फिल्म जो मन को छूकर मन में बैठ जाती है

अब हमारा दिमाग उन सबसे हट गया है जब हम सिनेमाघर में जाकर बैठ गये हैं। इस समय निरर्थक क्रांति करने वाले नारे कौंध नहीं रहे हैं कि शुरूआत में ही इस बात पर चौंकते हैं जब अदिति अपने पति निरेन को अपने फिर से गर्भवती होने की बात बतलाती है। तब करीब-करीब युद्ध में बदलती बहस है। बच्चा चाहिए या नहीं। यह भी डर है कि पहली बेटी की तरह ही जानलेवा बीमारी का शिकार होकर जन्मी तब। पिता गर्भपात कराना चाहता है और मॉं नहीं। अन्तत: सन्तान बेटी के रूप में जन्म लेती है। स्वाभाविक रूप से फिल्म में यह घटना और उसी लड़की का नैरेशन कुछ एक साथ चलते हैं। लड़की जो अठारह साल की उम्र तक आते-आते इस दुनिया से चली गयी लेकिन पल्मोनरी फिबरोसिस नाम की जन्मजात बीमारी के साथ इसका जन्मते ही संघर्ष और परिवार में उसको लेकर वातावरण इस फिल्म में इतने सूक्ष्मत विवेचन के साथ दिखाया गया है जिसको देखते हुए एक पल भी ऊब का एहसास नहीं होता।
चार लोगों के परिवार में माता-पिता, भाई-बहन हैं। सबसे पहली भी बेटी थी जो इसी बीमारी के कारण छोटी उम्र में ही चल बसी थी। आने वाली सन्तान को लेकर यही बहस है कि कितने दिन जियेगी, कैसे जियेगी और जब थोड़ा जियेगी तो इसे दुनिया में लाया ही क्यों जाये। चित्रकार और लेखिका बनकर अपने जीवन को साहसिक ढंग से जीने वाली यह लड़की आयशा अपने इन लड़ते-झगड़ते और कई बार मारपीट करते माता-पिता का आभार कहती है कि उन्होंने इसे दुनिया में आने दिया। न केवल आने दिया बल्कि उससे ज्यादा वे दोनों भी उसकी बीमारी के साथ लड़ते रहे, टूटते रहे, फिर जुड़ते रहे।
कहानी क्या है, एक मर्मस्पर्शी आत्मकथ्य है लेकिन वह एक बहुत बहादुर लड़की का है जो हर स्थितियों में हारा नहीं करती, लड़ा करती है। वह अपने माता-पिता को अपने ऊपर जान छिड़कते देखा करती है, वह यह जानती है कि जीना बहुत कठिन है लेकिन वह उनके हौसले से पहले टूटती नहीं। उसका विनोदप्रिय होना, जैसे बात-बात पर वह नैरेट करते हुए अपने मम्मी -पापा की सेक्स लाइफ की जीवन्तता की बात भी करती है, दर्शक इस गम्भीर फिल्मे को देखते हुए हँसने लगता है। एक जगह शुरू में वह कहती है कि मेरे मम्मी -पापा के पास हनीमून के लिए नेपाल जाने के पैसे नहीं थे लेकिन मैं पैदा क्या हुई, लन्दन की सैर करा दी।

जायरा वसीम ने फिल्म में बेटी का किरदार निभाया है। देखते हुए ऐसा लगा ही नहीं कि हमारे सामने कलाकार है। जिस तरह से वह आयशा चौधरी की पूरी की पूरी आत्मा को आत्मसात करती है वो उनके लिए सलाम करने का मन देता है। आखिरी आखिरी की पेण्टिंग, कविताऍं, नैरेशन सब कुछ और मॉं की जी-तोड़ कोशिश की बेटी की ऑंख बन्द होने से पहले उसकी किताब की एक प्रति छपकर आ जाये। ओह........बड़ा मुश्किल होता है सब कुछ सहना। इस फिल्म में एक भाई भी है और एक कुत्ता भी। सब के सब पता नहीं कैसे घुट्टी पिये अपना शॉट दे रहे होते हैं। आरम्भ के दृश्य में ही जहॉं से पूर्वदीप्ति (फ्लैशबैक) शुरू होती है, पहले आयशा के पलंग पर कुत्ते का मायूस सा सोया होना हृदयविदारक रिक्तता का एहसास कराता है।
यह फिल्म गुलजार साहब की दिल पर पेन से लिखी जाती कविता की भावुक सिहरन के लिए भी याद रह जाती है। शोनाली बोस और निलेश मणियार ने इस सच घटना को सिनेमा में जस का तस गढ़ दिया है बिना उसकी आत्मा को छेड़े या मारे जिसका खतरा हिन्दी सिनेमा में बहुत होता है और मानस मित्तल ने फिल्म बहुत सलीके से फिल्म एडिट की है। यह फिल्म कई दिनों तक दिमाग में बनी रहेगी। आमतौर पर सिनेमा के प्रति निरी सतही विचारधारा के अभ्यस्त दर्शकों में से गम्भीर दर्शक यदि इसे चुनते हैं देखने के लिए तो उपलब्धि ही महसूस करेंगे।
#theskyispink Shonali Bose