सोमवार, 30 जुलाई 2018

प्रेमचन्द की कृतियाँ और हिन्दी सिनेमा

हिन्दी साहित्य में प्रेमचन्द के स्थान को लेकर हमेशा ही एक आदरभाव रहा है। प्रेमचन्द की मूल रचनाएँ और उनकी व्याख्या तथा विश्लेषण ने पीढ़ियों को विचार करने के लिए बहुत कुछ दिया है। साहित्य और परम्परा में वे निरन्तर अपने प्रभाव और महती योगदान के लिए स्मरण किए जाते हैं। उनके जन्म और निधन की तिथियाँ कहीं न कहीं हमें आत्मावलोकन के लिए विवश करती हैं क्योंकि प्रेमचन्द के नाम जुड़ी हिन्दी भाषा की अस्मिता के अपने बड़े संकट बरसों से खड़े हैं बल्कि बढ़ रहे हैं। नयी पीढ़ी के सामने हिन्दी को लेकर ही तमाम कठिनाइयाँ हैं, फिर हिन्दी साहित्य और साहित्यकारों के प्रति भी उतनी ही नामालूम किस्म की अज्ञानता। ऐसे दृश्य में अकेले प्रेमचन्द ही नहीं बल्कि हिन्दी साहित्य की ही स्थितियों पर निरन्तर विचार करने की गुंजाइशें बनती हैं।

प्रेमचन्द का साहित्य उन्नीसवीं सदी के अवसान काल और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के बीच सृजित है। कथाकार प्रेमचन्द अपने देशकाल और विद्रूपताओं से आक्रान्त रहे हैं। कहानी का माध्यम उनके लिए देखी-जानी घटनाआें के सच को लिखने की तरह ही रहा है। वे गरीबी में भी मानसिक दारिद्र्य की स्थितियों को चित्रित करते हैं। उनके किरदार शोषित भी होते हैं और खुद अपने पैर भी अपनी ही कुल्हाड़ी से काटते हैं। पराधीन भारत में भारतीयों की स्थितियों को लेकर उनका लेखन मुखर है वहीं विदेशी हुकूमत के देश में जमे रहने तथा हमारे देश में ही उसके कारक तत्वों को भी निर्भीक होकर उन्होंने शब्दों के माध्यम से चित्रित किया था। उनका साहित्य सिनेमा जैसे बीसवीं सदी के चमत्कारिक माध्यम के लिए था या नहीं यह दूसरे प्रश्न हैं मगर भारत में सिनेमा का आगमन स्वयं उनके लिए भी आकर्षण की वजह बना था।

प्रेमचन्द का साहित्य प्रमुख रूप से बीसवीं सदी के आरम्भ और लगभग तीन दशक की स्थितियों के आसपास घटनाक्रम, देखी-भाली कथाएँ, सुने हुए दृष्टान्त और मंथन किए मूल्यों का दस्तावेज है। भारत में सिनेमा का आगमन 1913 का है। प्रेमचन्द ने अपनी परिपक्व उम्र और अवस्था में सिनेमा के जन्म और उसकी सम्भावनाओं को देखा था। कहीं न कहीं अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करते सिनेमा की शक्ति को भी वे महसूस करते थे। दादा साहब फाल्के जब राजा हरिश्चन्द्र बना रहे होंगे तब प्रेमचन्द की उम्र तीस साल से जरा ज्यादा रही होगी। प्रेमचन्द को अपने लमही और बनारस से सिनेमा का सुदूर मुम्बई किस तरह आकृष्ट कर रहा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है!

सिनेमा का आकर्षण और बाद में या जल्द ही उससे मोहभंग होने के किस्से साहित्यकारों-कवियों के साथ ज्यादा जुड़े हैं। प्रेमचन्द से लेकर भवानी प्रसाद मिश्र, अमृतलाल नागर और नीरज तक इसके उदाहरण हैं। साहित्यकार अपनी रचना को लेकर अतिसंवेदनशील होता है। वह फिल्मकार की स्वतंत्रता या कृति को फिल्मांकन के अनुकूल बनाने के उसके प्रयोगों को आसानी से मान्य नहीं करना चाहता। विरोधाभास शुरू होते हैं और अन्त में मोहभंग लेकिन उसके बावजूद परस्पर आकर्षण आसानी से खत्म नहीं होता। हमारे साहित्यकार, सिनेमा के प्रति आकर्षण के दिनों में कई बार मुम्बई गये और वापस आये हैं। आत्मकथाओं में साहित्यकारों ने मायानगरी मुम्बई की उनके साथ हुए सलूक पर खबर भी ली है लेकिन सिनेमा माध्यम को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। साहित्यकार-कवि कड़वे अनुभवों के साथ अपने प्रारब्ध को लौट आये और सिनेमा अधिक स्वतंत्रता के साथ उनके साथ हो लिया जो उससे समरस हो गये।

