बुधवार, 29 अप्रैल 2020

जिन्‍दगी हो या सिनेमा, इरफान क्षमताओं का अतिरेक थे



स्‍मृति शेष / इरफान


ट्रिब्‍यूट लिखना बहुत अन्‍तर्द्वन्‍द्व से भरा होता है। उसके लिए जिसे आप जानते हो, जिसको जमाना जानता हो और अपने आपमें बेहद सादगी में भी होते हुए असाधारण और अतिरेक से भरा हो। उसके लिए लिखना और भी मुश्किल जो काल और समय के अपने निर्मम और छुपे हुए घातों से अकेला लड़ता-जूझता रहे, उसके आसपास, उसके निकट सम्‍बन्‍धी और दूर-दूर तक उसको जानने तथा पहचानने वालों के बूते कुछ न रह जाये सिवाय बेबसी के और एक दिन वह भी आये जब ठिठककर रह जाना पड़े।
 
अभी बुधवार को अचानक तबियत खराब होने पर अस्‍पताल में दाखिल इरफान पिछले दो-ढाई सालों से उम्‍मीदों और हौसले के संचित कोष से अपने लिए थोड़ा-थोड़ा खर्च कर रहे थे। उनके पूरे व्‍यक्तित्‍व में जितनी असाधारण सादगी थी, उनकी ऑंखों और मुस्‍कराहट में उतना ही असाधारण सम्‍मोहन था। उनका बोलना बहुत सहज था। सिनेमा में वे कोई आवाज या डायलॉग से प्रभावित करने वाले अभिनेता नहीं थे। वे अपने होने को ही किरदार में असाधारण बना दिया करते थे। अभी कुछ दिन पहले एक कार्यक्रम देख रहा था जो किसी कलाकार को उसके पुश्‍तैनी घर और शहर में लेकर जाता है और बातचीत होती है। वह पुरानी रिकॉर्डिंग थी। शायद छ: साल पहले की। उस बातचीत में वो विनय पाठक को बतलाते हैं अपने बचपन के बारे में, पिता, मॉं और विशेषकर नानी के बारे में। इरफान का ननिहाल टोंक में था। जिक्र में आता है तो वे विनय को लेकर चल पड़ते हैं एक खुली जीप चलाते हुए टोंक और फिर नानी का घर, एक-एक जगह की बात, छत, सीढि़यॉं सब कुछ। यही उनके प्रिय शौक पतंगबाजी का जिक्र और पतंग उड़ाते लड़कों के बीच बहुत आसानी से अपने को समरस कर लेना। वे कहते थे कि मुझकों पेंच लड़ाने में मजा आता है। आकाश में अकेले पतंग उड़ाने का क्‍या मजा जब तक पेंच न लड़ाये जायें। पतंग काटी न जाये। 

इरफान को छोटी उम्र में ही जीनियस फिल्‍मकारों के साथ काम करने का अवसर मिला था। यह कल्‍पना ही की जा सकती है कि इक्‍कीस या बाइस साल की उम्र में उनको मीरा नायर और गोविन्‍द निहलानी की फिल्‍मों के काम करने का मौका मिला था। सलाम बॉम्‍बे, जजीरे और दृष्टि वे फिल्‍में थीं जिनमें वे अपने से बड़े और अनुभवी कलाकारों के सान्निध्‍य में थे। विदेशी मूल के भारतीय निर्माता आसिफ कपाडि़या की फिल्‍म द वारियर उनके लिए एक अच्‍छा मौका बनकर आयी जिसने उनको अन्‍तर्राष्‍ट्रीय पहचान से जोड़ा। जयपुर में नाटक करते हुए, राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यालय नई दिल्‍ली में प्रशिक्षित होकर मुम्‍बई में उनका आना दरअसल अर्थपूर्ण सिनेमा के समकालीन परिदृश्‍य में एक प्रबल सम्‍भावना की भागीदारी थी जहॉं वे पहले से ओमपुरी, नसीरुद्दीन शाह और पंकज कपूर जैसे अभिनेताओं को जमा हुआ देख रहे थे। यह उतना ही दिलचस्‍प है कि 2003 में विशाल भारद्वाज की फिल्‍म मकबूल में इरफान को इन तीनों कलाकारों के साथ काम करने का अवसर मिला। इस बीच उनकी काली सलवार, गुनाह, कसूर आदि साधारण फिल्‍में आयीं लेकिन जल्‍दी ही फिर वे उस जगह से आगे बढ़े जो उनको पहले की श्रेष्‍ठ फिल्‍मों की वजह से मिली थी। निर्देशक एवं अभिनेता तिग्‍मांशु धूलिया ने 2003 में हासिल फिल्‍म बनायी थी जिसने इस अभिनेता की क्षमताओं का कैनवास बड़ा कर दिया। हासिल जिमी शेरगिल, आशुतोष राणा और हृषिता भट्ट जैसे सह कलाकारों के साथ बनी थी लेकिन फिल्‍म का डायनमिक किरदार रणविजय सिंह बने इरफान ने जैसे कमाल ही कर दिया। उत्‍तरपूर्व में रौबदाब और दहशत के अराजक संसार से किसी बाहुबली की उपस्थिति को उन्‍होंने बखूबी रेखांकित किया था। 

