शुक्रवार, 15 जून 2018

रजनीकान्‍त के राजनैतिक मन्‍तव्‍य अहम नेपथ्‍य

काला करिकलन

Kaala Karikaalan


ऐसा लगता है कि सलमान खान की महात्वाकांक्षी फिल्म रेस-3 के आ जाने से भी रजनीकान्त की पिछले सप्ताह प्रदर्शित फिल्म काला करिकलन की आय, सुर्खियों और चर्चाओं में कोई कमी नहीं आ पायेगी। तमिल, तेलुगु और हिन्दी तीन भाषाओं में यह फिल्म देश में आय के कीर्तिमान बना रही है। फिल्म के केन्द्र में महानायक रजनीकान्त हैं जिनकी सितारा छबि आरम्भ से अब तक निरन्तर निर्विवाद रही है दूसरे कुछ समय पहले बाकायदा राजनीति में आने की घोषणा करके उन्होंने अपना दल बना लिया है और उस नये आयाम में अपनी जड़ें सुनियोजित ढंग से जमा रहे हैं जहाँ उनके पूर्ववर्ती और दक्षिण भारत के कलाकार अन्ततः गये हैं और बारी-बारी से राज्य भी किया है। दक्षिण के कलाकारों में अब तक रजनीकान्त और कमल हसन ही राजनीति में आने से अपने आपको बचाये हुए थे तथापि उनकी राजनैतिक महात्वाकांक्षा अधिक समय तक ठहरी न रह सकी इसीलिए एक के पीछे एक आकर रजनीकान्त और कमल हसन दोनों ही राजनीति की आरामदेह लेकिन दूर से उतनी आसान न होकर भी अनन्य कारणों से खूब आकृष्ट करने वाली भव्य काल्पनिक कुर्सी पर आसीन होने के स्वप्न को सारी सक्रियता के साथ जी रहे हैं। 

रजनीकान्त पारिवारिक रूप से दक्ष और कुशल सन्तानों के पिता हैं और धनुष जैसे सुपर स्टार के ससुर भी लिहाजा जीवन के उत्तरार्ध में उनकी महात्वाकांक्षा वाला कैरियर सँवारने और बनाने में बेटी सौन्दर्या और दामाद धनुष की उत्साह से जुटे हैं और चूँकि सभी का क्षेत्र सिनेमा है और सिनेमा से ही रजनीकान्त को दक्षिण में असाधारण लोकप्रियता हासिल है, इस हद तक कि असंख्य दर्शक उनके लिए भावुक है, आगे के सारे स्वप्न भी सिनेमा के रस्ते ही साकार होंगे। काला करिकलन रजनीकान्त की इसी महात्वाकांक्षा का अपनी जनता के सामने लाया गया मन्तव्य है जिसको ध्यान से देखो, गहरे में जाओ तो आपको अपनी बहुत सी जिज्ञासाओं के हल मिलते चलेंगे और कुछ चीजें आप साफ-साफ पहचानेंगे भी। 


काला फिल्म को देखते हुए आपका ध्यान ऐसी किसी भी बॉलीवुड या मुम्बइया फिल्म से तुरन्त ही हट जाता है जो आपने पहले कभी देखी होंगी। इस बात को हमारे दर्शक भलीभाँति जानते हैं कि मुम्बइया सिनेमा की एक बड़ी निर्भरता लम्बे समय से दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग रही है। पचास के दशक से दक्षिण भारत से पारिवारिक सिनेमा अपनी सम्वेदनशील और भावनात्मक व्याख्या के साथ आया और उसने दर्शकों को प्रभावित किया। यह सिलसिला लगभग अस्सी के दशक तक चला है लेकिन बीच में अनेक व्यवधान भी आये जिनके कारण सामाजिक सरोकारों वाली फिल्म से हमारा दर्शक वर्ग वंचित भी रहा। अस्सी के दशक में दक्षिण से ही फूहड़ हास्य फिल्मों का जलवा स्थापित हुआ जो कुछ समय बरकरार रहा। उसी के समानान्तर तब अच्छी एक्शन फिल्मों के साथ रजनीकान्त, कमल हसन, मम्मूटी, मोहनलाल, विष्णुवर्धन, चिरंजीवी, नागार्जुन, व्यंकटेश जैसे नायकों को हमने देखा लेकिन दक्षिण और मुम्बइया सिनेमा के विरोधाभासों में इन नायकों को ज्यादा सम्भावना नहीं दिखी और वे अपनी भाषा की फिल्मों में ही कीर्तिमान रचते रहे। अभी पिछले एक दशक में फिर एक बार तेलुगु, तमिल, मलयालम और कन्नड़ सिनेमा की सुपरहिट फिल्मों के अधिकार खरीदकर उनको हिन्दी में बनाने का काम चल निकला है जिसमें सबसे ज्यादा सलमान खान और उनके बाद अक्षय कुमार लाभान्वित हैं। ऐसे अवसरों के बीच भी रजनीकान्त काबाली, शिवाजी, एंदिरन, रॉवन, कोच्चादियाँ, लिंगा आदि से ठसक के साथ दक्षिणोत्तर भारत के सिनेमाघरों में आते हैं और कौतुहल जगाकर चले जाते हैं। 

