शनिवार, 29 अगस्त 2020

Insta Baton Baton Mein 117 Vasant Kashikar I #instabatonbatonmein में आज हमने बातचीत की देश के वरिष्‍ठ रंगकर्मी निर्देशक व अभिनेता श्री वसंत काशीकर जी से....

।। रात अकेली है ।।

बाहर दुनिया बहुत खराब है, हमसे अकेले न होगा……..


 
बड़े दिनों बाद एक ऐसी फिल्‍म की बात करने का मन हुआ है जिसकी पटकथा बड़ी मजबूत है। जिसमें रहस्‍यात्‍मकता को बरकरार रखा गया है। जिसमें कलाकारों ने अपना अपना काम बहुत अच्‍छे तरीके से किया है। जिसमें यथार्थ को बुनने में अतिरेक का सहारा नहीं लिया गया है। जिसमें महानगरीय वैभव या भव्‍यता से अलग एक एक शहर, उसकी प्रकृति, उसकी पहचान और वहॉं की पूरी स्‍वाभाविकता को फिल्‍म के पक्ष में ले लिया गया है। यह बात अलग है कि एक भी किरदार कानपुर की बोली नहीं बोलता है लेकिन फिल्‍म कानपुर के वातावरण में बैठती खूब जगह पर है।
 
रात अकेली है की बात कर रहा हूँ। हालॉंकि इस फिल्‍म पर सब जगह लिखा जा चुका है। लेकिन मैंने नहीं पढ़ा इसलिए अपनी धारणाओं में मुक्‍त भी हूँ और स्‍वभाव में भी। यह एक रहस्‍यप्रधान अपराध कथा है जिसमें एक उम्रदराज दूल्‍हे का कत्‍ल हुआ है जो भरेपूरे परिवार का मुखिया है। न केवल मुखिया है बल्कि चार नाते-रिश्‍तेदारों का भी सरपरस्‍त है। उस रात को बखूबी पेश किया गया है जहॉं कुछ ही घण्‍टों में शादी-ब्‍याह का कोलाहल खत्‍म हो जाता है। तमाम लोग, गाडि़यॉं, खानपान आदि सब आ, जा और खा चुके हैं। बड़े से घर में बत्तियों की झालर शान्‍त सी किसी अनिष्‍ट, किसी अप्रिय वातावरण को रात के सन्‍नाटे में व्‍यक्‍त कर रही हैं। घर में चूँकि मुखिया और वह भी दूल्‍हा सुहागरात के बिस्‍तर पर मरा पड़ा है और एक पुलिस अधिकारी जो कि इन्‍स्‍पेक्‍टर रैंक का है जॉंच करने आया है, घर के लोग अपनी शक्ति, रसूख और पल भर में मोबाइल को लगभग हथियार की तरह इस्‍तेमाल करने वाली हेकड़ी में कमतर नहीं जान पड़ते।
 
इस कत्‍ल की तह तक पहुँचना इन्‍स्‍पेक्‍टर के लिए पहले एक ड्यूटी होती है फिर जब वह देखता है और लगभग जल्‍दी ही देख लेता है कि पूरा माहौल उस नयी लड़की को इस कत्‍ल के इल्‍जाम में फँसाने और सजाने दिलाने को व्‍यग्र है जो उस उम्रदराज दूल्‍हे की दुल्‍हन बनने जा रही थी, उसके लिए सच तक पहुँचना एक चुनौती और मिशन दोनों बन जाते हैं। इसमें इन्‍स्‍पेक्‍टर का उस लड़की के प्रति आकृष्‍ट होना एक भावनात्‍मक कारण बनता है लेकिन उसकी राह आसान नहीं होती क्‍योंकि जिसका कत्‍ल हुआ है उसका पूरा परिवार अपने-अपने स्‍वार्थों में लिप्‍त है। सभी को जायदाद का लालच है। यह सिद्ध और साबित है कि कि मारा गया व्‍यक्ति अय्याश रहा है और सन्‍देह की सुई उसी से दिशा पकड़ती और भटकती है जो उसके शिकार रहे हैं या जो इससे जुड़े तमाम रहस्‍यों को जानते गये हैं। यहॉं एक निर्दलीय विधायक से पारिवारिक पहचान और उसकी बेटी का इस परिवार की बहू बनकर आने की आगामी योजना के अलग निहितार्थ हैं जिसमें भावी दामाद को किसी व्‍यापार में जमा देना भी विधायक का शगल है सो वह भी इस कत्‍ल के षडयंत्र का हिस्‍सा धीरे धीरे नजर आता है।
 
जिद्दी इन्‍स्‍पेक्‍टर राजनैतिक दबावों में नहीं आता। कई बार वह अपने लिए अवसर मांगकर काम को आगे बढ़ाता है लेकिन बड़े पुलिस अधिकारी भी विधायक के साथ हैं और नजरअंदाज करने की स्थिति में नहीं हैं। फोन पर जब वह अपने इन्‍स्‍पेक्‍टर को यह समझाते हैं कि विधायक निर्दलीय हैं मगर उनकी पैठ दोनों जगह है तब दर्शकीय हँसी शायद रुकती न होगी। तफ्तीश करते हुए इन्‍स्‍पेक्‍टर के लिए जैसे जैसे जॉंच आगे बढ़ती जाती है, सच तक पहुँचना बहुत निजी विषय बनता चला जाता है। रसूखदार लोग उसको इस तरह फँसा भी देना चाहते हैं कि वह सब तरफ से समाप्‍त हो जाये। उस पर होने वाला हमला आदि उदाहरण है लेकिन नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने खूब दम से अपनी भूमिका को अंजाम दिया है। इस फिल्‍म में हम गैंग ऑफ वासेपुर के दो सशक्‍त कलाकारों नवाज और तिग्‍मांशु धूलिया को देखते हैं। तिग्‍मांशु पुलिस अधिकारी बने हैं जो विधायक से बंधे हुए हैं। राधिका आप्‍टे फिल्‍म की नायिका है, अपनी तरह से मासूम लगती हैं मगर शोषण का शिकार और उसी में विद्रोही हो गयी चम्‍बल की लड़की के रूप में उनके काम को भी भुलाया नहीं जा सकता। अच्‍छे कलाकारों की बड़ी संख्‍या है। विभिन्‍न किरदारों में, यहॉं तक कि स्‍वानंद किरकिरे भी अण्‍डरप्‍ले अपना रोल खूब अदा करते हैं।
 

