्यों में वे उतनी ही प्रीतिकर भी। बहन की भूमिका में पूजा गोर का किरदार सीमित होते हुए भी रेखांकित होता है। फिल्म के अन्त में जब विनाशलीला समाप्त होने के कुछ वर्षों बाद का केदारनाथ दिखाया जाता है, तब अपने प्रेमी की याद में रेडियो में उस गाने की फरमाइश के साथ फिल्म का खत्म होना मन को छू जाता है जो पिछले किसी एक क्षण में नायक, नायिका के सामने गाता हैं। यह एक नम अनुभूति के साथ दर्शकों को सिनेमाहॉल से विदा करना है।

बड़े दिनों बाद किसी फिल्म में गीत के नाम पर गीत और संगीत के नाम पर माधुर्य का एहसास हुआ है। आज के समय में लम्बे समय तक गीत याद नहीं रहते मगर हमारे मन में इस फिल्म के गानों को लेकर एक सकारात्मक राय तो बनती ही है। फिल्म की मूल कहानीकार कनिका ढिल्लन हैं, खूबसूरती से उन्होंने एक मर्मस्पर्शी कथा रची है, अभिषेक कपूर एक नाम की तरह यहाँ उनके साथ श्रेय लेते हैं, वे निर्देशक जरूर अच्छे हैं, रॉक ऑन और काय पो छे के बाद इसमें वे प्रमाणित करते हैं।

तुषारकांत राय की सिनेमेटोग्राफी बहुत खूबसूरत है। कला निर्देशन में भी अच्छी कल्पनाशीलता के लिए आर्ट डायरेक्टर संजय कुमार चौधरी की सराहना की जानी चाहिए।
#kedarnath @kedarnath #filmreview @sushantsinghrajpoot @saraalikhan 

गुरुवार, 13 दिसंबर 2018



फिल्‍म - गुलामी
एक सशक्‍त सीन

एक जमींदार और एक किसान के बेटे के बीच सशक्‍त संवाद। 
गिरवीं जमीन और उसका कर्ज क्‍या एक किसान को 
पीढ़ी दर पीढ़ी चुकाना होता है.........?

सोमवार, 10 दिसंबर 2018

निर्द्वन्‍द्व (नाटक)


तथागत बुद्ध की जातक कथा पर आधारित एक नाटक जिसका प्रथम मंचन सांची के महाबोधित महोत्‍सव में 25 नवम्‍बर 2018 को हुआ था। इस नाटक के लेखक सुनील मिश्र हैं तथा निर्देशक के.जी. त्रिवेदी। नाटक में संगीत दिया है सुरेन्‍द्र वानखेड़े ने। यह नाटक एक गरीब लकड़हारे के सच्‍चे मन और संकल्‍प की कथा कहता है, जिसकी मदद आत्मिक विपदा में फँसने पर तथागत करते हैं।

शनिवार, 1 दिसंबर 2018

49वाँ अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह

विश्व का श्रेष्ठ सिनेमा क्यों नहीं बन सका हमारा मानक?


गोवा में 20 नवम्बर से शुरू हुआ 49वाँ अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह इस संकल्प के साथ सम्पन्न हो गया कि अगले साल नवम्बर 2019 में 50वाँ अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह इस तैयारी के साथ मनाया जायेगा जिसमें पिछली बार की अनेक खामियों के लिए पहले से ही सावधान रहा जायेगा, अच्छी तैयारी की जायेगी और जिन त्रुटियों के लिए हमेशा समारोह की आलोचना की जाती है, वे नहीं दोहरायी जायें, इसका प्रयत्न किया जायेगा। भारत में होने वाला सिनेमा का यह सबसे प्रमुख और सबसे पुराना फिल्म समारोह है जिसमें विश्व के अनेक देशों की भागीदारी हुआ करती है। दुनिया के लोग जो भारत के इस विश्व स्तरीय फिल्म समारोह के बारे में जानते हैं या वे फिल्मकार, कलाकार जो लम्बे समय से किसी न किसी रूप में इस समारोह का हिस्सा रहे हैं, वे पूरे साल इसके प्रति जिज्ञासा और कौतुहल बनाये रखते हैं। भारत में भी इसका वही आकर्षण है। यह बात उल्लेखनीय है कि इसी सदी की शुरूआत के तीसरे वर्ष 2003 से यह समारोह स्थायी रूप से गोवा में होने लगा है अन्यथा इसके पहले अन्तर्राष्ट्रीय समारोह एक साल दिल्ली में हुआ करता था और एक साल इसका मेजबान कोई एक राज्य हुआ करता था जिसकी राजधानी में यह आयोजित हुआ करता था। भारत सरकार का सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, उसका फिल्म समारोह निदेशालय इसके प्रमुख आयोजकों में से हैं तथापि अनुषंग रूप में पत्र सूचना कार्यालय, राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम, फिल्म प्रभाग, फिल्म एवं टेलीविजन प्रशिक्षण संस्थान तथा राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार आदि विभाग भी आयोजन अवधि में इस रौनकमन्द माहौल में अपनी-अपनी सार्थकता और कर्तव्य का परिचय देने के लिए सक्रिय दिखायी देते हैं। 

गोवा की गर्मजोशी मेहमानवाजी के कारण इस फिल्म को पिछले वर्षों में एक अलग आकर्षण प्राप्त हुआ है तथापि इस वर्ष राज्य के मुख्यमंत्री की अस्वस्थता का प्रभाव इस समारोह में दिखायी दिया। इस बार स्मृति ईरानी का सूचना एवं प्रसारण मंत्री न होना भी समारोह की फीकी आभा में प्रकट होता रहा। इस बार के समारोह के लिए दुनिया भर से लगभग 220 से अधिक फिल्में समारोह के लिए जुटायी गयी थीं जिनका प्रदर्शन दो-तीन प्रमुख स्थानों आयनॉक्स, कला अकादमी सभागार और अन्य जगहों पर होता रहा। इस समारोह में दुनिया की वे फिल्में भी शामिल की गयी जिनको अवार्ड प्राप्त हुए हैं। इजराइल को विशेष रूप से फोकस किया गया। अन्तर्राष्ट्रीय सिनेमा और भारतीय सिनेमा की श्रेणियों में विविधता के साथ होते रहे इस बार के समारोह में प्रतिदिन सुबह लगभग 9 बजे से प्रदर्शन शुरू हो जाया करते थे और रात लगभग 1 बजे तक फिल्में देखने के अवसर लोगों को हासिल थे। 

अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह की शुरूआत बहुत फीके ढंग से हुई। इसके चमकदार मेहमान अक्षय कुमार और करण जौहर औपचारिक शुभारम्भ हो जाने के बड़ी देर बाद कार्यक्रम स्थल पर पहुँचे। अवसर कुछ था, होने लगा कुछ और जिसमें सबसे हास्यास्पद काफी विद करण टाइप करण जौहर ने स्टेज पर कुर्सियाँ जमवाकर अक्षय कुमार और सूचना एवं प्रसारण मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़ को बैठाकर उनकी मौखिक परीक्षा ली अति साधारण किस्म के सवालों के साथ। इसी समारोह में सिनेमा की भव्यता को कुछ विदेशी फिल्मों के दृश्यों के साथ प्रकट करने की कोशिश की गयी। सोनू सूद अपना डांस ग्रुप लेकर आये थे, एक साधारण सा प्रदर्शन करके चले गये। ऐसे ही देहगतियों और मलखम्भ टाइप के करतब से एक रोमांच पैदा करने की कोशिश की गयी लेकिन वह फिल्म समारोह के लिए आदर्श प्रस्तुति नहीं थी। 

समारोह की उद्घाटक फिल्म वेनिस की फिल्म द एस्पर्न पेपर्स थी जिसका निर्देशन प्रतिभाशाली युवा फिल्मकार  जूलियन लैण्डेस ने किया था। यह निर्देशक की पहली फिल्म के रूप में प्रदर्शित की जाने वाली विश्वस्तरीय फिल्म थी। उन्नीसवीं सदी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म की मूल प्रेरणा हेनरी जेम्स का एक प्रसिद्ध उपन्यास है। इसी प्रकार समापन फिल्म के रूप में विश्व प्रीमियर का अवसर जर्मनी की फिल्म सील्ड लिप्स के साथ जुटाया गया। बर्न्ड बोलिच की फिल्म सील्ड लिप्स कम्युनिस्ट आन्दोलन को लेकर आकर्षण और उसकी प्रत्यक्षता का साक्षी होने के बाद सोच में बदलाव और मोहभंग की एक कहानी पर आधारित थी जिसमें कैरोलिन इच्छार्न, अलेक्जेण्ड्रा मालिया लारा, रॉबर्ट स्टेंडलोबर आदि ने महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभायी। इसके अलावा प्रतियोगी खण्ड जिसमें कि सर्वोत्कृष्ट फिल्म को स्वर्ण मयूर और चालीस लाख रुपयों का पुरस्कार दिया जाता है, के लिए दस से अधिक भारतीय एवं विदेशी फिल्में शामिल की गयी। इनमें 53 वार्स, द ट्रांसलेटर, एज, इडिवाइन विंड, ए फेमिली टूर, हियर, डॉनबास, अवर स्ट्रगल्स, द मेन्सलेयर, द अनसीन, वेन गॉग्स, व्हेन द ट्रीस फाल, टू लेट, भयनाकम आदि प्रमुख थीं। दिलचस्प यह है कि भारतीय फिल्मों में तमिल फिल्म टू लेट और मलयालम फिल्म भयनाकम फिल्म सम्मिलित थीं, बॉलीवुड की कोई फिल्म इस योग्य शायद नहीं पायी गयी हो या यहाँ तक आने में विफल रही हो। यह प्रसंगवश इसलिए भी लिखना पड़ रहा है कि हाल ही में प्रदर्शित ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान की भारी विफलता से बॉलीवुड छटपटाया हुआ है। काश नकलची और आयडिया चुराऊ फिल्मकार दुनिया के प्रासंगिक, ज्वलन्त और संवेदनशील सिनेमा से थोड़ा-बहुत भी कुछ सीख सकते।


