बुधवार, 18 मार्च 2020

ताल से ताल मिला........


पुनरावलोकन / ताल (1999)

 

सुभाष घई को राजकपूर के बाद फिल्‍म इण्‍डस्‍ट्री का दूसरा शोमैन माना जाता है। वे सिनेमा में हीरो बनने की चाहत लिए पुणे फिल्‍म इन्‍स्‍टीट्यूट गये थे। प्रशिक्षण प्राप्‍त करने के बाद दो-एक फिल्‍में मिलीं, एकाध में खलनायक भी बने लेकिन फिर लगा कि अपने को साबित करने के लिए कैमरे के पीछे जाना होगा। शत्रुघ्‍न सिन्‍हा दोस्‍त थे, साथी। उनको लेकर कालीचरण और विश्‍वनाथ फिल्‍में बनायीं और फिर एक निर्देशक के रूप में स्‍थापित हो गये। बाद में कर्ज, क्रोधी, विधाता, हीरो आदि अनेक फिल्‍में बनाते हुए उनकी पहचान इन मायनों में भी हुई कि दृश्‍यों को बांधने में इस फिल्‍मकार को जितनी महारथ हासिल है, ड्रामा रचने में भी उतनी ही दक्षता और संगीत की बहुत खास किस्‍म की समझ। वे किंगमेकर भी प्रसिद्ध हुए और जैकी श्रॉफ सहित माधुरी, मनीषा, महिमा आदि को अपनी फिल्‍मों में अच्‍छे अवसर देने के लिए भी।

ताल उनकी क्‍लैसिक फ़िल्म है। इसको एक बहुत साधारण सी कहानी के साथ उन्‍होंने गढ़ा है लेकिन संगीत को लेकर अपनी दृष्टि के साथ ए आर रहमान से मिलकर जो उन्‍होंने गीतों, संगीत, पार्श्‍व संगीत के साथ जो वातावरण खड़ा किया है वह अनूठा है। जिस समय यह फिल्‍म रिलीज हुई थी उस समय तत्‍काल ही हिट हो गयी हो ऐसा नहीं है। सुभाष घई ने चार-पॉंच हफ्ते दर्श्‍कों को विश्‍वास में लेकर इस फिल्‍म के अच्‍छे अच्‍छे विज्ञापन प्रसारित करके इसे लगभग दर्शकों के सामने इस तरह ला दिया कि आपके जमाने का म्‍युजिक सेंस दरअसल ये है, रहमान ने इस फिल्‍म के गानों के संगीत को बैकग्राउण्‍ड म्‍युजिक में इस तरह सदुपयोग किया कि पूरी फिल्‍म आपको जाग्रत करती हुई प्रतीत होती है और जैसा कि शुरू में लिखा, एक साधारण सी कहानी भी प्रेम, आत्‍म सम्‍मान, स्‍वाभिमान, समझौता, त्‍याग आदि के धरातलों पर मन को छूती हुई चली जाती है।

इस फिल्‍म को आये बीस वर्ष करीब हो गया है लेकिन जिस तरह एक अच्‍छी किताब आप अपने संग्रह से किसी वक्‍त विशेष पर निकाल कर फिर पढ़ने को होते हैं तो जिज्ञासा बनती और बढ़ती है। छोटी सी कथा है। हिमाचल के एक गॉंव में एक संगीत शिक्षक अपनी आर्थिक सीमाओं के साथ परिवार का पालन पोषण कर रहे हैं। संगीत की पवित्रता और उसके प्रति उनकी श्रद्धा है। शहर से रईस और व्‍यावसायी खानदान की टोली अपना कुछ बाजार खड़ा करने गॉंव आ गयी है। शहरी चतुर चालाक हैं और गॉंव वाले भोलेभाले। दरअसल फिल्‍मी कहानी में यह लाइन खूब चलती है। शिक्षक तारा बाबू की एक बेटी मानसी और रईस शहरी जगमोहन का बेटा मानव कुछ छोटे-मोटे घटनाक्रमों के साथ एक-दूसरे के प्रेम में हैं। शहरी रईस शिलान्‍यास करके चले जाते हैं बाद में तारा बाबू अपनी बेटी के साथ शहर में जाकर जब इनसे मिलते हैं तो उनका बरताव अपमानजनक होता है और सहन न कर पाने पर तारा बाबू भी अपना आपा खो बैठते हैं लिहाजा मानसी और मानस के बीच गरीब और अमीर, मान और अपमान की बड़ी खाई खड़ी हो जाती है। 

