सोमवार, 28 मई 2018

फिल्‍म चर्चा / बायस्‍कोपवाला

काबुलीवाला से अलग बायस्‍कोपवाला पर ही एकाग्र होने पर




बायस्कोपवाला ने ध्यान इसीलिए आकृष्ट किया कि उसमें डैनी को एक पूर्णाकारी भूमिका मिली है। डैनी किरदारों के चयन में सावधानी बरतते हैं और हर अनुबन्ध उनको स्वीकार हों, ऐसा नहीं होता। यह एक छोटी सी, सीमित बजट की फिल्म उन्होंने करनी चाही, इसके पीछे जरूर कुछ बात होगी, भावनात्मक भी शायद। तो पता लगा, वे बिमल राॅय की स्मरणीय फिल्म काबुलीवाला से प्रभावित रहे हैं और निर्देशक ने उनको यह भरोसा दिलाया कि यह कहानी उसने उसी से प्रभावित होकर अब के कोई बीस-तीस साल के कालखण्ड को सोचकर फिल्म बनाने के लिए चुनी है। 

सम्बन्धों में संवेदना का अपना स्थान होता है। बिना संवेदना के सम्बन्ध यांत्रिक हो जाते हैं। यहाँ एक बेटी अपने पिता का फोन व्यस्तता के किसी क्षण में नहीं सुन पाती और पिता का जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है। पिता एक यात्रा पर था जो अधूरी रह जाती है और उस यात्रा में एक भावनात्मक संकल्प छिपा होता है। बेटी इस काम को हाथ में लेती है। अपने पिता के द्वारा पनाह पाये एक अफगान से वर्षों पूर्व भारत आ गये और यहाँ बायस्कोप दिखाकर बच्चों का मनोरंजन करने वाले वृद्ध से जुड़कर वो पहले उसके अतीत का पता लगाने निकलती है फिर उसकी बेटी का।

कहानी फिल्म की बहुत सीधी और तरल हो सकती थी लेकिन स्मरणों और अधूरी सूचनाओं की पुष्टि में अनेक बार पूर्वदीप्ति में जाना, कहानी से वर्तमान को जोड़ना और तारतम्यता देने में कहीं-कहीं चूक दिखती है। डैनी के किरदार के नजरिए से देखूँ तो इसमें डैनी के मौन, चुप्पी को बखूबी परदे पर प्रभाव पैदा करने में सफल हुआ है निर्देशक लेकिन एक अशान्त देश से निर्वासित जहाँ से वे छोटे-छोटे हिस्से सहेजे आ गये जो बायस्कोप के भीतर बच्चों की आँखों के सामने कौतुहल रचते हैं लेकिन छोटी उम्मीद से परदेस आ गया एक व्यक्ति फिर अपनी बेटी से मिल नहीं पाता। 

राॅबी बासु अपने आपमें पूरी तरह संवेदनशील व्यक्ति नहीं है तभी वह एक बार पुलिस को रहमत अली के अपने घर में होने की सूचना देकर पकड़वा भी देता है। प्रायश्चितों में पता चलता है कि वह किसी भी प्रकार का अपराधी नहीं है। अविश्वास और उससे उपजा गुनाह और गुनाह का प्रायश्चित अजीब सी तिर्यक रेखाएँ हैं जो किसी भी मनुष्य को अविश्वसनीय बनाती हैं। एक ऐसा व्यक्ति जो अपने परिवार को खो देता है, मुल्क को खो देता है वह जिस देश में पनाह लेता है वहाँ भी उसकी मुलाकात अपने ही उस गुम आदमी से नहीं हो पाती जो छाया की तरह उसके साथ भी है और उससे परे भी। डैनी अपने को ठीक-ठीक रेखांकित करते हैं इस जगह पर जो उनकी इतने बरसों के अनुभव की सिद्धी है। 

