शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

नदी की सन्निधि में.........

लगता है वो मुझे अपने में एकाग्र होने नहीं देतीं। वो जहाँ पर हैं वहाँ वे इस बात का प्रयत्न करने में और आसानी से सक्षम हैं। धीरे-धीरे दिन सालों में बदलते जा रहे हैं। मैं काँच में अपना चेहरा हर दिन ही देखा करता हूँ। जान नहीं पाता, बड़े आघात कहाँ से क्या कुछ छुड़ाकर अपने साथ ले जाते हैं। ऊपर से कुछ समझ में नहीं आता। भीतर से भी कितना आता है, कहना मुश्किल है। 

स्मृतियों में कौंधता है, एफ टाइप दो मकानों में लगने वाला वह स्कूल जिसमें मैंने पढ़ना शुरू किया था। पहले दिन मुझे अच्छा तैयार किया गया था और बस्ता, जूता-मोजा, हाफ पैण्ट, बुशर्ट आदि पहनाकर वो मुझे स्कूल छोड़ने आयीं थीं। टीचर से भीतर बात की थी और थोड़ी देर में जब प्रार्थना की घण्टी बजी तो बाहर बच्चों की लाइन लगने लगी जिसमें मैं भी खड़ा कर दिया गया। प्रार्थना हो रही थी और लाइन में खड़े मैं उनको देख रहा था। आधी प्रार्थना हो चुकी तो वे मुझे देखते हुए मुस्कराकर जाने लगीं। उनको जाते देखकर मैं रो कर उनकी ओर दौड़ पड़ा और पीछे से जाकर उनकी साड़ी पकड़ ली, कहने लगा घर जाना है। उनको हँसी आ गयी पर मेरा रोना बन्द नहीं हुआ। 

बड़े होते हुए पता नहीं कितने ऐसे अवसर आये होंगे जब उनकी तबियत खराब हुई, वे बीमार पड़ीं पर साथ बनी रहीं। पिछली बार फिर उनको मैं पकड़ न सका, वो एकदम अन्तर्ध्यान हो गयीं अपने भीतर से। ओर-छोर हम कुछ भी न समझ पाये। अब वे बहुत सारी फोटुओं में हैं जिन्हें देख पाना सहज नहीं होता, जिन्हें देखते हुए अपने आपको सह पाना भी सहज नहीं होता। वे अक्सर अपनी माँ, हमारी नानी को याद करके कहा करती थीं, नहीं रहने के बाद अम्माँ हमें कभी सपने में भी नहीं दीखीं। कभी-कभी वे बतलाती थीं कि तुम्हारी नानी को सपने में देखा, उन्होंने कहा, मुनियाँ, हम अकेली हैं। अब हमारे पास घर भी बड़ा है, तुम भी वहीं चलो। इस पर मैं उनके हाथ जोड़ लिया करता था, यह कहते हुए कि ऐसे सपने मत देखा करो। और नानी की बात भी मानने की जरूरत नहीं है तब वे शरारतन हँसने भी लगतीं, वे हम सबकी घबराहट को भाँप जातीं थीं। त्यौहारों को लेकर उनके अपने सिद्धान्त बड़े स्पष्ट और साफ से थे। हम लोगों के प्रायः अलसाये रहने पर वे कहा करती थीं, सब दिन चंगे, त्यौहार के दिन नंगे। वे चाहती थीं घर के लोग तीज-त्यौहार के दिन सुबह से ही तैयार हो जायें और घर को भी उसी तरह व्यवस्थित करें। 