बाद की फिल्‍म ड्रामेटिक है। मानसी, विक्रान्‍त जो कि शहर में आंचलिक संगीत के रीमिक्‍स रचकर बड़ा आयकॉन बन गया है उसके साथ मानसी प्रसिद्धि के रास्‍ते चल पड़ती है। मानव उसको भुला नहीं पाता। रईसों के घर अग्निकाण्‍ड जिसमें कूदकर मानव वह मफलर निकालकर ले आता है जिसमें मानसी ने नाम लिख रखा है। रईस जगमोहन करुणा से भर गया है अपने बेटे के इस दुस्‍साहस से। अब प्रेम चढ़ाव से उतार की ओर बहता है। अन्‍त में विक्रान्‍त प्रेम का प्‍याला पीकर के भी प्‍यासा रह जाता है और मानव तथा मानसी प्रेम के उस मर्म को पा लेते हैं जिसकी ताल दोनों की पहली मुलाकात पर ही मोहब्‍बत रच देती है। अक्षय खन्‍ना, ऐश्‍वर्य, आलोकनाथ और अमरीश पुरी के साथ मीता वशिष्‍ठ और अनिल कपूर फिल्‍म के प्रमुख पात्र हैं। ऐश्वर्या राय खूबसूरत गुड़िया की तरह हैं। द्वन्द्व के दृश्यों में क्लोज शॉट में प्रभावित करतीं हैं। फिल्‍म में इसलिए नहीं कि त्‍यागी हैं, अनिल कपूर बहुत तरीके से मध्‍यान्‍तर से पूरी फिल्‍म अपने साथ लेकर चलते हैं। उनके सामने अक्षय खन्‍ना साधारण मजनू के ज्‍यादा कुछ नहीं लगते। आलोकनाथ का किरदार बहुत ही विचित्र किस्‍म की भावुकता का शिकार दिखाया गया है जिसे समझना कठिन है। अमरीश पुरी जरूर दृश्‍य में होते हैं तो उस दृश्‍य के बादशाह ही लगते हैं। जलकर अस्‍पताल में इलाज करा रहे बेटे से उनका डायलॉग भावुक है जब मानव मफलर छुपाता है और वे देख लेते हैं। उस समय वह बोलते हैं, बेटा मैं तुम्‍हारा बाप हूँ।  


एक चरित्र अभिनेता के रूप किसी भी फिल्‍म में अमरीश पुरी की उपस्थिति हमेशा एक वज्र के रूप में लगती रही है। उनके बाद इस प्रकार का सशक्‍त कलाकार अब तक नहीं आया। सुभाष घई अपनी फिल्‍म में भावनात्‍मक स्‍पर्श के कुछ एंगल बहुत सूझपरक ढंग से रखते हैं। एक ये ताल और दूसरी फिल्‍म युवराज के सन्‍दर्भ में देखो तो अमीर-रईस चरित्र आत्मिक दृष्टि से बहुत निर्मम होते हैं उनके। वे परिवार के कुटिल और दुष्‍ट रिश्‍तेदारों के किरदार भी खूब खड़े करते हैं जो किसी भी सुखद अवधारणा में चतुर-चालाक षडयंत्रकारी के रूप में परदे पर आते हैं। ताल में नायक के परिवार में इस तरह के लोग हैं जो मानव और मानसी के प्रेम और आकांक्षा के बीच खुरदुरे पत्‍थर की तरह चेहरे पर चाशनी चढ़ाये नजर आते हैं। 