प्रेमचन्द के साहित्य पर हीरा मोती, गबन, कफन, सद्गति और शतरंज के खिलाड़ी जैसी कुछ फिल्में बनी हैं मगर हमें बाद की सद्गति और शतरंज के खिलाड़ी याद रह जाती हैं क्योंकि ये ज्यादा संजीदगी के साथ बनायी गयी थीं और इसके बनाने वाले फिल्मकार सत्यजित रे एक जीनियस व्यक्ति थे जिनके नाम के साथ एक ही विशेषण नहीं जुड़ा था क्योंकि अपनी फिल्मों के वे लगभग सब कुछ हुआ करते थे। रे ने अपनी सारी फिल्में बंगला में ही बनायी थीं। उनके बारे में एक बातचीत में डॉ. मोहन आगाशे जो कि हिन्दी और मराठी सिनेमा तथा रंगमंच के शीर्ष कलाकार हैं, ने कहा था कि माणिक दा के लिए श्रेष्ठ काम का पैमाना उनके अपने सहयोगी लेखक, सम्पादक, छायांकनकर्ता, सहायक निर्देशक हुआ करते थे जिन पर उनका विश्वास यह होता था कि जिस तरह की परिकल्पना किसी फिल्म को लेकर उनकी है, उसे साकार करने में ये सभी पक्ष उसी अपेक्षा के साथ सहयोगी होंगे। 

सत्यजित रे ने शतरंज के खिलाड़ी का निर्माण 1977 में किया था। उनके लिए बारह पृष्ठों की एक कहानी को दो घण्टे से भी कुछ अधिक समय की फिल्म के रूप में बनाना कम बड़ी चुनौती नहीं था। वे यह फिल्म हिन्दी में बनाने जा रहे थे। वे उन्नीसवीं सदी के देशकाल की कल्पना कर रहे थे। अपनी इस फिल्म को उसी ऊष्मा के साथ बनाने के लिए लोकेशन का ख्याल करते हुए उनके दिमाग में कोलकाता, लखनऊ और कुछ परिस्थितियों के चलते मुम्बई कौंध रहे थे। वाजिद अली शाह के किरदार के लिए अमजद खान उनकी पसन्द थे। मीर और मिर्जा की भूमिका के लिए सईद जाफरी और संजीव कुमार को उन्होंने अनुबन्धित कर लिया था। विक्टर बैनर्जी, फरीदा जलाल, फारुख शेख, शाबाना आजमी सहयोगी कलाकार थे। वाजिद अली शाह के साथ एक बराबर की जिरह वाली महत्वपूर्ण भूमिका के लिए रे ने रिचर्ड एटिनबरो को राजी कर लिया था जिन्होंने उट्रम के किरदार को जिया था। बंसी चन्द्र गुप्ता उनके कला निर्देशक थे जिनको स्कैच बनाकर रे ने काम करने के लिए दे दिए थे और कहा था कि सीन दर सीन मुझे यही परिवेश चाहिए। आलोचकों ने शतरंज के खिलाड़ी को बहुत सराहा था यद्यपि कुछ लोगों को कथ्य के अनुरूप फिल्म का निर्माण न होने से असन्तोष भी रहा लेकिन आलोच्य दृष्टि रे के पक्ष में रही और उन्हें इस फिल्म के लिए नेशनल अवार्ड भी मिला। 