अब उनके बिना ये त्यौहार पूरे दिन सहना बड़ी हिम्मत का परिचय देने जैसे हैं जिसमें संयत बने रहना ही सबसे बड़ी परीक्षा होती है। पीर-पके मन में बहुत उथल-पुथल मचती है। कोई कोना-छाता समझ में नहीं आता जहाँ दो पल अपने में उसी व्यथा के साथ रहा जा सके। चारों तरफ ऐसे व्यवधान हैं जो पूरे जीवनभर भ्रमित करते रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे। दीपावली पर उनको अनार बहुत पसन्द थे। पटाखों के साथ अनार उनकी इच्छा से चार-पाँच जरूर लाये जाते। उन अनारों को छुटाने (जलाने) के समय उनको बाहर बुला लिया करते थे। अनारों का भरपूर दम भर ऊपर जाना और एकदम से दानों का बिखर जाना उनको बहुत सुहाता। उतना देखकर वे भीतर चली जातीं हम लोगों का खाना बनाने के लिए। 

पिछले साल मन किया, उनकी आभासी सन्निधि में कुछ अनार जलाऊँ। नर्मदा, गंगा, संगम और शिप्रा में उनकी आभासी सन्निधियाँ हैं क्योंकि उनके दिव्यांश वहाँ प्रवाहित किए थे। साँझ को इन्हीं इरादों के साथ अपनी व्यथा का मलहम लिए दीपावली के दिन रामघाट पहुँच गया। माँ शिप्रा अपने पूरे ठहराव में थीं किन्तु उनका स्पन्दन महसूस किया जा सकता था। दोनों ओर कुछ दिये जल रहे थे। इक्का-दुक्का लोग। मेरे अनुज से मित्र अमित वहाँ मेरे पास थे। हम लोगों ने वहीं किनारे अनार जमाये। अनार जलाने के लिए फुलझड़ी का प्रयोग ज्यादा सहज है। हमने जलायीं, तभी वहीं एक बच्चा कहीं से आ पहुँचा, आठक साल का जिसने कहा, अंकल मैं जलाऊँ अनार, हमने कहा, बेटा क्यों नहीं। वह खुश हुआ। हमने फिर मिलकर एक-एक करके सभी अनार जलाये। अनार जल चुके, फुलझड़ी के चार पैकेट बचे थे, इस बीच तीन बच्चे-बच्चियाँ वहाँ से निकले गरीब परिवार के जो दोने में आटे की गोली मछलियों को डालने के लिए बेच रहे थे मगर वहाँ उनका कोई गाहक नहीं था। उनको पास बुलाकर एक-एक पैकेट फुलझड़ी का दिया, एक जो बचा वो अनार चलाने वाले बच्चे को। सबके चेहरे पर जो खुशी आयीं वह अनूठी, प्रीतिकर और सुखकारी थी। सबने अपने विवेक से जले हुए अनार कचरे के डब्बे में डाले और हम लोगों को हैप्पी दीवाली अंकल कहते हुए दौड़ते-भागते अपने घर को चले गये। इस बार भी यही किया। दीपावली के दिन तीन बजे दोपहर को उज्जैन की ओर चल पड़ा। बीते साल की तरह रामघाट जैसे बुला रहा था। इस साल भी ऐसा ही। लोग घरों में थे, त्यौहार की तैयारी करते, घाट सूना था। वही इक्के-दुक्के लोग, बच्चे, एक-दो मांगने वाले। इस बार भी अमित और आदित्य मेरे आने से पहले आ गये। हम सबने अनार जलाये, वहाँ घूम रहे बच्चों को भी बुलाकर। आधे घण्टे ठहराव के बाद फिर भोपाल वापसी। 

मैं जानता था कि यह मेरा अपना हठ, अपने आप से है, मुझे लगा कि शायद इसमें मैं अकेले ही शामिल हो सकता हूँ। इसलिए मैंने अपनी निजता में यह कर लिया। लौटते हुए रामघाट पर बिताया समय मेरे लिए अपने मन को जीने का मेरा हठ थे, जिन पर मैं अपना दृश्यबोध छोड़ आया था। शिप्रा का ध्यान करते हुए मोक्षदायिनी नदियों के विषय में मैं सोचने लगा, लाखों-करोड़ों लोगों की पीड़ा और बहते हुए आँसुओं को ये नदियाँ कितनी उदारता से अपने आँचल में समेट लेती हैं। उतना ही सच यह भी है कि इतनी पीर अपने में सहेजे-समेटे वे स्वयं कितनी पीर से भरी रहा करती होंगी। शायद यही कारण है कि नदी के किनारे थमकर बैठना, जीवन के अर्थ का सात्विक और सच्चा व्याकरण ग्रहण करने के बराबर है। हमारे पूर्वज नदी की धरोहर हैं और नदी हमारी समूची मानवीय अस्मिता की.................