ताल के गीत आनंद बख्‍शी ने अस्‍सी साल की उम्र में लिखे थे। इस उम्र में भी वे गुड़े से मीठा और इमली से खट्ठा इश्‍क लिखकर अपने लिखे गानों को आज भी याद में बनाये हुए हैं। ए आर रहमान का संगीत तो खैर इस फिल्‍म की नब्‍ज में बहता है। तबला, बॉंसुरी, वायोलिन, गिटार आदि वाद्यों की स्‍वतंत्र माधुरी अनुभवों में जान डाल देती है। सुखविंदर, उदित नारायण, आशा भोसले, अलका याज्ञनिक, कविता कृष्णमूर्ति की आवाजों की सराहना किए बिना ताल पर लिखना पूरा नहीं हो सकता। खूबसूरत दृश्‍यों में फिल्‍म बहुत रोमांटिक लगती है लेकिन जब कहानी शहर आ जाती है तो उसका अंजाम लगभग पता ही होता है। फिर भी ताल से दर्शकों को कन्‍वीन्‍स कराने में प्रदर्शन के समय सुभाष घई ने जो प्रचार-प्रसार का तरीका अपनाया था वह कामयाब था। तीसरे-चौथे हफ्ते में फिल्‍म तक दर्शक पहुँचना शुरू हो गये थे और आखिरकार दर्शकों की राय में ताल एक अच्‍छी फिल्‍म कहलायी भी।
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गुरुवार, 12 मार्च 2020

फिर भी शैलेन्‍द्र जैसे लोग विस्‍मृत नहीं हो पाते.....


गीतकार शैलेन्‍द्र की याद किस रूप में करूँ यह सोच नहीं पाता हूँ ठीक से। मेरे जैसे भावुक व्‍यक्ति के लिए एक भावुक और संवेदनशील का स्‍मरण बहुत कुछ वेदना से भर देता है क्‍योंकि अक्‍सर मेरे मन में यह ख्‍याल आता है कि बहुत से गुणी लोगों, कोमल हृदय और संवेदनशीलों पर समय का ऐसा अचूक प्रहार होता है जहॉं पर थोड़ा सा भी कमजोर पड़ जाने या हार जाने-हताश हो जाने वालों के लिए इस दुनिया में ही रहना कठिन हो जाता है। मैं यहॉं ऐसे लोगों के नाम गिनाने नहीं जा रहा हूँ नहीं तो अवसाद अनुभूति की एक टाटपट्टी ही ऐसी बिछ जायेगी जिसमें अनेक विलक्षण लोग बैठे हमें दिख जायेंगे और हमारी ऑंखों के सामने चलचित्र की तरह उनकी छबियॉं आयेंगी और चली जायेंगी। समय, समाज और लोग हश्र सभी का एक सा ही करते हैं भूल जाने के मामले में फिर चाहे वह कोई भी हो। हम हृदयहीन इतना हो गये हैं कि बाद में याद करके भी याद नहीं आता कि कौन हमारी चेतना या प्रेरणा का हमारी दुनिया से इस तरह चला गया जिस तरह जाने के लिए वह कभी बना ही नहीं था।

