शनिवार, 31 दिसंबर 2016

धैर्य-अधैर्य की परीक्षाएँ और आता हुआ 2017

उत्सवधर्मिता हमारा स्वभाव है और उससे चार कदम आगे बढ़कर जश्न हमारा उन्माद। पूर्णता के निकट पहुँचते हुए हमारा धीरज छूटने लगता है, शेष के प्रति हम लगभग आक्रामक हो उठते हैं। कई बार हमारे जीवन में वही शेष बहुत कठिन और जोखिम भरा होता दिखायी देता है, कई बार हो भी जाता है। अनुभवी, सदाशयी, गुणी और जानकार लोग इसीलिए सब्र या धीरज की बात कहते हैं। आज 2016 का आखिरी माह और आखिरी तारीख, सभी के जैसे धैर्य की परीक्षा लेने जा रही है। जो सुबह जागा है, उसे रात की चिन्ता है, जो दोपहर में है वह शाम को फलांगना चाहता है और रात को जीना चाहता है। कहने का आशय यह कि हम तैयार हैं.............
न जाने कितने वाहनों के टैंक फुल हो गये होंगे। कितने ही लोग दो-चार दिन पहले से कहीं-कहीं अपनी पसन्द की संगत में आज दिन तक आ गये होंगे, धीरे से उन सभी की जिन्दगी में कल भी आ ही जायेगा लेकिन दोहराता हूँ कि उन सबकी अपनी तैयारी होगी। विश्व में बड़े से बड़े होटल में आरक्षण हो चुका होगा, बैठने और नियंत्रण में बने रहने से लेकर नियंत्रण छूटने तक सब देख लिया जायेगानुमा। रात को बहुधा जनसंख्या और समाज जब सो रहा होगा तब रह-रहकर तेज रफ्तार की गाडि़यों की आवाज सुनायी देगी, पुलिस का सायरन और एम्बुमलन्स भी। आकाश रोशनी से पट पड़ेगा। आत्म प्रचार का एैब (एप-वाट्सअप) सन्देशों से भरता चला जायेगा, मेसेजेस भी। पढि़ए, न पढि़ए, खाली करते रहने की जद्दोजहद से जूझिए।
यह वैभवीयता महानगरों और रसूखदारों के उस संसार का एक भाग है जहाँ रुपए और आतिशबाजी एक बराबर है। ऐसे ही क्षण हमें उन सबकी कल्पना होती रहे, जिन्होंने इसी साल कोई अपना खोया है, गम्भीर बीमारी से जूझना जारी रखा है, अनेक मुश्किलों का सामना किया है, लक्ष्य अर्जित किए हैं, धोखे से गिरे हैं, कठिनाई से उठे हैं और अपनी धारा पर आये हैं। वाट्सअप के दौर में हम अपना बताने में इतना हठी हैं कि अपने ही किसी के हाल से अवगत होना लगभग भूल गये हैं। थोड़ी बहुत स्पेस संगियों के लिए भी जरूरी है। हम किस बड़े के बगल में खड़े थे, वह बगल वाला हमें अगले ही क्षण भूल चुका है, पता होता ही होगा हमको। कहाँ हो आये, क्या कर आये, ठीक है, समय रहते सब जान लेंगे।
हमारी आबोहवा हमें हर क्षण सतर्क रहने के लिए सचेत करती है। खानपान, रहन-सहन, परिवेश, सड़क पर निर्मम होकर तेज रफ्तार से जाती गाडि़याँ, लो-फ्लोर बसें, पटरी छोड़कर खेत में घुस जाने वाली रेलगाडि़याँ, चिकित्सा, आदतें, स्वभाव सब जगह वही जोखिम हैं और अपराधियों से हैं। बचपन में कई बार अपने आसपास अचानक हो जाती किसी की मृत्यु पर माँ बड़े धीरे से बतलाती थी, रात को बेतहाशा शराब पीकर लौटे थे, सोते ही रह गये या दोस्तों में जमकर पी या पिलायी, आग्रह और हठ करके ज्यादा हो गयी, मस्तिष्क या हृदय बैठ गया या फिर होश में नहीं थे, ऐसी गाड़ी चला रहे थे कि अंधेरे में कुछ नहीं दिखा, सामने से आती गाड़ी न दिखी और यह भयानक घट गया। ऐसे ही देखते देखते दृश्य बदल जाने की स्थितियों को निर्मित करने से बच सकें तो बचें। मन, मस्तिष्क, देह और चेष्टाओं से बिना अनियंत्रित, अराजक, मादक या विवश हुए भी नया साल आ जायेगा। अच्छी सुबह होगी, पंछियों का अलार्म होगा, वे आकाश में भोर में उड़ेंगे भी अपने पुरुषार्थ के लिए, उनके साथ जागने और उन्हीं के साथ भोर का हिस्सा बनने के अलग सुख हैं।
मैं मध्यप्रदेश कैडर की वरिष्ठ आय एस अधिकारी श्रीमती स्नेहलता श्रीवास्तव जो कि वर्तमान में भारत सरकार में सचिव हैं, कुछ वर्ष पहले वे संस्कृति विभाग की अविभावक थीं, उनका हम सबकी एक बड़ी बैठक में किया गया कथन भूल नहीं पाता जिसमें उन्हों ने सभी से कहा था कि आप लोग कितना काम करते हैं, वर्षों से आपके अनुभवों को समृद्ध होते देखा है, देश-दुनिया के कलाकारों के साथ जुड़ने के इस रचनात्मक काम को आप बहुत सारा समय देकर अंजाम देते हैं। मेरा आप सभी से यह अनुरोध है कि अपनी सेहत, तबियत का ख्याल रखा करें, अपने परिवार का ख्याल रखा करें, जो स्वस्थ हैं, वे सदैव स्वस्थ रहें यह कामना है लेकिन जो दवाइयाँ खाते हैं, वे समय पर दवाइयाँ जरूर खाते रहा करें, अपने मन को ऐसे ही सहज बनाये रखें क्योंकि आपके परिवार को आपकी बहुत जरूरत है..................इतना कहते हुए वे बिल्कुल माँ की तरह भावुक हो गयीं..........मैं उनकी इस बात को आज तक नहीं भूल पाया और इतनी आत्मीयता के साथ जो जगह उन्होंने मन में बनायी है, परमस्थायी है। ये बातें, इस 2016-2017 की मन:स्थितियों के आसपास भी उतनी मौजूँ हैं मित्रों.............#happynewyear #snehlatashrivastava #lifestyle #mordanity #thinking

गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

दुनिया सदा ही हसींं है.........

गुलशन बावरा का व्यक्तित्व अत्यन्त सहज और आत्मीय था। छोटी उम्र की एक भयानक घटना ने उनके पूरे व्यक्तित्व को एक डरे-सहमे मनुष्य में तब्दील कर दिया था लेकिन पतली छरहरी काया में ये जीने और संघर्ष करने का हौसला भी खुद इकट्ठा करने में कामयाब हुए थे। यह सच है कि पश्चिम पाकिस्तान के शेखपुरा में अब से लगभग सत्तर वर्ष पहले बैसाखी के दिन १३ अप्रैल को जन्मे गुलशन बावरा विभाजन के बाद जब हिस्दुस्तान आ रहे थे, तभी रास्ते में उनकी आँखों के सामने उनके माता-पिता को निर्मम ढंग से मार दिया गया था। इस घटना से सिहरे गुलशन की पूरी काया में वह भय ऐसा बैठा कि जीते-जी उसके प्रभाव उनके व्यक्तित्व और अभिव्यक्ति में महसूस किए जा सकते थे। उनकी पढ़ाई-लिखाई जयपुर और फिर उसके बाद दिल्ली में हुई। 

गुलशन बावरा ने छठवें दशक में तकरीबन छः साल रेलवे में नौकरी भी की। बचपन से गीत और शेरो-शायरी के शौकीन गुलशन ने अपनी माँ विद्यावती के भजन और मौलिक गीत गाने से प्रेरणा लेकर अपनी इस रुचि का विस्तार किया। बाद में उन्होंने रेलवे की नौकरी छोड़ दी और फिल्मों में गीत लिखने के लिए संघर्ष करना शुरु किया। उनको पहला अवसर फिल्म चन्द्रसेना में मिला जिसका गीत ‘मैं क्या जानूँ कहाँ लागे ये सावन मतवाला रे’, उन्होंने लिखा जिसे लता मंगेशकर ने कल्याण जी-आनंद जी के निर्देशन में गाया था। कल्याण जी-आनंद जी के ही निर्देशन में उन्होंने फिल्म ‘सट्टा बाजार’ के लिए भी गीत लिखे, चाँदी के चन्द टुकड़ों के लिए, तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे और आँकड़े का धंधा। युवावस्था में जमाने और रुमान को लेकर उनकी दृष्टि भी खूब थी। बीस साल की उम्र में वे इतने अच्छे गीत लिख रहे थे। दुबले-पतले गुलशन को रंग-बिरंगे कपड़े पहनने का बड़ा शौक था। अपनी गोल-मोल आँखें नचा-नचाकर ये अजब ढंग से बात करके सबको आकृष्ट कर लेते थे। एक वितरक शान्तिभाई पटेल ने गुलशन कुमार मेहता को गुलशन बावरा नाम दे दिया और तभी से वे इस नाम से लोकप्रिय हो गये।

एक गीतकार के रूप में उनको ख्याति दिलाने का काम उनके गीतों ने ही किया। मनोज कुमार की फिल्म उपकार में उनका लिखा गीत, मेरे देश की धरती, बीसवीं शताब्दी का एक अमर और यादगार देशभक्ति गीत है। सालों-साल यह गीत जवाँ होता है और अपने ही अर्थों से ऊर्जा प्राप्त करता है। अभिताभ बच्चन को स्थापित करने वाली फिल्म जंजीर में उन्होंने यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिन्दगी और दीवाने हैं दीवानों को न घर चाहिए जैसे बेहद सफल और लोकप्रिय गीत लिखे। कहा जाता है कि अमिताभ बच्चन ने अपनी प्रिय फिएट कार जंजीर की सफलता पर गुलशन बावरा को तोहफे में दे दी थी, जिसे वे अभी तक सहेजकर रखे थे और शौक से चलाया करते थे।

गुलशन बावरा ने अपनी सक्रियता के निरन्तर समय में लगातार लोकप्रिय गीत लिखे। कल्याण जी-आनंद जी से उनकी ट्यूनिंग खूब जमती रही। लगभग सत्तर से भी ज्यादा गाने उन्होंने उनके लिए लिखे। बाद में उनका जुड़ाव राहुल देव बर्मन से भी हुआ। एक बार गुलशन उनकी टीम में क्या आये, गहरे मित्र बन गये। राहुल देव बर्मन को गुलशन सहित उनके तमाम दोस्त पंचम कहकर बुलाया करते थे। इस टीम ने भी अनेक सफल और लोकप्रिय फिल्मों में मधुर और अविस्मरणीय गीतों की रचना की। एक सौ पचास से ज्यादा गाने गुलशन और पंचम की जोड़ी की उपलब्धि है। जिन फिल्मों के लिए गुलशन बावरा ने गीत लिखे उनमे सट्टा बाजार, राज, जंजीर, उपकार, विश्वास, परिवार, कस्मे वादे, सत्ते पे सत्ता, अगर तुम न होते, हाथ की सफाई, पुकार ,सनम तेरी कसम, हकीकत, ये वादा रहा, झूठा कहीं का, जुल्मी आदि प्रमुख हैं। गुलशन बावरा ने पंचम के साथ उनकी फिल्म पुकार और सत्ते पे सत्ता में गानों में भी सुर मिलाए।

मेरे देश की धरती सोना उगले, यारी है ईमान मेरा, दीवाने हैं दीवानों को न घर चाहिए, हमें और जीने की चाहत न होती अगर तुम न होते, प्यार हमें किस मोड़ पे ले आया, जिन्दगी मिल के बिताएँगे हाल ए दिल गा के सुनाएँगे, कस्मे वादे निभाएँगे हम, वादा कर ले साजना, कितने भी तू कर ले सितम, जीवन के हर मोड़ पे मिल जायेंगे हमसफर, तू तो है वही दिल ने जिसे अपना कहा, आती रहेंगी बहारें जैसे गाने हमारे बीच जब-जब ध्वनित होंगे, गुलशन बावरा हमें बहुत याद आयेंगे।

एक गीतकार के रूप में खासे ख्यात रहे गुलशन बावरा की एक और विशेषता उनका छोटी-छोटी भूमिकाओं में कुछ-कुछ फिल्मों में दिखायी देना थी। वे शौकिया अभिनय करते थे। कई निर्देशक, जिनके लिए वे गीत लिखा करते थे, या न भी लिखा करते थे, वे उन्हें अपनी फिल्मों में एकाध कॉमिक रोल उन्हें देते थे, जिसे वे आत्मविश्वास के साथ निभाया करते थे। उपकार में सुन्दर और शम्मी के मूर्ख बेटों में मोहन चोटी के साथ एक वे भी थे। दोनों सोम-मंगल की भूमिका में थे। इसी तरह जंजीर में दीवाने हैं दीवानों को न घर चाहिए, गाने का फिल्मांकन भी उन्हीं पर हुआ जिसमें वे एक नर्तकी के साथ हारमोनियम गले में बाँधे गाते दिखायी देते हैं। विश्वास, परिवार, गँवार, पवित्र पानी, लफंगे, ज्वार भाटा, जंगल में मंगल, हत्यारा, अगर तुम न होते, बीवी हो तो ऐसी, इन्द्रजीत और एक पंजाबी फिल्म सस्सी पुन्नू में उनकी ऐसी ही भूमिकाएँ पहचानी जा सकती हैं।

गुलशन बावरा फिल्मी दुनिया में रहने के बावजूद उस दुनिया के स्याह रंग का हिस्सा कभी नहीं बने। उनकी दोस्तियाँ बड़ी सीमित थीं। वे अड्डेबाजी का हिस्सा कभी नहीं रहे मगर राहुल देव बर्मन से उनकी दोस्ती खूब निभी। पंचम की स्मृतियों और गीतों की कम्पोजिशन के पहले की सृजनात्मक प्रक्रिया और घटनाक्रमों पर उनका एक ऑडियो सीडी भी दो वर्ष पहले जारी हुआ था। सारा जीवन वे चुस्त-दुरुस्त रहे। कोई बीमारी न हुई। सुबह-शाम घूमने का खूब शौक था। रात को समय पर खाना खाकर सो जाते थे। उनकी पत्नी अंजू उनका बड़ा ख्याल भी रखती थीं। कैंसर जैसी बीमारी उनको बमुश्किल छः माह पहले हुई और देखते ही देखते इस बीमारी ने उनके जीवन को अचानक ऐसा संक्षिप्त कर दिया कि वे अलस्सुबह अचानक चले गये। गुलशन बावरा को एक प्रेक्टिकल गीतकार कहना ठीक न होगा, वे एक संवेदनशील मनुष्य थे जिन्होंने जीवन के अर्थात को बड़ी गहराई से समझा था। मृत्यु से पहले ही देहदान का संकल्प और निर्णय ले चुके गुलशन बावरा आज भले ही इस दुनिया में नहीं हैं मगर अपने अनेक गानों के जरिए शब्द-माधुर्य रचकर वे ऐसा इन्तजाम कर गये हैं कि हम उनको कभी न भुला पाएँ।
#gulshanbawara #sunilmishr #film #lyrisist 

अनुपम वाणी में मर्म तक उतर जाने की क्षमता थी.........