शनिवार, 15 दिसंबर 2018

।। केदारनाथ ।।

एक प्रेमकहानी में कुछ प्रेमरस

 



केदारनाथ उस तरह से कोई साधारण फिल्म नहीं है जैसी प्रत्युत्पन्नमति समीक्षकों ने आनन-फानन उसे देखकर समीक्षा कर डाली है। कुछ वर्षों से इन्स्टेण्ट समीक्षा का अजीब सा कायदा बन गया है हमारे यहाँ मीडिया में जिसमें देखने के लिए भी वक्त नहीं है और सोचने के के लिए भी। लिख देने की जल्दी है, दौड़कर आगे निकल जाने की भी जल्दी है भले ही ठहरकर विचार भी न कर पाये हों। केदारनाथ अभिषेक कपूर निर्देशक एक अच्छी प्रेमकथा है जिसकी पृष्ठभूमि में शीर्षक अनुरूप केदारनाथ में पाँच साल पहले आयी आपदा लगातार साथ चलती है लेकिन आप उसको उस स्थान, उस कस्बे की एक काल्पनिक कहानी मानकर देखो, जैसा कि फिल्म के शुरू में स्पष्ट भी किया गया है, तो उसे एक सुरम्य स्थल पर युवा प्रेमकहानी के रूप में देखना अच्छा लगता है। मैंने यह फिल्म कल रात में देखी और आधा हॉल भरा भी पाया, यह दूसरे सप्ताह की स्थिति है जो बाजार की दृष्टि से भी बुरी नहीं है।

केदारनाथ तीर्थ में मन्दिर तक पहुँचने में असहाय और असमर्थ श्रद्धालुओं को अपनी पीठ पर बैठाकर मन्दिर की चौखट तक छोड़ने वाला नायक है जिसके पिता भी यही काम करते थे लेकिन एक दुर्घटना में, जब वह छोटा था, चल बसे थे। माँ और एक शायद भांजा उसके साथ, यही परिवार है। नायिका, दो बहने हैं, माँ और पिता। इनकी अलग कहानी है, नायिका छोटी बहन है जिसके लिए जिन्दगी का उस समय तक अर्थ उच्छश्रृंखलता है जब तक वह नायक से नहीं मिलती। नायक से मिलने के बाद फिर प्रेमकहानी है, मिलना है, नायक का नायिका को पिट्ठू पर बैठाकर घुमाना फिराना और गाना गाना भी।

नायक-नायिका के प्रेम के फलीभूत होने की अपनी बाधाएँ हैं, विशेषकर आसपास, समाज, धर्म यही सब। इसके बीच नायक बहुत विनम्रता और आत्मविश्वास के साथ मनुष्यता के पक्ष में अच्छे तर्क रखता है। फिल्म में नायक की माँ का अन्देशों और डर से भरा हुआ होना, नायक का अपने आपमें नायिका के प्रति, प्रतिबद्ध होना कहानी के महत्वपूर्ण पक्ष हैं। फिल्म में सहायक अभिनेता अपनी तरह से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं, वे सीमित भी हैं। प्राकृतिक संकट और विनाश की भयाक्रान्तता क्लाइमेक्स में बखूबी प्रस्तुत की गयी है। एक बड़े सजीव से सेट पर यह फिल्म चरितार्थ होती है। खूबसूरत गानों और उनके संगीत के साथ। विशेषकर आरम्भ में शिव की वन्दना का जो गीत है, संगीतकार अमित त्रिवेदी का ही गाया हुआ, पूरे परिवेश और भव्यता में गजब का लगता है। यह जितनी सुशान्त की फिल्म है उतनी ही सारा की भी।