आदिल खान अपनी भूमिका से बहुत सारी जगहों को भरते हैं लेकिन मिनी के रूप में गीतांजलि थापा ने दूसरे क्रम पर प्रभावित करने की कोशिश की है। एकावली खन्ना को हाल में एक फिल्म में बड़ी अच्छी भूमिका में देखा है, यह श्यामला सुन्दर छबि अपने एक संवाद से प्रभावित करती है, मुझे जिन्दगी ने ऐसा दिया ही क्या है जिसके खो जाने का दुख करूँ। वैसे उनकी भूमिका छोटी सी है इसके बावजूद उनका संज्ञान लिया जाता है। भोला, बृजेन्द्र काला इधर निरन्तर अच्छी फिल्मों के अच्छे किरदार हैं, इस फिल्म में भी। फिल्म में आक्रान्त भीड़ के अंधेपन और उससे होने वाले हादसों को भी बखूबी चित्रित किया गया है, इसमें राफे मेहमूद की सिनेमेटोग्राफी का बहुत पास तक जाकर दिखाती है। दीपिका कालरा फिल्म को बहुत अच्छा सम्पादित करती हैं तभी नब्बे मिनट की यह फिल्म एक संवेदनशील अनुभव साबित होती है। 

निर्देशक देव मेढ़ेकर ने रवीन्द्रनाथ टैगोर, काबुलीवाला और उसकी मीठी यादों को बायस्कोप वाला से दर्शकों में ताजा करने, पुनरावलोकन कराने का प्रयत्न किया है पर पटकथा में बहुत ज्यादा गुंजाइश नहीं मिल पायी है उनको बेहतर कर पाने की। गुलजार के गीत को संदेश शाण्डिल्‍य ने कोमलता से निभाया है। बैकग्राउण्‍ड म्‍युजिक में भी वे विष्‍ाय की गम्‍भीरता के खूब समझे हैं। निर्माता सुनील दोशी के साथ मिलकर राधिका आनंद में इसमें मेहनत की है पर बड़ी दर्शक संख्या तक जाने के लिए और सर्जनात्मक परिश्रम आवश्यक था। 




शुक्रवार, 18 मई 2018

फिल्‍म चर्चा / अंग्रेजी में कहते हैं..

एक मध्‍यमवर्गीय जीवन, घर और उसमें रहने वालों से मिलते हुए

 


ऐसे समय में जब हमारे सिनेमा में निरी भव्यता, झूठे और भ्रमित कर देने वाले सपने, अविश्वसनीयता, संवेदनहीनता और भटकाव भलीभांति घर कर गया हो। ऐसे समय में जब सिनेमा महंगे माॅल और उसके लगभग बहलाने वाले आकर्षण में हमको लगभग दो-ढाई घण्टे चपेट लिया करता हो, हमारी जेब को ठिकाने लगाने में निर्मम हो, कोई फिल्मकार मध्यमवर्गीय परिवार और घर की कहानी लेकर उसको उसी वास्तविकता और ईमानदारी से बनाकर प्रस्तुत करने का जतन करेगा तो क्या होगा, बताइये! शायद आप कहने लगें यदि सिनेमा और उसके बाजार के इन्द्रजाल को थोड़ा-बहुत भी जानते हों, कहने लगें कि या तो उसे थिएटर नहीं मिलेगा और यदि मिल भी गया तो दर्शक नहीं मिलेगा................।

अंग्रेजी में कहते हैं, फिल्म बनाने वाले लेखक निर्देशक हरीश व्यास को क्यों यह ख्याल आया यह तो वे ही जाने लेकिन अपने ही शहर में दूरियों और समय की जटिल शर्तों के बीच गिने-चुने शो में प्रदर्शित इस फिल्म को देखने के लिए मैं आठ-दस दिन से प्रतीक्षित था सो चला गया। 

