राजकपूर / पुण्यतिथि पर स्मरण
2 जून हिन्दी सिनेमा के शीर्षस्थ अभिनेता और निर्देशक राजकपूर की पुण्यतिथि का दिन है। आज से तीस साल पहले 1988 में उनका निधन हो गया था। वे नईदिल्ली में दादा साहब फाल्के सम्मान ग्रहण करने आये थे, अचानक उनकी तबीयत खराब हो गयी थी और उनको आॅक्सीजन की जरूरत पड़ी थी। पुरस्कार लेने के बाद उनको तत्काल अस्पताल दाखिल करना पड़ा था जहाँ लम्बी चिकित्सा के बाद उनका निधन हो गया था। निधन से पहले उनकी अन्तिम निर्देशित फिल्म राम तेरी गंगा मैली थी जो 1985 में प्रदर्शित हुई थी। इस फिल्म के बाद वे भारत-पाकिस्तान की पृष्ठभूमि पर एक फिल्म हिना बनाना चाहते थे और इसके लिए नायिका की तलाश कर रहे थे। उनके नहीं रहने के तीन साल बाद बेटे रणधीर कपूर ने 1991 में हिना बनाकर प्रदर्शित की। यह पुत्र की पिता को श्रद्धांजलि थी। हिना का दर्शकों और प्रेक्षकों ने अपनी-अपनी तरह से आकलन किया था लेकिन तटस्थ होकर विचार किया जाये तो पिता के अधूरे सपने को पूरा करने में रणधीर कपूर ने अपनी क्षमताओं का पूरा प्रयोग किया था।
एक निर्देशक के रूप में भले रणधीर बड़ी पहचान और प्रतिष्ठा के साथ स्थापित न हों लेकिन उन्होंने निर्देशन का अनुभव बड़ा पहले से प्राप्त कर रखा था। जब उन्होंने 1971 में कल आज और कल फिल्म का निर्देशन किया था तब इस बात के लिए उनकी सराहना हुई थी कि उन्होंने अपने परिवार की तीन पीढ़ियों के साथ फिल्म बनायी है। समय के साथ आने वाले बदलाव और सोच को लेकर उनका यह प्रयोग बुरा नहीं था बल्कि इस बार को भी रेखांकित किया गया था कि रणधीर ने अपने से कहीं अधिक काबिल अपने पिता और दादा को निर्देशित करने में आत्मविश्वास नहीं खोया। बाद में उन्होंने 1975 में धरम करम भी बनायी जो एक प्रकार से अभिनेता के रूप में राजकपूर के सम्मानजनक प्रस्थान बिन्दु की फिल्म थी। इस तरह हिना को पिता के लिए देखा रणधीर कपूर का कोई बुरा स्वप्न नहीं था।
राजकपूर के नहीं रहने से एक बड़ा शून्य तो लम्बे समय तक व्याप्त हुआ इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता। भारतीय सिनेमा के शो-मैन कहे जाने वाले राजकपूर में अपने लम्बे अनुभवों, एक क्लैप बाॅय से कैरियर की शुरूआत और अभिनेता तथा निर्देशक तक बन जाना, इतना ही नहीं बन जाने के बाद अपने आपको लगातार प्रमाणित करने रहना रचनात्मक स्तर पर, वह बड़ा योगदान रहा है। वे रूमान और यथार्थ दोनों धरातल पर अपने सिनेमा को गढ़ने में सिद्धहस्थ थे। उनकी विशेषता यह थी कि वे अपनी सीमाओं और क्षमताओं को भलीभाँति जानते थे। वे यदि बरसात, आवारा और श्री चार सौ बीस जैसी फिल्में स्वयं निर्देशित करते थे तो उनको पता होता था कि बूट पाॅलिश या जागते रहो बनाते हुए प्रकाश अरोरा और शम्भु मित्र को जिम्मेदारी दी जानी चाहिए। हालांकि सभी फिल्मों पर उनकी निगाह रहती थी तभी वे अपनी छाप छोड़ने के कामयाब होते थे।

यह सही है कि राजकपूर अस्थमा के अपने आकस्मिक आघात से उपजी परिस्थितियों के जानलेवा हो उस आयाम तक न पहुँच सके लेकिन वे वो लकीर खींचने में कामयाब जरूर हुए जो बहुत श्रेष्ठता के साथ उनकी स्मृतियों को अमर रख सके। एक फिल्मकार के रूप मे उनकी पहचान, आज भी उनकी यादगार फिल्मों के माध्यम से है। अंधेरे में आँख खोलकर टकटकी बांधे सारी वर्जनाओं को त्याग देने को आतुर दर्शक के साथ प्रेम रोग और सत्यम शिवम सुन्दरम फिर राम तेरी गंगा मैली बनाकर उन्होंने उन आलोचकों को भी चुप कर दिया था जो राजकपूर को सीमाओं में रखकर देखते थे। वास्तविकता यही है कि वे एक महान फिल्मकार थे, एक महान कलाकार थे और उतने ही महान आम आदमी भी थे। समग्रता में उनकी आवाजाही अपने खास आदमी से अपने आम आदमी तक सहजतापूर्वक हो जाया करती थी और यह विशिष्टता से आज हमारे बहुतेरे फिल्मकार परे होकर रह गये हैं।
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