रविवार, 29 अप्रैल 2018

तीन दशक बाद नेशनल अवार्ड जीतने वाली दूसरी असमिया फिल्म

विलेज रॉकस्‍टार्स 


इस वर्ष सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करने वाली असमिया फिल्म विलेज राॅकस्टार्स एक बहुत प्रेरणीय और मर्मस्पर्शी फिल्म है। आमतौर पर सिनेमा का मतलब मुम्बइया सिनेमा या बाॅलीवुड निकालने वाले दर्शकों तक ऐसी अच्छी फिल्में पहुँचाने के जरूर सार्थक उपक्रम होने चाहिए। हालाँकि दूरदर्शन, नेशनल अवार्ड प्राप्त फिल्मों का प्रसारण बाद में करता है लेकिन उसका भी बेहतर प्रचार-प्रसार हो तो निश्चित रूप से दर्शकों तक अच्छे सिनेमा की पहुँच और भी सुदृढ़ हो सकती है। 

रीमा दास हमारे समय की इस मायने में एक उल्लेखनीय फिल्मकार हैं जिन्होंने इस फिल्म को बनाते हुए निर्माण, निर्देशन, कहानी, सम्पादन और सिने-छायांकन का भी दायित्व निर्वहन करते हुए बड़ी ही सादगी के साथ एक विलक्षण फिल्म अच्छे सिनेमा के चाहने वालों को सौंप दी है। विलेज राॅकस्टार को टोरण्टो इण्टरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ भारतीय फिल्म के रूप में चुना जा चुका है वहीं कान फिल्म समारोह में इस फिल्म को खासी चर्चा मिली है, इसके अलावा पिछले साल के अन्त में गोवा में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में इस फिल्म को दर्शकों ने बहुत पसन्द किया और इस टिप्पणीकार को भी उसी समय यह अनूठी तथा मन को छू जाने वाली फिल्म देखने का अवसर प्राप्त हुआ। 

युवा उम्र से सिनेमा का लोकप्रिय चेहरा बनने की ख्वाहिश लिए मुम्बई आयीं रीमा दास ने तब यह नहीं सोचा था कि समय आगे चलकर उनको कैमरे के पीछे ले जायेगा और फिर दृश्य वही बनेंगे जो वे गढ़ेंगी। उनको शुरू से ही मुम्बइया सिनेमा देखने का शौक रहा है। लगभग ग्यारह साल पहले वे मुम्बई आ गयीं। लघु फिल्म के निर्माण से उन्होंने अपनी शुरूआत की लेकिन व्यापकता में सिनेमा को देखने के चाव ने उनको दुनिया की अच्छी फिल्मों के नजदीक लाने का काम किया। 2009 में बनायी उनकी फिल्म प्रथा को बड़ी सराहना मिली। जब 2016 में उन्होंने अपनी पहली फिल्म अन्तर्दृष्टि बनायी तब उनको अच्छे काम और उसके प्रतिसाद दोनों का अवसर प्राप्त हुआ। यह एक ऐसे पिता की कहानी है जिनको रिटायर होने पर उनका बेटा एक दूरबीन भेंट करता है। दूसरी फिल्म विलेज राॅकस्टार्स पहली से एक कदम आगे इस दृष्टि से निकल गयी कि इसमें सुदूर गाँव, पिछड़े और अशान्त राज्य में कहीं बचपन और किशोर उम्र के बच्चों के स्वप्न को पास जाकर, टटोलकर, उसे संवेदनशीलता के साथ छूकर देखने की कोशिश की गयी है। 