हमारे आदरणीय और देश के विद्वान आलोचक डॉ विजय बहादुर सिंह जी का अनुपम मिश्र पर लगभग आधे पेज का आलेख आज सुबह, भोपाल के अखबार सुबह सवेरे में पढ़ा। दो दिन पहले नयी इण्डिया टुडे भी लाया था, उसमें अनुपम भाई साहब पर सोपान जोशी का एक पेज का लेख छपा था, उसे भी पढ़ा। उसके पहले आदरणीय श्री ओम थानवी की वाल पर जाकर उनकी लिखी टिप्पणियाँ भी पढ़ता रहा था। कितनी तरहों से, कितने गुणी और संजीदा लेखकों, विचारकों और जानकारों ने अनुपम जी को लिख-लिखकर याद किया है, याद कर रहे हैं, याद करते रहेंगे। इन टिप्पणियों में वह खिंचाव है जो अपने अव्यक्त में मानो यह कह रहा है, कौन कहता है कि तुम चले गये हो, तुम कहीं नहीं गये हो, सबमें तो हो, तुमको कौन जाने देगा................

आदरणीय ओम थानवी जी ने उस आखिरी रात पर लिखा था जिसकी सुबह ने व्याकुल करके रख दिया था। सोपान जोशी की टिप्पणी में वह बात कितनी अच्छी लिखी है कि कभी-कभी कुछ ऐसे मानसिक रोगी अनुपम जी के पास आते थे जिनको उनके अपने घर परिवार ने तज दिया होता था, अनुपम जी उनसे बात करने के लिए गम्‍भीर से गम्भीर मंत्रणा तक छोड़कर उनसे कुछ खुफिया बात करने बाहर चले जाते। जब वापस आते तो याद दिलाते, मानसिक असन्तुलन एक लॉटरी है, किसी भी दिन, किसी की भी खुल सकती है........

डॉ विजय बहादुर सिंह ने लेख में उस समय जब वे पं. भवानी प्रसाद मिश्र रचनावली पर गहरा काम करने में जुटे थे, एक लम्बा संवाद अनुपम जी से चाहते थे जिसका मौसम ही नहीं बन रहा था। लेख में उन्होंने याद किया कि अनुपम के बड़े भाई अमिताभ ने उनसे कहा था कि वो बातें शुरू करेगा तो बमुश्किल उसकी बातें खत्म होंगी। विजय बहादुर जी ने भवानी दादा की एक कविता की पंक्ति को अनुपम जी के साथ इस तरह उल्लेख में याद किया है कि भवानी दादा ने कहा था कि हर व्यक्ति/ फूल नहीं हो सकता/ किन्तु खुश्बू सब फैला सकते हैं........अनुपम वाणी में मर्म तक उतर जाने की क्षमता थी.........

अनुपम भाई साहब के साथ कई बार मिलना याद आता है, वहीं पिछले एक साल न मिल पाना झुंझलाहट भी देता है, जो कि अब वह भी किसी काम की नहीं रही। वही उनका कहना कि केवल हमें भर देखने के लिए यहाँ तक आने की जरूरत नहीं है...........वे बस ऐसे ही हालचाल लेने/पूछने का मन होने पर फोन किया करते थे। वे एक छोटे से पास पड़े कागज पर घर का पता लिख देने को कहते थे और फिर गांधी मार्ग का चन्दा जमा करके अंक भिजवाना शुरू कर देते थे। किताबों की पार्सल-पै‍किंग में उनकी सफाई, बच रह गये कागज, पुट्ठे-गत्ते के टुकड़े और ऐसी ही अनेक चीजों का इस सृृष्‍टा के पास पुनर्जीवन का मंत्र था। ऐसा सृृष्‍टा कहाँ जा सकता है, कहीं नहीं......आपको कौन जाने देगा भाई साहब...........#anupammishra #gandhishantipratishthan 

शनिवार, 24 दिसंबर 2016

दंगल : एक स्‍वप्‍नद्रष्‍टा की जिन्‍दगी को घटित होते देखना........


दंगल फिल्म को लेकर सिनेमाप्रेमियों में बहुत जिज्ञासा रही है। ट्विटर में बहुत सारे कलाकार और सिनेमा से जुडे़ लोगों ने कल फिल्म प्रदर्शित होने के बाद अपनी प्रतिक्रियाओं को लगातार जारी रखा है। जाहिर है, एक स्वर में तारीफ है। तारीख सच्ची है। तारीफ के अलावा कोई चारा भी नहीं क्योंकि देश में फिल्म को बड़े पैमाने पर स्वीकार कर लिया गया है। फिल्म विषयवस्तु और उसके पीछे के सार्थक उद्देश्यों के कारण आरम्भ से ही चर्चा का विषय रही है। सत्यमेव जयते प्रस्तुत करते हुए आमिर खान न केवल सिनेमा बल्कि अपनी खुद की भूमिका के प्रति और ज्यादा गम्भीर हुए हैं। दंगल उसी का एक प्रशंसनीय रचनात्मक परिणाम है।

कहानी यही है कि पहलवानी छोड़े, एक सरकारी नौकरी कर रहे नेशनल चेम्पियन का स्वप्न विश्व स्तर पर पहलवानी के लिए मैडल लाना था जो अधूरा रह गया। वह स्वप्न अब होने वाले बेटे पर अवलम्बित है। चार बेटियों का पिता बनने के बाद अपने स्वप्न के प्रति गुमसुम पिता तब जाग्रत होता है जब अपनी दो बड़ी बेटियों के द्वारा गाँव के दो लुच्चों की पिटायी करने की शिकायत घर तक आती है। यहीं से उसका स्वप्न फिर हरा हो जाता है। दंगल फिल्म इसी स्वप्न को साकार करने आगे चलती है। फिर सिनेमा है तो ड्रामा है, संघष है, अभाव हैं तो रास्ते हैं, हताशा है, आशा है और बहुत सारे द्वन्द्वों के बाद जीत भी जिसका अर्थ है स्वप्न का साकार होना।

दंगल जैसी फिल्म का बड़ा सीधा सा सन्देश यही है कि असाधारण काम और उपलब्धियाँ भी इस धरा के मनुष्य से सम्भव होती हैं। कठिन अभ्यास, आराम का त्याग और लक्ष्य के प्रति सबकुछ छोड़कर जुटना उसके लिए जरूरी तत्व हैं। इन सबसे मनुष्य की देह से लेकर दिमाग तक सब खुल जाता है। मिल्खा, सुल्तान और दंगल फिल्में क्रमशः हम सबके बीच अनेक विरोधाभासों, झंझावातों और मुश्किलों के बाद सफलता की हवा पसीने से भीगे माथे पर उड़ाती हैं। दंगल उल्लेख में आयी दो फिल्मों से अधिक बेहतर इसलिए है क्योंकि इसमें वो महानायक है जो लक्ष्य और चुनौतियों का सीमा में बने रहने वाला ऐसा प्रतीक बनकर फ्रेम में दिखायी देता है जो खुद कुछ नहीं कर रहा है। आमिर खान पूरी फिल्म में जरा से भी हीरो नहीं हैं। सब काम लड़कियाँ कर रही हैं या परिस्थितियाँ, वह केवल एक बड़े स्वप्न के केन्द्र में है, यह एक महानायक की बड़ी दृढ़ता, अपनी छबि के साथ बड़े त्याग और जोखिम और इन सबके साथ अपनी दृष्टि का लोहा मनवा लेने का कौशल है।

फिल्म के कलाकार एक कैप्टनशिप के अनुसरण में हैं सो सब अनुशासित और परिश्रम करके दिखाते हैं। सहायक कलाकारों का गढ़न फिल्म के तनाव को सहज किए रहता है, भतीजा अपारशक्ति खुराना, आयुष्मान के भाई की कमाल संगत है, वे फिल्म के नैरेटर भी हैं। आमिर खान तो खैर पूरी फिल्म में, पूरी देह में एक द्वन्द्व लेकर चलते हैं। उनको उस रूप में देखकर बहुत अच्छा लगता है। अधूरे लक्ष्य और उससे जुड़े स्वप्न में खोये हुए कहें या जीते हुए, वे खाना खाते हुए, रात को बिस्तर पर सोते हुए, उठकर बेचैनी में बैठ जाते हुए बेहद सच्चे नजर आते हैं। 

फिल्‍म के क्‍लायमेक्‍स में जब बेटी का कोच अपने श्रेय की क्षुद्रता में पिता को स्‍टेडियम के एक कमरे में बन्‍द करवा देता है और लड़ती हुई बेटी दर्शकों में अपने पिता की जगह खाली देखकर परेशान और हतोत्‍साहित होती है तब पूर्वदीप्ति में बेटी काे पिता की बचपन में उस वक्‍त दी शिक्षा याद आती है जब एक सुबह वह दोनों बेटियों को गाँव की नदी में छलांग लगवाता है और पानी के भीतर डूब रही बेटी तक पुल पर से चिल्‍लाकर अपनी आवाज पहुँचाता है कि मैं हर वक्‍त तेरे साथ या तेरे सामने नहीं रहूँगा। तुझे जीत अपने हौसले और हिम्‍मत से ही मिलेगी। इस स्‍मरण के साथ वह प्रतिस्‍पर्धी से भिड़ती है और जीतती है। फिल्‍म का यह सबसे सशक्‍त दृश्‍य है। 

नितेश तिवारी, इटारसी के रहने वाले हैं, गर्व है कि मध्यप्रदेश मूल के फिल्मकार ने इतनी अच्छी फिल्म बनायी है। पटकथा के अनुरूप एक-एक शॉट बहुत सधा हुआ और प्रभाव और तकनीकी दृष्टि से बहुत अप टू द मार्क है। दोनों बेटियों का पिता से संवाद दिलचस्प लगता है, वहीं तीसरी और चौथी बेटियाँ बीच में एक ओर साक्षी और एक ओर आमिर लेटे हुए हैं, सोती बच्चियों के साथ यह दृश्य कमाल का है, अनुभव करो तो लगता है कि बच्चियों के रूप में सोये स्वप्न बस जागने को हैं.................

गाने, एक-एक जैसे लोकेशन पर बैठकर लिखा हुआ, संगीत कमाल का, अमिताभ भट्टाचार्य और प्रीतम ने गढ़ दिया सचमुच और दलेर का टाइटिल ट्रेक - माँ के पेट से मरघट तक तेरी कहानी पग पग प्यारे दंगल दंगल और ऐसे ही एक दो गाने सूफियाना और शाश्वत रचनाएँ हैं। निहायत व्यक्तिगत रूप से लगता है कि ऐसी फिल्म को बिना आवेदन की प्रतीक्षा किए राज्य करमुक्त कर सकते हैं, खासतौर पर बेटियों के लिए अभियान और योजनाओं में शीर्ष पर आये राज्य............#dangal #amirkhan #niteshtiwari #niteshtivari #kiranrao #filmreview

बुधवार, 23 नवंबर 2016

एम बालमुरलीकृष्‍ण का जाना.......


लगभग सोलह वर्ष पहले की ही बात होगी, डॉ एम बालमुरलीकृष्‍ण, मध्‍यप्रदेश शासन का राष्‍ट्रीय कालिदास सम्‍मान ग्रहण करने भोपाल आये थे। हवाई अड्डे पर उनको लेने मैं ही गया था और शाम साढ़े चार बजे जिस विमान के आने का समय था वह तीन बजकर चालीस मिनट पर आ चुका था। एयरपोर्ट पर जब यह मालूम हुआ तो मैं सहम गया था, मुझे लगा बहुत नाराज होंगे लेकिन जब प्रवेश टिकिट लेकर अन्‍दर गया तो बड़े इत्‍मीनान से एक कुर्सी पर प्रतीक्षा करते, मुस्‍कुराते हुए मिले वे। पैर छूकर क्षमा मांगी तो हँसने लगे। रात को गरिमामय समारोह में सम्‍मान ग्रहण किया और उसके बाद अपना गायन प्रस्‍तुत किया। अगले दिन सुबह उसी सहजता से वे चले भी गये............
एम बालमुरलीकृष्‍ण, मिले सुर मेरा तुम्‍हारा का एक अहम स्‍वर और उपस्थिति थे। कर्नाटक संगीत और पक्‍के रागों को अनुशासित और शुद्ध पवित्र भाव से गाने की उनकी दक्षता अनूठी थी। एक पूरा जीवन उन्‍होंने सच्‍चे और विनम्र साधक की भाँति संगीत को दिया। वे भारतीय सांस्‍कृतिक परम्‍परा की विलक्षण धरोहर थे। उनको सन्‍त कहना ज्‍यादा सार्थक होगा क्‍योंकि धर्म से लेकर चेतना तक उनमें संगीत ही व्‍याप्‍त रहा था सदैव। मुझे महान फिल्‍मकार जी वी अय्यर की उन दोनों महत्‍वपूर्ण फिल्‍मों आदिशंकराचार्य और भगवतगीता देखने का सौभाग्‍य मिला जिनका संगीत एम बालमुरलीकृष्‍ण ने सिरजा था। उनका निधन एक बड़ी क्षति है। हमारी संस्‍कृति और परम्‍परा से ऐसे सन्‍तों की चिरविदायी अत्‍यन्‍त दुखद है.......

शनिवार, 19 नवंबर 2016

सुविख्यात चित्रकार प्रमोद गणपत्ये का जाना.........


