बुधवार, 31 जुलाई 2019

प्रेमचन्द की कृतियाँ और हिन्दी सिनेमा

प्रेमचन्द का साहित्य प्रमुख रूप से बीसवीं सदी के आरम्भ और लगभग तीन दशक की स्थितियों के आसपास घटनाक्रम, देखी-भाली कथाएँ, सुने हुए दृष्टान्त और मंथन किए मूल्यों का दस्तावेज है। भारत में सिनेमा का आगमन 1913 का है। प्रेमचन्द ने अपनी परिपक्व उम्र और अवस्था में सिनेमा के जन्म और उसकी सम्भावनाओं को देखा था। कहीं न कहीं अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करते सिनेमा की शक्ति को भी वे महसूस करते थे। दादा साहब फाल्के जब राजा हरिश्चन्द्र बना रहे होंगे तब प्रेमचन्द की उम्र तीस साल से जरा ज्यादा रही होगी। प्रेमचन्द को अपने लमही और बनारस से सिनेमा का सुदूर मुम्बई किस तरह आकृष्ट कर रहा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है!

सिनेमा का आकर्षण और बाद में या जल्द ही उससे मोहभंग होने के किस्से साहित्यकारों-कवियों के साथ ज्यादा जुड़े हैं। प्रेमचन्द से लेकर भवानी प्रसाद मिश्र, अमृतलाल नागर और नीरज तक इसके उदाहरण हैं। साहित्यकार अपनी रचना को लेकर अतिसंवेदनशील होता है। वह फिल्मकार की स्वतंत्रता या कृति को फिल्मांकन के अनुकूल बनाने के उसके प्रयोगों को आसानी से मान्य नहीं करना चाहता। विरोधाभास शुरू होते हैं और अन्त में मोहभंग लेकिन उसके बावजूद परस्पर आकर्षण आसानी से खत्म नहीं होता। हमारे साहित्यकार, सिनेमा के प्रति आकर्षण के दिनों में कई बार मुम्बई गये और वापस आये हैं। आत्मकथाओं में साहित्यकारों ने मायानगरी मुम्बई की उनके साथ हुए सलूक पर खबर भी ली है लेकिन सिनेमा माध्यम को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। साहित्यकार-कवि कड़वे अनुभवों के साथ अपने प्रारब्ध को लौट आये और सिनेमा अधिक स्वतंत्रता के साथ उनके साथ हो लिया जो उससे समरस हो गये।

प्रेमचन्द के साहित्य पर हीरा मोती, गबन, कफन, सद्गति और शतरंज के खिलाड़ी जैसी कुछ फिल्में बनी हैं मगर हमें बाद की सद्गति और शतरंज के खिलाड़ी याद रह जाती हैं क्योंकि ये ज्यादा संजीदगी के साथ बनायी गयी थीं और इसके बनाने वाले फिल्मकार सत्यजित रे एक जीनियस व्यक्ति थे जिनके नाम के साथ एक ही विशेषण नहीं जुड़ा था क्योंकि अपनी फिल्मों के वे लगभग सब कुछ हुआ करते थे। रे ने अपनी सारी फिल्में बंगला में ही बनायी थीं। उनके बारे में एक बातचीत में डॉ. मोहन आगाशे जो कि हिन्दी और मराठी सिनेमा तथा रंगमंच के शीर्ष कलाकार हैं, ने कहा था कि माणिक दा के लिए श्रेष्ठ काम का पैमाना उनके अपने सहयोगी लेखक, सम्पादक, छायांकनकर्ता, सहायक निर्देशक हुआ करते थे जिन पर उनका विश्वास यह होता था कि जिस तरह की परिकल्पना किसी फिल्म को लेकर उनकी है, उसे साकार करने में ये सभी पक्ष उसी अपेक्षा के साथ सहयोगी होंगे। 

