शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

देखकर / यारा

स्‍याह दुनिया में स्‍याह चरित्रों के बहाने सम्‍बन्‍धों की बुनावट

 


असाधारण अभिनेता इरफान के नहीं रहने के बाद उनके गहरे मित्र और उतने ही गहरे फिल्‍मकार तिग्‍मांशु धूलिया ने लम्‍बी चुप्‍पी के बाद मित्र को अपनी श्रद्धाजंलि के साथ यह फिल्‍म पेश करते हुए कमाल ही किया है। यारा को देखना एक बांधने वाला अनुभव है। उल्‍लेख करने वाली बात यह है कि आपके सामने लगभग सारे चेहरे जाने-पहचाने नहीं हैं लेकिन वे किरदार रखे इसलिए गये हैं कि हैं बहुत खॉंटी और अपने काम में जूझने वाले। लगभग दो घण्‍टे दस मिनट की यह फिल्‍म वास्‍तव में निर्देशक का सिनेमा है जिसमें जमकर स्क्रिप्‍ट है, जमकर संवाद हैं, जमकर दृश्‍य हैं, जमकर सिहरा देने वाली संवेदना और भय के एहसास हैं। पूरी तरह धूसर संसार में जाकर वहॉं एक फिल्‍मकार जिस तरह से जिन्‍दगी को देखता है, सपनों को देखता है और उन सपनों की कीमतों के बारे में दर्शकों को बतलाता है, वे लम्‍बे समय तक दिमाग में बैठे रह जाने वाले साक्ष्‍य हैं।

सीमावर्ती जगहों पर संगठित अपराध और छोटे-मोटे अपराधिक कृत्‍यों से अपनी दबंगई का साम्राज्‍य स्‍थापित करने वाली दुनिया में भी छोटी सी उम्र में बच्‍चे के दिमाग में अपने पिता के साथ हुए छल और दमन के थक्‍के मौजूद हैं। पिता का साया सिर से उठने के बाद नन्‍हें बच्‍चों का उस्‍तरे से घुटता हुआ सिर, पीछे छोड़ी गयी चोटी और उन बच्‍चों का एक-एक दृश्‍य को जीना क्‍या जैसे पीना देखने मिल रहा हो। वाकई निर्देशक कैसे कथा में बुनता है निर्मम होने के बीज, हृदयहीन होने जितना लोहा। चार दोस्‍त यहीं से अपनी दुनिया बनाने निकलते हैं।

फागुन, मितवा, रिजवान और बहादुर इन चार दोस्‍तों को बचपन से एक साथ बड़े होते, साथ मिलकर लूटपाट, हत्‍याऍं, हथियारों की तस्‍करी करते और आर्थिक रूप से अपने को समृद्ध करते हुए रास्‍ता आसान नहीं होता। जिस राह पर वे निष्‍कंटक अपनी राह बनाते चल रहे हैं उसी राह पर पीछे-पीछे षडयंत्र और मौत भी चलने लगी है। भारत-नेपाल की सीमा पर रात के भयावह सन्‍नाटे में अपराध की घटनाऍं और इन चारों में आपस की संगति के एकान्‍त, बात यह है कि दोस्‍ती अटूट है। एक पॉंचवा साथी जुड़ता है कुछ समय के लिए लेकिन उसे अन्‍त में एक दूसरे मोड़ पर मिलना था लिहाजा पटकथा से वह बीच में हट जाता है। मितवा एक जगह पुलिस की मार सह नहीं पाता उस समय उसका कहा गया आगे तक दोस्‍तों की इस दुनिया को बड़े झटके देता है, यहॉं तक कि एक-ए‍क मित्र मारे भी जाते हैं। अन्‍त में फागुन और मितवा जो छुटपन से अपने पिता के मारे जाने पर आपस में पहले साथी बने थे, उनके बीच द्वन्‍द्व है। फागुन, मितवा को उसके लिए का एहसास करा देता है जिसके परिणामस्‍वरूप वह अपने आपको गोली मार लेता है। फिल्‍म के अन्‍त में फागुन के घर उसके बेटे के साथ मितवा के बेटे की भी परवरिश दोनों के बचपन की दोस्‍ती के पहले सिनेमाई दृश्‍य से जाकर जोड़ती है। 