यह अपने आपमें वाकई दिलचस्प है। यह रजनीकान्त के व्यक्तित्व और उनके साथ फिल्में बनाने वाले लोगों की दक्षता ही कही जायेगी कि वे सूत्र साधते हुए इस अनोखे महानायक के व्यक्तित्व का लगभग चमत्कारिक फैलाव बखूबी किया करते हैं। यह सब कम अचरज से भरी बातें नहीं हैं कि चेन्नई में रजनीकान्त की फिल्म देखने मुम्बई या अन्य शहरों से लोग जहाज का टिकिट खरीदकर जाया करते हैं। रजनीकान्त की फिल्म का प्रदर्शन अनेक दफ्तरों में अवकाश सा माहौल बना दे, यह सब वे बातें हैं जिनको समझे जाने की जरूरत है। दक्षिण के सितारों की सबसे बड़ी खासियत यह रही है कि असाधारण लोकप्रियता के बावजूद वे अपने चाहने वालों, दर्शकों और आमजन की कामनाओं से लेकर पहुँच तक बड़े सहज रहे हैं। नफरत और मोहब्बत के सिद्धान्त बहुधा एकतरफा काम नहीं करते। उसमें प्राण फूँकने का काम सितारा छबियाँ भी करती हैं। अमिताभ बच्चन का उदाहरण हमारे सामने है, एक समय था जब 11 अक्टूबर को प्रतीक्षा के सामने हजारों प्रतीक्षार्थियों को प्रायः हताशा हाथ लगा करती थी, मौके-बे-मौके लाठीचार्ज अलग लेकिन आज वही अमिताभ बच्चन ट्विटर से लेकर अपनी सक्रियता के हर माध्यम पर प्रायः रविवार शाम की वे फोटो प्रचारित-प्रसारित करते हैं जो उनके अब के रहने वाले जलसा घर के सामने उपस्थित भीड़ की होती है और वे सहर्ष उन सबका अभिवादन करना अपना सौभाग्य समझते हैं। समय ने अब उनको वह उदारता दी है जिसमें पहले हाथ तंग रहा है।


रजनीकान्त की नयी फिल्म काला करिकलन को देखना इन्हीं सारे सन्दर्भों, समय और समयातीत अनुभवों के साथ महसूस करना विलक्षण अनुभव है। हमारे सामने काला करिकलन के रूप में एक ऐसा व्यक्तित्व है जो एशिया की सबसे बड़ी बस्ती का अविभावक है, उसका सबके साथ अभय का रिश्ता है। वह पुत्र से लेकर पौत्र तक के कुटुम्ब का मुखिया है और सबके बीच रहता है। दिलचस्प यह है कि मोहल्ले के बच्चों के साथ बल्ला साधे बालसुलभ बेईमानी भी करता है, परिवार के छुटपुट झगड़े, नोंकझोंक भी निपटाता है, खुद भी अपने छोटी-मोटी खामियों वाले स्वभाव पर पत्नी से लेकर, बेटे, बहुओं और पोते-पोतियों की चुहल में सहज रहता है लेकिन किसी तरह उसकी सम्वेदना के बारीक तन्तु बस्ती के एक-एक घर तक गये हैं। वो हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध, ईसाई, दलित और विभिन्न किस्म की कठिनाइयों और मुसीबतों से जूझ रहते लोगों का मसीहा है। दुख, तकलीफ और व्यथा से उसके सामने बिलख उठते बुजुर्गों, स्त्रियों और बच्चों के आँसू उसके तवे से गरम तपते कलेजे पर छन्न से जाकर गिरते हैं। कैसे वो सबका रक्षक है? वह तमाम आकांक्षाओं से परे है और आज के समय में निरर्थक रूप से अर्जित करते की विषय-वासना से दूर है इसीलिए सन्तुष्ट है। वह अपने होने से घर को भी जोड़कर रखता है और अपनी बस्ती को भी। उसकी शत्रुता उस खलनायक से है जो उसके संसार को असहाय भविष्य में बदल देना चाहता है।    

