क्षमताओं और चुनौतियों में अतिरेक की.....
अच्छा सिनेमा को
उसका दर्शक मिल ही जाता है। यह अच्छा है कि अब हमारे यहॉं कुछ संजीदा सितारे भी निर्माता
और निर्देशक के साथ होते हैं। नहीं तो यह भी सम्भव है कि हमारा पैसा मिल गया,
फिर बन गयी, अब हमको क्या लेना-देना लेकिन सतीश
कौशिक जैसे गम्भीर फिल्मकार और विलक्षण अभिनेता इससे आगे बढ़कर अपनी जिम्मेदारी
समझते और निबाहते हैं। मैं इस फिल्म को देखने के लिए सतीश जी के ट्वीट से ही प्रवृत्त
हुआ हूँ और छलांग मुझे अच्छी भी लगी है। निर्देशक हंसल मेहता ने बहुत ही सहज प्रवाह
में एक मनभावन फिल्म गुणी कलाकारों के साथ मिलकर बस रच दी है यह कहा जाना चाहिए।
छोटी जगहों पर प्राय: कुछ न कुछ अनूठा और असाधारण हुआ करता है। यह जरूरी नहीं कि वह देश्व्यापी ख्याति का हो लेकिन उसकी प्रेरणा कई बार अनुभूतियों से अनुभूतियों तक बड़ी दूर तक चली जाती है। इतनी दूर तक कि देश्व्यापी हो जाती है। छलांग में एक छोटा सा स्कूल है। छात्र-छात्राऍं हैं। हेड मिस्ट्रेस (इला अरुण) हैं। दो-तीन सर उनमें से भी एक कच्चे सर याने राजकुमार राव का घरबार जिसमें कभी भी न हँसने और हमेशा लानत भेजने वाली प्यारी सी मॉं (बलजिन्दर कौर) और गहरे धीरज से भरे आराम और इत्मीनान को जीते हुए रिटायर्ड से पिता (सतीश कौशिक)।
हमारे देश में नौकरी न होने का कड़वा सच है। अपने बाल-बच्चों के लिए हर आदमी कहीं न कहीं याचक, खिसियाहट या गिड़गिड़ाहट के भाव में भले चार दिन की ही क्यों न मिले नौकरी की सिफारिश किए बिना न जी सका है और बच सका है। नायक (राजकुमार राव) के पिता ने बेटे के लिए यह कर दिया है। जिसको कुछ न आये वह खेल टीचर बन जाये या पीटी सिखाये, यह भी अजीब सा दर्शन है। नायक को समाज सुधारक होने का भी चस्का है। शहर में वेलेण्टाइन डे के दिन नायिका (नुसरत भरूचा) के माता-पिता को ही अपने मूर्खतापूर्ण यश का शिकार बना लेता है। वह नायिका चुनौती देने उसी स्कूल में टीचर बनकर आ जाती है। तीसरा कोण एक प्रशिक्षित और कॉंतर शिक्षक (जीशान अयूब) का खेल का टीचर बनकर आ जाना है जो छात्रों से लेकर नायक को भी अपने बल और पैंतरों से पसीना छुटवा देता है।
कहानी इसी दायरे में पनपती है। यहॉं खलनायक कोई नहीं है। जीत-हार का जो द्वन्द्व है उसमें रोमांसात्मक ख्वाहिशों का बनना, प्रभावित होना और दॉंव पर तक लग जाना शामिल है। नायक की स्कूटर की पीछे तकिए बंधे हैं और प्रतिद्वन्द्वी के पास नयी बुलेट है। नायिका तय करती है उसे कहॉं बैठना है, किसका कंधा पकड़ना है। फिल्म में यह खूब दिलचस्प है कि नायिका, नायक, नायक के पिता सब शराब के शौकीन हैं जो अनेक महत्वपूर्ण दृश्य हाथ में पैग और मन में गहन दार्शनिक भाव का बोध कराते हैं। नायक का एक अधेड़ मित्र (सौरभ शुक्ला) उस स्कूटर की स्पेटनी की तरह ही समझिए जिसमें पीछे की सीट पर तकिया लगा है।
नायक और प्रतिद्वन्द्वी में स्पर्धा कह लें या मुकाबला, इसी तरह से होता है कि एक टीम एक पास है और दूसरी टीम दूसरे के पास। बॉस्केट बॉल से लेकर कबड्डी तक कितने मौके जब लगता है कि हाथ से जीत छूट रही है, जीत की लकीर तक पैर पहुँचते-पहुँचते हार जायेगा या फिसल जायेगा, तब जिजीविषा और हौसला अपना काम कर दिखाता है। यह फिल्म अपने सुथरे होने से पसन्द आती है। लगभग सवा दो घण्टे की फिल्म में कहीं कोई सतहीपन नहीं है, सतही मनोरंजन नहीं है। अपने-अपने हिस्से का हृयूमर सौरभ शुक्ला भी गजब का देते हैं और सतीश कौशिक भी। जीवन को बहुत ही भावुकता और संवेदनशीलता के साथ देखने का मानवीय कर्म है यह छलांग फिल्म। एक अच्छे अन्त के साथ यह आपके मन की पोथी को भी बहुत सन्तोष की साथ बन्द करती है थोड़ी देर आराम देने के लिए.............