इरफान बाजारू सिनेमा की किसी भी स्‍पर्धा में नहीं रहे। वे तमाम कुटैवों या स्‍पर्धाओं से भी हमेशा बाहर रहे। किसी भी तरह के विवाद का हिस्‍सा वे नहीं बने। वे निर्देशकों के प्रिय अभिनेता रहे। व्‍यावसायिक सिनेमा के बड़े सितारों के साथ काम करते हुए भी वे अपनी क्षमताओं और अपनी रेंज को लेकर हमेशा ही आश्‍वस्‍त रहे हैं। यही कारण है कि अमिताभ बच्‍चन से लेकर सनी देओल के साथ काम करके भी वे अपनी सराहना और प्रबल उपस्थिति रेखांकित करने में सफल रहे हैं। द क्‍लाउड डोर, प्रथा, चरस, लाइफ इन मेट्रो, द नेमसेक, स्‍लमडॉग मिलिनेयर, बिल्‍लू, ये साली जिन्‍दगी, सात खून माफ जैसी फिल्‍मों के साथ तिग्‍मांशु और विशाल के साथ वे दोबारा आये लेकिन प्रियदर्शन, मणि कौल और सुधीर मिश्रा के साथ भी काम करने के मौकों में उन्‍होंने अपने को सिद्ध किया। वे अनेक अच्‍छे धारावाहिकों में भी आये जिनमें डॉ चन्‍द्रप्रकाश द्विवेदी के साथ चाणक्‍य, श्‍याम बेनेगल के साथ भारत एक खोज भी शामिल हैं। पान सिंह तोमर उनको बेहद वजनदारी के साथ स्‍थापित करने वाली फिल्‍म थी जिसने तिग्‍मांशु धूलिया ने बनाया था। इस फिल्‍म को विभिन्‍न श्रेणियों में में राष्‍ट्रीय पुरस्‍कारों ने इरफान को जो ऊँचाई, जो शिखर प्रदान किया वह इस सदी के इन दो दशकों का सर्वश्रेष्‍ठ यश माना जायेगा। यहॉं से आगे फिर इरफान अपनी जर्नी में स्‍मूथ है, पान सिंह की बड़ी सफलता के बाद भी जमीन पर एक सच्‍चा और गहरा कलाकार बनकर। फिर आगे साहेब बीवी और गैंगस्‍टर रिटर्न, डी डे, जज्‍बा आदि। लेकिन इसी बीच फिर एक कदम और आगे बढ़ने का साहस लिए इरफान द लंचबॉक्‍स, हैदर, पीकू, मदारी, हिन्‍दी मीडियम, करीब करीब सिंगल और बीते माह की अंग्रेजी मीडियम से हमारे दिलों में एक बड़ा स्‍पेस लेकर स्‍थापित हुए।

दो साल से भी अधिक समय पहले जब वे इस प्राणघातक बीमारी की चपेट में आये तभी से चिकित्‍सकीय कारणों से और हम कल्‍पना कर सकते हैं, एक इतने बड़े और संजीदा कलाकार के अपने जीवन के सच और भविष्‍य से अनभिज्ञ न रहते हुए कठिन चिकित्‍सा, लगातार परिवार और वातावरण से दूर रहते हुए एक दूसरे देश में समय को सहना, समझना और जीना कितना कठिन रहता होगा। वे दो साल सूचना और संवादों से दूर रहकर फिर सीधे सिनेमाघर में अंग्रेजी मीडियम के माध्‍यम से ही मिले लेकिन कोरोना और लॉकडाउन के कारण यह फिल्‍म दो सप्‍ताह सिनेमाघर में रह पायी और सिनेमाघर बन्‍द हो गये। इस फिल्‍म में पिता का भावनात्‍मक किरदार करते हुए वह खुद जीवन के अपने सच्‍चे किरदार से लड़कर ऊबरकर आये दीखते हैं लेकिन अन्‍त:स्‍थल के घटनाक्रम को विक्टिम या भुक्‍तभोगी ही जान सकता है। इरफान निश्चित ही इस लॉकडाउन में इसी द्वन्‍द्व से गुजरते हुए चार-छ: दिन पहले अपनी मॉं के जाने से व्‍यथित हुए और अन्‍तत: गुरुवार सुबह उनके नहीं रहने की दुखद और हृदयविदारक खबर आयी। 

हर घर कुछ कहता है में एक जगह मॉं से अपने रिश्‍ते के बारे में वे कहते हैं कि मैं उनको बहुत खुशी देना चाहता रहा हूँ लेकिन मेरी उनसे ज्‍यादा पटी नहीं। कुछ न कुछ ऐसा हो जाता था कि वे नाराज हो जाया करतीं। जबकि अपनी नानी से मेरा बहुत लगाव रहा, मैं उनके साथ बहुत रहा, वे मुझे प्‍यार भी करती रहीं। इरफान की मॉं शायद आने वाले दिनों से आभासित रही होंगी इसीलिए सम्‍भवत: उनका प्रस्‍थान इस दुखद घटना के पहले हुआ अन्‍यथा इरफान के बगैर उनकी जिन्‍दगी और चैन की कल्‍पना करके सिहरन हो उठती है। इरफान का जाना, एकदम से अमान्‍य कर देने को जी चाहता है। फिर उनके यश पर फक्र करने का मन हो उठता है। याद आती है बिमल रॉय की फिल्‍म दो बीघा जमीन में मन्‍नाडे के गाये, दार्शनिक गीतकार शैलेन्‍द्र के लिखे गीत की दो पंक्तियॉं...............अपनी कहानी छोड़ जा, कुछ तो निशानी छोड़ जा, कौन कहे इस ओर, तू फिर आये न आये........नमन।
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गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

