काबुलीवाला से अलग बायस्कोपवाला पर ही एकाग्र होने पर
बायस्कोपवाला ने ध्यान इसीलिए आकृष्ट किया कि उसमें डैनी को एक पूर्णाकारी भूमिका मिली है। डैनी किरदारों के चयन में सावधानी बरतते हैं और हर अनुबन्ध उनको स्वीकार हों, ऐसा नहीं होता। यह एक छोटी सी, सीमित बजट की फिल्म उन्होंने करनी चाही, इसके पीछे जरूर कुछ बात होगी, भावनात्मक भी शायद। तो पता लगा, वे बिमल राॅय की स्मरणीय फिल्म काबुलीवाला से प्रभावित रहे हैं और निर्देशक ने उनको यह भरोसा दिलाया कि यह कहानी उसने उसी से प्रभावित होकर अब के कोई बीस-तीस साल के कालखण्ड को सोचकर फिल्म बनाने के लिए चुनी है।
सम्बन्धों में संवेदना का अपना स्थान होता है। बिना संवेदना के सम्बन्ध यांत्रिक हो जाते हैं। यहाँ एक बेटी अपने पिता का फोन व्यस्तता के किसी क्षण में नहीं सुन पाती और पिता का जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है। पिता एक यात्रा पर था जो अधूरी रह जाती है और उस यात्रा में एक भावनात्मक संकल्प छिपा होता है। बेटी इस काम को हाथ में लेती है। अपने पिता के द्वारा पनाह पाये एक अफगान से वर्षों पूर्व भारत आ गये और यहाँ बायस्कोप दिखाकर बच्चों का मनोरंजन करने वाले वृद्ध से जुड़कर वो पहले उसके अतीत का पता लगाने निकलती है फिर उसकी बेटी का।
कहानी फिल्म की बहुत सीधी और तरल हो सकती थी लेकिन स्मरणों और अधूरी सूचनाओं की पुष्टि में अनेक बार पूर्वदीप्ति में जाना, कहानी से वर्तमान को जोड़ना और तारतम्यता देने में कहीं-कहीं चूक दिखती है। डैनी के किरदार के नजरिए से देखूँ तो इसमें डैनी के मौन, चुप्पी को बखूबी परदे पर प्रभाव पैदा करने में सफल हुआ है निर्देशक लेकिन एक अशान्त देश से निर्वासित जहाँ से वे छोटे-छोटे हिस्से सहेजे आ गये जो बायस्कोप के भीतर बच्चों की आँखों के सामने कौतुहल रचते हैं लेकिन छोटी उम्मीद से परदेस आ गया एक व्यक्ति फिर अपनी बेटी से मिल नहीं पाता।
राॅबी बासु अपने आपमें पूरी तरह संवेदनशील व्यक्ति नहीं है तभी वह एक बार पुलिस को रहमत अली के अपने घर में होने की सूचना देकर पकड़वा भी देता है। प्रायश्चितों में पता चलता है कि वह किसी भी प्रकार का अपराधी नहीं है। अविश्वास और उससे उपजा गुनाह और गुनाह का प्रायश्चित अजीब सी तिर्यक रेखाएँ हैं जो किसी भी मनुष्य को अविश्वसनीय बनाती हैं। एक ऐसा व्यक्ति जो अपने परिवार को खो देता है, मुल्क को खो देता है वह जिस देश में पनाह लेता है वहाँ भी उसकी मुलाकात अपने ही उस गुम आदमी से नहीं हो पाती जो छाया की तरह उसके साथ भी है और उससे परे भी। डैनी अपने को ठीक-ठीक रेखांकित करते हैं इस जगह पर जो उनकी इतने बरसों के अनुभव की सिद्धी है।
आदिल खान अपनी भूमिका से बहुत सारी जगहों को भरते हैं लेकिन मिनी के रूप में गीतांजलि थापा ने दूसरे क्रम पर प्रभावित करने की कोशिश की है। एकावली खन्ना को हाल में एक फिल्म में बड़ी अच्छी भूमिका में देखा है, यह श्यामला सुन्दर छबि अपने एक संवाद से प्रभावित करती है, मुझे जिन्दगी ने ऐसा दिया ही क्या है जिसके खो जाने का दुख करूँ। वैसे उनकी भूमिका छोटी सी है इसके बावजूद उनका संज्ञान लिया जाता है। भोला, बृजेन्द्र काला इधर निरन्तर अच्छी फिल्मों के अच्छे किरदार हैं, इस फिल्म में भी। फिल्म में आक्रान्त भीड़ के अंधेपन और उससे होने वाले हादसों को भी बखूबी चित्रित किया गया है, इसमें राफे मेहमूद की सिनेमेटोग्राफी का बहुत पास तक जाकर दिखाती है। दीपिका कालरा फिल्म को बहुत अच्छा सम्पादित करती हैं तभी नब्बे मिनट की यह फिल्म एक संवेदनशील अनुभव साबित होती है।
निर्देशक देव मेढ़ेकर ने रवीन्द्रनाथ टैगोर, काबुलीवाला और उसकी मीठी यादों को बायस्कोप वाला से दर्शकों में ताजा करने, पुनरावलोकन कराने का प्रयत्न किया है पर पटकथा में बहुत ज्यादा गुंजाइश नहीं मिल पायी है उनको बेहतर कर पाने की। गुलजार के गीत को संदेश शाण्डिल्य ने कोमलता से निभाया है। बैकग्राउण्ड म्युजिक में भी वे विष्ाय की गम्भीरता के खूब समझे हैं। निर्माता सुनील दोशी के साथ मिलकर राधिका आनंद में इसमें मेहनत की है पर बड़ी दर्शक संख्या तक जाने के लिए और सर्जनात्मक परिश्रम आवश्यक था।