मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

पियानो का जादूगर : ब्रायन सिलायस





एक सौम्य ऋषि


वे एक गोताखोर हैं। बड़े गहरे। डूबकर मोती चुनते हैं और फिर लेकर आते हैं। उनको सुनने का मतलब यह है कि उनको ध्यान से सुनो। ध्यान से सुनो का मतलब है उनके साथ चलो। तैरो, डूबो और फिर मोती पाओ। यह सुख बहुत अनूठा, बहुत अलौकिक है। इस सुख की संगत बड़ी अनमोल, बड़ी दुर्लभ है।
 
ब्राय सिलायस विश्व विख्यात हिंदुस्तानी पियानो वादक हैं। पियानो पर हाथ रखे हुए वे एक सौम्य ऋषि की तरह दिखायी देते हैं। स्वभाव भी उनका ऋषितुल्य ही है। उनके भीतर का संत ही दरअसल उन राग-रागिनियों से अनुरागभरा रिश्ता बनाता है जिसके माध्यम से हम अनुभूतियों की अलौकिकी में आवाजाही करने लगते हैं। वे सादगी से भरे हुए हैं। ब्रायन मंच पर बिना हंगामे के दो शब्दों के प्यार भरे निमंत्रण पर आ जाते हैं। इस बात की कल्‍पना की जा सकती है कि कैसे एक धुनी और गुणी सर्जक की यात्रा संघर्ष से होते हुए यश को छूते हुए परवान चढ़ती है। हम सब देखने, सुनने वालों की निगाह में जब कोई यशस्‍वी कलाकार अचम्भित करता हुआ दीखता है तो हम उसके आज से बहुत मोहित हो जाते हैं। दरअसल महान कलाकारों का स्‍वर्णिम और चमचमाता आज, कल के अनेक ऊहापोह, ऊबड़-खाबड़ पथरीले रास्‍ते, आशा और निराशा के बीच तराजू की सुई की तरह डगमगाता मन और आत्‍मविश्‍वास बहुत बड़ा काम करते हैं। 

ब्रायन सिलायस कानपुर मूल के हैं। बचपन से संगीत के प्रति एक रूमानी आसक्ति रहा करती थी। परिवेश और वातावरण में बहुत कोई ऐसा प्रोत्‍साहक समय नहीं था जो सतत चले लेकिन वे सब तरह के साजों का स्‍पर्श करने और उनके तारों और बोर्ड पर अपनी ऊँगलियों से छूने का अनूठा जिज्ञासाभरा कौशल रखते थे। एक तरह से देखा जाये तो सितार, गिटार, पियानो सभी साजों से उन्‍होंने थोड़ी-थोड़ी बात की उनके मर्म को समझा। ब्रायन कहते हैं कि साज के साथ आत्‍मा का रिश्‍ता होता है जो बनाना पड़ता है। यह बहुत सम्‍वेदनशील और प्रेम करने की तरह अन्‍त:स्‍थल को महकदार बनाता है। यह जुड़ना ही सच्‍चा जुड़ना है। 

ब्रायन इन्‍हीं सर्जनात्‍मक अवधारणाओं से कानपुर से दिल्‍ली चले और उनको ला मे‍रेडियन होटल में पियानो बजाने का अवसर मिला। वे हिन्‍दी सिनेमा में संगीत के मधुरतम युग, उस युग के सर्जको, संगीतकारों और गायकों के साथ गीतकारों के प्रति भी बड़ी श्रद्धा रखते थे। पचास के दशक से उन्‍होंने गीत-संगीत में रूह तक उतर जाने वाले, शिराओं में रक्‍त के साथ अनुभूतियॉं लेकर बहने वाले गीतों को चुन-चुनकर बजाना शुरू किया। मेरेडियन में तो ब्रायन कुछ ही समय रहे लेकिन मौर्या में जब वे गये तो वहॉं उनका व्‍यक्तित्‍व, उनका चेहरा गहरी आश्‍वस्ति से दिपदिपा रहा था। उनकी मुस्‍कराहट में जादू था, यह जादू मुस्‍कराहट में जादुई अँगुलियों की वजह से आया था। धीरे-धीरे उनकी कीर्ति होटलों से बाहर शहरों में और शहरों से बाहर देशों में गयी। ब्रायन के रूप में दुनिया के सामने ऐसा भारतीय कलाकार परिचित हुआ जो भारतीय सिनेमा की मेलोडी के साथ-साथ बजाये जाने वाले गानों की धुन से रसिकों को जोड़ने में अभूतपूर्व रूप से सफल हुआ। 

ब्रायन का पियानो के साथ होना भारत के लिए तो निश्चित ही एक-दूसरे का पर्याय है। भारतीय सिनेमा में यदि इतिहास पर जायें तो सामाजिक फिल्‍मों के दौर में सम्‍भवत: हर पॉंचवीं फिल्‍म में पियानो कहीं न कहीं लगभग एक पात्र की तरह, एक कैरेक्‍टर की तरह मौजूद रहा है। नायक और नायिका ने पियानो के सान्निध्‍य में अपने प्रेम की, अपने विरह की, अपने साथ हुए छल की, दगाबाज़ी की, गिले-शिवके की, उलाहनों की बात की है। कितने ही गाने याद आते हैं, आपके हसीन रुख पे आज नया नूर है (आपकी परछाइयॉं), दोस्‍त दोस्‍त न रहा प्‍यार प्‍यार न रहा (संगम), आज की रात मेरे दिल की सलामी ले ले (राम और श्‍याम), दिल के झरोखे में तुझको बैठाकर (ब्रम्‍हचारी), कोई सोने के दिल वाला कोई चांदी के दिल वाला (असली नकली), तू कहे अगर जीवनभर मैं गीत सुनाता जाऊँ मन बीन बजाता जाऊँ (अन्‍दाज) और भी बहुत सारे। 

प्रसिद्ध पत्रकार खुशवंत सिंह, ब्रायन के पियानो के बड़े प्रेमी रहे हैं। उन्‍होंने ब्रायन को पियानो सिंह नाम दिया। एक बार उनका पियानो सुनते हुए महान संगीतका खैय्याम साहब ने कहा, यार तुमने तो हमारी रूह पकड़ ली। सही बात तो यह है कि ब्रायन ने हमारे सिनेमा के विलक्षण संगीतकारों की रूह को नजदीक से छूकर देखा तभी सलिल चौधरी, खैय्याम, ओ.पी. नैय्यर, सचिन देव बर्मन, रवि, मदन मोहन और लक्ष्‍मीकान्‍त-प्‍यारेलाल जैसे सर्जकों के मर्म को समझ पाये। पियानो पर एक पूरा गाना बजा लेना आत्मिक और शारीरिक रूप से बहुत कठिन और जटिल है। ब्रायन बतलाते हैं कि बजाते हुए जितना उनका दिमाग चलता है, उतना ही मन चलता है, उतनी ही अँगुलियॉं चलती हैं और उतने ही पैर चलते हैं। बहुत दार्शनिक भाव से ब्रायन कहते हैं कि किसी भी महफिल या ऑडिटोरियम में बैठकर पियानो बजाते हुए भीतर ही भीतर न जाने कहॉं-कहॉं तक जाना होता है, बता पाना मुश्किल है। 

जब वे पियानो बजा रहे होते हैं, उनके साथ संगी संगतकार बिल्‍कुल ऐसे अनुसरित होते हैं जैसे इस महानदी के बहाव का एक-एक पथ, एक-एक मोड़ उनको पता हो। गिटार पर उनके साथी जयदीप लखटकिया और तबले पर तुलसीराम उतने ही सादे और सहज हैं लेकिन साहब ब्रायन के साथ राग पथ के सहयात्री के रूप में उनका हाल और चाल दोनों कमाल के हैं। संगीत के माधुर्य का यह हंस अपने दोनों पंखों के साथ क्या खूब उड़ चलता है, वाकई विलक्षण। बात पूरी करते-करते यह न लिखा जाये तो बात अधूरी ही रह जायेगी कि ब्रायन की उपलब्धियों और यश की इस यात्रा में उनकी सहधर्मिणी रविन्‍दर कौर सिलास परछाँयीं की तरह उनके साथ होती हैं, स्‍टेज के सामने भी वे ब्रायन पर मुग्‍ध बनी रहती हैं, उनके चेहरे पर ब्रायन के लिए जो प्‍यार दिखायी देता है वो भी किसी प्रेमधुन से कम नहीं है।
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दबंग के सकारात्‍मक पहलू

सिरे से खारिज करने के पहले



हाल ही में प्रदर्शित सलमान खान की नयी फिल्म दबंग तीन को लेकर मेरी टिप्पणी पर मित्रों की निरी असहमतियाँ प्राप्त हुई हैं। कुछेक मित्रों ने मेरे सिनेमा लेखन की समझ और अनुभव को भी आड़े हाथों लिया। मेरा विनम्र उत्तर यही था कि सीख रहे हैं, पारंगत हो गये हैं, यह अभिव्यक्त तो कभी रहा ही नहीं, बहरहाल। 

दबंग को सिने से नकार दिए जाने की कोई बहुत ठोस वजह देखने में नहीं आती। सलमान खान सहित उसके तीन बड़े निर्माता हैं जिन्होंने दक्षिण के एक बड़े सितारे, कोरियोग्राफर और निर्देशक प्रभुदेवा को इस फिल्म के निर्देशन के लिए अनुबन्धित किया। भरपूर धन लगाकर फिल्म बनायी गयी जो अपनी लागत का ठीकठाक अर्जित कर रही है। सितारा उपस्थिति है। बिल्कुल उबा दे, बैठना दूभर कर दे इतनी अप्रिय फिल्म नहीं है दबंग।

माना जा सकता है कि कहानी नहीं है कुछ। पहली दबंग से दूसरी और दूसरी को बनाने पर मिली खूब सफलता ने इस साहस के लिए प्रेरित किया होगा लेकिन यह भी तय मानिए कि इस दबंग पर आम राय बनने के बाद चौथी दबंग तो कम से कम नहीं बनेगी। दस साल की आवृत्ति में यह तीसरी दबंग ही सबसे बड़े अन्तराल के साथ आयी है। 