स्‍मृति शेष : ऊषा गांगुली


हिन्‍दी रंगमंच और स्‍त्री पक्षधरता की सशक्‍त पहचान




ऊषा गांगुली का देहावसान स्‍तब्‍ध कर देने वाली खबर है। इस बात की कल्‍पना करके ही ताज्‍जुब हो उठता है कि पचहत्‍तर वर्ष की उम्र में भी वे तब इतनी स्‍फूर्त, जाग्रत और गजब की सक्रिय थीं जब उनको पीड़ादायक शारीरिक व्‍याधियॉं पिछले कुछ समय से लगातार तंग किए थीं। इन कष्‍टों ने उनके काम, काम की उत्‍कृष्‍टता और नित्‍यप्रति अपना तमाम समय रंगअभ्‍यास और परिपक्‍वता के लिए समर्पित किए रहना और उतनी ही जीवन्‍तता तथा ऊर्जा से सभी से संवाद और मेलजोल बनाये रखने को रंचमात्र भी प्रभावित नहीं किया। किसी भी सृजनात्‍मक व्‍यक्ति के लिए उसका शारीरिक स्‍वास्‍थ्‍य बड़ा मायने रखता है। हमारे समय में हबीब तनवीर, ब व कारन्‍त, गिरीश कर्नाड जैसे अनेक रंगकर्मी इस बात के उदाहरण बने हैं कि उन्‍होंने भयानक एवं कष्‍टप्रद बीमारियों को धता बताकर अपनी सृजनयात्रा जारी रखी। इन्‍हीं सब बातों को सोचकर उनका जाना स्‍वाभाविक नहीं लगता, अचानक जाना लगता है जिसकी न तो कल्‍पना थी और न ही आभास या अन्‍देशा।

डॉ ऊषा गांगुली को नाट्यकर्म का अपने आपमें सर्वस्‍व पहली बार तब जानने का अवसर मिला था जब लगभग पन्‍द्रह-सोलह वर्ष पहले वे उज्‍जैन आयीं थीं। मौका था प्रख्‍यात रंगकर्मी और स्‍टेज आकल्‍पक खालेद चौधुरी को राष्‍ट्रीय कालिदास सम्‍मान का अलंकरण। अलंकरण के उपरान्‍त उनके कृतित्‍व का एक नाटक भी होना था और खालेद ने प्रस्‍तुति के लिए अन्‍तर्यात्रा नाटक चुना। यह नाटक एक स्‍त्री के जीवन का स्‍वयं उसके द्वारा समाज के लिए पुनरावलोकन है जिसके बीच की अनेक उतार-चढ़ावों भरी कष्‍टप्रद यात्रा से निकलकर वह अपनी पहचान बनाने के लिए एक बड़ा समय और उम्र व्‍यतीत करती है। खालेद चौधुरी ने बताया था कि कोलकाता से ऊषा गांगुली प्रस्‍तुति के लिए आयेंगी और उनको भोपाल से उज्‍जैन लेकर आना है फिर उनकी वापसी इन्‍दौर से कोलकाता हो जायेगी। अन्‍तर्यात्रा के लिए खालेद चौधुरी ने एक बड़ा सा सर्कल बनाया था। मंच पर केन्‍द्र में यह सर्कल था और ऊषा जी बहुत सारे द्वन्‍द्व, आवेगों, वेदना, पीड़ा और असमंजस के भावों के साथ एक कठिन यात्रा और सामाजिक यथार्थ की वास्‍तविकता को इंगित करती हुईं। इस प्रस्‍तुति के उपरान्‍त जब वे थोड़ी देर अपने आपमें होते हुए अब के समय में लौट रहीं थीं, उनसे कुछ बातचीत का अवसर मिला था। तभी उनकी कानपुर से लेकर वाराणसी और कोलकाता की यात्रा का संक्षेप भी जान पाया। इस कार्य का आतिथेय होने के नाते मैं ऊषा जी के सम्‍पर्क में आया था और उसके बाद अब तक बड़ी बहन सा स्‍नेह और अपनापन उन्‍होंने हमेशा दिया, वे जब जहॉं मिलीं, भोपाल हो या दिल्‍ली या फिर कहीं और, उतनी ही आत्‍मीयता से समय दिया और अनुभव साझा किए। 

