शुक्रवार, 4 दिसंबर 2020

Insta Baton Baton Mein 155 Richa Jain l विख्‍यात कथक नृत्‍यांगना एवं गायिका सुश्री ऋचा जैन से हमने बातचीत की #instabatonbatonmein के 155वें एपिसोड में....

Insta Baton Baton Mein 153 Amit Khanna l प्रख्‍यात फिल्‍मी गीतकार, निर्माता एवं गुणी लेखक श्री अमित खन्‍ना से हमने बातचीत की #instabatonbatonmein के 153वें एपिसोड में....

Insta Baton Baton Mein -152 Utpal Datta I सुप्रतिष्ठित फिल्‍म क्रिटिक श्री उत्‍पल दत्‍ता से हमने बातचीत की #instabatonbatonmein के 152वें एपिसोड में....

Baton Baton Mein Part 151 - Dr Kalyani Bondre I सुविख्‍यात गायिका डॉ कल्‍याणी बोन्‍द्रे से हमने बातचीत की #instabatonbatonmein के 151वें एपिसोड में....

Insta Baton Baton Mein 154 Suman Doonga l #instabatonbatonmein के 154वें एपिसोड में हमने बातचीत की सुश्री सुमन डूँगा से जो कि संस्‍कृति के क्षेत्र में अपनी सक्रियता के लिए नई दिल्‍ली में जानी जाती हैं......

सोमवार, 23 नवंबर 2020

छलांग

क्षमताओं और चुनौतियों में अतिरेक की.....


अच्‍छा सिनेमा को उसका दर्शक मिल ही जाता है। यह अच्‍छा है कि अब हमारे यहॉं कुछ संजीदा सितारे भी निर्माता और निर्देशक के साथ होते हैं। नहीं तो यह भी सम्‍भव है कि हमारा पैसा मिल गया, फिर बन गयी, अब हमको क्‍या लेना-देना लेकिन सतीश कौशिक जैसे गम्‍भीर फिल्‍मकार और विलक्षण अभिनेता इससे आगे बढ़कर अपनी जिम्‍मेदारी समझते और निबाहते हैं। मैं इस फिल्‍म को देखने के लिए सतीश जी के ट्वीट से ही प्रवृत्‍त हुआ हूँ और छलांग मुझे अच्‍छी भी लगी है। निर्देशक हंसल मेहता ने बहुत ही सहज प्रवाह में एक मनभावन फिल्‍म गुणी कलाकारों के साथ मिलकर बस रच दी है यह कहा जाना चाहिए। 

 

छोटी जगहों पर प्राय: कुछ न कुछ अनूठा और असाधारण हुआ करता है। यह जरूरी नहीं कि वह देश्‍व्‍यापी ख्‍याति का हो लेकिन उसकी प्रेरणा कई बार अनुभूतियों से अनुभूतियों तक बड़ी दूर तक चली जाती है। इतनी दूर तक कि देश्‍व्‍यापी हो जाती है। छलांग में एक छोटा सा स्‍कूल है। छात्र-छात्राऍं हैं। हेड मिस्‍ट्रेस (इला अरुण) हैं। दो-तीन सर उनमें से भी एक कच्‍चे सर याने राजकुमार राव का घरबार जिसमें कभी भी न हँसने और हमेशा लानत भेजने वाली प्‍यारी सी मॉं (बलजिन्‍दर कौर) और गहरे धीरज से भरे आराम और इत्‍मीनान को जीते हुए रिटायर्ड से पिता (सतीश कौशिक)।

हमारे देश में नौकरी न होने का कड़वा सच है। अपने बाल-बच्‍चों के लिए हर आदमी कहीं न कहीं याचक, खिसियाहट या गिड़गिड़ाहट के भाव में भले चार दिन की ही क्‍यों न मिले नौकरी की सिफारिश किए बिना न जी सका है और बच सका है। नायक (राजकुमार राव) के पिता ने बेटे के लिए यह कर दिया है। जिसको कुछ न आये वह खेल टीचर बन जाये या पीटी सिखाये, यह भी अजीब सा दर्शन है। नायक को समाज सुधारक होने का भी चस्‍का है। शहर में वेलेण्‍टाइन डे के दिन नायिका (नुसरत भरूचा) के माता-पिता को ही अपने मूर्खतापूर्ण यश का शिकार बना लेता है। वह नायिका चुनौती देने उसी स्‍कूल में टीचर बनकर आ जाती है। तीसरा कोण एक प्रशिक्षित और कॉंतर शिक्षक (जीशान अयूब) का खेल का टीचर बनकर आ जाना है जो छात्रों से लेकर नायक को भी अपने बल और पैंतरों से पसीना छुटवा देता है। 

कहानी इसी दायरे में पनपती है। यहॉं खलनायक कोई नहीं है। जीत-हार का जो द्वन्‍द्व है उसमें रोमांसात्‍मक ख्‍वाहिशों का बनना, प्रभावित होना और दॉंव पर तक लग जाना शामिल है। नायक की स्‍कूटर की पीछे तकिए बंधे हैं और प्रतिद्वन्‍द्वी के पास नयी बुलेट है। नायिका तय करती है उसे कहॉं बैठना है, किसका कंधा पकड़ना है। फिल्‍म में यह खूब दिलचस्‍प है कि नायिका, नायक, नायक के पिता सब शराब के शौकीन हैं जो अनेक महत्‍वपूर्ण दृश्‍य हाथ में पैग और मन में गहन दार्शनिक भाव का बोध कराते हैं। नायक का एक अधेड़ मित्र (सौरभ शुक्‍ला) उस स्‍कूटर की स्‍पेटनी की तरह ही समझिए जिसमें पीछे की सीट पर तकिया लगा है।