दबंग तीन आम मसाला और फार्मूला फिल्म है लेकिन उसमें दूसरी मसाला और फार्मूला फिल्मों की तरह बेतरह अनर्गल चीजें नहीं डाल दी गयी हैं। हर तरह के दर्शकों का ध्यान रखते हुए एक ऐसी फिल्म निर्माताओं के बनानी चाही है जो अपने नाम और सफलता के इतिहास के बचे-खुचे प्रभाव में कुछ खींचकर ला सके। बहुत उत्साहजनक ढंग से ये न भी कर पायी तो भी घाटे में फिल्म न रहेगी यह भी तय है।

फिल्म की अच्छाइयों में कई बातें ध्यान आकृष्ट करती हैं। इनमें से एक परिवार के साथ जिन्दगी और दुनिया की कल्पना जिसमें आपसी अनुकूलताएँ, दृश्य और संवाद प्रभावित करते हैं। दिशाहीन नायक का कुछ करने को उदृत होना, जिसे चाहता है उसकी पढ़ाई पूरी हो, अपनी ओर से धन देने की वचन बद्धता सकारात्मक सोच पैदा करते हैं। एक दृश्य वह दिलचस्प है जब वह धोखे से अपनी माँ को ही खुली मालगाड़ी पर पहले छोड़ आता है फिर सच पता चलने पर बचाकर लाता है। मनुष्य की आम बुराइयों को दिखाने में परहेज नहीं किया गया है। अच्छी सिनेमेटोग्राफी, एक्शन, कोरियोग्राफी के साथ संवादों में मर्यादा का प्रदर्शन उल्लेखनीय पक्ष हैं। सलमान खान अपनी लगभग सभी फिल्मों में अच्छी हिन्दी का प्रयोग करते हैं। यहाँ भी की है, विशेषकर ऐसे समय में जब हिन्दी सिनेमा से हिन्दी समाप्त हो रही हो, इस नायक के इस प्रयत्न को नजरअन्दाज नहीं किया जाना चाहिए। 

हिंसक दृश्यों, मारधाड़ के तीव्र प्रदर्शनकारी दृश्यों के बाद भी नायक के चेहरे पर उत्तेजना, आवेग और घृणा या नफरत दिखायी नहीं देती जो एक बैलेन्स और सन्तुलित कलाकार और किरदार को व्यक्त करती है। एक इन्सपेक्टर ऊपर की कमायी से वेल्फेयर सोसायटी भी चला रहा है, सामूहिक विवाह करा रहा है। उसने शादी ब्याह में लूटने वाले को मारपीट कर उसके पुराने व्यावसाय बैण्ड मास्टर के काम से लगा दिया है जो अब उसके साथ हो गया है और फिल्म के अन्त तक दीखता रहता है।

अच्छी सिनेमेटोग्राफी, एक्शन, कोरियोग्राफी के साथ संवादों में मर्यादा का प्रदर्शन, शिष्टता, सभ्यता, मानवीय संवेदना के पक्षों को एक बार फिर याद कर सकते हैं कि कैसे वह कम उम्र की लड़कियों को गलत जगह जाने से बचाता है, कैसे एक इन्स्पेक्टर होने के नाते पल भर में यह निर्णय लेकर लड़कियों से कहता है कि तुम लोग घर जाओ, तुमसे कोई पूछताछ नहीं की जायेगी।

मैं एक फिल्म समीक्षक होकर भी देखता हूँ और दर्शक होकर भी। किसी एक पक्ष का तराजू भारी नहीं हो यह ध्यान रहता है, अन्ततः सन्तुलन सबसे बड़ी चीज है जो सब्जी बनाते समय मसालों की मात्रा के चयन से लेकर जीवन मूल्यों और व्यवहार में भी मायने रखती है, हमारे पास हर बात का सन्तुलन होना चाहिए, व्यग्रता और आवेग ही सब कुछ नहीं, तुरन्त फैसला कर देना, मित्रगण ऐसे भी जिन्होंने बिना देखे ही यह राय कायम कर ली कि फिल्म अच्छी नहीं है, मेरी समझ में फिल्म बनाने वालों से लेकर उसमें छोटी-छोटी भूमिका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निबाहने वालों के परिश्रम के साथ भी न्याय न कहा जायेगा, बाकी कहने, लिखने की स्वतंत्रता सबकी अपनी है, कुछ भी कहा जा सकता है।    

एक सिनेमा से आप यदि एक भी सकारात्मक बात लेकर बाहर निकलते हैं सिनेमाघर से तो वह एक दर्शक, एक मनुष्य की उपलब्धि है, शेष जैसा आपको ठीक लगे, आपकी राय भी तो शिरोधार्य अर्थात सिरमाथे है.............   

शनिवार, 21 दिसंबर 2019

देखते हुए / फिर फिर दबंग.....दबंग

अपेक्षाओं का कम होते जाना स्‍वाभाविक है.......

(हर बार वही करिश्‍मा कैसे सम्‍भव है)


दबंग, सलमान खान और प्रभुदेवा तीनों का ही ध्यान बना रहता है इस फिल्म को देखते हुए। प्रभुदेवा का सबसे पहले इसलिए कि वाण्टेड निर्देशित करके सलमान खान को बरसों पहले स्टारडम दोबारा लौटाने का श्रेय उन्हीं को है। दबंग सलमान ने पहले अभिनव कश्यप को लेकर बनायी जो सबसे अच्छी थी, दोबारा अरबाज खान ने इसे बनाया तो छायाप्रति में कुछ प्रभाव घटा। इससे सावधानी बरतते हुए तीसरी बार जब दबंग बनने चली तो वाण्टेड प्रभुदेवा को बुला लिया गया। डांसर औ कोरियोग्राफर प्रभु देवा ने इसको बस बना दिया है, अन्यथा यह निर्माता सलमान खान की फिल्म पूरी तरह लगती है और दो दबंग की सफलता के आत्मविश्वास से थोड़ी झूलती हुई भी।

सलमान खान की पिछली किसी फिल्म पर लिखते हुए मेरे लिखने में यह गलत नहीं आया था कि वे बॉलीवुड के रजनीकान्त हो जाना चाहते हैं। अपनी छबि पिछले दस सालों में उन्होंने ऐसी ही बनायी है। यह सही भी है कि फिलहाल तो वे नम्बर वन हैं ही। शेष सब उनके बाद। पहली दबंग से दूसरी दबंग की कहानी कानपुर तरफ चली गयी थी, इस दबंग में भी उत्तरप्रदेश है और वातावरण टुण्डला का है। चुलबुल पाण्डे वही है, उनके मसखरे और हँसोड़ संगी साथी भी उसी तरह जो कंधे पर गोली भी खा लेते हैं, डौल-बेडौल होने के बाद भी गानों में नायक के साथ नाचते भी हैं और सारे पुलिस व्यवहार के यथार्थ का निर्वाह सहजता से करते हैं।

इधर दो दबंग की नायिका से पहले की एक नायिका है नायक की। छेदी सिंह, बच्चा सिंह से होते हुए इस बार खलनायक बाला सिंह है, हिन्दी फिल्मों के लिए नया चेहरा मगर दक्षिण से मजबूत कन्नड़ सिनेमा के लेखक, निर्देशक एवं अभिनेता किच्चा सुदीप। यह रहस्य तीसरी दबंग में खुला कि हमेशा सहज रहते और हँसते-हँसाते रहने वाले नायक का पहला रूमानी दर्द खुशी नाम की लड़की भी है। यह नयी आमद है महेश मांजरेकर की बेटी सई। कुछ दृश्य के लिए है लेकिन कोमल और सॉफ्ट रोमांटिक उपस्थिति में अच्छी लगती है। सोनाक्षी सिन्हा इस तीसरी बार में और भी अधिक आश्वस्त लगती हैं लेकिन श्रेष्ठ नहीं, यह कहा जा सकता है क्योंकि सीमित संवाद और खूब सारी साड़ियाँ बदलते हुए वे अभी कम प्रतिभा के चलते भी चलती रहेंगी। एक गाने के साथ कुछ मादक रूमानी लीलाएँ नायक के साथ उल्लेखनीय हैं जिसमें बाथटब में शराब डालना और अंजुली में भरकर पी लेना शामिल हैं लेकिन यह खूबी है कि नायक ने इस दृश्य को स्तरहीन नहीं होने दिया है।

नायक और नायक का भाई निर्माता है, निर्देशक भी वेल-विशर। लगभग हर दृश्य में सलमान खान हैं लेकिन हमेशा की तरह कई दृश्यों में आदर्शवादिता, सभ्यता और सामाजिकता के पक्ष में बात करने के बावजूद वे निर्देशक के हाथ में नहीं हैं यह साबित हो जाता है। पहली दबंग इसीलिए बहुत बेहतर इस कारण लगती है कि अभिनय कश्यप ने लोकप्रियता के इस फलसफे को मौलिकता में गढ़ा था। चुलबुल पाण्डे के किरदार को पहली बार विकसित किया था। आज उसमें दोहराव और तिहराव है।

फिल्म में खलनायक आपको थोड़ी थोड़ी देर के लिए दूसरी आबोहवा में ले जाता है क्योंकि वह यहाँ अपनी पहली परीक्षा दे रहा है। कन्नड़ फिल्मों के सितारे किच्चा सुदीप एक निर्मम और बर्बर वृत्ति के बुरे आदमी के रूप में आकृष्ट करते हैं पर उनका बाला सिंह नाम एक तरह से मिस मैच है जो देहाती सा लगता है जबकि प्रकट तौर पर इस कलाकार ने अपने आपको हृदयहीन आवेगी की तरह प्रस्तुत किया है। वह दृश्य महत्वपूर्ण है जब क्लायमेक्स में खलनायक को मारते हुए नायक कहता है कि यदि तुम किसी से प्यार करते हो और वह तुमसे प्यार न करती हो तो क्या तुम उसको मार डालोगे, एक बड़ा सवाल है जो सलमान, किच्चा सुदीप को दण्ड देते हुए पूछते हैं। आज के समय में भी यह मौजूँ है।