भोपाल वे कई बार अपने नाटकों के साथ आयीं। एक बार उनको भोपाल अन्‍तर्राष्‍ट्रीय महिला दिवस पर समकालीन रंगसंसार में महिला रंगकर्मियों की महत्‍वपूर्ण उपस्थिति को लेकर लम्‍बे संवाद के लिए आमंत्रित किया था। सात-आठ साल पहले की बात होगी। उनकी वह यात्रा, उनका उद्बोधन गहरी भावनात्‍मक यादगार है। उनकी सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वे भारत की सांस्‍कृतिक पृष्‍ठभूमि में आधुनिक रंगमंच और कलाओं की जितनी बड़ी जानकार थीं उतना ही पता उनको भारतीय लोक सांस्‍कृतिक जगत की बहुलता और प्रतिबद्धता के गहन तत्‍वों और साधकों की भी जानकारी थी। मुझे याद है कि अपना वक्‍तव्‍य देते हुए उन्‍होंने छत्‍तीसगढ़ की भरथरी गायिका सुरुज बाई खाण्‍डे के कण्‍ठ की तारीफ करते हुए घर परिवार से मिली प्रताड़नाओं और दुश्‍वारियों को व्‍यथित होकर कहा था। उसी तरह उन्‍होंने तीजन बाई की याद भी एक बहादुर कलाकार के रूप में की थी। आज के समय में तेजी से फैलते घटनाक्रमों और विवरणों के बीच में ऊषा गांगुली की रंगजगत में उपस्थिति और उनके महाभोज, लोककथा, होली, कोर्ट मार्शल, रुदाली, हिम्‍मत माई, मुक्ति, शोभायात्रा, काशीनामा और ट्रायोलॉजी वूवन अराऊण्‍ड द लाइफ (सआदत हसन मंटो), चाण्‍डालिका, मानसी और हम मुख्‍तारा जैसे सशक्‍त और राष्‍ट्रीय तथा अन्‍तर्राष्‍ट्रीय पहचान वाले नाटकों के बारे में हम जान गये होंगे। जरा कल्‍पना करें कि कैसे तीस-चालीस से भी ज्‍यादा वर्षों का समय जोधपुर और कानपुर जैसे शहरों से अपने भविष्‍य की स्‍वप्‍नसापेक्ष यात्रा को शुरू करने वाली एक महिला रंगकर्मी ने कोलकाता को अपनी सृजनभूमि मानकर-तय कर हिन्‍दी रंगकर्म की अलख जगायी और उसे देश-दुनिया में विस्‍तारित करते हुए उस लकीर को और लम्‍बा खींचने का काम किया जिसकी शुरूआत पिछली सदी में शीर्ष रंगकर्मी श्‍यामानंद जालान ने की थी। वे हिन्‍दी की प्राध्‍यापक थीं और भरतनाट्यम नृत्‍य में पारंगत लेकिन वे जानी गयीं एक पूर्णस्‍थ रंगकर्मी के रूप में। 

ऊषा गांगुली ने 1976 में कोलकाता में अपनी संस्‍था रंगकर्मी स्‍थापित की थी। चवालीस साल से वे इस संस्‍था के माध्‍यम से न केवल कोलकाता बल्कि देश भर से उनके पास आकर, रहकर रंगमंच का व्‍याकरण जानने वाले जिज्ञासु और सच्‍चे युवा कलाकारों को मार्गदर्शन प्रदान कर रही थीं। वे कहती थीं कि युवा कलाकारों ने सीखने और करने की अदम्‍य जिज्ञासा देखती हूँ। आने वाले समय में यह पीढ़ी ही अब तक की भारतीय रचनात्‍मक जगत में रंगकला को अपने सृजन के माध्‍यम से और बड़ी पहचान देगी। इनको निष्‍ठा के साथ दीक्षित करना ही मेरा लक्ष्‍य है। अपनी समृद्ध प्रतिष्‍ठा के साथ दुनिया के अनेक देशों जिनमें जर्मनी, पाकिस्‍तान, यूएसए, बांगलादेश आदि की सांस्‍कृतिक यात्राओं में अपनी वहॉं भी सम्‍मानजनक पहचान स्‍थापित करने वाली ऊषा गांगुली को संगीत नाटक अकादमी अवार्ड 1998 में मिल चुका था। भारत सरकार, उत्‍तरप्रदेश सरकार और पश्चिम बंगाल सरकार ने भी उनको अनेक प्रतिष्ठित सम्‍मानों से विभूषित किया था।

भारतीय रंगजगत में आज ऊषा गांगुली की अनुपस्थिति बहुत अविश्‍वसनीय लगती है। इधर जब हम राष्‍ट्रीय फलक में बड़ी पहचान और प्रतिष्‍ठा के साथ रेखांकित किए जाने वाले रंगकर्म के लिए ऊषा गांगुली, नीलम मानसिंह चौधरी आदि नाम लिया करते थे तो बड़ा गर्व का अनुभव होता था। ऊषा जी के इस महाप्रस्‍थान से एक बड़ा खेद यह बन गया है कि बड़ा स्‍थान रिक्‍त हो गया है, एक खालीपन उपस्थित हो गया है। कोलकाता की रंगकर्मी संस्‍था मातृशक्ति से वंचित हो गयी है। यह रिक्‍तता बनी रहेगी और इसे हम सदैव महसूस करेंगे। उनका जाना राजस्‍थान, उत्‍तरप्रदेश और पश्चिम बंगाल की ही क्षति नहीं है बल्कि देश के सांस्‍कृतिक समाज के लिए एक बड़ी क्षति है।
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#ushaganguly #rangakarmee #kolkata #theatre 