 

नायक और प्रतिद्वन्‍द्वी में स्‍पर्धा कह लें या मुकाबला, इसी तरह से होता है कि एक टीम एक पास है और दूसरी टीम दूसरे के पास। बॉस्‍केट बॉल से लेकर कबड्डी तक कितने मौके जब लगता है कि हाथ से जीत छूट रही है, जीत की लकीर तक पैर पहुँचते-पहुँचते हार जायेगा या फिसल जायेगा, तब जिजीविषा और हौसला अपना काम कर दिखाता है। यह फिल्‍म अपने सुथरे होने से पसन्‍द आती है। लगभग सवा दो घण्‍टे की फिल्‍म में कहीं कोई सतहीपन नहीं है, सतही मनोरंजन नहीं है। अपने-अपने हिस्‍से का हृयूमर सौरभ शुक्‍ला भी गजब का देते हैं और सतीश कौशिक भी। जीवन को बहुत ही भावुकता और संवेदनशीलता के साथ देखने का मानवीय कर्म है यह छलांग फिल्‍म। एक अच्‍छे अन्‍त के साथ यह आपके मन की पोथी को भी बहुत सन्‍तोष की साथ बन्‍द करती है थोड़ी देर आराम देने के लिए.............

बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

Insta Baton Baton Mein 144 Vijayalaxmi l #instabatonbatonmein में हमारी बातचीत हुई प्रतिष्ठित चित्रकार, शिल्‍पकार सुश्री विजयलक्ष्‍मी से....

Insta Baton Baton Mein 143 Tripti Shakya l #instabatonbatonmein में हमारी बातचीत हुई प्रसिद्ध भजन गायिका सुश्री तृप्ति शाक्‍या से.....

Insta Baton Baton Mein 142 Chandrashekhar Phanse l #instabatonbatonmein में हमारी बातचीत हुई विख्‍यात सितार वादक श्री चन्‍द्रशेखर फणसे से... से.....

Jyon Ki Tyon Sanjay Mahajan / फेसबुक में नयी पहल संवाद की #jyonkityon हमारे साथ हुए सुविख्‍यात गणगौर नर्तक एवं गुड़‍िया शिल्‍पी संजय महाजन....

Insta Baton Baton Mein 141 Bhavna Talwar l #instabatonbatonmein में हमारी बातचीत हुई प्रख्‍यात पटकथाकार, निर्देशक सुश्री भावना तलवार से.....

मंगलवार, 29 सितंबर 2020

Insta Baton Baton Mein 136 - T Reddy Lakshmi । #instabatonbatonmein में हमारी बातचीत हुई सुपरिचित कुचीपुड़ी नृत्‍यांगना सुश्री टी रेड्डी लक्ष्‍मी से....

Insta Baton Baton Mein 135 - #instabatonbatonmein में हमारी बातचीत हुई प्रख्‍यात फिल्‍म कलाकार अभिनेता श्री चन्‍दन रॉय सान्‍याल से....

Insta Baton Baton Mein 134 Vidha Lal । #instabatonbatonmein में हमारी बातचीत हुई सुपरिचित कथक नृत्‍यांगना सुश्री विधा लाल से....

बुधवार, 23 सितंबर 2020

Insta Baton Baton Mein 132-Dr. Sharodi Saikia I #instabatonbatonmein में हमारी बातचीत हुई सुप्रतिष्ठित सत्रिय नृत्‍यांगना एवं अध्‍येता डॉ. शारोदी सैकिया से....

Insta Baton Baton Mein 131-Sangeeta Pathak I #instabatonbatonmein में हमारी बातचीत हुई सुपरिचित चित्रकार सुश्री संगीता पाठक से......

Insta Baton Baton Mein 130 Vijay Ghate I #instabatonbatonmein में हमारी बातचीत हुई विख्‍यात तबला वादक पण्डित विजय घाटे से....

Insta Baton Baton Mein 129 - Priya Patil I #instabatonbatonmein में हमारी बातचीत हुई गुणी चित्रकार सुश्री प्रिया पाटिल से......

शनिवार, 29 अगस्त 2020

Insta Baton Baton Mein 117 Vasant Kashikar I #instabatonbatonmein में आज हमने बातचीत की देश के वरिष्‍ठ रंगकर्मी निर्देशक व अभिनेता श्री वसंत काशीकर जी से....

।। रात अकेली है ।।

बाहर दुनिया बहुत खराब है, हमसे अकेले न होगा……..


 
बड़े दिनों बाद एक ऐसी फिल्‍म की बात करने का मन हुआ है जिसकी पटकथा बड़ी मजबूत है। जिसमें रहस्‍यात्‍मकता को बरकरार रखा गया है। जिसमें कलाकारों ने अपना अपना काम बहुत अच्‍छे तरीके से किया है। जिसमें यथार्थ को बुनने में अतिरेक का सहारा नहीं लिया गया है। जिसमें महानगरीय वैभव या भव्‍यता से अलग एक एक शहर, उसकी प्रकृति, उसकी पहचान और वहॉं की पूरी स्‍वाभाविकता को फिल्‍म के पक्ष में ले लिया गया है। यह बात अलग है कि एक भी किरदार कानपुर की बोली नहीं बोलता है लेकिन फिल्‍म कानपुर के वातावरण में बैठती खूब जगह पर है।
 
