शनिवार, 20 जुलाई 2019

।। आर्टिकल 15 ।।


गहरे अनुभव (सिन्‍हा) की फिल्‍म

 


यह एक ऐसी फिल्म देखने का अनुभव है जिसे नहीं देखकर उस यथार्थ से वंचित रहना होता जिसकी हम खूब बातें किया करते हैं प्रसंगवश लेकिन वे वही बातें होती हैं जिनके बारे में कहा जाता है, बातें हैं बातों का क्या? अनुभव सिन्हा ने गौरव सोलंकी के साथ मिलकर एक घटना की परिधि में जिस तरह की सशक्त फिल्म निर्मित और निर्देशित की है वह आँखें खोल देने वाली है। हमारे यहाँ समग्रता में सशक्त या उत्कृष्ट फिल्में बहुत कम बनती हैं जिनमें निर्देशक सभी आयामों के सन्तुलन में कोई बड़ी दृष्टि या चमत्कार पेश कर सके। चूँकि अनुभव सिन्हा, पन्ने पर भी उस फिल्म के दृश्यों और संवादों को लिख रहे हैं लिहाजा परदे पर भी वह उसी प्रभाव के साथ घटित होती है।

जघन्य बलात्कार का शिकार दो नाबालिग लड़कियाँ हैं जिनकी पार्थिव देह गाँव के बाहर एक पेड़ से लटकी हैं, स्याह रात और भोर के बीच बड़ा फासला है जिसमें गहरी धुंध छायी हुई है और यह आकृतियाँ परदे पर प्रकट होती हैं। इसके पूर्व एक दृश्य यह भी है कि भारतीय पुलिस सेवा में सीधी भरती से नियुक्त एक अधिकारी यहाँ अपनी पोस्टिंग पर आया है जो अपने वरिष्ठ को शाम की पार्टी में दबी जुबाँ हँसकर बतलाता भी है कि सजा के रूप में भेज दिया गया हूँ। फिल्म आगे इस झूठ के साथ बढ़ती है कि दोनों लड़कियों के पिताओं ने ऑनर किंलिंग के रूप में यह सजा उनको दी क्योंकि वे समलिंगी थीं। एक तीसरी लड़की और इनके साथ थी जो गायब है। उसकी तलाश नहीं की जा रही, यह माना जा रहा है कि वह भी जीवित न होगी। पुलिस की विवेचना हो रही है और अपनी तरह से प्रकरण को बन्द किए जाने लायक फाइल तैयार होती जा रही है।

इसी घटनाक्रम के बीच नायक पुलिस अधिकारी की छानबीन जारी है। समानता की भारतीय संविधान में आर्टिकल 15 के अन्तर्गत दी गयी व्यवस्था, एक विवरण भर है और लालगाँव में दमन, शोषण, भेदभाव, पक्षपात अपने चरम पर है। राजनीति और उसके कुटैव तथा अराजकताएँ आमजन को अपने बर्बर और हिंसक आव्हान और आन्दोलन के नीचे किस तरह खड़े रखते हैं और अपने को सिद्ध करके उन आमजनों को उनके हाल पर छोड़ दिया करते हैं इस पर तीखे संवाद भी फिल्म में है। नायक के अधीन पुलिस अधिकारी प्रकरण को बन्द कर देने पर अमादा हैं वह तीसरी लड़की को ढूँढ़ने की जिद पाले हुए नायक को सचेत भी करते हैं कि साहब आपका तो केवल ट्रांसफर होगा, हम मार डाले जायेंगे। इसी क्रम में सीबीआई की जाँच, नायक को विद्वेषवश कटघरे में खड़ा करने के एजेंसियों, रसूखदारों और राजनैतिक दलों के षडयंत्र परदे पर देखते हैं। अन्त यह है कि नायक को दिल्ली में बैठे अपने वरिष्ठ अधिकारी से हौसला मिलता है और वह गायब हुई तीसरी लड़की भी।