प्रेमचन्द ने शतरंज के खिलाड़ी में मीर और मिर्जा को केन्द्रित किया है, इधर सत्यजित रे ने फिल्म में वाजिद अली शाह और जनरल उट्रम के चरित्रों को महत्वपूर्ण बनाया है। फिल्म में वाजिद अली शाह की सज्जनता के साथ-साथ राजनीतिक समझ की कमी को भी निर्देशक ने रेखांकित किया है। अंग्रेज जैसे चतुर और खतरनाक दुश्मन की शातिर कूटनीतिक चालों को समझ सकने में अक्षम भारतीय राजनैतिक मनोवृत्ति भी फिल्म में सशक्त ढंग से उभरती है। हमारे दर्शक सिनेमा में सूक्ष्म ब्यौरों तक नहीं जाते, कई बार सिनेमा की विफलता का यह भी एक कारण होता है। शतरंज के खिलाड़ी के माध्यम से निर्देशक ने प्रेमचन्द की कहानी को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयत्न किया है। यह भले पैंतीस साल पहले की फिल्म हो लेकिन शतरंज के खिलाड़ी पुनरावलोकन की भी फिल्म है, आज भी हम उसे देखेंगे तो प्रभावी नजर आयेगी।

सद्गति एक घण्टे की फिल्म थी। इसे सत्यजित रे ने दूरदर्शन के लिए बनाया था। यह लगभग बावन मिनट की फिल्म थी जिसको देखना अनुभवसाध्य है। निर्देशक ने इस फिल्म को कहानी की तरह ही बनाया है, एक-दो दृश्यों के अलावा पूरी फिल्म प्रेमचन्द की कहानी के अनुरूप ही है। स्वयं निर्देशक का मानना था कि यह कहानी ही ऐसी है जो इसके सीधे प्रस्तुतिकरण की मांग करती है। सत्यजित रे ने इसे उसी ताप के साथ प्रस्तुत करके उसकी तेज धार को बचाये रखा। मैंने इसके तीखेपन को जस का तस प्रस्तुत करने का काम किया। सद्गति की विशेषता यह भी है कि फिल्म में कहानी में प्रयुक्त संवाद भी ज्यां के त्यों रखे गये हैं। फिल्म के लिए रे ने पात्रों का चयन भी अनुकूल ही किया था। ओम पुरी, स्मिता पाटिल, मोहन आगाशे प्रमुख भूमिकाओं थे। यह फिल्म दो सप्ताह के शेड्यूल में पूरी बन गयी थी। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के निकट इसका फिल्मांकन हुआ था। 

वास्तव में प्रेमचन्द का साहित्य फिल्मकारों के लिए उतना आकर्षण का केन्द्र नहीं रहा जितने प्रयोग रंगमंच में उनके साहित्य को लेकर हुए हैं। प्रेमचन्द के उपन्यास और कहानियों पर नाटक ज्यादा हुए हैं, फिल्में कम बनी हैं। यह फिर भी आश्चर्य होता है कि बंगला के एक और महत्वपूर्ण फिल्मकार मृणाल सेन ने कोई पैंतीस साल पहले तेलुगु में कफन कहानी पर केन्द्रित ओका ओरि कथा फिल्म का निर्माण किया था। टेलीविजन पर निर्मला और कर्मभूमि पर धारावाहिक बने। विख्यात फिल्मकार गुलजार ने भी प्रेमचन्द की कहानियों पर तहरीर मुंशी प्रेमचन्द की धारावाहिक का निर्माण किया था जिसकी कई कहानियों में पंकज कपूर ने केन्द्रीय भूमिकाएँ निभायी थीं।

आज के समय में प्रेमचन्द की कहानियों के फिल्मांकन का जोखिम शायद ही कोई उठाना चाहे क्योंकि हमारे दर्शकों के बीच मनोरंजन का एक नया शास्त्र विकसित हुआ है। उसे टेलीविजन चैनलों में रंगे-पुते और जमाने के चलन के हिसाब के निहायत अविश्वसनीय और अकल्पनीय धारावाहिकों को देखने का अजीब सा चाव पैदा हो गया है। फिल्म बनाना तो सम्भवतः आज के फिल्मकारों को सबसे बड़ा जोखिम लगे, निर्वाह की दृष्टि से, परवाह की दृष्टि से और व्यवसाय की दृष्टि से भी जो अब सबसे बड़ी सन्देह भरी चुनौती है।