परदे पर इस फिल्म का आरम्भ अपने आपमें ऐसा सम्मोहन है कि पहले दृश्य से ही आप इसके साथ हो लेते हैं। परदे पर गंगा, चलती हुई नाव, नामावली और महुआ चक्रवर्ती के कण्‍ठ से झरता स्‍वर, अब मान जाओ सांवरिया से ही आप फिल्‍म के पक्ष में हो लेते हैं। फिल्म की कहानी एक क्लर्क यशवंत बत्रा की है जो एक आॅफिस में क्लर्क है और छोटे से घर में अपनी पत्नी किरण और बेटी प्रीति के साथ रहता है। प्रीति बहुत मुखर और समझदार है। बत्रा अधेड़ उम्र के मध्यमवर्गीय परिवार के मुखिया की तरह जीवन जी रहा है जिसके जीवन में जीवन का ही आकलन धरातल से नीचे है। पत्नी और बेटी के साथ उसका व्यवहार भी वैसा। बनारस शहर का परिवेश है। बेटी मुहल्ले के युवक से प्रेम करने लगी है, पिता को पता नहीं है और एक दिन वह तब जान पाता है जब वह घर में बिना बताये मन्दिर में शादी कर लेती है।

इधर पिता जिस घर में रह रहा है उसी को बेचकर बेटी की शादी करने के स्वप्न देखता है। वह पत्नी से बात-बेबात झगड़ता भी है और दिन भर की कुण्ठा को दूर करने के लिए रात को शराब भी पीता है। उसका जीवन इतना ही है। पत्नी किरण ने तय कर लिया था कि बेटी की शादी होने के बाद वो भी घर से अपनी मां के घर चली जायेगी। बेटी की शादी हो जाती है और पत्नी भी चली जाती है। बत्रा, उसे रोक नहीं पाता, साथ रहती है तो उसका होकर रह नहीं पाता, उसके प्रति अपना प्रेम नहीं जता पाता। जिस तरह के स्वभाव को वह जीता है, अघा गये आसपास के लोग उसका साथ छोड़ देना चाहते हैं।

अकेले घर में रह रहे बत्रा के जीवन में बेटी और दामाद एक सुखद बदलाव बनकर आते हैं जिसमें दोनों उसकी बेबसी, अपने आपमें गुम रहने की उसकी कुण्ठा से बाहर लाने का प्रयत्न करते हैं। वे उसके कपड़ों को ही नहीं बदलवाते, झेंप, झिझक और बरसों का अकथ जो उसके भीतर राख हो गया है, उसको जिलाने का काम करते हैं। यही बत्रा अब किरण को पटा-फुसलाकर, प्यार का वास्ता देकर ले आना चाहता है...........

फिल्म में एक आप्त वाक्य दिलचस्प है, हर हिट फिल्म के लिए शाहरुख खान का हीरो होना जरूरी नहीं है, यह हीरोशिप हर आदमी के भीतर होती है। रोचक ढंग से इस फिल्म को अन्त तक लाया गया है। उत्तरार्ध में फिरोज के रूप में एक चरित्र भी बत्रा के जीवन में बदलाव लाता है जिसकी पत्नी मृत्यु शैया पर है लेकिन उसको भरोसा है कि एक दिन वह उसे अपने साथ घर ले जायेगा, दोनों में प्रेम विवाह हुआ है।

बत्रा के रूप में संजय मिश्रा उसी तरह किरदार बन जाते हैं जैसे वे अपनी हर फिल्म में होते हैं। फिर उनको परिवेश भी वैसा ही मिला है, बनारस, गंगा, घाट के आसपास पूरी फिल्म किस तरह से अपने आपको तमाम बहकाव से बचाती हुई उपसंहार तक पहुंचती है, देखने योग्य है। संजय की हंसी, उनका रोना, उनकी लम्बी चुप्पी और बोल सब कुछ ऐसे लगते हैं जैसे हम से ही यह सब बुलावाया जा रहा हो। किरण के रूप में इकावली खन्ना ने लगभग उसी प्रत्युत्तर में अपनी भूमिका का निर्वाह किया है। अपने सांवले रंग में वे बड़ी उम्र एक स्त्री के संघर्ष और टूटते मन की वाणी बनकर सामने आती हैं। बेटी की भूमिका में शिवानी रघुवंशी की उपस्थिति को बहुत सकारात्मक और आश्वस्त कहा जाना चाहिए। फिल्‍म में अंशुमान झा की भूमिका बत्रा की बेटी प्रीति के प्रेमी और पति की है, यह युवा भी बड़े आश्‍वस्‍त होकर दृश्‍य में आता है, खासकर संजय मिश्रा के साथ उनके संवाद दिलचस्‍प हैं।