भाई लोकेन्द्र त्रिवेदी जी ने सुविख्यात चित्रकार भाई प्रमोद गणपत्ये के नहीं रहने की सूचना फेसबुक पर दी है। प्रमोद जी को जानने और चाहने वालों के लिए यह बड़ी शोक की खबर है। मैं उनके कृतित्व के प्रति आकृष्ट रहा करता था, अनेक प्रतिक्रियाओं में उनका उत्तर और कई बार सिनेमा सम्बन्धी मेरी टिप्पणियों को अपने अनुभवों और जानकारी से उनका परिष्कृत कर देना मुझे बहुत सुहाता था।

कुछ महीने पहले एक कला शिविर में वे भोपाल आये थे, कुछ दिन रहे थे। उसके बाद ही से उनसे वचन हो गया था कि जल्द ही एक दिन दिल्ली आऊँगा और पूरा दिन साथ रहूँगा। इसके लिए उनके एक और मित्र बालू भैया को भी संगत के लिए मनाया लेकिन हम सबके भाग्य में वह संगत नहीं थी। कुछ दिन पहले प्रमोद जी से बात हुई तब वे कह भी रहे थे कि जल्दी मिल जाओ नहीं तो किसी दिन तस्वीर पर हार चढ़ जायेगा। तब मैंने कहा था कि भाई साहब जल्दी ही मिलता हूँ।

इच्छाशक्ति की कमी कह लूँ या अपना आलस्य-प्रमाद या भोपाल में निरन्तर आपाधापियों में यह सब अनमोल छूटना, प्रमोद जी से मिल न सका। कल कुछ घण्टे दिल्ली में था लेकिन उसका आधा समय वहाँ की ट्रैफिक और सड़क में गसी हुई गाड़ियों के बीच ऊँघते हुए और शेष नियत कार्य तथा वापसी में पूरा हुआ। 

दिल्ली के मित्रों ने कल मुझे दिल्ली जानकर खूब चिढ़ अपनेपन में जाहिर की है, एक से मैंने दिन में ही प्रमोद जी की बात करते हुए कहा भी कि उनसे अपरिहार्य मिलना भी न हो पाया और कुछ ही घण्टों में मैं उनकी नहीं रहने के सच को जान पा रहा हूँ। स्वाभाविक रूप से खूब व्यथित हूँ और अपनी लचरता पर झल्लाया हुआ..........

प्रमोद गणत्ये जी की सबसे बड़ी खूबी उनका देशजपन था जो व्यक्तित्व से लेकर कृतित्व में भी झलकता था। वर्षों से वे दिल्ली में थे लेकिन उज्जैन और मालवा को, परम्परा, संस्कृति को, जीवन और उसकी आंचलिक सहजता को, रंग से लेकर वस्त्र, श्रृंगार और समय तथा अनुभवों के साथ स्थूल हो चली देह को कितनी ही जीवन्त स्मृतियों में वे अपनी कलाकृतियों में चित्रित करते थे। उसी मर्म और संवेदना ने मुझे उनके काम को लेकर गहरी जिज्ञासा जगायी थी। मुझे दुख है कि निरर्थक कारणों से होते रहे विलम्ब के कारण मैं उनसे नहीं मिल सका और वे चले गये..................

शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

।। बाबा के झोले में बच्चे.......... ।।

अक्सर इस बात से मैं रोमांचित होता रहा हूँ बचपन से जरा डरपोक किस्म का था भी, घर के सामने भिक्षा मांगने वाले ऐसे बाबा आते थे जिनको देखकर डर लगता था। छुटपन में बाहर सीढ़ियों में बैठा रहता था तो भीतर भाग जाता था। पलंग के नीचे छुपकर लगता था कि बच गये। मुहल्ले के बड़े भाई, पास-पड़ोस के लोग डराया भी करते थे कि बाबा के झोले में बच्चे पड़े रहते हैं। वो बच्चों को पकड़कर ले जाया करते हैं। बाबा के कंधे पर बड़ा सा बोरेनुमा झोला होता था जिसमें वे आटा वगैरह इकट्ठा किया करते थे।
बाबा तरह-तरह के आया करते थे। बाबा होगा तो दाढ़ी होगी ही, बड़े से बाल होंगे ही, मूँछ होगी ही। बोरा, हाथ में लाठी भी। कुछ बाबा ऐसे होते थे जो शारीरिक व्याधियों के कारण अपनी चाल-ढाल से भी डराते थे। कुछ बाबाओं का दरवाजे पर शंख बजाना ही पेशाब छुटा देता था लेकिन फिर भी उनको छुपकर देखने का अपना आकर्षण भी होता था। जब तक बाबा दूर के घरों में मांग रहा होता, अपन सीढ़ियों पर बैठे होते, जैसे ही अपने घर की तरफ आता तो भाग जाते। मम्मी हमारी छाती पर हाथ रखकर कहतीं, कैसा धड़-धड़ कर रहा है। फिर यह भी कहतीं, कैसा सिंघ की कोख में सियार पइदा भा.........
आज सुबह ऐसे पाँच-छः बाबाओं का समूह मुहल्ले में आया तो उनकी बुलन्द आवाजों से कुत्ते भैरा गये, बच्चे भागने लगे। मुझे बचपन का स्मरण पल भर में हो आया और अपने आप में हँसी आ गयी, मम्मी का गुस्से वाला डायलॉग भी। मैं बाहर खड़ा अलग-अलग घरों में खड़े उन बाबाओं को देखने लगा। यकायक अपनी स्मृतियों और बाबागणों के मनोविज्ञान पर सोचने लगा। सभी बाबा प्रौढ़ उम्र के थे औसतन, बड़े-बड़े शंख हाथ में लिए, बेहद बुलन्द आवाज में मांग करते हुए, बड़े-बड़े धुले स्वच्छ सफेद से शंख और उसकी आवाज।
हँसी आयी कि बच्चे आज भी बाबाओं के झोले में अपनी तरह के शरारत करने वाले या माता-पिता की नहीं सुनने वाले बच्चों को कैद सोचा करते होंगे और उसी भय में अपनी जिद थोड़ी कम किया करते होंगे, चार बातें भी मान जाया करते होंगे।
बाबाओं और बच्चों का यह रिश्ता कितना रोचक और हर पीढ़ी की स्मृतियों से भरा है, है न.......................!

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

वो किले स्‍मृतियों में आज भी हैं.........

चार-पाँच साल की उम्र की दीवाली याद आती है। छत्तीस बटे चौबीस में रहते थे। मम्मी के नाम आवंटित सरकारी मकान में। तब दीवाली में घर-घर किले बनाने का खूब चलन था। हमारे पड़ोस में सहाय मौसी बहुत सुन्दर सा किला बनाया करती थीं, दीवाली के एक दिन पहले तक। बाहर घर के आंगन में गोबर, मिट्टी, लाल मुरम, कुछ सूखी लकड़ियाँ और खपच्चियाँ, पुरानी दफ्तियाँ, सफेद चूना, नील और कुछ रंग जो आसानी से मिल जाया करते। इतने सामान में किला बन जाता। मैं उनको बनाते हुए देखता तो उनसे कहता मौसी (तब चलन में आंटी शब्द नहीं आया था) हमारे घर में भी किला बना दो तो वे कहतीं, अपनी मम्मी से हमको मजूरी दिलवाओ तो हम बनाने आ जायेंगे। अपन मम्मी से जिद करते। फिर मम्मी कहतीं मौसी के पास यही काम भर रह गया है क्या, लेकिन मम्मी भी दीवाली आते-आते मेरी खातिर एक सुन्दर सा किला बना देतीं। वो कम से कम तीन मंजिल का छोटा सा किला होता जिसमें नीचे तीन-चार द्वार, सामने बाउण्ड्री, एक तरफ से ऊपर की मंजिल में जाने की सीढ़ी, फिर दूसरी मंजिल में दो दरवाजों वाले कमरे और उसके ऊपर एक मंजिल।

किला बनाना आसान काम तो न होता। गोबर, मिट्टी और भूसे को मिलाकर गीला करके साना जाता। ईंट जमाकर स्वरूप बनाया जाता। मिट्टी थाप-थोपकर उसकी फिनिशिंग की जाती। हाँ प्रत्येक मंजिल पर कंगूरे भी बनाये जाते। सूख जाने पर गोबर से पूरा लीपा जाता। जब वह सूख जाता तब चूना, नील, मुरम और रंगों से उसको सुन्दर बनाया जाता। बन जाने के बाद किला बड़ा सुन्दर लगता। शायद एक किले का कुछ क्षेत्रफल दो गुणा तीन होता होगा लेकिन तब हर घर के बाहर के आँगन में हम जैसे हर बच्चों की माँ किला बनाया करतीं। दीवाली की रात हम लोग उसमें दीये भी लगाते। रात में रोशन किला क्या खूब लगता।

पता नहीं कब यह स्मृतियों से छूट गया। बाद में धीरे-धीरे दीपावली के त्यौहार में किले बनाये जाने का चलन खत्म होता गया। अब तो यह किले हमउम्र लोगों की स्मृतियों में होंगे। इसका कारण यह है कि धीरे-धीरे परम्पराएँ सब छूटती चली गयीं हैं। त्यौहारों की पारम्परिकता, उसको अपने जीवन के आनंद का उत्सव बनाने के लिए पुरखों और पूर्वजों द्वारा स्थापित और संरक्षित किए गये लोकाचार अब नहीं दिखायी देते।

हमारी दादी, नानी, बुआ, मौसी, माँ के घरेलू पकवानों का जैसे दौर ही जा चुका है। अब बाजार में वे घरेलू पकवान सामान्य मिठाइयों और खाद्य पदार्थों से ज्यादा महत्व के साथ प्रदर्शित हैं, अधिक महँगे दाम में। हमारे लिए अब वह एक एलीट और पॉलिश्ड आकर्षण का काम करता है...............इन्हें थोड़ा-बहुत ला और खाकर हम अपनी स्मृतियों को ताजा करते हैं...........




मंगलवार, 16 अगस्त 2016

फिल्‍म - काश (तीस साल पहले)



छोटी सी है बात.........

ऐसे ही कुछ प्रीतिकर गानों, जैकी श्राॅफ, डिम्पल, राजेश रोशन आदि को याद करते हुए महेश भट्ट निर्देशित फिल्म काश की याद आ गयी है जिसको प्रदर्शित हुए अब तीस वर्ष होते आ रहे हैं। एक छोटी सी, सीमित सी लेकिन बड़ी भावनात्मक, मन को छू लेने वाली फिल्म। दरअसल हर फिल्म के पीछे दर्शक की एक जिज्ञासा यही रहती है कि फिल्म बनाने वाले ने विषय को किस तरह अपनी दृष्टि दी है, अपेक्षा उस सम्यक दृष्टि की होती है जिसके माध्यम से फिल्म का रस सब तक पूरे आस्वाद तक पहुँचे। यदि फिल्म देखते हुए उसकी अनुभूति से आप सिहरे नहीं तो फिर वह व्यर्थ ही है और पाॅपकार्न चबाने, चाय-काॅफी पीने और समय का नाश करने के अलावा सिनेमा फिर और क्या उपक्रम हो सकता है?
बहरहाल बात काश की कर रहा हूँ जिसके अचानक फिर याद आने और तब की देखी अब स्मृतियों को टटोलने पर टुकड़ा-टुकड़ा जुड़ते चले जाना उसकी खूबी है जो महेश भट्ट की दृष्टि और परख का भीतर छुअनभरा कमाल है। यह एक ऐसे सितारा नायक की कहानी है जिसका अच्छा खासा समय चल रहा है। अच्छे खासे समय के अच्छे खासे और मुँह देखे संगी भी हैं। सितारों का अच्छा समय, फिल्मों के चलते रहने से चलता रहता है, फ्लाॅप हो जाने से बुरे समय में बदल जाता है। इस नायक के साथ भी ऐसा होता है जिसकी एक खूबसूरत पत्नी और एक सात-आठ साल का छोटा सा बच्चा भी है।
विफलता नायक को शराब में डुबो देती है और पारिवारिक जीवन को संकट में डाल देती है। पत्नी का काम करना शान के खिलाफ है, यही अलगाव की वजह। बेटा, नायक के पास है, नायिका अकेली अपने समय से लड़ रही है। इसी बीच बच्चे को जानलेवा बीमारी का पता नायक को चलता है। एक बड़ी विपदा आखिरकार टूटे और हारे नायक को अपनी पत्नी के सामने ला खड़ा करती है जिसमें एक सामंजस्य की आपसी गुजारिश है कि जब तक बेटे की जिन्दगी है, साथ रहें। फिल्म का अन्त बेटे के नहीं रहने से होता है लेकिन अब फिर से नायक और नायिका दूर जाने की मनःस्थिति में नहीं हैं........
इस पूरे कथानक को बड़ी महीन संवेदना के साथ बुनकर निर्देशक ने प्रस्तुत किया है। जैकी श्राॅफ नायक, डिम्पल नायिका और बेटे की भूमिका में मास्टर मकरन्द। सहायक भूमिकाओं में मेहमूद, सतीश कौशिक, अनुपम खेर आदि। बहुत बड़ा झामा नहीं है फैलाव के लिए और गुंजाइश भी नहीं और इसी सूझ के साथ एक त्रासदी से लौटने और अपने-अपने हिस्से की कमियों को पहचानने की कोशिश फिल्म को महत्वपूर्ण बनाती है। डिम्पल नायिका और बच्चे की माँ के रूप में अपने किरदार में बड़े गहरे उतर जाती हैं। जैकी हमेशा अपने निर्देशकों के शुक्रगुजार होते हैं कि सबने मिलकर उनको गढ़ा और उनसे किरदार निकलवाये लेकिन सच यह है कि जैकी खुद निर्देशकों का चाहा बहुत अच्छे से प्रस्तुत करके देने में बड़ी मेहनत करने वाले कलाकार हैं। यहाँ वे स्टारडम, चकाचैंध और उसमें एक नकली दुनिया से घिर जाने वाले और एक ही पल में अलग-थलग पड़ जाने वाले सितारे की भूमिका को बखूबी जीते हैं। मकरन्द तो खैर कहानी की धुरि है ही।
कुछ अच्छे दृश्य हैं जैसे शराब के नशे में नायक का झगड़ा करना, पिट जाना और फिर इस विषय में बेटे का पिता को समझाना, नायिका के साथ रेल वाला दृश्य जिसमें बच्चा ऊपर बर्थ में सो रहा है, एक गाना छोटी सी है बात, बेटे के लिए समझौते के तहत साथ रहने की गुजारिश और भी बहुत कुछ। इस फिल्म के गाने फारुख कैसर ने लिखे हैं जिनको अपनी गहरी कल्पनाशीलता से राजेश रोशन ने संगीत से समृद्ध किया है।
ओ यारा तू प्यारों से है प्यारा, फूल ये कहाँ से आये हैं, बाद मुद्दत के हम तुम मिले, छोटी सी है बात आदि किशोर कुमार, आशा भोसले, अनुपमा देशपाण्डे, साधना सरगम ने जिस भाव से गाये हैं, आज भी उसी तरलता और सम्पे्रषणीयता के साथ आप सुनकर आनंदित हो लीजिए......................

Keywords - thirty years of film kaash.... remembring by sunil mishr.......jackie shroff, dimple kapadia, anupam kher, mehmood, master makrand, satish kaushik etc.....