एक महानायक को इस तरह प्रस्तुत करने की खूबी कमाल की है। पटकथा लेखक और निर्देशक ने यह काम बखूबी किया है। गरीबों और अभावग्रस्त लोगों के जीवन और उनकी दुख-तकलीफों को वर्षों से अपने में छुपाये धारावी बस्ती को जब-जब उसके विहंगम में देखा, सिने-छायांकन की दाद देने का जी हुआ। वास्तव में जी. मुरली वर्धन को इसका श्रेय जाता है। हवाई फिल्मांकन के दृश्य वास्तव में अद्भुत और साहस से भरे हैं। मध्यान्तर के पूर्व मुम्बई के पुल पर खासी बरसात के प्रयोग के साथ हिंसक मारधाड़ का दृश्य अद्भुत है जिसे दम साधे बैठे देखना पड़ता है। रजनीकान्त विजयी योद्धा की तरह अपराधियों को मारते-काटते चले जाते हैं। धारावी का सेट जो कला निर्देशक रामलिंगम का कमाल है, चुस्त सम्पादन जो ए. श्रीकर प्रसाद का कौशल है, फिल्म को बड़ी तवज्जो पर ले जाते हैं। फिल्म का पार्श्व संगीत सन्तोष नारायणन ने तैयार किया है। ये सारी खूबियाँ काला को उसके महानायक के राजनीतिक भविष्य के लिए बखूबी पेश करने में सफल हैं। नाना पाटेकर आसान कलाकार नहीं हैं, रजनीकान्त के सामने, अकेले और दूसरे दृश्यों में अपनी गहरी छाप छोड़ते हैं। उनकी यह भूमिका, विधु विनोद चोपड़ा की पुरानी फिल्म परिन्दा का विस्तार है और आज के समय में बुरे आदमी की बौद्धिकता और उसके इस्तेमाल को भी रेखांकित करती है। यह बहुत सारे अच्छे सहयोगी कलाकारों की भी फिल्म है जिसे दो घण्टे चालीस मिनट देखना असहनीय या बोझिल जरा भी नहीं लगता। आप इसे एक हिंसक फिल्म कह सकते हैं पर इसका प्रस्तुतिकरण कमाल का है जो खासा रोमांचकारी भी है। 

शुक्रवार, 1 जून 2018

शो मैन अवधारणा की अनुपस्थिति के तीन दशक

राजकपूर / पुण्‍यतिथि पर स्‍मरण



2 जून हिन्दी सिनेमा के शीर्षस्थ अभिनेता और निर्देशक राजकपूर की पुण्यतिथि का दिन है। आज से तीस साल पहले 1988 में उनका निधन हो गया था। वे नईदिल्ली में दादा साहब फाल्के सम्मान ग्रहण करने आये थे, अचानक उनकी तबीयत खराब हो गयी थी और उनको आॅक्सीजन की जरूरत पड़ी थी। पुरस्कार लेने के बाद उनको तत्काल अस्पताल दाखिल करना पड़ा था जहाँ लम्बी चिकित्सा के बाद उनका निधन हो गया था। निधन से पहले उनकी अन्तिम निर्देशित फिल्म राम तेरी गंगा मैली थी जो 1985 में प्रदर्शित हुई थी। इस फिल्म के बाद वे भारत-पाकिस्तान की पृष्ठभूमि पर एक फिल्म हिना बनाना चाहते थे और इसके लिए नायिका की तलाश कर रहे थे। उनके नहीं रहने के तीन साल बाद बेटे रणधीर कपूर ने 1991 में हिना बनाकर प्रदर्शित की। यह पुत्र की पिता को श्रद्धांजलि थी। हिना का दर्शकों और प्रेक्षकों ने अपनी-अपनी तरह से आकलन किया था लेकिन तटस्थ होकर विचार किया जाये तो पिता के अधूरे सपने को पूरा करने में रणधीर कपूर ने अपनी क्षमताओं का पूरा प्रयोग किया था। 

एक निर्देशक के रूप में भले रणधीर बड़ी पहचान और प्रतिष्ठा के साथ स्थापित न हों लेकिन उन्होंने निर्देशन का अनुभव बड़ा पहले से प्राप्त कर रखा था। जब उन्होंने 1971 में कल आज और कल फिल्म का निर्देशन किया था तब इस बात के लिए उनकी सराहना हुई थी कि उन्होंने अपने परिवार की तीन पीढ़ियों के साथ फिल्म बनायी है। समय के साथ आने वाले बदलाव और सोच को लेकर उनका यह प्रयोग बुरा नहीं था बल्कि इस बार को भी रेखांकित किया गया था कि रणधीर ने अपने से कहीं अधिक काबिल अपने पिता और दादा को निर्देशित करने में आत्मविश्वास नहीं खोया। बाद में उन्होंने 1975 में धरम करम भी बनायी जो एक प्रकार से अभिनेता के रूप में राजकपूर के सम्मानजनक प्रस्थान बिन्दु की फिल्म थी। इस तरह हिना को पिता के लिए देखा रणधीर कपूर का कोई बुरा स्वप्न नहीं था।

राजकपूर के नहीं रहने से एक बड़ा शून्य तो लम्बे समय तक व्याप्त हुआ इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता। भारतीय सिनेमा के शो-मैन कहे जाने वाले राजकपूर में अपने लम्बे अनुभवों, एक क्लैप बाॅय से कैरियर की शुरूआत और अभिनेता तथा निर्देशक तक बन जाना, इतना ही नहीं बन जाने के बाद अपने आपको लगातार प्रमाणित करने रहना रचनात्मक स्तर पर, वह बड़ा योगदान रहा है। वे रूमान और यथार्थ दोनों धरातल पर अपने सिनेमा को गढ़ने में सिद्धहस्थ थे। उनकी विशेषता यह थी कि वे अपनी सीमाओं और क्षमताओं को भलीभाँति जानते थे। वे यदि बरसात, आवारा और श्री चार सौ बीस जैसी फिल्में स्वयं निर्देशित करते थे तो उनको पता होता था कि बूट पाॅलिश या जागते रहो बनाते हुए प्रकाश अरोरा और शम्भु मित्र को जिम्मेदारी दी जानी चाहिए। हालांकि सभी फिल्मों पर उनकी निगाह रहती थी तभी वे अपनी छाप छोड़ने के कामयाब होते थे। 