शैलेन्‍द्र इसी तरह के इन्‍सान थे जो समय के आगे हार गये अन्‍यथा उनकी क्षमताओं का कुछ भी नहीं बिगड़ा था और न ही गीतात्‍मक संवेदन सृजन प्रक्रिया का। सिनेमा की विफलता क्‍या गुरुदत्‍त और शैलेन्‍द्र जैसों के लिए जानलेवा हो सकती हैं यह प्रश्‍न इसी बात से कौंध उठता है। कहॉं एक समय वह था जब वे सिनेमा के प्रति नितान्‍त उपेक्षा का भाव रखते थे। यह एक अजीब सी विरक्ति कही जायेगी जिसमें अचरज इस बात का भी भरा हुआ है कि आगे चलकर वे उसी सिनेमा का एक मनभावन लिरिकल हिस्‍सा भी बनते हैं। विभाजन बाद के पाकिस्‍तान (रावलपिण्‍डी) में जन्‍मे शैलेन्‍द्र का परिवार जब मथुरा आकर बस गया था उस समय कौटुम्बिक सरोकारों के कारण वे वहीं रह गये थे और अपनी पढ़ाई-लिखाई को भी वहीं अंजाम दिया था। साहित्‍य के बीच उनकी देह, मन और मस्तिष्‍क में अपनी फसल को एक तरह से सहेज रहे थे। यह शख्‍स वास्‍तव में कविताऍं, गीत और रचनाऍं लिखते हुए औरों की तरह काम नहीं कर रहा था बल्कि एक जमीन तैयार कर रहा था अपनी। बिमल रॉय की अविस्‍मरणीय फिल्‍म दो बीघा जमीन में एक गाना है, धरती कहे पुकार के, बीच उगा ले प्‍यार के, मौसम बीता जाये, अपनी कहानी छोड़ जा, कुछ तो निशानी छोड़ जा, कौन कहे इस ओर, तू फिर आये न आये, मौसम बीता जाये......। इस तरह का गीत लिखते हुए एक रचनाकार भी अपने अल्‍कालिक जीवन के आभासों या आगे चलकर आने वाली दुश्‍वारियों के बीच अपने भी आकस्मिक प्रस्‍थान की किसी भावभूमि से अवगत होगा, इसके बारे में हम क्‍या सोचते हैं.......मुझे लगता है कि जीवन की क्षणभंगुरता को लेकर शैलेन्‍द्र के दार्शनिक मन्‍तव्‍य बहुत स्‍पष्‍ट या साफ होंगे जिसे जीना और गाना दोनों ही आसान नहीं है।

एक गीतकार है जो मथुरा में गंगा सिंह के छोटे से मकान में सामूहिक परिवार का हिस्‍सा बना रहा जो धौली प्‍याऊ की गली में बना रहा होगा। वहॉं से एक दिन रेल्‍वे की नौकरी का स्‍थानान्‍तरण इस गीतकार को मुम्‍बई की तरफ ले जाता है, वह मुम्‍बई जो खूब सारे सपने सजाकर ले जाने वाले का नेपथ्‍य ही विस्‍मृत कर देती है। मुम्‍बई जहॉं सफलता और विफलता के लाख सच्‍चे किस्‍से हैं। लोगों ने इस जगह पर फॉंकामस्‍ती को भी अपनी क्षमताओं की हद तक जाकर महसूस किया है और पलायन भी किया है। लोगों ने इस जगह के वैभव और भाग्‍य तथा पुरुषार्थ के साथ अपने में घटित होते समय को भी जिया है और उसमें मरे भी हैं। लेकिन मुम्‍बई तो मुम्‍बई है, उसी यही खूबी भी है। भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े शोमैन राजकपूर और शैलेन्‍द्र का रिश्‍ता जौहरी और हीरे का रिश्‍ता ही कहा जायेगा। यह‍ रिश्‍ता साफगोई और साफबयानी के बीच ही तो बनकर चला आया जब सीधे और सधे हुए इस गीतकार को फिल्‍मी दुनिया के प्रति ही जरा सा भी आकर्षण न था। राजकपूर ने शैलेन्‍द्र को रचनापाठ करते हुए सुना था। हमारे लिए तो यह भी आश्‍चर्य का विषय ही होगा कि उस समय के प्रतिभाशाली युवा फिल्‍मकार और नायक का साहित्‍य और लिरिकली ग्रेट के प्रति ऐसी कोई खोजबीन या हासिल की स्थितियॉं रहती होंगी। बहरहाल खरा सोना किसको, कब और कहॉं मिल जाये, कौन कब उसकी परख कर ले और कैसे उसके उत्‍कृष्‍ट को अपनी मान्‍यता के साथ जगत भी मान्‍यता बना दे, ऐसे उदाहरण राजकपूर ही थे जो अपने पिता को थिएटर के लिए देश-देश घूमते न केवल देखते थे बल्कि उनके साथ जाया करते थे। पृथ्‍वीराज कपूर के समकालीन इप्‍टा से जुड़े अनेक लेखक, कलाकार, रंगकर्मी पारस्‍परिक सान्निध्‍य में रहा करते थे और सब तरह के संघर्ष में रचनात्‍मक एकजुटता के साथ प्रसतुत होते थे। राजकपूर के मन में अपने पिता के साथ-साथ ऐसे लोगों के लिए भी बहुत इज्‍जत रहा करती थी। यह जो रचनात्‍मक उदारता उनमें आयी, उसी से उनको शैलेन्‍द्र, मुकेश, शंकर और जयकिशन जैसे लोग मिले जिन्‍होंने खुद राजकपूर की क्षमताओं को प्रकाशित करने में अपना बड़ा योगदान किया। शैलेन्‍द्र भी इप्‍टा के मंच की प्रतिभा थे।