रात अकेली है, जिस समझबूझ के साथ बनी है उसकी पूरी प्रक्रिया को देखते हुए यह बतला देना उचित नहीं लगता कि आखिरकार अपराधी होता कौन है और इस कत्‍ल की वजह क्‍या होती है क्‍योंकि देखते हुए दर्शक जब स्‍वयं अन्‍त तक जायेगा तब ही उसको यह समाधान ऐसा लगेगा जैसे वह स्‍वयं ही इस छानबीन में निर्देशक (हनी त्रेहन), लेखक और पटकथाकार (स्मिता सिंह) के साथ कलाकारों के आसपास या बीच से होते हुए गुजर रहा है। इस फिल्‍म को देखना अपने आपमें दिलचस्‍प अनुभव है। यह संयोग है कि हाल ही में क्‍लास ऑफ 83 देखी थी जो पुलिस विषय से जुड़ी थी, इधर यह फिल्‍म भी एक जुनूनी और खोजी पुलिस अधिकारी के लक्ष्‍य का हिस्‍सा बनकर सामने आती है। इस फिल्‍म के चुस्‍त सम्‍पादन के लिए ए श्रीकर प्रसाद को श्रेय दिया जाना चाहिए जो बहुत तरीके से घटनाओं को जोड़ते हैं। सिनेमेटोग्राफर पंकज कुमार ने हाइवे के दृश्‍य, एनकाउण्‍टर, अपराध की भयावहता और वीभत्‍सता को बहुत सजीव ढंग से फिल्‍माया है। यह फिल्‍म जिस वास्‍तविक प्रभाव के साथ घटित होती है, वह ऐसा लगता है जैसे किसी सच्‍ची घटना का सच्‍चा किस्‍सा हमारे सामने पुनर्रचित हो रहा हो। इसके लिए निर्देशक की प्रतिभा की सराहना की जानी चाहिए। स्मिता सिंह ने भी पूरी कहानी को पटकथा में जिस तरह बांधा है, वह बहुत महत्‍वपर्ण है।
 
रात अकेली है में एक दिलचस्‍प बात का जिक्र न करूँ तो बात अधूरी रह जायेगी। इस फिल्‍म में इन्‍स्‍पेक्‍टर और उसकी मॉं के आत्‍मीय सरोकार बड़े रोचक हैं। तनाव से भरी फिल्‍म में जब जब दोनों के प्रसंग आते हैं, मॉं चाहती है लड़का शादी कर ले और लड़का शादी को लेकर अनेक किन्‍तु-परन्‍तु के साथ मॉं को उत्‍तर देता है। मॉं अपढ़ है लेकिन हवा का रुख जानती है। वह जिस तरह से पति के साथ अपने अनुभवों की बात करती है, जिस तरह से बेटे से उसकी चाल और बदलते हाल पर कुछ कुछ कहती है, वह इस बात को रोचक ढंग से साबित करता है कि मॉं से कुछ छुपा नहीं रहता। आखिरी में जब वह षडयंत्र में फँसने से बच गयी नायिका को स्‍टेशन छोड़ने जाता है तब भी मॉं का कथन बहुत खास है। यह भूमिका इला अरुण ने खूब निभायी है। फिल्‍म के आखिरी दृश्‍य में नवाज का अभिनय बहुत ऊँचाई पर दीखता है जब वह नायिका राधिका आप्‍टे से कहते हैं कि बाहर दुनिया बहुत खराब है, हमसे अकेले न होगा, इसके बाद दोनों एक-दूसरे की बॉंहों में होते हैं, यह वाक्‍य बहुत खूबसूरत है जो लेखिका निर्देशक ने उस जुझारू और बहादुर इन्‍स्‍पेक्‍टर से कहलवाया है जो तमाम जोखिम लेकर असल अपराधी को ढूँढ़ निकालता है, बाहर दुनिया बहुत खराब है, हमसे अकेले न होगा……..
 
फिल्‍म के गाने स्‍वानंद किरकिरे ने लिखे हैं जिनका संगीत स्‍नेहा खानविलकर ने दिया है। इतनी तनावभरी फिल्‍म में दोनों की ही यह मेहनत एक तरह से व्‍यर्थ ही है क्‍योंकि प्रेम और विरह, मिलना और बिछुड़ना और प्रेम जैसी विलक्षण अनुभूति की कोमलता का यहॉं ऐसे कठिन विषय में होना निरर्थक ही है।


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शनिवार, 22 अगस्त 2020

फिल्‍म : क्‍लास ऑफ 83


थोपी हुई पराजय का सशक्‍त प्रतिवाद


 

