Sunil Mishr (Film Critic, Art, Culture, Writer Drama, Blogger) Winner of 65th National Award for Best Writing on Cinema in May, 2018
रविवार, 11 अप्रैल 2021
शनिवार, 10 अप्रैल 2021
रविवार, 4 अप्रैल 2021
नाम और चरित्र में जमीन-आसमान का फर्क करती फिल्म
थर्ड एंगल / पगलैट
उमेश बिष्ट निर्देशित फिल्म पगलैट देख रहा हूँ। उनकी पहली फिल्म कुछ वर्ष पहले ओ तेरी आयी थी तब उससे जुड़ा था। व्यक्ति बहुत गहरे और अपनी रचनात्मकता के प्रति मनोयोग से पेश आने वाले हैं तथापि समीक्षा में अपनी दृष्टि की बात कहनी होती है। हर सर्जक अपने कार्य का सार्थक मूल्यॉंकन चाहता है। इसमें जो जितना सच्चा होता है वह उतना ही बहादुर होता है। यह भी कह सकते हैं कि इसमें जो जितना बहादुर होता है उतना ही सच्चा भी होता है। फिल्म को जितना मैं समझ पाया हूँ उसी तरह लिखने का यत्न भी करूँगा।
यह फिल्म एक भारतीय मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार के घर बड़े पुत्र की आकस्मिक मृत्यु की घटना से शुरू होती है और उसकी तेरहवीं होते-होते फिल्म का अन्त लिख दिया जाता है। जिस तरह के परिवार की कहानी को प्रस्तुत करने की कोशिश की गयी है, निर्देशक ने चूँकि स्वयं ही फिल्म लिखी है, उन सारी रस्मों को वो फिल्म का हिस्सा बनाते हैं जो मृतक की आत्मा की शान्ति तक तेरह दिन तक किए जाते हैं। इस फिल्म में जिस तरह से परिवार, नाते और रिश्तेदार इकट्ठा होते हैं वह सब जीवन के दूसरे संस्कारों, जिनमें विवाह जैसे मांगलिक संस्कार भी हैं, से दशकों पहले विदा हो गया है। अब कुटुम्ब के अच्छे-बुरे अवसरों पर इस तरह लोग एकत्र नहीं होते और न ही इतने दिन रहते ही हैं।
इस फिल्म का आकर्षण शीर्षक चरित्र है, मृतक की पत्नी। उसका जरा सा भी दुखी न होना या चेहरे तथा व्यक्तित्व में पति की मृत्यु का रंचमात्र भी असर न होना सभी के आकर्षण और चर्चा का केन्द्र है। निर्देशक ने सहयोगी कलाकारों में बहुत गुणी कलाकारों को लिया है, रघुवीर यादव, आशुतोष राणा, शीबा चड्ढा, नताशा रस्तोगी, राजेश तेलंग, अनन्या खरे, मेघना मलिक आदि। आशुतोष पिता हैं, शीबा मॉं हैं, रघुवीर यादव, आशुतोष के बड़े भाई के किरदार में। शेष अतिथि मेहमान नाते-रिश्तेदार।
इस फिल्म में हम आकस्मिक विपदा में आये घर को इन सबकी नजर से देखते हैं। कानाफूसी, जोड़-तोड़, आलोचना, निंदा और षडयंत्र भी सबके अपने अन्दाज हैं, पुरुष अपनी तरह से और स्त्रियॉं अपनी तरह से भूमिकाऍं निभाती हैं। आशुतोष राणा रह-रहकर सुबकते हुए पिता हैं जो ज्यादा कुछ कह नहीं पाते, उनकी कमी रघुवीर यादव पूरी करते हैं जो सारे गमों से ऊपर उठे हुए हैं और प्रेक्टिकल टाइप के आदमी हैं। बाहर से आये लोग धूर्तता और विपदा को अवसर में बदलने को लालायित हैं। दो युवा लड़कों की नजर बहू पर भी है जिनमें से एक देवर है और एक दूर का रिश्तेदार। बहू की एक सहेली श्रुति शर्मा उसके साथ हुए हादसे को जानकर उसका दुख हल्का करने कुछ दिन रहने चली आती है वह अपनी सहेली को देखकर हतप्रभ है लेकिन सच्ची मित्रता का तकाजा है कि वह उसके साथ है।