मित्र सोचते होंगे कि सारी बातें कर दी हैं, कहानी नहीं बतायी। उत्तर है कि कहानी है ही नहीं। क्योंकि दबंग एक के बाद दूसरी बनी और दो के बाद जो तीसरी बनी वह दरअसल दबंग एक के भी पहले की दबंग प्रचारित है। इसी कारण यह अलमारी में कसकर रखी किताबों के बीच में एक किताब यह कहकर खोंस देना है कि इसकी जगह पहले हैं। अब दक्षिण भारत का निर्देशक है, वह रोहित शेट्टी तबीयत की फाइटिंग, स्टंट और गाड़ियों के करतब शामिल हैं। मध्यप्रदेश के महेश्वर और माण्डू में फिल्माये हुए दृश्यों को देखते हुए वातावरण में टुण्डला के यथार्थ पर यकीन करना मुश्किल होता है। इस फिल्म में स्कॉर्पियो वाहन का बढ़िया इस्तेमाल है, काफिले से लेकर लड़ाई-झगड़े और स्टंट के विषयों में सफेद स्कॉर्पियो से दृश्य और प्रसंग की आक्रामकता ज्यादा असर देती है।

इस फिल्म को समीक्षक बड़ी कंजूसी से सितारे प्रदान कर रहे हैं और कोई भी डेढ़ से दो को पार नहीं कर रहा। निजी रूप से मैं सोचता हूँ कि दबंग तीन की तुलना में हमारा दिमाग बार-बार दबंग एक और दो के साथ क्यां हो जाता है? इसे उससे अलग हटकर भी देखा जाये। मेरा ख्याल है कि तीन स्टार उचित है। 



गुरुवार, 24 अक्तूबर 2019

।। द स्काय इज पिंक ।।


फिल्म जो मन को छूकर मन में बैठ जाती है


द स्काय इज पिंक देखकर आया हूँ। कभी-कभी किसी फिल्म को देखने का निर्णय अपने लिए बहुत भारी पड़ जाता है। दरअसल इतने वर्षों में बहुत साधारण फिल्में देखते हुए ऐसी फिल्मों की स्मृति मन से लगभग जाती रही जो दिमाग में द्वंद्व पैदा करती थीं। बरसों हो जाते हैं ऐसी फिल्म देखे हुए। इस फिल्म के बारे में चूँकि जान लिया था तो मन में था कि इसे देखना ही है। खासकर तब और देखना है जब सिनेमाघरों में यह दो-एक शो में ही लगी हो शेष जगह दोयम दर्जे की फिल्मों का कब्जा हो।

अब हमारा दिमाग उन सबसे हट गया है जब हम सिनेमाघर में जाकर बैठ गये हैं। इस समय निरर्थक क्रांति करने वाले नारे कौंध नहीं रहे हैं कि शुरूआत में ही इस बात पर चौंकते हैं जब अदिति अपने पति निरेन को अपने फिर से गर्भवती होने की बात बतलाती है। तब करीब-करीब युद्ध में बदलती बहस है। बच्चा चाहिए या नहीं। यह भी डर है कि पहली बेटी की तरह ही जानलेवा बीमारी का शिकार होकर जन्मी तब। पिता गर्भपात कराना चाहता है और मॉं नहीं। अन्तत: सन्तान बेटी के रूप में जन्म लेती है। स्वाभाविक रूप से फिल्म में यह घटना और उसी लड़की का नैरेशन कुछ एक साथ चलते हैं। लड़की जो अठारह साल की उम्र तक आते-आते इस दुनिया से चली गयी लेकिन पल्मोनरी फिबरोसिस नाम की जन्मजात बीमारी के साथ इसका जन्मते ही संघर्ष और परिवार में उसको लेकर वातावरण इस फिल्म में इतने सूक्ष्मत विवेचन के साथ दिखाया गया है जिसको देखते हुए एक पल भी ऊब का एहसास नहीं होता।

चार लोगों के परिवार में माता-पिता, भाई-बहन हैं। सबसे पहली भी बेटी थी जो इसी बीमारी के कारण छोटी उम्र में ही चल बसी थी। आने वाली सन्तान को लेकर यही बहस है कि कितने दिन जियेगी, कैसे जियेगी और जब थोड़ा जियेगी तो इसे दुनिया में लाया ही क्यों जाये। चित्रकार और लेखिका बनकर अपने जीवन को साहसिक ढंग से जीने वाली यह लड़की आयशा अपने इन लड़ते-झगड़ते और कई बार मारपीट करते माता-पिता का आभार कहती है कि उन्होंने इसे दुनिया में आने दिया। न केवल आने दिया बल्कि उससे ज्यादा वे दोनों भी उसकी बीमारी के साथ लड़ते रहे, टूटते रहे, फिर जुड़ते रहे।

कहानी क्या है, एक मर्मस्पर्शी आत्मकथ्य है लेकिन वह एक बहुत बहादुर लड़की का है जो हर स्थितियों में हारा नहीं करती, लड़ा करती है। वह अपने माता-पिता को अपने ऊपर जान छिड़कते देखा करती है, वह यह जानती है कि जीना बहुत कठिन है लेकिन वह उनके हौसले से पहले टूटती नहीं। उसका विनोदप्रिय होना, जैसे बात-बात पर वह नैरेट करते हुए अपने मम्मी -पापा की सेक्स लाइफ की जीवन्तता की बात भी करती है, दर्शक इस गम्भीर फिल्मे को देखते हुए हँसने लगता है। एक जगह शुरू में वह कहती है कि मेरे मम्मी -पापा के पास हनीमून के लिए नेपाल जाने के पैसे नहीं थे लेकिन मैं पैदा क्या हुई, लन्दन की सैर करा दी।

बेटी की चिकित्सा के लिए हर जतन करने वाले, कोई कमी न छोड़ने वाले, पैसों के अभाव के बावजूद डगमगाते हौसलों के बीच खड़े रहने वाले पिता फरहान अख्तर जब डबडबायी ऑंखों से लन्दन के रेडियो में उसकी बीमारी की बात कहते हुए पैसों के सहयोग की अपील करता है या प्रियंका चोपड़ा मॉं का बेटी के लिए हर एक सेकण्ड लगभग जाग्रत रहना, उसके ऑक्सीजन के सिलेण्डर की अतिरिक्त व्यवस्था करके रखना, आखिरी समय में एक-एक पल कम पड़ते और हारते हुए विक्षिप्त होकर पति पर ही हमला कर देना और मानसिक अस्पताल जाना ये सब ऐसे दृश्य प्रसंग हैं जो आपको एक मर्मस्पर्शी सिनेमा की शक्ति और सम्प्रेषणीयता का एहसास कराते हैं। उस वक्त बेटी का अपने पिता का ख्याल रखना और अपनी मॉं से वादा करना कि आपके लौटकर आने तक मैं टपकूँगी नहीं सजल कर देता है।

जायरा वसीम ने फिल्म में बेटी का किरदार निभाया है। देखते हुए ऐसा लगा ही नहीं कि हमारे सामने कलाकार है। जिस तरह से वह आयशा चौधरी की पूरी की पूरी आत्मा को आत्मसात करती है वो उनके लिए सलाम करने का मन देता है। आखिरी आखिरी की पेण्टिंग, कविताऍं, नैरेशन सब कुछ और मॉं की जी-तोड़ कोशिश की बेटी की ऑंख बन्द होने से पहले उसकी किताब की एक प्रति छपकर आ जाये। ओह........बड़ा मुश्किल होता है सब कुछ सहना। इस फिल्म में एक भाई भी है और एक कुत्ता भी। सब के सब पता नहीं कैसे घुट्टी पिये अपना शॉट दे रहे होते हैं। आरम्भ के दृश्य में ही जहॉं से पूर्वदीप्ति (फ्लैशबैक) शुरू होती है, पहले आयशा के पलंग पर कुत्ते का मायूस सा सोया होना हृदयविदारक रिक्तता का एहसास कराता है।

यह फिल्म गुलजार साहब की दिल पर पेन से लिखी जाती कविता की भावुक सिहरन के लिए भी याद रह जाती है। शोनाली बोस और निलेश मणियार ने इस सच घटना को सिनेमा में जस का तस गढ़ दिया है बिना उसकी आत्मा को छेड़े या मारे जिसका खतरा हिन्दी सिनेमा में बहुत होता है और मानस मित्तल ने फिल्म बहुत सलीके से फिल्म एडिट की है। यह फिल्म कई दिनों तक दिमाग में बनी रहेगी। आमतौर पर सिनेमा के प्रति निरी सतही विचारधारा के अभ्यस्त दर्शकों में से गम्भीर दर्शक यदि इसे चुनते हैं देखने के लिए तो उपलब्धि ही महसूस करेंगे।
#theskyispink Shonali Bose

रविवार, 20 अक्तूबर 2019

वार : बचाने के लिए वार


हिृतिक रोशन को इससे भी बेहतर कहानी दी जानी चाहिए

 


अपने बड़े भाई बी आर चोपड़ा के साथ काम करते हुए यश चोपड़ा ने स्वयं अपनी निर्माण संस्था बनायी और निर्देशन करते हुए अनेक महत्वपूर्ण फिल्मों के साथ नाम और दाम दोनों कमाया। बाद में यश चोपड़ा के बेटे आदित्य चोपड़ा ने दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे एक सुपरहिट बनाकर लगभग रिटायरमेंट जैसी जिन्दगी ही अपना ली। उन्होंने दूसरे निर्देशकों को अपने बैनर पर मौका दिया। अपवाद स्वरूप रब ने बना दी जोड़ी या एक दो और कुछ बनाया होगा तो याद नहीं है। बहरहाल अपने पास उपलब्ध बजट से वे यशराज को बनाये हुए हैं लेकिन उनके कार्यकाल में दीवार, त्रिशूल, कभी-कभी, चांदनी, लम्हें या सिलसिला जैसे नाम नहीं हैं। नेपथ्य से वे युक्तिपूर्वक अर्जन में जीवन बिता रहे हैं। बहरहाल, उनकी निर्माण संस्था की नयी फिल्म वार देखने का अवसर जुटा पाया था तो लगा कि कुछ बातें लिख दूँ। मित्रों में फिल्म समीक्षा को लेकर जो जिज्ञासा या कौतुहल रहता है, उसका किसी हद तक अपनी समझ और प्रयासों से समाधान करने का प्रयत्न भी इसी बहाने है।