इधर हाल के सप्‍ताहों में घटित हुए कथानकों पर फिल्‍मों का आना सुखद लग रहा है। परीक्षा और गुंजन सक्‍सेना को देखने के बाद अभी क्‍लास ऑफ 83 देखने का अवसर मिला। बॉबी देओल एक बड़े गैप के बाद आये हैं, क्‍लास के बाद उनकी एक सीरीज आश्रम भी है जिसे प्रकाश झा निर्देशित कर रहे हैं। क्‍लास ऑफ 83 देखने के प्रति शुरू से आकर्षण इसलिए था कि इसका नाम जरा भी आकर्षक नहीं है। कलाकारों से लेकर बहुधा टीम अलग सी है मगर प्रतिभाशाली लोग। निर्माता रेड चिली याने शाहरुख खान। फिल्‍म एक आय पी एस अधिकारी के तजुर्बे से जुड़ी, एक उपन्‍यास पर आधारित है जिसमेंं अस्‍सी के दशक की मुम्‍बई में अपराध जगत, उससे जूझने वाली पुलिस के बीच व्‍यवस्‍था और सार्वजनिक जीवन में दोहरे चरित्र के साथ उपस्थिति चेहरों का सच रेखांकित है।


बॉबी देओल ने एक पुलिस अधिकारी की भूमिका निभायी है जो पनिश्‍मेंट पोस्टिंग पर नासिक पुलिस प्रशिक्षण इन्‍स्‍टीट्यूट के डीन के रूप में अपना समय व्‍यतीत कर रहा है। यहॉं नये पुलिस अधिकारियों को प्रशिक्षित किया जाता है उम्र और उसके अनुरूप परिपक्‍वता लेकर आगे चलकर इतिहास रच देने के भ्रम में हैं। उनके लिए समझना, सीखना और समझाने तथा सिखाने वाले सभी एक ही धरातल पर मापे जाते हैं। वे यह भी कुछ अधिक ही भलीभॉंति जानने लगते हैं कि सामने वाला कुण्ठित और समाप्‍तप्राय: हो चला है। डीन विजय सिंह उनके भ्रम को तोड़ता है। उसके अधूरे स्‍वप्‍न हैं जो मन में कॉंटे की तरह चुभा करते हैं। वह तीन-चार युवा अधिकारियों के माध्‍यम से मुम्‍बई में अधूरे छूट गये काम पूरे करना चाहता है। विजय सिंह का ही एक दोस्‍त राघव देसाई (जॉय सेनगुप्‍ता) मुम्‍बई महाराष्‍ट्र पुलिस में उच्‍च पदस्‍थ अधिकारी भी है जो उससे मिलता रहता है।
 
प्रशिक्षित होकर मुम्‍बई में पदस्‍थ होने वाले पुलिस अधिकारी प्रमोद शुक्‍ला (भूपेन्‍द्र जड़ावत), असलम खान (समीर परांजपे) और विष्‍णु वरदे (हितेश भोजराज) और दो और सुर्वे तथा जाधव आरम्‍भ में कुछ लक्ष्‍य लेकर अपने काम की शुरूआत करते हैं लेकिन जल्‍दी ही प्रमोद और विष्‍णु गैंग के गुटों द्वारा खरीद लिए जाते हैं और दुश्‍मन गुट का एनकाउण्‍टर करके मुफ्त का यश हासिल करते हुए प्रसिद्ध या चर्चित भी हो रहे होते हैं और बदनाम भी। विजय सिंह का स्‍वप्‍न यहॉं धसकने लगता है लेकिन एक घटना सब कुछ बिगड़ने के परिणाम के पहले बदलाव बनकर आती है। इधर विजय सिंह के दोस्‍त पुलिस अधिकारी उसकी पोस्टिंग फिर मुम्‍बई करने में सफल होते हैं। तमाम दबावों के बाद भी मुम्‍बई को आपराधिक बीमारी से बचाना उनका भी ख्‍वाब है। इधर असलम, विजय सिंह का विश्‍वास है क्‍योंकि वह अभी भी खरा है लेकिन एक एनकाउण्‍टर में अपराधियों द्वारा असलम को निशाना बनाये जाने और उसके मारे जाने के बाद हताश होकर अपना जीवन समाप्‍त करने का यत्‍न कर रहे विजय सिंह को प्रमोद शुक्‍ला और विष्‍णु आकर रोकते हैं और प्रायश्चित करते हुए उसका साथ देने का वचन देते हैं। तब लड़ाई बेहद दिलचस्‍प और उस परिणाम तब जाती है जिसके लिए विजय सिंह के अन्‍त:संघर्ष चल रहे थे।
 
पूर्वदीप्ति के साथ उस दृश्‍य का स्‍मरण विजय सिंह को हाे आता है जब वह अपनी पत्‍नी को गम्‍भीर बीमार अवस्‍था में छोड़कर अपने साथियों के साथ कालसेकर को पकड़ने जाता है जिसमें उसके कई पुलिस अधिकारी मारे जाते हैं क्‍योंकि वह सूचना अपराधी तक पहुँच चुकी थी जिसे विजय सिंह ने केवल मंत्री से ही साझा की थी। विजय सिंह जब हारकर लौटता है तो उसकी पत्‍नी की मृत्‍यु हो चुकी होती है। अपनी पत्‍नी का अस्थि विसर्जन वह तब करता है जब वह अपने अधिकारियों के साथ बाद के एनकाउण्‍टर में कालसेकर को मार गिराता है। 
 