सोमवार, 20 अप्रैल 2020

बनारस घराने की गुणी गायिका सुनन्‍दा शर्मा से एक आत्‍मीय बातचीत

पिता से फलीभूत संगीतज्ञ बेटियों की परम्‍परा


प्रतिबद्ध और समर्पित कलाकारों से संवाद लम्‍बे संयोगों के बाद सुयोग से सम्‍भव हो पाता है। बनारस घराने की यशस्‍वी गायिका स्‍वर्गीय गिरिजा देवी की समृद्ध शिष्‍य परम्‍परा में सुनन्‍दा शर्मा का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। वे नाम अनुरूप शख्सियत हैं, शख्सियत अनुरूप कलाकार हैं। अपने बारे में उन्‍होंने बातचीत बहुत कम ही की है। एक बार उनको बताया था कि उनकी गुरु मॉं से भी मुझे एक बहुत लम्‍बा संवाद करने का अवसर मिला है जो एक प्रतिष्ठित पत्रिका के अनेक पृष्‍ठों में प्रकाशित भी हुआ था। उस परम्‍परा और उनकी सृजन तथा शिक्षण प्रक्रिया को लेकर एक संवाद आपसे भी आवश्‍यक लगता है। 

तीन-चार वर्षों की इस अपील आग्रह के पूरे होने का संयोग फिर एक दिन इस तरह आया कि यह बातचीत भोपाल से दिल्‍ली लगभग ट्रेन जाने के जरा पहले तक हुई। इस बातचीत में सुनन्‍दा जी ने अपने परिवेश और संयोगों तथा सुयोगों से भरी अपनी यात्रा पर सुनने में बहुत दिलचस्‍प और प्रेरणाभरी अनुभूतियॉं साझा की हैं। सुनन्‍दा जी आज तक अपने दिवंगत पिता को पल भर नहीं भूलतीं जो एक ऊर्जा के रूप में अपनी इस बेटी के साथ कदम-कदम चले, चलते रहे। 

यहॉं एक संयोग का जिक्र करूँगा, जब मैंने गिरिजा देवी जी से बातचीत की थी तब उन्‍होंने भी बतलाया था कि किस तरह उनके पिता ने उनको गायन सहित कितनी दक्षताओं में प्रोत्‍साहित किया और हर समय साथ रहे। वैसे ही पिता सुनन्‍दा शर्मा के भी जिन्‍होंने अपनी प्रतिभासम्‍पन्‍न बेटी को उस पहचान और सम्‍मान की जगह पर देखा जैसी वे ख्‍वाहिश रखते रहे होंगे। 

यह बातचीत सुनन्‍दा जी के आदरणीय पिता के प्रति असीम श्रद्धा के साथ यहॉं प्रस्‍तुत कर रहा हूँ.......

#sunandasharma #banarasgharana 


रविवार, 19 अप्रैल 2020

सिनेमा में पण्डित रविशंकर का संगीत




विख्‍यात सितार वादक पण्डित रविशंकर की जन्‍मशताब्‍दी आरम्‍भ हुई है। शताब्दियॉं, महान कलाकारों के अवसान और प्रस्‍थान की खबरें इस पूरे वातावरण में वह स्‍थान नहीं पा सक पा रही हैं जो प्राय: समान्‍य दिनों में उनको मिला करता था। पिछले दिनों हिन्‍दी सिनेमा की एक बड़ी अभिनेत्री निम्‍मी का निधन भी अखबारों में एक सार्थक ट्रिब्‍यूट नहीं पा सका। विषम परिस्थितियों में अखबारों का प्रकाशन ही अपने आपमें एक साहसिक उपक्रम है। सम्‍पादक, पत्रकार, संवाददाता, प्रेस छायाकार से लेकर घर-घर अखबार पहुँचाने वालो हॉकर तक का हौसला प्रणम्‍य है। हम सबका जीवन चलाने वाले वे अनेक लोग जिनमें डॉक्‍टर, पुलिस, साफ-सफाईकर्मी सबका यह उपकार जीवनभर भुलाया जा सकने वाला नहीं है। कोरोना वायरस की वैश्विक आपदा से भरे पड़े अखबारों में बहुत थोड़ा सा हिस्‍सा इस कठिन लड़ाई से लड़ने में रचनात्‍मक मनलगाव का मिल पा रहा है। सृजनात्‍मक संसार और आम आदमी घर में धँधा रहकर कैसे इस मुश्किल घड़ी से जूझ रहा है, खुद उम्‍मीद नहीं छोड़ रहा है और दूसरों को उम्‍मीद बंधा रहा है, यह भी अब के समय का कालजयी साक्ष्‍य रहने वाला है।

