रविवार, 17 दिसंबर 2017

48वाँ अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह, गोआ

सिनेमा सदैव ही जीवन की संवेदना का हिस्सा रहा है

(iffigoa2017)

गोआ (goa) में विश्व सिनेमा की भागीदारी वाला भारत सरकार के फिल्म समारोह निदेशालय, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का अड़तालीवाँ अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह सम्पन्न (iffigoa2017) हो चुका है। इस समारोह का शुभारम्भ भारतीय सिनेमा के आज के चर्चित सितारे शाहरुख खान ने किया था। वहीं इसके समापन पर भारतीय सिनेमा के महानायक अमिताभ बच्चन और अक्षय कुमार की उपस्थिति और उद्बोधनों ने समारोह को भावनात्मक रूप से समेटने का उपक्रम किया। देश-दुनिया के शीर्षस्थ फिल्मकार और उनका सिनेमा देखने के अवसर यह समारोह पिछले अड़तालीस बार से जुटाया करता है। पहले यह समारोह एक साल दिल्ली और एक साल देश के किसी एक राज्य में हुआ करता था। देश के अनेक राज्यों को इस समारोह का आतिथेय होने का अवसर मिला। सदैव ही इस समारोह को एक ग्लैमर, एक आभा और एक रौनक प्राप्त होती रही है क्योंकि यह देश का अकेला ऐसा समारोह रहा जिसने दुनिया के उत्कृष्ट सिनेमा को एक प्लेटफाॅर्म पर लाने का प्रयास किया, उन फिल्मकारों को हिन्दुस्तान में इस समारोह का हिस्सा बनने को निमंत्रित किया जिनके नाम और व्यक्तित्व का अर्थात ही समृद्ध सिनेमा हुआ करता था। 

आरम्भ के कुछ वर्षों तक यह समारोह बाॅलीवुड के फिल्मकारों और सितारों की बड़ी आमद का केन्द्र बना रहा लेकिन बाद में धीरे-धीरे देश के दूसरे राज्यों के फिल्मकार, कलाकार, दुनिया के अनेक देशों के फिल्मकार और कलाकार आकृष्ट होना शुरू हुए। पिछले एक दशक में इस समारोह को बावजूद एक ही राज्य में सिमटकर रह जाने, शेष देश और उसके राज्यों से बड़ी दूर हो जाने और देखने वालों के लिए अपेक्षाकृत व्ययसाध्य होने के बाद भी स्थापित हुआ कहा जा सकता है। इस बार का अड़तालीसवाँ अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह अपने आपमें अनेक आकर्षण एवं आयाम समेटकर प्रस्तुत हुआ है। इण्टरनेशनल फेडरेशन आॅफ प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन के साथ मिलकर 195 फिल्मों के साथ इस समारोह की शुरूआत एक अच्छा संकेत था। इस बार के समारोह में 82 देशों के सिनेमा की भागीदारी हुई। इनमें दस वल्र्ड प्रीमियर्स, दस एशियन एवं इण्टरनेशनल प्रीमियर्स एवं 65 भारतीय प्रीमियर्स शामिल थे। ईरान के शीर्षस्थ फिल्मकार माजिद मजीदी की फिल्म बियाॅण्ड द क्लाउड्स से समारोह की शुरूआत तथा समापन अवसर पर पाबलो कैसर की फिल्म इण्डो-अर्जेण्टीनियन फिल्म थिंकिंग आॅफ फिल्म का प्रदर्शन प्रीमियर देखने वालों के लिए रोचक अनुभव रहा। इस बार कनाडा को विशेष रूप से सिनेमा-केन्द्रित किया गया जिसमें श्रेष्ठ फिल्मों के साथ प्रतिष्ठित कलाकारों और फिल्मकारों का भी आना-जाना लगा रहा। 