मंगलवार, 26 जुलाई 2016

सुभाष घई का सिनेमा और दृष्टि

सुभाष घई को अभिनय का शौक था। मुझे याद है मैंने उनकी खलनायक की भूमिका वाली एक फिल्म नाटक 1975 में देखी थी। इस फिल्म के हीरो विजय अरोरा थे और हीरोइन मौसमी चटर्जी। जिन्दगी एक नाटक है, हम नाटक में काम करते हैं.....यह गाना भी इन पंक्तियों को लिखते हुए याद आता है। कुछेक छोटी-मोटी भूमिकाओं के बाद घई ने यह तय पाया कि वे अभिनय में सफल नहीं हो पायेंगे। बाद में निर्देशक के रूप में उनका सक्रिय होना सफल रहा। कालीचरण से लेकर कांची तक फिर उनकी एक लम्बी यात्रा है जिसमें राजकपूर के बाद दूसरे बड़े शोमैन का रुतबा भी उनको हासिल हुआ है।

सुभाष की निर्देशक के तौर पर सफलता उनको अपने समय का एकछत्र साम्राज्य भी दिलाती है। वे कालीचरण के बाद विश्वनाथ, गौतम गोविन्दा, कर्ज, क्रोधी, विधाता, हीरो, कर्मा, रामलखन, सौदागर, खलनायक, त्रिमूर्ति, परदेस, ताल आदि फिल्में बनाते गये और विस्तार लेते गये। सुभाष घई ने सचमुच सिनेमा में निर्देशक के वजूद का एहसास कराया। सशक्त फिल्में, सफल फिल्में, अनेक अभिनेत्रियों माधुरी, मनीषा, महिमा और अभिनेता जैकी श्राॅफ के गाॅडफादर की तरह वे जाने गये। हालांकि बाद में उनका करिश्मा कम हुआ। किसना टाइप फिल्में याद आती है लेकिन एक अच्छी फिल्म ब्लैक एण्ड व्हाइट उन्होंने निर्देशित की। युवराज में हीरो, कर्मा, रामलखन और सौदागर सा चमत्कार नहीं हुआ और कांची बिल्कुल पटरी से उतरी फिल्म।

सुभाष घई सचमुच में निर्देशकों के बीच एक शख्सियत हैं। इधर अन्तराल उनके हाथ से सफलता की पकड़ छुटाता चला गया है। कांची की पटकथा और संवाद ऐसे प्रतीत हुए जैसे सेट पर ही तय कर करके फिल्म शूट करते चले गये हों। खैर, सुखद है कि वे अगली फिल्म के बारे में सोच रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि नयी फिल्म पर उनकी पकड़ उनके स्वर्णिम इतिहास का अगला पड़ाव साबित होगी.............

भव्यता, प्रस्तुतिकरण, बंधे-सधे हुए दृश्य और संगीत की अनूठी समझ और दृष्टि उनकी खूबी है। उनकी फिल्मों में नायक-नायिका ही सब कुछ नहीं होते बल्कि चरित्र अभिनेताओं पर भी वे अधिक ध्यान देते हैं, यही कारण है कि दिलीप कुमार, राजकुमार, संजीव कुमार, शम्मी कपूर, अमरीश पुरी, सुषमा सेठ, सतीश कौशिक, अनुपम खेर, प्रेमनाथ, प्राण आदि के चरित्र खूब उभरकर सामने आये हैं। वे अपनी फिल्मों में जज्बाती दृश्यों, रसूखदार और अमीर किस्म के अहँकारी किरदारों, कुटिल, धूर्त और छलछिद्री रिश्तेदारों के चरित्र भी बखूबी पेश करते हैं। सुभाष घई की फिल्मों में प्रेम, रिश्ते-नाते, भावनाओं का प्रकटीकरण ऐसा होता है कि आपका हृदय सजल हो जाये। ये बातें युवराज फिल्म तक बखूबी आयी हैं। वे अपनी फिल्मों में अपने अभिनेता को कम से कम एक दृश्य का हिस्सा बनने से नहीं रोक पाते, यह भी उनकी खूबी है।

सुभाष घई हमारे हिन्दी सिनेमा के निर्देशकों में उन चन्द प्रमुख फिल्मकारों में से हैं जिनसे सिनेमा, सिनेमा के सितारे नियंत्रित होते हैं और वह भी उनकी शर्तों, उनके अनुशासन और उन पर विश्वास करते हुए..................

Keywords - subhash ghai and his cinema by sunil mishr.......kalicharan, karz, krodhi, vidhata, karma, ramlakhan, hero, saudagar, pardes, taal, yuvraj......dilip kumar, rajkumar, sanjeev kumar, shammi kapoor, amrish puri, satish kaushik, anupam kher, premnath, pran......सुभाष घई का सिनेमा और दृष्टि - सुनील मिश्र

शनिवार, 23 जुलाई 2016

रंगों के रसिक थे सैयद हैदर रजा



रजा साहब का जाना मध्यप्रदेश में जन्मे, अपनी मातृभूमि को बेहद प्यार करने वाले एक ऐसे संवेदनशील कलाकार की विदाई है जिन्होंने बड़ी ही छोटी उम्र से जीवन की सूक्ष्मताओं और भावनाओं को बड़े महीन एहसासों के साथ ग्रहण किया। उनसे कुछ वर्ष पूर्व भोपाल में एक लम्बी मुलाकात में बहुत सी बातों को सुनने और जानने का मौका मिला था। उस समय करीब 86 की उम्र में भी जिस तरह से वे बात कर रहे थे, सचमुच लग रहा था कि अपनी मिट्टी के नजदीक बने रहने वाला इन्सान दुनिया में कहीं भी चला जाये, मिट्टी से छूटता नहीं।

रजा साठ साल से ज्यादा पेरिस में रहे लेकिन साल में एक बार हिन्दुस्तान, मध्यप्रदेश और अपनी जन्मभूमि बावरिया, नरसिंहपुर, मण्डला, शिक्षास्थली दमोह के निकट तक जाना, वहाँ की मिट्टी को माथे से लगाना उनका छूटता नहीं था। उन्होंने बताया था कि कैसे नर्मदा के आसपास विंध्याचल और सतपुड़ा के प्राकृतिक सौन्दर्य ने बचपन को एक अलग ही अनुभूतियों में ढालने का काम किया। रजा साहब को अपने मास्टर बेनीप्रसाद स्थापक याद रहे जो हिमालय के आश्रम में जाते थे तो लौटकर प्रकृति और जीवन के बारे में बताते।

रजा किशोर अवस्था में ड्राइंग बनाते थे, तारों को पर्वतों को देखकर। उनके शिक्षक दरियाव सिंह राजपूत उनकी ड्राइंग की बड़ी प्रशंसा करते थे। आगे चलकर वे नागपुर गये जहाँ वे अपने गुरु बापूराव आठवले को कभी भूल न पाये। रजा कहते थे कि युवावस्था में मेरा दिमाग उतना जाग्रत नहीं था जितना हृदय। गांधी जी की बात वे बताते थे, बुद्धि तो हृदय की दासी है। रजा साहब अपने अध्यापकों, गुरुजनों के प्रति जितना कृतज्ञ होते थे वह बात अनूठी है।

रजा साहब को चित्र और कविता दोनों ही का समान रुझान रहा है तथापि वे ख्यात एक बड़े चित्रकार के रूप में हुए। उनके घर में कवि गोष्ठी और शायरी की सभाएँ होती थीं। मैथिलीशरण गुप्त, सुमित्रानंदन पन्त की कविताएँ उनको स्मरण रहीं। वे भगवद्गीता से लेकर आचार्य विनोवा भावे को लेकर बहुत बातें किया करते थे। रजा साहब की सृजन यात्रा नागपुर से जे जे स्कूल आॅफ आर्ट्स मुम्बई और अपने समकालीन कलाकारों आरा सूजा, बाकरे, गाडे सबके साथ मिलकर एक ग्रुप भी बनाया। उनका फ्रांस जाना यहीं से हुआ।

रजा ने बताया था कि फ्रांस में अनेक वर्ष रहते हुए कला पर व्यापक विचार के अवसर मिले लेकिन मुझे अपने बचपन के गुरु जड़िया जी का स्मरण हो आया तब मैंने बिन्दु को अपना मूलमंत्र बना लिया। बिन्दु की सम्भावनाएँ, विसर्ग, प्रकृति पुरुष की अवधारणा, मेरा मण्डला। भारतीय संस्कृति, चित्रकला, मूर्तिकला को समझने की कोशिश की। नंदलाल जड़िया, अपने गुरु को आदर देते हुए वे बिन्दु पर गहन एकाग्र हुए। रजा ने बिन्दु सीरीज के चित्रों में स्याह-सफेद के बाद रंगों का प्रयोग किया। बताया था, क्षिति जल पावक गगन समीरा, ये पंचतत्व, भारतीय संस्कृति। मेरे चित्रों में पाँच रंग, मेरा संसार पाँच रंगों का, क्यों न इनको ही मैं अपना पंचतत्व बना लूँ? मैंने ऐसा किया। कुछ समय बाद सबको यह पसन्द आने लगा।

सैयद हैदर रजा को वर्ष 1992-93 में रूपंकर कलाओं के क्षेत्र में राष्ट्रीय कालिदास सम्मान प्रदान किया गया था। उस्ताद अलाउद्दीन खाँ संगीत अकादमी में अपनी सहभागिता से उन्होंने कविता और पेंटिंग के क्षेत्र में रजा पुरस्कारों की स्थापना की पहल भी की। उनको पद्मश्री, पद्मभूषण एवं पद्मविभूषण अलंकरण भी प्राप्त हुए। दुनिया के अनेक देशों और हिन्दुस्तान के अनेक कला संग्रहालयों में उनकी कलाकृतियाँ संग्रहीत हैं। नईदिल्ली में रजा फाउण्डेशन उनकी स्थापना है।

रजा को भारतीय संस्कृति और परम्परा पर गर्व रहा है। रजा वास्तव में ऐसे कलाकार थे जिनको रंगों का रसिक कहा जा सकता है। इस बात को उन्होंने स्वयं भी कहा था। रंग, कविता और संगीत मिलते-जुलते हैं। वे कहते थे कि भारतीय संस्कृति शताब्दियों से उपस्थित है। मूर्ति में, कला में, गुफाओं में, पहाड़ों में इसका दर्शन होता है। हमारे मन्दिरों में, हमारे घरों में, हमारी परम्पराओं में भी। वे कहते थे कि प्रत्येक भारतीय को इसका बोध होना चाहिए, केवल कला ही नहीं पत्रकारिता, कविता, तकनीक, आॅफिस में काम करने वाले, राजदूत, सरकार के लोग सबकी जिम्मेदारी देश की संस्कृति को आगे बढ़ाना है। यह आवश्यक है क्योंकि भारतीय संस्कृति महान है।

कुछ वर्ष पूर्व एक आत्‍मीय बातचीत को याद करते हुए श्रद्धां‍जलि.

Keywords - sayed haider raza : a tribute by sunil mishr.............rangon ke rasik the raza.... रंगों के रसिक थे सैयद हैदर रजा - सुनील मिश्र

बुधवार, 20 जुलाई 2016

मुबारक बेगम की याद


एक बड़े समाचार पत्र के प्रथम पृष्ठ पर मुबारक बेगम के नहीं रहने की मुकम्मल खबर थी। खबर थी जिसमें उनके अन्त समय की त्रासद स्थितियों का वर्णन था और इस बात का उल्लेख भी कि कितने कष्ट और मुसीबत में उनका परिवार था। आर्थिक कठिनाइयों ने उनका जीवन दुरूह कर दिया था जिसकी परिणति अन्ततः उस यथार्थ के रूप में जिसे मन अमान्य करता है पर सच में स्मृति ही तो शेष है। मुबारक बेगम के जाने से सबकी स्मृतियाँ पीछे दौड़ पड़ीं। हमारी याद आयेगी से लेकर मुझको अपने गले लगा लो ऐ मेरे हमराही..............अब ये गाने ही हमारी याद हैं। पहले गाहे-बगाहे कोई उनकी चिन्ता करते हुए अखबार में लिख देता था तो कुछ संवेदनशील चाहने वाले क्षमताभर मदद कर दिया करते थे। अब वे नाते भी न रहे। 

फिल्म डिवीजन ने कुछ वर्ष पहले मुबारक बेगम पर एक लघु फिल्म बनायी थी, लगभग 25 मिनट अवधि की। आज मुझे उस फिल्म की बड़ी जरूरत लगी, खूब देखने का मन किया मगर कहीं न मिली तब फिल्म प्रभाग मुम्बई के अपने अधिकारी मित्र को फोन कर के मैंने उनसे आग्रह किया कि वे इसे जरूर यू-ट्यूब पर प्रस्तुत करें। दरअसल इस समय उनको याद करने वाले, इस फिल्म को भी देखकर भावुक होंगे। बड़े-बड़े कलाकारों का संध्याकाल ऐसा ही हृदयविदारक हुआ करता है जब हमारा निष्ठुर पास-पड़ोस पहचानना बन्द कर दिया करता है। साथ काम करने वालों के पास वक्त नहीं होता। कुछ दूरियाँ तो भौगोलिक होती हैं और बड़ी दूरियाँ मन की। रिश्ते-नाते ऐसे ही निर्मम वर्तमान की भेंट चढ़ जाया करते हैं। 

मुबारक बेगम शिक्षित नहीं थीं लेकिन उनमें ग्राहृय करने की क्षमता, याद कर लेने की क्षमता असाधारण थी। वे अपने गाने बड़े आत्मविश्वास से रेकाॅर्ड करवाया करती थीं। उनके गाये गाने मिसाल हैं, भले ही कम हों। उनका योगदान असाधारण है भले ही बड़ी स्पर्धाओं और पक्षपात में रेखांकित न हो पाया हो। मुबारक बेगम का जाना, हमारे समय से, हमारे सिनेमा से उस तीखी आवाज़ की विदाई है जो कान से होती हुई हृदय में नर्म वेग से पहुँचती थी और हृदय से शिराओं में हमारे खून के संग-संग। दुख और पछतावे से हम इसलिए भी उनको याद कर सकेंगे कि हमने उनकी फिक्र न की...............