इजराइल की दस से अधिक फिल्मों का प्रदर्शन यहाँ किया गया जिनमें द बबल, फुटनोट, लांगिंग, फ्लोच, द अदर स्टोरी, रेड काऊ, शालोम बॉलीवुड, द अनार्थोडॉक्स, वर्किंग वूमन आदि शामिल थीं। इनमें फ्लोच एक ऐसे बुजुर्ग की कहानी है जिसका बेटा, दामाद और पोता एक दुर्घटना में मारे जाते हैं, इससे उसका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है। वह दूसरी शादी और संतान पैदा करने के लिए व्याकुल है। एक फिल्म लांगिंग एक बड़े अमीर व्यक्ति को ऐसे समय के सामने ला खड़ा करती है जब लम्बे अन्तराल बाद अपनी प्रेमिका से मिलने पर उसको पता चलता है कि उसकी प्रेमिका ने बीस साल पहले उसके बेटे को जन्म दिया था जो हाल ही दुर्घटना में मारा गया है। रेड काऊ का फलसफा दो स्कूली छात्राओं के बीच अन्तरंगता का पनपना है जो आगे चलकर बड़ी घटना को जन्म देती है क्योंकि उसका एक लड़की का विधुर पिता अपनी बेटी को निरन्तर चेताया करता है। शालोम बॉलीवुड- द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ इण्डियन सिनेमा को देखना दिलचस्प अनुभव इसलिए था क्योंकि यह फिल्म दो हजार साल पुराने यहूदी सम्प्रदाय की पिछली पीढ़ी के बॉलीवुड में योगदान को सन्दर्भ के साथ रेखांकित करती है और हम सुलोचना रूबी मेयर्स, जॉन डेविड, नादिरा, प्रमिला आदि कलाकारों के भारतीय सिनेमा में अविस्मरणीय अवदान से अवगत होते हैं। 

फिल्म समारोहों की प्रमुख आलोचना फिल्मों के चयन को लेकर होती है जबकि यह कठिन काम है। लेकिन इसके बावजूद यदि दर्शकों के हिस्से में दो सौ पच्चीस में से पच्चीस-तीस फिल्में ही हिस्से में आयें तो विषय जरा निराशाजनक हो जाता है। इसके बावजूद महान स्वीडिश फिल्मकार इंगमार बर्गमैन की यादगार फिल्मों का पुनरावलोकी समारोह उत्सव का एक बेहतरीन हिस्सा था जिसमें परसोना, फनी एण्ड अलेक्जेण्डर, द सेवन्थ सील, समर विद मोनिका, वाइल्ड स्ट्राबेरीज के प्रदर्शन याद रखे जायेंगे। फेस्टिवल केलिडोस्कोप में कोल्डवार, द गिल्टी जैसी फिल्में समय की गति और यथार्थ को मानवीय समझ और कुण्ठाओं की अलग सतह पर परीक्षा लेती दिखायी देती हैं। वर्ल्ड पैनोरमा में डॉटर्स ऑफ माइन, द हैप्पी प्रिंस, द ब्रा, ब्रदर्स, मग, माय मास्टरपीस, हाई लाइफ, फोनिक्स, द प्राइज, द सीन एण्ड द अनसीन, विण्टर फाइल्स, द ओल्ड रोड, एन एलीफेण्ट सिटिंग स्टिल की देखने वालों ने सराहना की। विशेष प्रदर्शन श्रेणी में ट्यूनीशिया की तीन फिल्में ब्यूटी एण्ड द डॉग्स, डियर सन और व्हिस्परिंग सैण्ड्स का प्रदर्शन किया गया। 


व्हिस्परिंग सेण्ड्स अरब मूल की एक कनाडाई महिला की भावपूर्ण यात्रा पर आधारित थी जो एक संवेदनशील कारण से ट्यूनीशिया आती है। वह स्मृतियों में है, उसके पास राख का एक पात्र है जो वह स्थान विशेष में विसर्जित करना चाहती है। इस यात्रा में उसको वाहन से लेकर चल रहा गाइड दरवेशी अस्तित्व और परम्परा के बारे में अपना दृष्टान्त बतला रहा है जो प्राकट्य स्मृतियों का हिस्सा भी हैं। इस फिल्म को देखकर सिनेमा में सार्थक परम्परा का निर्वहन करने वाले फिल्मकारों को दाद देने को जी चाहता है। इस फिल्म का निर्देशन नासेर खेमीर ने किया था जो कहानीकार, चित्रकार और नैरेटर भी हैं। अपनी अनेक फिल्मों के जरिए उनको दुनिया में ख्याति मिली है। 

अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में दिवंगत कलाकारों को याद किया गया, यह समारोह की परम्परा का हिस्सा है। इस बार विशेष रूप से श्रीदेवी और विनोद खन्ना को उनकी कुछ चुनिन्दा फिल्मों मोम एवं अचानक, लेकिन, अमर अकबर अंथनी के माध्यम से श्रद्धांजलि देने की कोशिश की गयी वहीं शशि कपूर, एम. करुणानिधि, कल्पना लाजमी को भी एक-एक फिल्मों के माध्यम से याद किया गया। करुणानिधि की तमिल फिल्म मलईकल्लन और कल्पना लाजमी की रुदाली फिल्में समारोह के श्रद्धांजलि खण्ड का हिस्सा थीं।
#iffi2018 #iffigoa2018 



बुधवार, 28 नवंबर 2018

Donbass wins the Golden Peacock at IFFI 2018



Donbass wins the Golden Peacock at IFFI 2018

Donbass’ directed by Sergei Loznitsa has won the coveted Golden Peacock Award at the 49th International Film Festival of India (IFFI), which concluded in Goa on November 28, 2018. The Golden Peacock Award carries a cash prize of Rs 4 million (Rs 40 lakhs) to be shared equally between the Producer and the Director, Trophy and the citation.
Donbass tells the story of a hybrid war taking place in a region of Eastern Ukraine, involving an open armed conflict alongside killings and robberies perpetrated on a mass scale by separatist gangs. In Donbass, war is called peace and propaganda is uttered as truth. A journey through Donbass unfolds as a series of curious adventures. This is not just a tale of one region or a political system; it is about a world lost in post-truth and fake identities.
Donbass is the official submission of Ukraine for the 'Best Foreign Language Film' category at the 91st Academy Awards in 2019. It was selected as the opening film in the Un Certain Regard section at the 2018 Cannes Film Festival. At Cannes, Sergei Loznitsa won the ‘Un Certain Regard’ Award for Best Director.
Lijo Jose Pellissery conferred Best Director Award for Ee.Ma.Yau
Lijo Jose Pellissery won the Best Director Award for his 2018 film ‘Ee.Ma.Yau’. The film is a stunning satire on death and how it affects human lives. Set in Chellanam, a coastal village in Kerala, the film shows the plight of a son who tries to arrange a worthy funeral for his father; he is however met with unpredictable obstacles and reactions from different quarters. The Best Director gets the Silver Peacock Award and a cash prize of Rs 1.5 million (Rs 15 lakhs).
He also won the Best Director Award at the 48th Kerala State Film Awards for Ee.Ma.Yau.
Chemban Vinod is the Best Actor
The Best Actor (Male) Award has gone to Chemban Vinod for his portrayal in Ee.Ma.Yau of ‘Eeshi’, a son who tries to arrange a worthy funeral for his father but is met with unpredictable obstacles and reactions from different quarters.
Anastasiia Pustovit gets Best Actor (Female) Award
The Best Actor (Female) Award has gone to Anastasiia Pustovit  for her portrayal of a ‘Larysa’, a teenage girl in the Ukrainian film ‘When the Trees Fall’.
Both Best Actor (Male) and Best Actor (Female) are honoured with the Silver Peacock Trophy and a cash prize of Rs 1 million (Rs 10 lakhs) each.
Special Jury Award for Milko Lazarov’s Aga
Milko Lazarov walked away with the Special Jury Award for his film ‘Aga’; the film focuses on the story of Sedna and Nanook, an elderly couple from Yakutia, and the particular challenges they face in the midst of a frigid landscape. The Special Jury Award carries a cash prize of Rs 1.5 million (Rs 15 lakhs), a Silver Peacock Award and a citation.
Alberto Monteras II receives ‘Best Debut Feature Film of a Director’ for Respeto
Alberto Monteras II received the Centenary award for ‘Best Debut Feature Film of a Director’ for his Filipino Movie ‘Respeto’. 'Walking with the Wind', directed by Praveen Morchhale, won The ICFT –UNESCO Gandhi Medal instituted by the International Council for Film, Television and Audiovisual Communication, Paris and UNESCO. The criteria for the Gandhi Medal reflect UNESCO’s fundamental mandate of building peace in the mind of men and women, particularly human rights, intercultural dialogue, promotion and safeguard of diversity of cultural expressions.
’Walking with the Wind’ tells the story of a 10 year old boy in Himalayan Terrain, who mistakenly breaks his friend’s school chair. His daily seven km long journey to school in mountainous terrain on a donkey, turns mammoth and challenging when he decides to bring the chair to his village.
‘Los Silencios’, the Portuguese, Spanish movie directed by Beatriz Seigner got the special mention under ICFT-UNESCO Gandhi medal category.
Salim Khan, the celebrated actor, story-screenplay-dialogue writer of Hindi films was honoured with the IFFI 2018 Special Award for his Lifetime Contribution to Cinema. The prestigious award consisting of a cash prize of Rs 1 million (Rs 10 lakhs), Certificate, Shawl and a Scroll has been conferred upon the master filmmaker for his outstanding contribution to cinema.
Salim Khan revolutionized Indian cinema in the 1970s, transforming and reinventing the Bollywood formula, pioneering the Bollywood blockbuster format, and pioneering genres such as the masala film and the Dacoit Western.
Donbass wins the Golden Peacock at IFFI 2018

Donbass’ directed by Sergei Loznitsa has won the coveted Golden Peacock Award at the 49th International Film Festival of India (IFFI), which concluded in Goa on November 28, 2018. The Golden Peacock Award carries a cash prize of Rs 4 million (Rs 40 lakhs) to be shared equally between the Producer and the Director, Trophy and the citation.