अड़तालीसवें अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में देश-दुनिया की तकरीबन 30 महिला फिल्मकारों का सिनेमा देखने का अवसर फिल्म समारोह में शामिल होने वाले सिनेप्रेमियों को मिला जो सुखद संकेत है। समारोह का एक बड़ा आकर्षण पिछली सदी के विश्व के दो महान फिल्मकारों फ्रिट्ज लैंग की फिल्म मेट्रोपाॅलिस एवं आन्दे्रई तारकोव्स्की की फिल्म सेक्रीफाइस थीं जो प्रदर्शन के लिए हासिल की गयी। 

विदेशी सिनेमा में जेम्स बाॅण्ड की फिल्मों की समानान्तर सफलता एवं लोकप्रियता का आकर्षण इस बार इस समारोह को भी बचा नहीं पाया है, यही कारण है कि बाॅण्ड की 9 फिल्में इस समारोह का हिस्सा बनी। इनमें शामिल थीं, गोल्डन आई, गोल्ड फिंगर, आॅक्टोपसी, स्कायफाल, आॅन हर मिजेस्ट्रीज़ सीक्रेट सर्विस, इ स्पाय हू लव्ड मी इत्यादि। 

लगभग नौ दिनों के इस समारोह में इतनी सारी फिल्मों का शामिल होना दिलचस्प था, उसकी विविधता उतनी ही आकृष्ट करने वाली भी। एक तरफ अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगी खण्ड में बीट्स पर मिनट, डार्क स्कल, द ग्रेट बुद्धा, कच्चा लिम्बू, शटल लाइफ, विलेज राॅकस्टार जैसी फिल्में थीं तो दूसरी ओर विश्व सिनेमा श्रेणी में ब्लैक लेवल, ब्लडी मिल्क, ब्रीथ, चिल्ड्रन आॅफ द नाइट, डेब्रेक, हाई नून स्टोरी, बैरेज, एलोन डज नाॅट बिलीव इन डेथ, फादर एण्ड सन, लवलेस, मोंपारनास बिएवेन्यू, द स्ट्रेन्ज वन्स आदि। इस बार जैसा कि ऊपर जिक्र आया, कनाडा के सिनेमा को विशेष केन्द्रित किया गया था। द स्टेअर्स, आई आॅन जूलिएट, डोंट टाॅक टू आइरीन, मेडीटेशन पार्क, ओल्ड स्टोन वगैरह। ब्रिक्स फिल्म फेस्टिवल अवार्ड श्रेणी में नीस: द हार्ट आॅफ मेडनेस, अयाण्डा, टर्टल, वेयर हेज़ टाइम गाॅन, द सेकेण्ड मदर आदि को देखना समय के साथ दुर्लभ और दुरूह विषयों पर परिश्रमपूर्वक बने सिनेमा का आस्वादन करना था। 

विश्व सिनेमा के इस बड़े समागम में ब्रिक्स फिल्म फेस्टिवल श्रेणी में नीस: द हार्ट आॅफ मेडनेस देखना संवेदनशील अनुभव था जिसमें चालीस के दशक की एक सच घटना को आधार बनाकर प्रस्तुत किया गया था। यह एक महिला मनोचिकित्सक के साहस और प्रयोगों की कहानी है जो मानसिक रोगियों को करण्ट जैसी चिकित्सा पद्धति के विरुद्ध है और उसे मनुष्य के लिए अत्यन्त पीड़ाजनक और त्रासद मानती है। समकालीन परिवेश और साथी उससे असहमत उसे अलग-थलग कर देते हैं और भयावह रोगियों के बीच काम करने भेज देते हैं जहाँ वह अपनी तरह से अनेक मरीजों को सुधार पाती है, उनको ठीक कर पाती है। राॅबर्टो बर्लिनर की यह ब्राजीलियन फिल्म हमें आज भी सोचने पर विवश करती है। बैरेज(फ्रांस-लोरा स्कोरेडर), फादर एण्ड सन(विएतनाम-लुओंग डिन्ह डुंग), लवलेस(रशिया-एण्ड्री ज्वाइगिनत्सेव) जैसी फिल्मों के मूल में विषय छोटी उम्र के बच्चे हैं जो अलग-अलग कारणों से एकाकीपन, वेदना, उपेक्षा और कठिनाइयाँ झेल रहे हैं। 