राजकपूर ने जीवन की क्षण भंगुरता वाले दर्शन को मेरा नाम जोकर जैसी एक बहुत महत्वपूर्ण फिल्म से प्रदर्शित किया था। जिस तरह से उन्होंने उस फिल्म को बनाया था, ऐसा लगता था अवचेतन में यह फिल्म नहीं बल्कि वह देह है जिसमें उनके प्राण बसते हैं। जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ और ऐ भाई जरा देख के चलो जैसे गाने में दुनिया में अपने होने के अर्थ को स्पष्ट तथा सार्थक करना और ऐ भाई जरा देख के चलो गाने में यह दर्शन कि यह दुनिय हमेशा बने रहने की जगह नहीं है, देखा जा सकता था। उनके द्वारा बनायी गयी ग्लैमर और उत्तेजना से भरपूर फिल्म बाॅबी वास्तव में मेरा नाम जोकर जैसी दार्शनिक फिल्म खारिज देने वालों को वह जवाब थी जिसमें उन्होंने लगभग सामाजिक भटकाव और मनोरंजन के बदलते आस्वाद की छिपी प्रवृत्ति वाली जिव्हा में पसन्द का स्वाद ही रख दिया था। बाद में सत्यम शिवम सुन्दरम, राम तेरी गंगा मैली में वे शो मैन बनते चलते गये। ऐसे शो मैन बन गये जो अपनी पहचान, समृद्ध प्रतिष्ठता और अपने होने के अर्थ का भी बादशाह है। 

यह सही है कि राजकपूर अस्थमा के अपने आकस्मिक आघात से उपजी परिस्थितियों के जानलेवा हो उस आयाम तक न  पहुँच सके लेकिन वे वो लकीर खींचने में कामयाब जरूर हुए जो बहुत श्रेष्ठता के साथ उनकी स्मृतियों को अमर रख सके। एक फिल्मकार के रूप मे उनकी पहचान, आज भी उनकी यादगार फिल्मों के माध्यम से है। अंधेरे में आँख खोलकर टकटकी बांधे सारी वर्जनाओं को त्याग देने को आतुर दर्शक के साथ प्रेम रोग और सत्यम शिवम सुन्दरम फिर राम तेरी गंगा मैली बनाकर उन्होंने उन आलोचकों को भी चुप कर दिया था जो राजकपूर को सीमाओं में रखकर देखते थे। वास्तविकता यही है कि वे एक महान फिल्मकार थे, एक महान कलाकार थे और उतने ही महान आम आदमी भी थे। समग्रता में उनकी आवाजाही अपने खास आदमी से अपने आम आदमी तक सहजतापूर्वक हो जाया करती थी और यह विशिष्टता से आज हमारे बहुतेरे फिल्मकार परे होकर रह गये हैं। 


मध्यप्रदेश में सिनेमा : यहाँ बनी फिल्‍मों से जुड़ा इतिहास और स्‍मृतियाँ



मध्यप्रदेश राज्य नैसर्गिक सम्पदा, ऐतिहासिक विरासत, अमर कथाओं और घटनाक्रमों की अविस्मरणीय और कालजयी थाती को समेटे ऐसे प्रदेश के रूप में अपनी पहचान रखता है जिसकी खूब देश-दुनिया को आकृष्ट करती है। कितने ही कलाकारों ने अपनी सर्जना में मध्यप्रदेश को समाहित किया है। चित्रकारों ने चित्र, शिल्पकारों ने शिल्प, संगीतकारों ने साधना और फिल्मकारों ने यहाँ की धरोहरों और स्थानों को अपने भव्य और महँगे कैमरों से देखा है और फिर यह सब नजारा देश और दुनिया के सामने आया है। यह सचमुच विशिष्ट है कि पिछले पचास से भी ज्यादा वर्षों में मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक विरासत अपनी मौलिक छायाछबियों में इस तरह प्रकाशमान हुई है कि दुनिया के अनेक देशों के पर्यटक, सैलानी, संस्कृतिप्रेमी यहाँ वर्ष भर आते-जाते रहते हैं। यह अनूठे सांस्कृतिक संयोग हैं कि मध्यप्रदेश की ऐतिहासिक विरासत, पर्यटन स्थलों पर संस्कृति के श्रेष्ठ उपक्रमों की पहचान न केवल जुड़ी हुई है बल्कि बरसों-बरस इतनी समृद्ध हो गयी है लोग ग्वालियर में तानसेन समाधि परिसर से तानसेन समारोह को, खजुराहो के कालजयी स्थापत्य और मन्दिरों को नृत्य समारोह से, मैहर को उस्ताद अलाउद्दीन खाँ संगीत समारोह से, पचमढ़ी को पचमढ़ी उत्सव से, माण्डू को माण्डू महोत्सव से, भोजपुर को भोजपुर महोत्सव से, साँची को महाबोधि उत्सव से, इन्दौर को अमीर खाँ समारोह से, उज्जैन को अखिल भारतीय कालिदास समारोह से, जबलपुर भेड़ाघाट को नर्मदा महोत्सव से, चित्रकूट को शरदोत्सव से पहचानते हैं, याद करते हैं और ऐसे अवसरों का साक्षी और प्रेक्षक बनने के लिए देश-दुनिया से मध्यप्रदेश आते हैं। 