राजकपूर जिस समय आग बना रहे थे उसी समय वे शैलेन्‍द्र से मिल चुके थे और वे चाहते भी थे कि शैलेन्‍द्र उनकी फिल्‍मों के लिए लिखें लेकिन वे किसी तरह अपने आपको फिल्‍मों से बचाये हुए थे। फिल्‍म आग के समय दोनों का परिचय हुआ था लेकिन एक दिन जरूरत ही शैलेन्‍द्र को राजकपूर के पास ले आयी। यह और बाद का समय था और तब राज बरसात फिल्‍म बना रहे थे। एक तरफ राज, अब फिल्‍मों में सफलता के दरवाजे की तरफ जा रहे थे। यह सन्‍दर्भ कुछेक जगह लिखा है कि राजकपूर के घर जाने के‍ लिए शैलेन्‍द्र निकले थे। उनके पास उनको देने के लिए कुछ गीत भी साथ थे, इस बीच रास्‍ते में पानी बरसने लगा। मुसलाधार बरसात में उनको मुखड़ा याद आया, बरसात में हम से मिले तुम सजन तुम से मिले हम, बरसात में। राजकपूर से मिलते हुए उन्‍होंने उनको यह मुखड़ा सुनाया और दोनों साथ हो गये। जो और गीत वे उनके लिए ले गये थे वे भी उन्‍होंने अपने पास रख लिए और उनको बरसात, श्रीचार सौ बीस और आवारा में इस्‍तेमाल किया। यह राजकपूर की खूबी थी कि वे अपने साथ बहुत सकारात्‍मक ढंग से अपनी चाह की रचनाओं के लिए गीतकार में भी एक ही समय में हसरत जयपुरी और शैलेन्‍द्र में चयन कर सकते थे जिसका दोनों ही गीतकारों को कोई गुरेज नहीं रहा करता था, इसी प्रकार पार्श्‍व गायन में भी वे जानते थे कि कौन से गाने मुकेश से न गवा कर मन्‍नाडे या मोहम्‍मद रफी से गवाने हैं। एक साथ इतने श्रेष्‍ठ लोगों का सान्निध्‍य भी राजकपूर ने प्राप्‍त किया लेकिन सभी के आपसी सम्‍बन्‍धों की बनक वैसी ही रही, कोई स्‍पर्धा नहीं, किसी भी प्रकार का द्वेष नहीं।