रात अकेली है की बात कर रहा हूँ। हालॉंकि इस फिल्‍म पर सब जगह लिखा जा चुका है। लेकिन मैंने नहीं पढ़ा इसलिए अपनी धारणाओं में मुक्‍त भी हूँ और स्‍वभाव में भी। यह एक रहस्‍यप्रधान अपराध कथा है जिसमें एक उम्रदराज दूल्‍हे का कत्‍ल हुआ है जो भरेपूरे परिवार का मुखिया है। न केवल मुखिया है बल्कि चार नाते-रिश्‍तेदारों का भी सरपरस्‍त है। उस रात को बखूबी पेश किया गया है जहॉं कुछ ही घण्‍टों में शादी-ब्‍याह का कोलाहल खत्‍म हो जाता है। तमाम लोग, गाडि़यॉं, खानपान आदि सब आ, जा और खा चुके हैं। बड़े से घर में बत्तियों की झालर शान्‍त सी किसी अनिष्‍ट, किसी अप्रिय वातावरण को रात के सन्‍नाटे में व्‍यक्‍त कर रही हैं। घर में चूँकि मुखिया और वह भी दूल्‍हा सुहागरात के बिस्‍तर पर मरा पड़ा है और एक पुलिस अधिकारी जो कि इन्‍स्‍पेक्‍टर रैंक का है जॉंच करने आया है, घर के लोग अपनी शक्ति, रसूख और पल भर में मोबाइल को लगभग हथियार की तरह इस्‍तेमाल करने वाली हेकड़ी में कमतर नहीं जान पड़ते।
 
इस कत्‍ल की तह तक पहुँचना इन्‍स्‍पेक्‍टर के लिए पहले एक ड्यूटी होती है फिर जब वह देखता है और लगभग जल्‍दी ही देख लेता है कि पूरा माहौल उस नयी लड़की को इस कत्‍ल के इल्‍जाम में फँसाने और सजाने दिलाने को व्‍यग्र है जो उस उम्रदराज दूल्‍हे की दुल्‍हन बनने जा रही थी, उसके लिए सच तक पहुँचना एक चुनौती और मिशन दोनों बन जाते हैं। इसमें इन्‍स्‍पेक्‍टर का उस लड़की के प्रति आकृष्‍ट होना एक भावनात्‍मक कारण बनता है लेकिन उसकी राह आसान नहीं होती क्‍योंकि जिसका कत्‍ल हुआ है उसका पूरा परिवार अपने-अपने स्‍वार्थों में लिप्‍त है। सभी को जायदाद का लालच है। यह सिद्ध और साबित है कि कि मारा गया व्‍यक्ति अय्याश रहा है और सन्‍देह की सुई उसी से दिशा पकड़ती और भटकती है जो उसके शिकार रहे हैं या जो इससे जुड़े तमाम रहस्‍यों को जानते गये हैं। यहॉं एक निर्दलीय विधायक से पारिवारिक पहचान और उसकी बेटी का इस परिवार की बहू बनकर आने की आगामी योजना के अलग निहितार्थ हैं जिसमें भावी दामाद को किसी व्‍यापार में जमा देना भी विधायक का शगल है सो वह भी इस कत्‍ल के षडयंत्र का हिस्‍सा धीरे धीरे नजर आता है।
 
जिद्दी इन्‍स्‍पेक्‍टर राजनैतिक दबावों में नहीं आता। कई बार वह अपने लिए अवसर मांगकर काम को आगे बढ़ाता है लेकिन बड़े पुलिस अधिकारी भी विधायक के साथ हैं और नजरअंदाज करने की स्थिति में नहीं हैं। फोन पर जब वह अपने इन्‍स्‍पेक्‍टर को यह समझाते हैं कि विधायक निर्दलीय हैं मगर उनकी पैठ दोनों जगह है तब दर्शकीय हँसी शायद रुकती न होगी। तफ्तीश करते हुए इन्‍स्‍पेक्‍टर के लिए जैसे जैसे जॉंच आगे बढ़ती जाती है, सच तक पहुँचना बहुत निजी विषय बनता चला जाता है। रसूखदार लोग उसको इस तरह फँसा भी देना चाहते हैं कि वह सब तरफ से समाप्‍त हो जाये। उस पर होने वाला हमला आदि उदाहरण है लेकिन नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने खूब दम से अपनी भूमिका को अंजाम दिया है। इस फिल्‍म में हम गैंग ऑफ वासेपुर के दो सशक्‍त कलाकारों नवाज और तिग्‍मांशु धूलिया को देखते हैं। तिग्‍मांशु पुलिस अधिकारी बने हैं जो विधायक से बंधे हुए हैं। राधिका आप्‍टे फिल्‍म की नायिका है, अपनी तरह से मासूम लगती हैं मगर शोषण का शिकार और उसी में विद्रोही हो गयी चम्‍बल की लड़की के रूप में उनके काम को भी भुलाया नहीं जा सकता। अच्‍छे कलाकारों की बड़ी संख्‍या है। विभिन्‍न किरदारों में, यहॉं तक कि स्‍वानंद किरकिरे भी अण्‍डरप्‍ले अपना रोल खूब अदा करते हैं।
 