Donbass tells the story of a hybrid war taking place in a region of Eastern Ukraine, involving an open armed conflict alongside killings and robberies perpetrated on a mass scale by separatist gangs. In Donbass, war is called peace and propaganda is uttered as truth. A journey through Donbass unfolds as a series of curious adventures. This is not just a tale of one region or a political system; it is about a world lost in post-truth and fake identities.

Donbass is the official submission of Ukraine for the 'Best Foreign Language Film' category at the 91st Academy Awards in 2019. It was selected as the opening film in the Un Certain Regard section at the 2018 Cannes Film Festival. At Cannes, Sergei Loznitsa won the ‘Un Certain Regard’ Award for Best Director.
Lijo Jose Pellissery conferred Best Director Award for Ee.Ma.Yau
Lijo Jose Pellissery won the Best Director Award for his 2018 film ‘Ee.Ma.Yau’. The film is a stunning satire on death and how it affects human lives. Set in Chellanam, a coastal village in Kerala, the film shows the plight of a son who tries to arrange a worthy funeral for his father; he is however met with unpredictable obstacles and reactions from different quarters. The Best Director gets the Silver Peacock Award and a cash prize of Rs 1.5 million (Rs 15 lakhs).
He also won the Best Director Award at the 48th Kerala State Film Awards for Ee.Ma.Yau.
Chemban Vinod is the Best Actor
The Best Actor (Male) Award has gone to Chemban Vinod for his portrayal in Ee.Ma.Yau of ‘Eeshi’, a son who tries to arrange a worthy funeral for his father but is met with unpredictable obstacles and reactions from different quarters.
Anastasiia Pustovit gets Best Actor (Female) Award
The Best Actor (Female) Award has gone to Anastasiia Pustovit  for her portrayal of a ‘Larysa’, a teenage girl in the Ukrainian film ‘When the Trees Fall’.
Both Best Actor (Male) and Best Actor (Female) are honoured with the Silver Peacock Trophy and a cash prize of Rs 1 million (Rs 10 lakhs) each.
Special Jury Award for Milko Lazarov’s Aga
Milko Lazarov walked away with the Special Jury Award for his film ‘Aga’; the film focuses on the story of Sedna and Nanook, an elderly couple from Yakutia, and the particular challenges they face in the midst of a frigid landscape. The Special Jury Award carries a cash prize of Rs 1.5 million (Rs 15 lakhs), a Silver Peacock Award and a citation.
Alberto Monteras II receives ‘Best Debut Feature Film of a Director’ for Respeto
Alberto Monteras II received the Centenary award for ‘Best Debut Feature Film of a Director’ for his Filipino Movie ‘Respeto’. 'Walking with the Wind', directed by Praveen Morchhale, won The ICFT –UNESCO Gandhi Medal instituted by the International Council for Film, Television and Audiovisual Communication, Paris and UNESCO. The criteria for the Gandhi Medal reflect UNESCO’s fundamental mandate of building peace in the mind of men and women, particularly human rights, intercultural dialogue, promotion and safeguard of diversity of cultural expressions.

’Walking with the Wind’ tells the story of a 10 year old boy in Himalayan Terrain, who mistakenly breaks his friend’s school chair. His daily seven km long journey to school in mountainous terrain on a donkey, turns mammoth and challenging when he decides to bring the chair to his village.

‘Los Silencios’, the Portuguese, Spanish movie directed by Beatriz Seigner got the special mention under ICFT-UNESCO Gandhi medal category.
Salim Khan, the celebrated actor, story-screenplay-dialogue writer of Hindi films was honoured with the IFFI 2018 Special Award for his Lifetime Contribution to Cinema. The prestigious award consisting of a cash prize of Rs 1 million (Rs 10 lakhs), Certificate, Shawl and a Scroll has been conferred upon the master filmmaker for his outstanding contribution to cinema.

Salim Khan revolutionized Indian cinema in the 1970s, transforming and reinventing the Bollywood formula, pioneering the Bollywood blockbuster format, and pioneering genres such as the masala film and the Dacoit Western.

सोमवार, 24 सितंबर 2018

।। मनमर्जियाँ ।।

तनमर्जियाँ न हुई, किसी हद तक मनमर्जियाँ, ठीक है.....



सिनेमा एक अलग धरातल पर निर्देशक देख रहे हैं पिछले कुछ दिनों से। कुछ आश्वस्त लेखकों, पटकथाकारों और संवाद लेखकों ने आज के समय, आज की पीढ़ी और समकालीन चुनौतियों के साथ सिनेमा को देखना और लिखना शुरू किया है। काबिल निर्देशक इस पर अपना काम बखूबी कर जाता है। मनमर्जियाँ लगभग ऐसे ही ऊर्जावान लोगों का एक आकृष्ट किया जाने वाला प्रयोग है जो सफल हुआ है। पहले तो यह फिल्म अनुराग कश्यप को इस बात की मान्यता देती है कि यदि वे आगे भी कोई रूमानी विषय हाथ में लेंगे तो उसे आन्तरिक धरातल पर गहरी पड़ताल के साथ ही परिणाम तक लायेंगे। इसके बाद कागज पर फिल्म रचने वाले लोग, स्वाभाविक रूप से लेखिका कनिका ढिल्लन, गीतकार शैली, गानों के साथ पार्श्व संगीत भी तैयार करने वाले संगीतकार अमित त्रिवेदी, सम्पादक आरती बजाज, सिनेमेटोग्राफर सिल्वेस्टर फॉन्सिका की भागीदारी को फिल्म में बखूबी देखा जा सकता है। 

प्रायः दर्शकों की निगाह में सिनेमा परदे पर दीख रहे चेहरों-चरित्रों का ही हुआ करता है। लेकिन दृश्य में जो दिख रहा होता है उसके पीछे बरसों जो लोग काम करते रहे, अन्ततः उनका काम इतना बोलने लगता है कि वे भी नेपथ्य से बाहर दीखने लगते हैं। इसीलिए आरम्भ में ही उनकी दक्षता का जिक्र कर दिया है। कहानी यह है कि विकी और रूमी दो युवक-युवती हैं, एक-दूसरे पर बेतरह मोहित हैं। प्यार करते हैं यह कहना इसलिए मुश्किल लगता है क्यों विकी छत फलांगकर जब भी रूमी से मिलने आता है तो दोनों अन्तरंगता की इच्छा पूर्ति में जी-जान से जुट जाते हैं। कई-कई बार विकी पकड़ा भी जाता है लेकिन बहुत ही मूर्खतापूर्ण हास्यप्रसंगों के साथ रूमी के परिवारजनों द्वारा जाने दिया जाता है। कहने का अर्थ यह कि सब कुछ आपत्तिहीन है। 

रूमी का रॉबी भाटिया के साथ ब्याह हो जाना एक बहुत ही निरर्थक किस्म की चुनौती-चैलेन्ज की परिणति लगती है। मध्यान्तर के पहले लगभग पैंतालीस मिनट से ज्यादा फिल्म को जमाने में लगा है तब तक दर्शक घर में बनी रहने वाली दुस्साहसी नायिका और डीजे में अपनी जिन्दगी का आदि-अन्त तलाशने वाला सड़कछाप नायक है और उसके दोस्त भी उसी तरह के, जिसका पिता एक दिन बचपन से ही उसकी मानसिकता के अस्थिर होने के कुछ प्रमाण सन्दूक से निकालता है। कहानी दरअसल मध्यान्तर के बाद अपनी राह पर आती है जब रॉबी और रूमी साथ होते हैं। रॉबी व्यक्तित्व के अनुरूप गम्भीर है और जमाने के चलन के अनुरूप पत्नी हो चुकी रूमी की रग-रग से दिनोदिन वाकिफ होता चलता है। रूमी को पूरी तरह समझ पाने में उसे वक्त नहीं लगता। पति कब अच्छा पहले लगता है और हॉट बाद में या कब हॉट पहले लगता है और अच्छा बाद में इसकी दिलचस्प फिलॉसफी है। तलाक हो जाना और कोर्ट से पैदल रूमी को उसके घर तक रॉबी का छोड़ने जाना, इस दस-पन्द्रह मिनट में फिल्म अपने अर्थ को ग्रहण करती है। 

मनमर्जियाँ अपने परिवेश, घने शहर, घनी बस्ती, छतों की एक-दूसरे से सम्बद्धता और उसके रोमांटिक प्रयोग की वजह से दर्शक को भी दृश्यों का नजदीक से साक्ष्य बनाती है। सँकरी गलियाँ, घर के भीतर घर, संयुक्त परिवार, पारिवारिक जिम्मेदारियाँ ये सब वातावरण का हिस्सा हैं। पहले भाग में जब सम्बन्धों से रूमी और विकी को निर्देशक स्थापित करने में लगा है, पूरा किस्सा इतना अव्यवहारिक लगता है कि आँखों में पट्टी बांधे ऐसे परिवार शायद ही कहीं हो। यह सब हँसी में घटित होता जाता है और दर्शक भी इस ओछेपन पर खूब हँसता है। मध्यान्तर बाद की कसावट ही आरम्भ की खामियों को भुलाने का काम करती है। 

कलाकारों में यह फिल्म अभिषेक बच्चन को शायद पहली बार चरित्र के उस तरह के निर्वाह के लिए प्रशंसा के धरातल पर लाती है जो उन्होंने इस अन्तराल में अपने आपको परिपक्व करते हुए निभाया है। रॉबी भाटिया की भूमिका में वे अमिताभ बच्चन की छाया या प्रभाव से बहुत हद तक मुक्त होकर अपने को आजमाते हैं, यही उनकी विशेषता है। उनकी भूमिका जितनी खूबी के साथ अनुराग कश्यप ने लेखिका से विकसित करायी है, निर्वाह भी उसी तरह का है। तापसी पन्नू हाल ही कुछ फिल्मों से एक खिलन्दड़ स्वभाव की नायिका के रूप में पहचानी जा रही हैं, यह भूमिका उनको पहले नायक विकी कौशल की ही बौद्धिक धरातल का सिद्ध करती है। मनमर्जियाँ सम्बन्धों में अतिरेक और सामंजस्य में उदारता का सधा हुआ साम्य होने की कोशिश करती है और काफी हद तक सफल भी होती है। फिल्म के दो-तीन गाने बहुत स्पर्शी हैं, सच्ची मोहब्बत, चोंच लड़ियाँ, जैसी तेरी मरजी। 

इस फिल्‍म का एक दिलचस्‍प आकर्षण दो किशोरी हैं जो पूरी फिल्‍म में गानों के बीच, बाद में दृश्‍यों के बीच अपने नृत्‍य, एक जैसा पहनावा और उपस्थिति में खूब आ‍करती हैं। ऐसे ही दो युवक जो हनीमून पर गये रॉबी और रूमी को। दर्शक अन्‍त तक इनके तार जोड़ने की कोशिश करता है और हॉल के बाहर चला जाता है।
मनमर्जियाँ, देखी जा रही फिल्म है, देखी जाने वाली भी फिल्म है.....................