यह जिजीविषा, नैतिकता और दृढ़ आत्मविश्वास की विजय के साथ इस फिल्म का खत्म होना एक बड़ा सन्देश भेजता है। अनुभव सिन्हा की पकड़ इसके एक-एक फ्रेम पर है। वह प्रत्येक दृश्य के साथ पार्श्व संगीत के तरह और प्रकार के साथ-साथ उसकी जरूरत का भी ध्यान रखते और नियंत्रित करते हैं। उनका सिनेमेटोग्राफर (इवान मुल्लिगन) दृश्यों को कैप्चर करने का कुशल सम्पादक भी है जो हवाई शॉट के साथ-साथ दिल को हिला देने वाले, सिहरा देने वाले, प्रेम और करुणा उपजा देने वाले दृश्यों तक बखूबी पहुँचता है। इस टिप्पणीकार के उस समय आँसू छलक आते हैं जब वह बुलबुलाते हुए गटर के भीतर से गटर साफ करने वाले को निकलते देखता है जो भीतर वह तमाम पदार्थ बाहर फेंक रहा है जिसने उसे अवरुद्ध कर रखा है। यह अनुभूति किसी सिहरन से कम नहीं है जो भीतर ही भीतर झिंझोड़कर रख देती है। हमारे सामने डरे हुए कर्मचारी, अन्देशों में रहने वाली स्त्रियाँ, मगरमच्छ से भी अधिक मोटी चमड़ी वाले बुरे, निर्मम और बेईमान पदधारित लोग जिस तरह से आते-जाते हैं, एक तो सब चरित्रों को निबाहने वाले कलाकार बहुत सशक्त हैं, मनोज पाहवा (ब्रम्हदत्त), कुमुद मिश्रा (जाटव), जीशान अयूब (निशाद), सयानी गुप्ता (गोरा), नासेर (सीबीआई अधिकारी) को परदे पर देखकर लगता है कि इन सबके लिए चरित्र हो जाना जैसे जीवन-मरण का प्रश्न हो गया होगा। मनोज पाहवा का खासतौर पर आपा खो बैठने पर दाँत मिलाकर ओंठ खोलकर बोलने का ढंग, नासेर (साउथ के एक बड़े स्टार) का आयुष्मान खुराना (अयान रंजन) के सामने जाँच करना और बयान लेने का लम्बा दृश्य सब कुछ हमारी व्यवस्था में व्याप्त उन विसंगतियों को उजागर करते हैं जो सदैव से किसी भी बदलाव के रास्ते पर रोढ़ा बनकर रहा करती हैं। 

इस फिल्म में दो जोड़ रोमांस के एक-एक दृश्य भी क्या हैं जो मन को छू जाते हैं, एक गोरा और निषाद का आखिरी दृश्य जिसमें निषाद अपनी अधूरी कामनाओं के रूप में छोटी-छोटी ख्वाहिश व्यक्त करता है और दूसरा नायक के साथ नायिका अदिति (ईशा तलवार) अन्त में जब उसके हाथ में उसके निलम्बन का कागज है और वह उसके साथ घर लौटता है तब देखता है कि वह वहाँ मौजूद है। अलग-अलग शहरों में दोनों रहते हुए फोन पर विचारों और असहमतियों पर प्रायः झुंझलाने और लड़ने लगने वाले नायक-नायिका एक कठिन वक्त पर एक-दूसरे के पास। 

आयुष्मान खुराना इस फिल्म के नायक हैं जिनकी सारी खूबी संयम के साथ हर दृश्य में, हर संवाद में और हर फ्रेम में उपस्थिति है। निर्देशक ने उनके माध्यम से किंचित उस युवा को भी साहस के साथ प्रस्तुत कर दिया है जो अपनी स्वाभाविकता में यदि लोगों से उसकी जात-बिरादरी पूछता है तो वह उसके गुनाह के रूप में दर्ज किया जाने लगता है (सीबीआई इन्वाक्यरी के दृश्य) लेकिन इस जिज्ञासा की सहजता और दुराग्रहरहितता फिल्म के आखिरी दृश्य में तब पता चलती है जब मिशन की सफलता के बाद सड़क के किनारे एक वृद्ध महिला की छोटी सी दुकान के पास जमीन पर सब बैठकर उसकी बनायी रोटी-सब्जी खाते हैं और यही सवाल नायक उस वृद्ध महिला के साथ करता है।

हमारा बॉलीवुड बहुधा मनोरंजन का सामान हो गया है। वह फिल्म ही प्रायः व्यर्थ हो जाती है जो मनोरंजन नहीं करती। दर्शक भी उस सिनेमा का पक्षधर है जिसमें सिनेमाघर में प्रवेश से पहले दिमाग बाहर रख जाओ और आनंद लो। इसी बहुधा अवधारणा के बीच यह सिनेमा फलीभूत होता है जो आपको सवा दो घण्टे सजग रखता है, एक-एक दृश्य का मूल्य समझने की सीख देता है, उस सच के सामने ला खड़ा करता है जो अखबार या चैनलों में सनसनी या टीआरपी से अधिक कुछ नहीं हो पाता। यह आर्टिकल 15 जैसी फिल्म आपको डिस्टर्ब करे, बेचैन करे, चैन से बैठने न दे और सिनेमाघर से निकलने के बाद आपके दिमाग में इस तरह चले कि आपको अपने किस कदर और बेवजह आश्वस्त होने या बने रहने के भ्रम से आजाद होने का मौका मिले तो उसकी यह बड़ी सफलता है। इन मायनों में निर्देशक, लेखक, निर्माता अनुभव सिन्हा की यह एक सशक्त और महत्वपूर्ण फिल्म है। ध्यान दीजिएगा, यह उतनी सफल भी है कि लागत का तीन गुना से ज्यादा अर्जित भी कर चुकी है।

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