शनिवार, 7 जुलाई 2018

तर्कसंगति में अप्रासंगिक किन्तु निर्देशकीय कौशल की सफल फिल्म

संजू



रविवार का दिन था। शहर के मॉल्स में इस फिल्म के टिकिट आसानी से नहीं मिल पा रहे थे। अच्छी खासी बुकिंग थी। फिल्म देखने दो लोग गये थे मगर दोनों सीट अलग-अलग थीं। मॉल्स में पार्किंग की भी जगह उपलब्ध नहीं थी, कार्य पर तैनात गार्ड दो-‘दो, तीन-तीन गाड़ियाँ छोड़ रहे थे। सिनेमाहॉल का आलम यह था कि लगभग दो घण्टे चालीस मिनट लम्बी फिल्म को दर्शक खासी चुप्पी के साथ देख रहे थे, न ताली, न सीटी न ही किसी किस्म का ओछा हल्ला-गुल्ला। यह क्या था, एकाग्रता या बंध कर रह जाने की विवशता जिसने और कुछ सूझने ही न दिया।

संजू फिल्म का अनुभव इसी तरह का है। साल भर पहले जब राजकुमार हीरानी भोपाल आये थे, पुरानी जेल को भीतर से देखने तब उनके साथ एक घण्टे रहने और अनौपचारिक बातचीत का अवसर मिला था। एक-एक करके तीन-चार सफल और कमाऊ के साथ-साथ प्रशंसनीय फिल्में बना चुका यह आदमी छरहरे बदन का, मुस्कुराहट स्थायी भाव और नपी-तुली बात करने वाला। बहरहाल जेल पसन्द आ गयी और फिल्म के उत्तरार्ध का एक बड़ा हिस्सा हीरानी ने यहाँ फिल्माया।

संजू यों हर आम दर्शक की जानी-समझी जाने वाली कहानी है या कह लीजिए, यथार्थ है। लगभग तीस साल तक सुर्खियों में रहने वाला घटनाक्रम और उसका यह एक प्रमुख पात्र। सिनेमा जैसी लाइम लाइट वाली विधा में अपने को आजमाने वाला और अपने समय के श्रेष्ठ नायक और नायिका का पुत्र। आरोपी से अपराधी और अपराधी से सजा काटकर अपने संसार में लौटने वाला शख्स जिसका मूड, अन्दाज और बरताव वही है जो पहले था, बाद में भी वैसा ही। भावनात्मकता, संवेदनशीलता, आवेग, उद्वेग यह सब मनुष्य स्वभाव की तरह ही आते-जाते। 

वह दृश्य दर्शकों के सामने एक नासमझ और अविवेकी युवा की छबि को सामने रखते हैं जो बिना कुछ हासिल किए अपने पिता की सराहना और तारीफ की कामना करता है, वह भी उस पिता से जिसका जीवन ही संघर्ष, त्याग और आदर्श स्थापित करने में बीता हो। चरित्र चित्रण में विभेद हैं। निर्देशक ने पटकथा लेखक से जस का तस लिखवाकर उसको दृश्यों में बाँट भी दिया है। खामियों को कीर्तिमान या शेखी की तरह प्रस्तुत करना निरी बेवकूफी है, पर यह समझ आये तो पटकथा का हिस्सा नहीं बनती। निर्देशक फिल्म बनाते हुए सावधान बहुत है, इसीलिए नायक के जीवन के उन औरों को नहीं छूता जो जोखिमपूर्ण हो सकते हैं। वह सुविधानुसार आधी हकीकत, आधा फसाना बना रहा है और उसकी छूट आरम्भ में ही लिए ले रहा है।