आश्चर्य यह होता है कि कैसे अलग-अलग देशों में फिल्मकारों ने यह लगभग एक जैसी मासूम संवेदना और वेदना को अपने सिनेमा का आधार बनाया। बैरेज में एक माँ अपनी बेटी को तब अपने ढंग से परवरिश और सान्निध्य के दबाव डाल रही है जब उसका संसार खुलने को है और वह छोटी ही उम्र से अपनी नानी के पास रह रही है। इस बच्ची की चुप्पी बड़े सवाल खड़े करती है। दूसरी ओर लवलेस जैसी फिल्म जिसमें तलाक लेकर अलग होने को आतुर पति-पत्नी को अपने बच्चे के भविष्य का ख्याल ही नहीं है। वह उसकी उपस्थिति में घर का सौदा कर रहे हैं ताकि घर बेचकर अलग हो जायें। ऐसे में उस बच्चे का एक दिन गायब हो जाने की घटना भी उपेक्षा शिकार हो जाती है। माता-पिता को इतना निर्मम देखना त्रासद लगता है पर यह है दुनिया के ही समाज का सच। तीसरी ओर एक फिल्म फादर एण्ड सन में एक पहाड़ी इलाके में रहने वाले गरीब मछुआरे का अपने बच्चे के साथ कठिन संघर्ष है जो मासूम एक गम्भीर बीमारी का शिकार हो गया है।

भारतीय सिनेमा खण्ड में फीचर फिल्म श्रेणी में कच्चा लिम्बू, कड़वी हवा, क्षितिज-ए होराइजन, पिहू, रुख, टेक आॅफ, वेण्टिलेटर, बिसोर्जन, माछेर झोल, मुरम्बा, न्यूटन और नाॅन फीचर फिल्मों में बलूत, अम्मा मेरी, एपिल, ए वेरी ओल्ड मैन विद एनाॅरमस विंग्स, खिड़की, पलाश, पुष्कर पुराण आदि विषयों की मौलिकता और कथ्य के साथ परदे पर उसके निर्वाह के कौशल और दृष्टिकोण के कारण पसन्द की गयीं। अलावा दादा साहब फाल्के अवार्ड से विभूषित फिल्मकार के. विश्वनाथ की फिल्मों सागर संगमम, शंकराभरणम, स्वाति किरानम को देखा गया। उल्लेखनीय यह भी कि इस साल दिवंगत हुए फिल्मकारों और कलाकारों को श्रद्धांजलि देते हुए सरकार ने ओमपुरी की अर्धसत्य, विनोद खन्ना की अचानक, अब्दुल मजीद की असमिया फिल्म चमेली मेमसाब, टाॅम आल्टर की ओसियन आॅफ एन ओल्ड मैन, रीमा लागू की मराठी फिल्म सवाली, जयललिता की तमिल फिल्म अइयारथिल ओरुवन, कुन्दन शाह की जाने भी दो यारों, दासरि नारायण राव की तेलुगु फिल्म ओसे रामुलम्मा और रामानंद सेनगुप्ता की बंगला फिल्म नागरिक को भी स्थान दिया गया था। हिन्दी मीडियम और सीक्रेट सुपर स्टार जैसी फिल्में भी सुगम और बोधगम्य फिल्मों की श्रेणी में शामिल थीं जो पूर्व प्रदर्शित भी हैं।

