इस बार जो दो
फिल्में देखीं वे करीब दस-ग्यारह मिनट की रही होंगी। सर्जनात्मक माध्यमों में
उत्कृष्ट अभिव्यक्ति के साथ हस्ताक्षर होने वालों के प्रति मन गर्व से भर जाता
है। चकित होता हूँ कैसे ये लोग मन के डाकघर में अपनी पहचान का लिफाफा डालकर चले
जाते हैं। उनकी चिट्ठी पढ़ते रहने का मन होता है। जिन फिल्मों की चर्चा करने जा
रहा हूँ वे हैं गुब्बारे और पुदीना।
गुब्बारे
संजय गुप्ता
निर्देशित इस फिल्म में नाना पाटेकर, रोहित
राय और अनिता हसनंदानी हैं। एक बस की यात्रा का दृश्य है, अपने
शहर लौटते हुए पति और पत्नी अपने होने वाले घर को लेकर बात कर रहे हैं और
एक-दूसरे के तर्कों पर लड़ रहे हैं। पति बार बार पैर के पास रखी डोलची पर ठोकर मार
देता है जिसमें खाना रखा है, पत्नी उस बात पर उससे नाराज हो
रही है। वह एक बार यह भी कहती है कि खाना मॉं ने बनाया है। पति का तर्क है कि खाना
तो डिब्बे में रखा है। लापरवाह चेष्टा से बाज नहीं आने पर पति से खीजकर पत्नी
नीचे से डोलची उठाकर अपनी जगह पति के बगल में रख देती है और पीछे एक खाली सीट पर
जाकर बैठ जाती है।
यहॉं से कहानी
बदलती है। एक प्रौढ आदमी हाथ में दस-बारह गुब्बारे लिए जा रहा है लाल रंग के।
कौतुहलवश वह पूछती है किसके लिए ले जा रहे हैं। वह बतलाता है अपनी पत्नी के लिए।
फिर कहता है, जैसे तुम लोग लड़ रहे थे न, वैसा ही झगड़ा हममें भी होता है। जब मैं नाराज हो जाता हूँ तो वह मेरे लिए
कुछ मीठा बनाकर ले आती है और एक कागज में लिखकर छोड़ जाती है, सॉरी और जब वो मेरी वजह से नाराज हो जाती है तो मैं उसके लिए दस गुब्बारे
और एक कार्ड लेकर जाता हूँ सॉरी का। बस एक जगह रुकती है जहॉं वह आदमी उतर जाता है
लेकिन उतरते समय कार्ड वहीं भूल जाता है बस में। वह युवती उस कार्ड को देखती है और
बस से उतरकर उसको देने का उपक्रम करती है। नीचे वह उसे नहीं मिलता, थोड़ा आगे जाकर बाहर से नजर आ रहे कब्रिस्तान की ओर ध्यान उसका जाता है,
देखती है, वह एक कब्र के सामने गुब्बारे लिए
बैठा है। पीछे से उस ओर जाती है, चुपचाप खड़े होकर उसकी
बातें सुनती है और पीछे कार्ड छोड़कर चली आती है। जीते-जी कभी खत्म न होने वाले
पति-पत्नी के झगड़ों के बीच कौन सा मनोविज्ञान काम करता है, कोई समझ नहीं पाया। युवती बस में चढ़कर पति के पास जाकर बैठती है और उसके
निकट हो जाती है।
जब युवती उस व्यक्ति
से उसकी और उसकी पत्नी के बीच की बात सुन रही होती है तक आपस के कुछ और रोमांटिक
विवरण भी मिलते हैं जिसमें मेंहदी लगाने पर नाराज हो जाने वाला दिलचस्प है। हादसा
एक बार नाराज होकर काम पर चले जाने के बाद होता है। कब्र के पास बैठा पति पत्नी
से बात कर रहा है, अब वह वो सब करता है जो
पत्नी कहा करती थी, तब नहीं करता था जिसके कारण झगड़ा होता
था। दो-चार गुब्बारे ज्यादा ले जाने की सूझ भी खूब है, वह
कहता है कम से कम दो चार फूट जाते हैं, ग्यारह गुब्बारे
देना होते हैं। इस फिल्म पर ज्यादा लिखने का मन है पर बेहतर है, पढ़ने वाला फिल्म ही देख ले। नाना पाटेकर तो खैर अपने किरदार झकझोरकर चले
जाते हैं। इस फिल्म में पैंतीस साल के विवाहित अनुभव की बात कहता यह चरित्र बहुत
दार्शनिक लगता है। रोहित राय को कुछ ज्यादा करने को मिला नहीं, अनीता का किरदार जरूर नाना से संवादों में रहता है तो वे अच्छा असर
छोड़ती हैं। इस दस मिनट की फिल्म पर एक हजार शब्द लिखे जा सकते हैं ऐसा मुझे
लगता है।
यह फिल्म एक बस
में ही घटित होती है। लम्बे-लम्बे सर्पिल रास्तों,
उतार-चढ़ावों से होती हुई बस का गंतव्य से मंतव्य तक जाना,
भीतर चल रहे प्रसंगों और संवादों के यथार्थ को ही व्यक्त करता है।
निर्देशक ने बड़ी सूझबूझ के साथ उस पूरे रास्ते का छायांकन बाहर से किया है जहॉं
से होती हुई बस आ रही है। निश्चित रूप से सिनेमेटोग्राफी की भी सराहना की जानी
चाहिए। फिल्म में सिनेमेटोग्राफर का नाम नजर नहीं आता है।
पुदीना

पूर्वदीप्ति में
दोनों के जवान होने के साथ ही कैसे मिले, पहली
बार ही में पकौड़े खिलाने का आग्रह पसन्द नहीं आया। पति बतलाता है कि उस समय उसके
पास एक गुलाब का फूल भी था। पत्नी कहती है कि तुमने तो आज तक मुझे गुलाब का फूल दिया
ही नहीं। तब अपनी जेब से वह गुलाब का फूल निकालता है और बड़े अदब से पत्नी को भेंट
करता है। इस फिल्म का निर्देशन शिरीष खेमरिया ने किया है। फिल्म में जय तिवारी,
शिवा तिवारी और गिरीश थापर ने काम किया है। जीवन खुशनुमा और भावनात्मक
पहलुओं को पेश करने वाली यह फिल्म छोटे छोटे सारांशों में से एक अच्छी सी बानगी कही
जा सकती है।
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