गुरुवार, 9 अगस्त 2018

परिवार होने के अर्थ को प्रकट करने वाली एक संवेदनशील फिल्‍म

सूरमा




शाद अली की फिल्म सूरमा देखकर आया हूँ। ट्विटर में सुप्रतिष्ठित सिने विश्लेषक भावना सोमैया ने इस फिल्म को लेकर जो पहला विचार दिया था, वही मुझे थिएटर तक ले गया।

इधर पिछले दो-तीन सप्ताहों में अनेक फिल्में रिलीज हुई हैं, उनमें सूरमा एक फिल्म ऐसी है जिसे देखना चाहिए। जिन्होंने देखा होगा, बात से सहमत होंगे, अब चूँकि फिल्म हटने को है, इक्के-दुक्के शो कहीं लगे हुए हैं, फिर भी हॉल का दर्शकों से भरा होना इस बात का संकेत है कि अच्छा सिनेमा बहुत सारे आडम्बरों का मोहताज नहीं होता।

सूरमा एक हॉकी खिलाड़ी सन्दीप सिंह की जिन्दगी और जीवट की कहानी है। यह एक सच्ची घटना से प्रेरित है। यह निर्देशक की प्रतिभा है कि उन्होंने इसमें अनावश्यक मसाला नहीं लगाया है। एक सरल प्रवाह की तरह इस फिल्म को प्रस्तुत कर दिया गया है जिसके कारण ही यह आपके मन तक आ जाती है और खिड़की पकड़कर खड़ी हो जाती है। एक परिवार है जिसमें दो भाई हैं, बड़ा हॉकी सीख रहा है, छोटे का उससे कोई लेना-देना नहीं है सिवाय भाई के संग बने रहने और उसको कम्पनी देने या अपनी अलाली काटने के। हॉकी खिलाड़ी नायिका से एक बार का मिलना उसे हॉकी में ले आता है, अब बड़ा भाई इस रुझान से हटता है और खिलाड़ी बनाने में भाई की मदद करता है।

नायक का हॉकी खिलाड़ी बन जाना, प्रसिद्ध हो जाना दिलचस्प किस्से की तरह है। परिवार में बड़े भाई के आश्रित छोटा भाई और उसके ये दोनों बेटे, इन सबका प्रेमभरा रिश्ता और एकजुटता बहुत सहजता के साथ घटित होती है जिसमें नायक के पिता जिनकी भूमिका सतीश कौशिक ने निभायी है, अपनी भावाभिव्यक्ति और संवादों में कमाल करते हैं। लगता तो यह है कि सतीश कौशिक के पास उनकी कोई स्क्रिप्ट न होगी, गहरी बात कितने धीमे से वो दूसरे किरदार और दर्शक के मन तक भेजते हैं, चकित कर देता है। बेटे जीतकर आना और पिता अपनी नौकरी से इस्‍तीफा दे देना अौर बेटे के दुर्घटनाग्रस्‍त होने के बाद वापस उसी नौकरी पर जाना भावविव्‍हल कर देता है।


एक तरफ नायक के ताऊ का जज्बा कमाल का है। नायक को अचानक गोली लगना कोई षडयंत्र नहीं है, असावधानी भरी घटना है लेकिन रेल में उस दुर्घटना के दुर्योग कैसे काम करते हैं, नायक का सीट बदलना, पीछे कान्स्टेबल की गोली चल जाना और नायक के शरीर के नीचे के हिस्से का लकवाग्रस्त हो जाना सभी को बहुत वास्तविकता के साथ प्रस्तुत किया गया है। नायिका का सम्मोहन कमाल का दिखाया गया है जो नायक के सामने आती है तो वह रोमांटिकली विचलित हो जाता है, गलत खेल बैठता है, ये प्रसंग दिलचस्प हैं। 

नायक की चिकित्सा के लिए परिवार का घर बेच देना, किराये के घर में रहना और बड़े इलाज की जद्दोजहद के दृश्य देखकर मानवीय जीवन के वो संघर्ष हमें विचलित करते हैं जो अपने आसपास की चमक-दमक में हमें आभासित ही नहीं हुआ करते। खुशी के पलों को जीने का जज्बा कमाल का दिखाया गया है एक-दो अवसरों पर वहीं नायक के दोबारा उठ खड़े होने को जरा भी ग्लैमराइज नहीं किया गया। उसका फिर से मैदान में आना और जीतना सुखान्त है।

निस्सन्देह दिलजीत दोसांझ अपनी सल्तनत के सुपर स्टार हैं, एक बार उनको उड़ता पंजाब में देखकर ही भूलना सम्भव न हुआ था, यह दूसरी फिल्म देखकर और उनकी क्षमताओं ने आश्वस्त किया है। नायिका की भूमिका में तापसी पन्नू को बहुत प्रीतिकर संवाद बोलने को मिले हैं जो वे अपनी सुन्दरता के साथ बोल भी जाती हैं। यह फिल्म वास्तव में चरित्र भूमिकाओं को जीने वाले, सहायक भूमिकाओं को जीने वाले कलाकारों की एक बड़ी रेंज को बखूबी पेश करती है जिसमें भाई बने अंगद बेदी, पिता बने सतीश कौशिक, माँ बनी सीमा कौशल, ताऊ बने महावीर भुल्लर, कोच बने विजय राज, चेयरमेन बने कुलभूषण खरबन्दा मन को छू जाते हैं वहीं कोच बने दानिश हुसैन आज के समय के नकारा और दुर्भावना रखने वाले कोच की कलई खोलते हैं। 


फिल्म का सम्पादन कुशल और दक्ष है जिसके लिए फारुख हुण्डेकर की सराहना की जानी चाहिए। शंकर एहसान लॉय का संगीत इस फिल्म को अनुभूतियों में सकारात्मक बनाये रखता है। सूरमा टाइटिल गीत मस्त और जोशीला है। सुयश त्रिवेदी और शिवा अनंत की पटकथा पर शाद का नियंत्रण आपसी सामंजस्य का सराहनीय परिचय है। कुल मिला सूरमा एक ऐसी फिल्म है जिस तरह की फिल्म का यदाकदा बनकर आते रहना, सिनेमा की सात्विकता के उस पक्ष को जान पाना है जो अब बेहद दुर्लभ हो चला है, उस नाते शाद अली सराहना और बधाई के पात्र हैं। 

सोमवार, 30 जुलाई 2018

प्रेमचन्द की कृतियाँ और हिन्दी सिनेमा

हिन्दी साहित्य में प्रेमचन्द के स्थान को लेकर हमेशा ही एक आदरभाव रहा है। प्रेमचन्द की मूल रचनाएँ और उनकी व्याख्या तथा विश्लेषण ने पीढ़ियों को विचार करने के लिए बहुत कुछ दिया है। साहित्य और परम्परा में वे निरन्तर अपने प्रभाव और महती योगदान के लिए स्मरण किए जाते हैं। उनके जन्म और निधन की तिथियाँ कहीं न कहीं हमें आत्मावलोकन के लिए विवश करती हैं क्योंकि प्रेमचन्द के नाम जुड़ी हिन्दी भाषा की अस्मिता के अपने बड़े संकट बरसों से खड़े हैं बल्कि बढ़ रहे हैं। नयी पीढ़ी के सामने हिन्दी को लेकर ही तमाम कठिनाइयाँ हैं, फिर हिन्दी साहित्य और साहित्यकारों के प्रति भी उतनी ही नामालूम किस्म की अज्ञानता। ऐसे दृश्य में अकेले प्रेमचन्द ही नहीं बल्कि हिन्दी साहित्य की ही स्थितियों पर निरन्तर विचार करने की गुंजाइशें बनती हैं।

प्रेमचन्द का साहित्य उन्नीसवीं सदी के अवसान काल और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के बीच सृजित है। कथाकार प्रेमचन्द अपने देशकाल और विद्रूपताओं से आक्रान्त रहे हैं। कहानी का माध्यम उनके लिए देखी-जानी घटनाआें के सच को लिखने की तरह ही रहा है। वे गरीबी में भी मानसिक दारिद्र्य की स्थितियों को चित्रित करते हैं। उनके किरदार शोषित भी होते हैं और खुद अपने पैर भी अपनी ही कुल्हाड़ी से काटते हैं। पराधीन भारत में भारतीयों की स्थितियों को लेकर उनका लेखन मुखर है वहीं विदेशी हुकूमत के देश में जमे रहने तथा हमारे देश में ही उसके कारक तत्वों को भी निर्भीक होकर उन्होंने शब्दों के माध्यम से चित्रित किया था। उनका साहित्य सिनेमा जैसे बीसवीं सदी के चमत्कारिक माध्यम के लिए था या नहीं यह दूसरे प्रश्न हैं मगर भारत में सिनेमा का आगमन स्वयं उनके लिए भी आकर्षण की वजह बना था।

प्रेमचन्द का साहित्य प्रमुख रूप से बीसवीं सदी के आरम्भ और लगभग तीन दशक की स्थितियों के आसपास घटनाक्रम, देखी-भाली कथाएँ, सुने हुए दृष्टान्त और मंथन किए मूल्यों का दस्तावेज है। भारत में सिनेमा का आगमन 1913 का है। प्रेमचन्द ने अपनी परिपक्व उम्र और अवस्था में सिनेमा के जन्म और उसकी सम्भावनाओं को देखा था। कहीं न कहीं अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करते सिनेमा की शक्ति को भी वे महसूस करते थे। दादा साहब फाल्के जब राजा हरिश्चन्द्र बना रहे होंगे तब प्रेमचन्द की उम्र तीस साल से जरा ज्यादा रही होगी। प्रेमचन्द को अपने लमही और बनारस से सिनेमा का सुदूर मुम्बई किस तरह आकृष्ट कर रहा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है!

