मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

पियानो का जादूगर : ब्रायन सिलायस





एक सौम्य ऋषि


वे एक गोताखोर हैं। बड़े गहरे। डूबकर मोती चुनते हैं और फिर लेकर आते हैं। उनको सुनने का मतलब यह है कि उनको ध्यान से सुनो। ध्यान से सुनो का मतलब है उनके साथ चलो। तैरो, डूबो और फिर मोती पाओ। यह सुख बहुत अनूठा, बहुत अलौकिक है। इस सुख की संगत बड़ी अनमोल, बड़ी दुर्लभ है।
 
ब्राय सिलायस विश्व विख्यात हिंदुस्तानी पियानो वादक हैं। पियानो पर हाथ रखे हुए वे एक सौम्य ऋषि की तरह दिखायी देते हैं। स्वभाव भी उनका ऋषितुल्य ही है। उनके भीतर का संत ही दरअसल उन राग-रागिनियों से अनुरागभरा रिश्ता बनाता है जिसके माध्यम से हम अनुभूतियों की अलौकिकी में आवाजाही करने लगते हैं। वे सादगी से भरे हुए हैं। ब्रायन मंच पर बिना हंगामे के दो शब्दों के प्यार भरे निमंत्रण पर आ जाते हैं। इस बात की कल्‍पना की जा सकती है कि कैसे एक धुनी और गुणी सर्जक की यात्रा संघर्ष से होते हुए यश को छूते हुए परवान चढ़ती है। हम सब देखने, सुनने वालों की निगाह में जब कोई यशस्‍वी कलाकार अचम्भित करता हुआ दीखता है तो हम उसके आज से बहुत मोहित हो जाते हैं। दरअसल महान कलाकारों का स्‍वर्णिम और चमचमाता आज, कल के अनेक ऊहापोह, ऊबड़-खाबड़ पथरीले रास्‍ते, आशा और निराशा के बीच तराजू की सुई की तरह डगमगाता मन और आत्‍मविश्‍वास बहुत बड़ा काम करते हैं। 

ब्रायन सिलायस कानपुर मूल के हैं। बचपन से संगीत के प्रति एक रूमानी आसक्ति रहा करती थी। परिवेश और वातावरण में बहुत कोई ऐसा प्रोत्‍साहक समय नहीं था जो सतत चले लेकिन वे सब तरह के साजों का स्‍पर्श करने और उनके तारों और बोर्ड पर अपनी ऊँगलियों से छूने का अनूठा जिज्ञासाभरा कौशल रखते थे। एक तरह से देखा जाये तो सितार, गिटार, पियानो सभी साजों से उन्‍होंने थोड़ी-थोड़ी बात की उनके मर्म को समझा। ब्रायन कहते हैं कि साज के साथ आत्‍मा का रिश्‍ता होता है जो बनाना पड़ता है। यह बहुत सम्‍वेदनशील और प्रेम करने की तरह अन्‍त:स्‍थल को महकदार बनाता है। यह जुड़ना ही सच्‍चा जुड़ना है। 

ब्रायन इन्‍हीं सर्जनात्‍मक अवधारणाओं से कानपुर से दिल्‍ली चले और उनको ला मे‍रेडियन होटल में पियानो बजाने का अवसर मिला। वे हिन्‍दी सिनेमा में संगीत के मधुरतम युग, उस युग के सर्जको, संगीतकारों और गायकों के साथ गीतकारों के प्रति भी बड़ी श्रद्धा रखते थे। पचास के दशक से उन्‍होंने गीत-संगीत में रूह तक उतर जाने वाले, शिराओं में रक्‍त के साथ अनुभूतियॉं लेकर बहने वाले गीतों को चुन-चुनकर बजाना शुरू किया। मेरेडियन में तो ब्रायन कुछ ही समय रहे लेकिन मौर्या में जब वे गये तो वहॉं उनका व्‍यक्तित्‍व, उनका चेहरा गहरी आश्‍वस्ति से दिपदिपा रहा था। उनकी मुस्‍कराहट में जादू था, यह जादू मुस्‍कराहट में जादुई अँगुलियों की वजह से आया था। धीरे-धीरे उनकी कीर्ति होटलों से बाहर शहरों में और शहरों से बाहर देशों में गयी। ब्रायन के रूप में दुनिया के सामने ऐसा भारतीय कलाकार परिचित हुआ जो भारतीय सिनेमा की मेलोडी के साथ-साथ बजाये जाने वाले गानों की धुन से रसिकों को जोड़ने में अभूतपूर्व रूप से सफल हुआ। 