पंकज त्रिपाठी इस फिल्म में अपनी एक मर्मस्पर्शी लघु कथा की तरह अपनी कहानी के साथ दृश्य में आते हैं और उसी संजीदगी के साथ अपने चरित्र को साकार करते हैं जिसकी जरूरत कहानी को होती है। पंकज त्रिपाठी की नायिका की भूमिका में इप्शिता त्रिपाठी ने एक लम्‍बे दृश्‍य में जो ध्‍यान आकृट किया है उसका जिक्र भी जरूरी है। अलग जाति में प्रेमविवाह, पिता की नाराजगी और बाद में अचानक एक जानलेवा बीमारी का शिकार हो जाना, एक ही दृ‍श्‍य जो इस चरित्र की मृत्‍यु से पूर्ण होता है, मन को छू जाता है। पंकज अन्तिम दृश्‍य में असहनीय बिछोह के हीरो बनकर दिखायी देते हैं। इस फिल्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कहीं भी कृत्रिमता, नकलीपन या भ्रमित करने वाला तरीका प्रयोग में नहीं लाया गया है। गरीब बत्रा का पुराना और बरसों से रंग-रोगन को तरसता मकान, शादी के दृश्यों में सात-आठ लोगों भर की उपस्थिति, कोई आडम्बर या विलासिता थोपी नहीं गयी है। निर्देशक ने सचमुच मध्यवर्गीय जीवन को जिस तरह छूते हुए इस बड़े वर्ग की चिन्ताओं और परिस्थितियों को सामने रखा है वह सराहनीय है। 

निर्देशक और पटकथाकार हरीश व्यास की इस बात के लिए भी प्रशंसा की जाना चाहिए कि उन्होंने सिनेमेटोग्राफी से लेकर कला निर्देशन, गीत और संगीत में खूब समरसता निभायी है, कहीं भी समझौता नहीं किया। फिल्म देखते हुए जब हम कहानी का हिस्सा होकर कोई न कोई किरदार में अपने आपको ढूंढ़ने लगते हैं तो ऐसा लगता है जैसे यह हमारे साथ ही घटित हो रहा है। फिल्म का प्रमुख चरित्र बत्रा का गंगा से रिश्ता भी खूब व्यक्त किया गया है, वह अपनी तकलीफ, अपने अव्यक्त, अपने द्वंद्व और अपने अवसाद में किस तरह गंगा के किनारे जा खड़ा होता है, कभी मंदिर के बाहर बैठा है कभी चबूतरे पर, कभी नाव में। 

गंगा नदी के सान्निध्य में जैसे हमारे सारे के सारे आवरण छूट जाते हैं, सारे के सारे पाखण्ड पकड़े जाते हैं, सारी की सारी भूलें हमारे अन्तद्र्वन्द्व में तिर कर उपर आ जाती हैं, ऐसा लगता है कि अपनी विराटता में बहती गंगा एक ऐसा वृहद आत्मावलोकी दर्पण है जिसके सामने कुछ भी छिपा नहीं है। फारुख मिस्त्री की सिनेमेटोग्राफी इन मायनों में कमाल की है। यह ऐसी फिल्म है जिसके गानों को भी कई दिन सुनने की इच्छा बनेगी, गीतों में बनारस घराने की पारम्परिक गायिकी के साथ दूसरे गीतों को शान, मोहित चौहान, वैशाली महादे, अभिजीत घोषाल, महुआ चक्रवर्ती, सत्येन्द्र त्रिपाठी शिराओं में उतर जाने वाली अनुभूति कराने के साथ गाया है। 