Keywords - mubarak begum : a tribute by sunil mishr.............hamari yad aayegi.....  मुबारक बेगम की याद........हमारी याद आयेगी...........मुझको अपने गले लगा लो, ऐ मेरे हमराही..............सुनील मिश्र

मंगलवार, 19 जुलाई 2016

फिर आग बिरहा की मत लगाना

संगीतकार रोशन की जन्‍मशती - 14 जुलाई 2016 - 2017


हिन्दी सिनेमा का इतिहास सौ साल पार कर गया है। हमारे सामने देखते ही देखते ऐसे गुणी कलाकारों की जन्मशताब्दी का वह समय भी आता चला जा रहा है जब हम उनको बीसवीं सदी की सबसे चमत्कारिक विधा में उनके अविस्मरणीय योगदानों के लिए याद कर सकते हैं। यह ऐसे समय में और महत्वपूर्ण और रचनात्मक दृष्टि से अपरिहार्य लगता है जब हमारे आसपास समकालीन के ही विस्मरण का एक अजीब सा, संवेदनात्मक दृष्टि से यदि कहें तो निर्मम सा सिलसिला चल पड़ा है जब आज को आज की खबर नहीं है। ऐसे में एक बड़े संगीतकार रोशन music director roshan को कैसे याद किया जायेगा, जब उनकी जन्मशताब्दी का साल 14 जुलाई से शुरू हो रहा हो। रोशन का याद आना एक बार फिर से अपने समय की उन महत्वपूर्ण फिल्मों का उनकी समग्रता में याद आना है जिसमें उन्होंने संगीत दिया था। रोशन सरोकारों और विशिष्टताओं में कुछ खास गुणों के साथ जाने, जाने वाले संगीतकार थे जिनके समय सिनेमा में बेशक एक से एक श्रेष्ठ संगीतज्ञों के योगदान ने एक स्वस्थ किस्म की स्पर्धा खड़ी की थी लेकिन उनके बीच रोशन का रास्ता भी उजासभरा था। 

कुछ समय पहले ही उनके गुणी बेटे और अब तक के समय के शायद आखिरी मौलिक संगीतकार राजेश रोशन rajesh roshan से कुछ मुलाकातें हुईं हैं। अपने पिता के बारे में उन्होंने कहा था कि बेहद सादगी, मैत्रीपूर्ण व्यवहार और बिना किसी नाज-नखरों अथवा आवश्यकताओं की मांग किए बिना ही पिताजी को श्रेष्ठ रचने का शगल था। वे अपनी धुनों, अपनी रचनाओं को अन्तिम निर्णय पर तब तक नहीं ले जाते थे जब तक उनके पाश्र्व गायक और वे कलाकार जिन पर उनके गीत फिल्माये जाने हैं, उनके साथ अनेक बैठकें नहीं हो जाती थीं और वे परस्पर सन्तुष्ट नहीं हो जाते थे। रोशन को विविध वाद्यों, विशेषकर दुर्लभ वाद्यों के साथ काम करने की चुनौतियाँ उठाने में बहुत आनंद आता था। वे स्वयं इसराज बहुत अच्छा बजाते थे। चालीस के दशक में भातखण्डे संगीत संस्थान लखनऊ में उन्होंने इस साज को साधने की तालीम ली थी और अपने आपको परिष्कृत भी किया था। उस समय के उनके गुरु पण्डित श्रीकृष्ण नारायण रातजनकर जो कि भातखण्डे के प्रमुख थे, उनसे बहुत प्रभावित रहते थे। 

रोशन का पूरा नाम रोशनलाल नागरथ roshanlal nagrath था। पंजाब के गुजरांवाला में उनका जन्म 14 जुलाई 1917 को हुआ था। संगीत के प्रति उनका लगाव शुरू से था, इसका कारण उनके परिवेश का आंचलिक संगीत था। धीरे-धीरे उनकी शास्त्रीय संगीत के प्रति भी गहरी रुचि बनती गयी। ऐसे समय में जब कला के विस्तार के लिए अपने आसपास के विश्व में रेडियो और सिनेमा दोनों का ही आकर्षण संगीत और अभिनय में रुचि रखने वाले युवा के लिए खासा आकर्षण रखता हो, रोशन को लखनऊ का मार्ग अपने लिए ज्यादा उपयुक्त लगा और वहीं से उनकी आगे की यात्रा मुम्बई की ओर होती है। उनको आॅल इण्डिया रेडियो नई दिल्ली में संगीतज्ञ के रूप में काम कर रहे ख्वाजा खुर्शीद अनवर की शागिर्दी भी हासिल हुई जो दरअसल मुम्बई की ओर रुख करने में अनुसरण बनी। रोशन को राजकपूर के गुरु किदार शर्मा एक प्रोत्साहक और यथापूरक भगीरथ की तरह मिले। इसके बाद रोशन की अपनी यात्रा अनेक उतार-चढ़ावों भरी है। 

एकाध फिल्म में छोटे-मोटे किरदार करते हुए वे अपने आपको एक संगीतकार के रूप में बड़ी मेहनत से साबित करने धीरे-धीरे कामयाब हुए। उनकी आरम्भिक फिल्में बावरे नयन, मल्हार, हम लोग, नौबहार, बाप बेटी, चांदनी चैक, बराती, घर घर में दिवाली, दो रोटी, अजी बस शुक्रिया, हीरा मोती से उनको काम करने की निरन्तरता तो मिली लेकिन इतनी फिल्मों में काम करने के तजुर्बे के बाद वह सब बड़ा सुखद और चकित कर देने वाला आया जब उनकी फिल्म बरसात की रात प्रदर्शित हुई। जिन्दगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात और न तो कारवाँ की तलाश है न तो हमसफर की तलाश है जैसे गानों ने जब धूम मचायी तब लोगों ने उसके पीछे संगीत रचयिता रोशन को लाना। इन गीतों के सफल होने के बाद ही दर्शकों को फिर नौबहार में लता मंगेशकर से उनका गवाया गीत, ऐ री मैं तो प्रेमदीवानी मेरा दरद न जाने कोय याद आया। भारतीय दर्शकों के मन-मस्तिष्क में रोशन एक सम्भावनाभरे संगीतकार के रूप में दर्ज हुए। न तो कारवाँ की तलाश है एक लम्बी कव्वाली थी और बाद में रोशन इस बात के लिए भी ख्यात हुए कि उनसे बेहतर कव्वाली कोई और संगीत-संयोजित नहीं कर सकता।

रोशन की ही एक फिल्म आरती का मीना कुमारी पर फिल्माया गीत, कभी तो मिलेगी कहीं तो मिलेगी, बहारों की मंजिल राही लता मंगेशकर के स्वर का एक अविस्मरणीय गीत है जिसका फिल्मांकन और संगीत रचना कमाल की है। बाद में उन्होंने सूरत और सीरत, ताजमहल, दिल ही तो है, चित्रलेखा, नयी उमर की नयी फसल, भीगी रात, बेदाग, ममता, देवर, दादी माँ, बहू बेगम, अनोखी रात आदि फिल्मों की भी संगीत रचना की। वे अपने समय के सभी श्रेष्ठ गायक-गायिकाओं के साथ काम करते थे जिनमें लता मंगेशकर, आशा भोसले, हेमन्त कुमार, मुकेश, मोहम्मद रफी आदि। सभी से उनका अपनापा था, इसलिए भी क्योंकि वे तटस्थ थे और अपने काम के अलावा व्यक्तिगत रागद्वेष और खेमों से दूर रहा करते थे। राजेश रोशन अपना बचपन याद करके बताते हैं कि हम बहुत छोटे थे, घर में उस समय एयरकण्डीशन या कूलर की स्थितियाँ नहीं थीं। छत पर पंखा रहता था और पिताजी कलाकारों के साथ रियाज और अभ्यास में दिन-रात एक कर दिया करते, बिल्कुल पसीने से लथपथ और बड़ी बात यह भी कि बैठक में सहयोगी कलाकार भी उतना ही सहयोग करते और उदारतापूर्वक अपेक्षा किए जाने पर हर समय आ जाया करते। 

न तो कारवाँ की तलाश है कव्वाली के जिक्र के समय यह बात आयी थी कि रोशन कव्वाली तैयार करने में बड़ी दिलचस्पी लेते थे। दिल ही तो है फिल्म में निगाहें मिलाने को जी चाहता है की बात इससे जुड़ती है। उनकी अनेक फिल्में ऐसी हैं जिनके गाने हमारी संवेदना को सीधे जाकर छूते हैं। ताजमहल, जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा या पाँव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी, प्रेम में वचन के निबाह और पैरों की नजाकत को फूलों से बढ़कर ठहराते हैं। चित्रलेखा का गाना मन रे तू काहे न धीर धरे, शास्त्रीय राग पर आधारित है वहीं अनोखी रात के गाने ओह रे ताल मिले नदी के जल में गहरा दार्शनिक, खुशी खुशी कर दो विदा गहन उद्वेलन से भरा भावपूर्ण गाना है। देवर में आया है मुझे फिर याद वो जालिम गुजरा जमाना बचपन का, बहारों ने मेरा चमन लूटकर, दुनिया में ऐसा कहाँ सबका नसीब है भावपूर्ण और मन को गहरे छू लेने वाले गाने हैं। असित सेन निर्देशित फिल्म ममता में उनके गाने छुपा लो यूँ दिल में प्यार मेरा और रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह प्रेम की महानता और अनुभूतियों के चरम उत्कर्ष के गाने हैं। रोशन ऐसे गीतों का संगीत रचकर आज भी अमर संगीतकार की तरह याद आते हैं।

राजेश रोशन rajesh roshan अपने पिता को याद करते हैं तो स्मृतियों में बड़े पीछे जाते हैं। वे लगभग दस-बारह वर्ष के रहे होंगे जब रोशन साहब का पचास वर्ष की उम्र में निधन हो गया था। उन्होंने अपने पिता को अपनी चेतना में बहुत सक्रिय और धुनी स्वरूप में देखा था। बड़े भाई पहले नायक और बाद में निर्देशक बने लेकिन राजेश रोशन ने संगीत निर्देशक ही बनना चाहा। वे बताते हैं कि भैया राकेश रोशन भी संगीत की गहरी समझ रखते हैं, यह पिता का ही संस्कार है और यही कारण है कि उनकी फिल्मों का संगीत तैयार करते हुए मेरे उनसे रचनात्मक द्वन्द्व खूब चलते हैं लेकिन श्रेष्ठता के धरातल पर हम आकर एक हो जाते हैं। अपने पिता के योगदान को राजेश रोशन कृतज्ञतापूर्वक याद करते हैं और कहीं न कहीं अपने आपको गहरी अन्तरात्मा के साथ मौलिकता और माधुर्य के गुणों का बोध बनाये रखने के पीछे पिता के संस्कारों का स्मरण करते हैं। संगीतकार रोशन की आभा रोशनी को उनके अभिनेता और निर्देशक बेटे राकेश रोशन और पोते हि‍ृतिक रोशन ने और समृद्ध किया है। राजेश रोशन का संगीत आज भी जीवन की लय और माधुर्य की असीम अनुभूतियों का अनूठा साक्ष्‍य और उदाहरण माना जाता है।

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रविवार, 10 जुलाई 2016

सुल्तान (Film Review : Sultan)



अली अब्बास जफर (Ali Abbas Zafar) ने लम्बे समय यशराज फिल्म्स में सहायक निर्देशकी की है। उनको शाद अली, संजय गढ़वी और विजय कृष्ण आचार्य के साथ काम करने का लम्बा अनुभव है। मेरे ब्रदर की दुल्हन और गुण्डे उनको स्वतंत्र रूप से निर्देशित करने को मिलीं और सुल्तान (Sultan) उनकी तीसरी फिल्म जिसके लेखक, पटकथाकार, संवाद लेखक और निर्देशक वे हैं। बाजार देखकर कहें तो फिल्म सफल है, सबसे लम्बा सप्ताहान्त फिल्म को मिला है। आकलन करें तो अनेक खूबियों के साथ एक बेहतर फिल्म है। सम्पादन के स्तर पर और सम्हाल लिया जाता तो साढ़े तीन अन्यथा तीन सितारों वाली फिल्म है सुल्तान।

यशराज फिल्म्स (Yash Raj Films) के मूल स्वभाव में पंजाब और हरियाणा के परिवेश, वहाँ की बोली-बानी और नैसर्गिकता को किसी फिल्म की पृष्ठभूमि बनाने का चलन शुरू से है। सुल्तान में हरियाणा है। निश्चित रूप से सुल्तान की कहानी और पटकथा तैयार करते वक्त नायक के रूप में सलमान (Salman) तय हो गये थे लिहाजा उसी हिसाब से चरित्र रचा गया है। मनुष्य को जीवन में लक्ष्य किसी न किसी तरह की चोट खाकर ही दिखायी देता है। यहाँ भी नायक के गाल पर नायिका की हथेली है। एक दिलचस्प फिलाॅसफी है, डाॅक्टर की शादी डाॅक्टर के साथ, इंजीनियर की शादी इंजीनियर के साथ तो पहलवान की शादी भी पहलवान के साथ।

सफलता और लोकप्रियता के साथ अपनी जमीन से उखड़ना, टूटना और अहँकार ओढ़ लेना फिल्म का मोड़ है। यहीं पर एक घटना, दुर्लभ श्रेणी का खून न मिलने की समस्या, ब्लड बैंक स्थापित करने के लिए मंत्री की बरसों से भेजी फाइल के लौटकर न आने की विडम्बना। घोर नैराश्र्य के बाद फिर अपनी शक्तियों को संचित करना, जूझना और जीतना फिल्म का सार है। अनिल शर्मा की अपने, राकेश ओमप्रकाश मेहरा की भाग मिल्खा भाग आदि बीच-बीच में याद आती हैं। हमारे यहाँ पूर्णतः मौलिकता हमेशा समस्या है। प्रेरित या प्रभावित किसी से भी हुआ जा सकता है।

देसी पहलवानी से आधुनिक कुश्ती तक एक माहौल फिल्म में है। एक ऐसा खेल जिसका हीरो एक ही होता है जो जीतता है। फिल्म के दो भाग हैं, एक नायिका को पाने के लिए विजेता बनना जिसमें प्रेम और ख्वाहिशें चरम पर हैं दूसरी ओर दोबारा अपनी पत्नी के हृदय में अपना वही स्थान बनाना जिसे खोया जा चुका है। निर्देशक दोनों जगहों पर अपनी क्षमताओं का परिचय देता है लेकिन पहले भाग में उसकी कल्पनाशीलता निखर कर आती है। हालाँकि पतंग लूटने की दक्षता और उसके प्रसंग आवश्यक नहीं लगते लेकिन रखे गये हैं। इसी प्रकार बाद में भी अप्रासंगिक गाने फिल्म के लिए कोई मददगार नहीं होते। जितनी देर नायक नासमझ दीखता है, उतने समय में सुल्तान अपनी खूबियों के साथ स्थापित होता है। पत्रकारों से बात करते हुए पहले और दूसरे भाग के दृश्य और प्रसंग किसी भी लोकप्रिय या प्रतिष्ठित इन्सान के विवेक को जाँचने के लिए काफी हैं। उत्तरार्ध में कुश्ती में जीतने के जुनून और उसमें हर अगले पल के प्रति अनिश्चितता वह रोमांच खड़ा नहीं करती जो फिल्म को सार्थक रूप से अन्त तक ले जाये। उसमें जितनी देर, कैमरे के जितने नजदीक से सलमान की छबि को लिया गया है, उम्र नजर आती है। यदि पहले भाग की खूबसूरत रूमानी कहानी को ही उत्तरार्ध में भी संवेदनशील विस्तार देते हुए समाधान निकाल लिया जाता तो फिल्म यशराज का एक और बड़ा और इस दौर का अच्छा उदाहरण बन जाती। 