पण्डित रविशंकर विश्‍वख्‍याति के एक ऐसे हिन्‍दुस्‍तानी कलाकार थे जिन पर भारत को हमेशा ही गर्व रहा है। हमने सदैव ही उनकी छबि और असाधारण सर्जनात्‍मक प्रतिभा को बेहद अपनेपन और असीम आदर से देखा है। हालॉंकि यह भी बात यहॉं उल्‍लेखनीय है कि वे उत्‍कर्ष के ऐसे समय में देश छोड़कर अमरीका में जा बसे थे और वहॉं की नागरिकता ग्रहण कर ली थी जब भारतीय कला समाज और आम आदमी उनके यश और सांस्‍कृतिक वैभव को महसूस कर रहा था और अपनी अनुभूतियों में आनंद का अनुभव कर रहा था। बीसवीं सदी के आरम्‍भ में लगभग इसी काल में सौ साल पहले जब उनका जन्‍म वाराणसी में हुआ। उनके पिता श्‍याम शंकर शहर के प्रतिष्ठित बैरिस्‍टर थे और ऊँचे ओहदे पर काम करते हुए राजघराने से जुड़े हुए थे। बड़े भाई विख्‍यात कोरियोग्राफर उदय शंकर के सान्निध्‍य में उनकी कलायात्रा का आरम्‍भ हुआ। युवावस्‍था तक भाई के साथ नृत्‍य में सहभागी सहयोगी रहते हुए अठारह वर्ष की उम्र में शास्‍त्रीय संगीत की प्रशिक्षण प्राप्‍त करने वे मैहर उस्‍ताद अलाउद्दीन खॉं साहब के पास आ गये। लगभग छ: वर्ष उनकी शिष्‍य परम्‍परा में रहते हुए पण्डित रविशंकर ने सितार वादन सीखा और आश्‍वस्‍त हुए तथा अपनी सांगीतिक यात्रा आरम्‍भ की। बाद की सर्जनात्‍मक यात्रा उनकी अपनी गहरी साधना, उत्‍कृष्‍ट अभिव्‍यक्ति और साज पर असाधारण अधिकार के साथ वादन में प्रवृत्‍त होने से परवान चढ़ी। भारत की स्‍वतंत्रता के बाद हमको जिस सांस्‍कृतिक प्रभाव और उत्‍कर्ष की जरूर थी वह पण्डित रविशंकर जैसे महान कलाकार की विलक्षण प्रतिभा के विश्‍वव्‍यापी चमत्‍कारिक असर के साथ समृद्ध होता चला। संगीत नाटक अकादमी अवार्ड, पद्मभूषण और विभूषण, पॉंच बार ग्रैमी अवार्ड और अन्‍तत: भारत रत्‍न तक आते-आते उनका परचम चहुँओर फैल चुका था। 

पण्डित रविशंकर की सांगीतिक उपलब्धियों को देश ने अपने भीतर ही अनुभूत किया। उनके भारतीय संगीत जगत में असाधारण अवदान के बीच कुछ महत्‍वपूर्ण फिल्‍मों में संगीत देना उनका एक अविस्‍मरणीय और अहम योगदान माना जाता है। उनकी इस प्रतिभा का उपयोग सबसे पहले महान फिल्‍मकार सत्‍यजित रे ने किया था। रे की कालजयी फिल्‍म पाथेर पांचाली जो 1955 में बनी थी, इसके संगीत निर्देशन के लिए उन्‍होंने पण्डित रविशंकर को दायित्‍व सौंपा। इस फिल्‍म का संगीत, समकालीन यथार्थ और परिस्थितियों के अनुकूल निर्देशक द्वारा विकसित कथ्‍य और दृष्टि के एकदम अनुकूल था। सत्‍यजित रे संगीत निर्देशक के रूप में पण्डित रविशंकर की भूमिका और लगन से इतने संतुष्‍ट हुए कि उन्‍होंने बाद में उनको अपू ट्रायोलॉजी के लिए भी अनुबन्धित कर लिया। करीब-करीब प्रत्‍येक वर्ष निरन्‍तर आने वाली फिल्‍मों अपराजितो, पारस पाथेर और अपूर संसार के भी वे संगीतकार रहे। इधर साठ के दशक में एक बड़े फिल्‍मकार हृषिकेश मुखर्जी ने भी अपनी महात्‍वाकांक्षी फिल्‍म अनुराधा के लिए पण्डित रविशंकर को अनु‍बन्धित किया जिसका संगीत, गाने आज भी याद किए जाते हैं। 

प्रेमचंद की कहानी गोदान पर इसी नाम से बनने वाली हिन्‍दी फिल्‍म के भी वे संगीत निर्देशक हुए। 1979 में जब गुलजार मीरा फिल्‍म बना रहे थे तब उनके मन में पण्डित रविशंकर से ही संगीत निर्देशक के रूप में जुड़ने का आग्रह करना प्रथम लक्ष्‍य था। इस फिल्‍म में गाने के लिए लता मंगेशकर बहुत रुचि रखती थीं, वे फिल्‍म निर्माण में भी सहयोग करने के लिए तत्‍पर थीं लेकिन उनका आग्रह था कि इसका संगीत हृदयनाथ दें। गुलजार इस बात के लिए तैयार नहीं हुए और पण्डित रविशंकर वाले निर्णय को उन्‍होंने नहीं बदला। अपने सृजनात्‍मक आग्रहों और निर्णयों में अत्‍यन्‍त पक्‍के गुलजार ने पण्डित रविशंकर से ही इसका संगीत तैयार कराया। यहॉं यह बात उल्‍लेखनीय है कि इस फिल्‍म के फिर बारह गाने वाणी जयराम ने गाये। मीरा फिल्‍म का संगीत पक्ष और सभी रचनाऍं उत्‍कृष्‍टता के स्‍तर पर कम नहीं ठहरतीं। पण्डित रविशंकर ने एक अमरीकन फिल्‍म चार्ली का संगीत भी 1968 में तैयार किया था और रिचर्ड एटिनबरो की फिल्‍म गांधी का भी 1982 में जिसके लिए वे ऑस्‍कर नामित भी हुए थे। 