अभी हाल ही में एक दिलचस्प संयोग देख रहा हूँ। नेशनल फिल्म अवार्डों की घोषणा हुई है। चन्देरी पर बनी श्रेष्ठ प्रमोशनल फिल्म को पुरस्कृत किया गया है जिसे गुणी फिल्मकार राजेन्द्र जांगले ने बनाया है। जांगले पाँचवीं बार अपनी किसी फिल्म के लिए नेशनल अवार्ड से सम्मानित हुए हैं। दिलचस्प यह है कि इसी बीच चन्देरी मुम्बई के बड़े निर्माण घरानों की निगाह में आया है। बैजू बावरा का इतिहास तो चन्देरी के नाम से अमर है ही, यहाँ की साड़ियाँ भारतीय परम्परा में उत्कृष्ट निर्माण और बुनावट के कारण देश-दुनिया में महिलाओं के लिए अनूठा पहनावा और चयन है। अभी पिछले चार माह में चन्देरी में दो फीचर फिल्मों का बड़ा हिस्सा शूट किया गया है। ये फिल्में हैं सुई धागा जो यशराज घराने की एक बड़ी फिल्म है। इसमें वरुण धवन और अनुष्का शर्मा काम कर रहे हैं। शरत कटारिया इसके निर्देशक हैं। दूसरी फिल्म है स्त्री जिसमें राजकुमार राव की अहम भूमिका है जिनको न्यूटन फिल्म के लिए नेशनल अवार्ड से सम्मानित किया गया है। स्त्री एक हाॅरर काॅमेडी जिसमें उनके साथ श्रद्धा कपूर काम कर रही हैं। अमर कौशिक इस फिल्म के निर्देशक हैं। इस तरह अचानक फिल्मकारों का चन्देरी को एकाग्र करना जितना दिलचस्प है उतना ही अहम भी। 

भोपाल, मध्यप्रदेश की राजधानी है। राजधानी और इसके आसपास के क्षेत्रों में भी लम्बे समय में अनेक महत्वपूर्ण फिल्मों का निर्माण हुआ। विशेष रूप से दो बड़ी फिल्मों का जिक्र जरूर किया जाना चाहिए जिनमें एक मर्चेण्ट आयवरी प्रोडक्शन्स की इन कस्टडी है जिसको उर्दू में मुहाफिज़ नाम दिया गया था। इस फिल्म में शशि कपूर, शाबाना आजमी, ओम पुरी, नीना गुप्ता आदि ने अहम भूमिकाएँ निभायीं थी। यह गुमनामी के शिकार एक शायर पर केन्द्रित थी। इस फिल्म का प्रदर्शन काल 1993 का है। भोपाल में एक महीने से भी ज्यादा समय तक इस फिल्म का बनना अपने आपमें शहर के लिए उपलब्धि था। पुराने भोपाल के अनेक स्थल गौहर महल, सैफिया काॅलेज, मोती मस्जिद, हाथी खाना आदि स्थानों पर इसका फिल्मांकन हुआ। हास्य अभिनेता जगदीप को एक बड़ी पहचान शोले फिल्म के सूरमा भोपाली किरदार से मिली थी। बाद में उन्होंने 1998 में इसी नाम से एक फिल्म बनायी तो उसके कई हिस्से और एक गाना फिल्माने वे भोपाल आये। इस फिल्म में जगदीप ने अनेक बड़े सितारों को मेहमान कलाकार के रूप में शामिल किया था। इसी प्रकार 2003 में अपनी फिल्म मकबूल बनाने विशाल भारद्वाज भोपाल आये जब रंगकर्मी और प्रसिद्ध आर्ट डायरेक्टर जयन्त देशमुख ने उनको इस फिल्म के मिजाज और व्यवहार के दृष्टिगत लोकेशन भोपाल सुझायी। इम्पीरियल सेब्रे होटल में लम्बे समय इस फिल्म की शूटिंग चली, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, इरफान, पंकज कपूर, पीयूष मिश्रा, तब्बू जैसे कलाकार यहाँ आये और रहे। 

