शुक्रवार, 18 मई 2018

फिल्‍म चर्चा / अंग्रेजी में कहते हैं..

एक मध्‍यमवर्गीय जीवन, घर और उसमें रहने वालों से मिलते हुए

 


ऐसे समय में जब हमारे सिनेमा में निरी भव्यता, झूठे और भ्रमित कर देने वाले सपने, अविश्वसनीयता, संवेदनहीनता और भटकाव भलीभांति घर कर गया हो। ऐसे समय में जब सिनेमा महंगे माॅल और उसके लगभग बहलाने वाले आकर्षण में हमको लगभग दो-ढाई घण्टे चपेट लिया करता हो, हमारी जेब को ठिकाने लगाने में निर्मम हो, कोई फिल्मकार मध्यमवर्गीय परिवार और घर की कहानी लेकर उसको उसी वास्तविकता और ईमानदारी से बनाकर प्रस्तुत करने का जतन करेगा तो क्या होगा, बताइये! शायद आप कहने लगें यदि सिनेमा और उसके बाजार के इन्द्रजाल को थोड़ा-बहुत भी जानते हों, कहने लगें कि या तो उसे थिएटर नहीं मिलेगा और यदि मिल भी गया तो दर्शक नहीं मिलेगा................।

अंग्रेजी में कहते हैं, फिल्म बनाने वाले लेखक निर्देशक हरीश व्यास को क्यों यह ख्याल आया यह तो वे ही जाने लेकिन अपने ही शहर में दूरियों और समय की जटिल शर्तों के बीच गिने-चुने शो में प्रदर्शित इस फिल्म को देखने के लिए मैं आठ-दस दिन से प्रतीक्षित था सो चला गया। 

परदे पर इस फिल्म का आरम्भ अपने आपमें ऐसा सम्मोहन है कि पहले दृश्य से ही आप इसके साथ हो लेते हैं। परदे पर गंगा, चलती हुई नाव, नामावली और महुआ चक्रवर्ती के कण्‍ठ से झरता स्‍वर, अब मान जाओ सांवरिया से ही आप फिल्‍म के पक्ष में हो लेते हैं। फिल्म की कहानी एक क्लर्क यशवंत बत्रा की है जो एक आॅफिस में क्लर्क है और छोटे से घर में अपनी पत्नी किरण और बेटी प्रीति के साथ रहता है। प्रीति बहुत मुखर और समझदार है। बत्रा अधेड़ उम्र के मध्यमवर्गीय परिवार के मुखिया की तरह जीवन जी रहा है जिसके जीवन में जीवन का ही आकलन धरातल से नीचे है। पत्नी और बेटी के साथ उसका व्यवहार भी वैसा। बनारस शहर का परिवेश है। बेटी मुहल्ले के युवक से प्रेम करने लगी है, पिता को पता नहीं है और एक दिन वह तब जान पाता है जब वह घर में बिना बताये मन्दिर में शादी कर लेती है।

इधर पिता जिस घर में रह रहा है उसी को बेचकर बेटी की शादी करने के स्वप्न देखता है। वह पत्नी से बात-बेबात झगड़ता भी है और दिन भर की कुण्ठा को दूर करने के लिए रात को शराब भी पीता है। उसका जीवन इतना ही है। पत्नी किरण ने तय कर लिया था कि बेटी की शादी होने के बाद वो भी घर से अपनी मां के घर चली जायेगी। बेटी की शादी हो जाती है और पत्नी भी चली जाती है। बत्रा, उसे रोक नहीं पाता, साथ रहती है तो उसका होकर रह नहीं पाता, उसके प्रति अपना प्रेम नहीं जता पाता। जिस तरह के स्वभाव को वह जीता है, अघा गये आसपास के लोग उसका साथ छोड़ देना चाहते हैं।

अकेले घर में रह रहे बत्रा के जीवन में बेटी और दामाद एक सुखद बदलाव बनकर आते हैं जिसमें दोनों उसकी बेबसी, अपने आपमें गुम रहने की उसकी कुण्ठा से बाहर लाने का प्रयत्न करते हैं। वे उसके कपड़ों को ही नहीं बदलवाते, झेंप, झिझक और बरसों का अकथ जो उसके भीतर राख हो गया है, उसको जिलाने का काम करते हैं। यही बत्रा अब किरण को पटा-फुसलाकर, प्यार का वास्ता देकर ले आना चाहता है...........

फिल्म में एक आप्त वाक्य दिलचस्प है, हर हिट फिल्म के लिए शाहरुख खान का हीरो होना जरूरी नहीं है, यह हीरोशिप हर आदमी के भीतर होती है। रोचक ढंग से इस फिल्म को अन्त तक लाया गया है। उत्तरार्ध में फिरोज के रूप में एक चरित्र भी बत्रा के जीवन में बदलाव लाता है जिसकी पत्नी मृत्यु शैया पर है लेकिन उसको भरोसा है कि एक दिन वह उसे अपने साथ घर ले जायेगा, दोनों में प्रेम विवाह हुआ है।