रीमा दास जब विलेज राॅकस्टार पर काम कर रही थीं तब बस्ती और छोटे गाँवों को उसकी समूची शाब्दिकता में समझने का प्रयत्न भी कर रही थीं। उन्होंने अपने काम से पहले अनेक फिल्में देखीं और यह महसूस किया कि वे उस छोटे से संसार की बिल्कुल अलग सी कल्पना कर रही हैं जहाँ संघर्ष का पथ बहुत कोमल, बहुत मुश्किलों भरा, बहुत सात्विक और बहुत ही अधिक सीधी राह पर चलने वाला है। विलेज राॅकस्टार्स के कलाकार स्कूली बच्चे थे जिनके लिए पढ़ाई अपनी प्राथमिकता थी। रीमा ने उसके साथ-साथ बच्चों की घरेलू जवाबदारियों के समय को भी छोड़ दिया। इतनी उदारता के बाद नैसर्गिक प्रकाश अभिव्यंजना में उन्होंने विलेज राॅकस्टार्स की शूटिंग की और अपने सन्तोष की फिल्म बनायी। सर्जनात्मक सन्तुष्टि उनको अपने काम के साथ निरन्तर ही मिलती गयी। 

गुवाहाटी के पास रीमा दास का अपना जिया, देखाभाला स्थान छायागाँव जहाँ यह पूरी फिल्म बनायी गयी है, बड़ी ही विनम्र सी प्रतीत होने वाली सादगी के साथ अपनी बात कहती है। यह एक जुझारू लड़की धुनू की कहानी है जिसे अपने साथियों के बीच एक बैण्ड स्थापित करने की ललक है। वो और उसके साथ राॅकस्टार्स बनना चाहते हैं। टीवी और दूसरे साधनों से दूर देश की खबरें गाँव तक आती हैं और धुनू अपने लक्ष्य को पक्का करती चली जाती है। अपनी ही तरह के गरीब बच्चों की संगत में उसका यह स्वप्न शनैः शनैः आकार ले रहा है लेकिन इसमें भी बड़ी बाधाएँ हैं। धुनू की माँ अनेक कठिनाइयों में अपना, उसका और अपने बेटे का पेट भर पा रही है। जिन्दगी के साथ लड़ रही धुनू की माँ को समय ने बहुत मजबूत बना दिया है। धुनू गिटार बजाना सीख रही है, वह अपनी टीम को भी सिखा रही है। कैसे उसके स्वप्न को परिवेश और लोग बाधित करते हैं, कैसे शिक्षा से वंचित सुदूर अंचल में वातावरण और लोगों के मानसिक अभिप्राय इस स्वप्न को पूरा करने में बाधक होते हैं, यह इस फिल्म में बहुत ही सच्चाई के साथ दिखाया गया है। वा़द्यों का टूटना और मन का टूटना या खण्डित होकर रह जाना दौड़ते उत्साह का भरभराकर गिर जाना है। परदे पर ऐसी विडम्बना देखते हुए मन व्यथित होता है। धुनू की भूमिका निबाह रही भनिता दास के चेहरे पर भावों का संचय, आवेग की अभिव्यक्ति और हतोत्साहित किए जाने के बाद भी भाव भंगिमाओं और चेष्टाओं में संयत बने रहना बल्कि अपने लक्ष्यों के लिए और दृढ़ होने का विद्रोह बखूबी आया है। 

रीमा ने विपरीत और विरोधाभासी परिस्थितियों को दृश्यों में जिस तरह बांधा है, देखकर आँखें नम हो जाती हैं। ऐसे हर दृश्य प्रशंसा के लायक हैं जिनमें चरित्रों को टूटने से बचाते हुए भीतर छिपा मनोबल, जिद और आप हठ दिखायी देता है। धुनू की माँ की भूमिका बसंती दास ने निभायी है जो भाई की भूमिका में मानबेन्द्र दास अपनी उम्र और रौ में दीखता है। मल्लिका दास ने बेस्ट लोकेशन साउण्ड रिकाॅर्डिस्ट के रूप में एक-एक सूक्ष्म ध्वन्यात्मक बारीकियों को जिस तरह फिल्म का हिस्सा बनाया है, अनुभव करने लायक है। बसंती दास, मल्लिका दास के साथ ही निर्देशन के अतिरिक्त सम्पादन में भी फिल्म को अवार्ड हासिल हुआ है जो गौर करने लायक है। उल्लेखनीय तो यह भी है कि लगभग तीन दशक बाद एक बार फिर असमिया फिल्म को नेशनल अवार्ड मिला है। इसके पहले 1989 मेंजाहनू बरुआ की फिल्म हालोधिया चैराये बाओधान खाई को नेशनल अवार्ड हासिल हुआ था। 
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शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

संवेदनशील होना या संवेदनशील होने की बात भर करना.....

