
यह एक रोमांटिक युवा की कहानी है जो बड़े परिवार का है और दसवीं पास करना उसके लिए विशेष योग्यता है। बाकी पिता और पिता का आर्थिक प्रबन्धन और साम्राज्य है ही। इसी के साथ वह प्रेम की परीक्षा देने निकलता है। कहानी झाँसी से कोटा आती-जाती है। नायिका एक रिश्ते में ठगी गयी है और वह इस हार से बड़ी एक सफलता की तलाश में है। उसकी बहन की शादी की उलझन और इस नायक का मिलना एक अलग से समीकरण बनाता है। कहानी यों बहुत छोटी होती लिहाजा मध्यान्तर में नायिका को उस पूरे मांगलिक दृश्य से हटा देना और फिर कहानी को अपेक्षाकृत कम सार्थक प्रतीत होने वाले स्वप्न से जोड़ना इसलिए बहुत प्रभावित नहीं करता क्योंकि फिल्म के अन्त में नायिका झाँसी में एयर होस्टेस के प्रशिक्षण वाला इन्स्टीट्यूट चलाना तय करती है। बेहतर होता, नायक शादी करके नायिका के साथ विदेश चला जाता। खैर करण जौहर ज्यादा समझदार हैं क्योंकि फिल्म बनाने में धन उन्होंने ही लगाया है, अपनी सलाह लगभग व्यर्थ की है.....
बद्रीनाथ की दुल्हनियाँ के अच्छे लगने के पीछे उसका मनोरंजन का सीधा-सादा सिद्धान्त है। कोई घुमाव-फिराव नहीं है। इसीलिए सीधी धारा पर कहानी चलती है। फिल्म में संवाद निरन्तर और दिलचस्प हैं। खासकर वाक्चातुर्य चरित्रों के व्यवहार में झलकता है, नायक वरुण धवन, नायिका आलिया भट्ट और दूसरे सहायक कलाकार। फिल्म को सहायक कलाकारों ने भी बखूबी जमाया है। शादी-ब्याह के मसले, पारिवारिक मांगलिक उल्लास, विसंगतियाँ, रूढ़ियाँ, अविश्वास इन सबके बीच से समय को देखने की कोशिश है। गाने निरर्थक हैं, ज्यादा हैं और पुराने गानों को दोहराने की भी आवश्यकता नहीं थी।
नयी पीढ़ी का जीवन को लेकर सोच, स्वप्न और यथार्थ के बीच जो घटित होता है, वह फिल्म के मूल में है। नायिका की माँ की भूमिका में कनुप्रिया शंकर पण्डित Kanupriya Shankar Pandit, पिता की भूमिका में स्वानंद किरकिरे, सहनायकों की भूमिकाओं में अपाशक्ति खुराना, नायक के मित्र की भूमिका में साहिल वैद आदि पूरक हैं और अपनी भूमिकाओं को बखूबी निबाहते हैं। मुम्बई से बनकर आने वाली फिल्मों में हम कई बार भ्रम और धोखे में अच्छी समझकर बुरी फिल्म को भुगत आया करते हैं, उस लिहाज से बद्रीनाथ की दुल्हनियाँ बेहतर फिल्म है। देख लेना चाहिए। यदि सितारा देना ही मापदण्ड है तो मानिए कि लगभग तीन सितारे देने योग्य है यह फिल्म, अपने बजट, अपनी सीमाओं, अपनी सितारा बिरादरी के साथ...........
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