सिनेमा का आकर्षण और बाद में या जल्द ही उससे मोहभंग होने के किस्से साहित्यकारों-कवियों के साथ ज्यादा जुड़े हैं। प्रेमचन्द से लेकर भवानी प्रसाद मिश्र, अमृतलाल नागर और नीरज तक इसके उदाहरण हैं। साहित्यकार अपनी रचना को लेकर अतिसंवेदनशील होता है। वह फिल्मकार की स्वतंत्रता या कृति को फिल्मांकन के अनुकूल बनाने के उसके प्रयोगों को आसानी से मान्य नहीं करना चाहता। विरोधाभास शुरू होते हैं और अन्त में मोहभंग लेकिन उसके बावजूद परस्पर आकर्षण आसानी से खत्म नहीं होता। हमारे साहित्यकार, सिनेमा के प्रति आकर्षण के दिनों में कई बार मुम्बई गये और वापस आये हैं। आत्मकथाओं में साहित्यकारों ने मायानगरी मुम्बई की उनके साथ हुए सलूक पर खबर भी ली है लेकिन सिनेमा माध्यम को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। साहित्यकार-कवि कड़वे अनुभवों के साथ अपने प्रारब्ध को लौट आये और सिनेमा अधिक स्वतंत्रता के साथ उनके साथ हो लिया जो उससे समरस हो गये।

प्रेमचन्द के साहित्य पर हीरा मोती, गबन, कफन, सद्गति और शतरंज के खिलाड़ी जैसी कुछ फिल्में बनी हैं मगर हमें बाद की सद्गति और शतरंज के खिलाड़ी याद रह जाती हैं क्योंकि ये ज्यादा संजीदगी के साथ बनायी गयी थीं और इसके बनाने वाले फिल्मकार सत्यजित रे एक जीनियस व्यक्ति थे जिनके नाम के साथ एक ही विशेषण नहीं जुड़ा था क्योंकि अपनी फिल्मों के वे लगभग सब कुछ हुआ करते थे। रे ने अपनी सारी फिल्में बंगला में ही बनायी थीं। उनके बारे में एक बातचीत में डॉ. मोहन आगाशे जो कि हिन्दी और मराठी सिनेमा तथा रंगमंच के शीर्ष कलाकार हैं, ने कहा था कि माणिक दा के लिए श्रेष्ठ काम का पैमाना उनके अपने सहयोगी लेखक, सम्पादक, छायांकनकर्ता, सहायक निर्देशक हुआ करते थे जिन पर उनका विश्वास यह होता था कि जिस तरह की परिकल्पना किसी फिल्म को लेकर उनकी है, उसे साकार करने में ये सभी पक्ष उसी अपेक्षा के साथ सहयोगी होंगे। 

सत्यजित रे ने शतरंज के खिलाड़ी का निर्माण 1977 में किया था। उनके लिए बारह पृष्ठों की एक कहानी को दो घण्टे से भी कुछ अधिक समय की फिल्म के रूप में बनाना कम बड़ी चुनौती नहीं था। वे यह फिल्म हिन्दी में बनाने जा रहे थे। वे उन्नीसवीं सदी के देशकाल की कल्पना कर रहे थे। अपनी इस फिल्म को उसी ऊष्मा के साथ बनाने के लिए लोकेशन का ख्याल करते हुए उनके दिमाग में कोलकाता, लखनऊ और कुछ परिस्थितियों के चलते मुम्बई कौंध रहे थे। वाजिद अली शाह के किरदार के लिए अमजद खान उनकी पसन्द थे। मीर और मिर्जा की भूमिका के लिए सईद जाफरी और संजीव कुमार को उन्होंने अनुबन्धित कर लिया था। विक्टर बैनर्जी, फरीदा जलाल, फारुख शेख, शाबाना आजमी सहयोगी कलाकार थे। वाजिद अली शाह के साथ एक बराबर की जिरह वाली महत्वपूर्ण भूमिका के लिए रे ने रिचर्ड एटिनबरो को राजी कर लिया था जिन्होंने उट्रम के किरदार को जिया था। बंसी चन्द्र गुप्ता उनके कला निर्देशक थे जिनको स्कैच बनाकर रे ने काम करने के लिए दे दिए थे और कहा था कि सीन दर सीन मुझे यही परिवेश चाहिए। आलोचकों ने शतरंज के खिलाड़ी को बहुत सराहा था यद्यपि कुछ लोगों को कथ्य के अनुरूप फिल्म का निर्माण न होने से असन्तोष भी रहा लेकिन आलोच्य दृष्टि रे के पक्ष में रही और उन्हें इस फिल्म के लिए नेशनल अवार्ड भी मिला। 


प्रेमचन्द ने शतरंज के खिलाड़ी में मीर और मिर्जा को केन्द्रित किया है, इधर सत्यजित रे ने फिल्म में वाजिद अली शाह और जनरल उट्रम के चरित्रों को महत्वपूर्ण बनाया है। फिल्म में वाजिद अली शाह की सज्जनता के साथ-साथ राजनीतिक समझ की कमी को भी निर्देशक ने रेखांकित किया है। अंग्रेज जैसे चतुर और खतरनाक दुश्मन की शातिर कूटनीतिक चालों को समझ सकने में अक्षम भारतीय राजनैतिक मनोवृत्ति भी फिल्म में सशक्त ढंग से उभरती है। हमारे दर्शक सिनेमा में सूक्ष्म ब्यौरों तक नहीं जाते, कई बार सिनेमा की विफलता का यह भी एक कारण होता है। शतरंज के खिलाड़ी के माध्यम से निर्देशक ने प्रेमचन्द की कहानी को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयत्न किया है। यह भले पैंतीस साल पहले की फिल्म हो लेकिन शतरंज के खिलाड़ी पुनरावलोकन की भी फिल्म है, आज भी हम उसे देखेंगे तो प्रभावी नजर आयेगी।

सद्गति एक घण्टे की फिल्म थी। इसे सत्यजित रे ने दूरदर्शन के लिए बनाया था। यह लगभग बावन मिनट की फिल्म थी जिसको देखना अनुभवसाध्य है। निर्देशक ने इस फिल्म को कहानी की तरह ही बनाया है, एक-दो दृश्यों के अलावा पूरी फिल्म प्रेमचन्द की कहानी के अनुरूप ही है। स्वयं निर्देशक का मानना था कि यह कहानी ही ऐसी है जो इसके सीधे प्रस्तुतिकरण की मांग करती है। सत्यजित रे ने इसे उसी ताप के साथ प्रस्तुत करके उसकी तेज धार को बचाये रखा। मैंने इसके तीखेपन को जस का तस प्रस्तुत करने का काम किया। सद्गति की विशेषता यह भी है कि फिल्म में कहानी में प्रयुक्त संवाद भी ज्यां के त्यों रखे गये हैं। फिल्म के लिए रे ने पात्रों का चयन भी अनुकूल ही किया था। ओम पुरी, स्मिता पाटिल, मोहन आगाशे प्रमुख भूमिकाओं थे। यह फिल्म दो सप्ताह के शेड्यूल में पूरी बन गयी थी। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के निकट इसका फिल्मांकन हुआ था। 

वास्तव में प्रेमचन्द का साहित्य फिल्मकारों के लिए उतना आकर्षण का केन्द्र नहीं रहा जितने प्रयोग रंगमंच में उनके साहित्य को लेकर हुए हैं। प्रेमचन्द के उपन्यास और कहानियों पर नाटक ज्यादा हुए हैं, फिल्में कम बनी हैं। यह फिर भी आश्चर्य होता है कि बंगला के एक और महत्वपूर्ण फिल्मकार मृणाल सेन ने कोई पैंतीस साल पहले तेलुगु में कफन कहानी पर केन्द्रित ओका ओरि कथा फिल्म का निर्माण किया था। टेलीविजन पर निर्मला और कर्मभूमि पर धारावाहिक बने। विख्यात फिल्मकार गुलजार ने भी प्रेमचन्द की कहानियों पर तहरीर मुंशी प्रेमचन्द की धारावाहिक का निर्माण किया था जिसकी कई कहानियों में पंकज कपूर ने केन्द्रीय भूमिकाएँ निभायी थीं।

आज के समय में प्रेमचन्द की कहानियों के फिल्मांकन का जोखिम शायद ही कोई उठाना चाहे क्योंकि हमारे दर्शकों के बीच मनोरंजन का एक नया शास्त्र विकसित हुआ है। उसे टेलीविजन चैनलों में रंगे-पुते और जमाने के चलन के हिसाब के निहायत अविश्वसनीय और अकल्पनीय धारावाहिकों को देखने का अजीब सा चाव पैदा हो गया है। फिल्म बनाना तो सम्भवतः आज के फिल्मकारों को सबसे बड़ा जोखिम लगे, निर्वाह की दृष्टि से, परवाह की दृष्टि से और व्यवसाय की दृष्टि से भी जो अब सबसे बड़ी सन्देह भरी चुनौती है।