वार फिल्म को सिद्धार्थ आनंद ने निर्देशित किया है। इस साधारण सी कहानी को लिखने में उनके अलावा फिल्म के निर्माता आदित्य भी लगे तब जाकर यह भटकी सी कहानी फिल्म के लिए बन पायी। इसके संवाद उन्होंने अब्बास टायरवाला से लिखवाये हैं। देश को बाहरी मुल्कों से खतरा, आपसी शत्रुता, छल-षडयंत्र ये हमारे सिनेमा के बहुत आम विषय रहे हैं। बहुत कम फिल्मकार ऐसे विषय लेकर जिम्मेदारी या समझबूझ से कोई फिल्म बना पाते हैं। सिद्धार्थ आनंद ने जान-जोखिम में डालने वाले देश के सुरक्षा एजेण्टों की ओर से यह कहानी प्रस्तुत की है। हितिक रोशन और टाइगर श्रॉफ के तेवर प्रदर्शन और प्रचार के साथ यह फिल्म शुरू होती है। दोनों नायक एक-एक करके जिस तरह से परदे पर आते हैं लगभग प्राकट्य भाव है। मुश्किल यह है कि हॉल में ताली नहीं बजती।

सारा झगड़ा आतंकी को पकड़ने का है। उसको मदद करने वाले, रुपयों और पैसों के लालच में आकर अपना ईमान बेचने वालों की एक पूरी श्रृंखला को बेनकाब करना है। कहानी आरम्भ में नायक को रहस्यमयी ढंग से नकारात्मक दर्शाती है। नायक का अधीनस्थ जो है उसी को इसका पता लगाने को कहा जाता है कि कैसे बहादुर हीरो की बन्दूक अपने ही लोगों पर तन गयी है। एक घण्टे सब कुछ बढ़िया चल रहा है, माल्टा, पुर्तगाल, ईराक और वहाँ के विभिन्न स्थानों, पहाड़, तराई, घाटी के हवाई फिल्मांकन, खासकर एक्शन दृश्य, मारधाड़, आधुनिक विमान, मोटर सायकिलों पर पीछा करने के जोखिम भरे दृश्य दर्शक को जगाये रखते हैं।

मध्यान्तर के बाद बिना सोचे समझे बाहृय संरचना करके फिर भीतर कुछ ईंट और कुछ रोड़े लगाने में निर्देशक की ऊर्जा नष्ट होती चली गयी है। नायकों को स्थापित करने, उनका अतिशय महिमा मण्डन करने में लगभग सिद्धहस्त हो चले युवा निर्देशक सबसे ज्यादा छल नायिकाओं के साथ करते हैं। बरसों से अच्छे अवसर की यशराज में प्रतीक्षा करती वाणी कपूर को इस फिल्म में भी कुछ मिनट का, अथाह देहप्रदर्शन का किरदार देकर छुट्टी पायी है। शेष सहायक भूमिका निभाने वाले आशुतोष राणा जैसे कलाकार बहुत बंधे हुए लगते हैं जैसे सचेत कर दिया हो कि बस इतना ही इससे ज्यादा नहीं जाना। दो-तीन गाना, नाचना भी है। लेकिन प्रचारित यह हो रहा है कि बॉक्स ऑफिस पर रुपयों की बरसात हो रही है और वार ने सभी आसपास की फिल्मों के साथ वार करके विजयश्री हासिल कर ली है।

कुल मिलाकर ऐसा है नहीं। प्रथम दृष्टया पूरी कहानी की आत्मा ही कल्पनाहीनता और तर्क के विपरीत है। ऐसा लगा है कि बहुत सी लीपापोती शूट करते चलने के बाद पूर्वदीप्ति (फ्लैश बैक) में करके अपनी बात के पक्ष में भर लिया गया है। विशेष रूप से वह दृश्य बहुत फालतू लगा है जिसमें टाइगर के छुटपन के किरदार को स्कूल में बच्चे बुरी तरह मारते हैं जिससे वह बाँयी ओर से आँखों से देखने की क्षमता खो बैठता है। एक दृश्य को व्यर्थ न बताने के लिए यह गुणाभाग। ऐसे ही हितिक का नायिका को दिया वचन और फिर उसके एक वाक्य से जुड़कर उसकी बच्ची का ध्यान रखने वाली चेष्टाएँ। यह इसलिए कि वह जिस आश्वस्ति के साथ नायिका को उसकी रक्षा का वचन देता है, उसी में विफल हो जाता है।

इन सबके बावजूद अपनी भूमिका के साथ हितिक बहुत अच्छे उपस्थित हैं। उनकी पूरी शख्सियत फिल्म को एक तरह का रक्षाकवच ही है। टाइगर श्रॉफ इसलिए इसमें ठीकठाक नजर आते हैं क्योंकि उनका कन्ट्रास्ट नायक के साथ है। इतने के बाद सिनेमेटोग्राफी (बेंजामिन जेस्पियर), एक्शन डायरेक्टरों का कमाल और लगभग दो तिहाई हिस्से का कसा हुआ सम्पादन (आरिफ शेख) इस फिल्म को देखने-सहने योग्य बनाता है।

हालाँकि यह फिल्म एक था टाइगर या टाइगर जिन्दा है परम्परा की ही आगे की कड़ी है। चेहरा बदलने वाली चिकित्सक और उसके अस्पताल की, मुँह का त्वचीय उपचार करती मशीने बहुत हास्यास्पद लगती हैं। असली टाइगर श्रॉफ आरम्भ में मर चुका है, एक खुफिया अधिकारी का चेहरा उस जैसा कर दिया गया है जो शत्रुओं के साथ है। नकारात्मकता और सहानुभूति के बीच यह किरदार और टाइगर दोनों ही अपना श्रेय इसीलिए नहीं पा सके हैं। विदेश आम भारतीय के सपनों का स्वर्ग होता है, मेरे लिए भी है और हम जैसे लोगों के लिए ढाई घण्टे में तीन-चार देश घूम आना बुरा नहीं है लेकिन फिल्म बहुत अच्छी बन जाती यदि कहानी ढंग की होती, उसका निर्वाह कायदे से किया जाता।

सोमवार, 26 अगस्त 2019

हिन्दी सिनेमा में बरसात


बिजुरी की तलवार नहीं बून्दों के बान चलाओ

 


हिन्दी सिनेमा की एक लम्बी परिपाटी समसामयिक परिस्थितियों, आवश्यकताओं, अभावों और संघर्ष के विषयों का अहम बिन्दु रही है। समय-समय पर ऐसी अनेक फिल्में बनी हैं जिनमें मानवीय जीवन के सुखदुख, रिश्ते नाते, खुशियाँ, तकलीफें, रीति-रिवाजों की व्याख्याएँ दर्शकों के मन मस्तिष्क में अपनी ऐसी जगह बना गयी हैं कि आज भी उनकी छाप स्मृतियों में है। गर्मी का मौसम है, बरसात की आमद होने को है। हिन्दी फिल्मों में गर्मी का मौसम, पानी की कठिनाई और बरसात के आव्हान को लेकर कितनी ही बातें कही गयी हैं। न जाने कितने गीत हम गुनगुनाते हैं, कितनी ही फिल्मों के यादगार प्रसंगों को याद करते हैं। आज के सिनेमा में समय सापेक्षता के कितने तत्व मौजूद हैं, ये तो जमाना जानता है मगर हमें पहले का सिनेमा जरूर अपनी कई खूबियों और विशिष्टताओं के साथ-साथ दर्शकों से अपने अनूठे रिश्ते बना लेने के कारण अक्सर याद आता है। इस लेख के माध्यम से ऐसी ही कुछ फिल्मों की चर्चा की जा रही है जिसमें जल के साथ इन्सानी जद्दोजहद को बखूबी पेश किया गया है।

1953 में प्रख्यात फिल्मकार स्वर्गीय बिमल राय ने एक अविस्मरणीय फिल्म बनायी थी, ‘दो बीघा ज़मीन’। ‘धरती कहे पुकार के, गीत गा ले प्यार के, मौसम बीता जाए, मौसम बीता जाए’, मन्नाडे का गाया यह गीत आज भी सुनो तो फिल्म के सशक्त कथ्य और उसमें अन्तर्निहित यथार्थ की तस्वीर आँखों के सामने उभर आती है। ग्रामीण परिवेश में प्रकृति और पूंजीपति से संघर्ष करता किसान कितना विवश और असहाय है, यह फिल्म में देखा जा सकता है। सूखे और अवर्षा की स्थिति में जब पूरे गाँव के लोग पानी का आव्हान करते हुए ‘हरियाला सावन ढोल बजाता आया’ गाते हैं तो एक-एक आदमी और औरत के चेहरे पर आसमान से बरसने वाले पानी के लिए स्वागतातुर ललक उम्मीदों से भरी नज़र आती है। गाना खत्म होते होते जब पानी बरसता है तो लोग जमकर नहाते हैं। 

