गुरुवार, 9 अगस्त 2018

परिवार होने के अर्थ को प्रकट करने वाली एक संवेदनशील फिल्‍म

सूरमा




शाद अली की फिल्म सूरमा देखकर आया हूँ। ट्विटर में सुप्रतिष्ठित सिने विश्लेषक भावना सोमैया ने इस फिल्म को लेकर जो पहला विचार दिया था, वही मुझे थिएटर तक ले गया।

इधर पिछले दो-तीन सप्ताहों में अनेक फिल्में रिलीज हुई हैं, उनमें सूरमा एक फिल्म ऐसी है जिसे देखना चाहिए। जिन्होंने देखा होगा, बात से सहमत होंगे, अब चूँकि फिल्म हटने को है, इक्के-दुक्के शो कहीं लगे हुए हैं, फिर भी हॉल का दर्शकों से भरा होना इस बात का संकेत है कि अच्छा सिनेमा बहुत सारे आडम्बरों का मोहताज नहीं होता।

सूरमा एक हॉकी खिलाड़ी सन्दीप सिंह की जिन्दगी और जीवट की कहानी है। यह एक सच्ची घटना से प्रेरित है। यह निर्देशक की प्रतिभा है कि उन्होंने इसमें अनावश्यक मसाला नहीं लगाया है। एक सरल प्रवाह की तरह इस फिल्म को प्रस्तुत कर दिया गया है जिसके कारण ही यह आपके मन तक आ जाती है और खिड़की पकड़कर खड़ी हो जाती है। एक परिवार है जिसमें दो भाई हैं, बड़ा हॉकी सीख रहा है, छोटे का उससे कोई लेना-देना नहीं है सिवाय भाई के संग बने रहने और उसको कम्पनी देने या अपनी अलाली काटने के। हॉकी खिलाड़ी नायिका से एक बार का मिलना उसे हॉकी में ले आता है, अब बड़ा भाई इस रुझान से हटता है और खिलाड़ी बनाने में भाई की मदद करता है।

नायक का हॉकी खिलाड़ी बन जाना, प्रसिद्ध हो जाना दिलचस्प किस्से की तरह है। परिवार में बड़े भाई के आश्रित छोटा भाई और उसके ये दोनों बेटे, इन सबका प्रेमभरा रिश्ता और एकजुटता बहुत सहजता के साथ घटित होती है जिसमें नायक के पिता जिनकी भूमिका सतीश कौशिक ने निभायी है, अपनी भावाभिव्यक्ति और संवादों में कमाल करते हैं। लगता तो यह है कि सतीश कौशिक के पास उनकी कोई स्क्रिप्ट न होगी, गहरी बात कितने धीमे से वो दूसरे किरदार और दर्शक के मन तक भेजते हैं, चकित कर देता है। बेटे जीतकर आना और पिता अपनी नौकरी से इस्‍तीफा दे देना अौर बेटे के दुर्घटनाग्रस्‍त होने के बाद वापस उसी नौकरी पर जाना भावविव्‍हल कर देता है।


एक तरफ नायक के ताऊ का जज्बा कमाल का है। नायक को अचानक गोली लगना कोई षडयंत्र नहीं है, असावधानी भरी घटना है लेकिन रेल में उस दुर्घटना के दुर्योग कैसे काम करते हैं, नायक का सीट बदलना, पीछे कान्स्टेबल की गोली चल जाना और नायक के शरीर के नीचे के हिस्से का लकवाग्रस्त हो जाना सभी को बहुत वास्तविकता के साथ प्रस्तुत किया गया है। नायिका का सम्मोहन कमाल का दिखाया गया है जो नायक के सामने आती है तो वह रोमांटिकली विचलित हो जाता है, गलत खेल बैठता है, ये प्रसंग दिलचस्प हैं। 

नायक की चिकित्सा के लिए परिवार का घर बेच देना, किराये के घर में रहना और बड़े इलाज की जद्दोजहद के दृश्य देखकर मानवीय जीवन के वो संघर्ष हमें विचलित करते हैं जो अपने आसपास की चमक-दमक में हमें आभासित ही नहीं हुआ करते। खुशी के पलों को जीने का जज्बा कमाल का दिखाया गया है एक-दो अवसरों पर वहीं नायक के दोबारा उठ खड़े होने को जरा भी ग्लैमराइज नहीं किया गया। उसका फिर से मैदान में आना और जीतना सुखान्त है।

निस्सन्देह दिलजीत दोसांझ अपनी सल्तनत के सुपर स्टार हैं, एक बार उनको उड़ता पंजाब में देखकर ही भूलना सम्भव न हुआ था, यह दूसरी फिल्म देखकर और उनकी क्षमताओं ने आश्वस्त किया है। नायिका की भूमिका में तापसी पन्नू को बहुत प्रीतिकर संवाद बोलने को मिले हैं जो वे अपनी सुन्दरता के साथ बोल भी जाती हैं। यह फिल्म वास्तव में चरित्र भूमिकाओं को जीने वाले, सहायक भूमिकाओं को जीने वाले कलाकारों की एक बड़ी रेंज को बखूबी पेश करती है जिसमें भाई बने अंगद बेदी, पिता बने सतीश कौशिक, माँ बनी सीमा कौशल, ताऊ बने महावीर भुल्लर, कोच बने विजय राज, चेयरमेन बने कुलभूषण खरबन्दा मन को छू जाते हैं वहीं कोच बने दानिश हुसैन आज के समय के नकारा और दुर्भावना रखने वाले कोच की कलई खोलते हैं। 


फिल्म का सम्पादन कुशल और दक्ष है जिसके लिए फारुख हुण्डेकर की सराहना की जानी चाहिए। शंकर एहसान लॉय का संगीत इस फिल्म को अनुभूतियों में सकारात्मक बनाये रखता है। सूरमा टाइटिल गीत मस्त और जोशीला है। सुयश त्रिवेदी और शिवा अनंत की पटकथा पर शाद का नियंत्रण आपसी सामंजस्य का सराहनीय परिचय है। कुल मिला सूरमा एक ऐसी फिल्म है जिस तरह की फिल्म का यदाकदा बनकर आते रहना, सिनेमा की सात्विकता के उस पक्ष को जान पाना है जो अब बेहद दुर्लभ हो चला है, उस नाते शाद अली सराहना और बधाई के पात्र हैं।