बचपन या असमय बच्‍चों की जिन्‍दगी में उनके बड़े की मृत्‍यु पर बड़े समझदार लोग जिस तरह का ढांढस बंधाते हैं जो बड़ा झूठा सा हाेता है, उसी तरह का एक संवाद इस फिल्‍म में शुरू में है, कोई मरता नहीं है, सब अपनी जिम्‍मेदारी पूरी करके हवा में उड़ते रहते हैं। यह अन्‍त में भी दोहराया जाता है।

1970 के समय का कथानक है। कलाकार बेलबॉटम पहना करते हैं। उसी समय से प्रभावित जवानी है और आदतें भी। जगह-जगह धरमवीर और अमर अकबर अंथनी जैसी उस समय की फिल्‍मों के पोस्‍टर लगे हैं। निर्देशक, गुणी सिनेमेटोग्राफर ऋषि पंजाबी के साथ देश-विदेश की शानदार लोकेशनों पर ले गया है। वहीं उसने सम्‍पादक गीता सिंह से भी खूब काम करा लिया है। फिल्‍म कहीं भी झूलती नहीं, तनी रस्‍सी की तरह बढ़ी चली जाती है। तब के कसीनो, अपराधियों की रंगरेलियॉं और उन कमजोरियों के साथ ही उनसे हिसाब-किताब करने के अंदाज। इन सबमें फागुन का अपना प्रेम प्रसंग और आगे जाकर शादी तथा मितवा का उसकी प्रेमिका से हुआ बच्‍चा भी पक्ष हैं। पुलिस और अपराधियों के पीछे लगी रहने वाली एजेंसियों के ईमानदार और भ्रष्‍ट अधिकारी भी हैं। मुख्‍यमंत्री के फोन से नायिका को जेल से सीधे छुड़ाने की घटना भी है। 

कलाकार जैसे किरदारों के लिए ही बने हैं। तिग्‍मांशु ने अपनी संतुष्टि का एक-एक शॉट लिया है। फागुन विद्युत जामवाल, मितवा अमित साध, रिजवान विजय वर्मा और बहादुर केनी बासुमतारी जैसे फिल्‍म पूरी होने तक या एक एक करके अपने अंजाम तक पहुँचने तक चैन से नहीं बैठते। सुकन्‍या श्रुति हसन को गुडि़या बनाकर नहीं रखा निर्देशक ने यह अच्‍छा है। संजय मिश्रा चारों के अंकल चमन के अपने छोटे से किरदार में याद रह जाते हैं।

इतना सब बहुत प्रभावी है, एक अपराध कथा का तानाबाना। एक फ्रेंच फिल्‍म इस फिल्‍म का आधार है जो कुछ वर्ष पहले आयी और चर्चित हुई थी। यारा में गीत बहुत अच्‍छे हैं, संगीत उनका बहुत अपने भीतर महसूस करो तो बहता हुआ लगता है, गाया भी गायकों ने बहुत कोमलता से है जैसे प्रेम और स्‍वप्‍न की अनूठी कविताऍं हों लेकिन बहुत स्‍पष्‍ट बात यह भी है कि ऐसी पृष्‍ठभूमि की फिल्‍म में वह मिस-मेच हैं। इसीलिए वे बस बजते हुए प्रतीत होते हैं क्‍योंकि उतनी कोमलता या मखमली अनुभूति को जीने वाले किरदार इस फिल्‍म में नहीं हैं। हो सकता है, निर्देशक का इसके पीछे भी कोई तर्क निकले। 

बहरहाल, चार सितारा फिल्‍म है यारा।

Insta Baton Baton Mein Part 100 Satish Kaushik I प्रसिद्ध फिल्‍म निर्देशक एवं अभिनेता श्री सतीश कौशिक से बातचीत के साथ ही आज बातों बातों में कार्यक्रम ने 100 एपिसोड पूरे किए....