सलमान खान, स्वाभाविक रूप से अपने पहले भाग में खूब जँचते और फबते हैं। अंग्रेजी न जानना, अंग्रेजी में की गयी फजीहत को भी अपने लिए पुरस्कार मानकर उसे अपने लिए दोहराना दिलचस्प है। बड़ी उम्र तक जीवन के अर्थ को न समझना, परिवार में बच्चा बने रहना, मोहल्ले और आसपास भी गम्भीरता से न लिया जाना, बहुतों का बचपन रहा है लेकिन यह भी उदाहरण हैं कि अनेक ऐसों को जीवन एक दिन समझ में खूब आया है। इस फिल्म का खूबसूरत पक्ष यह भी है कि इसमें कोई खलनायक नहीं है, गुण्डे नहीं हैं, उस तरह की मारपीट नहीं है। फिल्म को सीधे-सीधे जीवन और लक्ष्यों के साथ-साथ प्रेम और निष्ठा पर केन्द्रित किया गया है। सलमान इन जगहों पर अपनी क्षमताओं का परिचय देते हैं। झूले पर पदक छोड़ आना और आखिरी लड़ाइयों में वह स्मृतियों में कौंधना प्रभावी लगता है। अपने स्पर्धी को पछाड़ने के बाद नमस्कार करके क्षमा मांगना भी दिलचस्प है। अनुष्का शर्मा यशराज कैम्प की नायिका हैं। सलमान पहली बार उनके साथ हैं। उनको एक पहलवान की बेटी और संस्कार में कुश्ती की दक्षता एक अच्छी स्थापना है। वे मेकअपरहित हैं लेकिन भावपूर्ण दृश्यों में अपनी छाप छोड़ती हैं। उनका अपने नायक से रूठना और बड़ी मुश्किल से माफ करना दोनों गहरे हैं। 

यह फिल्म वास्तव में सहयोगी कलाकारों के अच्छे और आश्वस्त काम से और बेहतर लगती है जिसमें अनुष्का के पिता के रूप में कुमुद मिश्रा, सलमान के मित्र गोविन्द के रूप में अनंत शर्मा, छोटी सी भूमिका में परीक्षित साहनी, दोबारा कुश्ती की दुनिया में लेकर आने वाले परीक्षित के बेटे की भूमिका में अमित साध के किरदारों को याद रखना चाहिए। कुमुद मिश्रा का बांदर वाला संवाद दिलचस्प है। फिल्म के गीत इरशाद कामिल ने खूब लिखे हैं। विशाल-शेखर ने संगीत अच्छा तैयार किया है। राहत फतेह अली, सुखविन्दर सिंह, मीका सिंह और स्वयं शेखर का तैयार किया हुआ पाश्र्व गीत खून में तेरे मिट्टी प्रभावित करते हैं। सुल्तान को आॅर्टर जुराव्स्की की सिनेमेटोग्राफी  के लिए भी प्रशंसा की जानी चाहिए। यह पोलिश सिनेछायाकार मर्दानी से रानी मुखर्जी के सम्पर्क में आये और उनको सुल्तान की सिनेमेटोग्राफी मिली। सुल्तान आॅर्टर की कल्पनाशीलता और जोखिमपूर्ण सिनेछायांकन से ही रोमांचक बनी है। रामेश्वर एस. भगत को सम्पादन करने की थोड़ी स्वतंत्रता और मिलती या वे इसे कसी हुई ढाई घण्टे की फिल्म बनाते तो बात कुछ और होती। सलमान के लिहाज से कहें तो अब भी बजरंगी भाई जान उनकी सुल्तान से श्रेष्ठ फिल्म है। जोड़ने की बात यह भी है कि सुल्तान को इसके बावजूद दर्शक दोबारा देखना चाहेंगे अर्थात इस फिल्म की फिलहाल रिपीट वैल्यू भी है...............

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सोमवार, 20 जून 2016

पचास साल पहले तीसरी कसम



हिन्दी सिनेमा चमत्कार और त्रासदियों के सैकड़ों किस्सों का बिम्बीय साक्ष्य है। ऐसी अनेक कहानियाँ हैं जिनकी स्मृतियाँ सच्चाइयों से बढ़कर हैं, अनेक सच्चाइयाँ हैं जो कहानियों की तरह हमारे जहन में आज तक बैठी हैं। यह साल हिन्दी सिनेमा के विख्यात लेखक, पटकथाकार, शौकिया अभिनेता और एक पूरी तथा एक अधूरी फिल्म के निर्देशक नवेन्दु घोष की जन्मशताब्दी है। नवेन्दु घोष की बेटी वरिष्ठ पत्रकार और सिनेमा आलोचक रत्नोत्तमा सेनगुप्ता अपने पिता के जन्मशताब्दी वर्ष में अनेक उपक्रम कर रही हैं जिसकी शुरूआत वे आज रविवार को कोलकाता से कर रही हैं। इस अवसर पर उनके पिता का आखिरी उपन्यास कदम कदम का लोकार्पण हो रहा है। इसी अवसर पर एक लघु फिल्म मुकुल भी जो उनके पिता, पिता की लिखी एक महत्वपूर्ण फिल्म तीसरी कसम और गीतकार-निर्माता शैलेन्द्र का स्मरण करती है, दिखायी जा रही है। भावुक स्मृतियों में ये सतत संयोग हैं कि नवेन्दु घोष की जन्मशताब्दी के साल ही तीसरी कसम के पचास साल पूरे हो रहे हैं। 1966 में इस फिल्म का प्रदर्शन हुआ था और यही त्रासद साल फिल्म के निर्माता शैलेन्द्र के निधन का भी है, इस साल फिल्म के साथ ही शैलेन्द्र के निधन को भी पचास साल हो गये हैं।

तीसरी कसम को लेकर उसके प्रदर्शन के बाद, उसकी विफलता और विफलता से आहत होकर शैलेन्द्र के देहावसान के बाद जिस तरह से चर्चा होनी शुरू होती है, वो अपनी तरह का अचरज है। सिनेमा को बहुत गहराई से जानने वाले, सिनेमा के प्रदर्शन और उसके परिणामों का आकलन करने वाले कई बार श्रेष्ठ और उत्कृष्ट फिल्मों के बुरे परिणामों को लेकर चर्चा करते हैं। हम सभी के सामने किसी भी अच्छी या उत्कृष्ट फिल्म का असफल हो जाना कई तरह से चिन्तित भी करता है। हम उसके कारणों में जाना चाहते हैं। कहानी से लेकर पटकथा तक, कलाकारों के अभिनय से लेकर एक-एक दृश्य के निर्वाह तक, चुस्त और कसे हुए सम्पादन, मन को छू लेने वाली गीत रचना, कर्णप्रिय संगीत और आत्मा तक तरलता से बह जाने वाले स्वरों में पगे होने के बावजूद तीसरी कसम का विफल हो जाना वाकई एक गहरी चोट ही कही जाती है जो फिल्म के गीतकार और निर्माता शैलेन्द्र को लगी थी।

तीसरी कसम के बारे में कहा जाता है कि इस फिल्म में काम करते हुए राजकपूर ने निर्माता से एक भी पैसा नहीं लिया था। बासु भट्टाचार्य जो कि बिमल राॅय स्कूल के प्रशिक्षित निर्देशक थे, तीसरी कसम के एक-एक दृश्य, एक-एक फ्रेम पर घण्टों बहस करने और उसके बाद उसे अनुमोदित करने की जिद के साथ आगे बढ़ने वाले फिल्मकार थे। यह उनकी अपनी संवेदनशील सर्जना थी जिसमें उनके लिए पटकथा लेखन का काम नवेन्दु घोष ने किया था जो बिमल राॅय के लिए परिणीता, बिराज बहू, परख, बन्दिनी, देवदास आदि अनेकों श्रेष्ठ फिल्में लिख चुके थे। उनके लिए फणीश्वरनाथ रेणु की यह कहानी, फिल्मांकन के लिए गढ़ना एक बड़ी चुनौती रही है। तीसरी कसम पर बात करते हुए नवेन्दु घोष की बेटी रत्नोत्तमा सेनगुप्ता बतलाती है कि नवेन्दु दा को बचपन से अभिनय का शौक था। वे एक लेखक, कहानीकार होने के साथ-साथ छोटी भूमिकाओं के लिए लगभग लालायित रहते थे। उनके निर्देशक इस बात को जानते थे। यही कारण रहा कि बिमल राॅय, हृषिकेश मुखर्जी, बासु भट्टाचार्य आदि की फिल्मों में वे छोटी मगर किसी न किसी उद्देश्य के लिए गढ़े गये किरदार के रूप में दीखते थे। तीसरी कसम में वे उस शराबी की भूमिका में हैं जो नौटंकी प्रदर्शन के समय हीराबाई के लिए बुरे शब्दों का इस्तेमाल करता है और इसके बदले उसकी हीरामन से हाथापाई हो जाती है। इस छोटी सी भूमिका को करने के लिए नवेन्दु दा ने अपने को खूब तैयार किया था। राजकपूर उनसे हँसते थे, आपके साथ झूमा-झटकी का, मारपीट का दृश्य करना कठिन है, मेरे नायक के स्वभाव में भी लड़ाई-झगड़ा किसी फिल्म में नहीं रहा है लेकिन हीराबाई के मोह में मेरे चरित्र का यह उग्र पक्ष भी आपने ही लिख दिया है। सेनगुप्ता जोड़ती हैं कि दृश्य की गम्भीरता और बासु दा के निर्देशन ने पूरी फिल्म को ही एक यादगार बिम्बीय अनुभूति में बदलकर रख दिया था।

तीसरी कसम की सीधी-सच्ची कहानी है जिसका नायक हनुमान चालीसा पढ़ता है, गरीब गाड़ीवान है, बुद्धू सा जिसे जमाने की अकल नहीं है। कैसे वह एक के बाद एक मुसीबत में पड़ता है और चोरी की ढुलाई में पुलिस से पकड़ा जाना, बाँस ढोने से होने वाली दुर्घटना और पिटने पर कसमे खाता है। ये दो कसमें फिल्म के शुरू होने के बीस मिनट के अन्दर हीरामन खाता है। वह दृश्य भुलाये नहीं भूलता जब अपनी भाभी दुलारी से लिपटकर फूट-फूटकर रोने लगता है कि अब ऐसी गलती कभी नहीं करेगा, भाभी का उसके प्रति स्नेहिल होना, हिन्दी सिनेमा का मन को छू जाने वाला मार्मिक दृश्य है। उसकी तीसरी कसम के साथ ही फिल्म का अन्त होता है। एक कथा सी चलती है, उसे एक सवारी मिलती है जिसे उसको चालीस मील दूर के एक गाँव तक छोड़कर आना है। एक अच्छी सी बैलगाड़ी है, स्वस्थ सलोने से बैल हैं, घुंघरू बंधे हैं और हीरामन चला जा रहा है। हीरामन पहले नहीं जानता है कि बैलगाड़ी के भीतर जो भी है वो कौन है? एक स्त्री है, वह कौन है, कैसी है! कल्पनाओं के साथ वह स्मृतिलोक में है। सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है, सजनवा बैरी हो गये हमार, दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी.......सारे गाने शैलेन्द्र के लिखे हुए, शंकर-जयकिशन संगीत रचनाकार, मुकेश गायक.............गानों का एक-एक शब्द गहरे अर्थों से भरा हुआ, सारा का सारा जीवन दर्शन, जीवन की क्षणभंगुरता का सन्देश, नैतिकता और चरित्र के विरोधाभासों पर बात। 

तीसरी कसम के बारे में इतने वर्षों में कितनी ही बार सोचने का अवसर आया है। अनेक बार इस फिल्म को देखना हुआ है, जितनी परिपक्वता में यह फिल्म देखी है, उतना ही ज्यादा विचलन बढ़ता गया है। इस फिल्म को बनाते हुए शैलेन्द्र इसकी सफलता की कामना के विपरीत परिणामों से छार-छार होकर चले गये लेकिन बाद में जैसे हर कोई इस फिल्म की संवेदना और मर्म की पड़ताल करने लगा। शैलेन्द्र के जीवन के बाद तीसरी कसम जैसे आत्मोत्सर्ग से परिणाम प्राप्त करने वाली उत्कृष्ट फिल्म के रूप में स्थापित हो गयी। राजकपूर और वहीदा रहमान का श्रेष्ठ अभिनय इस फिल्म को दर्शन और अनुभवों में कहाँ से कहाँ ले जाता है। श्वेत-श्याम फिल्म और खूबसूरत छायांकन कमाल है, विशेष रूप से सुब्रत मित्रा के सिने-छायांकन की यह अद्भुत फिल्म है, विशेष रूप से जिस प्रकार हीरामन और हीराबाई की चालीस किलोमीटर की यात्रा को यह फिल्म परदे पर सजीव करती है, ऐसा लगता है कि दर्शक आप इस यात्रा का हिस्सा है, वह अपने आपको डूबा हुआ महसूस करता है जब हीरामन गाते हुए कहता है, चिठिया हो तो हर कोई बाँचे, भाग न बाँचे कोय....................

और भीगी आँखों और हृदय में भरे गुस्से से हीरामन जब बैल को चाबुक मारकर स्टेशन से चल पड़ता है, तीसरी कसम खाते हुए कि अब किसी नाचने-गाने वाली बाई को बैलगाड़ी में नहीं बिठायेगा तो उसके साथ हमारी आँखें भी नम हो जाती हैं......................क्योंकि हीरामन का गुस्सा उन बैलों पर उतरा है जिनको वह बहुत प्यार करता था।

Keywords - Teesri Kasam, Raj Kapoor, Waheeda Rehman, Shailendra, Snunil Mishr, Ratnottama Senguta, तीसरी कसम, राजकपूर, वहीदा रहमान, शैलेन्‍द्र गीतकार, सुनील मिश्र, रत्‍नोत्‍तमा सेनगुप्‍ता

शनिवार, 18 जून 2016

चर्चा / उड़ता पंजाब : ठहरने को कहती एक फिल्म............


