स्मृति शेष: कुन्दन शाह

भारतीय सिनेमा में नवाचार की आहट पश्चिम बंगाल और दक्षिण से होते हुए हिन्दी सिनेमा तक आयी थी। यह लगभग अस्सी का दशक था जब श्याम बेनेगल और गोविन्द निहलानी ने इस माध्यम को सम सामयिकता, घटनाक्रम और यथार्थ के दृष्टिकोण से देखा वहीं सईद अख्तर मिर्जा, कुन्दन शाह, विधु विनोद चोपड़ा, अजीज मिर्जा, सुधीर मिश्रा आदि फिल्मकारों ने एक-दूसरे के साथ-संगत से, एक-दूसरे से सीखते और अनुभव लेते हुए सामूहिकता में ही वह सब दिलचस्प रचा जिसे हमारे सिनेमा में हृयूमर की तरह लिया गया। लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि ऐसे में संवेदना या संवेदनशीलता की स्थितियों या सम्भावना को ही ताक पर रख दिया गया हो। इसे साथ लेकर चलते हुए, जीवन की कठिनाइयों, मुसीबतों, विडम्बनाओं के साथ हँसने और हँसाने के लिए सुन्दर सी परिपाटियाँ शोध करने और प्रयोग में लाने का काम जिन फिल्मकारों ने किया था उनमें कुन्दन शाह की अपनी मौलिकता बहुत मायने रखती है।
व्यक्तित्व में कुन्दन शाह प्रदर्शनपरक (शो बाज़) नहीं थे। वे पटकथा लेखक, निर्देशक प्रतीत भी नहीं होते थे। एक लम्बी बातचीत का सुयोग टिप्पणीकार को कुछ वर्ष पहले रहा है। उनमें व्यक्तित्व, व्यवहार या बातचीत में इस बात का भी गर्व नहीं झलकता था कि उन्होंने जिस शाहरुख खान को कभी हाँ कभी ना में अवसर दिया, एक पूर्णकालिक नायक का, वह सुपर स्टार हो गया है। वे ऐसे कर्मयोगी थे जो कर्म करके नये सोच में प्रवृत्त होते थे, स्मृतियों या व्यतीत वैभव से वर्तमान में आनंदित होने वाले मनुष्य नहीं थे। जाने भी दो यारों के लिए पूर्णकालिक व्यस्तता, अनुभव और श्रेय के बाद उन्होंने अपने साथी विधु विनोद चोपड़ा के लिए खामोश फिल्म की पटकथा भी लिखी थी।
जाने भी दो यारों उनका पहला और श्रेष्ठ सिने सृजन था। अपनी इस पहली फिल्म को याद करते हुए एक बार प्रतिष्ठित निर्देशक और अभिनेता सतीश कौशिक ने बताया था कि जब मुम्बई आये थे तो बहुत सारे सपने थे। निर्देशक बनने का स्वप्न था लेकिन उसके पहले कलाकार के रूप में अवसर सामने आने लगे। जब दो-तीन अवसर बाद उपलब्धियाँ नहीं आयीं तो लगा फिल्म लिखी जाये तो हम कुछ मित्रों ने बैठकर जाने भी दो यारों के बारे में सोचा। जाने भी दो यारों कुछ अलग हटकर, कुछ अनोखा और कुछ अनूठा करने वाले अनेक मित्रों के सकारात्मक सोच, सार्थक बहसों और उत्तरोत्तर परिष्कार से तैयार हुई पटकथा थी जिसमें अभिनय करने वाले कलाकार भी उसी सामूहिकता का हिस्सा थे। यही कारण है कि आज भी उस फिल्म को देखना गहन एकाग्रता के बोध के साथ उन सारे अचरजों से गुजरना है जो हमारे आसपास के ही हैं, एकात्मकता में वे कष्टप्रद या असहनीय हो सकते हैं पर सामूहिकता में उनका अपना रोमांच है, तमाम जोखिमों के बावजूद।
