बुधवार, 17 अप्रैल 2019

Film Review / kalank

।। अब कलंक धोने का जिम्‍मा बेचारे दर्शकों पर ।।



अभिषेक वर्मन, करण जौहर की धर्मा प्रोडक्शन में कुछ समय पहले टू स्टेट्स निर्देशित करने आये थे। करण ने उनको कलंक निर्देशित करने का एक बड़ा जिम्मा देकर इस दौर में मल्टी स्टार कास्ट फिल्मों के दौर की व्यतीत स्मृति को भरपूर बजट के साथ बड़े लाभ के रूप में लौटा लाने का विफल प्रयत्न किया है। आज इस फिल्म को देखकर यह लगा कि हमारे निर्माता एक साथ इकट्ठा होकर कुछ चिट फण्ड टाइप का पैसा बहाऊ खेल भरपूर धन कमाने के लिए खेलते हैं लेकिन उनके पास वह दृष्टि और समझ नहीं है जिसकी वजह या सहायता से फिल्में हिट होती हैं।

कलंक आधा दरजन सितारों से लदी-फँदी फिल्म है, संजय दत्त, माधुरी दीक्षित, वरुण धवन, आदित्य रॉय कपूर, आलिया भट्ट, सोनाक्षी सिन्हा, कुणाल खेमू वगैरह। कहानी जिस तरह शुरू होती है, आरम्भ में दुनिया भर के स्पष्टीकरण के साथ जिसमें यह सबसे बड़ा कि काल्पनिक कहानी है। हम और हमारे पूर्वज विभाजन और बँटवारे के बारे में जितना जानते हैं और उससे जुड़े अप्रिय घटनाक्रम, उसकी ही छाया में यह कहानी कुछ अजीब ढंग से घटित होती है जिसमें भयावह बीमारी से मृत्यु के मुख में जाती सोनाक्षी सिन्हा, एक गरीब गुणी गायक पिता की तीन बेटियों में से एक को अपने पति के साथ विवाह के लिए राजी करने चली आयी है। गरीब पिता की बड़ी बेटी आलिया भट्ट अपनी उम्र को जीती, बहनों के साथ शरारत करती, पतंग उड़ाती और लूटती पाँच मिनट में एक गम्भीर चेहरा और त्याग से भरी हो जाती है। 

लाहौर के हुस्नाबाद में उसका उस महलनुमा घर में कुछ समय सोनाक्षी के साथ रहना, फिर सोनाक्षी की मृत्यु उसके बाद आलिया भट्ट का अचानक संगीत की तरफ रुझान होना, शहर की बड़ी तवायफ माधुरी दीक्षित की सोहबत और फिर उसी की सन्तान वरुण धवन से मोहब्बत हो जाना कहानी के मूल में है। आलिया का पति आदित्य और ससुर संजय दत्त कुछ चार लोगों के साथ अखबार किस तरह चलाते हैं जिसके नागरिक ही खिलाफ हैं। इसी में अदावत, हिसाब चुकाने के लक्ष्य, दबे षडयंत्र आदि के साथ अन्त में वरुण का मोहब्बत पर कुरबान होना ही लाजमी था। माधुरी दीक्षित के नाचते-गाते जिस तरह फिर हिंसक अन्त को परवान चढ़ती है वह अकल्पनीय है। अन्त में एक अनगढ़ सी पूर्वदीप्ति का दृश्य भी अंजाम पाता है क्योंकि आलिया किसी लेखक को अपनी कहानी सुना रही है। इस समय केवल आलिया, आदित्य और संजय ही जीवित हैं और आदित्य ने पिता संजय को माफ कर दिया है। आखिरी में जिस तरह से दुपट्टा हटाकर माधुरी हँसकर नाचती-गातीं है और और बूढ़े संजय दत्त अपनी प्रेमिका को याद करके मुस्कराते हैं, लगता है प्रेम इनका ही अमर हुआ है, शेष सब फनाह हो गये।