दिव्‍य और अलौकिक संगीत मन और आत्‍मा से निकलता है और दुनिया तक सम्‍प्रेषित होता है। पण्डित रविशंकर का संगीत इसी श्रेणी का था। कला के असाधारणपन ने ही उनके व्‍यक्तित्‍व को भी अलग सी दिव्‍यता और देवत्‍व प्रदान किया था। परम सम्‍मोहन से भरा उनका चेहरा दुनिया में भारतीय गर्व की पहचान था। वे एक ऐसे संगीत पुरुष थे जो वाराणसी की आध्‍यात्मिक मेधा, संगीत के सर्वोत्‍कृष्‍ट गंगाजलीय आचमन करके दुनिया में विख्‍यात हुए थे। पण्डित रविशंकर की जन्‍मशताब्‍दी पर यही कहा जा सकता है कि उनका यश आने वाली अनेकों शताब्दियों में इसी प्रकार छाया रहेगा।


शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

चाक एन डस्‍टर फिल्‍म और हमारा शैक्षिक परिदृश्य




समय चाहे कोई भी हो, अच्‍छा सिनेमा और दर्शक इनके बीच एक बड़ी सी दूरी बराबर बनी रहती है। अखबारों में भी सिनेमा पर सार्थक चर्चा या समीक्षा के दिन बरसों पहले पूरे हो चुके हैं। अब समीक्षाऍं सम्‍मोहनभरी उदारता को व्‍यक्‍त करती हैं। सिनेमा के प्रति आधा-अधूरा या बिल्‍कुल भी ज्ञान न रखने वाले उसके बारे में अपना फैसला लिख दिया करते हैं। यहॉं भी विभाजन अंग्रेजी और हिन्‍दी फिल्‍म पत्रकारिता का बहुत पृथक-पृथक है। अंग्रेजी में सिनेमा का विश्‍लेषण दृष्‍टान्‍तपरक होता है जिसके लिए अखबारों में बहुत जगह है। हिन्‍दी अखबार की समीक्षा तीन सौ शब्‍दों में खत्‍म हो जाती है। ऐसे ही स्‍थूल कारणों के बीच यदि तीन-चार साल पहले चाक एन डस्‍टर जैसी फिल्‍म भी लोगों तक नहीं पहुँच सकी तो यह अपनी ही पहुँच का पक्षपातपूर्ण होना है। कल इस फिल्‍म को देखते हुए यही लगा कि एक सार्थक और सुथरी फिल्‍म को कितने गुणी, अनुभवसिद्ध और प्रतिभासम्‍पन्‍न कलाकार अपने होने का अर्थ प्रदान करते हैं और उस फिल्‍म का सिनेमाघरों में आना और चले जाना पता ही नहीं चलता। 


चाक एन डस्‍टर को दिल्‍ली, राजस्‍थान, उत्‍तरप्रदेश और बिहार राज्‍यों में करमुक्‍त भी किया गया था। यह फिल्‍म शिक्षा प्रदान करने वाले निजी विद्यालयों में मालिकों, प्रबन्‍धकों और दुष्‍टवृत्ति अवसरवादियों के हस्‍तक्षेप पर केन्द्रित है। फिल्‍म में हम देखते हैं कि किस तरह मालिकों की खुशामद करके, उनको भ्रमित करके स्‍कूल की सुपरवायलर महिला कामिनी गुप्‍ता प्रिंसीपल बन जाती है। जितने समय वह सुपरवायजर रहती है, प्रिंसीपल की प्रतिनिधि रहती है फिर बाद में वह हथकण्‍डे अपनाकर प्रिंसीपल को हटवा देती है और स्‍वयं अपने नेतृत्‍व को अपने व्‍यवहार में और कटुता और संवेदनहीनता लाकर शिक्षिकाओं का काम करना मुश्किल कर देती है। व‍ह अपने से भी वरिष्‍ठ और अनुभवी अध्‍यापिकाओं के साथ अपमानजनक व्‍यवहार करती है। उनकी मानसिक शान्ति को भंग करती है और ऐसी स्थितियों तक ले आती है कि वे नौकरी छोड़कर चली जायें। उच्‍च प्रबन्‍धन में इस प्रिंसीपल का तर्क यह होता है कि वरिष्‍ठ हो जाने के कारण इनको जितना वेतन दिया जा रहा है उतने वेतन में तीन नये अध्‍यापक रखे जा सकते हैं। 