अभिषेक चौबे Abhishek Chaubey ने इसके पहले डेढ़ इश्किया फिल्म विशाल भारद्वाज के लिए बनायी थी। उड़ता पंजाब ने उनको यकायक सुर्खियाँ और चर्चा प्रदर्शन से पहले जिन कारणों के चलते दिला दीं, वह आप सभी को पता है, दोहराने का अर्थ नहीं है। उड़ता पंजाब फिल्म दो सप्ताह करीब जिन कारणों से चर्चा में रही, उसने हमेशा की तरह एक काम किया कि सिनेमाघरों में भीड़ भेज दी। यकायक सभी के संज्ञान में आ गयी इस फिल्म के साथ अनुराग कश्यप जो कि इस फिल्म के अनेक निर्माताओं में से एक हैं, लड़े और अखबारों के पहले पेज की सुर्खियाँ भी बने रहे, खैर फिल्म प्रदर्शन से दो दिन पहले वायरल होने के बाद अब सिनेमाघर में है, लोग देख रहे हैं, अपने आकलन कर रहे हैं, राय दे रहे हैं................
उड़ता पंजाब (Review : udta punjab by sunil mishr) एक स्थान पर पीढ़ी विशेष की ही बात नहीं करता बल्कि वह सारे वातावरण को देखता है जिसमें बचपन से लेकर प्रौढ़ता तक हानिकारक नशे का शिकार है, लत में है। बात इस तरह से ज्यादा जोर से की गयी है कि एक जनप्रतिनिधि इसके नेपथ्य में है जिसके प्रभाव से बड़ी आसानी से सारी व्यवस्था अनेक लाभों के चलते इस कारोबार में सहायक है। व्यवस्था में तंत्र से लेकर मनुष्य तक स्थूल और लचर अराजकताएँ कही-सुनी जाती हैं, सिनेमा में अनेक बार दिखायी गयी हैं, यहाँ भी उसी तरह से हैं। निर्देशक, अपनी पटकथा और कसे हुए सम्पादन से छोटे-छोटे दृश्यों में अपनी बात कहता, खत्म करता पूरे विषय को शुरू में ही उसकी भयावहता के साथ स्थापित करता है।
एक सिनेमा बनाते हुए दरअसल दिखाये जाने के उद््देश्यों और उसकी सार्थकता को लेकर हमारा दर्शक बहुत गम्भीर नहीं रहता, इसीलिए वह निर्देशक से भी कोई मांग नहीं करता। हमारे आसपास प्रायः कूड़ा फिल्में इसीलिए बहुतायात में आती हैं। सशक्त विषय और परिश्रमपूर्वक निर्वाह कई बार कुछ फिल्मों को अचानक से सुर्खियों में लाता है, उड़ता पंजाब के बारे में यही कहा जा सकता है। फिल्म में व्यवस्था, अनुशासन, प्रशासन और दायित्व की जगहों पर बैठे लोगों को उनकी जिम्मेदारियों के प्रति आगाह किया गया है। एक घातक नशा केवल घर या परिवार ही नहीं, राज्य और देश को भी किस तरह आर्थिक, सामाजिक और व्यवहारिक दृष्टि से ध्वस्त करता चला जाता है, यह चेतावनी फिल्म का सन्देश है।
यह फिल्म अपने सम्पादक के कौशल, निर्देशक की सूझबूझ और दृश्य गढ़ने की समझ, सधे हुए सिने-छायांकन, पटकथा और संवादों से दर्शकों से सीधे जुड़ती है। उड़ता पंजाब दूसरी साधारण फिल्मों की श्रेणी की फिल्म नहीं है। निर्देशक, पटकथा में मूल लेखक का सहयोगी होते हुए अनेक विवरणों तक जाता है। कई बार किसी गहरे दर्शक को फिल्म विचलित करती है तो आप उसकी सार्थकता का अन्दाज लगा सकते हैं। शाहिद कपूर, करीना कपूर, आलिया भट्ट, दिलजीत जोसांझ, सतीश कौशिक और अनेक सहयोगी कलाकारों के बेहतर काम के कारण आकृष्ट करती है लेकिन आलिया भट्ट और पहली बार परदे पर परिचित हुए दिलजीत जोसांझ के अभिनय की लम्बे समय याद दिलाती है।
आलिया भट्ट ने अपनी उम्र से बहुत आगे जाकर बेहद आश्वस्त होकर अपनी भूमिका निभायी है। दिलजीत तो खैर पूरी तरह किरदार लगते भी हैं। शाहिद कपूर रातोंरात ऊँचाई पर पहुँचे, एक साधारण युवा से बड़े गायक बने शाहिद की पूरी प्रतिभा दायीं आँख से जिस तरह व्यक्त होती है, निर्देशक और इस सितारे ने इस बात को समृद्ध किया है आपस में, दर्शक शाहिद के चरित्र निर्वाह को इस नजरिए से देखें, लोकप्रियता का अहँकार, पराभव की कुण्ठा, भय, चिढ़, गुस्सा और भीतरी पराजय को वे मेहनत से सामने लाते हैं। करीना की भूमिका सीमित है। फिल्म में उनका मारा जाना सहानुभूति प्राप्त करता है, उसी दृश्य को दिलजीत के छोटे भाई के हाथ हुई दुर्घटना से मजबूत किया गया है। सतीश कौशिक ने इस फिल्म में एक दिलचस्प किरदार निभाया है जो बाजार और संवेदना की लोटपोट के साथ धन लगाने और चौगुना करने के कारोबार में बाजार साधने में लगे तथाकथित हितैषियों की छबि को सामने लाता है। सतीश कौशिक, पंकज कपूर के अच्छे मित्र हैं और शाहिद के अंकल भी। दोनों के बीच अनेक बार ऐसे दृश्य घटित होते हैं जो बाजार के गणित को बखूबी जाहिर करते हैं।
गाने-वाने तो खैर ठीक हैं, एक गायक की जिन्दगी से बात ली गयी है पर पाश्र्व संगीत को लेकर इधर युवा प्रतिभाशाली निर्देशक अच्छी मेहनत करते हैं। वातावरण में दृश्य के लिए उतनी ही ध्वनि या प्रभाव जितना उसको सहयोग करे।
फिल्म को समीक्षकों ने भी अपनी-अपनी तरह से देखा है।अलग-अलग सितारे बाँटे हैं जो शायद तीन के भीतर ही हैं। मुझे लगता है कि यह तीन से अधिक सितारे देने वाली फिल्म है...................दर्शक* भी प्रदर्शन के इन तीन-चार दिनों में अपनी उपस्थिति से कुछ कहेंगे ही..................हाँलाकि फिल्म में भी बीच-बीच में दर्शक अनेक गम्भीर दृश्यों, चिन्ताजनक परिस्थितियों को हँसकर या ठिठोली करते हुए प्रतिक्रियित हो रहे थे
*कल दो बजे रात फिल्म देखकर निर्गम द्वार से बाहर निकला तो तीन-चार प्रौढ़ता की ओर बढ़ते युवाओं ने एकदम मुझे पकड़ लिया, पूछने लगे, अंकल आपको फिल्म कैसी लगी............और फिर सभी समवेत खिलखिलाते हुए बोले, डिस्प्रिन के लायक न................मैं उनको चकित भाव से देखता हुआ बिना कुछ कहे आगे चला गया...................हमारे दर्शक वर्ग......

Keywords - Udta Punjab, Anurag Kashyap, Abhishek Chaubey, Sunil Mishr, उड़ता पंजाब, अनुराग कश्‍यप, अभिषेक चौबे, सुनील मिश्र
+Sunil Mishr 

मंगलवार, 14 जून 2016

सदियॉं और समय


नहीं पता होता कि कभी-कभी समय सदियों की तरह व्यतीत होता है। ऐसा लगता है कि एक बार हाथ से छूटा फिर हाथ में आकर इकट्ठा हो गया है। उसको देखने की कोशिश करता हूँ। छूने या स्पर्श करने से पहले अजीब सा भय सताता है। समय अपना चेहरा उस ओर मोड़े हुए है, मैं उसको बिना बाधित किए उसकी ही ओर से जाकर उसे देखना चाहता हूँ। मैं समय में प्राणों का स्पन्दन देखता हूँ। मुझे फिर छूने की इच्छा होती है। कुछ भय मेरे साथ चलते हैं और थोड़ी ही देर में उनको मुझमें आकर ही मर जाना होता है। पता नहीं कितने भय, कब-कब आकर मर गये। साँस अपनी तरह की एक अलग ही घड़ी है। उसकी सेकेण्ड की सुई पता नहीं कौन छेड़ दिया करता है। वह हमेशा एक स्पर्श के साथ समरस होती है। अनेक बार ऐसा होता है कि स्पर्श कामनाओं के पक्षी के पंख मारे डर के मजबूती से थामे एक देश से दूसरे देश उड़ा चला जाता है। स्पर्श का छूटना, सपनों का टूटना होता है। सपनों के टूटने पर नींद खुल जाती है। नींद खुलती है तो सच दिखायी देने लगता है। स्वप्न अपने भरम है, जागे यथार्थ मेरा अपना साधारण सा चेहरा.............................प्रयत्नपूर्वक मैं उसी चेहरे के साथ मुस्कुराकर अच्छा लगने की कोशिश करता हूँ......................निष्फल कोशिश...........

शनिवार, 11 जून 2016

तीन : स्‍थूल पटकथा, ईमानदार निर्वाह और महानायक के लिए............



एक नाना, अपनी नातिन की आठ साल पहले हुई हत्या के बाद से ही एक-एक दिन हत्यारे के पकड़े जाने, उसका कुछ सुराग मिलने, कुल मिलाकर इन्साफ के लिए हर दिन भटक रहा है। वह रोज पुलिस स्टेशन जाता है, आता है। महिला थानेदार, फिल्म की नायिका विद्या बालन जिनकी छोटी भूमिका है, वो बड़े हल्के ढंग से उससे कहती हैं कि अपनी सुन्दर बीवी को छोड़कर क्यों भटका करते हो या यहाँ आ जाया करते हो, तो वह बताता है कि उसी के लिए यहाँ रोज आता हूँ। रिभु दासगुप्‍ता की नयी फिल्‍म तीन (film review : Te3n by Sunil Mishr) पर चर्चा करते हुए बात इस सन्‍दर्भ से इसलिए शुरू कर रहेे हैंं क्‍योंकि इस फिल्‍म के दफ्तर, सार्वजनिक सुविधा सहूलियतों के स्‍थान, पुलिस स्‍टेशन में एक आदमी रोज अपनी घुटन और बेचैनी में चक्‍कर लगा रहा है, दरअसल वह सोयी और उदासीन मानसिकताओं को जगाने की कोशिश में है...............
अमिताभ बच्चन Amitabh Bachchan फिल्म के केन्द्र में हैं। जब नातिन को दफनाया जा रहा था तब दामाद ने जाॅन पर आरोप लगाया था कि तुम्हारी वजह से वो मारी गयी। जाॅन यही सब क्लेश लिए भटकता है। वह घर में खाना भी पकाता है, व्हील चेयर पर पत्नी है, उसको परोसता भी है। बाजार भी जाता है, मछली खरीदने। महँगे सौदे के खिलाफ बहस भी करता है। पुलिस से पादरी हो गये मार्टिन दास से वह निरन्तर मिलता है और अब भी मदद मांगता है। यह दिलचस्प है कि एक दिन अपने ही जुनून में वह अपराधी तक पहुँच जाता है और वही घटना दोहरायी जाती है। इस बार अपराधी के नाती का अपहरण जाॅन ने किया है, लक्ष्य है अपराधी पकड़ा जाये। अन्ततः अपराधी को ऐसा बेबस कर देता है कि वो पहले के साथ दूसरा अपराध भी अपने सिर ले लेता है।
सिनेमाघर में ऐसी गम्भीर फिल्म के दर्शक बहुत ज्यादा नहीं होते। धोखे से कुछ आ भी गये तो जल्दी चले जाते हैं, कई बार निस्तब्धता में खर्राटों की आवाज भी सुनायी देती है। फिर भी सिनेमा में बुनी गयी कथा, उसके साथ किया गया, कलात्मक और तकनीकी बरताव, गीत-संगीत, यहाँ तक कि पाश्र्व संगीत और कलाकारों का अभिनय आदि इतने सब के साथ जो फिल्म देखना चाहते हैं उनको यह फिल्म एक हद तक बांधती है।
निर्देशक रिभु दासगुप्ता, सुजाॅय घोष के शिष्य हैं। सुजाॅय जिन्होंने कहानी फिल्म बनायी थी, रिभू को एक बड़ा चैलेन्ज देते हैं। रिभु इसके पहले युद्ध धारावाहिक कर चुके हैं।
अमिताभ बच्चन और नवाजउद्दीन के साथ वे सूझबूझ के साथ काम करते हैं। नवाज का किरदार अमिताभ बच्चन के दृश्य और संवादों के बीच बहुत ज्यादा अर्थपूर्ण नहीं हो पाता लेकिन अलग से उनके दृश्य अच्छे हैं। बेडौल होती विद्या बालन एक अच्छी पुलिस इन्सपेक्टर भी साबित नहीं हो पातीं, यह अनेक बार दिखायी देता है। रिभु ने बंगला सिनेमा के सब्यसाची मुखर्जी और दक्षिण से पद्मावती राव को लिया है। इधर हिन्दी सिनेमा के दर्शकों के लिए ये चेहरे उतने परिचित न हों पर गुणी कलाकार हैं। अमिताभ बच्चन जिस तरह से इस फिल्म में दिखायी देते हैं, ऐसा लगता है कि पूरी पटकथा को उनको ही केन्द्र में रखकर लिखा गया है। निर्देशक-निर्माता की पहले ही यह स्वीकारोक्ति ईमानदार है कि उन्होंने कोरियन फिल्म मोंताज को इस रूप में बनाया है बजाय इसके कि खोजी समीक्षक यह बात कहीं से ढूँढ़कर लिखा करें।
अमिताभ बच्चन की पूरा व्यक्तित्व कैमरे की खासी पहुँच के कारण उस उम्र को प्रकट करता है, जितने के वे हैं, वे अपनी उम्र के विपरीत हौसले का परिचय देकर बहुत ज्यादा आकृष्ट करते हैं। किरदार पर की जाने वाली मेहनत का कुछ बार प्रत्यक्षदर्शी मैं भी हूँ, लगता है कि कैसे एक वृद्ध आदमी, एक गहरी व्यथा मन में लिए अपने आसपास से जूझ रहा है, आठ साल से पुलिस स्टेशन रोज जा रहा है, सुराग मिलने पर कब्रिस्तान दो महीने से रोज चक्कर लगा रहा है, सरकारी दफ्तरों में जाकर परिणाम प्राप्त करने की कोशिश हैं। इन सबके बीच में बाबू तंत्र, काम टालने की प्रवृत्तियाँ, फरियादी को चक्कर लगवाने का शगल और अन्य सामाजिक-व्यवहारिक व्याधियाँ भी इस फिल्म में देखने को मिलती हैं। फिल्‍म में अमिताभ का सड़क पर स्‍कूटर पर होना, पीछे नवाज के साथ एक जगह से दूसरी जगह जाने के दृश्‍य उल्‍लेखनीय हैं। उल्‍लेखनीय यह भी है कि नातिन के कातिल को तलाशते हुए वे दुखी, हारे-थके और व्‍यथा से भरे दीखते हैं मगर जब वे कातिल के नाती को अपहरित कर उसके साथ खेल रहे होते हैं तो नवाज से बातचीत करते हुए उनका विजयी सा व्‍यक्तित्‍व अलग ही दिखता है, यहाँ वे उस तरह से शिथिल या दीनहीन नहीं दिखायी देते।
निर्देशक और उसका सिनेछायाकार तुषार कांति रे बखूबी अपनी कथा को स्‍थानों और दृश्‍यों में सार्थक करते हैं। कोलकाता है तो वहाँ का परिवेश है, पुराने से पुराने और अजाने स्थानों का प्रकट और प्रतीक दीखता है, ट्राम हैं तो उनके पुराने डिपो हैं जिनको पुराने वृक्षों की जड़ों ने जकड़ रखा है। पाश्र्व संगीत की अपनी ट्यून है, जितना जरूरी है, उतना ही, मुम्बइया कर्कशाँय नहीं। इन सबके बावजूद पटकथा के स्तर पर काम स्थूल जान पड़ता है। मध्यान्तर के पहले का भाग अधिक लम्बा हो गया है, रहस्य भी देर तक रहस्य नहीं रह पाता इसीलिए सवा दो घण्टे की फिल्म भी बड़ी लगती है। इन सबके बावजूद फिल्म को देखा जाना चाहिए। वो सिनेमा जो मेहनत से किया गया हो, उस तक जाना अच्छे दर्शक का फर्ज भी है, यही...................