सुशान्त के चेहरे पर प्रकृतिप्रदत्त सौम्यता बहुत सुहाती है। संवेदनशील और कोमल भावों की अभिव्यक्ति में वे मन को छूते हैं। सारा को देखते हुए अमृता याद आती हैं बेताब की। मिलता हुआ चेहरा, दुस्साहसी और चंचल चरित्र में वे जितना कमाल करती हैं भावनात्मक दृश्यों में वे उतनी ही प्रीतिकर भी। बहन की भूमिका में पूजा गोर का किरदार सीमित होते हुए भी रेखांकित होता है। फिल्म के अन्त में जब विनाशलीला समाप्त होने के कुछ वर्षों बाद का केदारनाथ दिखाया जाता है, तब अपने प्रेमी की याद में रेडियो में उस गाने की फरमाइश के साथ फिल्म का खत्म होना मन को छू जाता है जो पिछले किसी एक क्षण में नायक, नायिका के सामने गाता हैं। यह एक नम अनुभूति के साथ दर्शकों को सिनेमाहॉल से विदा करना है।

बड़े दिनों बाद किसी फिल्म में गीत के नाम पर गीत और संगीत के नाम पर माधुर्य का एहसास हुआ है। आज के समय में लम्बे समय तक गीत याद नहीं रहते मगर हमारे मन में इस फिल्म के गानों को लेकर एक सकारात्मक राय तो बनती ही है। फिल्म की मूल कहानीकार कनिका ढिल्लन हैं, खूबसूरती से उन्होंने एक मर्मस्पर्शी कथा रची है, अभिषेक कपूर एक नाम की तरह यहाँ उनके साथ श्रेय लेते हैं, वे निर्देशक जरूर अच्छे हैं, रॉक ऑन और काय पो छे के बाद इसमें वे प्रमाणित करते हैं।

तुषारकांत राय की सिनेमेटोग्राफी बहुत खूबसूरत है। कला निर्देशन में भी अच्छी कल्पनाशीलता के लिए आर्ट डायरेक्टर संजय कुमार चौधरी की सराहना की जानी चाहिए।
#kedarnath @kedarnath #filmreview @sushantsinghrajpoot @saraalikhan 

गुरुवार, 13 दिसंबर 2018



फिल्‍म - गुलामी
एक सशक्‍त सीन

एक जमींदार और एक किसान के बेटे के बीच सशक्‍त संवाद। 
गिरवीं जमीन और उसका कर्ज क्‍या एक किसान को 
पीढ़ी दर पीढ़ी चुकाना होता है.........?

सोमवार, 10 दिसंबर 2018

निर्द्वन्‍द्व (नाटक)


तथागत बुद्ध की जातक कथा पर आधारित एक नाटक जिसका प्रथम मंचन सांची के महाबोधित महोत्‍सव में 25 नवम्‍बर 2018 को हुआ था। इस नाटक के लेखक सुनील मिश्र हैं तथा निर्देशक के.जी. त्रिवेदी। नाटक में संगीत दिया है सुरेन्‍द्र वानखेड़े ने। यह नाटक एक गरीब लकड़हारे के सच्‍चे मन और संकल्‍प की कथा कहता है, जिसकी मदद आत्मिक विपदा में फँसने पर तथागत करते हैं।

शनिवार, 1 दिसंबर 2018

49वाँ अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह

विश्व का श्रेष्ठ सिनेमा क्यों नहीं बन सका हमारा मानक?