रात अकेली है, जिस समझबूझ के साथ बनी है उसकी पूरी प्रक्रिया को देखते हुए यह बतला देना उचित नहीं लगता कि आखिरकार अपराधी होता कौन है और इस कत्‍ल की वजह क्‍या होती है क्‍योंकि देखते हुए दर्शक जब स्‍वयं अन्‍त तक जायेगा तब ही उसको यह समाधान ऐसा लगेगा जैसे वह स्‍वयं ही इस छानबीन में निर्देशक (हनी त्रेहन), लेखक और पटकथाकार (स्मिता सिंह) के साथ कलाकारों के आसपास या बीच से होते हुए गुजर रहा है। इस फिल्‍म को देखना अपने आपमें दिलचस्‍प अनुभव है। यह संयोग है कि हाल ही में क्‍लास ऑफ 83 देखी थी जो पुलिस विषय से जुड़ी थी, इधर यह फिल्‍म भी एक जुनूनी और खोजी पुलिस अधिकारी के लक्ष्‍य का हिस्‍सा बनकर सामने आती है। इस फिल्‍म के चुस्‍त सम्‍पादन के लिए ए श्रीकर प्रसाद को श्रेय दिया जाना चाहिए जो बहुत तरीके से घटनाओं को जोड़ते हैं। सिनेमेटोग्राफर पंकज कुमार ने हाइवे के दृश्‍य, एनकाउण्‍टर, अपराध की भयावहता और वीभत्‍सता को बहुत सजीव ढंग से फिल्‍माया है। यह फिल्‍म जिस वास्‍तविक प्रभाव के साथ घटित होती है, वह ऐसा लगता है जैसे किसी सच्‍ची घटना का सच्‍चा किस्‍सा हमारे सामने पुनर्रचित हो रहा हो। इसके लिए निर्देशक की प्रतिभा की सराहना की जानी चाहिए। स्मिता सिंह ने भी पूरी कहानी को पटकथा में जिस तरह बांधा है, वह बहुत महत्‍वपर्ण है।
 
रात अकेली है में एक दिलचस्‍प बात का जिक्र न करूँ तो बात अधूरी रह जायेगी। इस फिल्‍म में इन्‍स्‍पेक्‍टर और उसकी मॉं के आत्‍मीय सरोकार बड़े रोचक हैं। तनाव से भरी फिल्‍म में जब जब दोनों के प्रसंग आते हैं, मॉं चाहती है लड़का शादी कर ले और लड़का शादी को लेकर अनेक किन्‍तु-परन्‍तु के साथ मॉं को उत्‍तर देता है। मॉं अपढ़ है लेकिन हवा का रुख जानती है। वह जिस तरह से पति के साथ अपने अनुभवों की बात करती है, जिस तरह से बेटे से उसकी चाल और बदलते हाल पर कुछ कुछ कहती है, वह इस बात को रोचक ढंग से साबित करता है कि मॉं से कुछ छुपा नहीं रहता। आखिरी में जब वह षडयंत्र में फँसने से बच गयी नायिका को स्‍टेशन छोड़ने जाता है तब भी मॉं का कथन बहुत खास है। यह भूमिका इला अरुण ने खूब निभायी है। फिल्‍म के आखिरी दृश्‍य में नवाज का अभिनय बहुत ऊँचाई पर दीखता है जब वह नायिका राधिका आप्‍टे से कहते हैं कि बाहर दुनिया बहुत खराब है, हमसे अकेले न होगा, इसके बाद दोनों एक-दूसरे की बॉंहों में होते हैं, यह वाक्‍य बहुत खूबसूरत है जो लेखिका निर्देशक ने उस जुझारू और बहादुर इन्‍स्‍पेक्‍टर से कहलवाया है जो तमाम जोखिम लेकर असल अपराधी को ढूँढ़ निकालता है, बाहर दुनिया बहुत खराब है, हमसे अकेले न होगा……..
 
फिल्‍म के गाने स्‍वानंद किरकिरे ने लिखे हैं जिनका संगीत स्‍नेहा खानविलकर ने दिया है। इतनी तनावभरी फिल्‍म में दोनों की ही यह मेहनत एक तरह से व्‍यर्थ ही है क्‍योंकि प्रेम और विरह, मिलना और बिछुड़ना और प्रेम जैसी विलक्षण अनुभूति की कोमलता का यहॉं ऐसे कठिन विषय में होना निरर्थक ही है।


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शनिवार, 22 अगस्त 2020

फिल्‍म : क्‍लास ऑफ 83


थोपी हुई पराजय का सशक्‍त प्रतिवाद


 

इधर हाल के सप्‍ताहों में घटित हुए कथानकों पर फिल्‍मों का आना सुखद लग रहा है। परीक्षा और गुंजन सक्‍सेना को देखने के बाद अभी क्‍लास ऑफ 83 देखने का अवसर मिला। बॉबी देओल एक बड़े गैप के बाद आये हैं, क्‍लास के बाद उनकी एक सीरीज आश्रम भी है जिसे प्रकाश झा निर्देशित कर रहे हैं। क्‍लास ऑफ 83 देखने के प्रति शुरू से आकर्षण इसलिए था कि इसका नाम जरा भी आकर्षक नहीं है। कलाकारों से लेकर बहुधा टीम अलग सी है मगर प्रतिभाशाली लोग। निर्माता रेड चिली याने शाहरुख खान। फिल्‍म एक आय पी एस अधिकारी के तजुर्बे से जुड़ी, एक उपन्‍यास पर आधारित है जिसमेंं अस्‍सी के दशक की मुम्‍बई में अपराध जगत, उससे जूझने वाली पुलिस के बीच व्‍यवस्‍था और सार्वजनिक जीवन में दोहरे चरित्र के साथ उपस्थिति चेहरों का सच रेखांकित है।