भोपाल में ही गुलजार ने सुनील शेट्टी और तब्बू के साथ हू तू तू फिल्म बनायी। सुधीर मिश्रा ने हजारों ख्वाहिशें ऐसी फिल्म बनायी। विजयपत सिंघानिया ने वो तेरा नाम का एक बड़ा हिस्सा शूट किया। मणि रत्नम ने भी शूल और युवा फिल्मों को शहर में फिल्माया है। समानान्तर सिनेमा आन्दोलन के एक प्रमुख फिल्मकार प्रकाश झा जो दामुल, हिप हिप हुर्रे और मृत्युदण्ड से प्रतिष्ठित हुए, एक समय निर्णय करके भोपाल में 2009 में राजनीति के नाम से अपनी अगली फिल्म बनाने आये। नाना पाटेकर, नसीर, मनोज वाजपेयी, अजय देवगन, रणवीर कपूर, अर्जुन रामपाल, कैटरीना कैफ आदि अनेक बड़े सितारों के साथ उन्होंने यह खर्चीली फिल्म बनायी। इस फिल्म ने उनको जो लाभ दिया उसके बाद वे एक के बाद एक अनेक फिल्में यहाँ रहकर बनाते गये जिनमें आरक्षण, सत्याग्रह, चक्रव्यूह, जय गंगाजल आदि प्रमुख हंै। चक्रव्यूह के बड़े हिस्से के लिए झा ने पचमढ़ी लोकेशन भी चुनी थी। हालाँकि जिस क्रम और हड़बड़ी में वे बाद में काम करते गये, उनकी लगातार विफल होती फिल्मों ने फिलहाल कुछ समय के लिए उनको अवकाश लेने पर भी विवश कर दिया। 2012 के आसपास भोपाल के ही चर्चित फिल्म पटकथाकार और निर्देशक रूमी जाफरी ने अपने शहर में गली गली चोर है नाम की फिल्म का निर्माण किया। इसके बाद अनिल शर्मा एक फिल्म सिंह साहेब द ग्रेट बनाने 2013 में भोपाल आये। सनी देओल, प्रकाश राज इस फिल्म के अहम कलाकार थे। 

इधर एक ओर नासिर हुसैन जैसे एक बड़े निर्माता के नाम से भोपाल शहर की पहचान जुड़ती है, वहीं उनके वंश के होनहार फिल्मकार, अभिनेता आमिर खान ने भोपाल से कुछ किलोमीटर दूर एक गाँव में पीपली लाइव फिल्म का निर्माण किया। इस फिल्म को बड़ी चर्चा मिली थी। राजधानी का सिनेमा के हब के रूप में विकसित होना एक बड़ी बात रही है। राजधानी से आगे चलें तो पूरे मध्यप्रदेश में फिल्म निर्देशकों ने अनेक मनोरम स्थलों का चयन किया जो पर्यटन के लिहाज से भी उल्लेखनीय हैं। मणि रत्नम का दो फिल्में बनाने मध्यप्रदेश आने के बाद रावण बनाने ओरछा आना अहम है। समीर कर्णिक ने महेश्वर आकर यमला पगला दीवाना बनायी जिसमें धर्मेन्द्र, सनी देओल और बाॅबी देओल ने साथ काम किया। पचमढ़ी में प्रकाश झा ने चक्रव्यूह बाद में बनायी पहले प्रदीप कृष्ण नेशनल अवार्ड विनिंग फिल्म मैसी साहब बना चुके थे रघुवीर यादव और अरुंधति राय को लेकर। उन्होंने पचमढ़ी में ही एन इलेक्ट्रिक मून फिल्म भी बनायी। यहीं पर विख्यात अभिनेता, निर्देशक अमोल पालेकर ने थोड़ा सा रूमानी हो जायें फिल्म पूरी ही बनायी जो लगभग एक मर्मस्पर्शी कविता की तरह है। इसमें नाना पाटेकर, विक्रम गोखले, अनिता कँवर ने काम किया था। एन. चन्द्रा की फिल्म नरसिम्हा और सोहेल खान की फिल्म प्यार किया तो डरना क्या के सुपरहिट गाने हम से तुम दोस्ती कर लो और तुझे प्यार है मुझसे बोल दे भी इन्दौर में शूट किए गये। 