सत्यजित रे ने शतरंज के खिलाड़ी का निर्माण 1977 में किया था। उनके लिए बारह पृष्ठों की एक कहानी को दो घण्टे से भी कुछ अधिक समय की फिल्म के रूप में बनाना कम बड़ी चुनौती नहीं था। वे यह फिल्म हिन्दी में बनाने जा रहे थे। वे उन्नीसवीं सदी के देशकाल की कल्पना कर रहे थे। अपनी इस फिल्म को उसी ऊष्मा के साथ बनाने के लिए लोकेशन का ख्याल करते हुए उनके दिमाग में कोलकाता, लखनऊ और कुछ परिस्थितियों के चलते मुम्बई कौंध रहे थे। वाजिद अली शाह के किरदार के लिए अमजद खान उनकी पसन्द थे। मीर और मिर्जा की भूमिका के लिए सईद जाफरी और संजीव कुमार को उन्होंने अनुबन्धित कर लिया था। विक्टर बैनर्जी, फरीदा जलाल, फारुख शेख, शाबाना आजमी सहयोगी कलाकार थे। वाजिद अली शाह के साथ एक बराबर की जिरह वाली महत्वपूर्ण भूमिका के लिए रे ने रिचर्ड एटिनबरो को राजी कर लिया था जिन्होंने उट्रम के किरदार को जिया था। बंसी चन्द्र गुप्ता उनके कला निर्देशक थे जिनको स्कैच बनाकर रे ने काम करने के लिए दे दिए थे और कहा था कि सीन दर सीन मुझे यही परिवेश चाहिए। आलोचकों ने शतरंज के खिलाड़ी को बहुत सराहा था यद्यपि कुछ लोगों को कथ्य के अनुरूप फिल्म का निर्माण न होने से असन्तोष भी रहा लेकिन आलोच्य दृष्टि रे के पक्ष में रही और उन्हें इस फिल्म के लिए नेशनल अवार्ड भी मिला। 

प्रेमचन्द ने शतरंज के खिलाड़ी में मीर और मिर्जा को केन्द्रित किया है, इधर सत्यजित रे ने फिल्म में वाजिद अली शाह और जनरल उट्रम के चरित्रों को महत्वपूर्ण बनाया है। फिल्म में वाजिद अली शाह की सज्जनता के साथ-साथ राजनीतिक समझ की कमी को भी निर्देशक ने रेखांकित किया है। अंग्रेज जैसे चतुर और खतरनाक दुश्मन की शातिर कूटनीतिक चालों को समझ सकने में अक्षम भारतीय राजनैतिक मनोवृत्ति भी फिल्म में सशक्त ढंग से उभरती है। हमारे दर्शक सिनेमा में सूक्ष्म ब्यौरों तक नहीं जाते, कई बार सिनेमा की विफलता का यह भी एक कारण होता है। शतरंज के खिलाड़ी के माध्यम से निर्देशक ने प्रेमचन्द की कहानी को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयत्न किया है। यह भले पैंतीस साल पहले की फिल्म हो लेकिन शतरंज के खिलाड़ी पुनरावलोकन की भी फिल्म है, आज भी हम उसे देखेंगे तो प्रभावी नजर आयेगी।

सद्गति एक घण्टे की फिल्म थी। इसे सत्यजित रे ने दूरदर्शन के लिए बनाया था। यह लगभग बावन मिनट की फिल्म थी जिसको देखना अनुभवसाध्य है। निर्देशक ने इस फिल्म को कहानी की तरह ही बनाया है, एक-दो दृश्यों के अलावा पूरी फिल्म प्रेमचन्द की कहानी के अनुरूप ही है। स्वयं निर्देशक का मानना था कि यह कहानी ही ऐसी है जो इसके सीधे प्रस्तुतिकरण की मांग करती है। सत्यजित रे ने इसे उसी ताप के साथ प्रस्तुत करके उसकी तेज धार को बचाये रखा। मैंने इसके तीखेपन को जस का तस प्रस्तुत करने का काम किया। सद्गति की विशेषता यह भी है कि फिल्म में कहानी में प्रयुक्त संवाद भी ज्यां के त्यों रखे गये हैं। फिल्म के लिए रे ने पात्रों का चयन भी अनुकूल ही किया था। ओम पुरी, स्मिता पाटिल, मोहन आगाशे प्रमुख भूमिकाओं थे। यह फिल्म दो सप्ताह के शेड्यूल में पूरी बन गयी थी। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के निकट इसका फिल्मांकन हुआ था। बंगला के एक और महत्वपूर्ण फिल्मकार मृणाल सेन ने कोई पैंतीस साल पहले तेलुगु में कफन कहानी पर केन्द्रित ओका ओरि कथा फिल्म का निर्माण किया था। टेलीविजन पर निर्मला और कर्मभूमि पर धारावाहिक बने। विख्यात फिल्मकार गुलजार ने भी प्रेमचन्द की कहानियों पर तहरीर मुंशी प्रेमचन्द की धारावाहिक का निर्माण किया था जिसकी कई कहानियों में पंकज कपूर ने केन्द्रीय भूमिकाएँ निभायी थीं।

शनिवार, 20 जुलाई 2019

।। आर्टिकल 15 ।।


गहरे अनुभव (सिन्‍हा) की फिल्‍म

 