।। बियाॅण्ड द क्लाउड्स।।

 


अनोखे और चर्चित माजिद मजीदी विश्व सिनेमा के धरातल पर एक श्रेष्ठ फिल्मकार हैं, यह बात पढ़े-लिखे जाने-जानने से करीब पन्द्रह-बीस साल पहले उनकी दो फिल्में द कलर आॅफ पैराडाइस और चिल्ड्रन आॅफ हैवन देखकर मन में बैठी है। अपने लिए यह विशेष उल्लेख है कि संवेदना की बड़ी सच्ची परख रखने वाला दुनिया का एक फिल्मकार पे भारत में आकर एक फिल्म बनायी है। जब आप दो उत्कृष्ट फिल्मों के सकारात्मक प्रभावों से भरे हो तो एक प्रकार आश्वस्ति तो आपको हो ही जाती है कि कोई निरर्थक काम देखने नहीं जा रहे हो, दूसरे एक जिज्ञासा बनती है कि एक देश का फिल्मकार, दूसरे देश की नब्ज को किस तरह पकड़ पाता है या उसकी कोशिश भी करता है। इस जिज्ञासा के साथ निर्णय यही कर पाता हूँ फिल्म देखकर कि दृष्टि और परख की भी अपनी एक भूमध्य रेखा होती है, उसका तटस्थ या निष्पक्ष होना, एक जैसी संवेदना की तलाश करना एक आदर्श और सार्थक सोच है।

कहानी थोड़े में बता देता हूँ। मादक पदार्थों को छोटे-छोटे छिपे और गुप्त स्थानों पर पुलिस से लेकर आवारा, गुण्डों आदि के जोखिम से बचते हुए पहुँचाने का काम नायक करता है। उसकी एक बहन है जिससे वो दूर रहता है, कारण कि उसका पति उसे बहुत पीटता था और बेहिसाब शराब पीता था। बाद में बहन ने भी इसी कारण से उसे छोड़ दिया और छोटा-मोटा काम करके जीवन व्यतीत कर रही है। भाई, बहन के जीवन में एक दिन फिर दाखिल होता है जब पुलिस उसे और उसके साथी को दौड़ा रही है। भागते-भागते मादक पदार्थ का पैकेट वो बहन को देकर छुप जाता है। इधर उसी धोबी बस्ती, जहाँ उसकी बहन काम करती है, एक अधेड़ अक्शी उसकी इज्जत लूटना चाहता है तो बहन उसके सिर पर भारी पत्थर मारकर बच पाती है। अधेड़ कोमा में चला गया है और बहन को पुलिस जेल ले गयी। कहानी आगे यही है कि भाई, बहन को जेल से निकालना चाहता है और उसको अस्पताल में भरती उसी आदमी को बचाने के लिए दवा आदि का प्रबन्ध करना पड़ रहा है। 

घटनाक्रम आगे इस तरह बढ़ता है कि बहन, जेल में एक और कैदी स्त्री के बच्चे से हिलमिल जाती है जिसकी आगे चलकर मृत्यु हो जाती है और इधर अक्शी की माँ और दो बेटियाँ दक्षिण के गाँव से उसे मिलने चली आती हैं। दो धरातल पर कहानी आगे बढ़ती है, नायक आमिर उस आदमी के बोलने लगने और बयान देने के लिए सारे जतन कर रहा है और साथ में एक बूढ़ी और दो बच्चियों को भी घर ले आता है। 