फिल्मकार का जोर इस बात में है कि वो विवादास्पद नायक की शख्सियत पर इतने वर्षों मेंं हुए तमाम आक्रमणों और अतिक्रमणों को छुटाता चले, आखिर वह कृतज्ञ है क्योंकि कैरियर की शुरूआत में इसी नायक के साथ दो फिल्में एक के बाद एक करते हुए वह प्रतिष्ठापित हुआ था। वह यहाँ पर उस महानायक के चरित्र को गढ़ते हुए भी लापरवाह है जो मुझे जीने दो, यादें, ये रास्ते हैं प्यार के, रेशमा और शेरा और दर्द का रिश्ता जैसी फिल्म बनाता है, वह जो देश की पदयात्रा करता है, वो जो निर्विवाद सांसद है, वो जो मुम्बई शहर का जिम्मेदार शेरिफ रहा है, वो जो देश पर आयी हर आपदा पर शहर में अपने साथी कलाकारों को लेकर धन संग्रह के लिए निकलता है, वो जो सीमा पर जाकर जवानों का मनोरंजन करता है, वो जिसका आदर हर विचारधारा का आदमी करता है। बावजूद इसके कि उसे इस बात का श्रेय भी है कि एक अरसे बाद वो ही उनको अपनी पहली फिल्म में जादू की झप्पी वाले प्यारे और दिलचस्प अन्दाज में लेकर आया था। निर्देशक इस चरित्र को ठीक से स्थापित नहीं करता। माना कि परेश रावल एक कलाकार के रूप में बहुत गुणी और प्रतिभासम्पन्न हैं लेकिन छः फीट एक इंच लगभग लम्बे और मध्यम स्वर की अत्यन्त स्वच्छ आवाज वाले सुनील दत्त को उच्च स्वर और अपेक्षाकृत छोटे कद के कारण बड़ी मेहनत के बावजूद साकार नहीं कर पाते। 

संजय दत्त के आरोपी बनने से लेकर सुनील दत्त की जिन्दगी तक लगभग पन्द्रह साल उनके जीवन की बड़ी वेदना और अशान्ति के रहे हैं, उसके बावजूद वे सामाजिक और सार्वजनिक जीवन में सहज और व्यवहारकुशल बने रहे बिना धैय-धीरज खोये। यह पक्ष हीरानी ने इसलिए विस्मृत कर रखा होगा क्योंकि इससे उनके बाजार के समृद्ध होने की गुंजाइश नहीं थी। ऐसा ही कुछ नरगिस की भूमिका निबाहने वाली मनीषा कोइराला के साथ हुआ है। वे दृश्य में आती ही तब हैं जब बीमार हो चुकी होती हैं। उनका चरित्र भी एक नायाब अभिनेत्री और मदर इण्डिया जैसी सशक्त फिल्म से भारतीय सिनेमा में अपनी क्षमताओं का इतिहास लिखने वाली कलाकार के रूप में, विवाह के बाद सामाजिक जीवन और परिवार की जिम्मेदारी सम्हालने वाली पत्नी और माँ के रूप में उनकी पूर्वपीठिका रची ही नहीं गयी। परिवार के सामूहिक छायाचित्रों और स्वयं के एकल छायाचित्रों में मनीषा की छबि नरगिस की छबि के निकट पहुँचती है। 

यह एक संवेदनशील संयोग भी कैसा है कि अपने जीवन में मनीषा को भी ऐसी ही भयावह बीमारी का सामना करना पड़ा और वे उस बीमारी से जूझकर, जीतकर एक विजेता के रूप में दुनिया में स्वस्थ और सकुशल बनी हुई हैं, इसके बावजूद उनका चेहरा, उस पीड़ा और व्यथा का साक्ष्य नजदीक के दृश्यों में व्यक्त भी करता है। उनकी आँखों के पास सलवटें मार्मिक आभास कराती हैं। गाने वाले दृश्य में पहाड़ के ऊपर उनकी नृत्य मुद्रा बहुत ही भावपूर्ण और मनमोहक है और उन्होंने जितना किरदार उनका लिखा गया, उसको दोहरे वजन के साथ निभाया भी है।  

रणवीर कपूर को संजय दत्त होने में जितनी मेहनत करनी पड़ी, उससे अधिक उन्होंने युक्तियों का प्रयोग किया है। उन्होंने संजय दत्त की चाल की नकल की है, भँवें चढ़ाकर, आवाज़ में वो असर पैदा करते हैं और इतना ही वे कर भी सकते थे। पटकथा में महिमा मण्डन के लिए तमाम अतिरेक हैं, चालू दर्शकों को हँसाने के लिए सम्बन्धों की संख्या कोई शेखी बघारने जैसा काम नहीं करती बल्कि हतप्रभ करती है, खासकर हीरानी जैसे निर्देशक की फिल्म में। इसी तरह सहवास के चालू और घटिया अर्थ घपाघप का भी बार-बार और लगभग बेजा इस्तेमाल इस फिल्म को हल्का बनाता है। यह फिल्म अपने नायक को विवेकहीन अधिक साबित करती है जो आसानी से मादक पदार्थ तुरन्त बने मित्र से स्वीकार करता चला जाता है। दर्शकों के सामने यह फिल्म खुद अपने आपमें एक सवाल है कि इतनी भूलों और गिरते चले जाने की पराकाष्ठा को देखने और जानने के बाद आप किसी व्यक्ति के विषय में किस तरह सकारात्मक रह सकते हो? वह व्यक्ति जो मृत्युशैया पर पड़ी माँ के प्रति भी संवेदनशील नहीं है और एक आदर्श पिता के प्रति तमाम विद्रोही भाव रखता है। 