शनिवार, 7 जुलाई 2018

तर्कसंगति में अप्रासंगिक किन्तु निर्देशकीय कौशल की सफल फिल्म

संजू



रविवार का दिन था। शहर के मॉल्स में इस फिल्म के टिकिट आसानी से नहीं मिल पा रहे थे। अच्छी खासी बुकिंग थी। फिल्म देखने दो लोग गये थे मगर दोनों सीट अलग-अलग थीं। मॉल्स में पार्किंग की भी जगह उपलब्ध नहीं थी, कार्य पर तैनात गार्ड दो-‘दो, तीन-तीन गाड़ियाँ छोड़ रहे थे। सिनेमाहॉल का आलम यह था कि लगभग दो घण्टे चालीस मिनट लम्बी फिल्म को दर्शक खासी चुप्पी के साथ देख रहे थे, न ताली, न सीटी न ही किसी किस्म का ओछा हल्ला-गुल्ला। यह क्या था, एकाग्रता या बंध कर रह जाने की विवशता जिसने और कुछ सूझने ही न दिया।

संजू फिल्म का अनुभव इसी तरह का है। साल भर पहले जब राजकुमार हीरानी भोपाल आये थे, पुरानी जेल को भीतर से देखने तब उनके साथ एक घण्टे रहने और अनौपचारिक बातचीत का अवसर मिला था। एक-एक करके तीन-चार सफल और कमाऊ के साथ-साथ प्रशंसनीय फिल्में बना चुका यह आदमी छरहरे बदन का, मुस्कुराहट स्थायी भाव और नपी-तुली बात करने वाला। बहरहाल जेल पसन्द आ गयी और फिल्म के उत्तरार्ध का एक बड़ा हिस्सा हीरानी ने यहाँ फिल्माया।

संजू यों हर आम दर्शक की जानी-समझी जाने वाली कहानी है या कह लीजिए, यथार्थ है। लगभग तीस साल तक सुर्खियों में रहने वाला घटनाक्रम और उसका यह एक प्रमुख पात्र। सिनेमा जैसी लाइम लाइट वाली विधा में अपने को आजमाने वाला और अपने समय के श्रेष्ठ नायक और नायिका का पुत्र। आरोपी से अपराधी और अपराधी से सजा काटकर अपने संसार में लौटने वाला शख्स जिसका मूड, अन्दाज और बरताव वही है जो पहले था, बाद में भी वैसा ही। भावनात्मकता, संवेदनशीलता, आवेग, उद्वेग यह सब मनुष्य स्वभाव की तरह ही आते-जाते। 

वह दृश्य दर्शकों के सामने एक नासमझ और अविवेकी युवा की छबि को सामने रखते हैं जो बिना कुछ हासिल किए अपने पिता की सराहना और तारीफ की कामना करता है, वह भी उस पिता से जिसका जीवन ही संघर्ष, त्याग और आदर्श स्थापित करने में बीता हो। चरित्र चित्रण में विभेद हैं। निर्देशक ने पटकथा लेखक से जस का तस लिखवाकर उसको दृश्यों में बाँट भी दिया है। खामियों को कीर्तिमान या शेखी की तरह प्रस्तुत करना निरी बेवकूफी है, पर यह समझ आये तो पटकथा का हिस्सा नहीं बनती। निर्देशक फिल्म बनाते हुए सावधान बहुत है, इसीलिए नायक के जीवन के उन औरों को नहीं छूता जो जोखिमपूर्ण हो सकते हैं। वह सुविधानुसार आधी हकीकत, आधा फसाना बना रहा है और उसकी छूट आरम्भ में ही लिए ले रहा है।


फिल्मकार का जोर इस बात में है कि वो विवादास्पद नायक की शख्सियत पर इतने वर्षों मेंं हुए तमाम आक्रमणों और अतिक्रमणों को छुटाता चले, आखिर वह कृतज्ञ है क्योंकि कैरियर की शुरूआत में इसी नायक के साथ दो फिल्में एक के बाद एक करते हुए वह प्रतिष्ठापित हुआ था। वह यहाँ पर उस महानायक के चरित्र को गढ़ते हुए भी लापरवाह है जो मुझे जीने दो, यादें, ये रास्ते हैं प्यार के, रेशमा और शेरा और दर्द का रिश्ता जैसी फिल्म बनाता है, वह जो देश की पदयात्रा करता है, वो जो निर्विवाद सांसद है, वो जो मुम्बई शहर का जिम्मेदार शेरिफ रहा है, वो जो देश पर आयी हर आपदा पर शहर में अपने साथी कलाकारों को लेकर धन संग्रह के लिए निकलता है, वो जो सीमा पर जाकर जवानों का मनोरंजन करता है, वो जिसका आदर हर विचारधारा का आदमी करता है। बावजूद इसके कि उसे इस बात का श्रेय भी है कि एक अरसे बाद वो ही उनको अपनी पहली फिल्म में जादू की झप्पी वाले प्यारे और दिलचस्प अन्दाज में लेकर आया था। निर्देशक इस चरित्र को ठीक से स्थापित नहीं करता। माना कि परेश रावल एक कलाकार के रूप में बहुत गुणी और प्रतिभासम्पन्न हैं लेकिन छः फीट एक इंच लगभग लम्बे और मध्यम स्वर की अत्यन्त स्वच्छ आवाज वाले सुनील दत्त को उच्च स्वर और अपेक्षाकृत छोटे कद के कारण बड़ी मेहनत के बावजूद साकार नहीं कर पाते। 

संजय दत्त के आरोपी बनने से लेकर सुनील दत्त की जिन्दगी तक लगभग पन्द्रह साल उनके जीवन की बड़ी वेदना और अशान्ति के रहे हैं, उसके बावजूद वे सामाजिक और सार्वजनिक जीवन में सहज और व्यवहारकुशल बने रहे बिना धैय-धीरज खोये। यह पक्ष हीरानी ने इसलिए विस्मृत कर रखा होगा क्योंकि इससे उनके बाजार के समृद्ध होने की गुंजाइश नहीं थी। ऐसा ही कुछ नरगिस की भूमिका निबाहने वाली मनीषा कोइराला के साथ हुआ है। वे दृश्य में आती ही तब हैं जब बीमार हो चुकी होती हैं। उनका चरित्र भी एक नायाब अभिनेत्री और मदर इण्डिया जैसी सशक्त फिल्म से भारतीय सिनेमा में अपनी क्षमताओं का इतिहास लिखने वाली कलाकार के रूप में, विवाह के बाद सामाजिक जीवन और परिवार की जिम्मेदारी सम्हालने वाली पत्नी और माँ के रूप में उनकी पूर्वपीठिका रची ही नहीं गयी। परिवार के सामूहिक छायाचित्रों और स्वयं के एकल छायाचित्रों में मनीषा की छबि नरगिस की छबि के निकट पहुँचती है। 

यह एक संवेदनशील संयोग भी कैसा है कि अपने जीवन में मनीषा को भी ऐसी ही भयावह बीमारी का सामना करना पड़ा और वे उस बीमारी से जूझकर, जीतकर एक विजेता के रूप में दुनिया में स्वस्थ और सकुशल बनी हुई हैं, इसके बावजूद उनका चेहरा, उस पीड़ा और व्यथा का साक्ष्य नजदीक के दृश्यों में व्यक्त भी करता है। उनकी आँखों के पास सलवटें मार्मिक आभास कराती हैं। गाने वाले दृश्य में पहाड़ के ऊपर उनकी नृत्य मुद्रा बहुत ही भावपूर्ण और मनमोहक है और उन्होंने जितना किरदार उनका लिखा गया, उसको दोहरे वजन के साथ निभाया भी है।  

रणवीर कपूर को संजय दत्त होने में जितनी मेहनत करनी पड़ी, उससे अधिक उन्होंने युक्तियों का प्रयोग किया है। उन्होंने संजय दत्त की चाल की नकल की है, भँवें चढ़ाकर, आवाज़ में वो असर पैदा करते हैं और इतना ही वे कर भी सकते थे। पटकथा में महिमा मण्डन के लिए तमाम अतिरेक हैं, चालू दर्शकों को हँसाने के लिए सम्बन्धों की संख्या कोई शेखी बघारने जैसा काम नहीं करती बल्कि हतप्रभ करती है, खासकर हीरानी जैसे निर्देशक की फिल्म में। इसी तरह सहवास के चालू और घटिया अर्थ घपाघप का भी बार-बार और लगभग बेजा इस्तेमाल इस फिल्म को हल्का बनाता है। यह फिल्म अपने नायक को विवेकहीन अधिक साबित करती है जो आसानी से मादक पदार्थ तुरन्त बने मित्र से स्वीकार करता चला जाता है। दर्शकों के सामने यह फिल्म खुद अपने आपमें एक सवाल है कि इतनी भूलों और गिरते चले जाने की पराकाष्ठा को देखने और जानने के बाद आप किसी व्यक्ति के विषय में किस तरह सकारात्मक रह सकते हो? वह व्यक्ति जो मृत्युशैया पर पड़ी माँ के प्रति भी संवेदनशील नहीं है और एक आदर्श पिता के प्रति तमाम विद्रोही भाव रखता है। 

इस फिल्म में अनेक नायिकाएँ हैं, मनीषा कोइराला, दिया मिर्जा, सोनम कपूर, करिश्मा तन्ना आदि सभी की अपनी-अपनी तरह उपस्थिति है। मनीषा और दिया प्रमुखता से हैं जबकि सोनम और करिश्मा उपकृत नायिकाओं सी। सहायक कलाकारों में विकी कौशल, कमलेश की भूमिका में और जिम सरभ जुबिन मिस्त्री की भूमिका में सकारात्मक-नकारात्मक छबियों के उचित प्रभाव छोड़ते हैं। विकी कौशल के बारे में यह कहा जा सकता है कि इस फिल्‍म मेंं उनकी मेहनत उनको और अनेक अच्‍छी फिल्‍मों तक ले जायेगी। मेहमान उपस्थिति में महत्वहीन रहे पीयूष मिश्रा और तब्बू, अरशद, बोमन ईरानी और महेश मांजरेकर बस दृश्य भर के लेकिन अंजन श्रीवास्तव पाँच मिनट की अपनी भूमिका में दृश्य लूट ले जाते हैं। इसी प्रकार सयाजी शिन्दे ठेठ देसी अन्दाज में एक विवादास्पद अपराधी को बखूबी जीते हैं। इसी से यहाँ यह बात ध्यान में आती है कि कुछेक कलाकार प्रसिद्ध व्यक्तियों की बातचीत, चालढाल और अन्दाज की खूब नकल उतारते हैं, यह बात वे दर्शक समझेंगे जो उन मूल व्यक्तियों को अपनी देखी-सुनी स्मृतियों में रखते होंगे। 