पुरानी स्मृतियों में समय-समय पर अनेक यादगार फिल्मों की शूटिंग होने और एक से बढ़कर एक सितारों के मध्यप्रदेश आगमन की बातें स्थायी उल्लेख में मिलती हैं। मध्यप्रदेश के साथ यह भी रहा है कि यहाँ से एक से बढ़कर एक कलाकार सिनेमा और मनोरंजन की दुनिया में समय-समय पर शीर्ष हस्ताक्षर हुए हैं। हम बड़े गौरव के साथ जाॅनी वाकर, सलीम खान, जावेद अख्तर, जया बच्चन, गोविन्द नामदेव, पण्डित रघुनाथ सेठ, किशोर कुमार, लता मंगेशकर आदि का नाम लेते हैं। एक समय में जाॅनी वाकर जो कि इन्दौर से मुम्बई गये थे, गुरुदत्त के निमंत्रण पर, वे अक्सर दिलीप कुमार, नौशाद आदि अपने मित्रों के साथ भोपाल और आसपास के क्षेत्रों में पिकनिक मनाने आते थे। ऐसी ही एक भोपाल यात्रा में दिलीप कुमार ने शकीला बानो भोपाली कव्वाल का गाना सुना था और उनको मुम्बई फिल्मी दुनिया आने का निमंत्रण दिया था। दिलीप कुमार के साथ भी मध्यप्रदेश की स्मृतियाँ बहुत पुरानी जुड़ी हैं। 1952 में फिल्मकार मेहबूब खान की फिल्म आन के एक गाने का फिल्मांकन इन्दौर में हुआ था, जहाँ एक शानदार बग्गी में दिलीप कुमार और नादिरा के साथ एक गाना, दिल में बसा के प्यार का तूफान ले चले फिल्माया गया था। इसी प्रकार होशंगाबाद के निकट बुदनी में 1957 में नया दौर फिल्म का क्लायमेक्स फिल्माया गया था। साथी हाथ बढ़ाना गाने के साथ हुई तांगा दौड़ में दिलीप कुमार के साथ जीवन, वैजयन्ती माला और जाॅनी वाकर ने भी हिस्सा लिया था। यादगार फिल्म दिल दिया दर्द लिया 1966 में बनी थी। इसकी शूटिंग माण्डू और उसके निकट के अनेक हिस्सों में हुई थी। भारत भूषण और निरुपा राय की फिल्म रानी रूपमति माण्डू में फिल्मायी गयी। माण्डू में ही गुलजार ने किनारा फिल्म के खूबसूरत और मर्मस्पर्शी प्रसंगों का फिल्मांकन किया था वहीं रतलाम के सैलाना में निर्देशक राजकुमार कोहली ने धर्मेन्द्र और शत्रुघ्न सिन्हा के बीच तलवारबाजी के दृश्य जीने नहीं दूँगा फिल्म के लिए शूट किए थे। 

हम हैं राही प्यार के, हम से कुछ न बोलिए......देव आनंद के इस गाने के फिल्मांकन के साथ ही इन्दौर-महू की याद हो आती है। इस गाने के पहले सवारी के लिए आवाज लगाते इन्दौर रेल्वे स्टेशन के पास देव आनंद, इन्दौर-महू साढ़े छः आना बोल रहे होते हैं। फिल्म नौ दो ग्यारह का यह दृश्य और देव आनंद का अन्दाज, जो भी प्यार से मिला, हम उसी के हो लिए कहाँ भुलाया जा सकता है! 

राजकपूर का मध्यप्रदेश से बड़ा लगाव रहा है। राजकपूर की ससुराल रीवा में थी। उनके ससुर करतारनाथ मल्होत्रा रीवा रियासत के डीआईजी थे। राजकपूर की बारात का रीवा आना और उस बारात में अशोक कुमार का आना, इसके साथ एक दिलचस्प घटना यह कि दुल्हन बनी कृष्णा को जब यह मालूम हुआ कि बारात में अशोक कुमार भी हैं तो उनको देखने के लिए ललक के साथ वे अपनी सहेलियों को लेकर घर की छत पर चली गयीं आती हुई बारात में अशोक कुमार को देखने। राजकपूर की अनेक फिल्मों के फिल्मांकन का साक्ष्य मध्यप्रदेश से जुड़ता है। राजकपूर की फिल्म आह जो 1953 का निर्माण है, आखिरी गाना जिसमें तांगा चलाते हुए पाश्र्व गायक मुकेश, तांगे में रोगी बनकर बैठे राजकपूर और छोटी सी ये जिन्दगानी रे चार दिन की जवानी तेरी, हाय रे.......इस गाने के पहले सतना का रेल्वे स्टेशन है और नायक तांगे में बैठकर रीवा जा रहा है। इसी प्रकार 1955 में श्री चार सौ बीस का, मेरा जूता है जापानी गाना जिसमें सड़क मध्यप्रदेश की है और रास्ता मुम्बई को जा रहा है। बासु भट्टाचार्य की फिल्म तीसरी कसम का नायक भी अपनी बैलगाड़ी के साथ मध्यप्रदेश की सड़कों पर दौड़ता है, राजकपूर को दर्शक देखते हैं बीना स्टेशन के पास छोटा स्टेशन कुरवाई जहाँ वो गाड़ीवान के रूप में सवारी के लिए प्रतीक्षारत हैं। यही नहीं 1960 की फिल्म जिस देश में गंगा बहती है में भेड़ाघाट की चट्टानंे और नर्मदा नदी गंगा नदी का प्रतीक बनकर दिखायी देती हैं। ओ बसन्ती पवन पागल गाती हुई नायिका जिसकी भूमिका पद्मिनी ने निभायी है। जब दूर-दराज से सैलानी जबलपुर, भेड़ाघाट और नर्मदा नदी को धुँआधार वेग में देखने आते हैं तो जिस देश में गंगा बहती है को याद न करें, ऐसा हो ही नहीं सकता। 

