13 दिसम्बर कई तरह से स्मृतियों को झकझोरने वाली तारीख बन गयी है। इस तारीख में अपने जन्म के साल दर साल सुखद एहसासों पर पिछले ही साल पहला आघात अपने गुरु श्रीराम ताम्रकर का जाना था। श्रीराम ताम्रकर भारतीय सिनेमा ज्ञान के एक गहरे हस्ताक्षर थे। लगभग सत्तर वर्ष के होते आये थे, पिछले ही साल हृदय की शल्यक्रिया करानी पड़ी थी उन्हें पर बावजूद सफल होने के, अत्यन्त संवेदनशील मन के ताम्रकर जी जिन्हें सारा जीवन सुई भी न लगवानी पड़ी हो, ऐसे विच्छेदन से गहरे टूट गये। नहीं रहने के दो महीने पहले ही अपने जीवन का बड़ा काम, बड़ी आकांक्षा उन्होंने पूरी की, हिन्दी में सिनेमा का एनसायक्लोपीडिया तैयार करके जिसे प्रकाशित होना है, प्रकाशित होते वे देख नहीं पाये। कुछ माह पहले ही अपनी माँ के सदैव के लिए छोड़कर चले जाने का दूसरा आघात भी उतना ही असहनीय रहा है मेरे लिए। बेटे का जन्मदिन माँ के लिए त्यौहार होता है। कभी कल्पना भी न की थी कि यह दिन माँ के बिना भी एक दिन आना शुरू होगा। याद पड़ता है, शायद पाँचवीं-छठवीं कक्षा में पढ़ा करता था। उस साल जो 13 दिसम्बर आया तो स्कूल जाने से पहले माँ ने टीका लगाया, गुलगुले (गुड़ के गुलगुले जन्मदिन में बनने की परम्परा है हमारे यहाँ) खिलाये। मैं उसके बाद स्कूल पहुँचा। कक्षा में साथी मुझे टीका लगाये देख जोर-जोर से हँसने लगे। शरमाकर मैंने हाथ से वह टीका पोंछ डाला। बाद में जब माँ ने देखा तो गुस्से से पूछा, क्यों टीका क्यों मिटा दिया? मैं कुछ जवाब न दे पाया। तब रुआँसी होकर बोली ताजा टीका नहीं मिटाते। देख लेना, जब हम न होंगे तब रोओगे...........आज वह बहुत याद आ रहा है। माँ देखने वाली नहीं है, कितना रोता हूँ, कब, कहाँ, कैसे और किस तरह रोता हूँ। वह भूल फिर कभी नहीं की पर वह बात भी नहीं भूल पाया। जन्म की तारीख वही रहेगी, हर साल यह दिन आयेगा लेकिन न ताम्रकर जी का इस दिन जाना भूल सकूँगा और न ही माँ का न होना..............
Sunil Mishr (Film Critic, Art, Culture, Writer Drama, Blogger) Winner of 65th National Award for Best Writing on Cinema in May, 2018
शनिवार, 12 दिसंबर 2015
बुधवार, 9 दिसंबर 2015
दस
हाशिए
हमेशा खाली मिलते हैं। ऐसा लगता है कि सदियों से कोई हाशियों से होकर जाता ही नहीं।
उनका इतना उज्जवल सा, साफ-सुथरा पथ चकित करता है। पथ की अपनी स्वच्छता का सिद्धान्त है। मनुष्य
पथगामी है। जो नहीं चलता वो ठहरा हुआ होता है। ठहरे हुए का समय अपनी तरह से आकलन करता
है। ठहरे हुए का लोग भी आकलन करते हैं। ठहरे हुए का समाज नहीं होता। उसके आसपास चहल-पहल
होते हुए भी एक अलग तरह का एकान्त हुआ करता है। वह अपने आसपास की सारी चहल-पहल में
भी परायापन महसूस कर सकता है। वह चहल-पहल अपरिचितों की है। कोई उसको पहचान नहीं रहा
है जबकि वह प्रत्येक में पहचाना जाना चाहता है। ऐसे में उसकी उपस्थिति साफ-सुथरे हाशिए
में ऐसे एकाकी की है जो देर तक स्थिर नहीं रह सकता। अपनी बेचैनी बढ़ने से पहले उसे
हाशिए के बाहर आना होगा। यह जीते हुए, अपने जिए बने रहने के लिए
आवश्यक है। हाशिए दूर से खाली मैदान की तरह दीखते हैं पर निश्चय ही यह खुला मैदान
नहीं होते। खुला मैदान, हाशिए के बाहर होता है।
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