गुरुवार, 30 जुलाई 2020

Insta Baton Baton Mein Part 98 - Dayaram Saroliya I मालवा के विख्‍यात कबीर गायक श्री दयाराम सारोलिया से बातचीत बातों बातों में..

Insta Baton Baton Mein Part 97-Padmaja Chakraborty I गुणी और निष्‍णात गायिका सुश्री पद्ममजा चक्रवर्ती से बातों बातों में हुई हमारी बातचीत....

Insta Baton Baton Mein Part 96 - Prem Gupta I वरिष्‍ठ रंगकर्मी श्री प्रेम गुप्‍ता से बातों बातों में की गयी बातचीत...

Insta Baton Baton Mein Part 95 Penaz Masani I विख्‍यात गजल गायिका सुश्री पीनाज मसानी से बातों बातों में हुई बातचीत...

Insta Baton Baton Mein Part 94 । भरतनाट्यम की प्रतिभाशाली नृत्‍यांगना सुश्री उमा नम्‍बूदिरीपाद सत्‍यनारायणन से हमने बातों बातों में बातचीत की.

शनिवार, 25 जुलाई 2020

देखकर / दिल बेचारा

कास्टिंग छाबड़ा,

काश नकल की जगह मौलिक सिनेमा से शुरूआत करते...



दिल बेचारा देख ली है। फिल्‍म के निर्देशक मुकेश छाबड़ा को निर्माताओं और घरानों की फिल्‍मों के किरदारों के लिए कलाकार चुनने का तजुर्बा है। निर्देशन का स्‍वप्‍न उनके मन में रहा है जिसे उन्‍होंने अपनी कास्टिंग डायरेक्‍टर वाली बड़ी पहचान और ठसक के बाद दिल बेचारा से पूरा करने की कोशिश की है। जोखिम यही उठाया है कि एक विदेशी फिल्‍म अपने यहॉं बनाना चाहा है। वे एक मौलिक कहानी हासिल करके यह पहल करते तो शायद इससे बेहतर काम कर पाते। 2014 में बनी एक अंग्रेजी फिल्‍म द फाल्‍ट इन अवर स्‍टार्स को लेकर भारतीय दर्शकों के लिए किया यह प्रयोग उतना ग्राह्य शायद न हो।

फिल्‍म के नायक और नायिका दोनों ही जानलेवा बीमारियों से लड़ रहे हैं। नायक एक और दुर्घटना का शिकार हो चुका है और उसके एक पैर का नीचे का हिस्‍सा स्‍टील का है। इसके बाद भी वह जीवन को उत्‍साह, ऊर्जा और उत्‍तेजना में जी रहा है। उसका एक दिलचस्‍प साथी है जिसके साथ वह स्‍वयं हीरो रहकर एक क्षेत्रीय फिल्‍म बनाने में लगा हुआ है। नायक खुद रजनीकांत का फैन है। नायिका के मन में एक कलाकार के अधूरे लिखे गाने को लेकर खासा जिज्ञासु प्रश्‍न है कि वो पूरा क्‍यों नहीं किया। पेरिस में रह रहे इस भारतीय मूल के कलाकार से मिलने और इस प्रश्‍न को करने, इसका अच्‍छा सा उत्‍तर पाने की साध है। नायक (सुशांत सिंह) , नायिका (संजना सांघी) और उसकी मॉं (स्‍वस्तिका मुखर्जी) का पेरिस जाना प्रेम में एक नयी कशिश जोड़ता है जिसमें नायिका की मॉं को जरा सहृदय होते दिखाया गया है। लेकिन अहमक कलाकार से मिलना एक कड़वा तजुर्बा होता है। वापस लौटते हुए ही नायिका को नायक की जानलेवा बीमारी का पता चलता है उससे पहले वह उसे पैर के नकली होने तक ही जानती थी। यहॉं से फिल्‍म भारी होना शुरू होती है।