 
यह फिल्‍म समग्रता में प्रभावित करती है इसलिए लिखना पड़ता है कि किरदार और उसकी जगह के मुताबिक कलाकारों ने अच्‍छा काम किया है। यह बॉबी देओल को एक परिपक्‍व अधिकारी के रूप में प्रस्‍तुत करती है जो दक्षता, निष्‍ठा और कर्तव्‍यपरायणता के बावजूद मुख्‍य दायित्‍वों से अलग हटाकर पुलिस ट्रेनिंग इन्‍स्‍टीट्यूट में डीन बनाकर भेज दिया जाता है। फिल्‍म यह भी बतलाती है कि अपनी मजबूती और दृढ़ता का कोई भी पूर्वाग्रहग्रसित मानसिकता कुछ भी नुकसान नहीं कर पाती। यह अजीब सा ही है कि सच्‍चे, समर्थ और सार्थक लोगों के रास्‍ते में पत्‍थर और कॉंटे भी अधिकता में होते हैं। विश्‍वजीत प्रधान को एक अच्‍छी, बड़ी और सकारात्‍मक भूमिका मिली है। पुलिस इन्‍स्‍पेक्‍टर बने कलाकार महात्‍वाकांक्षी और दिशा भटक जाने की मन:स्थिति को बखूबी व्‍यक्‍त कर पाते हैं। गीतिका त्‍यागी ने नायक विजय सिंह की गम्‍भीर बीमारी से ग्रसित पत्‍नी की भूमिका में संवेदना भरी है।
 
यह फिल्‍म कला निर्देशन, पार्श्‍व संगीत संयोजन और दृश्‍यों के बखूबी फिल्‍मांकन के लिए भी प्रभावित करती है। एनकाउण्‍टर के दृश्‍य बहुत कुशलता से फिल्‍माये गये हैं। निर्देशक ने अस्‍सी के दशक की मुम्‍बई, इलाके, लोग, वातावरण को उसी परिकल्‍पना के साथ प्रस्‍तुत किया है जो उसकी वास्‍तविकता रही थी। क्‍लास ऑफ 83 भारतीय पुलिस और चालीस साल पहले के समय से उन महत्‍वपूर्ण घटनाक्रमों की ओर हमको ला खड़ा करती है जो एक महानगर और उसके बाहृरूपक की भीतर सतह के जोखिमों की ओर इशारा भी कहा जा सकता है। हमारी पुलिस को जरूर यह फिल्‍म देखनी चाहिए क्‍योंकि दस-बीस सालों में एकाध ऐसी सार्थक फिल्‍म बनती है जो विषय के साथ न्‍याय करती है। 

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Insta Baton Baton Mein 113 - Ravi Tripathi I #instabatonbatonmein में आज हमारी बातचीत हुई प्रतिभाशाली गायक कलाकार श्री रवि त्रिपाठी से......

Insta Baton Baton Mein 112-Himani Shivpuri I #instabatonbatonmein में आज हमारी बातचीत हुई सिनेमा, टेलीविजन और रंगमंच की प्रतिभासम्‍पन्‍न अभिनेत्री सुश्री हिमानी शिवपुरी से....

गुरुवार, 20 अगस्त 2020

सिनेमा कथा

 गतांक से आगे......

जब प्राण को देखकर प्राण कॉंप गये

 
लिखने से पहले अपनी दो एक चिढ़ निकाल लूँ। एक तो फेसबुक में जस्टिफाय टेक्‍स्‍ट का प्रावधान नहीं है। फिर आप शीर्षक को सेंटर में नहीं लिख सकते। सब मिलाकर लेफ्ट अलाइन। खैर लेफ्ट हेण्‍डर को लेफ्ट अलाइन से परहेज नहीं होना चाहिए जब वह गुल्‍ली डंडा, बैट बल्‍ला भी उल्‍टे हाथ से खेलता हो। 
 
बहरहाल, सिंघ की कोख में सियार, उस बच्‍चे को अम्‍मॉं अक्‍सर कहा करती थी। रात सोने के पहले जब वह मॉं से कहता, बाथरूम जाना है (यह सुथरा वाक्‍य है, कहता तो था मुत्‍ती करने जाना है) तो मॉं कह देती कि चले जाओ। तब वह कहता, आंगन में बत्‍ती बन्‍द है, तुम भी साथ चलो। इस पर थोड़ा चिढ़कर अम्‍मॉं बत्‍ती जला देती। तब भी वह ठुनककर कहता कि मम्‍मी तुम भी साथ चलो। तब दिन भर के काम से थकी अम्‍मॉं चिढ़कर उठती फिर खासे व्‍यंग्‍य के साथ कहती, अजीब लड़‍िका, सिंघ की कोख मा सियार पइदा भा। बच्‍चा क्‍या जाने, उसे उस वक्‍त जो करना था, जैसे करना था, करके प्रसन्‍न हो गया फिर प्‍यार से उसी अम्‍मॉं के पेट पर पॉंव रखकर सो गया। ऐसा प्राय: होता।  

अच्‍छा लड़का छोटेपन से सिनेमा में घुसा हो ऐसा नहीं था। अम्‍मॉं को भी शौक था। अबकी गरमियों में जब अम्‍मॉं कानपुर गयीं तो तीसरे दिन तैयार होकर अप्‍सरा में राम और श्‍याम जाने को हुईं। इरादा यह था कि चुपके से चले जायें। लड़के को पता न चले। अम्‍मॉं ने अपनी अम्‍मॉं यानी लड़के की नानी को कह दिया था कि हम चुपके बहाने से निकल जायेंगे। पर लड़का चगड़ था वह जान गया कि उसको नहीं ले जा रही हैं, खुद अकेले जा रही हैं तो पैर पटककर रोने लगा। अच्‍छा, रोते हुए वह मुँह ऐसे बिसूरता था कि दो और मिलाकर देने का जी करता था लेकिन अम्‍मॉं के पास कोई चारा न था। साथ ले जाना पड़ा।  