।। लिखे-बोले के प्रूफ़।।



उस रात जब नींद नहीं आ रही थी, तब पड़े-पड़े मैं यही सोचता रहा कि लिखे हुए पैराग्राफों और कम्पोज़ की हुई कितनी ही किताबों के प्रूफ़ पढ़ने में अपनी दक्षता हासिल करने के बाद भी बहुत सी बातें मैं खुद न समझ पाया। जब नया-नया सीखा था तब प्रायः गल्तियाँ छूट जाया करती थीं। उन छूटी हुई गल्तियों को मुझे बड़े पकड़ लिया करते थे जो स्वाभाविक रूप से मुझसे ज़्यादा ज्ञानी थे। वे मुझे उन गल्तियों का एहसास कराया करते थे। अधिकतर तो मेरे साथ यही हुआ कि जब-जब गल्तियाँ चिन्हित हुईं, मुझे उन्होंने इंगित करते हुए यही बताया कि इस सही शब्द का ज्ञान तुम्हें अब हो जाना चाहिए और अगली बार जब यह शब्द तुम्हारी निगाह से गुजरे तब सही-सही ही जाये। मैं एक तरह से, इसे अपने बच जाने का एक अवसर ही माना करता था। हाँ लेकिन वह भी सोच लिया करता था कि अब की बार यह शब्द उस ही सच की तरह जायेगा जैसा बता दिया गया है। अगर नहीं गया तो शायद लज्जित होना पड़ेगा।

कुछ डर कह लीजिए और कुछ अपने लिए सबक भी कह सकते हैं कि धीरे-धीरे वे गल्तियाँ सुधारता गया जो किया करता था। तब मैं यह भी सोचता था कि जिस तरह से जानकार और मेरी गल्तियों पर पेंसिल रखकर जताने वाले मुझे सही का ज्ञान कराया करते हैं, जब मैं इन सब बातों को अच्छी तरह समझने लगूँगा और फिर मुझे किसी की गल्ती जाँचने का मौका मिलेगा तो मैं भी इसी तरह उन्हें चिन्हित करूँगा और जिससे गल्ती हुई होगी, वह आगे चलकर उन्हें ठीक करने के अवसर पाये, इतनी उदारता रखूँगा।

यह भी कहने की बात ही है कि एक समय बाद वह दौर भी आ गया। पढ़ा हुआ इस बात का भी प्रूफ़ होता था कि कोई सी भी प्रूफ मिस्टेक नहीं है। लेकिन इधर यह भी देखने का बोध नहीं हो पाया कि अपने कहे-बोले में कितने प्रूफ सुधार की गुंजाइश है? बरसों ही बीत गये, कहिए तब यह बात प्रश्नवाचक चिन्ह लगाकर लिख पा रहा हूँ। ऐसा लगता है कि जीवन में प्रूफ की गल्तियाँ कभी भी हो जाया करती हैं। समय के साथ मैं यह उदारता बरत रहा हूँ कि छपे हुए में प्रूफ की भूलों को देखकर कुछ नहीं कहता। एकाध बार इस तरह का उत्तर मिला कि मैंने देखा तब सही था या सही तो लिखा था, पता नहीं कैसे हो गया? अबोध उत्तरों पर यही लगा कि व्यवहार में अब इसकी बहुत जरूरत नहीं रह गयी है। प्रूफ़ की भूलों से तैयार छपे हुए का भी स्वागत किया जाना चाहिए। 

देखता हूँ कि अब अपनी ज़िन्दगी में सब लिखे, अधलिखे फलसफों के प्रूफ ठीक से देखे जाना चाहिए। बहुत जल्दी हुआ करती है लिखने की, पन्नों को भरते रहने की और पता नहीं इसी में शब्दों का हिसाब-किताब गलत हो जाता है। हिसाब-किताब शब्द का अर्थ गुणा-भाग सा नहीं है, ज़ाहिर है पर मन करता है, फिर जैसे पन्ने उलटने की कोशिश करूँ। अब तक सारी आपाधापी पन्ने पलटने की रही है। मन करता है कि ठहर जाऊँ और पलटना बन्द करके, पन्ने लिखने के बजाय पन्ने उलटकर ध्यान से प्रूफ देखूँ। व्यवहार और चलन दोनों के ही इस बदल चुके ज़माने में उन सारी पटरियों को, जितना बन सके, दूर तक देख लेना चाहता हूँ, मुड़ने के बाद जिनका पता नहीं चलता। मुझे मोड़ के पश्चात उस अदृश्य से घबराहट महसूस होती है। 

रात गहराती है, वे पंछी अपनी आवाज़ से भ्रम पैदा करते हैं जो सुबह-सुबह आकाश में उड़ते हुए अपने पुरुषार्थ को समूह में जाया करते हैं। भौंकते हुए कुत्ते अचानक रोने लगते हैं, उनके रूदन पर न गुस्सा आता है और न ही डर लगता है। नींद में ही समझने की कोशिश करता हूँ कि वे जरूर पीड़ा महसूस कर रहे होंगे, असहृय पीड़ा जिस बर्दाश्त न कर पाने के कारण वो रो रहे हैं....................

शुक्रवार, 10 जून 2016

अपने हिस्से का सच

अपने हिस्से का सच बताना मुश्किल होता है। कहना मुश्किल है कि कई बार या हमेशा ही पर मुश्किल तो होता है। अपने हिस्से का स्वार्थ छुपाया नहीं जाता, अपने हिस्से की नफरत छुपायी नहीं जाती, अपने हिस्से का प्रेम छुपाया नहीं जाता, अपने हिस्से की ईष्र्या छुपायी नहीं जाती, बहुत कुछ ऐसा जो अपने हिस्से का प्रकट हो ही जाया करता है। पता नहीं क्यों बिना कहे अपने हिस्से का झूठ जाना जाता है, सच जाने, जाने से रह जाता है। स्वप्न अक्सर आधे रास्ते में छोड़ दिया करते हैं। नींद कई बार नहीं आती। नींद का आधा होना कौन जानता होगा? नींद का टूटना और फिर न आना सब जानते हैं। अधूरी इच्छाएँ और कामनाएँ लिए हम नींद की खोह में चले जाते हैं। नींद में हमारे लिए वही स्वप्न रचे रखे रहते हैं जो साकार के प्रतिपक्षी हैं फिर भी हमें स्वप्न चाहिए। बिना स्वप्न के नींद व्यर्थ है। स्वप्न जीवन को सिलसिला देते हैं और जीवन स्वप्न को बार-बार नींद में आने का अवसर। जागते हुए दिन में हम मन के सन्दूक से बहुत सा मस्तिष्क के सन्दूक में और मस्तिष्क के सन्दूक से बहुत सा मन के सन्दूक में उठाया-धरा किया करते हैं। हमारी चेष्टाएँ नींद के साथ ही मूच्र्छित हो जाया करती हैं। उसके बाद हम स्वप्नकथाओं में अपने आपको ही घटित होते देखा करते हैं। देखे हुए स्वप्न अधूरे सिनेमा की तरह होते हैं और बहुत दिनों तक उत्तरार्ध की बाट जोहते हुए हम नींद की खोह में जाया करते हैं पर हमारे हाथ एक और अधूरा सिनेमा लगता है। कई बार समझ में आता है कि नींद से जागना और उठना दो अलग-अलग स्थितियाँ हैं। हम जागे होते हैं मगर उठे नहीं होते, प्रायः हम उठ गये होते हैं पर कितने जागे हैं, यह पता नहीं चल पाता। सच इन सारी चेष्टाओं के बीच एक अन्तहीन धागा है जिसे हम विश्वास रूपी एक विराट बरगद के तने पर जीवनभर लपेटकर परिक्रमा सी किया करते हैं अपने को साबित या प्रमाणित किया करने की। न तो धागा खत्म होता है और न ही परिक्रमा। अपने हिस्से का सच अनन्तकाल तक अव्यक्त ही बना रहता है....................... 

सोमवार, 30 मई 2016

।। कटहल का स्वाद।।


आज शाम फेबु मित्र भारती जायसवाल Bharti Jaiswal ने अपने घर में कटहल बनाते हुए उसकी लज्जत और स्वाद पर दो बातें कहीं तो मेरा भी कटहलप्रेम जाग्रत हो गया। मैंने उनको लिखा कि कटहल की सब्जी पर मैं अपनी भी कुछ बातें रखूंगा।
कटहल का स्वाद मैंने अपनी नानी के हाथ की बनायी सब्जी से जाना। कानपुर में बड़े फलक वाले कटहल की स्मृतियाँ हैं बचपन की। नानी को बहुत पसन्द था। वे तरीदार, सूखा सब तरह का बनाती थीं। यहाँ तक कि कटहल का दो तरीके का अचार भी, एक मसाले वाला और दूसरा सिरके वाला। बड़े पहले कटहल को सब्जी बेचने वाला तौल कर दे दिया करता था। आजकर उसका छिलका उतार देता है तो बड़े सधे हुए चाकू से खटाखट टुकड़े कर के भी। तब कटहल को घर में ही लाकर छीला और काटा जाता था। घर में काटने से नानी और माँ उसको इस तरह टुकड़े करती थीं कि बीज आधा अधूरा न कट जाये। कटहल खाते हुए उसका बीज निकालकर, छिलका दांत से ही छीलकर भीतर का गूदा खाना और भी अच्छा लगता था, वैसा जैसा उबल सिंघाड़े का स्वाद।
अब बाजार से खरीद और कटवाकर लाया कटहल सुडौल कटा नहीं होता। उसके बीज भी पूरे खाने में नहीं आते। दुकानदार एक सीध में रखकर खटाखट बहुत बड़े-बड़े क्योंकि वे जल्दी में रहते हैं और टोक दो तो छोटे-छोटे टुकड़े काटे, थैली में भरकर पकड़ा देते हैं। आपके पास उसी को बनाने के अलावा विकल्प नहीं क्योंकि उसको घर में छीलना-काटना बहुत मुश्किल और समयसाध्य काम है। कटहल को प्याज-लहसुन के मसाले में भूनकर बनाने का स्वाद ही अलग है। सूखा बनाओ तो दाल-चावल के साथ। तरीदार कटहल, मोटी रोटी या टिक्कड़ के साथ सुहाता है, गेहूँ-चने की रोटी के साथ भी और मोटे परांठे के साथ भी। तरीदार कटहल के साथ चावल खाना भी आनंददायक है। नानी और मम्मी जब कटहल बनातीं थीं तो थाली में कैरी की चटनी या सिरके में डूबे प्याज के साथ बहुत मजा आता था।
कटहल अब भी घर में उसी तरह खाते हैं। नानी का हुनर माँ के पास, माँ का हुनर बहन-बहुओं-बेटियों के पास, जो जितना ग्रहण कर ले लेकिन हर समय अलग-अलग समय में उन स्वादों की स्मृतियाँ बनी न रहें तो कैसे एक कटहल भर पर चार सौ शब्द लिख पाते भारती जी....................... आशा है आपने कल के लिए सब्जी बचा ली होगी। जरूर उस सब्जी को हमारी सुझायी सहायक खाद्य सामग्री से खाकर देखिएगा।

शुक्रवार, 27 मई 2016

आगे रास्ता बन्द है..............


कई बार ऐसा होता है, उस रास्ते पर हम चलते चले जाते हैं जो आगे जाकर बन्द हो जाता है। बहुधा पता नहीं होता इसलिए ही ऐसा होता है। कितने ही लोग ऐसा पथ चुनते हैं जो आगे चलकर एक जगह पर अनेक रुकावटों में बदल जायेगा। सड़क हमें वहाँ ठहरा देगी। हम भी ठिठक कर रह जायेंगे क्योंकि इस रास्ते पर हमारा पहले चलकर कभी आना नहीं हुआ। आसपास के अनेक मार्गों को देख लेने के बाद भी हमने उस रास्ते से आगे जाना तय किया जो कुछ समय बाद पूरा हो जाने वाला है।

जब हम जा रहे थे तब उसी रास्ते से हमें लौटते हुए लोग भी मिले जिनको हम पहचानते नहीं थे। जिस तरह हमने, उसी तरह उन्होंने भी एक निगाह तो कम से कम देखा ही लेकिन वे हमको रास्ते के अधूरे होने के बारे में बता नहीं पाये। हो सकता है उनका यह सोचना रहा हो कि इनकी जगह थोड़ा पहले हो सकती है और अगर ऐसा हुआ तो इनको बन्द रास्ते का मुँह देखना नहीं पड़ेगा। हम लेकिन यह सोच सकते हैं कि ऐसा मार्ग जो आगे चलकर बाधित हो गया है, उस मार्ग से लौटते हुए ये हमें सचेत कर सकते थे। उस अन्तिम छोर पर हम भी औरों की तरह जाकर ठहर ही गये।

वैसे कितना भी दूर चले जाते यदि रास्ता बाधित न होता लेकिन एक व्यवधान देह और मन से अचानक ही बहुत कुछ झटकार कर छुड़ा लेता है। इसी बीच हमारी निगाह एक-दो और ऐसे लोगों पर जाती है जो हमसे पहले यहाँ तक आकर हमारी ही तरह अपने आपको खासा थका हुआ मानकर खड़े-खड़े सुस्ता से रहे हैं। अपने रुमाल ही को पंखा बनाकर झलते हुए वो लगभग पहचान वाले हो गये। कहने लगे, अगर रास्ता बन्द है तो पहले ही लिखा होना चाहिए। सब उनकी हाँ में हाँ मिलाते हैं। मुझे लगता है कि सही कह रहे हैं। इस रास्ते पर न जाइये, यह पहले ही लिख दिया जाना चाहिए।

उस सिरे के एकान्त में तीन-चार लोग इसी बन्द रास्ते से अनेक बन्द रास्तों की बात करने लगे, बतलाने लगे कि कहाँ-कहाँ रास्ते बन्द हो चुके हैं, स्वस्थ बने रहने के, दो रोटी चैन से खा सकने के, सड़क पर सुरक्षित चल पाने के, रोजी-रोजगार के, महँगाई से बचने के, आगे बढ़ने के, प्रेम करने के, इस भीषण गरमी से निजात पाने के................इसके आगे भी...........

यही चार-पाँच लोग फिर आपस में एक-दूसरे से इसी तरह की बातचीत करते हुए वापस लौटे और उस जगह पर आकर फिर खड़े हो गये जिस जगह से आगे चलकर यह बन्द हो जाने वाला रास्ता शुरू हो रहा था। सबने मिलकर आपस में बात की और वहीं आसपास जमीन पर पड़े कागजों, लकड़ी की तख्तियों और बाँस को जुटाकर सबके लिए एक सूचना लिखकर लगायी - आगे रास्ता बन्द है..............