1956 में राजकपूर की फिल्म ‘जागते रहो’ में पानी के लिए प्यासा नायक जब एक घर में जा घुसता है तो उसे अपने जगत के बेनकाब होते चेहरे दिखायी पड़ते हैं। उसकी प्यास तब और चरम पर जा पहुँचती है जब वो उन चेहरों पर मानवीयता को नेस्तनाबूत कर दिए जाने के षडयत्रों को अट्टहास करते हुए देखता है। उसका गला खुष्क हो जाता है। उसके सामने आम आदमी के विरोध में जैसे एक पूरी दुनिया ही खड़ी दिखायी देती है। वह चोर साबित होता है। बेतहाशा भागकर जब पस्त हो जाता है तो फिल्म के अन्त में उसके चुल्लू में नरगिस पानी डालती है और वह व्याकुल आत्मा के साथ पानी पीकर तृप्त होने की कोशिश करता है। यह अन्त एक तरह का आशावाद ही माना जायेगा जिसका इन्तज़ार आज तक उस नायक जैसे इन्सान कर रहे हैं। 1965 में आयी विजय आनन्द की फिल्म ‘गाइड’ की एक अलग ही फिलॉसफी थी। उसके मूल में प्रेम था, जिसको सशक्त कथ्य और चरित्र के भीतर के अन्तर्द्वन्द्वों के बावजूद नैतिक ठहराने की एक बड़ी और आत्मविचलन से भरपूर जद्दोजहद दिखायी पड़ती थी। फिल्म का नायक अन्त में जब एक गाँव में जाकर लोगों की श्रद्धा का पात्र बन जाता है तब उसकी अपनी एक कठिन परीक्षा जो कि परिस्थितिजन्य होती है मगर उसकी ज़िन्दगी की कीमत पर उसे नायकत्व के शिखर पर स्थापित करती है। पानी को तरसते सूखे गाँव के लिए नायक का अन्न जल त्याग देना आखिर उस चरम को स्पर्श करता है जिसमें पानी का बरसना और नायक का मर जाना एक ही चरम बिन्दू पर घटित होता है। पानी के आव्हान से आत्मपरीक्षा का यह तारतम्य आज भी दर्शक भुला नहीं पाये हैं। 

पानी को लेकर संघर्ष की स्थितियों को अक्सर राजस्थान की पृष्ठभूमि और परिवेश में बनी फिल्मों में अक्सर व्यक्त किया गया है। रेत और रेगिस्तान में जहाँ दूर-दूर तक पानी का नामोनिशान न हो वहाँ लोग क्या करेंगे? सिनेमा को मानवीय संघर्ष और सरोकारों के सशक्त माध्यम के रूप में बरतने वाले प्रख्यात फिल्मकार ख्वाज़ा अहमद अब्बास ने 1971 में फिल्म ‘दो बून्द पानी’ में पानी और सपनों के यथार्थ को इन्सानी ज़िन्दगी और संवेदना के परिप्रेक्ष्य बहुत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया था। ‘पीतल की मेरी गागरी, दिल्ली से मैंने मोल मंगायी रे। पाँवों में घुंघरू बांध के, अब पनिया भरन हम जाईं रे’ गीत की मधुर भावना और संगीत आज भी उतना ही प्रभावशाली है जितना उस वक्त था। कैफी आज़मी के लिखे इस गीत को जयदेव ने संगीत से सजाया था। राजस्थान गंगा सागर परियोजना इस फिल्म के मूल में थी जिसमें एक संवेदनशील कहानी को अब्बास ने सृजित किया था।

1981 में तमिल के प्रख्यात निर्देशक के. बालाचन्दर की फिल्म ‘थन्नीर थन्नीर’ में पानी की समस्या को राजनीति में इस्तेमाल करने और शोषण का प्रभावी चित्रण किया गया था। तमिलनाडु के एक गाँव अतिपत्तु में भयावह जलसंकट है। पानी को लेकर तरसते गाँव को जीवनयापन के लिए पानी चाहिए मगर दो प्रभावशाली राजनैतिक दलों में यह राजनीति प्रबल होती है कि पानी गाँव में आये या नहीं? बीस मील दूर से इस गाँव को पानी उपलब्ध कराने के नाम पर स्थानीय राजनीति अपने ढंग से जनता को भरमाती है। राजनेता, उनके अनुयायी और पुलिस सब मिलकर इस अत्यन्त सम्वेदनशील मुद्दे को राजनीति का हथियार बनाकर भोले-भाले ग्रामीणों की भावना, उम्मीदों और ज़िन्दगी से खिलवाड़ करते हैं। कालान्तर में यह एक ऐसे संघर्ष में तब्दील होता है जो अनियंत्रित और अराजक हो जाता है। परिणामस्वरूप झगड़ा होता है, जानें जाती हैं। 

1985 में जे. पी. दत्ता ने ‘गुलामी’ फिल्म का निर्माण किया था। ज़मींदारी-साहूकार शोषण, वर्ग भेद, ऊँच नीच का यथार्थ इस फिल्म के मूल में था। इस फिल्म में भी गाँव के स्कूल में ठाकुरों के बच्चों के पीने का पानी अलग रखा है और बाकी का पानी अलग रखा है। फिल्म का नायक मास्टर जी से सवाल भी करता है मगर मास्टर जी के पास जवाब नहीं है। गाँव के कुँए से मृत पशु के निकलने से पानी ज़हरीला हो जाता है तब नायक धर्मेन्द्र जमींदार के महल से पानी लेने के लिए गाँव वालों की अगुवाई करते हैं। इस पर भारी खून-खराबा होता है। इस फिल्म में भेदभाव और शोषण के बीच पानी की ज़रूरत, उसका मयस्सर होना कठिन होना और इन्सानी ज़िन्दगी के मोल को आँकने की प्रवृत्ति को सशक्त रूप में उभारा गया है। यह फिल्म बेहद प्रभावशाली है जिसके तीन प्रमुख नायक अन्त में एक-एक करके मरते हैं मगर वे यथासम्भव एक ऐसा मार्ग प्रशस्त कर जाते हैं जिसमें शायद ऐसी व्यवस्था कायम हो जिसमें गरीब और छोटी जाति के लोगों को किसी भी कुँए, पोखर, तालाब, नदी या बावड़ी से पानी पीने-लेने के एवज में जान न देना पड़े।

1990 में आयी सईं परांजपे की फिल्म ‘दिशा’ एक अलग तरह की महत्वपूर्ण फिल्म है जिसमें रोज़ी रोटी की आस में घर परिवार गाँव में छोड़कर महानगर की भूलभुलैया में खो गये दो किरदारों की कहानी है। एक आखिर में शहर से गाँव लौटता है और गाँव में ही रहने का निर्णय लेता है और दूसरा इसलिए गाँव नहीं लौट पाता क्योंकि उसके शहर रहते, गाँव में उसके अपने लोग पराए हो गये, जिसमें उसकी पत्नी भी शामिल है जिसका गाँव के एक बीड़ी ठेकेदार से सम्बन्ध हो गया है। इस नायक का पिता यह बात जानता है मगर बीड़ी ठेकेदार ने उसे ऐसे ठाठ उपलब्ध कराए हैं कि वो भी सब कुछ नज़रअन्दाज़ कर आँख मूंदकर दूसरी तरफ करवट लेकर सो रहा है। इस फिल्म में एक दिलचस्प कैरेक्टर ओमपुरी का है जो शहर कमाने गये रघुवीर यादव का बड़ा भाई है। उसकी एक ही धुन है, वह गाँव में कुँआ खोदने में अकेला जुटा हुआ है। सब लोग उसे पागल सा समझते हैं मगर चौबीसों घण्टे वो अकेला ही गड्ढे को इस आस में गहरा किए जा रहा है कि उसमें से एक दिन पानी निकलेगा और पूरे गाँव की समस्या हल हो जाएगी। सईं परांजपे क्लाइमेक्स में इस किरदार को सफल होते दिखाती हैं। कुँए से स्रोत फूट पड़ता है। ओमपुरी का छोटा भाई बना रघुवीर यादव इसी खबर के बाद लौटने का निर्णय लेता है। कुल मिलाकर यह फिल्म एक आदमी के साहस और हौसले के साथ साथ अपनी जड़ों से विस्थापित होते इन्सान की विडम्बनाओं को भी प्रकट करती है। 

आशुतोष गोवारीकर की फिल्म ‘लगान’ की पृष्ठभूमि में ग्रामीण परिवेश है। गाँव के लोगों को अनेक मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। ऐसे में बरसात नहीं हो रही है। खेत का क्या होगा, फसल होगी कि नहीं, यही चिन्ताएँ भोले ग्रामीणों को एक जगह पर ले आती हैं। सब के सब आसमान की ओर निहारते हैं और अनन्त से अनन्त तक विस्तीर्ण नीली छतरी की मनुहार में ये मधुर गीत गा उठते हैं, घनन घनन घन घिर आए बदरा काले मेघा काले मेघा पानी तो बरसाओ बिजली की तलवार नहीं बून्दों के बान चलाओ। यह खूबसूरत गीत जावेद अख़्तर ने लिखा है जिसे ए. आर. रहमान ने संगीतबद्ध किया है। बड़ा खूबसूरत दृश्य उपस्थित होता है जब काले मेघा सचमुच बून्दों के बान चला देते हैं और ग्रामीणों के चेहरे पर पानी की बून्दें, आँखों के आँसुओं के साथ मिलकर खुशी की एक अलग ही परिभाषा रचती हैं। 

हिन्दी सिनेमा में न जाने कितनी ही फिल्मों में पनघट, नदी, तालाब, पोखर और जलस्रोत के आसपास खूबसूरत दृश्य से लेकर हृदयविदारक हादसे भी रचे गये हैं। नायक-नायिका, सखियाँ, गगरी, मटकी, गीत से लेकर छेड़छाड़ तक पनघटों में एक अलग ही प्रभाव रचती है। अल्ला मेघ दे पानी दे पानी दे गुड़धानी दे, रामा मेघ दे, पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, मेघा रे मेघा रे मत परदेस जा रे, हरियाला सावन ढोल बजाता आया, उमड़ घुमड़कर छायी रे घटा का अपना अलग रंग और प्रभाव रहा है। हमारे जीवन में पानी का बहुत बड़ा मोल है। पानी हमारे लिए जीवन का विकल्प है। पानी से रिश्ते बनते भी हैं और बिगड़ते भी हैं। दिनों दिन नष्ट होते पर्यावरण और प्रकृति के सन्तुलन ने हमारी ज़रूरतों में से सबसे अहम पानी का जिस तरह संकट खड़ा किया है, वो अत्यन्त भयावह है। सईं परांजपे की फिल्म ‘दिशा’ का किरदार अकेला कुँआ खोदकर एक दिन पानी निकाल देने का अपना जुनून पूरा करता है मगर समाज में इसकी कोई सार्थक प्रेरणा कहाँ सम्प्रेषित हो पाती है? यथार्थ में तो हम कुँए पूरने का काम कर रहे हैं और धीरे-धीरे सारे जलस्रोतों को समाप्त करने में, अस्तित्वहीन करने में जाने-अनजाने अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। 