लड़का बड़ा खुश। हाथ पकड़े साथ जा रहा था। अम्‍मॉं चिढ़ी सी थीं सो खींचे लिए जा रही थीं, लड़का भी खिंचा चला जा रहा था पर था खुश। गड़रिया मोहाल की गलियों से निकलते हुए मछली मार्केट से होते हुए अप्‍सरा पहुँच गये और टि‍कट लेकर अन्‍दर। लड़का मन ही मन खुश। उसका टिकट अलग लिया गया था क्‍योंकि तीन साल से ऊपर का था। अब बगल में बैठे बैठे बार बार उछले काहे से सामने जो बैठे थे वो लड़के की तरह तीन साल से ऊपर भर थोड़ी थे, वो चालीस साल के थे तो दिख नहीं रहा था। लड़के ने फिर पसड़ मचायी, तब अम्‍मॉं न खीजकर, खींचकर गोद में बैठा लिया और तभी राम और श्‍याम शुरू हो गयी।
 
सिनेमाघर में अंधेरा तो था ही, जरा देर में लड़का ऊबने लगा। अम्‍मॉं धीरे धीरे डॉंटने लगीं, इसीलिए कह रहे थे, नानी के पास खेलो मगर मानते ही नहीं। अब चुप्‍पै बइठो। लड़का थोड़ी देर बात रखने के लिए चुप बैठा रहा। इतने में सामने जो घटित हुआ तो लड़का थर थर कॉंपने लगा। एक बड़ा गुस्‍सैल, ऑंखों से अंगारे बरसाता हुआ, हाथ में कोड़ा लिए आदमी, एक अच्‍छे खासे बड़े और डरे से आदमी को सीढ़‍ियों से मारते हुए, गिराते हुए नीचे ले आ रहा है और रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। वह जोर जोर से कुछ बोल भी रहा था। इधर लड़के का सब्र छूट गया। अम्‍मॉं से कहने लगा, अभी घर चलो, अभी बाहर चलो ये आदमी हमें भी मारेगा। सब बन्‍द है, अंधेरा है, मम्‍मी चलो अभी चलो, बाहर चलो। अम्‍मॉं ने बहुत समझाया कि ये अभी चला जायेगा। फिर सब ठीक हो जायेगा। लड़के की दोनों ऑंखों में हाथ रख लिया ताकि देख न सके। लेकिन फिर भी परदे पर जो ये भयानक मंजर देखा, लड़के ने मॉं का फिल्‍म देखना दूभर कर दिया।  

आखिर अम्‍मॉं को उठना पड़ा। दो टिकिट के बदले आधे घण्‍टे की फिल्‍म देखकर झुंझलाती, सिर धुनते अम्‍मॉं बाहर आयी। दो थप्‍पड़ लड़के को भी लगाये। लड़का अपना छोटा मोटा रो धोकर चुप हो गया। फिर खुद ही साड़ी के पल्‍ले से उसका मुँह पोंछकर आगे हीरपैलेस के पास टहलाती हुई ले गयी और वहॉं पानी के बतासे खाकर और इस लड़के को भी एक-दो चिढ़े मन से ठुँसाकर घर लौट आयी। नानी ने अम्‍मॉं से पूछा, बिटिया बड़ी जल्‍दी आ गयीं, सनीमा नहीं देखा क्‍या, इसके जवाब में अम्‍मॉं ने अपनी अम्‍मॉं के सामने लड़के को दो ठूँसे और मारे और कहा, तुमसे कहा था अम्‍मॉं, इसको बहलाकर पास रख लो पर ये ऐसा पीछे पड़ा कि न खुद पिक्‍चर देखी न हमें देखने दी। प्राण मारता गिराता अपने साले दिलीप कुमार को सी‍ढ़ि‍यों से नीचे ला रहा था उतने में इसने बैठना दूभर कर दिया। अब आगे से न हम कहीं जायेंगे न इसे ले जायेंगे।
 
सिंघ की कोख में सियार पइदा भा…………...वे बुदबुदाकर बोलीं और मूड खराब करके सो गयीं। लड़का जो था उसका मूड अच्‍छा था, उसके साथ नानी लाड़ करने लगीं। लड़का अब सब भूल चुका था।

मंगलवार, 11 अगस्त 2020

मन में भीतर की ओर खुलने वाले कपाट की बात.....

।। श्रीकृष्‍ण जन्‍म के अभिप्रायों से ।।


अनुभूतियों का संसार अत्‍यन्‍त विराट है। यह मन के भीतर खुलता है। मन जो देह के भीतर होता है। हमें नहीं पता, मन या आत्‍मा की ठीक ठीक जगह देह में कहॉं होती है। इस पर भार देने पर लगता है कि मन अथवा आत्‍मा का स्‍थान रोम-रोम में है। पता नहीं वह सूक्ष्‍मता में कणों की तरह है या स्‍थूल भाव में किसी अत्‍यन्‍त सुरक्षित स्‍थान पर। पता नहीं, किन्‍तु अनुभूतियों के खिड़की-किवाड़ मनात्‍मा से ही खुलते और बहुत कुछ सहेजकर, समेटकर बन्‍द भी हो जाया करते हैं।

इनके खुलने या बन्‍द होने में कोई उद्विग्‍नता नहीं होती बल्कि वहॉं तक
आने वाला मार्ग सात्विकता से सिंचित होता है।

 