बॉबी देओल ने एक पुलिस अधिकारी की भूमिका निभायी है जो पनिश्‍मेंट पोस्टिंग पर नासिक पुलिस प्रशिक्षण इन्‍स्‍टीट्यूट के डीन के रूप में अपना समय व्‍यतीत कर रहा है। यहॉं नये पुलिस अधिकारियों को प्रशिक्षित किया जाता है उम्र और उसके अनुरूप परिपक्‍वता लेकर आगे चलकर इतिहास रच देने के भ्रम में हैं। उनके लिए समझना, सीखना और समझाने तथा सिखाने वाले सभी एक ही धरातल पर मापे जाते हैं। वे यह भी कुछ अधिक ही भलीभॉंति जानने लगते हैं कि सामने वाला कुण्ठित और समाप्‍तप्राय: हो चला है। डीन विजय सिंह उनके भ्रम को तोड़ता है। उसके अधूरे स्‍वप्‍न हैं जो मन में कॉंटे की तरह चुभा करते हैं। वह तीन-चार युवा अधिकारियों के माध्‍यम से मुम्‍बई में अधूरे छूट गये काम पूरे करना चाहता है। विजय सिंह का ही एक दोस्‍त राघव देसाई (जॉय सेनगुप्‍ता) मुम्‍बई महाराष्‍ट्र पुलिस में उच्‍च पदस्‍थ अधिकारी भी है जो उससे मिलता रहता है।
 
प्रशिक्षित होकर मुम्‍बई में पदस्‍थ होने वाले पुलिस अधिकारी प्रमोद शुक्‍ला (भूपेन्‍द्र जड़ावत), असलम खान (समीर परांजपे) और विष्‍णु वरदे (हितेश भोजराज) और दो और सुर्वे तथा जाधव आरम्‍भ में कुछ लक्ष्‍य लेकर अपने काम की शुरूआत करते हैं लेकिन जल्‍दी ही प्रमोद और विष्‍णु गैंग के गुटों द्वारा खरीद लिए जाते हैं और दुश्‍मन गुट का एनकाउण्‍टर करके मुफ्त का यश हासिल करते हुए प्रसिद्ध या चर्चित भी हो रहे होते हैं और बदनाम भी। विजय सिंह का स्‍वप्‍न यहॉं धसकने लगता है लेकिन एक घटना सब कुछ बिगड़ने के परिणाम के पहले बदलाव बनकर आती है। इधर विजय सिंह के दोस्‍त पुलिस अधिकारी उसकी पोस्टिंग फिर मुम्‍बई करने में सफल होते हैं। तमाम दबावों के बाद भी मुम्‍बई को आपराधिक बीमारी से बचाना उनका भी ख्‍वाब है। इधर असलम, विजय सिंह का विश्‍वास है क्‍योंकि वह अभी भी खरा है लेकिन एक एनकाउण्‍टर में अपराधियों द्वारा असलम को निशाना बनाये जाने और उसके मारे जाने के बाद हताश होकर अपना जीवन समाप्‍त करने का यत्‍न कर रहे विजय सिंह को प्रमोद शुक्‍ला और विष्‍णु आकर रोकते हैं और प्रायश्चित करते हुए उसका साथ देने का वचन देते हैं। तब लड़ाई बेहद दिलचस्‍प और उस परिणाम तब जाती है जिसके लिए विजय सिंह के अन्‍त:संघर्ष चल रहे थे।
 
पूर्वदीप्ति के साथ उस दृश्‍य का स्‍मरण विजय सिंह को हाे आता है जब वह अपनी पत्‍नी को गम्‍भीर बीमार अवस्‍था में छोड़कर अपने साथियों के साथ कालसेकर को पकड़ने जाता है जिसमें उसके कई पुलिस अधिकारी मारे जाते हैं क्‍योंकि वह सूचना अपराधी तक पहुँच चुकी थी जिसे विजय सिंह ने केवल मंत्री से ही साझा की थी। विजय सिंह जब हारकर लौटता है तो उसकी पत्‍नी की मृत्‍यु हो चुकी होती है। अपनी पत्‍नी का अस्थि विसर्जन वह तब करता है जब वह अपने अधिकारियों के साथ बाद के एनकाउण्‍टर में कालसेकर को मार गिराता है। 
 
 
यह फिल्‍म समग्रता में प्रभावित करती है इसलिए लिखना पड़ता है कि किरदार और उसकी जगह के मुताबिक कलाकारों ने अच्‍छा काम किया है। यह बॉबी देओल को एक परिपक्‍व अधिकारी के रूप में प्रस्‍तुत करती है जो दक्षता, निष्‍ठा और कर्तव्‍यपरायणता के बावजूद मुख्‍य दायित्‍वों से अलग हटाकर पुलिस ट्रेनिंग इन्‍स्‍टीट्यूट में डीन बनाकर भेज दिया जाता है। फिल्‍म यह भी बतलाती है कि अपनी मजबूती और दृढ़ता का कोई भी पूर्वाग्रहग्रसित मानसिकता कुछ भी नुकसान नहीं कर पाती। यह अजीब सा ही है कि सच्‍चे, समर्थ और सार्थक लोगों के रास्‍ते में पत्‍थर और कॉंटे भी अधिकता में होते हैं। विश्‍वजीत प्रधान को एक अच्‍छी, बड़ी और सकारात्‍मक भूमिका मिली है। पुलिस इन्‍स्‍पेक्‍टर बने कलाकार महात्‍वाकांक्षी और दिशा भटक जाने की मन:स्थिति को बखूबी व्‍यक्‍त कर पाते हैं। गीतिका त्‍यागी ने नायक विजय सिंह की गम्‍भीर बीमारी से ग्रसित पत्‍नी की भूमिका में संवेदना भरी है।
 