नायक और उसका दोस्‍त जेपी (साहिल वैद)  जिनकी केमेस्‍ट्री आपस में बहुत ही रोचक और बांधने वाली है, एक अजीब से शगल को साझा किया करते हैं दोनों जिसमें चर्च में होने वाली शोक सभा उपस्थित होना और गम्‍भीरता से इतर व्‍यवहार करना, भाग जाना। नायक का चर्च में अपनी ही शोकसभा का दृश्‍य भी ऐसा ही है जिसमें उसका मित्र सम्‍बोधित कर रहा है और नायिका भी। उधर नायिका कब्रिस्‍तान में जाकर दिवंगत के परिवारों से गले मिलकर उनके प्रति अपनी संवेदनाऍं प्रकट करती है। वह हर वक्‍त ऑक्‍सीजन सिलेण्‍डर के साथ चलती है और उसका मानना है कि जिन्‍दगी चन्‍द दिनों की है। दिल बेचारा में ऐसे लोग मिलकर जीवन का कौतुहल रचने की कोशिश करते हैं। नायिका के पिता (सास्‍वत चक्रवर्ती) का अपनी बेटी के साथ जुड़ाव भावनात्‍मक स्‍तर पर अनूठा है। जानलेवा बीमारियों के उतार-चढ़ाव और किस्‍तों में मिलती थोड़ी सी जिन्‍दगी, थोड़ी सी सॉंसे शेष लोगों को कितना मारती-बचाती हैं, यह अस्‍पताल, आईसीयू और तकनीकी उपकरणों के मॉनीटर से जुड़ती मनोवैज्ञानिकता की अजीब सी परीक्षा है। 

दर्शक के सामने यह एक श्रेष्‍ठ फिल्‍म हो सकती थी यदि निर्देशक मेहनत करते। वे मूल फिल्‍म और उसके दृश्‍यों से वाकिफ थे इसलिए जिस आत्‍मविश्‍वास को लिए चलते रहे, वह सार्थक न हुआ। फिल्‍म की पृष्‍ठभूमि का जमशेदपुर होना और कहानी में किरदारों के स्‍वप्‍न में भोजपुरी या क्षेत्रीय फिल्‍म बनाकर सफल होने का मनोविज्ञान ही दिलचस्‍प लगता है। साहिल वैद कमाल के एक्‍टर हैं जो नायक सुशान्‍त सिंह के साथ होते हैं। संजना सांघी का पीड़ा और जिन्‍दगी की अस्थिरता सहते हुए मुस्‍कराना प्रभावित करता है। मॉं तो मॉं की तरह है केयरिंग। उसे नायक के प्रति भी आरम्‍भ में सन्‍देह है। पिता एक सहृदय सेतु है जो आपस में सबको सहज बनाता है। बेटी के अस्‍पताल में भर्ती होने के समय के दृश्‍य में सास्‍वत का चेहरा जिस तरह बदहवासी को नियंत्रित करके स्थिर होता है वह कमाल का है। सुशान्‍त सिंह इस फिल्‍म का नायक, अपनी तरह से किरदार को जीता हुआ। पहले आरम्‍भ में अपना स्‍टील का पैर दिखाता है। बाद में गम्‍भीर बीमारी भी जो नायिका की बीमारी की तरह ही है मगर उसके जोखिम अधिक बढ़े हुए हैं। निर्देशक ने सैफ को एक छोटी सी भूमिका में निरर्थक सा अभिनय कराकर यह साबित कर दिया है कि अब वे हुनर से कोसों दूर हो चुके हैं। हॉं न्‍यूज रीडर रहे सुनीत टंडन डॉ झा की भूमिका में जितने दृश्‍यों में होते हैं, एक सहृदय चिकित्‍सक और सरस सरल मूड के इन्‍सान के रूप में अपना किरदार बखूबी निबाहते हैं। 