गोवा में 20 नवम्बर से शुरू हुआ 49वाँ अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह इस संकल्प के साथ सम्पन्न हो गया कि अगले साल नवम्बर 2019 में 50वाँ अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह इस तैयारी के साथ मनाया जायेगा जिसमें पिछली बार की अनेक खामियों के लिए पहले से ही सावधान रहा जायेगा, अच्छी तैयारी की जायेगी और जिन त्रुटियों के लिए हमेशा समारोह की आलोचना की जाती है, वे नहीं दोहरायी जायें, इसका प्रयत्न किया जायेगा। भारत में होने वाला सिनेमा का यह सबसे प्रमुख और सबसे पुराना फिल्म समारोह है जिसमें विश्व के अनेक देशों की भागीदारी हुआ करती है। दुनिया के लोग जो भारत के इस विश्व स्तरीय फिल्म समारोह के बारे में जानते हैं या वे फिल्मकार, कलाकार जो लम्बे समय से किसी न किसी रूप में इस समारोह का हिस्सा रहे हैं, वे पूरे साल इसके प्रति जिज्ञासा और कौतुहल बनाये रखते हैं। भारत में भी इसका वही आकर्षण है। यह बात उल्लेखनीय है कि इसी सदी की शुरूआत के तीसरे वर्ष 2003 से यह समारोह स्थायी रूप से गोवा में होने लगा है अन्यथा इसके पहले अन्तर्राष्ट्रीय समारोह एक साल दिल्ली में हुआ करता था और एक साल इसका मेजबान कोई एक राज्य हुआ करता था जिसकी राजधानी में यह आयोजित हुआ करता था। भारत सरकार का सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, उसका फिल्म समारोह निदेशालय इसके प्रमुख आयोजकों में से हैं तथापि अनुषंग रूप में पत्र सूचना कार्यालय, राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम, फिल्म प्रभाग, फिल्म एवं टेलीविजन प्रशिक्षण संस्थान तथा राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार आदि विभाग भी आयोजन अवधि में इस रौनकमन्द माहौल में अपनी-अपनी सार्थकता और कर्तव्य का परिचय देने के लिए सक्रिय दिखायी देते हैं। 

गोवा की गर्मजोशी मेहमानवाजी के कारण इस फिल्म को पिछले वर्षों में एक अलग आकर्षण प्राप्त हुआ है तथापि इस वर्ष राज्य के मुख्यमंत्री की अस्वस्थता का प्रभाव इस समारोह में दिखायी दिया। इस बार स्मृति ईरानी का सूचना एवं प्रसारण मंत्री न होना भी समारोह की फीकी आभा में प्रकट होता रहा। इस बार के समारोह के लिए दुनिया भर से लगभग 220 से अधिक फिल्में समारोह के लिए जुटायी गयी थीं जिनका प्रदर्शन दो-तीन प्रमुख स्थानों आयनॉक्स, कला अकादमी सभागार और अन्य जगहों पर होता रहा। इस समारोह में दुनिया की वे फिल्में भी शामिल की गयी जिनको अवार्ड प्राप्त हुए हैं। इजराइल को विशेष रूप से फोकस किया गया। अन्तर्राष्ट्रीय सिनेमा और भारतीय सिनेमा की श्रेणियों में विविधता के साथ होते रहे इस बार के समारोह में प्रतिदिन सुबह लगभग 9 बजे से प्रदर्शन शुरू हो जाया करते थे और रात लगभग 1 बजे तक फिल्में देखने के अवसर लोगों को हासिल थे। 

अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह की शुरूआत बहुत फीके ढंग से हुई। इसके चमकदार मेहमान अक्षय कुमार और करण जौहर औपचारिक शुभारम्भ हो जाने के बड़ी देर बाद कार्यक्रम स्थल पर पहुँचे। अवसर कुछ था, होने लगा कुछ और जिसमें सबसे हास्यास्पद काफी विद करण टाइप करण जौहर ने स्टेज पर कुर्सियाँ जमवाकर अक्षय कुमार और सूचना एवं प्रसारण मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़ को बैठाकर उनकी मौखिक परीक्षा ली अति साधारण किस्म के सवालों के साथ। इसी समारोह में सिनेमा की भव्यता को कुछ विदेशी फिल्मों के दृश्यों के साथ प्रकट करने की कोशिश की गयी। सोनू सूद अपना डांस ग्रुप लेकर आये थे, एक साधारण सा प्रदर्शन करके चले गये। ऐसे ही देहगतियों और मलखम्भ टाइप के करतब से एक रोमांच पैदा करने की कोशिश की गयी लेकिन वह फिल्म समारोह के लिए आदर्श प्रस्तुति नहीं थी। 