श्रीकृष्‍ण का जन्‍म, जन्‍माष्‍टमी का पर्व हमें बहुत सारे मार्गों को दिखाते किसी-किसी मार्ग से उस अनुभूति के द्वार के बाहर मनोहारी दृश्‍य दिखाता है जो हमारी कामनाओं और कल्‍पनाओं में अवस्थित होता है। हमारी दृष्टि, हमारी चेतना मुग्‍ध भाव से उसे ग्रहण कर रही होती है। हम उस क्षण की अलौकिकी से तादात्मित हो जाना चाहते हैं जो सदियों पहले इस क्षण का एक भावनात्‍मक छोर है। यह छोर हमारे हाथ में है। हमने पकड़ा हुआ है। हमारी कामना है कि यह छोर हमसे न छूटे। इसमें जो कम्‍पन है वह सजीव अनुभूति की ऊष्‍मा से भरा है, उसका ताप हमारी हथेली, हमारी अँगुलियॉं महसूस कर रही हैं।

श्रीकृष्‍ण जन्‍म के बाद से कितनी सारी उपकथाऍं उनकी महिमा के साथ मनुष्‍य चेतना का हिस्‍सा बन जाती हैं। विशेष रूप से उनके किशोरवय तक कितना कुछ पुरुषार्थ उनके माध्‍यम से घटित होता है। हम उनके गहरे अभिप्रायों को समझने का प्रयत्‍न करें तो बहुत सारे छोर हमें छूते हुए निकल जाते हैं या उनका स्‍पर्श हमारे हाथों आभासित होता है। उनका कारागार में जन्‍म होना, उसके गहरे भाष्‍य विद्वानों ने किए हैं। उनका जन्‍म दरअसल उस सारी परतंत्रता को समाप्‍त कर देने के आरम्‍भ के साथ होता है जो उस धरा की नियति बना हुआ था। यह जन्‍म स्‍वतंत्रता के सूक्ष्‍म सुख का ऐसा संवेदनाभरा संकेत होता है जो धीरे-धीरे इस भूमि पर स्‍वतंत्रता के ही अस्तित्‍व को स्‍थापित करता है।

 



इसकी कल्‍पना करके भी सिहरन होती है कि कैसे एक आसुरी वृत्ति नम्र और विनयशील देवकी और वसुदेव को कठोर कारागार में अनेक वर्षों से रखे हुए है। किस तरह यह कारागार शिशुओं के जन्‍म और उनके निर्मम वध का साक्षी बना हुआ है। किस तरह एक देव अवतार इस परतंत्रता की भूमि पर जन्‍मते ही दुष्‍टों को सुप्‍त कर देता है, लोह कपाटों का सूखे पत्‍ते की तरह खुल जाना, बेड़ि‍यों का टूटकर बिखर जाना और फिर पिता की वह यात्रा जो यमुना पार अपने मंतव्‍य को प्राप्‍त कर फिर लौट आती है, यह सब काल सापेक्ष वह उपक्रम थे जो देवलीला के साथ सत्‍यता में घटित हो रहे थे। यह जन्‍म और श्रीकृष्‍ण के पुरुषार्थी जीवन का दूसरा सिरा जो वास्‍तव में मानवीय सभ्‍यता और उसकी कालजयी अस्मिता के लिए कभी न विस्‍मृत होने वाली सीख के रूप में आज तक विवेचनीय है, हमारे संज्ञान में, हमारी आने वाली पीढ़ी और पीढ़‍ियों के संज्ञान का यह सदैव विषय रहेगा।

श्रीकृष्‍ण की बाल लीलाओं का वर्णन व्‍याख्‍याकारों के बीच अनेक प्रकार से विस्‍तार का विषय बनता है। उसमें उनके सारे नटखटपन, मित्रों के साथ खेल और उस खेल में अकस्‍मात घटित होने वाली घटनाऍं, भाई बलदाऊ और मित्र सुदामा के साथ उनके सरोकारों और फिर सबके अविभावकों में प्रिय होना, सब बालकों का नेतृत्‍व और समय आने पर चमत्‍कृत कर देना, अपने होने के संकेत देना बहुत सारी कथाओं में बहुत खूबसूरती से निबद्ध हैं। इस बात पर हमने विचार किया है कभी कि इस अनूठे, इस अलौकिक छुटपन में किए गये बहुत सारे काम, उपायों और संहारों के पीछे क्‍या बोध-तत्‍व है! इस काल में असुर वे हैं जो धरा को, नदी हो, पर्यावरण को, पशु पक्षियों के जीवन को क्षति पहुँचा रहे हैं। श्रीकृष्‍ण के छुटपन की अवस्‍था में जन से लेकर पशु पक्षियों और निरीहों-निर्दोर्षों को जीवन मिलता है। जो यमुना नदी, धरा के जीवन का प्रमुख सारतत्‍व है वह एक विषैले सर्प से सहमी हुई है। मनुष्‍य से लेकर मवेशी, पशु-पक्षी सबको उस नदी का पवित्र जल चाहिए जीवन के लिए। श्रीकृष्‍ण उसको धरा से बाहर का रास्‍ता दिखा देते हैं। वह प्राण रक्षा की याचना करते हुए नदी छोड़कर चला जाता है। वे पहला उदाहरण नहीं थे क्‍या नदी की शुद्धि का दायित्‍व उठाने वाले और उसमें सफल होने वाले।

 