स्‍कूल चलाने वाले मालिकों के बेटे के पास इसे ऊँचाई पर ले जाने का स्‍वप्‍न है। वह एक दूसरे स्‍कूल मालिक से स्‍पर्धा रखता है जिनका स्‍कूल सर्वश्रेष्‍ठ है और अधिक बड़े परिणामों वाला। जो स्‍कूल सर्वश्रेष्‍ठ है उसके मालिक का रुझान भी इस कम अनुभवी स्‍पर्धी को ध्‍वस्‍त कर देने का है। इस तरह कान्‍ताबेन स्‍कूल की वरिष्‍ठ अध्‍यापिका विद्या को उनकी क्षमता और पढ़ाने के तरीके पर प्रश्‍न चिन्‍ह लगाते हुए टर्मिनेट कर देना स्‍कूल और प्रिंसीपल को भारी पड़ जाता है। विद्या को स्‍कूल में ही हृदयाघात होना और अस्‍पताल में उनकी एंजियोप्‍लास्टि के बाद ज्‍योति जो एक दूसरी गुणी टीचर हैं, इस मोर्चे को सम्‍हालती है। नौकरी जाने के खतरे से डरी साथी अध्‍यापिकाऍं रो रही हैं, भयभीत हैं, बेबस हैं लेकिन खुलकर ज्‍योति का समर्थन कर पाती। ज्‍योति अपना इस्‍तीफा देती है और एक शिक्षक के मान सम्‍मान का प्रश्‍न उठाते हुए आमजन के बीच सम्‍मान के प्रश्‍न और प्रबन्‍धन की हठधर्मिता के खिलाफ जनसमर्थन हासिल करती है। सोशल नेटवर्क और पूर्व छात्रों के समर्थन से यह विषय इतना बड़ा बन जाता है कि आखिर में प्रबन्‍धन को झुकना होता है। फिल्‍म के अन्‍त में विद्या और ज्‍योति को उसी स्‍कूल में नौकरी एवं एक बड़ा इनाम मिलता है लेकिन वे नौकरी को स्‍वीकार न करके इनाम की राशि से एक ऐसे स्‍कूल को बनाने का संकल्‍प प्रकट करती हैं जिसमें अन्‍याय, अपमान, भेदभाव, पक्षपात न हो, छात्रों के भविष्‍य के साथ खिलवाड़ न हो। ज्‍योति और विद्या यह संकल्‍प अपनी ईमानदार और भली प्रिंसीपल इन्‍दु शास्‍त्री के नेतृत्‍व में पूरा करना चाहती हैं। आखिरी का उत्‍तर दिलचस्‍प होता है जब दोनों से पूछा जाता है, आप क्‍या करेंगी तो दोनों जवाब देती हैं, हम वही करेंगे, चाक एन डस्‍टर।

जिस प्रकार के सकारात्‍मक सन्‍देश के साथ फिल्‍म खत्‍म होती है, वह ही दर्शकों के मन में रह जाने वाली है। फिल्‍म में ईमानदार प्रिंसीपल इन्‍दु शास्‍त्री की भूमिका जरीना वहाब ने निभायी है। विद्या शाबाना आजमी हैं। ज्‍योति जूही चावला। कामिनी गुप्‍ता दिव्‍या दत्‍ता। उपासना सिंह टीचर मंजीत। अन्‍य कलाकारों में मित्रवत उपस्थिति जैकी श्रॉफ, अतिथि भूमिका ऋषि कपूर की है। विद्या के पति के रूप में गिरीश कर्नाड हैं। तेजतर्रार चैनल रिपोर्टर के रूप में ऋचा चड्ढा। जैसा कि शुरू में कहा यह फिल्‍म बहुत सारे अनुभवी कलाकारों का समाज को तोहफा है एक अच्‍छी फिल्‍म के रूप में। फिल्‍म भावनात्‍मक दृश्‍यों का मन को छू जाने वाला गुलदस्‍ता भी है। विद्या को हार्ट अटैक के बाद प्रायवेट अस्‍तपाल में नर्स का बेटी से रिसेप्‍शन में पचास हजार रुपये जमा करने को कहना, हमारी आज की महँगी चिकित्‍सा और आम आदमी की त्रासदी पर कटाक्ष है। आपसी संवेदनशीलता यह भी है कि ज्‍योति यह बन्‍दोबस्‍त करती है। बाद में विद्या के देश दुनिया में विभिन्‍न बड़ी जगहों पर काम करने वाले पूर्व छात्रों का समर्थन पूरे अवसाद के लम्‍हों को बदल देता है। यों तो कलाकारों में सभी का अभिनय अपनी जगह बहुत महत्‍वपूर्ण है लेकिन दिव्‍या दत्‍ता ने कामिनी गुप्‍ता के किरदार को नकारात्‍मकता के उच्‍चतम स्‍तर पर ले जाकर जिया है। वे इस फिल्‍म में जितना दर्शकों की नफरत प्राप्‍त करती हैं उतनी ही उनकी प्रतिभा को सराहा जाना चाहिए। इस किरदार की खासियत यह है कि यह अहँकार से भरा, निर्मम और षडयंत्रों में माहिर है लेकिन अन्‍यथा कोई वैसे आक्षेप नहीं हैं जो फिल्‍म के स्‍तर को जरा भी प्रभावित करें। सेडिस्‍ट होना कामिनी के मनोविज्ञान का प्रबल हिस्‍सा है। 

जयन्‍त गिलाटर निर्देशित यह फिल्‍म आज की विसंगतियों, खतरों की बात करते हुए शिक्षा के संसार में संवेदनशील एवं मानवीय हस्‍तक्षेप की बात करती है। इसे नजरअन्‍दाज नहीं किया जा सकता। इस फिल्‍म को जरूर देखा जाना चाहिए। फिल्‍म को रंजीव वर्मा और नीतू वर्मा ने लिखा है। संवाद बहुत प्रभावी हैं। बाबा आजमी बरसों बाद इस फिल्‍म का छायांकन करने आये हैं। जावेद अख्‍तर के गीत और संदेश शांडिल्‍य का संगीत मन को छूता है। उत्‍कृष्‍टता के लिहाज से मुझे यह चार सितारा फिल्‍म लगती है। 

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