 
     

मंगलवार, 20 अगस्त 2019

खैयाम

इस अंजुमन में आपको आना है बार-बार



मीडिया में एक संजीदगी भरा ट्रिब्यूट देखने को नहीं मिला, ऐसी सूझ और कंजूसी एक महान संगीतज्ञ के अवसान पर नजर आयी। एक फनकार है, एक सदी बराबर जिसका सुयश है। जिसकी वजह से बहुत सारी कागज पर ठहरकर रह जाने वाली रचनाएँ बोल उठी हैं। कितने ही दूसरे गुणी फनकारों के ओठों पर उनके बनाये गीत खिले हैं। कितनों को अपने होने और जीने का मकसद मिला है। कितनों ने अपनी बात इनके संगीत से सजाये गीतों के माध्यम से अपनी सही जगह तक पहुँचायी है, ऐसे खैयाम लम्बे समय बिस्तर पर रहे। बरसों से अपने जवान बेटे की असमय मौत से टूटे और बिखरे मियाँ-बीवी, सुनते हैं कि जगजीत कौर की तबीयत भी बहुत खराब है। और हमारे सामने देखते ही देखते देर रात खैयाम साहब के नहीं रहने की खबर आ जाती है। यह खबर जैसे उनके बनाये हुए तमाम गीतों को भी शोक-धुन में बदल देती है। कल और आयेंगे नगमों की खिलती कलियाँ चुनने वाले...............लगता है सचमुच क्षणभंगुरता का जीवन है। सबकी अपने समय पर तैयारी पूरी है। धर्मेन्द्र की फिल्म आरम्भिक फिल्म शोला और शबनम में कैफी आजमी के लिखे दो गीत, जीत ही लेंगे बाजी हम तुम और जाने क्या ढूँढ़ती हैं ये आँखें मुझमें, राख के ढेर में शोला है न चिंगारी है.......सुनना कथानक की स्थितियों और अनुरक्ति के द्वंद्व को महसूस करना है।

खैयाम साहब ने बहुत चुनकर फिल्में कीं। उनसे एक आकर्षण कभी-कभी से बनता है, कल और आयेंगे नगमों की खिलती कलियाँ चुनने वाले, साहिर अपने बारे में जैसे बड़े एक्सीलेंस के बावजूद कह जाते हैं, मुझसे बेहतर कहने वाले..........उस समय खैयाम साहब के इशारे पर साज भी जैसे शायर की बात सुनता है। आगे बहुत से उदाहरण हैं, त्रिशूल, नूरी, नाखुदा, उमराव जान, दर्द, थोड़ी सी बेवफाई, बाजार, दिले नादान और अल्टीमेट रजिया सुल्तान आदि..........नजर से फूल चुनती है नजर, चांदनी रात में इक बार तुझे देखा है, मोहब्बत बड़े काम की चीज है की शुरूआत में कुछ पंक्तियाँ हर तरफ हुस्न है जवानी है आज की रात क्या सयानी है, तुम्हारी पलकों की चिलमनों में ये क्या छुपा है सितारे जैसा, देख लो आज हमको जी भर के और ऐ दिले नादान, आयी जंजीर की झनकार, जुस्तजूँ जिसकी थी उसको तो न पाया हमने.............मन-मस्तिष्क दोहराते हैं, फिर खैयाम साहब का न होना याद आता है तो लगता है कि साँझ हो गयी है और हवा में पतंग टूट जाने के बाद उदास उड़ाने वाला मांझा उतार रहा है........

हम सब एक बुरे समय के शिकार नहीं बल्कि खुशी-खुशी उसके साथ हैं, यह समय है भूल जाने, बिसरा देने और याद न रखने का। अब खैयाम साहब को कब याद किया जायेगा, पता नहीं। उनकी पत्नी जगजीत कौर भी अत्यधिक बीमार और अब एकाकी रह गयीं। खैयाम साहब ने उनसे अनेक भावुक और संवेदनशील प्रसंगों पर बहुत वास्तविक आभास देने वाले गीत गवाये थे, देख लो आज हमको जी भरके, चले आओ सैंया, इधर आ सितमगर, हरियाला बन्ना आदि। रजिया सुल्तान फिल्म में एक गाना तो उस्तादों के साथ जगजीत जी ने गाया था जिसमें परवीन सुल्ताना, फैयाज अहमद खाँ, नियाज अहमद खाँ, मोहम्मद दिलशाद खान संगी थे।

खैयाम, एक फनकार थे, सुरों और साजों की संवेदनशीलता को समझने वाले माहिर थे, तबला, सारंगी, सितार और सन्तूर उनकी संगत में जैसे बोल उठते थे। ऐसे खैयाम को हृदय और श्रद्धा के साथ नमन.....

बुधवार, 31 जुलाई 2019

प्रेमचन्द की कृतियाँ और हिन्दी सिनेमा

प्रेमचन्द का साहित्य प्रमुख रूप से बीसवीं सदी के आरम्भ और लगभग तीन दशक की स्थितियों के आसपास घटनाक्रम, देखी-भाली कथाएँ, सुने हुए दृष्टान्त और मंथन किए मूल्यों का दस्तावेज है। भारत में सिनेमा का आगमन 1913 का है। प्रेमचन्द ने अपनी परिपक्व उम्र और अवस्था में सिनेमा के जन्म और उसकी सम्भावनाओं को देखा था। कहीं न कहीं अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करते सिनेमा की शक्ति को भी वे महसूस करते थे। दादा साहब फाल्के जब राजा हरिश्चन्द्र बना रहे होंगे तब प्रेमचन्द की उम्र तीस साल से जरा ज्यादा रही होगी। प्रेमचन्द को अपने लमही और बनारस से सिनेमा का सुदूर मुम्बई किस तरह आकृष्ट कर रहा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है!

सिनेमा का आकर्षण और बाद में या जल्द ही उससे मोहभंग होने के किस्से साहित्यकारों-कवियों के साथ ज्यादा जुड़े हैं। प्रेमचन्द से लेकर भवानी प्रसाद मिश्र, अमृतलाल नागर और नीरज तक इसके उदाहरण हैं। साहित्यकार अपनी रचना को लेकर अतिसंवेदनशील होता है। वह फिल्मकार की स्वतंत्रता या कृति को फिल्मांकन के अनुकूल बनाने के उसके प्रयोगों को आसानी से मान्य नहीं करना चाहता। विरोधाभास शुरू होते हैं और अन्त में मोहभंग लेकिन उसके बावजूद परस्पर आकर्षण आसानी से खत्म नहीं होता। हमारे साहित्यकार, सिनेमा के प्रति आकर्षण के दिनों में कई बार मुम्बई गये और वापस आये हैं। आत्मकथाओं में साहित्यकारों ने मायानगरी मुम्बई की उनके साथ हुए सलूक पर खबर भी ली है लेकिन सिनेमा माध्यम को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। साहित्यकार-कवि कड़वे अनुभवों के साथ अपने प्रारब्ध को लौट आये और सिनेमा अधिक स्वतंत्रता के साथ उनके साथ हो लिया जो उससे समरस हो गये।

प्रेमचन्द के साहित्य पर हीरा मोती, गबन, कफन, सद्गति और शतरंज के खिलाड़ी जैसी कुछ फिल्में बनी हैं मगर हमें बाद की सद्गति और शतरंज के खिलाड़ी याद रह जाती हैं क्योंकि ये ज्यादा संजीदगी के साथ बनायी गयी थीं और इसके बनाने वाले फिल्मकार सत्यजित रे एक जीनियस व्यक्ति थे जिनके नाम के साथ एक ही विशेषण नहीं जुड़ा था क्योंकि अपनी फिल्मों के वे लगभग सब कुछ हुआ करते थे। रे ने अपनी सारी फिल्में बंगला में ही बनायी थीं। उनके बारे में एक बातचीत में डॉ. मोहन आगाशे जो कि हिन्दी और मराठी सिनेमा तथा रंगमंच के शीर्ष कलाकार हैं, ने कहा था कि माणिक दा के लिए श्रेष्ठ काम का पैमाना उनके अपने सहयोगी लेखक, सम्पादक, छायांकनकर्ता, सहायक निर्देशक हुआ करते थे जिन पर उनका विश्वास यह होता था कि जिस तरह की परिकल्पना किसी फिल्म को लेकर उनकी है, उसे साकार करने में ये सभी पक्ष उसी अपेक्षा के साथ सहयोगी होंगे। 

सत्यजित रे ने शतरंज के खिलाड़ी का निर्माण 1977 में किया था। उनके लिए बारह पृष्ठों की एक कहानी को दो घण्टे से भी कुछ अधिक समय की फिल्म के रूप में बनाना कम बड़ी चुनौती नहीं था। वे यह फिल्म हिन्दी में बनाने जा रहे थे। वे उन्नीसवीं सदी के देशकाल की कल्पना कर रहे थे। अपनी इस फिल्म को उसी ऊष्मा के साथ बनाने के लिए लोकेशन का ख्याल करते हुए उनके दिमाग में कोलकाता, लखनऊ और कुछ परिस्थितियों के चलते मुम्बई कौंध रहे थे। वाजिद अली शाह के किरदार के लिए अमजद खान उनकी पसन्द थे। मीर और मिर्जा की भूमिका के लिए सईद जाफरी और संजीव कुमार को उन्होंने अनुबन्धित कर लिया था। विक्टर बैनर्जी, फरीदा जलाल, फारुख शेख, शाबाना आजमी सहयोगी कलाकार थे। वाजिद अली शाह के साथ एक बराबर की जिरह वाली महत्वपूर्ण भूमिका के लिए रे ने रिचर्ड एटिनबरो को राजी कर लिया था जिन्होंने उट्रम के किरदार को जिया था। बंसी चन्द्र गुप्ता उनके कला निर्देशक थे जिनको स्कैच बनाकर रे ने काम करने के लिए दे दिए थे और कहा था कि सीन दर सीन मुझे यही परिवेश चाहिए। आलोचकों ने शतरंज के खिलाड़ी को बहुत सराहा था यद्यपि कुछ लोगों को कथ्य के अनुरूप फिल्म का निर्माण न होने से असन्तोष भी रहा लेकिन आलोच्य दृष्टि रे के पक्ष में रही और उन्हें इस फिल्म के लिए नेशनल अवार्ड भी मिला। 