समारोह की उद्घाटक फिल्म वेनिस की फिल्म द एस्पर्न पेपर्स थी जिसका निर्देशन प्रतिभाशाली युवा फिल्मकार  जूलियन लैण्डेस ने किया था। यह निर्देशक की पहली फिल्म के रूप में प्रदर्शित की जाने वाली विश्वस्तरीय फिल्म थी। उन्नीसवीं सदी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म की मूल प्रेरणा हेनरी जेम्स का एक प्रसिद्ध उपन्यास है। इसी प्रकार समापन फिल्म के रूप में विश्व प्रीमियर का अवसर जर्मनी की फिल्म सील्ड लिप्स के साथ जुटाया गया। बर्न्ड बोलिच की फिल्म सील्ड लिप्स कम्युनिस्ट आन्दोलन को लेकर आकर्षण और उसकी प्रत्यक्षता का साक्षी होने के बाद सोच में बदलाव और मोहभंग की एक कहानी पर आधारित थी जिसमें कैरोलिन इच्छार्न, अलेक्जेण्ड्रा मालिया लारा, रॉबर्ट स्टेंडलोबर आदि ने महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभायी। इसके अलावा प्रतियोगी खण्ड जिसमें कि सर्वोत्कृष्ट फिल्म को स्वर्ण मयूर और चालीस लाख रुपयों का पुरस्कार दिया जाता है, के लिए दस से अधिक भारतीय एवं विदेशी फिल्में शामिल की गयी। इनमें 53 वार्स, द ट्रांसलेटर, एज, इडिवाइन विंड, ए फेमिली टूर, हियर, डॉनबास, अवर स्ट्रगल्स, द मेन्सलेयर, द अनसीन, वेन गॉग्स, व्हेन द ट्रीस फाल, टू लेट, भयनाकम आदि प्रमुख थीं। दिलचस्प यह है कि भारतीय फिल्मों में तमिल फिल्म टू लेट और मलयालम फिल्म भयनाकम फिल्म सम्मिलित थीं, बॉलीवुड की कोई फिल्म इस योग्य शायद नहीं पायी गयी हो या यहाँ तक आने में विफल रही हो। यह प्रसंगवश इसलिए भी लिखना पड़ रहा है कि हाल ही में प्रदर्शित ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान की भारी विफलता से बॉलीवुड छटपटाया हुआ है। काश नकलची और आयडिया चुराऊ फिल्मकार दुनिया के प्रासंगिक, ज्वलन्त और संवेदनशील सिनेमा से थोड़ा-बहुत भी कुछ सीख सकते।


इजराइल की दस से अधिक फिल्मों का प्रदर्शन यहाँ किया गया जिनमें द बबल, फुटनोट, लांगिंग, फ्लोच, द अदर स्टोरी, रेड काऊ, शालोम बॉलीवुड, द अनार्थोडॉक्स, वर्किंग वूमन आदि शामिल थीं। इनमें फ्लोच एक ऐसे बुजुर्ग की कहानी है जिसका बेटा, दामाद और पोता एक दुर्घटना में मारे जाते हैं, इससे उसका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है। वह दूसरी शादी और संतान पैदा करने के लिए व्याकुल है। एक फिल्म लांगिंग एक बड़े अमीर व्यक्ति को ऐसे समय के सामने ला खड़ा करती है जब लम्बे अन्तराल बाद अपनी प्रेमिका से मिलने पर उसको पता चलता है कि उसकी प्रेमिका ने बीस साल पहले उसके बेटे को जन्म दिया था जो हाल ही दुर्घटना में मारा गया है। रेड काऊ का फलसफा दो स्कूली छात्राओं के बीच अन्तरंगता का पनपना है जो आगे चलकर बड़ी घटना को जन्म देती है क्योंकि उसका एक लड़की का विधुर पिता अपनी बेटी को निरन्तर चेताया करता है। शालोम बॉलीवुड- द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ इण्डियन सिनेमा को देखना दिलचस्प अनुभव इसलिए था क्योंकि यह फिल्म दो हजार साल पुराने यहूदी सम्प्रदाय की पिछली पीढ़ी के बॉलीवुड में योगदान को सन्दर्भ के साथ रेखांकित करती है और हम सुलोचना रूबी मेयर्स, जॉन डेविड, नादिरा, प्रमिला आदि कलाकारों के भारतीय सिनेमा में अविस्मरणीय अवदान से अवगत होते हैं। 