कुन्दन शाह ने नुक्कड़ धारावाहिक के कुछ एपिसोड, ये जो है जिन्दगी के लगभग सभी एपिसोड, वागले की दुनिया धारावाहिक को निर्देशित करते हुए अपनी प्रखर रचनात्मकता का परिचय दिया था। बीसवीं सदी का समापन कहें या अवसान काल कहें, हमारे आसपास बहुत सारे विकास और आधुनिकता के आग्रहों के बावजूद विडम्बनाओं और समस्याओं के स्तर पर जिस तरह गरीबी, बेकारी, मध्यमवर्गीय स्वप्नों और चुनौतियों को लेकर जूझ रहा था वहाँ कलाएँ अपने लिए जगह तलाश रही थीं, संगीत और नाटक के संसार में प्रबुद्धों का अपना वर्चस्व स्थापित हो रहा था। सिनेमा में दर्शक समाज अमिताभ बच्चन के महानायकत्व और उन अनुभूतियों से अपने आपको दूर करते हुए नये और प्रतिभाशाली चेहरों में कल का नायक तलाश रहा था। इस पूरे के पूरे दौर में कुन्दन शाह और उनके अनेक गुणी और कर्मठ साथियों ने उस खाली जगह का सार्थक सदुपयोग किया जहाँ पैर टिकाने के लिए, खड़े रहने के लिए और पहचाने जाने के लिए लगभग सभी को समान अवसर थे। तभी तो नुक्कड़ के तमाम चरित्रों में तकलीफों के साथ-साथ खुशी भी बोलती है। ये जो है जिन्दगी में जीवन की नीरसता को भंग कर देने के लिए रोचक बातें और घटनाक्रम हैं। वागले की दुनिया में साधारण नौकरी करते हुए अपने छोटे-बड़े स्वप्नों के साथ जीवननैया को उस पार तक खेने की सादगी और सहजता है। कहीं कोई शिकायत नहीं है पर अपने पुरुषार्थ को परीक्षा में लगाया हुआ है, यह सब बातें कुन्दन शाह अपने धारावाहिकों, अपने सिनेमा में संजोते थे।
कभी हाँ कभी ना उनकी एक अत्यन्त मर्मस्पर्शी फिल्म है। एक ऐसी फिल्म में जिसमें गलतफहमियाँ खड़ी करके, झूठ बोलकर भी एक चरित्र पूरे नायकत्व को जीता है, उसका निर्वाह करता है। वह प्रेम करता है उससे जो उससे नहीं उसके मित्र से प्रेम करती है, उनके बीच प्रायः भ्रम फैलाना उसका प्रयोजन है। बांधे रखने वाले घटनाक्रम हैं, हम देखते हैं कि लड़के-लड़कियों का एक मित्र समूह है जिसमें कोई किसी का शत्रु नहीं है मगर अपनी-अपनी तरह से असहमतियाँ काम करती हैं। ऐसे युवा हैं जिनका अभी कोई धरातल नहीं है। कुन्दन शाह इन सबके बीच से होते हुए एक प्यारा सा, भावनात्मक क्लायमेक्स ले आते हैं जिसमें सब मिलकर नायक के लिए गाते हैं, वो तो है अलबेला, हजारों में अकेला...........दरअसल यह उदारता, यह दर्शन और यह समाधान किसी भी खूबसूरत सिनेमा की पहचान है। ऐसे खूबसूरत सिनेमा के रचयिता थे कुन्दन शाह।

कुन्दन शाह के सिनेमा में एक रोचक साम्य कम से कम दो फिल्म में मेरे देखे आया, वह यह कि क्लायमेक्स में सभी किरदार मिलकर एक गीत गाते हैं। कभी हाँ कभी ना में वो तो है अलबेला और क्या कहना में ऐ दिल लाया है बहार, अपनों का प्यार, क्या कहना, यह प्रयोजनपूर्वक प्रयोग परिवार, समाज और समाज से जुड़कर बनने वाले देश में आपस की मजबूती, सहमति और एकता-एकजुटता के साथ किसी भी कठिनाई या चुनौती से जूझ जाने का जज्बा है। कुन्दन शाह जैसा फिल्मकार अपने ऐसे ही गहरे सृजन से हमेशा हमारे बीच बना रहेगा, हमारी चिरस्मृतियों में पूरे रचनात्मक स्थायित्व के साथ।
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