कुल मिलाकर संजू इस वक्त की एक चर्चित फिल्म है जिसने इस समय खूब बाजार लूटा है, न केवल बाजार लूटा है बल्कि पिछली बड़ी चर्चित फिल्मों के धन संग्रह को भी चिढ़ाने और जीभ दिखाने का काम किया है। रणवीर कपूर पिछली कुछेक फ्लॉप फिल्मों से जिस तरह छिल गये थे, यह ठण्डा मलहम कही जा सकती है। राजकुमार हीरानी के खाते में एक और बाजार पर काबिज होने वाली फिल्म चढ़ गयी है जिससे वे अपने गुरु विधु विनोद चोपड़ा और मित्र संजय दत्त के प्रति अपने उपकृत होने का फर्ज अदा करेंगे लेकिन संजू फिल्म की अपनी प्रासंगिकता, किसी भी सिनेमा के बनने के अर्थ और महत्व की दृष्टि से अनेक खामियों और आलोचनाओं के कारण भी चर्चित बनी रहेगी जिसमें से एक सबसे मौजूँ तो यही लगता है कि राजकुमार हीरानी संजू की जगह सुनील बनाते, एक बड़े अभिनेता, निर्देशक, सार्वजनिक जीवन में आदर्श उपस्थित करने वाले एक कलाकार के जीवन और व्यक्तित्व को रेखांकित करते जो मदर इण्डिया का वो बिरजू है जिसके लिए उसकी माँ भगवान है, वही माँ जिसकी बन्दूक से वह मरता है और मरते समय उसके हाथ में माँ का कंगन है। ऐसे कलाकार, व्यक्तित्व के जीवन का एक संत्रासद पक्ष उसके बेटे का एक गुनाह में गहरे फँस जाना होता और उससे मुक्त होने की यात्रा जो अब सम्पन्न हो चुकी है।
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शुक्रवार, 15 जून 2018

रजनीकान्‍त के राजनैतिक मन्‍तव्‍य अहम नेपथ्‍य

काला करिकलन

Kaala Karikaalan


ऐसा लगता है कि सलमान खान की महात्वाकांक्षी फिल्म रेस-3 के आ जाने से भी रजनीकान्त की पिछले सप्ताह प्रदर्शित फिल्म काला करिकलन की आय, सुर्खियों और चर्चाओं में कोई कमी नहीं आ पायेगी। तमिल, तेलुगु और हिन्दी तीन भाषाओं में यह फिल्म देश में आय के कीर्तिमान बना रही है। फिल्म के केन्द्र में महानायक रजनीकान्त हैं जिनकी सितारा छबि आरम्भ से अब तक निरन्तर निर्विवाद रही है दूसरे कुछ समय पहले बाकायदा राजनीति में आने की घोषणा करके उन्होंने अपना दल बना लिया है और उस नये आयाम में अपनी जड़ें सुनियोजित ढंग से जमा रहे हैं जहाँ उनके पूर्ववर्ती और दक्षिण भारत के कलाकार अन्ततः गये हैं और बारी-बारी से राज्य भी किया है। दक्षिण के कलाकारों में अब तक रजनीकान्त और कमल हसन ही राजनीति में आने से अपने आपको बचाये हुए थे तथापि उनकी राजनैतिक महात्वाकांक्षा अधिक समय तक ठहरी न रह सकी इसीलिए एक के पीछे एक आकर रजनीकान्त और कमल हसन दोनों ही राजनीति की आरामदेह लेकिन दूर से उतनी आसान न होकर भी अनन्य कारणों से खूब आकृष्ट करने वाली भव्य काल्पनिक कुर्सी पर आसीन होने के स्वप्न को सारी सक्रियता के साथ जी रहे हैं। 

रजनीकान्त पारिवारिक रूप से दक्ष और कुशल सन्तानों के पिता हैं और धनुष जैसे सुपर स्टार के ससुर भी लिहाजा जीवन के उत्तरार्ध में उनकी महात्वाकांक्षा वाला कैरियर सँवारने और बनाने में बेटी सौन्दर्या और दामाद धनुष की उत्साह से जुटे हैं और चूँकि सभी का क्षेत्र सिनेमा है और सिनेमा से ही रजनीकान्त को दक्षिण में असाधारण लोकप्रियता हासिल है, इस हद तक कि असंख्य दर्शक उनके लिए भावुक है, आगे के सारे स्वप्न भी सिनेमा के रस्ते ही साकार होंगे। काला करिकलन रजनीकान्त की इसी महात्वाकांक्षा का अपनी जनता के सामने लाया गया मन्तव्य है जिसको ध्यान से देखो, गहरे में जाओ तो आपको अपनी बहुत सी जिज्ञासाओं के हल मिलते चलेंगे और कुछ चीजें आप साफ-साफ पहचानेंगे भी। 


काला फिल्म को देखते हुए आपका ध्यान ऐसी किसी भी बॉलीवुड या मुम्बइया फिल्म से तुरन्त ही हट जाता है जो आपने पहले कभी देखी होंगी। इस बात को हमारे दर्शक भलीभाँति जानते हैं कि मुम्बइया सिनेमा की एक बड़ी निर्भरता लम्बे समय से दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग रही है। पचास के दशक से दक्षिण भारत से पारिवारिक सिनेमा अपनी सम्वेदनशील और भावनात्मक व्याख्या के साथ आया और उसने दर्शकों को प्रभावित किया। यह सिलसिला लगभग अस्सी के दशक तक चला है लेकिन बीच में अनेक व्यवधान भी आये जिनके कारण सामाजिक सरोकारों वाली फिल्म से हमारा दर्शक वर्ग वंचित भी रहा। अस्सी के दशक में दक्षिण से ही फूहड़ हास्य फिल्मों का जलवा स्थापित हुआ जो कुछ समय बरकरार रहा। उसी के समानान्तर तब अच्छी एक्शन फिल्मों के साथ रजनीकान्त, कमल हसन, मम्मूटी, मोहनलाल, विष्णुवर्धन, चिरंजीवी, नागार्जुन, व्यंकटेश जैसे नायकों को हमने देखा लेकिन दक्षिण और मुम्बइया सिनेमा के विरोधाभासों में इन नायकों को ज्यादा सम्भावना नहीं दिखी और वे अपनी भाषा की फिल्मों में ही कीर्तिमान रचते रहे। अभी पिछले एक दशक में फिर एक बार तेलुगु, तमिल, मलयालम और कन्नड़ सिनेमा की सुपरहिट फिल्मों के अधिकार खरीदकर उनको हिन्दी में बनाने का काम चल निकला है जिसमें सबसे ज्यादा सलमान खान और उनके बाद अक्षय कुमार लाभान्वित हैं। ऐसे अवसरों के बीच भी रजनीकान्त काबाली, शिवाजी, एंदिरन, रॉवन, कोच्चादियाँ, लिंगा आदि से ठसक के साथ दक्षिणोत्तर भारत के सिनेमाघरों में आते हैं और कौतुहल जगाकर चले जाते हैं। 

यह अपने आपमें वाकई दिलचस्प है। यह रजनीकान्त के व्यक्तित्व और उनके साथ फिल्में बनाने वाले लोगों की दक्षता ही कही जायेगी कि वे सूत्र साधते हुए इस अनोखे महानायक के व्यक्तित्व का लगभग चमत्कारिक फैलाव बखूबी किया करते हैं। यह सब कम अचरज से भरी बातें नहीं हैं कि चेन्नई में रजनीकान्त की फिल्म देखने मुम्बई या अन्य शहरों से लोग जहाज का टिकिट खरीदकर जाया करते हैं। रजनीकान्त की फिल्म का प्रदर्शन अनेक दफ्तरों में अवकाश सा माहौल बना दे, यह सब वे बातें हैं जिनको समझे जाने की जरूरत है। दक्षिण के सितारों की सबसे बड़ी खासियत यह रही है कि असाधारण लोकप्रियता के बावजूद वे अपने चाहने वालों, दर्शकों और आमजन की कामनाओं से लेकर पहुँच तक बड़े सहज रहे हैं। नफरत और मोहब्बत के सिद्धान्त बहुधा एकतरफा काम नहीं करते। उसमें प्राण फूँकने का काम सितारा छबियाँ भी करती हैं। अमिताभ बच्चन का उदाहरण हमारे सामने है, एक समय था जब 11 अक्टूबर को प्रतीक्षा के सामने हजारों प्रतीक्षार्थियों को प्रायः हताशा हाथ लगा करती थी, मौके-बे-मौके लाठीचार्ज अलग लेकिन आज वही अमिताभ बच्चन ट्विटर से लेकर अपनी सक्रियता के हर माध्यम पर प्रायः रविवार शाम की वे फोटो प्रचारित-प्रसारित करते हैं जो उनके अब के रहने वाले जलसा घर के सामने उपस्थित भीड़ की होती है और वे सहर्ष उन सबका अभिवादन करना अपना सौभाग्य समझते हैं। समय ने अब उनको वह उदारता दी है जिसमें पहले हाथ तंग रहा है।