यह फिल्‍म कला निर्देशन, पार्श्‍व संगीत संयोजन और दृश्‍यों के बखूबी फिल्‍मांकन के लिए भी प्रभावित करती है। एनकाउण्‍टर के दृश्‍य बहुत कुशलता से फिल्‍माये गये हैं। निर्देशक ने अस्‍सी के दशक की मुम्‍बई, इलाके, लोग, वातावरण को उसी परिकल्‍पना के साथ प्रस्‍तुत किया है जो उसकी वास्‍तविकता रही थी। क्‍लास ऑफ 83 भारतीय पुलिस और चालीस साल पहले के समय से उन महत्‍वपूर्ण घटनाक्रमों की ओर हमको ला खड़ा करती है जो एक महानगर और उसके बाहृरूपक की भीतर सतह के जोखिमों की ओर इशारा भी कहा जा सकता है। हमारी पुलिस को जरूर यह फिल्‍म देखनी चाहिए क्‍योंकि दस-बीस सालों में एकाध ऐसी सार्थक फिल्‍म बनती है जो विषय के साथ न्‍याय करती है। 

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Insta Baton Baton Mein 113 - Ravi Tripathi I #instabatonbatonmein में आज हमारी बातचीत हुई प्रतिभाशाली गायक कलाकार श्री रवि त्रिपाठी से......

Insta Baton Baton Mein 112-Himani Shivpuri I #instabatonbatonmein में आज हमारी बातचीत हुई सिनेमा, टेलीविजन और रंगमंच की प्रतिभासम्‍पन्‍न अभिनेत्री सुश्री हिमानी शिवपुरी से....

गुरुवार, 20 अगस्त 2020

सिनेमा कथा

 गतांक से आगे......

जब प्राण को देखकर प्राण कॉंप गये

 
लिखने से पहले अपनी दो एक चिढ़ निकाल लूँ। एक तो फेसबुक में जस्टिफाय टेक्‍स्‍ट का प्रावधान नहीं है। फिर आप शीर्षक को सेंटर में नहीं लिख सकते। सब मिलाकर लेफ्ट अलाइन। खैर लेफ्ट हेण्‍डर को लेफ्ट अलाइन से परहेज नहीं होना चाहिए जब वह गुल्‍ली डंडा, बैट बल्‍ला भी उल्‍टे हाथ से खेलता हो। 
 
बहरहाल, सिंघ की कोख में सियार, उस बच्‍चे को अम्‍मॉं अक्‍सर कहा करती थी। रात सोने के पहले जब वह मॉं से कहता, बाथरूम जाना है (यह सुथरा वाक्‍य है, कहता तो था मुत्‍ती करने जाना है) तो मॉं कह देती कि चले जाओ। तब वह कहता, आंगन में बत्‍ती बन्‍द है, तुम भी साथ चलो। इस पर थोड़ा चिढ़कर अम्‍मॉं बत्‍ती जला देती। तब भी वह ठुनककर कहता कि मम्‍मी तुम भी साथ चलो। तब दिन भर के काम से थकी अम्‍मॉं चिढ़कर उठती फिर खासे व्‍यंग्‍य के साथ कहती, अजीब लड़‍िका, सिंघ की कोख मा सियार पइदा भा। बच्‍चा क्‍या जाने, उसे उस वक्‍त जो करना था, जैसे करना था, करके प्रसन्‍न हो गया फिर प्‍यार से उसी अम्‍मॉं के पेट पर पॉंव रखकर सो गया। ऐसा प्राय: होता।  

अच्‍छा लड़का छोटेपन से सिनेमा में घुसा हो ऐसा नहीं था। अम्‍मॉं को भी शौक था। अबकी गरमियों में जब अम्‍मॉं कानपुर गयीं तो तीसरे दिन तैयार होकर अप्‍सरा में राम और श्‍याम जाने को हुईं। इरादा यह था कि चुपके से चले जायें। लड़के को पता न चले। अम्‍मॉं ने अपनी अम्‍मॉं यानी लड़के की नानी को कह दिया था कि हम चुपके बहाने से निकल जायेंगे। पर लड़का चगड़ था वह जान गया कि उसको नहीं ले जा रही हैं, खुद अकेले जा रही हैं तो पैर पटककर रोने लगा। अच्‍छा, रोते हुए वह मुँह ऐसे बिसूरता था कि दो और मिलाकर देने का जी करता था लेकिन अम्‍मॉं के पास कोई चारा न था। साथ ले जाना पड़ा।  

लड़का बड़ा खुश। हाथ पकड़े साथ जा रहा था। अम्‍मॉं चिढ़ी सी थीं सो खींचे लिए जा रही थीं, लड़का भी खिंचा चला जा रहा था पर था खुश। गड़रिया मोहाल की गलियों से निकलते हुए मछली मार्केट से होते हुए अप्‍सरा पहुँच गये और टि‍कट लेकर अन्‍दर। लड़का मन ही मन खुश। उसका टिकट अलग लिया गया था क्‍योंकि तीन साल से ऊपर का था। अब बगल में बैठे बैठे बार बार उछले काहे से सामने जो बैठे थे वो लड़के की तरह तीन साल से ऊपर भर थोड़ी थे, वो चालीस साल के थे तो दिख नहीं रहा था। लड़के ने फिर पसड़ मचायी, तब अम्‍मॉं न खीजकर, खींचकर गोद में बैठा लिया और तभी राम और श्‍याम शुरू हो गयी।
 