अंग्रेजी में कहते हैं के बारे में कहना यही होगा कि अपने जमीर, अपने भीतर के धूमिल होते सच और सीमाओं में छटपटाते सपनों के साथ कुछ देर अपने में होने की इच्छा यदि आपकी बनती है तो यह फिल्म निश्चित ही आपके लिए है। ऐसी फिल्मों को दर्शक समर्थन बड़ी प्रासंगिकता है।  


गुरुवार, 17 मई 2018

फिल्‍म चर्चा : राजी

प्रतिबद्धता और सम्‍बन्‍धों की संवेदना पर महिला फिल्‍मकार की दृष्टि  


राजी देखने के पीछे एक कारण तो यही था कि फिल्म की चर्चा है और दर्शक भी। एक कारण यह था कि गुलजार साहब के गीत बड़े दिन बाद सुनने को मिलेंगे। तीसरा कारण यह भी था कि फिलहाल और तलवार के बाद मेघना गुलजार की इस माध्यम में एक निर्देशक की तरह पकड़ कैसी है, किस तरह भिन्न है या पिता का कितना-कैसा प्रभाव है!

सभी कारणों का कुछ-कुछ समाधान मिलता है। फिल्म देखते हुए न जाने क्यों गुलजार साहब की माचिस का स्मरण हो आता है। बहरहाल राजी की खूबियों पर केन्द्रित करें तो बात आलिया भट्ट से ही शुरू करनी होगी। इस दौर की यह बहुत प्रतिभाशाली लड़की है। अपनी कद-काठी से बहुत छोटी लगती है उम्र में लेकिन उतनी ही परिपक्वता के साथ दृश्य में होती है, उतने ही आत्मविश्वास के साथ अपना चरित्र कहती है जो वह परदे पर निबाह रही होती है।

यह एक कालखण्ड विशेष की फिल्म है जो हरिन्दर सिक्का के उपन्यास काॅलिंग सहमत का फिल्म रूपान्तर है। इसमें मेघना के साथ भवानी अय्यर ने संवादों और पटकथा पर काफी ध्यान दिया है और परिश्रम किया है। मूल में देशभक्ति है, अपने-अपने देश के प्रति लेकिन दोनों ही देशों के प्रतिनिधि दो मित्र किस तरह एक-दूसरे के देश के पक्ष में नहीं है, इस यथार्थ के परिवेश में फिल्म शुरू होती है। दुश्मन देश की तैयारियों, उसकी नीयत और उसके दिखावे के बीच सच की पड़ताल का काम सोचे-समझे ढंग से, बहुत कुछ जोखिम उठाकर, बहुत कुछ दांव पर लगाकर देशप्रेम के सबसे बड़े जज्बे की रक्षा में विफलता सबसे बड़ा जोखिम है जिसमें अकेले पड़ जाने से लेकर जान गंवाने तक की स्थितियां हैं वहीं सफलता हासिल होने पर किए गये बलिदान और बाहरी-भीतरी पराजय के साथ, अपने जमीर के साथ किसी भी तर्क में बिना पड़े हार जाना भी एक पक्ष है सबसे बड़ा। राजी और उसकी नायिका इसी जद्दोजहद का शिकार होती है।