रजनीकान्त की नयी फिल्म काला करिकलन को देखना इन्हीं सारे सन्दर्भों, समय और समयातीत अनुभवों के साथ महसूस करना विलक्षण अनुभव है। हमारे सामने काला करिकलन के रूप में एक ऐसा व्यक्तित्व है जो एशिया की सबसे बड़ी बस्ती का अविभावक है, उसका सबके साथ अभय का रिश्ता है। वह पुत्र से लेकर पौत्र तक के कुटुम्ब का मुखिया है और सबके बीच रहता है। दिलचस्प यह है कि मोहल्ले के बच्चों के साथ बल्ला साधे बालसुलभ बेईमानी भी करता है, परिवार के छुटपुट झगड़े, नोंकझोंक भी निपटाता है, खुद भी अपने छोटी-मोटी खामियों वाले स्वभाव पर पत्नी से लेकर, बेटे, बहुओं और पोते-पोतियों की चुहल में सहज रहता है लेकिन किसी तरह उसकी सम्वेदना के बारीक तन्तु बस्ती के एक-एक घर तक गये हैं। वो हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध, ईसाई, दलित और विभिन्न किस्म की कठिनाइयों और मुसीबतों से जूझ रहते लोगों का मसीहा है। दुख, तकलीफ और व्यथा से उसके सामने बिलख उठते बुजुर्गों, स्त्रियों और बच्चों के आँसू उसके तवे से गरम तपते कलेजे पर छन्न से जाकर गिरते हैं। कैसे वो सबका रक्षक है? वह तमाम आकांक्षाओं से परे है और आज के समय में निरर्थक रूप से अर्जित करते की विषय-वासना से दूर है इसीलिए सन्तुष्ट है। वह अपने होने से घर को भी जोड़कर रखता है और अपनी बस्ती को भी। उसकी शत्रुता उस खलनायक से है जो उसके संसार को असहाय भविष्य में बदल देना चाहता है।    

एक महानायक को इस तरह प्रस्तुत करने की खूबी कमाल की है। पटकथा लेखक और निर्देशक ने यह काम बखूबी किया है। गरीबों और अभावग्रस्त लोगों के जीवन और उनकी दुख-तकलीफों को वर्षों से अपने में छुपाये धारावी बस्ती को जब-जब उसके विहंगम में देखा, सिने-छायांकन की दाद देने का जी हुआ। वास्तव में जी. मुरली वर्धन को इसका श्रेय जाता है। हवाई फिल्मांकन के दृश्य वास्तव में अद्भुत और साहस से भरे हैं। मध्यान्तर के पूर्व मुम्बई के पुल पर खासी बरसात के प्रयोग के साथ हिंसक मारधाड़ का दृश्य अद्भुत है जिसे दम साधे बैठे देखना पड़ता है। रजनीकान्त विजयी योद्धा की तरह अपराधियों को मारते-काटते चले जाते हैं। धारावी का सेट जो कला निर्देशक रामलिंगम का कमाल है, चुस्त सम्पादन जो ए. श्रीकर प्रसाद का कौशल है, फिल्म को बड़ी तवज्जो पर ले जाते हैं। फिल्म का पार्श्व संगीत सन्तोष नारायणन ने तैयार किया है। ये सारी खूबियाँ काला को उसके महानायक के राजनीतिक भविष्य के लिए बखूबी पेश करने में सफल हैं। नाना पाटेकर आसान कलाकार नहीं हैं, रजनीकान्त के सामने, अकेले और दूसरे दृश्यों में अपनी गहरी छाप छोड़ते हैं। उनकी यह भूमिका, विधु विनोद चोपड़ा की पुरानी फिल्म परिन्दा का विस्तार है और आज के समय में बुरे आदमी की बौद्धिकता और उसके इस्तेमाल को भी रेखांकित करती है। यह बहुत सारे अच्छे सहयोगी कलाकारों की भी फिल्म है जिसे दो घण्टे चालीस मिनट देखना असहनीय या बोझिल जरा भी नहीं लगता। आप इसे एक हिंसक फिल्म कह सकते हैं पर इसका प्रस्तुतिकरण कमाल का है जो खासा रोमांचकारी भी है। 

शुक्रवार, 1 जून 2018

शो मैन अवधारणा की अनुपस्थिति के तीन दशक

राजकपूर / पुण्‍यतिथि पर स्‍मरण



2 जून हिन्दी सिनेमा के शीर्षस्थ अभिनेता और निर्देशक राजकपूर की पुण्यतिथि का दिन है। आज से तीस साल पहले 1988 में उनका निधन हो गया था। वे नईदिल्ली में दादा साहब फाल्के सम्मान ग्रहण करने आये थे, अचानक उनकी तबीयत खराब हो गयी थी और उनको आॅक्सीजन की जरूरत पड़ी थी। पुरस्कार लेने के बाद उनको तत्काल अस्पताल दाखिल करना पड़ा था जहाँ लम्बी चिकित्सा के बाद उनका निधन हो गया था। निधन से पहले उनकी अन्तिम निर्देशित फिल्म राम तेरी गंगा मैली थी जो 1985 में प्रदर्शित हुई थी। इस फिल्म के बाद वे भारत-पाकिस्तान की पृष्ठभूमि पर एक फिल्म हिना बनाना चाहते थे और इसके लिए नायिका की तलाश कर रहे थे। उनके नहीं रहने के तीन साल बाद बेटे रणधीर कपूर ने 1991 में हिना बनाकर प्रदर्शित की। यह पुत्र की पिता को श्रद्धांजलि थी। हिना का दर्शकों और प्रेक्षकों ने अपनी-अपनी तरह से आकलन किया था लेकिन तटस्थ होकर विचार किया जाये तो पिता के अधूरे सपने को पूरा करने में रणधीर कपूर ने अपनी क्षमताओं का पूरा प्रयोग किया था। 

एक निर्देशक के रूप में भले रणधीर बड़ी पहचान और प्रतिष्ठा के साथ स्थापित न हों लेकिन उन्होंने निर्देशन का अनुभव बड़ा पहले से प्राप्त कर रखा था। जब उन्होंने 1971 में कल आज और कल फिल्म का निर्देशन किया था तब इस बात के लिए उनकी सराहना हुई थी कि उन्होंने अपने परिवार की तीन पीढ़ियों के साथ फिल्म बनायी है। समय के साथ आने वाले बदलाव और सोच को लेकर उनका यह प्रयोग बुरा नहीं था बल्कि इस बार को भी रेखांकित किया गया था कि रणधीर ने अपने से कहीं अधिक काबिल अपने पिता और दादा को निर्देशित करने में आत्मविश्वास नहीं खोया। बाद में उन्होंने 1975 में धरम करम भी बनायी जो एक प्रकार से अभिनेता के रूप में राजकपूर के सम्मानजनक प्रस्थान बिन्दु की फिल्म थी। इस तरह हिना को पिता के लिए देखा रणधीर कपूर का कोई बुरा स्वप्न नहीं था।

राजकपूर के नहीं रहने से एक बड़ा शून्य तो लम्बे समय तक व्याप्त हुआ इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता। भारतीय सिनेमा के शो-मैन कहे जाने वाले राजकपूर में अपने लम्बे अनुभवों, एक क्लैप बाॅय से कैरियर की शुरूआत और अभिनेता तथा निर्देशक तक बन जाना, इतना ही नहीं बन जाने के बाद अपने आपको लगातार प्रमाणित करने रहना रचनात्मक स्तर पर, वह बड़ा योगदान रहा है। वे रूमान और यथार्थ दोनों धरातल पर अपने सिनेमा को गढ़ने में सिद्धहस्थ थे। उनकी विशेषता यह थी कि वे अपनी सीमाओं और क्षमताओं को भलीभाँति जानते थे। वे यदि बरसात, आवारा और श्री चार सौ बीस जैसी फिल्में स्वयं निर्देशित करते थे तो उनको पता होता था कि बूट पाॅलिश या जागते रहो बनाते हुए प्रकाश अरोरा और शम्भु मित्र को जिम्मेदारी दी जानी चाहिए। हालांकि सभी फिल्मों पर उनकी निगाह रहती थी तभी वे अपनी छाप छोड़ने के कामयाब होते थे। 

राजकपूर ने जीवन की क्षण भंगुरता वाले दर्शन को मेरा नाम जोकर जैसी एक बहुत महत्वपूर्ण फिल्म से प्रदर्शित किया था। जिस तरह से उन्होंने उस फिल्म को बनाया था, ऐसा लगता था अवचेतन में यह फिल्म नहीं बल्कि वह देह है जिसमें उनके प्राण बसते हैं। जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ और ऐ भाई जरा देख के चलो जैसे गाने में दुनिया में अपने होने के अर्थ को स्पष्ट तथा सार्थक करना और ऐ भाई जरा देख के चलो गाने में यह दर्शन कि यह दुनिय हमेशा बने रहने की जगह नहीं है, देखा जा सकता था। उनके द्वारा बनायी गयी ग्लैमर और उत्तेजना से भरपूर फिल्म बाॅबी वास्तव में मेरा नाम जोकर जैसी दार्शनिक फिल्म खारिज देने वालों को वह जवाब थी जिसमें उन्होंने लगभग सामाजिक भटकाव और मनोरंजन के बदलते आस्वाद की छिपी प्रवृत्ति वाली जिव्हा में पसन्द का स्वाद ही रख दिया था। बाद में सत्यम शिवम सुन्दरम, राम तेरी गंगा मैली में वे शो मैन बनते चलते गये। ऐसे शो मैन बन गये जो अपनी पहचान, समृद्ध प्रतिष्ठता और अपने होने के अर्थ का भी बादशाह है। 

यह सही है कि राजकपूर अस्थमा के अपने आकस्मिक आघात से उपजी परिस्थितियों के जानलेवा हो उस आयाम तक न  पहुँच सके लेकिन वे वो लकीर खींचने में कामयाब जरूर हुए जो बहुत श्रेष्ठता के साथ उनकी स्मृतियों को अमर रख सके। एक फिल्मकार के रूप मे उनकी पहचान, आज भी उनकी यादगार फिल्मों के माध्यम से है। अंधेरे में आँख खोलकर टकटकी बांधे सारी वर्जनाओं को त्याग देने को आतुर दर्शक के साथ प्रेम रोग और सत्यम शिवम सुन्दरम फिर राम तेरी गंगा मैली बनाकर उन्होंने उन आलोचकों को भी चुप कर दिया था जो राजकपूर को सीमाओं में रखकर देखते थे। वास्तविकता यही है कि वे एक महान फिल्मकार थे, एक महान कलाकार थे और उतने ही महान आम आदमी भी थे। समग्रता में उनकी आवाजाही अपने खास आदमी से अपने आम आदमी तक सहजतापूर्वक हो जाया करती थी और यह विशिष्टता से आज हमारे बहुतेरे फिल्मकार परे होकर रह गये हैं।