इस फिल्म में अनेक नायिकाएँ हैं, मनीषा कोइराला, दिया मिर्जा, सोनम कपूर, करिश्मा तन्ना आदि सभी की अपनी-अपनी तरह उपस्थिति है। मनीषा और दिया प्रमुखता से हैं जबकि सोनम और करिश्मा उपकृत नायिकाओं सी। सहायक कलाकारों में विकी कौशल, कमलेश की भूमिका में और जिम सरभ जुबिन मिस्त्री की भूमिका में सकारात्मक-नकारात्मक छबियों के उचित प्रभाव छोड़ते हैं। विकी कौशल के बारे में यह कहा जा सकता है कि इस फिल्‍म मेंं उनकी मेहनत उनको और अनेक अच्‍छी फिल्‍मों तक ले जायेगी। मेहमान उपस्थिति में महत्वहीन रहे पीयूष मिश्रा और तब्बू, अरशद, बोमन ईरानी और महेश मांजरेकर बस दृश्य भर के लेकिन अंजन श्रीवास्तव पाँच मिनट की अपनी भूमिका में दृश्य लूट ले जाते हैं। इसी प्रकार सयाजी शिन्दे ठेठ देसी अन्दाज में एक विवादास्पद अपराधी को बखूबी जीते हैं। इसी से यहाँ यह बात ध्यान में आती है कि कुछेक कलाकार प्रसिद्ध व्यक्तियों की बातचीत, चालढाल और अन्दाज की खूब नकल उतारते हैं, यह बात वे दर्शक समझेंगे जो उन मूल व्यक्तियों को अपनी देखी-सुनी स्मृतियों में रखते होंगे। 

कुल मिलाकर संजू इस वक्त की एक चर्चित फिल्म है जिसने इस समय खूब बाजार लूटा है, न केवल बाजार लूटा है बल्कि पिछली बड़ी चर्चित फिल्मों के धन संग्रह को भी चिढ़ाने और जीभ दिखाने का काम किया है। रणवीर कपूर पिछली कुछेक फ्लॉप फिल्मों से जिस तरह छिल गये थे, यह ठण्डा मलहम कही जा सकती है। राजकुमार हीरानी के खाते में एक और बाजार पर काबिज होने वाली फिल्म चढ़ गयी है जिससे वे अपने गुरु विधु विनोद चोपड़ा और मित्र संजय दत्त के प्रति अपने उपकृत होने का फर्ज अदा करेंगे लेकिन संजू फिल्म की अपनी प्रासंगिकता, किसी भी सिनेमा के बनने के अर्थ और महत्व की दृष्टि से अनेक खामियों और आलोचनाओं के कारण भी चर्चित बनी रहेगी जिसमें से एक सबसे मौजूँ तो यही लगता है कि राजकुमार हीरानी संजू की जगह सुनील बनाते, एक बड़े अभिनेता, निर्देशक, सार्वजनिक जीवन में आदर्श उपस्थित करने वाले एक कलाकार के जीवन और व्यक्तित्व को रेखांकित करते जो मदर इण्डिया का वो बिरजू है जिसके लिए उसकी माँ भगवान है, वही माँ जिसकी बन्दूक से वह मरता है और मरते समय उसके हाथ में माँ का कंगन है। ऐसे कलाकार, व्यक्तित्व के जीवन का एक संत्रासद पक्ष उसके बेटे का एक गुनाह में गहरे फँस जाना होता और उससे मुक्त होने की यात्रा जो अब सम्पन्न हो चुकी है।
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