1963 की फिल्म मुझे जीने दो के निर्देशक के रूप में नाम भले मोनी भट्टाचार्य का गया था लेकिन वह थी पूरी तरह सुनील दत्त के नियंत्रण की फिल्म जो कि इसके निर्माता भी थे। इसकी शूटिंग मुरैना और चम्बल के बीहड़ों में हुई थी जो दस्यु जीवन और उसकी विडम्बनाओं के साथ ही परिस्थितियों के शिकार, बेहतर जीवन की चाहत रखने वाले इन्सान की बेबसी को चित्रित करती है। यह एक सशक्त फिल्म थी जिसमें सुनील दत्त ने अपने जीवन की उत्कृष्ट भूमिका निभायी थी। वहीदा रहमान इस फिल्म की गरिमामयी नायिका जिन पर फिल्माये गीत, नदी नारे न जाओ श्याम पैंया पडूँ, रात भी है कुछ भीगी-भीगी में उनकी असाधारण नृत्य प्रतिभा, कथक का प्रभाव और लच्छू महाराज की कोरियोग्राफी भुलाया नहीं जा सकता। 

समृद्ध इतिहास से लेकर उपलब्धियों भरे वर्तमान के बीच भोपाल में 1985 में फिर आयी बरसात फिल्म की शूटिंग के समाचार अखबारों में खूब आया करते थे। यह भी कि नायक सुनील लहरी भोपाल के ही हैं। जयप्रकाश के विनायक इस फिल्म के निर्देशक थे जिसमें नायिका बनी थीं अनुराधा पटेल। बाद में सुनील लहरी रामानंद सागर के बहुचर्चित धारावाहिक रामायण के लक्ष्मण के रूप में खूब चर्चित हुए। शाहरुख खान की अशोका इस सदी की पहली बड़ी और चर्चित फिल्म थी जिसके निर्देशक संतोष सिवन ने जबलपुर, खजुराहो, पचमढ़ी आदि से कुछ स्थानों का चयन फिल्मांकन के लिए किया था। करीना कपूर इस फिल्म की ग्लैमरस नायिका थीं। ऐसे ही दो साल पहले आशुतोष गोवारीकर ने अपनी फिल्म मोहेन्जो दाड़ो की शूटिंग जबलपुर और आसपास की। मध्यप्रदेश के पर्यटन स्थलों में प्रसिद्ध ग्वालियर, ओरछा, खजुराहो, माण्डू, पचमढ़ी, महेश्वर आदि से फिल्मों के अनेकानेक सन्दर्भ जुड़े हैं। कहने का तात्पर्य यह कि भारत का यह हृदयप्रदेश और भारतीय सिनेमा का इतिहास और उसका वर्तमान मिलकर एक ऐसे उल्लेखनीय संयोग को समृद्ध करते हैं जिसका सरोकार हम सबके जीवन और जमीन की उपलब्धियों से जुड़ा हुआ है। अभी हाल ही में लगातार अक्षय कुमार की दो सुपरहिट फिल्में टाॅयलेट एक प्रेमकथा और पैडमेन मध्यप्रदेश में फिल्मांकित हुईं। टाॅयलेट एक प्रेमकथा, सिनेमा के गुणी सम्पादक निर्देशक श्रीनारायण सिंह की पहली निर्देशकीय सफलता थी वहीं पैडमेन, दक्षिण के पारखी फिल्मकार आर. बाल्कि ने बनायी थी। इसके लिए श्रीनारायण सिंह होशंगाबाद, नर्मदा तट, सेठानी घाट आदि जगहों पर होली का एक गाना शूट कर ले गये थे। आर. बाल्कि ने पैडमेन के निर्माण में महेश्वर के नर्मदा तट का खूबसूरत उपयोग किया, वहाँ अक्षय कुमार खूब सायकिल चलाते हुए दिखायी देते हैं। 

देखा जाये तो इस पूरी नयी सदी के ये लगभग दो दशक मध्यप्रदेश के सांस्कृतिक निर्माण की दृष्टि से बहुमूल्य रहे हैं। जिस तरह से मध्यप्रदेश का विकास किया हुआ है। पथ मार्ग से यह राज्य पास-पड़ोस के सभी राज्यों से सुगमतापूर्वक जुड़ता चला गया है। यहाँ की यात्रा सुगम है, दिन-रात सड़क मार्ग पर लम्बी यात्रा निर्भय होकर की जा सकती है। मध्यप्रदेश के शहर जागते हुए हैं जहाँ लोगों की उपस्थिति से उनको पहचान मिली है। मध्यप्रदेश का आतिथ्य, मनोरम स्थल, आवभगत, सहयोग-सहायता और सांस्कृतिक सहभागिता और सरोकारों में प्रत्येक आने वाले के अनुभव उनकी यादगार रहे हैं। 

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