सिनेमाघर में अंधेरा तो था ही, जरा देर में लड़का ऊबने लगा। अम्‍मॉं धीरे धीरे डॉंटने लगीं, इसीलिए कह रहे थे, नानी के पास खेलो मगर मानते ही नहीं। अब चुप्‍पै बइठो। लड़का थोड़ी देर बात रखने के लिए चुप बैठा रहा। इतने में सामने जो घटित हुआ तो लड़का थर थर कॉंपने लगा। एक बड़ा गुस्‍सैल, ऑंखों से अंगारे बरसाता हुआ, हाथ में कोड़ा लिए आदमी, एक अच्‍छे खासे बड़े और डरे से आदमी को सीढ़‍ियों से मारते हुए, गिराते हुए नीचे ले आ रहा है और रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। वह जोर जोर से कुछ बोल भी रहा था। इधर लड़के का सब्र छूट गया। अम्‍मॉं से कहने लगा, अभी घर चलो, अभी बाहर चलो ये आदमी हमें भी मारेगा। सब बन्‍द है, अंधेरा है, मम्‍मी चलो अभी चलो, बाहर चलो। अम्‍मॉं ने बहुत समझाया कि ये अभी चला जायेगा। फिर सब ठीक हो जायेगा। लड़के की दोनों ऑंखों में हाथ रख लिया ताकि देख न सके। लेकिन फिर भी परदे पर जो ये भयानक मंजर देखा, लड़के ने मॉं का फिल्‍म देखना दूभर कर दिया।  

आखिर अम्‍मॉं को उठना पड़ा। दो टिकिट के बदले आधे घण्‍टे की फिल्‍म देखकर झुंझलाती, सिर धुनते अम्‍मॉं बाहर आयी। दो थप्‍पड़ लड़के को भी लगाये। लड़का अपना छोटा मोटा रो धोकर चुप हो गया। फिर खुद ही साड़ी के पल्‍ले से उसका मुँह पोंछकर आगे हीरपैलेस के पास टहलाती हुई ले गयी और वहॉं पानी के बतासे खाकर और इस लड़के को भी एक-दो चिढ़े मन से ठुँसाकर घर लौट आयी। नानी ने अम्‍मॉं से पूछा, बिटिया बड़ी जल्‍दी आ गयीं, सनीमा नहीं देखा क्‍या, इसके जवाब में अम्‍मॉं ने अपनी अम्‍मॉं के सामने लड़के को दो ठूँसे और मारे और कहा, तुमसे कहा था अम्‍मॉं, इसको बहलाकर पास रख लो पर ये ऐसा पीछे पड़ा कि न खुद पिक्‍चर देखी न हमें देखने दी। प्राण मारता गिराता अपने साले दिलीप कुमार को सी‍ढ़ि‍यों से नीचे ला रहा था उतने में इसने बैठना दूभर कर दिया। अब आगे से न हम कहीं जायेंगे न इसे ले जायेंगे।
 
सिंघ की कोख में सियार पइदा भा…………...वे बुदबुदाकर बोलीं और मूड खराब करके सो गयीं। लड़का जो था उसका मूड अच्‍छा था, उसके साथ नानी लाड़ करने लगीं। लड़का अब सब भूल चुका था।

मंगलवार, 11 अगस्त 2020

मन में भीतर की ओर खुलने वाले कपाट की बात.....

।। श्रीकृष्‍ण जन्‍म के अभिप्रायों से ।।


अनुभूतियों का संसार अत्‍यन्‍त विराट है। यह मन के भीतर खुलता है। मन जो देह के भीतर होता है। हमें नहीं पता, मन या आत्‍मा की ठीक ठीक जगह देह में कहॉं होती है। इस पर भार देने पर लगता है कि मन अथवा आत्‍मा का स्‍थान रोम-रोम में है। पता नहीं वह सूक्ष्‍मता में कणों की तरह है या स्‍थूल भाव में किसी अत्‍यन्‍त सुरक्षित स्‍थान पर। पता नहीं, किन्‍तु अनुभूतियों के खिड़की-किवाड़ मनात्‍मा से ही खुलते और बहुत कुछ सहेजकर, समेटकर बन्‍द भी हो जाया करते हैं।

इनके खुलने या बन्‍द होने में कोई उद्विग्‍नता नहीं होती बल्कि वहॉं तक
आने वाला मार्ग सात्विकता से सिंचित होता है।

 



श्रीकृष्‍ण का जन्‍म, जन्‍माष्‍टमी का पर्व हमें बहुत सारे मार्गों को दिखाते किसी-किसी मार्ग से उस अनुभूति के द्वार के बाहर मनोहारी दृश्‍य दिखाता है जो हमारी कामनाओं और कल्‍पनाओं में अवस्थित होता है। हमारी दृष्टि, हमारी चेतना मुग्‍ध भाव से उसे ग्रहण कर रही होती है। हम उस क्षण की अलौकिकी से तादात्मित हो जाना चाहते हैं जो सदियों पहले इस क्षण का एक भावनात्‍मक छोर है। यह छोर हमारे हाथ में है। हमने पकड़ा हुआ है। हमारी कामना है कि यह छोर हमसे न छूटे। इसमें जो कम्‍पन है वह सजीव अनुभूति की ऊष्‍मा से भरा है, उसका ताप हमारी हथेली, हमारी अँगुलियॉं महसूस कर रही हैं।