आगे चलकर अक्शी का मर जाना, बूढ़ी माँ और दोनों बच्चियों का आमिर पर आश्रित हो जाना, आमिर की बहन तारा का जेल का ही होकर रह जाना और मर चुकी कैदी के बच्चे को साथ रखना, एक जगह पर आकर दर्शकों को सोचने के लिए कुछ प्रश्नों के साथ फिल्म खत्म होती है। बीच-बीच में आमिर का पहले निष्ठुर होना, फिर तीनों को पनाह देना, उनके खाने से लेकर जीने का भी प्रबन्ध करना, हताशा में एक क्षण उनको भला-बुरा कहना, बूढ़ी माँ का अपनी ही समभाषी की मदद से अपने अपराधी बेटे की ओर से सारे दोष कुबूल करने वाली चिट्ठी बनवाना आदि प्रसंग हैं। निर्देशक मादक पदार्थों की सप्लाई से घटनाओं के साथ देह व्यापार के अड्डे पर भी दर्शकों को ले जा रहा है जहाँ आमिर के लिए औरतों का एजेण्ट मुसीबतें खड़ी करता है। आमिर के साथी का उसको धोखा देना फिर जमीर जागना मर्मस्पर्शी है। 


निर्देशक पूरी निष्ठा और साफगोई से एक ऐसी दुनिया के यथार्थ से दर्शकों को परिचित कराता है जिसकी होशो-हवास में हमें कल्पना भी न होती होगी। यही कारण है कि निर्देशक, पात्र, कैमरा सब उन स्थानों से होकर निकल आते हैं लेकिन संवेदनशील दर्शक जैसे वहीं भटक कर कहें या खो कर कहें, रह जाता है। किसी भी मनुष्य के भीतर वे क्या प्रवृत्तियाँ होती हैं जो उसकी नीयत बिगाड़ती हैं, क्या वो सकारात्मकता होती है जिसमें वह सम्हल सकता है, अपराधी की बेटी को दलाल के हाथ बेच देने की गरज से निकला आमिर आखिर उसे लौटाकर घर ले आता है। 

माजिद मजीदी एक-एक विवरण पर जाते हैं, आरम्भ में कुछ सेकेण्ड एक मोबाइल सिम कम्पनी के बड़े होर्डिंग पर स्थिर रहकर जब कैमरा नीचे आता है तब हम उस असलयित से रूबरू होना शुरू होते हैं जो पुल, पुलिया के नीचे जिन्दगियों में व्यतीत हो रही होती है। इस फिल्म में कोई भी चीज गढ़ी गयी नहीं है, कुछ भी नकली या फिनिश्ड सा नहीं लगता बल्कि सब कुछ जस का तस। गरीबी, गरीबी के घर, धोबी घाट, अन्दर की संकीर्ण गलियाँ और धोये जाते कपड़ों के एक-दूसरे के ऊपर बर्दाश्त करने वाले छींटे, देह व्यापार की जगह पर बिकने आयी छोटी उम्र की लड़कियों के साथ बोलचाल एक निर्मम सच को आपके सामने रखते हैं। हर पल डरी, सहमी और लगभग मर-मर जाती जिन्दगियों के बीच हँसी-ठिठोली, रुसवायी, मान-मनौव्वल, अच्छा-बुरा सब का सब जस का तस। वैसे ही जेल जिसमें महिला कैदियों की व्यथा, दुर्दशा लगभग अन्ततः उनका क्या हो जाना है, यह जताने के लिए काफी हैं। वहाँ महिला कैदियों के निरीह मासूम बच्चे जो गन्दगी और बदबूदार गड्ढों से निकलकर आते-जाते चूहों को ही दोस्त बनाये हुए हैं। उस छोटे से बच्चे का तारा से पूछना दर्शक के लिए शायद सहन करना आसान न हो कि माँ कहाँ चली गयी तब तारा उससे कहती है कि तेरी माँ आकाश में चांद के घर में रहने लगी है और अब वो बहुत मस्त हो गयी है, खांसती भी नहीं। इस पर बच्चा कहता है कि मुझे चांद को देखना है, माँ का घर। तारा और उस बच्चे का घनघोर बारिश में आकाश की ओर ताकते रहना और इधर आमिर के साथ अक्शी की दोनों मासूम बच्चियों और पत्थर हो गयी माँ की जवाबदारी......फिल्म यहीं खत्म होती है।

