Sunil Mishr (Film Critic, Art, Culture, Writer Drama, Blogger) Winner of 65th National Award for Best Writing on Cinema in May, 2018
बुधवार, 30 दिसंबर 2020
रविवार, 20 दिसंबर 2020
शनिवार, 19 दिसंबर 2020
बुधवार, 16 दिसंबर 2020
रविवार, 6 दिसंबर 2020
शुक्रवार, 4 दिसंबर 2020
सोमवार, 23 नवंबर 2020
छलांग
क्षमताओं और चुनौतियों में अतिरेक की.....
अच्छा सिनेमा को
उसका दर्शक मिल ही जाता है। यह अच्छा है कि अब हमारे यहॉं कुछ संजीदा सितारे भी निर्माता
और निर्देशक के साथ होते हैं। नहीं तो यह भी सम्भव है कि हमारा पैसा मिल गया,
फिर बन गयी, अब हमको क्या लेना-देना लेकिन सतीश
कौशिक जैसे गम्भीर फिल्मकार और विलक्षण अभिनेता इससे आगे बढ़कर अपनी जिम्मेदारी
समझते और निबाहते हैं। मैं इस फिल्म को देखने के लिए सतीश जी के ट्वीट से ही प्रवृत्त
हुआ हूँ और छलांग मुझे अच्छी भी लगी है। निर्देशक हंसल मेहता ने बहुत ही सहज प्रवाह
में एक मनभावन फिल्म गुणी कलाकारों के साथ मिलकर बस रच दी है यह कहा जाना चाहिए।
छोटी जगहों पर प्राय: कुछ न कुछ अनूठा और असाधारण हुआ करता है। यह जरूरी नहीं कि वह देश्व्यापी ख्याति का हो लेकिन उसकी प्रेरणा कई बार अनुभूतियों से अनुभूतियों तक बड़ी दूर तक चली जाती है। इतनी दूर तक कि देश्व्यापी हो जाती है। छलांग में एक छोटा सा स्कूल है। छात्र-छात्राऍं हैं। हेड मिस्ट्रेस (इला अरुण) हैं। दो-तीन सर उनमें से भी एक कच्चे सर याने राजकुमार राव का घरबार जिसमें कभी भी न हँसने और हमेशा लानत भेजने वाली प्यारी सी मॉं (बलजिन्दर कौर) और गहरे धीरज से भरे आराम और इत्मीनान को जीते हुए रिटायर्ड से पिता (सतीश कौशिक)।
हमारे देश में नौकरी न होने का कड़वा सच है। अपने बाल-बच्चों के लिए हर आदमी कहीं न कहीं याचक, खिसियाहट या गिड़गिड़ाहट के भाव में भले चार दिन की ही क्यों न मिले नौकरी की सिफारिश किए बिना न जी सका है और बच सका है। नायक (राजकुमार राव) के पिता ने बेटे के लिए यह कर दिया है। जिसको कुछ न आये वह खेल टीचर बन जाये या पीटी सिखाये, यह भी अजीब सा दर्शन है। नायक को समाज सुधारक होने का भी चस्का है। शहर में वेलेण्टाइन डे के दिन नायिका (नुसरत भरूचा) के माता-पिता को ही अपने मूर्खतापूर्ण यश का शिकार बना लेता है। वह नायिका चुनौती देने उसी स्कूल में टीचर बनकर आ जाती है। तीसरा कोण एक प्रशिक्षित और कॉंतर शिक्षक (जीशान अयूब) का खेल का टीचर बनकर आ जाना है जो छात्रों से लेकर नायक को भी अपने बल और पैंतरों से पसीना छुटवा देता है।
कहानी इसी दायरे में पनपती है। यहॉं खलनायक कोई नहीं है। जीत-हार का जो द्वन्द्व है उसमें रोमांसात्मक ख्वाहिशों का बनना, प्रभावित होना और दॉंव पर तक लग जाना शामिल है। नायक की स्कूटर की पीछे तकिए बंधे हैं और प्रतिद्वन्द्वी के पास नयी बुलेट है। नायिका तय करती है उसे कहॉं बैठना है, किसका कंधा पकड़ना है। फिल्म में यह खूब दिलचस्प है कि नायिका, नायक, नायक के पिता सब शराब के शौकीन हैं जो अनेक महत्वपूर्ण दृश्य हाथ में पैग और मन में गहन दार्शनिक भाव का बोध कराते हैं। नायक का एक अधेड़ मित्र (सौरभ शुक्ला) उस स्कूटर की स्पेटनी की तरह ही समझिए जिसमें पीछे की सीट पर तकिया लगा है।
