मंगलवार, 26 मार्च 2019

27 मार्च : विश्व रंगमंच दिवस





रंगमंच को चाहिए एक सार्थक आकलन

 

हमारे देश में रंग सक्रियता हाल के कुछ वर्षों में एक नयी करवट लेकर देखने में आयी है। जीनियस निर्देशकों की पीढ़ी उम्र के उस दौर में है जब ऊर्जा, सक्रियता और क्षमता के मान से उनका काम लगभग पूरा हो चुका है। वे अपनी क्षमताओं का श्रेष्ठ अर्जित भी कर चुके हैं और प्रदर्शित भी। वे अब अपने सुनहरे समय के स्मरण या संस्मरण के साथ आज सक्रिय पीढ़ी के कामकाज को देख रहे हैं, संवाद कर रहे हैं और अपने अनुभव साझा करने को उपलब्ध हैं। नयी पीढ़ी भी गुरु-शिष्य परम्परा और रचनात्मक तथा सर्जनात्मक क्षेत्र में अनुभवसिद्ध और गुणी पुरुषों का यथासम्भव मान किया करती है और उनके अनुभवों, आशीर्वाद और मार्गदर्शन से जुड़ी रहना चाहती है। कल तक वे जीनियस मंच पर थे और उनके पास अपने समय के सापेक्ष परिस्थितियाँ थीं। अवसरों में सीमाएँ थीं और मेहनत भी उतनी ही ज्यादा थी। सामूहिक रंगमंच को अपनी श्रेष्ठता और उत्कृष्टता के अनुरूप अपने-अपने योगदान से बनाये रखने और श्रेष्ठ को प्रकाशित या मंचित किए रहने की निरन्तरता में बहुत सारे नाम देश भर से हमारे बीच साधक के रूप में, धुनी और जुनूनी की तरह सामने आते रहे हैं। फिर भी भारतीय रंगमंच जिन महान रंगकर्मियों का ऋणी रहेगा उनमें इब्राहिम अल्काजी, शौकत आजमी, बलराज साहनी, पृथ्वीराज कपूर, कावलम नारायण पणिक्कर, रतन थियम, एम एस सथ्यू, रेखा जैन, नीलम मानसिंह चौधरी, ऊषा गांगुली, उत्त्रा बावकर, के.वी. सुब्बन्ना, श्यामानंद जालान, तापस सेन, विजया मेहता, ब व कारन्त, हबीब तनवीर, विजय तेंदुलकर, शंभु मित्र, गिरीश कर्नाड, सत्यदेव दुबे, जोहरा सहगल आदि अनेक नाम प्रमुख रूप से कौंधते हैं।

तत्काल स्मरण में सम्भव है और बड़े मूर्धन्य रंगसाधकों का उल्लेख न हो पाये, उससे उनके योगदान को कम करके नहीं आँका जा सकता। दरअसल जो एक धरातल, जो एक आत्मविश्वास, एक जमीन या कह लें पटरी अथवा सड़क ऐसे मूर्धन्य संघर्षशील सृजनधर्मियों ने रंगसमाज और आने वाली पीढ़ियों को उपलब्ध करायी वह बड़ी पक्की है। उसके बाद की धारा जिसमें प्रौढ़ और युवा रंगकर्मियों की भागीदारी ने एक अलग सा दृश्य हमारे सामने उपस्थित किया है। स्थूल रूप से हम इस सदी के रंगकर्म की बात कर सकते हैं जिसके माध्यम से करीब-करीब दो दशक बराबर समय के परिदृश्य पर विचार किया जा सकता है। इन सारी बातों को करते हुए हमें इस बात को प्राथमिकता के साथ ही जोड़ लेना चाहिए कि बहुत सारे उतार-चढ़ावों के बावजूद आधुनिक भारतीय रंगमंच की प्रामाणिक जगह को लेकर बात करने लायक बेहतर अवसर जुटाने में देश के लोक मंच की बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसके लिए हम बाकायदा कावलम नारायण पणिक्कर से लेकर ब व कारन्त, हबीब तनवीर और रतन थियम की भूमिकाओं का स्मरण कर सकते हैं। इसके साथ-साथ देश के विभिन्न राज्यों में अनेक मुश्किलों और कठिनाइयों के साथ संघर्ष करते हुए भी अपनी अस्मिता बचाये रखने में माच, नाचा, नौटंकी, तमाशा, ख्याल, जात्रा, चिण्डू भागवतम, यक्षगान, कथकली आदि का योगदान रहा है। न तो इनको छोड़ा जा सकता है और इनके उल्लेख के बिना भारतीय रंगमंच को शहरी और आधुनिक पहचान वाले रंगमंच को अवदान से बढ़कर चमकाये जाने की जरूरत भी नहीं है। 



भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की परिकल्पना अंधेर नगरी से होते हुए रंगमंच पारसी थिएटर के रास्ते रामलीला, रासलीला के समृद्ध परम्परा वाली पगडण्डी से सदियों की एक लम्बी यात्रा करके हम तक उसी तरह आया है जिस तरह हम किसी कालजयी नदी के उद्गम की अवधारणा को पुराणकथा से जोड़ते हैं और फिर उसकी अन्तहीन और अनन्त यात्रा को रेखांकित करते हैं जिसमें न तो एक बार उद्गम की चर्चा करने से बात समाप्त होती है और न ही उसके हिन्द महासागर में मिल जाने की बात कहकर इतिश्री की जा सकती है क्योंकि यह सदियों की अनवरत परम्परा है और सदियों ही चलती भी रहने वाली है।

लम्बे समय तक भारतीय कलाएँ, स्वाभाविक रूप से जिसमें रंगमंच भी शामिल है, अपने स्थापत्य को लेकर संघर्षरत रहा है। अभाव, खतरे और मुश्किलों के बीच रंगमंच को जिन्दा रखे रहने की अनेक सच्ची कहानियाँ हैं जिनको सुनकर सचमुच यह अचरज होता है कि इतने के बाद भी रंगमंच होता रहा तो इसके पीछे जरूर आदमी की जिजीविषा काम कर रही होगी। संघर्ष और जिजीविषा की स्थितियाँ तो आज भी हैं। रंगमंच के स्वप्न को साकार करने के पीछे जो सबसे बड़ी जरूरत होती है वह धन की है। मनोरंजन का यह ऐसा माध्यम है जिसमें व्यय हुआ धन लौटकर नहीं आता। इसीलिए घर फूँक तमाशा और घर में ही अपने प्रति बनते बढ़ते विरोधी वातावरण के बीच रंगमंच प्रत्येक सक्रिय या काम करने वाले कलाकार-रंगकर्मी से परवान चढ़ता है। ऐसे अनेक रंगकर्मी और रंग संस्थाएँ हैं जो कलाकारों की सामूहिकता और एकजुट होकर निरन्तर काम करते रहने की आदी हो चुके हैं। दूसरे उस तरह के रंगकर्मी हैं जो आवश्यकतानुसार कलाकारों को जोड़ा करते हैं। इन सबके बीच काम करते रहने के लिए अनुदान, मंच प्रदर्शन के पारिश्रमिक या समय-समय पर प्रोत्साहित करते पुरस्कार और स्मृति चिन्हों का अपना महत्व है लेकिन इससे एक अनिश्चितता साथ चला करती है जो रंगकर्मी का कमोवेश चैन छीनकर रखती है।

भारतीय रंगमच के अनेकानेक आयामों के साथ ही उसकी सार्थकता को लेकर हमेशा ही बात की जाती है। हमारी कलाएँ कितनी समाज सापेक्ष हैं, कितना उनका जन सरोकार है इसको लेकर अक्सर विचारों में विविधता से लेकर भेद तक होते हैं। रंगमंच ने किसी आदमी भर की नहीं बल्कि सम्पूर्ण मनुष्यता के स्वर को बहुत साहस के साथ, बहुत निर्भीक होकर अभिव्यक्ति के धरातल पर अपने होने के अर्थ को प्रस्तुत किया है। क्या कारण है कि हमारा दर्शक या रंगप्रेमी जिन्दगी में पच्चीसों नाटक देखने के बाद किसी एक नाटक से ऐसे बिंध जाता है कि उसके साथ ही वह घर भी लौटता है और उद्वेग में लम्बे समय उसके प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाता। मंच पर प्रतिबद्ध और सच्चा कलाकार, अपने पात्र को सार्थक करने के लिए जिस तरह रीडिंग से लेकर पूर्वाभ्यास तक और उसके बाद कास्ट्यूम धारण करने से लेकर मेकअप तक आते हुए जब अपनी टाइमिंग पर जाता है उस समय उसके तनाव की कल्पना की जा सकती है। हमारे श्रेष्ठ नाटकों में गहरे सन्देश अन्तर्निहित होते हैं जो आपको सोचने के लिए विवश करते हैं। दर्शक ताली बजायें या कहकहे या उनकी बड़ी हँसी अथवा ठहाके सभागार में गूँजें, वह तारतम्य मंच से ही होकर उन तक आता है। हृदय को झकझोर देने वाले दृश्य में एक कलाकार जब अपने पात्र के साथ पूरे वातावरण को जी रहा होता है तब कैसे गहरी चुप्पी और सन्नाटा खिंचा चला आता है! यह आसान नहीं है। रंगमंच में हर उस एक-एक छोटे से छोटे आदमी का योगदान है जो मंच पर तलुओं से कंकर का आभास होने पर उसे उठाकर दूर फेंककर आता है ताकि किसी दूसरे कलाकार को वह न गड़े। इतने गहरे जाकर हमें इस परम्परा को देखने की जरूरत है।