फिल्‍म का संगीत ए आर रहमान का है। गाने अमिताभ भट्टाचार्य ने लिखे हैं। गाने रोजमर्रा के जीवन की सरल कविता की तरह हैं जिसे खुद रहमान के अलावा अरिजीत, मोहित, श्रेया, सुनिधि, जोनिता गांधी, आदित्‍य नारायण, हृदय गट्टानी, पूर्वी कोटिश आदि ने गाया है। समीक्षकों ने रहमान के संगीत को अपनी तरह से विश्‍लेषित किया है लेकिन अपनी मान्‍यता यह है कि यह शोहरत और कीर्ति के सारे तूफानों, अनुभूतियों और अहँकार से ऊबर चुके रहमान का सधा हुआ, मर्यादित और मीठा संगीत है। इस अनुभूति के साथ फिल्‍म के गानों को सुनेंगे तो सुकून मिलेगा। 

अन्‍तत: सुशान्‍त के बारे में क्‍या लिखूँ? यह उनका आखिरी सर्जनात्‍मक हस्‍ताक्षर है। इस कलाकार में शुरू से खोये और भटके हुए सपनों की झलक मिला करती थी जिनमें से वह एक एक खोजता और पाता था। सुशान्‍त को देखते हुए उसके चेहरे से ज्‍यादा गले में उसके उभरे हुए थ्रोड पर ध्‍यान अटक जाता था। लम्‍बी एक जैसी गरदन पर सुशान्‍त चेहरा बहुत रोमांटिक लगता था। उसने इस फिल्‍म में बहुत अच्‍छा काम किया है। संजना के साथ रोमांटिक होते हुए उसके दृश्‍यों में उसकी ऑंखें और मुस्‍कराहट युवा राजेश खन्‍ना की याद भी दिलाती हैं। उसको परदे पर देखते हुए नहीं होने के सच पर अविश्‍वास होने लगता है। 
#dilbechara #review #sushantsinghrajput #mukeshchhabra
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मंगलवार, 21 जुलाई 2020

Insta Baton Baton Mein 89 (a) - Robin David I विख्‍यात शिल्‍पकार श्री रॉबिन डेविड से आज हमने बातों बातों में, दो भागों में बातचीत की। यह पहला भाग....

Insta Baton Baton Mein 89 (b) - Robin David I विख्‍यात शिल्‍पकार श्री रॉबिन डेविड से बातों बातों में हमारी बातचीत दो भागों में हुई। यह दूसरा और समापन भाग।

Insta Baton Baton Mein Part 88 - Lokendra Trivedi I सुप्रतिष्ठित रंगकर्मी रंग संगीतज्ञ श्री लोकेन्‍द्र त्रिवेदी से हमने बातों बातों में बातचीत की.....

Baton Baton Mein Part 87 Shalini Ved I सुविख्‍यात गायिका सुश्री शालिनी वेद से हमने बातों बातों में बातचीत की....

Baton Baton Mein Part 86 - Purnima Ashok - बातों बातों में आज हमारी बातचीत हुई सुविख्‍यात भरतनाट्यम नृत्‍यांगना सुश्री पूर्णिमा अशोक से...

शुक्रवार, 3 जुलाई 2020

Baton Baton Mein Part 72 I महान गीतकार कवि प्रदीप की सुपुत्री एवं चित्रकला गुरु सुश्री मितुल प्रदीप से बातों बातों में आज हमने बातचीत की.....

Baton Baton Mein Part 71 I गुणी और मूर्धन्‍य संगीतज्ञ रुद्रवीणा वादक पण्डित राजशेखर व्‍यास से बातों बातों में हमारी बातचीत, भाग-एक

Baton Baton Mein Part 71 I गुणी और मूर्धन्‍य संगीतज्ञ रुद्रवीणा वादक पण्डित राजशेखर व्‍यास से बातों बातों में हमारी बातचीत, भाग-दो