वे उस आंचलिकता और ग्रामीण जनजीवन के बीच सारी दुनिया के लिए परिश्रम करने वाले कृषकों और कृषि के माध्‍यम से अन्‍न की अपरिहार्यता की पूर्ति करने वालों के लिए अनुकूलन स्‍थापित करते हैं। इसमें बलदाऊ का हलधर होना क्‍या है! क्‍यों श्रीकृष्‍ण गायों के साथ हैं! गोवर्धन पूजा, गोवर्धन पर्वत को उठा लेना, अन्‍नकूट और ऐसे त्‍यौहार जिसमें मवेशियों का श्रृंगार और पूजा देवी-देवता की तरह होती है, इन सबके पीछे सूक्ष्‍म बात वही है कि एक जीवित और जागती हुई सृष्टि की कल्‍पना इन सबके बगैर असम्‍भव है। श्रीकृष्‍ण वस्‍तुत: छुटपन की अवस्‍था में उस तरह के असुरों का संहार करते हैं जो तरह-तरह के प्राणघातक रोगों और विषैले कीटों की तरह अपनी हद से बाहर हुए जा रहे हैं। बाल श्रीकृष्‍ण धरा को अपने काल में इस तरह से स्‍वच्‍छ और जन को आश्‍वस्‍त करके भाई और सखा के साथ शिक्षा ग्रहण करने जाते हैं.......

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रविवार, 9 अगस्त 2020

Insta Baton Baton Mein Part 106 Flute Sister's Debopriya Suchismita- #instabatonbatonmein में हमारी बातचीत आज गुणी बॉंसुरी वादक बहनों देबोप्रिया और सुचिस्मिता से हुई जिनको फ्लूइट सिस्‍टर्स के नाम से जाना जाता है....

नयी फिल्‍म / परीक्षा

तुम्हारी, हमारी, इसकी, उसकी........हम सबकी...

परीक्षा एक मर्मस्पर्शी फिल्म है जो दर्शक की कई प्रकार से परीक्षा लेती है। मन को छू जाने वाली कहानी है जिसमें एक रिक्शा चालक जिसे अपने होनहार बेटे की प्रतिभा देखकर हर समय यह लगता है कि सरकारी स्कूल में पढ़ते हुए वह बड़े और समृद्ध भव्यता वाले स्कूल के बच्चों की तरह बढ़ नहीं पायेगा, आगे नहीं निकल पायेगा। एक बड़ी महात्वाकांक्षा उसकी जिन्दगी को किस तरह बिगाड़ती चली जाती है, यह फिल्म में हम देखते हैं। महत्वपूर्ण निर्देशक प्रकाश झा ने अरसे बाद एक बार फिर प्रभावी और सम्प्रेषणीय सिनेमा की नब्ज को पकड़ लिया है जो उनसे पिछली कुछ फिल्मों से छूटती चली जा रही थी। मनोहर सिंह, दीप्ति नवल, प्यारे मोहन सहाय, श्रीला मजूमदार के साथ दामुल बनाकर भारतीय सिनेमा में एक सशक्त हस्ताक्षर करने वाले झा परीक्षा में बहुत प्रतिभाशाली कलाकारों और आम दर्शकों के लिए लगभग अपरिचित चेहरों के साथ एक अच्छी फिल्म बना गये हैं।

रॉंची में फिल्म बनी है पूरी। एक बड़ा सा आधुनिक स्कूल और शेष शहर के प्रमुख मार्ग से होती हुई एक बस्ती के सेट पर फिल्म घटित होती है। एक रिक्शा चालक बुच्ची (आदिल हुसैन) भव्य से स्कूल सफायर के सात-आठ बच्चों को रिक्शा में घर से बैठाकर ले जाता है और शाम को घर छोड़ता है। शेष समय बाकी सवारी। उसका बच्चा बुलबुल सरकारी स्कूल में पढ़ता है। वह चाहता है कि बेटा भी इसी स्कूल में पढ़े। उतनी फीस जुटा पाना सम्भव नहीं है। उसकी पत्नी स्टील बरतन बनाने की फैक्ट्री में मजदूरी करती है। एक रात एक सवारी का पर्स रिक्शे में गिरकर सीट में फँस जाता है। उसमें रखे अस्सी हजार रुपयों से उसका ईमान डगमगाना शुरू होता है। वह स्कूल की प्रिंसीपल के सामने भावुक होकर अपने इरादों में कामयाब हो जाता है लेकिन आगे समय समय पर फीस जमा करना, कोचिंग के पैसे जुटाने की जद्दोजहद उसे एक बुरा अपराधी चोर बना देती है। चोरी करते हुए उसका पकड़ा जाना उसके पूरे स्वप्न के धँसकने का संकेत है। वह डर जाता है। बहुत मार खाता है पर अपना नाम नहीं बताता।

इधर बेटे (शुभम झा) के संघर्ष हैं जिसे अपने पिता के पहले रिक्
शेवाले होने के कारण दुराव और अपमान का जगह जगह सामना करना पड़ता है, बाद में चोर होने की घटना के बाद और अधिक मुश्किलें बढ़ जाती हैं जिसका सामना वह और उसकी मॉं (प्रियंका बोस) करते हैं। कहानी में एक आय पी एस अधिकारी पुलिस अधीक्षक (संजय सूरी) का बुच्ची से बात करना, सच जानना और बुच्ची से कारावास में रहते हुए बुलबुल और बस्ती के अन्य बच्चों को रोज रात को पढ़ाना और परीक्षा में अव्वल आने में कोचिंग की निर्भरता को समाप्त करना भी कहानी को विस्तार देता है वहीं स्थानीय विधायक की ओछी राजनीति और रसूखदारों का कोचिंग माफिया और उसके दबाव, स्कूल प्रबन्धन का शुरू से बुलबुल के खिलाफ होना लेकिन प्रिंसीपल (सीमा सिंह) का संवेदनशील होना फिल्म के पक्ष हैं।