गीतकार शैलेन्‍द्र का नाम निन्‍यानवे प्रतिशत राजकपूर, शंकर जयकिशन की टीम में बड़े फ्लो के साथ लिया जाता रहा है। इसका अर्थ यह नहीं कि इस टीम से बाहर शैलेन्‍द्र का सृजन ऑंका नहीं गया। उनके भीतर का सच्‍चा इन्‍सान और गीतकार इतना सरल, सहज और सम्‍प्रेषणीय था कि उनकी रचनाओं को फिल्‍म में देखते सुनते मन स्‍वत: ही उसको ग्राह्य किये जाता था। वे बिमल रॉय के भी पसन्‍दीदा गीतकार थे और सचिन देव बर्मन के भी, वे हृषिकेश मुखर्जी के भी पसन्‍दीदा गीतकार थे और विजय आनंद के भी। गुरुदत्‍त के लिए भी उन्‍होंने लिखा और किशोर कुमार के लिए भी। बिमल रॉय की फिल्‍म नौकरी का एक गीत है जो किशोर कुमार पर फिल्‍माया गया है, छोटा सा घर होगा बादलों के छॉंव में, आशा दीवानी मन में बंसरी बजाये। इसी गीत का पहला अन्‍तरा, चांदी की कुर्सी में बैठे मेरी प्‍यारी बहना, सोने के सिंहासन में बैठे मेरी प्‍यारी मॉं, मेरा क्‍या मैं पड़ा रहूँगा मम्‍मी जी के पॉंव में। अपनी मॉं और बहन के लिए देखे स्‍वप्‍न के साथ एक युवा अपने लिए क्‍या जगह सुरक्षित पाता है, मेरा क्‍या मैं पड़ा रहूँगा मम्‍मी जी के पॉंव में। यही किशोर कुमार जब दूर गगन की छॉंव में बनाते हैं तो उनको शैलेन्‍द्र की याद आती है। वे शैलेन्‍द्र को फोन करके बड़े आदर के साथ अपने घर में खाना खाने के लिए आमंत्रित करते हैं, शैलेन्‍द्र पूछते हैं कि और क्‍या बात है, तो किशाेर बतलाते हैं कि एक फिल्‍म बना रहा हूँ दूर गगन की छॉंव में। मन है कि उसके गीत आप लिखें। तब शैलेन्‍द्र, किशोर से कहते हैं कि यह बात समुद्र किनारे टहलते हुए करना ज्‍यादा सार्थक होगा। दोनों मिलते हैं। किशोर बताते हैं कि एक फौजी की कहानी है जो अपने गॉंव लौटता है तो अपना घर तहस नहस पाता है, पत्‍नी मर चुकी है, बेटा गूँगा हो गया है। शैलेन्‍द्र सुनते ही गुनगुना उठते हैं, कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन, बीते हुए दिन वो मेरे प्‍यारे पलछिन। और किशोर कुमार उनको गले लगा लेते हैं। इस तरह शैलेन्‍द्र, किशोर कुमार के भी प्रिय हुए।

शैलेन्‍द्र की पहचान, उनका स्‍मरण और उनके अवदान को सचमुच कबीर, रहीम और रैदास के स्‍मरण के साथ याद किया जाना चाहिए। बिमल रॉय के साथ उनकी फिल्‍मों की बड़ी श्रृंखला है। दो बीघा जमीन से हमने बात शुरू की थी। आगे मधुमति, परख, नौकरी से बन्दिनी तक तक गीतों का समुद्र अनुभूतियों का अथाह है सचमुच। प्रेम को लेकर, विरह को लेकर, स्थितियों को लेकर, विरह को लेकर, सम्‍बन्‍धों और रिश्‍ते-नातों को लेकर वे जिस तरह से विचार करते हैं, वह हमारे मन के कोने-कोने को जाकर छूता है और अपनी इच्छित जगह पर जाकर बैठ जाता है। बन्दिनी के गीत बरबस याद आ जाते हैं, मेरे साजन हैं उस पार………..बर्मन दा ने जिस तरह इसको कण्‍ठ और आत्‍मा से गाया है, गहरे विचलन से भर देने वाली रचना, मन की किताब से तुम मेरा नाम ही मिटा देना, गुन तो न था कोई भी अवगुन मेरे भुला देना। कितने सादे सच्‍चे स्‍वीकार हैं। इसी फिल्‍म में बन्दिनियों के बीच का गाना, अब के बरस भेज भैया को बाबुल। बैरन जवानी ने छीने खिलौने, और मेरी गुडि़या चुरायी, बीते रे जुग, कोई चिठिया न पाती, न कोई नैहर से आये रे……..किसी ऑंख भर न आयेगी, इसे सुनकर। शैलेन्‍द्र ऐसे गीतकार थे जिनको आम आदमी के जीवन और सपनों के साथ सीधा जोड़ा जा सकता है। उनके गीत कम से कम तीन पीढ़ियों की चेतना और धरोहर हैं। सचिन देव बर्मन और साहिर की युति जब टूटी थी तो सबसे बड़ा सहारा बने थे बर्मन का शैलेन्‍द्र और जब शैलेन्‍द्र नहीं रहे तो बर्मन एकदम टूट गये थे। जीवन दर्शन को लेकर जो गहरा बोध शैलेन्‍द्र के पास था, उसको और गहराई देकर अपनी आवाज से समृद्ध करना बर्मन दा को बहुत अच्‍छा लगता था। बन्दिनी में उनका गाया गीत मेरे साजन हैं उस पार के बाद विजय आनंद निर्देशित गाइड में वहॉं कौन है तेरा मुसाफिर जायेगा कहॉं…………...में उसी जीवन-मरण, उसी क्षणभंगुरता की बात कही गयी है, कहते हैं ज्ञानी, दुनिया है फानी, पानी पे लिखी लिखायी, है सबकी देखी, है सबकी जानी, हाथ‍ किसी के न आयी, कुछ तेरा न मेरा, मुसाफिर जायेगा कहॉं……….।