फिल्म समारोहों की प्रमुख आलोचना फिल्मों के चयन को लेकर होती है जबकि यह कठिन काम है। लेकिन इसके बावजूद यदि दर्शकों के हिस्से में दो सौ पच्चीस में से पच्चीस-तीस फिल्में ही हिस्से में आयें तो विषय जरा निराशाजनक हो जाता है। इसके बावजूद महान स्वीडिश फिल्मकार इंगमार बर्गमैन की यादगार फिल्मों का पुनरावलोकी समारोह उत्सव का एक बेहतरीन हिस्सा था जिसमें परसोना, फनी एण्ड अलेक्जेण्डर, द सेवन्थ सील, समर विद मोनिका, वाइल्ड स्ट्राबेरीज के प्रदर्शन याद रखे जायेंगे। फेस्टिवल केलिडोस्कोप में कोल्डवार, द गिल्टी जैसी फिल्में समय की गति और यथार्थ को मानवीय समझ और कुण्ठाओं की अलग सतह पर परीक्षा लेती दिखायी देती हैं। वर्ल्ड पैनोरमा में डॉटर्स ऑफ माइन, द हैप्पी प्रिंस, द ब्रा, ब्रदर्स, मग, माय मास्टरपीस, हाई लाइफ, फोनिक्स, द प्राइज, द सीन एण्ड द अनसीन, विण्टर फाइल्स, द ओल्ड रोड, एन एलीफेण्ट सिटिंग स्टिल की देखने वालों ने सराहना की। विशेष प्रदर्शन श्रेणी में ट्यूनीशिया की तीन फिल्में ब्यूटी एण्ड द डॉग्स, डियर सन और व्हिस्परिंग सैण्ड्स का प्रदर्शन किया गया। 


व्हिस्परिंग सेण्ड्स अरब मूल की एक कनाडाई महिला की भावपूर्ण यात्रा पर आधारित थी जो एक संवेदनशील कारण से ट्यूनीशिया आती है। वह स्मृतियों में है, उसके पास राख का एक पात्र है जो वह स्थान विशेष में विसर्जित करना चाहती है। इस यात्रा में उसको वाहन से लेकर चल रहा गाइड दरवेशी अस्तित्व और परम्परा के बारे में अपना दृष्टान्त बतला रहा है जो प्राकट्य स्मृतियों का हिस्सा भी हैं। इस फिल्म को देखकर सिनेमा में सार्थक परम्परा का निर्वहन करने वाले फिल्मकारों को दाद देने को जी चाहता है। इस फिल्म का निर्देशन नासेर खेमीर ने किया था जो कहानीकार, चित्रकार और नैरेटर भी हैं। अपनी अनेक फिल्मों के जरिए उनको दुनिया में ख्याति मिली है। 

अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में दिवंगत कलाकारों को याद किया गया, यह समारोह की परम्परा का हिस्सा है। इस बार विशेष रूप से श्रीदेवी और विनोद खन्ना को उनकी कुछ चुनिन्दा फिल्मों मोम एवं अचानक, लेकिन, अमर अकबर अंथनी के माध्यम से श्रद्धांजलि देने की कोशिश की गयी वहीं शशि कपूर, एम. करुणानिधि, कल्पना लाजमी को भी एक-एक फिल्मों के माध्यम से याद किया गया। करुणानिधि की तमिल फिल्म मलईकल्लन और कल्पना लाजमी की रुदाली फिल्में समारोह के श्रद्धांजलि खण्ड का हिस्सा थीं।
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