बत्रा के रूप में संजय मिश्रा उसी तरह किरदार बन जाते हैं जैसे वे अपनी हर फिल्म में होते हैं। फिर उनको परिवेश भी वैसा ही मिला है, बनारस, गंगा, घाट के आसपास पूरी फिल्म किस तरह से अपने आपको तमाम बहकाव से बचाती हुई उपसंहार तक पहुंचती है, देखने योग्य है। संजय की हंसी, उनका रोना, उनकी लम्बी चुप्पी और बोल सब कुछ ऐसे लगते हैं जैसे हम से ही यह सब बुलावाया जा रहा हो। किरण के रूप में इकावली खन्ना ने लगभग उसी प्रत्युत्तर में अपनी भूमिका का निर्वाह किया है। अपने सांवले रंग में वे बड़ी उम्र एक स्त्री के संघर्ष और टूटते मन की वाणी बनकर सामने आती हैं। बेटी की भूमिका में शिवानी रघुवंशी की उपस्थिति को बहुत सकारात्मक और आश्वस्त कहा जाना चाहिए। फिल्‍म में अंशुमान झा की भूमिका बत्रा की बेटी प्रीति के प्रेमी और पति की है, यह युवा भी बड़े आश्‍वस्‍त होकर दृश्‍य में आता है, खासकर संजय मिश्रा के साथ उनके संवाद दिलचस्‍प हैं।

पंकज त्रिपाठी इस फिल्म में अपनी एक मर्मस्पर्शी लघु कथा की तरह अपनी कहानी के साथ दृश्य में आते हैं और उसी संजीदगी के साथ अपने चरित्र को साकार करते हैं जिसकी जरूरत कहानी को होती है। पंकज त्रिपाठी की नायिका की भूमिका में इप्शिता त्रिपाठी ने एक लम्‍बे दृश्‍य में जो ध्‍यान आकृट किया है उसका जिक्र भी जरूरी है। अलग जाति में प्रेमविवाह, पिता की नाराजगी और बाद में अचानक एक जानलेवा बीमारी का शिकार हो जाना, एक ही दृ‍श्‍य जो इस चरित्र की मृत्‍यु से पूर्ण होता है, मन को छू जाता है। पंकज अन्तिम दृश्‍य में असहनीय बिछोह के हीरो बनकर दिखायी देते हैं। इस फिल्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कहीं भी कृत्रिमता, नकलीपन या भ्रमित करने वाला तरीका प्रयोग में नहीं लाया गया है। गरीब बत्रा का पुराना और बरसों से रंग-रोगन को तरसता मकान, शादी के दृश्यों में सात-आठ लोगों भर की उपस्थिति, कोई आडम्बर या विलासिता थोपी नहीं गयी है। निर्देशक ने सचमुच मध्यवर्गीय जीवन को जिस तरह छूते हुए इस बड़े वर्ग की चिन्ताओं और परिस्थितियों को सामने रखा है वह सराहनीय है। 

निर्देशक और पटकथाकार हरीश व्यास की इस बात के लिए भी प्रशंसा की जाना चाहिए कि उन्होंने सिनेमेटोग्राफी से लेकर कला निर्देशन, गीत और संगीत में खूब समरसता निभायी है, कहीं भी समझौता नहीं किया। फिल्म देखते हुए जब हम कहानी का हिस्सा होकर कोई न कोई किरदार में अपने आपको ढूंढ़ने लगते हैं तो ऐसा लगता है जैसे यह हमारे साथ ही घटित हो रहा है। फिल्म का प्रमुख चरित्र बत्रा का गंगा से रिश्ता भी खूब व्यक्त किया गया है, वह अपनी तकलीफ, अपने अव्यक्त, अपने द्वंद्व और अपने अवसाद में किस तरह गंगा के किनारे जा खड़ा होता है, कभी मंदिर के बाहर बैठा है कभी चबूतरे पर, कभी नाव में। 

गंगा नदी के सान्निध्य में जैसे हमारे सारे के सारे आवरण छूट जाते हैं, सारे के सारे पाखण्ड पकड़े जाते हैं, सारी की सारी भूलें हमारे अन्तद्र्वन्द्व में तिर कर उपर आ जाती हैं, ऐसा लगता है कि अपनी विराटता में बहती गंगा एक ऐसा वृहद आत्मावलोकी दर्पण है जिसके सामने कुछ भी छिपा नहीं है। फारुख मिस्त्री की सिनेमेटोग्राफी इन मायनों में कमाल की है। यह ऐसी फिल्म है जिसके गानों को भी कई दिन सुनने की इच्छा बनेगी, गीतों में बनारस घराने की पारम्परिक गायिकी के साथ दूसरे गीतों को शान, मोहित चौहान, वैशाली महादे, अभिजीत घोषाल, महुआ चक्रवर्ती, सत्येन्द्र त्रिपाठी शिराओं में उतर जाने वाली अनुभूति कराने के साथ गाया है। 

अंग्रेजी में कहते हैं के बारे में कहना यही होगा कि अपने जमीर, अपने भीतर के धूमिल होते सच और सीमाओं में छटपटाते सपनों के साथ कुछ देर अपने में होने की इच्छा यदि आपकी बनती है तो यह फिल्म निश्चित ही आपके लिए है। ऐसी फिल्मों को दर्शक समर्थन बड़ी प्रासंगिकता है।  


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