यह एक ऐसी फिल्म देखने का अनुभव है जिसे नहीं देखकर उस यथार्थ से वंचित रहना होता जिसकी हम खूब बातें किया करते हैं प्रसंगवश लेकिन वे वही बातें होती हैं जिनके बारे में कहा जाता है, बातें हैं बातों का क्या? अनुभव सिन्हा ने गौरव सोलंकी के साथ मिलकर एक घटना की परिधि में जिस तरह की सशक्त फिल्म निर्मित और निर्देशित की है वह आँखें खोल देने वाली है। हमारे यहाँ समग्रता में सशक्त या उत्कृष्ट फिल्में बहुत कम बनती हैं जिनमें निर्देशक सभी आयामों के सन्तुलन में कोई बड़ी दृष्टि या चमत्कार पेश कर सके। चूँकि अनुभव सिन्हा, पन्ने पर भी उस फिल्म के दृश्यों और संवादों को लिख रहे हैं लिहाजा परदे पर भी वह उसी प्रभाव के साथ घटित होती है।

जघन्य बलात्कार का शिकार दो नाबालिग लड़कियाँ हैं जिनकी पार्थिव देह गाँव के बाहर एक पेड़ से लटकी हैं, स्याह रात और भोर के बीच बड़ा फासला है जिसमें गहरी धुंध छायी हुई है और यह आकृतियाँ परदे पर प्रकट होती हैं। इसके पूर्व एक दृश्य यह भी है कि भारतीय पुलिस सेवा में सीधी भरती से नियुक्त एक अधिकारी यहाँ अपनी पोस्टिंग पर आया है जो अपने वरिष्ठ को शाम की पार्टी में दबी जुबाँ हँसकर बतलाता भी है कि सजा के रूप में भेज दिया गया हूँ। फिल्म आगे इस झूठ के साथ बढ़ती है कि दोनों लड़कियों के पिताओं ने ऑनर किंलिंग के रूप में यह सजा उनको दी क्योंकि वे समलिंगी थीं। एक तीसरी लड़की और इनके साथ थी जो गायब है। उसकी तलाश नहीं की जा रही, यह माना जा रहा है कि वह भी जीवित न होगी। पुलिस की विवेचना हो रही है और अपनी तरह से प्रकरण को बन्द किए जाने लायक फाइल तैयार होती जा रही है।

इसी घटनाक्रम के बीच नायक पुलिस अधिकारी की छानबीन जारी है। समानता की भारतीय संविधान में आर्टिकल 15 के अन्तर्गत दी गयी व्यवस्था, एक विवरण भर है और लालगाँव में दमन, शोषण, भेदभाव, पक्षपात अपने चरम पर है। राजनीति और उसके कुटैव तथा अराजकताएँ आमजन को अपने बर्बर और हिंसक आव्हान और आन्दोलन के नीचे किस तरह खड़े रखते हैं और अपने को सिद्ध करके उन आमजनों को उनके हाल पर छोड़ दिया करते हैं इस पर तीखे संवाद भी फिल्म में है। नायक के अधीन पुलिस अधिकारी प्रकरण को बन्द कर देने पर अमादा हैं वह तीसरी लड़की को ढूँढ़ने की जिद पाले हुए नायक को सचेत भी करते हैं कि साहब आपका तो केवल ट्रांसफर होगा, हम मार डाले जायेंगे। इसी क्रम में सीबीआई की जाँच, नायक को विद्वेषवश कटघरे में खड़ा करने के एजेंसियों, रसूखदारों और राजनैतिक दलों के षडयंत्र परदे पर देखते हैं। अन्त यह है कि नायक को दिल्ली में बैठे अपने वरिष्ठ अधिकारी से हौसला मिलता है और वह गायब हुई तीसरी लड़की भी।