रंगमंच ने छोटे स्तर की दकियानूसी, ओछी किस्म की क्षुद्रता से लेकर षडयंत्र, कुटैव, विरोधाभासों से लेकर युद्ध तक को लक्षित किया है और सामाजिक सहभागिता में अपनी उत्तरदायी भूमिका का निर्वहन किया है। भारतीय मानस समय के साथ पतित होते समय, समाज, राजनीति, अपराध, दुनिया के देशों में आपसी वैमनस्य, एक-दूसरे को हराने, एक-दूसरे से जीतने की खूँखार महात्वाकांक्षा और उसके दुष्परिणामों को भी रंगमंच पर जिस तरह से समय-समय पर देखा गया है, वह उसकी प्रशंसनीय और साहसिक भूमिका को रेखांकित करता है। स्मरण हो आते हैं रतन थियम के नाटक जो महाभारत काल से लेकर आज तक मानवीयता पर मण्डराते युद्ध के खतरे और युद्ध से होने वाले विनाश की बात करते हुए केन्द्रित करते हैं स्त्रियों और बच्चों को जो कि इसका सबसे बुरा खामियाजा भुगतने को विवश होते हैं और उनकी परवाह कोई नहीं करता। हम कल्पना कर सकते हैं शहीद फौजियों के घर-परिवारों की स्त्री, बच्चों, बुजुर्गों की जो किसी न किसी रिश्ते में बंधे हुए हैं और ऐसी शहादत के बाद उनके घर जाकर देखने वाला कोई नहीं है। रंगमंच आपको झकझोरता है, घोर निर्मम और अमानवीय होते समय में आपकी सुप्त चेतना पर थप्पड़ देने का साहस रखता है। हर काल में, हर समय में रंगमंच को इतना ही जिम्मेदार और साहसी होने की जरूरत भी है।

नयी पीढ़ी के लिए संसार खुला हुआ है। अलग-अलग संस्थाओं, कलाकारों और संस्थानों में अब रंगमंच का प्रशिक्षण राज्यों के लिए भी आकर्षण हो गया है। भले ही पूर्वाभ्यास की समस्या का रंगकर्मियों और रंग संस्थाओं के लिए कोई स्वाभाविक समाधान न निकल सका हो लेकिन प्रदर्शन के कोई न कोई अवसर मिला करते ही हैं। इसी बीच आपस में एक साथ काम करते, परस्पर या समानान्तर रूप से संस्था के साथ अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते समूहों में आपसी दूरियाँ भी खूब हैं। एक-दूसरे का काम देखने, सच्चे मन से अपना पक्ष रखने, सराहना या आलोचना करने की स्थितियाँ अच्छी नहीं हैं। इसी प्रकार स्वाभाविक आकलन का क्षेत्र एक अलग तरह की उदारता देने में लगा है। बेहतर समीक्षा या आलोचना लगभग अनुपस्थित है। हर काम श्रेष्ठ है। समीक्षक हैं नहीं और हैं तो किसी भी नाटक का धैर्यपूर्वक आकलन करने और विश्लेषण करने के लिए समय नहीं मिलता। समीक्षक और विश्लेषक के नाम पर उच्च कोटि में भी एक अजीब सा अनुराग, विराग, प्रतिराग और खुंदक चल रही है कि लगभग आशीर्वचन की तरह चाहने वाले के प्रति न तो वह समीक्षा कोई काम आने वाली है और खुंदक में लपेट दी गयी, निपटा दी गयी या खारिज कर दी गयी भाषावली का कोई नुकसान या दूरगामी प्रभाव है। ऐसा लगता है कि बहुत से राडार निष्पक्ष नहीं रह गये हैं और शायद ऐसा भी कि वे अब अपने ही तरीके का एक सा कहते-कहते थक भी गये हैं।

ऐसे में फिर बात वही रंगमंच पर उसकी स्थितीयता पर आकर ठहर जाती है कि दो दशक में हमारा रंगमंच आधुनिक तकनीक, प्रचार-प्रसार, वेबसाइट, सोवेनियर, ब्रोशर, स्मारिका, फेसबुक, इन्स्टाग्राम, ट्विटर और वाट्सएप के साथ हर मस्तक पर दस्तक तो हो गया है पर इस सबके बीच सशक्त रंगमंच, सशक्त कलाकार, दाँतों तले उंगली दबा लेने वाली या चकित करके रख देने वाली रंग-अभिव्यक्ति और वैसे जीनियस जिनका आरम्भ में जिक्र हुआ, अब के दौर में फिर उभरकर सामने आयेंगे, इसका भरोसा जरा मुश्किल ही लगता है।
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3 टिप्‍पणियां:

  1. व्योमेश जी के माध्यम से यहां आया. सार्थक चिंतन.

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  2. आपका हार्दिक आभार व्‍यक्‍त करता हूँ राहुल जी। क्षमा चाहता हूँ अपना उत्‍तर देर से पोस्‍ट कर सका।

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  3. Thank you for an informative article on a subject deserving honest review and revisit. Theatre needs to be rediscovered in a more dignified and deeper light as the medium for creating awareness about socio-cultural issues, in an entertaining manner. In a country where the Natyashastra was defined as the Pancham Veda, the stage has been used as a tool for presenting, understanding and educating about human psychology. This article charts the progress and digress of the rangmanch very well.

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