श्रीकृष्‍ण जन्‍म के बाद से कितनी सारी उपकथाऍं उनकी महिमा के साथ मनुष्‍य चेतना का हिस्‍सा बन जाती हैं। विशेष रूप से उनके किशोरवय तक कितना कुछ पुरुषार्थ उनके माध्‍यम से घटित होता है। हम उनके गहरे अभिप्रायों को समझने का प्रयत्‍न करें तो बहुत सारे छोर हमें छूते हुए निकल जाते हैं या उनका स्‍पर्श हमारे हाथों आभासित होता है। उनका कारागार में जन्‍म होना, उसके गहरे भाष्‍य विद्वानों ने किए हैं। उनका जन्‍म दरअसल उस सारी परतंत्रता को समाप्‍त कर देने के आरम्‍भ के साथ होता है जो उस धरा की नियति बना हुआ था। यह जन्‍म स्‍वतंत्रता के सूक्ष्‍म सुख का ऐसा संवेदनाभरा संकेत होता है जो धीरे-धीरे इस भूमि पर स्‍वतंत्रता के ही अस्तित्‍व को स्‍थापित करता है।

 



इसकी कल्‍पना करके भी सिहरन होती है कि कैसे एक आसुरी वृत्ति नम्र और विनयशील देवकी और वसुदेव को कठोर कारागार में अनेक वर्षों से रखे हुए है। किस तरह यह कारागार शिशुओं के जन्‍म और उनके निर्मम वध का साक्षी बना हुआ है। किस तरह एक देव अवतार इस परतंत्रता की भूमि पर जन्‍मते ही दुष्‍टों को सुप्‍त कर देता है, लोह कपाटों का सूखे पत्‍ते की तरह खुल जाना, बेड़ि‍यों का टूटकर बिखर जाना और फिर पिता की वह यात्रा जो यमुना पार अपने मंतव्‍य को प्राप्‍त कर फिर लौट आती है, यह सब काल सापेक्ष वह उपक्रम थे जो देवलीला के साथ सत्‍यता में घटित हो रहे थे। यह जन्‍म और श्रीकृष्‍ण के पुरुषार्थी जीवन का दूसरा सिरा जो वास्‍तव में मानवीय सभ्‍यता और उसकी कालजयी अस्मिता के लिए कभी न विस्‍मृत होने वाली सीख के रूप में आज तक विवेचनीय है, हमारे संज्ञान में, हमारी आने वाली पीढ़ी और पीढ़‍ियों के संज्ञान का यह सदैव विषय रहेगा।

श्रीकृष्‍ण की बाल लीलाओं का वर्णन व्‍याख्‍याकारों के बीच अनेक प्रकार से विस्‍तार का विषय बनता है। उसमें उनके सारे नटखटपन, मित्रों के साथ खेल और उस खेल में अकस्‍मात घटित होने वाली घटनाऍं, भाई बलदाऊ और मित्र सुदामा के साथ उनके सरोकारों और फिर सबके अविभावकों में प्रिय होना, सब बालकों का नेतृत्‍व और समय आने पर चमत्‍कृत कर देना, अपने होने के संकेत देना बहुत सारी कथाओं में बहुत खूबसूरती से निबद्ध हैं। इस बात पर हमने विचार किया है कभी कि इस अनूठे, इस अलौकिक छुटपन में किए गये बहुत सारे काम, उपायों और संहारों के पीछे क्‍या बोध-तत्‍व है! इस काल में असुर वे हैं जो धरा को, नदी हो, पर्यावरण को, पशु पक्षियों के जीवन को क्षति पहुँचा रहे हैं। श्रीकृष्‍ण के छुटपन की अवस्‍था में जन से लेकर पशु पक्षियों और निरीहों-निर्दोर्षों को जीवन मिलता है। जो यमुना नदी, धरा के जीवन का प्रमुख सारतत्‍व है वह एक विषैले सर्प से सहमी हुई है। मनुष्‍य से लेकर मवेशी, पशु-पक्षी सबको उस नदी का पवित्र जल चाहिए जीवन के लिए। श्रीकृष्‍ण उसको धरा से बाहर का रास्‍ता दिखा देते हैं। वह प्राण रक्षा की याचना करते हुए नदी छोड़कर चला जाता है। वे पहला उदाहरण नहीं थे क्‍या नदी की शुद्धि का दायित्‍व उठाने वाले और उसमें सफल होने वाले।

 

वे उस आंचलिकता और ग्रामीण जनजीवन के बीच सारी दुनिया के लिए परिश्रम करने वाले कृषकों और कृषि के माध्‍यम से अन्‍न की अपरिहार्यता की पूर्ति करने वालों के लिए अनुकूलन स्‍थापित करते हैं। इसमें बलदाऊ का हलधर होना क्‍या है! क्‍यों श्रीकृष्‍ण गायों के साथ हैं! गोवर्धन पूजा, गोवर्धन पर्वत को उठा लेना, अन्‍नकूट और ऐसे त्‍यौहार जिसमें मवेशियों का श्रृंगार और पूजा देवी-देवता की तरह होती है, इन सबके पीछे सूक्ष्‍म बात वही है कि एक जीवित और जागती हुई सृष्टि की कल्‍पना इन सबके बगैर असम्‍भव है। श्रीकृष्‍ण वस्‍तुत: छुटपन की अवस्‍था में उस तरह के असुरों का संहार करते हैं जो तरह-तरह के प्राणघातक रोगों और विषैले कीटों की तरह अपनी हद से बाहर हुए जा रहे हैं। बाल श्रीकृष्‍ण धरा को अपने काल में इस तरह से स्‍वच्‍छ और जन को आश्‍वस्‍त करके भाई और सखा के साथ शिक्षा ग्रहण करने जाते हैं.......

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