रॉंची शहर की बसाहट, शहर और बस्ती के मन्दिरों के कीर्तन, महिलाओं की भीड़, ज्ञानी पुजारियों का भक्तों को भगवान की ओर से लगभग गारण्टी देते हुए आश्वस्त करना, सरकारी स्कूल की कक्षाऍं, पढ़ाने वाले अध्यापक, भव्य स्कूल का प्रांगण, इंटीरियर, क्लास और सूटेट-बूटेट गजदेह स्थूल से सर आदि आपको सभी हमारी आज के कृत्रिम मानवीय स्थापत्य का हिस्सा नजर आयेंगे वहीं सकारात्मक किरदारों में पुलिस अधीक्षक, पढ़े लिखे ग्रेजुएट होने के बाद भी पुरानी किताबों को बेचकर गुजारा करने वाले उस्मान चाचा, बस्ती मोहल्ले का आपसी सौहार्द्र महत्वपूर्ण हैं।
फिल्म के प्रथम भाग को बहुत अच्छे से गढ़ा गया है जिसमें हमारी शिक्षा पद्धति, व्यवस्था, स्कूलों के ग्लैमर और सरकारी स्कूलों के यथार्थ को देखा जा सकता है। पारिवारिक जीवन में घर के कामकाज, जवाबदारियों के साथ मजदूर करती खटती स्त्री का बुखार और सिरदर्द में रहकर भी काम पर जाना, डर कि पैसा कट जायेगा, पति का कभी कभार शराब पीकर लौटना और कई बार सट्टे के नम्बर लगाना, हारना और जीतने का आत्मविश्वास रखना, फिर ये सब न करने की कसम खाना। सोते हुए बेटे के पार्श्व में पति-पत्नी के संवाद मन को छू जाने वाले स्वप्न का साक्ष्य कराते हैं।

मध्यान्तर के बाद घटनाक्रम एक अलग मोड़ लेते हैं। राजनैतिक विरोध बड़ा नाटकीय लगता है। हालॉंकि कतिपय श्रेयभोगी जनप्रतिनिधियों की मानसिकता को भी उजागर करता है भले उसमें उनका कोई योगदान हो न हो। कलाकारों ने काम अच्छा किया है। आदिल आश्वस्त कलाकार हैं। खूब रिक्शा चलाया है। महात्कांक्षा से लेकर मन के चोर तक को वे बखूबी व्यक्त कर सके हैं। शुरू में बस वह अंग्रेजी बोलने की विफल कोशिश और रिक्शा चलाते हुए गाना गाने तक यह अन्दाज फिर आगे छूट ही गया। वे शुरू से ही इस कृत्रिमता से बचे रह सकते थे पर स्क्रिप्ट ही ऐसी होगी। प्रियंका बोस परिस्थितियों से जूझती स्त्री के रूप में प्रभावित करती हैं। एक तरह का डर, विवशता और सिर पर आयी मुसीबतों में एक स्त्री की मनोदशा को बखूबी प्रस्तुत करती हैं। उसी तरह शुभम जिसने बुलबुल का किरदार किया है वह अपने साथी विद्यार्थियों का उसके प्रति व्यवहार, अध्यापकों का व्यवहार, परिवार पर आयी विपदा सबको अपने चेहरे पर लेता है और उस तनाव को दर्शा पाता है जो स्वाभाविक रूप से एक बच्चे के ऊपर आता है। संजय सूरी सहृदय पुलिस अधीक्षक के रूप में अपनी भूमिका को सराहनीय बनाते हैं।

अजय मलकानी उस्
मान चाचा के रूप में एक महत्वपूर्ण सकारात्मक चरित्र निबाहते हैं जिनका जिक्र जरूरी है, वैसे ही स्टेशन के पास रिक्शा स्टैण्ड चलाने वाला किरदार जो आपराधिक गतिविधियों का भी छोटा मोटा नियंता है, अपनी तरह से दिलचस्प और आकर्षित करने वाला है। स्टैण्ड पर ही बुच्ची की बगल में बैठा दूसरा रिक्शावाला नत्थू (पंकज सिन्हा) जिसको स्टैण्ड ठेकेदार कर्ज न चुकाने के कारण लताड़ा करता है, वह भी अपने दृश्यों में उपस्थिति छोड़ने में सफल होता है। परीक्षा, एक वैचारिक हस्तक्षेप है, हमारे समय में। प्रकाश झा ने इस फिल्म को पूरी तरह सृजित किया है, लिखने से लेकर परदे पर लाने तक। वे सहायक चरित्रों के विस्तार में जिस तरह जाते हैं वह किसी भी कहानी के वातावरण को उसके प्रभाव के साथ दर्शकों के सामने प्रस्तुत करने में प्रभावी है। उनकी हर फिल्म में एक विषय तो होता ही है। इस परीक्षा फिल्म में वे कई सूक्ष्म प्रयोगों के साथ चौंकाते भी हैं। यह फिल्म उस नजरिए से भी हमारे सामने घटित होती है जिसमें मुखिया के अपराधी या चोर साबित हो जाने के बाद पत्नी और बेटे के अन्तर्द्वन्द्व क्या हैं और उनका मुखिया से क्या व्यवहार होना चाहिए?

बड़ी बात यह है कि दोनों ही उसे माफ करते हैं और उसकी वजह से आयी मुश्किलों के जवाब समाज के सामने बहुत ही विनम्रता के साथ देते हैं, बुलबुल का प्रिंसीपल सहित कमेटी के सामने कहा गया आत्मकथ्य अन्तिम बारह मिनट में फिल्म को बहुत अहम बनाता है। 
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