कलंक, आराम से एक खूबसूरत कहानी हो सकती थी, वरुण धवन और आलिया भट्ट की लेकिन निर्देशक जो पटकथाकार भी है, उसने इनके आसपास जिस तरह के चरित्र खड़े कर दिए उससे पूरी कहानी बोझिल हो गयी। शुरू में जिस तरह आलिया भट्ट का घर, पिता और बहन नजर आये थे, वो बाद में दोबारा नहीं आते, जिनके लिए आलिया ने यह त्याग किया है। सोनाक्षी अपने पति पर यह उपकार और आलिया के गरीब पिता और उनके अच्छे संसार पर यह वज्रपात करने क्यों आयी है यह भी पता नहीं। इधर वरुण धवन दृश्य में आये तो एकदम लेडी किलर की तरह जो सोने और सुलाने के हुनर को अपनी वीरता की तरह प्रदर्शित करता है। वह माधुरी और संजय का बेटा है यह रहस्य जल्दी ही खुल जाता है। अखबार मालिक संजय और उनके बेटे का शहर में जीना क्यों दूभर है इसको ढंग से निर्देशक स्थापित नहीं कर पाया। यह बात गले नहीं उतरती कि अखबार मशीनों के आने से विकास की सम्भावना देखता है और लाहौर के लोहारों को यह उनके रोजगार पर हमला लगता है। यह भी दिलचस्प है कि लोहारों के काम के प्रतीक के रूप में वरुण और उसके चार सहयोगी लोहा पीटते रहते हैं और चाकू, छूरी और तलवार ही बनाया करते हैं। 

कमजोर पटकथा पर तार्किक और दार्शनिक संवाद अपना असर उस तरह नहीं छोड़ पाते जैसी उम्मीद की जाती है। गाने अच्छे हैं, संगीत भी अच्छा है पर फिर भी याद न रहेंगे। चूँकि फिल्म प्रभावहीन है इसलिए उसका लम्बा होना अखर जाता है। वरुण धवन की माँ बनी अधेड़ माधुरी दीक्षित को खुश करने के लिए अन्त में उनको भरपूर स्पेस दिया गया है। भारी हिंसा के बीच उनका अपनी सखियों के साथ प्यार मोहब्बत के फलसफे को गा-गाकर उच्श्रृंखल होना शोभा नहीं देता क्योंकि उस समय एक नायक मारा जा रहा है, आग लगी हुई है, मारकाट मची है और बीच-बीच में माधुरी बुझे चेहरे के साथ नाचे जा रही हैं। संजय दत्त थके हुए लगते हैं। सधकर संवाद बोलते हैं, चेहरा तो जाहिर है उनका कुछ बोलता भी नहीं और अब उम्र भी खूब दीखती है। फिल्म वरुण धवन को बेहतर ढंग से पेश करती है, उन्होंने मेहनत भी की है, उनके साथ आलिया का कण्ट्रास्ट मैच करता है। आदित्य रॉय कपूर के लिए भी फिल्म व्यर्थ ही है।

भव्य सेट्स, आसपास का वातावरण, कलात्मक वैभव ऐसा कि अतिरेक ही होता चला गया है। बाग-तड़ाग-पक्षी-सरोवर-कमल-पत्ते-झूमर-आभूषण-वस्त्र सबको डेढ़ सौ परसेण्ट महकता हुआ कर दिया है यही इस फिल्म का ड्रा-बैक है। फिल्म के चरित्रों में से कितने कलंक मिटा सके, कितने कलंकित रह गये वह बात और है लेकिन दर्शकों के लिए आखिरी आधे घण्टे का अनुभव बहुत बुरा रहा होगा।

मित्रों से.......................तब भी फिल्म देखिए और सहिए क्योंकि एक बुरी फिल्म को बनाने में भी कितने सारे मस्तिष्क काम करते हैं और कोई भी आपस के किसी को भी सावधान नहीं करता, समझाता या सही राह नहीं दिखाता। हमारे सिनेमा की यही विडम्बना है। #filmreviewkalank