राजी फिल्म का दर्शकों तक ठीक तरह से पहुंचना या दर्शकों का सिनेमाघर चलकर आना, उसकी खूबियों के कारण है जिनमें से कुछेक बड़ी महत्वपूर्ण हैं। खास बात तो यही है कि बनाने से पहले पटकथा और संवाद के स्तर पर उसकी बेहतरीन तैयारी नजर आती है। दूसरी बात दृश्यों की है जो आपको बांधते हैं, हालांकि खुफिया ढंग से अपने उद्देश्य को अंजाम देने का कार्य उसी तरह का है जैसे 1970-71 में तथाकथित जासूसी फिल्में बना करती थीं लेकिन कैसे एक किरदार अपनी उपस्थिति से उस कार्य को चतुराईपूर्वक अंजाम देता है, यह दिलचस्प ढंग से व्यक्त किया गया है। आलिया अपनी पिछली फिल्मों के तजुर्बों और परिश्रम से अच्छी पारंगत होकर इस फिल्म का चरित्र बनती हैं। सम्बन्धों में बंध जाने के बाद निष्ठा और लक्ष्य दोनों में कितने समझौते हैं, यह देखकर अचम्भा होता है। आलिया सब जगह परिपक्वता का परिचय देती हैं।

फिल्म के सहयोगी कलाकारों में बड़े दिनों बाद परदे पर नजर आये जयदीप अहलावत की भूमिका पूरे आकार की है और वे खुफिया अधिकारी के रूप में प्रभावित भी करते हैं। दो अच्छे कलाकारों आरिफ जकारिया और रजित कपूर की भूमिका बहुत छोटी है। इसके विपरीत पाकिस्तानी सेना के अधिकारी के रूप में शिशिर शर्मा ने अपने आपको प्रभावी ढंग से स्थापित किया। राजी की मां की भूमिका सोनी राजदान को मिली है, वे थकी थकी सी लगती हैं और प्रभावहीन भी। कुछेक दृश्य बड़े महत्वपूर्ण हैं जैसे भारत और पाकिस्तान की सीमा में एक गाड़ी से उतरकर दूसरी गाड़ी में बैठना और चेहरे पर अलग-अलग देशों में उपस्थिति के मनोविज्ञान को चेहरे पर लाना, आलिया भट्ट के आरम्भ में मुस्कराने का दृश्य जिसमें उनके गाल खींचे जाते हैं और वे अपनी मुस्कान को वहीं स्थिर कर लेती हैं। इसके अलावा गुप्त रूप से सारी कार्रवाई को अंजाम देने वाले दृश्य जो परिस्थिति के अनुरूप भय पैदा करते हैं। शादी की रात राजी के पति का अलग सोने का फैसला और उसके पीछे के तर्क, नायिका की भारतीय शास्त्रीय संगीत की पसन्दगी पर पति का उस तरह के रेकाॅर्ड्स लाकर भेंट करना, राजी की असलियत सामने आने पर पति का अन्तरंगता और निजता को लेकर संवेदनशील प्रश्न बहुत अहम हैं।

मेघना गुलजार ने पिता गुलजार की रचनाओं, गीतों का बहुत अच्छा प्रयोग किया है। शंकर एहसान लाॅय का संगीत वास्तव में इन रचनाओं के साथ गरिमापूर्ण सावधानी बरतता है और गरिमा के साथ बांधता है। जय आय पटेल की सिनेमेटोग्राफी फिल्म में नयनाभिराम दृश्यों और संवेदनशील दृश्यों को बखूबी बांधने का काम करती है। दूर के भूदृश्य, जाती हुई बस आदि देखना बहुत प्रभावी है। लम्बे समय बाद कंवलजीत सिंह को एक छोटी सी भूमिका करते देखना सुखद यो कि दीदार हुआ और तकलीफदेह इसलिए कि वे इन दिनों फिल्मों से दूर हैं। संजय सूरी भी एक निर्विकार उपस्थिति में जाया हुए हैं। 

संजीदा देखने वालों को इस बात का अचरज जरूर हुआ कि समुद्र में खड़े पानी के जहाज पर आर्मी के जवान और उनको सम्बोधित करता अधिकारी आर्मी से हैं जबकि सिचुएशन में वहां नेवी की उपस्थिति होनी चाहिए। हमारे निर्देशक और उनके सलाहकार ऐसी बारीकी से प्रायः वंचित रह जाते हैं जबकि अधिकतम काम सराहनीय है। 

मेघना, हमारे सिनेमा में अपने पिता की दक्षता और रचनात्मकता की एक महत्वपूर्ण प्रतिनिधि के रूप में उपस्थित फिल्मकार हैं और उनका काम भी रेखांकित किए जाने योग्य है, अतएव राजी देखना चाहिए, मुझे लगता है।

हां, भोपाल के वरिष्ठ रंगकर्मी कलाकार मित्र बालेन्द्र सिंह ने आलिया के ड्रायवर की भूमिका की है और एक दृश्य में मनोज रावत पान वाले के किरदार में दीखते हैं। दोनों को शुभकामनाओं के साथ देखकर अच्छा तो लगा ही.........