समारोह के समापन अवसर पर भारतीय सिनेमा के महानायक अमिताभ बच्चन को साल की इण्डियन फिल्म पर्सनैलिटी के रूप में सम्मानित करने किया गया वहीं लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड प्रसिद्ध कैनेडियन निर्देशक एटाॅम इगोयान दिया गया। समापन अवसर सलमान खान, कैटरीना कैफ और अक्षय कुमार जैसे सितारों की उपस्थिति से और भी यादगार बन गया। कनाडा के सर्वाधिक प्रतिष्ठित फिल्मकार एटाॅम को एक्जोटिका से अन्तर्राष्ट्रीय पहचान मिली। उनकी एक फिल्म द स्वीट हेअरआॅफ्टर भी प्रेक्षकों में पसन्द की गयी थी। अरारत, श्लोए, व्हेयर द ट्रुथ लाइज़, अडोरेशन, डेवल्स नाॅट, द केप्टिव, रिमेम्बर इगोयन उनकी अन्य श्रेष्ठ फिल्में हैं। फ्रांस के सर्वोच्च सम्मान कम्पेनियन आॅफ द आर्डर आॅफ कनाडा से सम्मानित एटाॅम इगोएन विश्व सिनेमा में सर्जनात्मक उपलब्धियों का एक अहम चेहरा हैं। 

गोआ की अनुपम प्रकृति और छटाओं के बीच आयनाॅक्स, कला अकादमी भवन, मेक्विनेज़ भवनों में फिल्मों के प्रदर्शनों ने प्रतिदिन सुबह लगभग नौ बजे से देर रात बारह बजे के बाद तक सिनेमा का ऐसा माहौल बनाया जिसको देखकर लगता था कि दुनिया के सिनेमा को एक जगह पर देख पाने का इससे बेहतर सुअवसर और नहीं है। बड़ी बात यही है कि लगभग पचास साल से यह परम्परा एक बड़े रूप में स्थापित हो चुकी है और दुनिया के फिल्मकारों और सिनेप्रेमियों को इस अवसर का इन्तजार। सिनेमा का वजूद अपने आपमें बहुत मयाने रखता है। उसकी वजहें साफ हैं। सिनेमा का हमारे सपनों से जुड़ा होना, हमारे अचम्भे का हिस्सा होना, हमारी महात्वाकांक्षाओं में शामिल होना और ऐसे अनेक कारण है जो सिनेमा को विशिष्ट बनाते हैं। 

बीसवीं शताब्दी की यह सबसे चमत्कारिक विधा इक्कीसवीं सदी के दो दशकों में आधुनिक तकनीक, संसाधन और क्षण भर में हमसे सम्पर्क कर संवाद स्थापित करने वाली है, निश्चित ही इसकी उतनी ही लाभ-हानियाँ भी हैं लेकिन इसके बावजूद सिनेमा हमारे रोमांच का पर्याय है, हमारी स्फूर्ति का पोषक है, इसे नकारा नहीं जा सकता। 
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शुक्रवार, 8 दिसंबर 2017

खूबियाँ जो धर्मेन्द्र को सदाबहार बनाती हैं....

जन्मदिन : 8 दिसम्बर


भारतीय सिनेमा के सदाबहार अभिनेता धर्मेन्द्र एक सदैव प्रासंगिक सितारे हैं। 8 दिसम्बर को उनका जन्मदिन है। देश के कोने-कोने से उनके चाहने वाले मुम्बई पहुँचते हैं, यथाक्षमता उपहार, फूल, गुलदस्ता और खूब सारा प्यार लिए। धर्मेन्द्र सबसे मिलते हैं, यह दिन यदि वे मुम्बई में हुए तो उनसे मिलकर जाने वाले के लिए यादगार बन जाता है। बयासी वर्ष की उम्र में वे अनुशासित और अपनी फिटनेस को लेकर सजग रहते हैं। जहाँ तक सक्रियता की बात है तो वे न केवल यमला पगला दीवाना के तीसरे भाग की शूटिंग में व्यस्त हैं बल्कि अपनी भावनात्मक फिल्म अपने का सीक्वेल भी बनाने की तैयारी कर रहे हैं। उनकी ही देखरेख में उनका पोता और सनी का बेटा राजवीर अपनी पहली फिल्म पल पल दिल के पास से सिनेमा में प्रवेश करने जा रहा है। 