नायक और प्रतिद्वन्द्वी में स्पर्धा कह लें या मुकाबला, इसी तरह से होता है कि एक टीम एक पास है और दूसरी टीम दूसरे के पास। बॉस्केट बॉल से लेकर कबड्डी तक कितने मौके जब लगता है कि हाथ से जीत छूट रही है, जीत की लकीर तक पैर पहुँचते-पहुँचते हार जायेगा या फिसल जायेगा, तब जिजीविषा और हौसला अपना काम कर दिखाता है। यह फिल्म अपने सुथरे होने से पसन्द आती है। लगभग सवा दो घण्टे की फिल्म में कहीं कोई सतहीपन नहीं है, सतही मनोरंजन नहीं है। अपने-अपने हिस्से का हृयूमर सौरभ शुक्ला भी गजब का देते हैं और सतीश कौशिक भी। जीवन को बहुत ही भावुकता और संवेदनशीलता के साथ देखने का मानवीय कर्म है यह छलांग फिल्म। एक अच्छे अन्त के साथ यह आपके मन की पोथी को भी बहुत सन्तोष की साथ बन्द करती है थोड़ी देर आराम देने के लिए.............
रविवार, 15 नवंबर 2020
बुधवार, 11 नवंबर 2020
रविवार, 1 नवंबर 2020
शनिवार, 31 अक्तूबर 2020
मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020
शनिवार, 24 अक्तूबर 2020
बुधवार, 21 अक्तूबर 2020
सोमवार, 5 अक्तूबर 2020
शनिवार, 3 अक्तूबर 2020
बुधवार, 30 सितंबर 2020
मंगलवार, 29 सितंबर 2020
शुक्रवार, 25 सितंबर 2020
बुधवार, 23 सितंबर 2020
बुधवार, 16 सितंबर 2020
मंगलवार, 15 सितंबर 2020
सोमवार, 14 सितंबर 2020
बुधवार, 9 सितंबर 2020
सोमवार, 7 सितंबर 2020
शनिवार, 5 सितंबर 2020
बुधवार, 2 सितंबर 2020
मंगलवार, 1 सितंबर 2020
शनिवार, 29 अगस्त 2020
।। रात अकेली है ।।
बाहर दुनिया बहुत खराब है, हमसे अकेले न होगा……..
बुधवार, 26 अगस्त 2020
रविवार, 23 अगस्त 2020
शनिवार, 22 अगस्त 2020
फिल्म : क्लास ऑफ 83
थोपी हुई पराजय का सशक्त प्रतिवाद
बॉबी देओल ने एक पुलिस अधिकारी की भूमिका निभायी है जो पनिश्मेंट पोस्टिंग पर नासिक पुलिस प्रशिक्षण इन्स्टीट्यूट के डीन के रूप में अपना समय व्यतीत कर रहा है। यहॉं नये पुलिस अधिकारियों को प्रशिक्षित किया जाता है उम्र और उसके अनुरूप परिपक्वता लेकर आगे चलकर इतिहास रच देने के भ्रम में हैं। उनके लिए समझना, सीखना और समझाने तथा सिखाने वाले सभी एक ही धरातल पर मापे जाते हैं। वे यह भी कुछ अधिक ही भलीभॉंति जानने लगते हैं कि सामने वाला कुण्ठित और समाप्तप्राय: हो चला है। डीन विजय सिंह उनके भ्रम को तोड़ता है। उसके अधूरे स्वप्न हैं जो मन में कॉंटे की तरह चुभा करते हैं। वह तीन-चार युवा अधिकारियों के माध्यम से मुम्बई में अधूरे छूट गये काम पूरे करना चाहता है। विजय सिंह का ही एक दोस्त राघव देसाई (जॉय सेनगुप्ता) मुम्बई महाराष्ट्र पुलिस में उच्च पदस्थ अधिकारी भी है जो उससे मिलता रहता है।
शुक्रवार, 21 अगस्त 2020
गुरुवार, 20 अगस्त 2020
सिनेमा कथा
गतांक से आगे......