शनिवार, 12 मई 2018

फिल्म चर्चा/ एक सौ दो नाॅट आउट

मृत्यु भी परियों सी होनी चाहिए


एक सौ दो नाॅट आउट, उमेश शुक्ला निर्देशित फिल्म है जिन्होंने अक्षय कुमार के साथ एक व्यंग्यप्रधान सफल फिल्म ओह माय गाॅड बनायी थी। एक सौ दो नाॅट आउट, सौम्या जोशी के लिखे सफल गुजराती नाटक का फिल्मांकन है। उमेश ने दो बड़े सितारों अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर के साथ यह प्रयोग किया है जो काफी हद तक मौलिक और देर से पकड़ में आने के बावजूद उत्तरार्ध में प्रशंसनीय हो जाता है। हालाँकि समग्रता में फिल्म को देखा जाये तो इसके अच्छे लगने में प्रमुख रूप से फिल्म के संवाद, अनेक मर्मस्पर्शी दृश्यबन्ध, लक्ष्मण उतेकर का विवरणों तक पहुँच करने वाला छायांकन, बुधादित्य बैनर्जी का सम्पादन अपना योगदान रखते हैं।

अब तक कहानी खूब आम हो चुकी है, पिता एक सौ दो साल के हैं, ठीक-ठाक, पूरी चेतना और उस पूरी स्थूलता से परे जो हम साठ बरस की उम्र में अपने आसपास देखते हैं। बेटा साठोत्तरी है, जैसे अमिताभ बच्चन का व्यक्तित्व है, वे और जैसा ऋषि कपूर का व्यक्तित्व है, वे फिल्म में भी वैसी ही स्फूर्तता और स्थूलता को जीते हुए दिखायी देते हैं। कहानी इतनी सी है कि वयोवृद्ध पिता को बूढ़े होते अपने बैठे का हताश और रुग्ण होना नहीं सुहाता है, वह खासकर अपने पोते से अपने बेटे के रिश्ते और उसमें जमे स्वार्थ का जवाब देना चाहता है। पोता विदेश में रहता है, स्वार्थी, लोभी और मोहरहित है लेकिन वयोवृद्ध पिता अपने बूढ़े बेटे को बहुत चाहता है। पिता-पुत्र के दो स्तरों पर द्वन्द्व हैं लेकिन अमिताभ बच्चन अपने पूरे किरदार को अपनी दक्षताओं से ऋषि कपूर पर इस तरह अधिरोपित कर दिया है कि एक तरह से यह उनकी फिल्म बन गयी है। ऋषि कपूर का व्यक्तित्व और लिखा गया चरित्र दोनों बच्चन साहब से कमतर पड़ते हैं लेकिन फिल्म के अन्त में जिस तरह से हम एयरपोर्ट पर उनका बेटे के साथ संवाद देखते हैं, एक तरह से वे एक बड़ी रेंज लेकर इसमें प्रस्तुत होते हैं।

औलादों का अपने अविभावकों के साथ सलूक, इस पर समय-समय पर अनेक फिल्में बनी हैं। अवतार से लेकर बागबान तक। एक सौ दो नाॅट आउट तक आते-आते बेटे विदेशी नागरिकता लेकर वहाँ नौकरी या व्यावसाय करने लगे हैं। वे जड़ों में सिमट और संकीर्ण हो गये हैं लेकिन भ्रम की अमर बेल उनको एक अलग फंतासी में लिए जा रही है। सम्पत्ति छुड़ाकर सम्बन्धों को समाप्त कर लेने का यह निर्मम दस्तूर भयानक है, जिसकी ओर निर्देशक का इशारा है।