अब हमारा ध्यान आकृष्ट करती है वह बहू सान्या मल्होत्रा जिसके चेहरे पर रत्ती भर भी दुख के भाव नहीं हैं। पति के नहीं रहने की जरा सी भी व्यथा उस पर दिखायी नहीं देती। घर के ऊपर वाले कमरे में वह मोबाइल पर पति के नहीं रहने पर व्यक्त किए गये शोक संदेशों और आर आई पी को गिना करती है। बेजिझक अपनी सास से उनके चाय का पूछने पर कोल्ड ड्रिंक भेजने को कहती है। पूरा घर बहू के इस आचरण पर हैरान है, नाराज है, चिन्तित भी है। स्वयं उसके माता-पिता भी लेकिन सहेली के आ जाने पर वह और भी सहज हो जाती है और घर से बाहर उसके साथ चाट, पानी के बताशे आदि खाने की भी बरसों की इच्छा पूरी करती है। इसी चरित्र के लिए फिल्म का नाम पगलैट रख दिया गया है।
निर्देशक, दर्शक के लिए दो वातावरण लेकर चले हैं। एक बहू का यह सबसे भारी पक्ष और दूसरा शेष परिवार का जिसमें दिवंगत बेटे की आत्मा की शान्ति के लिए सारी रस्में पूरी की जानी हैं। सामान का आना, मेहमान का आना, लिस्ट बनना और इसी बीच में इकट्ठा हुए अतिथियों के कृत्रिम से सूजे बनावटी चेहरे और उनके भीतर से अनावृत्त होता चुगद पन दर्शक को कई बार आइना दिखाता है। आखिर हममें से ही बहुत से इस तरह की भूमिकाऍं अदा किया करते हैं या करते-करते अभ्यस्त हो जाते हैं। निर्देशक इस भाग में ज्यादा यथार्थ के करीब जाते हैं वहीं फिल्म के शीर्षक चरित्र को नाम के अनुरूप सार्थक करने में विफल होते हैं। यही कारण है कि फिल्म के अन्त में उसका एक बहुत उदार निर्णय जिसमें उसके पति के द्वारा बीमा की पचास लाख रुपये की राशि का चेक वह अपने ससुर के नाम छोड़कर तेरहवीं के अगले दिन अपना एक इण्टरव्यू देने सहेली के साथ कानपुर चली जाती है और चिट्ठी छोड़ जाती है, दर्शक तक ठीक से सम्प्रेषित नहीं हो पाता।
यह फिल्म नीलेश मिश्रा के गीतों या अरिजीत सिंह के संगीत की अनुभूति के लिए तो मुझे समझ में नहीं आती। यह फिल्म विशेष रूप में मुझे सिनेमेटोग्राफर राफे महमूद और सम्पादक प्रेरणा सैगल दृष्टि और समझ तथा सहयोगी कलाकारों की चरित्र में उतरी भूमिकाओं के कारण मर्मस्पर्शी लगी है। सान्या मल्होत्रा निश्चित रूप से नयी और युवा होने के बावजूद अपने किरदार की सीमाओं के अतिरेक में नहीं जातीं। उनका नियंत्रित रहना उनकी खूबी है।
इस बात पर क्या कहूँ कि रामप्रसाद की तेरहवीं वाली निर्माता टीम सीमा पाहवा और साथ के लोगों ने लोकेशन से लेकर तमाम बातों के लिए निर्देशक को कटघरे में खड़ा किया है यह आरोप लगाते हुए कि दोनों कहानियॉं बहुधा एक जैसी हैं। मुम्बइया सिनेमा में मौलिकता को लेकर कोई भी विवाद और लड़ाई व्यर्थ इसलिए है क्योंकि इसमें नया कुछ नहीं है और अचम्भा भी कुछ नहीं है।
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शनिवार, 3 अप्रैल 2021
