सोमवार, 26 मार्च 2018

भारतीय रंगमंच की परम्परा, थाती और वर्तमान

27 मार्च: विश्व रंगमंच दिवस



विश्व रंगमंच दिवस की शुरूआत का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है। 1961 में फ्रांस में इसकी पहल की गयी। दुनिया के अनेक देश रंगमंच के माध्यम से अपनी सभ्यता, संस्कृति और जीवन शैली के माध्यम से अपने समकाल की विशिष्ट घटनाओं को प्रस्तुत करते हैं। भारत इस मायने में अग्रणी है कि उसने इस दिवस को मनाये जाने के सदियों पहले से रंगमंच की परम्परा को स्थापित किया। पुराणों में सभ्यता के सबसे पहले नाटक के मंचित होने की कथाएँ मिलती हैं। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का नाम हमारे देश में रंगमंच के देवता के रूप में स्मरण किया जाता है। उनका लिखा नाटक अंधेर नगरी आज भी न केवल किसी वरिष्ठ रंगकर्मी के लिए मंचन और प्रयोग का दिलचस्प विषय होता है बल्कि किसी नवागत का पट्टी पूजन की रंगमंच के क्षेत्र में इस नाटक से कराया जाता है। 

हमारे देश में नाटक की बात करते हुए एक व्यापक दृष्टि और रखने के लिए बड़े हिसाब-किताब की आवश्यकता पड़ेगी। सच बात यही है कि लम्बे समय में हमको यदि चार बातें करने के लिए वाक्य, मुहावरे और सलीके-शऊर आ गये हैं तो उसके पीछे बहुत कर्मठ और प्रतिबद्ध रंगकर्मियों के योगदानों का स्मरण किया जाना आवश्यक है। हमारे यहाँ मुश्किल यही है कि अपने-अपने समय और सक्रियता के साथ रंगमंच के कितने ही विद्वतजन सक्रिय रहे और लम्बी अवधि, कई बार अकस्मात समय से पहले स्मृति शेष हो गये लेकिन हमारे पास उनके किए गये कार्य का, उनकी उपलब्धियों का, उनकी परम्परा का, उनकी धरोहर का न तो कोई साक्ष्य उपलब्ध है और न ही कोई रख-रखाव। 

भारतीय रंगमंच के पितृपुरुष कावलम नारायण पणिक्कर जब नहीं रहे थे तब वरिष्ठ रंगकर्मी एम. के. रैना ने यह बात उठायी थी कि सरकारें बाजारू और फिल्मी कलाकारों के नाच-गाने पर लाखों करोड़ों खर्च कर देती हैं जबकि उससे बहुत कम खर्च करके पणिक्कर जैसे मूर्धन्यों की थाती को संरक्षित किया जा सकता है। यह बात मुझसे कभी बिसरायी नहीं जाती, सच भी है। बड़े-बड़े गुप्तदान होंगे, करोड़ों-अरबों के लेकिन इस परम्परा को बचाने में कोई धनपति आगे नहीं आता। अपनी-अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के महत्व और उसके प्रति पूज्यभाव को रखते हुए कलाकारों ने संघर्ष से उपलब्धियों तक की लम्बी यात्रा की है। देश के अनेक राज्यों में अनेक विसंगतियों, मुश्किलों, अशान्तियों के बावजूद रंगकर्म हो रहा है, यह कम महत्वपूर्ण नहीं है। पृथ्वीराज कपूर, इब्राहिम अल्काजी, विजय तेन्दुलकर, भास्कर चन्दावरकर, सत्यदेव दुबे, शम्भु मित्र, पी.एल. देशपाण्डे, हबीब तनवीर, विजया मेहता, बादल सरकार, ब.व. कारन्त, श्यामानंद जालान, जोहरा सहगल, के.वी. सुब्बन्ना, गुरुशरण सिंह, चन्द्रशेखर कम्बार, डाॅ. श्रीराम लागू, नीलू फुले, अरविन्द देशपाण्डे, सुलभा देशपाण्डे, भालचन्द्र पेंढारकर, नेमिचन्द जैन, गिरीश कर्नाड,  ऊषा गांगुली, नीलम मानसिंह चैधरी, रतन थियम, कन्हाई लाल, तापस सेन, रेखा जैन, कीर्ति जैन जैसे कितने ही नाम होंगे जिनका स्मरण कर हम रंगमंच के देशकाल और उसके यथार्थ से रूबरू होते हैं।  

सक्रिय नाटककारों की एक बड़ी ऊर्जावान पीढ़ी वर्तमान में हमारे बीच काम कर रही है। इस समय युवा और प्रौढ़ उम्र के रंगकर्मियों में समय सापेक्ष नवप्रयोगों और अधुनातन स्थितियों को देखने की अलग दृष्टि विकसित हो रही है। उनके रंगकर्म में वही ताप, वही ऊष्मा दिखायी देती है। हमारे बीच अभी वह पीढ़ी भी सौभाग्य से है जिनके नये काम के प्रति जिज्ञासापरक निगाह हमारी हुआ करती है, नयी पीढ़ी को ऐसे नाट्यकारों की दृष्टि और व्याकरण को देखना और सीखना चाहिए। मोहन महर्षि, महेश एलकुंचवार, नादिरा जहीर बब्बर, गोविन्द नामदेव, राजिन्दर नाथ, रुद्रप्रसाद सेनगुप्त, बंसी कौल, संजय उपाध्याय, मानव कौल, कुमुद मिश्रा आदि ऐसे कितने ही नाम होंगे जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व से रंगमंच के व्याकरण को भलीभाँति समझा जा सकता है। 

आधुनिक शास्त्रीय रंगमंच के साथ ही आंचलिक रंगमंच का समृद्ध होना, उसका निरन्तर संघर्ष में बने रहना हमारे देश में कलाओं की बड़ी जिजीविषा का प्रमाण है। कथकली, यक्षगान, चण्डूभागवतम, नौटंकी, नाचा, माच, खयाल, स्वांग, तमाशा आदि लोकनाट्य विधाओं ने ग्रामीण अंचलों में नाट्यकर्म को प्राणवान बनाये रखा है। भारत का लोकव्यापी रंगमंच, आधुनिक शहरी रंगमंच से पृथक ग्रामीण परिवेश में, उसकी सम्पूर्ण आंचलिकता में जो पहचान बनाता है, वह समानान्तर रूप से स्तुत्य है। हालांकि ऐसा संयोग बड़ी मुश्किल से उपस्थित होता है कि जिसमें सभी लोकनाट्य शैलियों या आंचलिक नाट्य परम्परा की भागीदारी हो पाना सम्भव हो सके, उनको देखा जा सके, सीखा और समझा जा सके। जितनी ग्रामीण, विभिन्न राज्यों से जुड़ी रंगप्रस्तुतियों की आमद होती है, हम अपने ही देश के लोकरंग वैभव से परिचित होते हैं। 

अनेकानेक राज्यों में लोकनाट्य परम्परा की एक जैसी स्थिति है। सभी के पास संसाधन सीमित हैं। सभी के पास आर्थिक कठिनाइयाँ हैं जो उनके जीवन के संघर्षों के साथ जुड़ी हैं लेकिन इसके बावजूद यदि ये समूह, ये कलाकार, ये लोकरंगकर्मी अपनी चेतना को, अपने लोक की रंगचेतना को जाग्रत किए रहते हैं तो इनका यह प्रयत्न, इनका यह कर्म, इनका यह पुरुषार्थ स्तुत्य है।