एक बात प्रमुखता से उल्लेख कर देना जरूरी लगता है और वह यह कि माजिद मजीदी के इस सर्जनात्मक उपक्रम को भारत के दो प्रमुख निर्देशकों विशाल भाऱ़द्वाज और गौतम घोष ने एक बड़ा समर्थन दिया है। विशाल ने जहाँ इस फिल्म के पूरे हिन्दी संवाद लिखे वहीं गौतम घोष अक्शी की भूमिका में चरित्र और वृत्ति को एकाकार करते हैं। विशाल भाऱद्वाज को सब जानते हैं और गौतम घोष बंगला सिनेमा के शीर्षस्थ निर्देशक हैं। तीसरा बड़ा सहयोग उनको सिनेमेटोग्राफर अनिल मेहता का मिलता है जिन्होंने एक-एक जगह को उसके पूरे अस्तित्व के साथ अपने कैमरे से हमारे लिए देख लिया है। यहाँ कमजोर पड़ते हैं तो केवल ए.आर. रहमान जो संगीत के साथ उस वातावरण का हिस्सा नहीं बन पाते। कलाकारों में आमिर की भूमिका में ईशान खट्टर ने जिस आश्वस्ति के साथ एक-एक शाॅट में अपने होने को साबित किया है, कमाल ही है। 

लोकल ट्रेन के दृश्य, मोटर सायकिल पर आते-जाते अपने हाथ खोल कर खिल जाने और अपना ही अतिरेक करने वाले दृश्य अनूठे हैं। कीचड़ में लड़ाई वाला, देह व्यापार के दलाल से निर्भीक होकर बात करने वाला, धोखा देने वाले एक दुकानदार के हाथ में चाकू गाड़ देने वाला दृश्य, बहन से लड़ने, जिरह करने और अन्त में उसको छुड़ाने की फिक्र करने वाले प्रसंगों में कमाल कर गये हैं वे। इसी तरह तारा की भूमिका में मालविका मोहनन की भूमिका भी मन को छू जाती है। भाई के साथ झगड़ते हुए जब वो अपनी जिन्दगी के बारे में बतलाती है, जेल जाते हुए आमिर का सायकल से पीछा करना और बस के भीतर और बाहर से दोनों का एक-दूसरे को पुकारना विचलित कर देता है। जेल के अन्दर की जिन्दगी तारा की बड़ी परीक्षा है जिसमें माँ को खो देने वाले छोटे बच्चे से उसका जुड़ना अहम है। इधर अक्शी के परिवार में बूढ़ी माँ और दो बच्चियाँ आमिर के पीछे-पीछे घर क्या चली आती हैं, दर्शक को लगता है, वे उसके भीतर चली आयी हैं।

भारत में ऐसे सिनेमा का बनना बड़ा साहसिक है। साहसिक इसलिए है क्योंकि ऐसे सिनेमा को संवेदनशील दर्शक की तलाश या चाहत या अपेक्षा रहती है लेकिन हमारा दर्शक सिनेमा के नाम पर एक अलग तरह की मानसिक विलासिता में खोया रहता है। उस सुरंग में ही वह आनंदित है, बाहर आना या लाना दोनों ही दुरूह है। 

शनिवार, 21 अप्रैल 2018

एक संवेदनशील फिल्‍म जो अन्‍त में भटक गयी.....

फिल्‍म समीक्षा / अक्टूबर


इस फिल्म के नाम को लेकर प्रदर्शन पूर्व तक अचरज बना रहना स्वाभाविक ही था। दर्शक इसके आगमन की झलकियों से खीज भी सकता था यदि इसमें शूजित सरकार, जूही चतुर्वेदी जैसे सर्जनात्मक नाम न जुड़े होते। यही कारण रहा शायद कि अप्रैल में भी अक्टूबर का दर्शकों ने स्वागत किया। अपनी तरह से यह फिल्म निरर्थक नहीं है, अच्छी बनी है लेकिन देखते हुए दर्शक और समीक्षक भी यदि बहुत ज्यादा भावुक हो रहे हैं तो थोड़ा सजग होकर देखना जरूरी लगता है।