शैलेन्‍द्र प्रकृति के प्रति असीम अनुराग के गीतकार थे, सुहाना सफर और ये मौसम हँसी। इसी तरह अभावों में सपने तजे नहीं जाते, इस बात को बूट पॉलिश के इस गीत में, चली कौन से देस, गुजरिया तू सज धज के। इस गीत को गाया तलत महमूद ने है पर दिलचस्‍प कि परदे पर यह गीत फिल्‍माया शैलेन्‍द्र पर गया है। शैलेन्‍द्र जिन्‍होंने मित्रता में कुछ भूमिकाऍं भी निभायीं, बूट पॉलिश के अलावा नया घर, मुसाफिर आदि में।

क्‍या तीसरी कसम त्रासदी के जिक्र के बिना शैलेन्‍द्र पर बात पूरी न होगी, बड़ा कठिन लगता है, हालॉंकि बहुत से लोगों ने अपनी टिप्‍पणी में यह बात कही होगी। हमारे सिनेमा के इतिहास में क्‍या वह बात है जब यह निष्‍ठुर समाज किसी के प्राण पखेरू उड़ जाने के बाद संवेदनशील हो उठता है। पाकीजा को सफल होना था मीना कुमारी के न रहने के बाद। प्‍यासा और कागज के फूल की क्‍लैसिकी और उत्‍कृष्‍टता की चर्चा होनी थी, गुरुदत्‍त के चले जाने के बाद। इसी तरह शैलेन्‍द्र भी जब मन और आत्‍मा लगाकर तीसरी कसम बनाकर सबके सामने लाये तो उसको सफलता न मिली। उनके न रहने के बाद आज तक जानकार तीसरी कसम की चर्चा किए बिना अघाते नहीं हैं। एक फिल्‍मकार रवीन्‍द्र धर्मराज की चक्र भी उनके नहीं रहने के बाद प्रदर्शित और चर्चित हुई। तीसरी कसम में निर्देशक का परिश्रम है, अभिनय की श्रेष्‍ठता है, कहानी अनमोल है, फिल्‍मांकन कमाल का है, एक-एक गीत में जीवन दर्शन व्‍याप्‍त है, गायन और संगीत रचना अविस्‍मरणीय है। इसके बाद भी उस समय 1966 में यह ग्राहृय न हुई और शैलेन्‍द्र के अवसाद में जाने, बीमार हो जाने, कर्ज में डूब जाने और अन्‍तत: नहीं रहने के बाद से आज तक हर संजीदा और गम्‍भीर जानकार से लेकर दर्शक तक इसकी प्रशंसा किए नहीं थकता। हमें इस पूरी मन:स्थिति पर दरअसल विचार करने की जरूरत है, शैलेन्‍द्र और उन जैसे प्रतिभाशाली, प्रतिभासम्‍पन्‍न सर्जकों का स्‍मरण करते हुए जिनका अवसान बाद में एक सामाजिक प्रायश्चित की तरह भी याद आता है और हमारे पास इस बात को स्‍वीकार करने के अलावा कोई रास्‍ता नहीं होता कि दरअसल हम सब लम्‍बे समय से निरन्‍तर चले आ रहे संवेदनहीन समय का ही हिस्‍सा हैं।