धर्मेन्द्र एक साफदिल इन्सान, भीतर-बाहर एक सा व्यक्तित्व हैं। उनका व्यक्तित्व एक खुली किताब की तरह है। वे हमारी-आपकी तरह सहज और सीधे-सादे इन्सान हैं। फिल्म जगत मेें उनका आना, यूँ किसी बड़े सुयोग या चमत्कार से कम न रहा है। फगवाड़ा, पंजाब के एक छोटे से गॉंव ललतों में उनका बचपन बीता। बचपन से उनको सिनेमा का शौक था। अपने तईं जब उनको मौका मिलता था, तब तो सिनेमा वे देखते ही थे, इसके बाद अपनी माँ और परिवार के सदस्यों के साथ भी वे फिल्म देखने का कोई अवसर जाने नहीं देते थे। उन्होंने स्वयं ही बताया कि बचपन में सुरैया के वे इतने मुरीद थे कि चौदह वर्ष की उम्र में उनकी एक फिल्म दिल्लगी उन्होंने चालीस बार देखी थी। धर्मेन्द्र अपने पिता को काफी डरते थे। उनसे सीधे बात करने की हिम्मत उनकी कभी न पड़ती। अपनी माँ के प्रति उनकी गहरी श्रद्घा रही है। 

उन्होंने फिल्म फेयर की नये सितारों की खोज प्रतियोगिता में हिस्सा लेकर अपने सितारा बनने के स्वप्र को साकार करने की दिशा में पहला कदम रखा था। जब उनको मुम्बई बुलाया गया तो खुशी का पारावार न रहा। इस यात्रा के लिए उनको फस्र्ट क्लास का टिकिट और फाइव स्टार होटल में ठहरने के इन्त$जाम के साथ बुलाया गया था। वे इसके लिए फिल्म फेयर के तब के सम्पादक पी. एल. राव को याद करना नहीं भूलते। यह 1958 की बात है। चयन तो उनका हो गया और फिल्म फेयर ने अपने जो स्टार घोषित किए उनमें धर्मेन्द्र भी शामिल थे मगर उनको एकदम से काम नहीं मिला। धर्मेन्द्र लेकिन जिद के पक्के थे। उन्होंने संघर्ष किया। अभिनेता बनने के ही ख्वाहिशमन्द अर्जुन हिंगोरानी और धर्मेन्द्र अक्सर काम के सिलसिले में किसी न किसी ऑफिस में एक-दूसरे को मिल जाते थे। दोनों में ऐसी दोस्ती हुई कि अर्जुन ने हीरो बनने की कोशिश से अपने को दूर करके निर्देशक के रूप में कैरियर शुरू किया तो उनके पहले नायक धर्मेन्द्र थे, दिल भी तेरा हम भी तेरे के साथ। बाद में यह दोस्ती ऐसी परवान चढ़ी कि हिंगोरानी की हर फिल्म के नायक धर्मेन्द्र ही हुए, शोला और शबनम, कब क्यों और कहाँ, कहानी किस्मत की आदि। 

धर्मेन्द्र की फिल्मोग्राफी बड़ी समृद्ध है। शायद ही ऐसा कोई श्रेष्ठï निर्देशक हो, जिनके साथ उन्होंने काम न किया हो। सीक्वेंस में देखें तो निर्माताओं में, निर्देशकों मेें, साथी कलाकारों में, नायिकाओं मेें ऐसे अनेक नाम सामने आते हैं जिनके साथ अपने कैरियर में कई बार, अनेक फिल्मों में उन्होंने काम किया। मोहन कुमार, मोहन सैगल, राज खोसला, बिमल राय, हृषिकेश मुखर्जी, असित सेन, रमेश सिप्पी, दुलाल गुहा,  जे. पी. दत्ता, अनिल शर्मा, ओ. पी. रल्हन, मनमोहन देसाई, रामानंद सागर, चेतन आनंद, विजय आनंद जैसे कितने ही निर्देशक होंगे जिनके साथ धर्मेन्द्र ने अपने समय की यादगार फिल्में की हैं। धर्मेन्द्र के कैरियर का शुरूआती दौर बहुत ही विशेष किस्म की अनुकूलता का माना जाता है। यह वह दौर था जब उन्होंने अपने समय की श्रेष्ठï नायिकाओं के साथ अनेक खास फिल्मों में काम किया। 