अक्टूबर उन युवाओं में शुरू होती है जो जिन्दगी बनाने, शुरू करने के स्वप्न देख रहे हैं। गनीमत है कि शुरू-शुरू में किसी को भी प्रेम नहीं हुआ है। एक बड़े सितारा होटल का प्रत्यक्ष और नेपथ्य, उसकी हलचल, पूर्वरंग और परोक्ष परिस्थितियाँ हमारे सामने सुरुचिपूर्ण ढंग से घटित होती हैं, खासकर तब जब हमारे अपने अनुभव ऐसे वातावरण में परोक्ष के तो कम से कम न के बराबर हैं।

ऐसे ही माहौल में तीन-चार तरह के स्वभाव, बहुलता वैसी ही जैसी आमतौर पर दिखती है, जिम्मेदारी और खासी चिन्ता के साथ अपने प्रोबेशन को पूरा करने, अच्छी और स्थायी नौकरी तथा अवसर पाने और विरोधाभासों को सहन करने वाले मित्रों के बीच नायक है जिसकी भूमिका शुरू से तय है। नायिका के चौथी मंजिल से गिर जाने के बाद उसकी अस्थिरता संवेदनशीलता में तब्दील हो जाती है। पटकथा में इस बात की उदारता बरती गयी है कि नायक अनेक भूलों, व्यवहार और स्वभाव के बावजूद क्षम्य है, मित्रों में भी प्रिय।

कोमा में चली गयी नायिका की चिकित्सा, चिकित्सालय, चिकित्सक, गहन चिकित्सा इकाइयों का वातावरण, परिस्थितियों से जूझती नर्सें, नायिका की हालत से विचलित परिवार, चिकित्सा खर्च इन सबके साथ-साथ एक रूमानिकता भी घटित होती हुई चलती है जिसमें अक्टूबर माह का मौसम, खास दिल्ली की ठण्ड, सुबह, शाम और रात के दृश्य, कोहरा, मैट्रो, सोता-जागता शहर आदि शामिल हैं। दार्शनिकता में हरसिंगार के फूल, उनकी महक, एक रात का जीवन जैसी क्षणभंगुरता की फिलाॅसफी आपको पूरी तरह बांध लेती है।

दर्शक जितना नायिका की हालत से द्रवित है उतना ही नायक के समर्पण पर वारा गया है। कोमा से लौटती, सकारात्मक संकेत देती और जीवन के प्रति एक आशान्वित भरोसा दिलाती नायिका के प्रति नायक का लगाव, उसके ठीक होने में स्वयं के भी योगदान का निजी आत्मविश्वास यह सब अक्टूबर को एक बेहतर उपसंहार तक ले जाने के बेहतर संकेते हैं लेकिन लेखिका जूही चतुर्वेदी, नायिका की मृत्यु को दिखाकर अन्त को जटिल बनाती हैं और अपने समर्थक दर्शकों को भी असहमत करती हैं। भीगी आँखों के साथ दर्शक सिनेमाघर से इस अन्त को अमान्य करता हुआ निकलता है। यह एक पथ से भटके हुए अन्त का चयन करने वाली लेखिका की फिल्म है।

हालाँकि इसमें वरुण धवन ने अपने अब तक के समय की श्रेष्ठ भूमिका का निर्वहन किया है। ऐसे चरित्र बहुत मेहनत की अपेक्षा करते हैं, वरुण दृश्यों, अपनी उदासी, मन के नायिका की संवेदना और स्थितियों के साथ लगभग एकाकार हो चुके अभिव्यक्त भाव में बहुत आगे जाते हैं। नायिका बनिता संधू ने नियंत्रण रहित लगभग एक देह की तरह उस पार्थिवता को दृश्यों में जिया है जो ऐसी भयानक दुर्घटना की परिणति को साक्ष्य के रूप में हमारे सामने लाती है। माँ का किरदार निबाह रहीं गीतांजलि राव अपनी विवशता को बखूबी जीती हैं। निर्देशक ने फिल्म बनाते हुए पात्रों से अच्छा काम लिया है।