शुक्रवार, 2 अप्रैल 2021
सोमवार, 29 मार्च 2021
गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021
बुधवार, 17 फ़रवरी 2021
शनिवार, 23 जनवरी 2021
बुधवार, 20 जनवरी 2021
रविवार, 10 जनवरी 2021
गुरुवार, 7 जनवरी 2021
एक मार्मिक यथार्थ के भीतर से होकर गुजरना
अपने से छले जाने के किस्से हजार हैं। हमारी परम्परा में ऐसी कथाऍं मौजूद हैं जो ऐसे उदाहरणों से भरी पड़ी हैं। कागज का नायक भरत लाल भी अपने नाते-रिश्तेदारों के छल और षडयंत्र का शिकार है। छोटी सी जगह में, छोटी सी दुकान में चार सहायकों के साथ बैण्ड मास्टर बनकर जीवन यापन कर रहे भरत लाल की जिन्दगी में तब व्यवधान आ जाता है जब बैंक से कर्ज लेने के लिए बतौर जमानत वह अपने बाप-दादों के उसके हिस्से में आयी जमीन का हक प्राप्त करने अपने चाचा और उसके परिवार के पास जाता है। भरत लाल के हिस्से की जमीन उसको मृत बतलाकर अपने दो बेटों में बॉंट देने वाला चाचा और उसका परिवार धूर्त है जो यह करके भी निर्लज्ज हैं।
नतीजा यह कि अपना हक मांगने गया भरत लाल किसी तरह अपने प्राण बचाकर भागता है। लेकिन लौटकर वह लड़ने का प्रण करता है। फिल्म इसी लड़ाई को दिखाती है। कोर्ट-कचहरी, वकील, बाबू, तंत्र, व्यवस्था, पुलिस और राजनीति सभी के निर्मम अनुभवों से गुजरता भरत लाल शनै शनै अपनी लड़ाई को बड़ा करता है मगर बहुत ही धीरज और समझदारी के साथ। वह अपने को जीवित साबित करने के लिए जज तक का अपमान कर देता है लेकिन जज भी उसको दण्डित नहीं करते क्योंकि वह कागज पर जीवित सिद्ध हो जायेगा। भरत लाल की लड़ाई दूर तक जाती है और अन्तत: उसके पक्ष में परिणाम भी लाती है।
फिल्मकार सतीश कौशिक ने इस फिल्म को दस साल खदकने दिया है और इससे उद्वेलित होते रहे हैं। वे बतलाते हैं कि किस तरह अखबार में पढ़ी एक छोटी सी घटना ने मुझे उस पर फिल्म बनाने की सीमा तक उद्विग्न किया जिसका परिणाम यह कागज के रूप में आपके सामने है। एक सिनेमा का बनना जितना महत्वपूर्ण है उसका दर्शकों तक आ जाना उतना ही महत्वपूर्ण। यहॉं पर सलमान खान ने कागज को प्रदर्शन के संजोग तक पहुँचाकर एक बड़ा काम किया है क्योंकि साल की शुरूआत में दर्शकों को सम्भवत: पहली सार्थक और उद्देश्यपूर्ण फिल्म देखने को मिल रही है। फिल्म के आरम्भ और अन्त में उन्होंने एक सुन्दर नज्म भी पढ़ी है।
सतीश कौशिक ने लेखक और निर्देशक के रूप में लगभग पौने दो घण्टे की इस फिल्म में छोटे छोटे मन को छू जाने वाले गाने भी रखे हैं जो फिल्म का हिस्सा ही लगते हैं और स्थूल जगहों को भरते हैं। कुल मिलाकर कागज इस समय एक देखने वाली फिल्म है, खासकर ऐसे समय में जब कुछ समय से फिल्म और वेबसीरीज में गाली और गन्दगी का एक साथ संक्रमण फैला है। इस फिल्म की भाषा और संवाद बहुत मर्यादित हैं। सतीश कौशिक ने इस दृष्टि से एक मन को छू जाने वाली और बड़े दिन याद रहने वाली फिल्म बनायी है।
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