लेकिन इस दौर में जिन नायिकाओं के साथ उनकी शुरूआत हुई, उनके साथ आगे काम करने के लगातार मौके आये। जैसे नूतन के साथ बन्दिनी मेें, माला सिन्हा के साथ आँखें, अनपढ़ में, मीना कुमारी के साथ चन्दन का पालना, बहारों की मंजिल, मझली दीदी, फूल और पत्थर, मैं भी लडक़ी हूँ, काजल में, प्रिया राजवंश के साथ हकीकत में, शर्मिला टैगोर के साथ सत्यकाम, अनुपमा, चुपके चुपके, देवर, मेरे हमदम मेरे दोस्त मेें, नंदा के साथ आकाशदीप में, आशा पारेख के साथ आये दिन बहार के, आया सावन झूम के, मेरा गाँव मेरा देश में, राखी के साथ जीवनमृत्यु और बलैक मेल में, हेमा मालिनी के साथ नया जमाना, राजा जानी, प्रतिज्ञा, ड्रीम गर्ल, चाचा भतीजा, शोले, चरस, जुगनू, सीता और गीता, दोस्त, तुम हसीं मैं जवाँ, द बर्निंग ट्रेन, दिल्लगी, बगावत, रजिया सुल्तान में, सायरा बानो के साथ रेशम की डोरी, आयी मिलन की बेला, ज्वार भाटा में, वहीदा रहमान के साथ खामोशी, फागुन में, सुचित्रा सेन के साथ ममता में, रेखा के साथ झूठा सच, गजब, कहानी किस्मत की, कर्तव्य में उनकी जोडिय़ाँ बड़ी अनुकूल और परफेक्ट भी प्रतीत होती हैं। 

लगभग दो सौ से अधिक फिल्मों के माध्यम से धर्मेन्द्र ने न जाने कितने ही किरदारों को परदे पर साकार किया है। दर्शकों के बीच उनके सभी किरदार अपने-अपने ढंग से प्रतिष्ठिïत हैं। रामानंद सागर की फिल्म आँखें ने उनको इण्डियन जेम्स बॉण्ड के रूप में पहचान दी। रूमानी किरदार, बुरा आदमी, कानून का रक्षक, सच्चा और स्वाभिमानी चरित्र, बॉक्सर, फाइटर टाइप के चरित्र हों या इसके अलावा कुछ और, धर्मेन्द्र सभी मेें प्रभावशाली ही नजर आये। कॉमेडी में धर्मेन्द्र कुछ अलग ही रेंज के आदमी दिखायी पड़ते हैं जिसका उदाहरण तुम हसीं मैं जवाँ, प्रतिज्ञा, चाचा- भतीजा, गजब, शोले, चुपके-चुपके, नौकर बीवी का जैसी फिल्में हैं। 

धर्मेन्द्र भारतीय सिनेमा में एक यशस्वी उपस्थिति हैं। उनके साथ सदाबहार कलाकार की पहचान जुड़ी हुई है। धर्मेन्द्र दर्शकों में अपनी छबि को लेकर कहते हैं, कि फिल्मों में काम करते हुए दर्शकों में हमेशा मेरे लिए जो प्यार रहा है, उसको परिभाषित करना कठिन है। हर माँ ने मुझमें अपना बेटा देखा है, हर बहन ने मुझमें अपना भाई देखा है। और हर प्रेमिका ने........ इस पर वे शरमा जाते हैं। धर्मेन्द्र कहते हैं कि इस इण्डस्ट्री ने, इस हिन्दुस्तान ने मुझे जो दिया है, उसको बयाँ करना आसान नहीं है। ये ही वो दुनिया है जिसने धर्मेन्द्र को बनाया है।