लगभग सत्तर प्रतिशत फिल्म अवसादपूर्ण परिस्थितियों के दृश्यबन्ध हैं, शेष में होटल संस्कृति का ग्लैमर हमारे सामने है जो निर्माता की राहत के लिए होगा, बहरहाल व्यवहारसंगत अन्त न होते हुए भी भावुक दर्शकों के लिए यह फिल्म आकृष्ट करने वाली है। कई बार ऐसे अन्त इसलिए भी गढ़े जाते हैं जिस पर आप असहमत होते हुए भी बात करो लेकिन इसी कारण फिल्म का वो आखिरी दृश्य अपनी संवेदना खो बैठता है जिसमें नायक हरसिंगार का पेड़ लेकर जा रहा है......
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गुणी कलाकार और भ्रमित निर्देशक

।। ब्लैकमेल ।।



अभिनेता इरफान खान की फिल्मों को लेकर दर्शकीय उत्सुकता दूसरे सितारों से बेहद अलग है। सलाम बाॅम्बे से लेकर पान सिंह तोमर के नेशनल अवार्ड प्राप्त करने तक और उसके बाद की भी अनेक फिल्मों से उन्होंने अपने को एक आश्वस्त और आत्मविश्वास से भरे अभिनेता के रूप में साबित किया है। यह नयी फिल्म ब्लैकमेल ऐसे समय में आयी है जब वे अपने स्वास्थ्य के एक बड़े संकट से जूझ रहे हैं। सिनेमाघर में दर्शक इस अतिरिक्त सहानुभूति के साथ भी आ रहा है।

अभिनय देव निर्देशित यह फिल्म दो तरह के विभाजनों में अपनी आवाजाही करते हुए न तो एक गम्भीर फिल्म की तरह आकृष्ट कर पाती है और दृश्यों और संवादों में हास्य के तत्व-पुट शामिल कर देने से कहानी अपनी गम्भीरता खो बैठती है। ब्लैकमेल सम्बन्धों के संसार से एक अलग तरह की कहानी उठाती है जिसमें प्रेमी-प्रेमिका अलग-अलग शादी हो जाने के बाद तत्काल ही एक-दूसरे के सम्पर्क में आकर विवाहित जैसा जीवन जीने लगते हैं। अमीर स्त्री के साथ विवाह के बाद की जिन्दगी, इधर एक लगभग असहाय किस्म का नौकरीपेशा व्यक्ति, अपनी-अपनी तरह से समय से जूझ रहे हैं। किसी के भी प्रयत्न परिस्थितियों से निजात पाने के नहीं हैं बल्कि उसे एक अलग ढंग से एन्जाॅय कर रहे हैं। 

इस फिल्‍म की खूबियों के रूप में अच्‍छा कैमरा वर्क खासकर वे शॉट जो इरफान के द्वन्‍द्व को दर्शाते हैं, छत पर ऊँचाई में बैठकर उनका सोचना, उत्‍तरार्ध में ऑफिस में साथ काम कर रही लड़की की उसके घर में दुर्घटना मृत्‍यु होना, उस आफत से बचने के लिए मुहल्‍ले और सड़कों पर भागना दिलचस्‍प हैं। इरफान का बॉस बने ओमी वैद्य का अपने प्रोडक्‍ट टॉयलेट पेपर की मार्केटिंग करने के लिए किए जाने वाले उपक्रम मनाेरंजक हैं बल्कि इतने ज्‍यादा मनोरंजक कि सिनेमाघर का दर्शक बाद के दृश्‍यों में भी अकारण हँसता है।

इरफान, कीर्ति, दिव्या, अरुणोदय, अनुजा अपने चरित्रों के साथ हैं लेकिन इस पूरी फिल्म को अपने होने से अर्थ देने का काम ओमी वैद्य ज्यादा अच्छे ढंग से कर जाते हैं। गीतकार अमिताभ भट्टाचार्य और संगीतकार अमित त्रिवेदी इस फिल्म के लिए लगभग मिस मैच गीत-संगीत रचना करते हैं। अरुणोदय सिंह माॅडल पर्सनैलिटी हैं, अच्छे लगते हैं। उनको एक शातिर किस्म का चरित्र दिया है, हालाँकि कई बार वह अस्वाभाविक ढंग से काॅमिक भी लगता है। यह जरूर है कि यह कलाकार अच्छी नकारात्मक भूमिकाओं के लिए बड़ी सम्भावनाशील आमद है।
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