एक सौ दो नाॅट आउट लगभग पौने दो घण्टे की फिल्म है लेकिन मध्यान्तर तक यह फिल्म बिना सशक्त पटकथा के ही चलती है जो बिखरी-बिखरी लगती है। ऐसा लगता है कि स्वयं फिल्म के दो चरित्र, कलाकार इस बात से वाकिफ हैं लेकिन अपनी क्षमताओं के साथ वे मोर्चा मध्यान्तर के बाद ही सम्हालते हैं। आखिरी आखिरी में फिल्म जज्बाती होती है, तब हमारे सामने अचूक कैमरावर्क कुछ खूबियों के साथ हमें फिल्म से जोड़ता है, जैसे बेटे के कमरे में पिता का जाना, बरनी से कंचों का जमीन पर गिरना, गुल्लक हो हिलाकर उसमें भरे सिक्कों की ध्वनि से जुड़ना, बाहर बरसते पानी के दृश्य, कांच से बाहर बहता पानी और भीतर वयोवृद्ध पिता का अपने बेटे को, अल्जाइमर की शिकार होकर तिल तिल करती अपनी बहू की वेदना का याद दिलाना, कमाल का है, सब का सब मन पी जाता है वैसे ही जैसे दरवाजे में लगे कांच पर पानी।

यह सधे हुए, अनुभवी और अनेक बार अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने वाले कलाकारों की फिल्म है। अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर अमर अकबर अंथनी, नसीब, अजूबा आदि फिल्मों में साथ आ चुके हैं। लगभग सत्ताइस साल बाद दोबारा दोनों ने साथ कैमरे का सामना किया। शीर्षक से लेकर चरित्र तक अमिताभ बच्चन ने अपना जोर लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। मृत्यु के बारे में उनका कथ्य कि मौत भी परियों की तरह आनी चाहिए, संध्याकाल के मानस की एक बहुत संवेदनशील आकांक्षा होती है। ऋषि अपने चरित्र के हिसाब से बेहतर काम करते हैं, पिता के द्वारा ट्यूमर बताये जाने पर चेहरे पर आयी प्रतिक्रिया बहुत गहरी है। फिल्म का अन्तिम दृश्य यादगार है जहाँ वे धीरू का चरित्र निबाह रहे जिमित त्रिवेदी के साथ समुद्र के पास बैठे टेप रेकाॅर्डर में पिता की आवाज सुनते हुए आकाश में देखते हैं और बादल के एक बड़े से टुकड़े पर सजल नयनों से एकाग्र होते हैं। हाँ, अपनी भूमिका जिमित ने भी बखूबी निभायी है। मध्यान्तरपूर्व दस-पन्द्रह मिनट का सम्पादन मांगती यह फिल्म लोगों को फिर भी स्टार कास्ट, निर्देशक की साख और प्रचार-प्रसार से आकृष्ट कर रही है, यह भी कम बड़ी बात नहीं है।

शुक्रवार, 4 मई 2018

सिनेमा पर सर्वोत्‍तम लेखन के लिए विशेष उल्‍लेख के साथ नेशनल अवार्ड


3 मई को नई दिल्‍ली के विज्ञान भवन में 65वें नेशनल फिल्‍म अवार्ड का समारोह आयोजित हुआ. इस समारोह में सिनेमा पर सर्वोत्‍तम लेखन के लिए विशेष उल्‍लेख के साथ मुझे सम्‍मानित किया गया. यह सम्‍मान केन्‍द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री श्रीमती स्‍मृति जेड ईरानी द्वारा प्रदान किया गया, साथ में विभाग के राज्‍यमंत्री श्री राज्‍यवर्धन सिंह राठौड़ भी उपस्थित थे...