जब प्राण को देखकर प्राण कॉंप गये
बुधवार, 19 अगस्त 2020
मंगलवार, 18 अगस्त 2020
सोमवार, 17 अगस्त 2020
बुधवार, 12 अगस्त 2020
मंगलवार, 11 अगस्त 2020
मन में भीतर की ओर खुलने वाले कपाट की बात.....
।। श्रीकृष्ण जन्म के अभिप्रायों से ।।
अनुभूतियों का संसार अत्यन्त विराट है। यह मन के भीतर खुलता है। मन जो देह के भीतर होता है। हमें नहीं पता, मन या आत्मा की ठीक ठीक जगह देह में कहॉं होती है। इस पर भार देने पर लगता है कि मन अथवा आत्मा का स्थान रोम-रोम में है। पता नहीं वह सूक्ष्मता में कणों की तरह है या स्थूल भाव में किसी अत्यन्त सुरक्षित स्थान पर। पता नहीं, किन्तु अनुभूतियों के खिड़की-किवाड़ मनात्मा से ही खुलते और बहुत कुछ सहेजकर, समेटकर बन्द भी हो जाया करते हैं।
श्रीकृष्ण जन्म के बाद से कितनी सारी उपकथाऍं उनकी महिमा के साथ मनुष्य चेतना का हिस्सा बन जाती हैं। विशेष रूप से उनके किशोरवय तक कितना कुछ पुरुषार्थ उनके माध्यम से घटित होता है। हम उनके गहरे अभिप्रायों को समझने का प्रयत्न करें तो बहुत सारे छोर हमें छूते हुए निकल जाते हैं या उनका स्पर्श हमारे हाथों आभासित होता है। उनका कारागार में जन्म होना, उसके गहरे भाष्य विद्वानों ने किए हैं। उनका जन्म दरअसल उस सारी परतंत्रता को समाप्त कर देने के आरम्भ के साथ होता है जो उस धरा की नियति बना हुआ था। यह जन्म स्वतंत्रता के सूक्ष्म सुख का ऐसा संवेदनाभरा संकेत होता है जो धीरे-धीरे इस भूमि पर स्वतंत्रता के ही अस्तित्व को स्थापित करता है।
श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन व्याख्याकारों के बीच अनेक प्रकार से विस्तार का विषय बनता है। उसमें उनके सारे नटखटपन, मित्रों के साथ खेल और उस खेल में अकस्मात घटित होने वाली घटनाऍं, भाई बलदाऊ और मित्र सुदामा के साथ उनके सरोकारों और फिर सबके अविभावकों में प्रिय होना, सब बालकों का नेतृत्व और समय आने पर चमत्कृत कर देना, अपने होने के संकेत देना बहुत सारी कथाओं में बहुत खूबसूरती से निबद्ध हैं। इस बात पर हमने विचार किया है कभी कि इस अनूठे, इस अलौकिक छुटपन में किए गये बहुत सारे काम, उपायों और संहारों के पीछे क्या बोध-तत्व है! इस काल में असुर वे हैं जो धरा को, नदी हो, पर्यावरण को, पशु पक्षियों के जीवन को क्षति पहुँचा रहे हैं। श्रीकृष्ण के छुटपन की अवस्था में जन से लेकर पशु पक्षियों और निरीहों-निर्दोर्षों को जीवन मिलता है। जो यमुना नदी, धरा के जीवन का प्रमुख सारतत्व है वह एक विषैले सर्प से सहमी हुई है। मनुष्य से लेकर मवेशी, पशु-पक्षी सबको उस नदी का पवित्र जल चाहिए जीवन के लिए। श्रीकृष्ण उसको धरा से बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। वह प्राण रक्षा की याचना करते हुए नदी छोड़कर चला जाता है। वे पहला उदाहरण नहीं थे क्या नदी की शुद्धि का दायित्व उठाने वाले और उसमें सफल होने वाले।
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