प्रेमचन्द ने शतरंज के खिलाड़ी में मीर और मिर्जा को केन्द्रित किया है, इधर सत्यजित रे ने फिल्म में वाजिद अली शाह और जनरल उट्रम के चरित्रों को महत्वपूर्ण बनाया है। फिल्म में वाजिद अली शाह की सज्जनता के साथ-साथ राजनीतिक समझ की कमी को भी निर्देशक ने रेखांकित किया है। अंग्रेज जैसे चतुर और खतरनाक दुश्मन की शातिर कूटनीतिक चालों को समझ सकने में अक्षम भारतीय राजनैतिक मनोवृत्ति भी फिल्म में सशक्त ढंग से उभरती है। हमारे दर्शक सिनेमा में सूक्ष्म ब्यौरों तक नहीं जाते, कई बार सिनेमा की विफलता का यह भी एक कारण होता है। शतरंज के खिलाड़ी के माध्यम से निर्देशक ने प्रेमचन्द की कहानी को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयत्न किया है। यह भले पैंतीस साल पहले की फिल्म हो लेकिन शतरंज के खिलाड़ी पुनरावलोकन की भी फिल्म है, आज भी हम उसे देखेंगे तो प्रभावी नजर आयेगी।

सद्गति एक घण्टे की फिल्म थी। इसे सत्यजित रे ने दूरदर्शन के लिए बनाया था। यह लगभग बावन मिनट की फिल्म थी जिसको देखना अनुभवसाध्य है। निर्देशक ने इस फिल्म को कहानी की तरह ही बनाया है, एक-दो दृश्यों के अलावा पूरी फिल्म प्रेमचन्द की कहानी के अनुरूप ही है। स्वयं निर्देशक का मानना था कि यह कहानी ही ऐसी है जो इसके सीधे प्रस्तुतिकरण की मांग करती है। सत्यजित रे ने इसे उसी ताप के साथ प्रस्तुत करके उसकी तेज धार को बचाये रखा। मैंने इसके तीखेपन को जस का तस प्रस्तुत करने का काम किया। सद्गति की विशेषता यह भी है कि फिल्म में कहानी में प्रयुक्त संवाद भी ज्यां के त्यों रखे गये हैं। फिल्म के लिए रे ने पात्रों का चयन भी अनुकूल ही किया था। ओम पुरी, स्मिता पाटिल, मोहन आगाशे प्रमुख भूमिकाओं थे। यह फिल्म दो सप्ताह के शेड्यूल में पूरी बन गयी थी। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के निकट इसका फिल्मांकन हुआ था। बंगला के एक और महत्वपूर्ण फिल्मकार मृणाल सेन ने कोई पैंतीस साल पहले तेलुगु में कफन कहानी पर केन्द्रित ओका ओरि कथा फिल्म का निर्माण किया था। टेलीविजन पर निर्मला और कर्मभूमि पर धारावाहिक बने। विख्यात फिल्मकार गुलजार ने भी प्रेमचन्द की कहानियों पर तहरीर मुंशी प्रेमचन्द की धारावाहिक का निर्माण किया था जिसकी कई कहानियों में पंकज कपूर ने केन्द्रीय भूमिकाएँ निभायी थीं।

शनिवार, 20 जुलाई 2019

।। आर्टिकल 15 ।।


गहरे अनुभव (सिन्‍हा) की फिल्‍म

 


यह एक ऐसी फिल्म देखने का अनुभव है जिसे नहीं देखकर उस यथार्थ से वंचित रहना होता जिसकी हम खूब बातें किया करते हैं प्रसंगवश लेकिन वे वही बातें होती हैं जिनके बारे में कहा जाता है, बातें हैं बातों का क्या? अनुभव सिन्हा ने गौरव सोलंकी के साथ मिलकर एक घटना की परिधि में जिस तरह की सशक्त फिल्म निर्मित और निर्देशित की है वह आँखें खोल देने वाली है। हमारे यहाँ समग्रता में सशक्त या उत्कृष्ट फिल्में बहुत कम बनती हैं जिनमें निर्देशक सभी आयामों के सन्तुलन में कोई बड़ी दृष्टि या चमत्कार पेश कर सके। चूँकि अनुभव सिन्हा, पन्ने पर भी उस फिल्म के दृश्यों और संवादों को लिख रहे हैं लिहाजा परदे पर भी वह उसी प्रभाव के साथ घटित होती है।

जघन्य बलात्कार का शिकार दो नाबालिग लड़कियाँ हैं जिनकी पार्थिव देह गाँव के बाहर एक पेड़ से लटकी हैं, स्याह रात और भोर के बीच बड़ा फासला है जिसमें गहरी धुंध छायी हुई है और यह आकृतियाँ परदे पर प्रकट होती हैं। इसके पूर्व एक दृश्य यह भी है कि भारतीय पुलिस सेवा में सीधी भरती से नियुक्त एक अधिकारी यहाँ अपनी पोस्टिंग पर आया है जो अपने वरिष्ठ को शाम की पार्टी में दबी जुबाँ हँसकर बतलाता भी है कि सजा के रूप में भेज दिया गया हूँ। फिल्म आगे इस झूठ के साथ बढ़ती है कि दोनों लड़कियों के पिताओं ने ऑनर किंलिंग के रूप में यह सजा उनको दी क्योंकि वे समलिंगी थीं। एक तीसरी लड़की और इनके साथ थी जो गायब है। उसकी तलाश नहीं की जा रही, यह माना जा रहा है कि वह भी जीवित न होगी। पुलिस की विवेचना हो रही है और अपनी तरह से प्रकरण को बन्द किए जाने लायक फाइल तैयार होती जा रही है।

इसी घटनाक्रम के बीच नायक पुलिस अधिकारी की छानबीन जारी है। समानता की भारतीय संविधान में आर्टिकल 15 के अन्तर्गत दी गयी व्यवस्था, एक विवरण भर है और लालगाँव में दमन, शोषण, भेदभाव, पक्षपात अपने चरम पर है। राजनीति और उसके कुटैव तथा अराजकताएँ आमजन को अपने बर्बर और हिंसक आव्हान और आन्दोलन के नीचे किस तरह खड़े रखते हैं और अपने को सिद्ध करके उन आमजनों को उनके हाल पर छोड़ दिया करते हैं इस पर तीखे संवाद भी फिल्म में है। नायक के अधीन पुलिस अधिकारी प्रकरण को बन्द कर देने पर अमादा हैं वह तीसरी लड़की को ढूँढ़ने की जिद पाले हुए नायक को सचेत भी करते हैं कि साहब आपका तो केवल ट्रांसफर होगा, हम मार डाले जायेंगे। इसी क्रम में सीबीआई की जाँच, नायक को विद्वेषवश कटघरे में खड़ा करने के एजेंसियों, रसूखदारों और राजनैतिक दलों के षडयंत्र परदे पर देखते हैं। अन्त यह है कि नायक को दिल्ली में बैठे अपने वरिष्ठ अधिकारी से हौसला मिलता है और वह गायब हुई तीसरी लड़की भी।


यह जिजीविषा, नैतिकता और दृढ़ आत्मविश्वास की विजय के साथ इस फिल्म का खत्म होना एक बड़ा सन्देश भेजता है। अनुभव सिन्हा की पकड़ इसके एक-एक फ्रेम पर है। वह प्रत्येक दृश्य के साथ पार्श्व संगीत के तरह और प्रकार के साथ-साथ उसकी जरूरत का भी ध्यान रखते और नियंत्रित करते हैं। उनका सिनेमेटोग्राफर (इवान मुल्लिगन) दृश्यों को कैप्चर करने का कुशल सम्पादक भी है जो हवाई शॉट के साथ-साथ दिल को हिला देने वाले, सिहरा देने वाले, प्रेम और करुणा उपजा देने वाले दृश्यों तक बखूबी पहुँचता है। इस टिप्पणीकार के उस समय आँसू छलक आते हैं जब वह बुलबुलाते हुए गटर के भीतर से गटर साफ करने वाले को निकलते देखता है जो भीतर वह तमाम पदार्थ बाहर फेंक रहा है जिसने उसे अवरुद्ध कर रखा है। यह अनुभूति किसी सिहरन से कम नहीं है जो भीतर ही भीतर झिंझोड़कर रख देती है। हमारे सामने डरे हुए कर्मचारी, अन्देशों में रहने वाली स्त्रियाँ, मगरमच्छ से भी अधिक मोटी चमड़ी वाले बुरे, निर्मम और बेईमान पदधारित लोग जिस तरह से आते-जाते हैं, एक तो सब चरित्रों को निबाहने वाले कलाकार बहुत सशक्त हैं, मनोज पाहवा (ब्रम्हदत्त), कुमुद मिश्रा (जाटव), जीशान अयूब (निशाद), सयानी गुप्ता (गोरा), नासेर (सीबीआई अधिकारी) को परदे पर देखकर लगता है कि इन सबके लिए चरित्र हो जाना जैसे जीवन-मरण का प्रश्न हो गया होगा। मनोज पाहवा का खासतौर पर आपा खो बैठने पर दाँत मिलाकर ओंठ खोलकर बोलने का ढंग, नासेर (साउथ के एक बड़े स्टार) का आयुष्मान खुराना (अयान रंजन) के सामने जाँच करना और बयान लेने का लम्बा दृश्य सब कुछ हमारी व्यवस्था में व्याप्त उन विसंगतियों को उजागर करते हैं जो सदैव से किसी भी बदलाव के रास्ते पर रोढ़ा बनकर रहा करती हैं। 