यह जिजीविषा, नैतिकता और दृढ़ आत्मविश्वास की विजय के साथ इस फिल्म का खत्म होना एक बड़ा सन्देश भेजता है। अनुभव सिन्हा की पकड़ इसके एक-एक फ्रेम पर है। वह प्रत्येक दृश्य के साथ पार्श्व संगीत के तरह और प्रकार के साथ-साथ उसकी जरूरत का भी ध्यान रखते और नियंत्रित करते हैं। उनका सिनेमेटोग्राफर (इवान मुल्लिगन) दृश्यों को कैप्चर करने का कुशल सम्पादक भी है जो हवाई शॉट के साथ-साथ दिल को हिला देने वाले, सिहरा देने वाले, प्रेम और करुणा उपजा देने वाले दृश्यों तक बखूबी पहुँचता है। इस टिप्पणीकार के उस समय आँसू छलक आते हैं जब वह बुलबुलाते हुए गटर के भीतर से गटर साफ करने वाले को निकलते देखता है जो भीतर वह तमाम पदार्थ बाहर फेंक रहा है जिसने उसे अवरुद्ध कर रखा है। यह अनुभूति किसी सिहरन से कम नहीं है जो भीतर ही भीतर झिंझोड़कर रख देती है। हमारे सामने डरे हुए कर्मचारी, अन्देशों में रहने वाली स्त्रियाँ, मगरमच्छ से भी अधिक मोटी चमड़ी वाले बुरे, निर्मम और बेईमान पदधारित लोग जिस तरह से आते-जाते हैं, एक तो सब चरित्रों को निबाहने वाले कलाकार बहुत सशक्त हैं, मनोज पाहवा (ब्रम्हदत्त), कुमुद मिश्रा (जाटव), जीशान अयूब (निशाद), सयानी गुप्ता (गोरा), नासेर (सीबीआई अधिकारी) को परदे पर देखकर लगता है कि इन सबके लिए चरित्र हो जाना जैसे जीवन-मरण का प्रश्न हो गया होगा। मनोज पाहवा का खासतौर पर आपा खो बैठने पर दाँत मिलाकर ओंठ खोलकर बोलने का ढंग, नासेर (साउथ के एक बड़े स्टार) का आयुष्मान खुराना (अयान रंजन) के सामने जाँच करना और बयान लेने का लम्बा दृश्य सब कुछ हमारी व्यवस्था में व्याप्त उन विसंगतियों को उजागर करते हैं जो सदैव से किसी भी बदलाव के रास्ते पर रोढ़ा बनकर रहा करती हैं। 

इस फिल्म में दो जोड़ रोमांस के एक-एक दृश्य भी क्या हैं जो मन को छू जाते हैं, एक गोरा और निषाद का आखिरी दृश्य जिसमें निषाद अपनी अधूरी कामनाओं के रूप में छोटी-छोटी ख्वाहिश व्यक्त करता है और दूसरा नायक के साथ नायिका अदिति (ईशा तलवार) अन्त में जब उसके हाथ में उसके निलम्बन का कागज है और वह उसके साथ घर लौटता है तब देखता है कि वह वहाँ मौजूद है। अलग-अलग शहरों में दोनों रहते हुए फोन पर विचारों और असहमतियों पर प्रायः झुंझलाने और लड़ने लगने वाले नायक-नायिका एक कठिन वक्त पर एक-दूसरे के पास। 

आयुष्मान खुराना इस फिल्म के नायक हैं जिनकी सारी खूबी संयम के साथ हर दृश्य में, हर संवाद में और हर फ्रेम में उपस्थिति है। निर्देशक ने उनके माध्यम से किंचित उस युवा को भी साहस के साथ प्रस्तुत कर दिया है जो अपनी स्वाभाविकता में यदि लोगों से उसकी जात-बिरादरी पूछता है तो वह उसके गुनाह के रूप में दर्ज किया जाने लगता है (सीबीआई इन्वाक्यरी के दृश्य) लेकिन इस जिज्ञासा की सहजता और दुराग्रहरहितता फिल्म के आखिरी दृश्य में तब पता चलती है जब मिशन की सफलता के बाद सड़क के किनारे एक वृद्ध महिला की छोटी सी दुकान के पास जमीन पर सब बैठकर उसकी बनायी रोटी-सब्जी खाते हैं और यही सवाल नायक उस वृद्ध महिला के साथ करता है।

हमारा बॉलीवुड बहुधा मनोरंजन का सामान हो गया है। वह फिल्म ही प्रायः व्यर्थ हो जाती है जो मनोरंजन नहीं करती। दर्शक भी उस सिनेमा का पक्षधर है जिसमें सिनेमाघर में प्रवेश से पहले दिमाग बाहर रख जाओ और आनंद लो। इसी बहुधा अवधारणा के बीच यह सिनेमा फलीभूत होता है जो आपको सवा दो घण्टे सजग रखता है, एक-एक दृश्य का मूल्य समझने की सीख देता है, उस सच के सामने ला खड़ा करता है जो अखबार या चैनलों में सनसनी या टीआरपी से अधिक कुछ नहीं हो पाता। यह आर्टिकल 15 जैसी फिल्म आपको डिस्टर्ब करे, बेचैन करे, चैन से बैठने न दे और सिनेमाघर से निकलने के बाद आपके दिमाग में इस तरह चले कि आपको अपने किस कदर और बेवजह आश्वस्त होने या बने रहने के भ्रम से आजाद होने का मौका मिले तो उसकी यह बड़ी सफलता है। इन मायनों में निर्देशक, लेखक, निर्माता अनुभव सिन्हा की यह एक सशक्त और महत्वपूर्ण फिल्म है। ध्यान दीजिएगा, यह उतनी सफल भी है कि लागत का तीन गुना से ज्यादा अर्जित भी कर चुकी है।