इस फिल्म में दो जोड़ रोमांस के एक-एक दृश्य भी क्या हैं जो मन को छू जाते हैं, एक गोरा और निषाद का आखिरी दृश्य जिसमें निषाद अपनी अधूरी कामनाओं के रूप में छोटी-छोटी ख्वाहिश व्यक्त करता है और दूसरा नायक के साथ नायिका अदिति (ईशा तलवार) अन्त में जब उसके हाथ में उसके निलम्बन का कागज है और वह उसके साथ घर लौटता है तब देखता है कि वह वहाँ मौजूद है। अलग-अलग शहरों में दोनों रहते हुए फोन पर विचारों और असहमतियों पर प्रायः झुंझलाने और लड़ने लगने वाले नायक-नायिका एक कठिन वक्त पर एक-दूसरे के पास। 

आयुष्मान खुराना इस फिल्म के नायक हैं जिनकी सारी खूबी संयम के साथ हर दृश्य में, हर संवाद में और हर फ्रेम में उपस्थिति है। निर्देशक ने उनके माध्यम से किंचित उस युवा को भी साहस के साथ प्रस्तुत कर दिया है जो अपनी स्वाभाविकता में यदि लोगों से उसकी जात-बिरादरी पूछता है तो वह उसके गुनाह के रूप में दर्ज किया जाने लगता है (सीबीआई इन्वाक्यरी के दृश्य) लेकिन इस जिज्ञासा की सहजता और दुराग्रहरहितता फिल्म के आखिरी दृश्य में तब पता चलती है जब मिशन की सफलता के बाद सड़क के किनारे एक वृद्ध महिला की छोटी सी दुकान के पास जमीन पर सब बैठकर उसकी बनायी रोटी-सब्जी खाते हैं और यही सवाल नायक उस वृद्ध महिला के साथ करता है।

हमारा बॉलीवुड बहुधा मनोरंजन का सामान हो गया है। वह फिल्म ही प्रायः व्यर्थ हो जाती है जो मनोरंजन नहीं करती। दर्शक भी उस सिनेमा का पक्षधर है जिसमें सिनेमाघर में प्रवेश से पहले दिमाग बाहर रख जाओ और आनंद लो। इसी बहुधा अवधारणा के बीच यह सिनेमा फलीभूत होता है जो आपको सवा दो घण्टे सजग रखता है, एक-एक दृश्य का मूल्य समझने की सीख देता है, उस सच के सामने ला खड़ा करता है जो अखबार या चैनलों में सनसनी या टीआरपी से अधिक कुछ नहीं हो पाता। यह आर्टिकल 15 जैसी फिल्म आपको डिस्टर्ब करे, बेचैन करे, चैन से बैठने न दे और सिनेमाघर से निकलने के बाद आपके दिमाग में इस तरह चले कि आपको अपने किस कदर और बेवजह आश्वस्त होने या बने रहने के भ्रम से आजाद होने का मौका मिले तो उसकी यह बड़ी सफलता है। इन मायनों में निर्देशक, लेखक, निर्माता अनुभव सिन्हा की यह एक सशक्त और महत्वपूर्ण फिल्म है। ध्यान दीजिएगा, यह उतनी सफल भी है कि लागत का तीन गुना से ज्यादा अर्जित भी कर चुकी है।

मंगलवार, 21 मई 2019

जातक कथा आधारित नाटक - वृत्ति नाशक

प्राणी आचरण वृत्तियों के विपरीत 

पर मनुष्य वृत्तियों की शिकस्त में

 


तथागत बुद्ध के अनन्य जन्मों के साथ जुड़ी जातक कथाओं का संसार विहँगम है। वे इनके माध्यम से आदिकाल से मनुष्य के लिए कोई न कोई सीखकोई न कोई प्रेरणा देते है। मनुष्य जीवन की निष्फलता के पीछे कितने कारणकैसी स्थितियाँकैसा स्वभाव उत्तरदायी हैइसका नैतिक बोध मनुष्य को कभी नहीं होता। यदि होता तो अपना जीवन संवारने के लिए महापुरूषों का जीवनउनकी वाणीउनके आचरण को नजरअंदाज न किया जाता। तथागत बुद्ध ने सृष्टि में विचरण करने वाले अनेक हिसंक जीवों की योनि में भी जन्म लिया लेनिक वह प्राणी जीवन जीते हुए उन्होंने वृत्ति प्रवृत्ति के विपरीत संत और ऋषि मुनियों सा आचरण प्रस्तुत किया जो आज भी प्रेरणीय है।

जनजातीय संग्रहालय, भोपाल में तथागत बुद्ध की जातक कथाओं पर आधारित नाट्य प्रयोगों का समारोह यशोधरा का आज समापन चुलनन्दीय जातक पर आधारित नाट्य वृत्ति नाशक के मंचन से 20 मई को हुआ। इस प्रस्तुति में लगभग तीस से अधिक कलाकारों ने हिस्सा लिया। आदिवासी लोककला एवं बोली विकास अकादमी द्वारा आयोजित यशोधरा समारोह में यह प्रस्तुति बैले नाट्य की प्रतिष्ठित संस्था अर्घ्य कला समिति ने एक माह से अधिक समय के पूर्वाभ्यास में तैयार की थी। 

वृत्ति नाशक नृत्य नाट्य प्रस्तुति की कोरियोग्राफिक परिकल्पना व निर्देशक वैशाली गुप्ता ने किया था जबकि मूल जातक कथा का बैले नाट्य रूपान्तर सुनील मिश्र ने किया था। यह प्रस्तुति वाराणसी में ब्रम्हदत्त के राज्य के समय हिमालय में नन्दीय एवं चुलनन्दीय नाम के दो बन्दर भाइयों की कहानी है जो अस्सी हजार बन्दरों के राजा थे और अपनी वृद्ध माँ के साथ जंगल में रहकर प्रजा का पालन करते थे। जब रहने वाले स्थान में भोजन और पानी का संकट आया तो वे अपनी माँ को हिफाजत से एक जगह छुपाकर दूर दूसरे स्थान पर सबको ले गये जहाँ खाने-पीने के लिए अथाह प्राकृतिक और वानस्पतिक सम्पदा थी। 

दोनों भाई अपनी प्रजा के तीन-चार साथियों के माध्यम से नियमित रूप से अपनी माँ के लिए खाद्य सामग्री, फल वगैरह भेजकर निश्चिंत हो जाया करते थे। उनको नहीं पता था कि वे दुष्ट बन्दर रास्ते में सबकुछ खा जाते हैं और माँ भूखी-प्यासी हड्डी का ढांचा बनकर रह गयी है। एक दिन जब वे इस बात को जान पाते हैं तो अपने साथियों से अलग हो जाते हैं और दल को छोड़ देते हैं और अपनी माँ की सेवा का संकल्प करते हैं। कुछ दिन अच्छे से व्यतीत होते हैं कि एक व्याघ्र, शिकारी की दृष्टि उन पर पड़ती है। वह नन्दीय और चुलनन्दीय की माँ को मारकर शिकार करना चाहता है। इस पर नन्दीय आकर उसको रोकता है और कहता है कि बूढ़ी, रुग्ण और अंधी माँ को मारकर क्या होगा, उसे जीवित रहने दो भले मुझे मार लो। व्याघ्र नन्दीय पर तीर चलाकर उसे मार देता है और फिर बूढ़ी माँ पर तीर तान देता है। तब चुलनन्दीय आकर अपने को प्रस्तुत करता है। निर्मम व्याघ्र उसे भी मारकर फिर वृद्ध बन्दरिया को भी मार देता है। जब वह तीनों को मारकर घर ले जाता है जो अपने घर में हुए वज्रपात से उसका दिल काँप उठता है, वह देखता है कि घर जलकर खाक हो गया है और आग में परिवार भी समाप्त हो गया, वह बचाने गया तो वह भी। यह शिकारी वाराणसी का छात्र था जो तक्षशिला में ज्ञान प्राप्त करने गया था मगर अपने दुष्ट आचरण की वजह से निष्काषित कर दिया गया था। उसके बाद वह ऐसी हिंसक वृत्ति का हो गया। लेकिन उसको अपनी करनी का फल मिला। 

जातक कथाओं की प्रेरणाएँ अनन्त हैं। तथागत बुद्ध के अनेक जन्मों की कथा जिनमें वे अलग-अलग प्राणी के रूप आये, अनेक हिंसक प्राणियों की योनि में जन्म लेकर भी वृत्ति के विपरीत करुणा, संवेदना और आपसी साहचर्य का स्वभाव और जीवन जीकर आदर्श स्थापित किया और कृतघ्न मनुष्य को सीख दी। मनुष्य इन जातक कथाओं के मर्म को जाने तो वह आज भी अपने जीवन को सँवार सकता है और अपने होने को धन्य कर सकता है। वैशाली गुप्ता ने इस प्रस्तुति का तानाबाना बड़े और बाल कलाकारों के साथ मिलकर कुशलता के साथ बुना और अनेक सुन्दर और मर्मस्पर्शी दृश्यबन्धों के माध्यम से मंच पर प्रस्तुत किया। जंगल में विभिन्न प्राणियों के बीच आपसी प्रेम, सद्भाव और समरसता को नाटक में प्रस्तुत किया गया। नन्दीय और चुलनन्दीय के पिता महानन्दीय और उनके मित्र घोटक (वनमानुष) की परिकल्पना व्याघ्र की प्रवृत्ति का घोर प्रतिवाद है जिसने प्रस्तुति को एक अलग प्रभाव दिया। 

कलाकारों में प्रथम भार्गव नन्दीय, समक्ष जैन चुलनन्दीय, मेघा ठाकुर बूढ़ी माँ, भगत सिंह घोटक, हर्ष राव व्याघ्र, निधि वत्स व्याघ्र की पत्नी के रूप में प्रमुख भूमिकाओं में हैं जबकि पक्षियों और प्राणियों की भूमिकाओं में कृष्णा, किरण, हनी, अमृत कौर, देवांग, निमित, आनंदी, हितैषी, निमित आदि। संगीत परिकल्पना सुश्रुत गुप्ता की है। गीत संयोजन भी उन्हीं का। यह नाटक समान रूप से बड़ी उम्र के दर्शकों के साथ बच्चों के लिए भी प्रेरक है। 

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