ब्रायन का पियानो के साथ होना भारत के लिए तो निश्चित ही एक-दूसरे का पर्याय है। भारतीय सिनेमा में यदि इतिहास पर जायें तो सामाजिक फिल्‍मों के दौर में सम्‍भवत: हर पॉंचवीं फिल्‍म में पियानो कहीं न कहीं लगभग एक पात्र की तरह, एक कैरेक्‍टर की तरह मौजूद रहा है। नायक और नायिका ने पियानो के सान्निध्‍य में अपने प्रेम की, अपने विरह की, अपने साथ हुए छल की, दगाबाज़ी की, गिले-शिवके की, उलाहनों की बात की है। कितने ही गाने याद आते हैं, आपके हसीन रुख पे आज नया नूर है (आपकी परछाइयॉं), दोस्‍त दोस्‍त न रहा प्‍यार प्‍यार न रहा (संगम), आज की रात मेरे दिल की सलामी ले ले (राम और श्‍याम), दिल के झरोखे में तुझको बैठाकर (ब्रम्‍हचारी), कोई सोने के दिल वाला कोई चांदी के दिल वाला (असली नकली), तू कहे अगर जीवनभर मैं गीत सुनाता जाऊँ मन बीन बजाता जाऊँ (अन्‍दाज) और भी बहुत सारे। 

प्रसिद्ध पत्रकार खुशवंत सिंह, ब्रायन के पियानो के बड़े प्रेमी रहे हैं। उन्‍होंने ब्रायन को पियानो सिंह नाम दिया। एक बार उनका पियानो सुनते हुए महान संगीतका खैय्याम साहब ने कहा, यार तुमने तो हमारी रूह पकड़ ली। सही बात तो यह है कि ब्रायन ने हमारे सिनेमा के विलक्षण संगीतकारों की रूह को नजदीक से छूकर देखा तभी सलिल चौधरी, खैय्याम, ओ.पी. नैय्यर, सचिन देव बर्मन, रवि, मदन मोहन और लक्ष्‍मीकान्‍त-प्‍यारेलाल जैसे सर्जकों के मर्म को समझ पाये। पियानो पर एक पूरा गाना बजा लेना आत्मिक और शारीरिक रूप से बहुत कठिन और जटिल है। ब्रायन बतलाते हैं कि बजाते हुए जितना उनका दिमाग चलता है, उतना ही मन चलता है, उतनी ही अँगुलियॉं चलती हैं और उतने ही पैर चलते हैं। बहुत दार्शनिक भाव से ब्रायन कहते हैं कि किसी भी महफिल या ऑडिटोरियम में बैठकर पियानो बजाते हुए भीतर ही भीतर न जाने कहॉं-कहॉं तक जाना होता है, बता पाना मुश्किल है। 

जब वे पियानो बजा रहे होते हैं, उनके साथ संगी संगतकार बिल्‍कुल ऐसे अनुसरित होते हैं जैसे इस महानदी के बहाव का एक-एक पथ, एक-एक मोड़ उनको पता हो। गिटार पर उनके साथी जयदीप लखटकिया और तबले पर तुलसीराम उतने ही सादे और सहज हैं लेकिन साहब ब्रायन के साथ राग पथ के सहयात्री के रूप में उनका हाल और चाल दोनों कमाल के हैं। संगीत के माधुर्य का यह हंस अपने दोनों पंखों के साथ क्या खूब उड़ चलता है, वाकई विलक्षण। बात पूरी करते-करते यह न लिखा जाये तो बात अधूरी ही रह जायेगी कि ब्रायन की उपलब्धियों और यश की इस यात्रा में उनकी सहधर्मिणी रविन्‍दर कौर सिलास परछाँयीं की तरह उनके साथ होती हैं, स्‍टेज के सामने भी वे ब्रायन पर मुग्‍ध बनी रहती हैं, उनके चेहरे पर ब्रायन के लिए जो प्‍यार दिखायी देता है वो भी किसी प्रेमधुन से कम नहीं है।
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दबंग के सकारात्‍मक पहलू

सिरे से खारिज करने के पहले



हाल ही में प्रदर्शित सलमान खान की नयी फिल्म दबंग तीन को लेकर मेरी टिप्पणी पर मित्रों की निरी असहमतियाँ प्राप्त हुई हैं। कुछेक मित्रों ने मेरे सिनेमा लेखन की समझ और अनुभव को भी आड़े हाथों लिया। मेरा विनम्र उत्तर यही था कि सीख रहे हैं, पारंगत हो गये हैं, यह अभिव्यक्त तो कभी रहा ही नहीं, बहरहाल। 

दबंग को सिने से नकार दिए जाने की कोई बहुत ठोस वजह देखने में नहीं आती। सलमान खान सहित उसके तीन बड़े निर्माता हैं जिन्होंने दक्षिण के एक बड़े सितारे, कोरियोग्राफर और निर्देशक प्रभुदेवा को इस फिल्म के निर्देशन के लिए अनुबन्धित किया। भरपूर धन लगाकर फिल्म बनायी गयी जो अपनी लागत का ठीकठाक अर्जित कर रही है। सितारा उपस्थिति है। बिल्कुल उबा दे, बैठना दूभर कर दे इतनी अप्रिय फिल्म नहीं है दबंग।

माना जा सकता है कि कहानी नहीं है कुछ। पहली दबंग से दूसरी और दूसरी को बनाने पर मिली खूब सफलता ने इस साहस के लिए प्रेरित किया होगा लेकिन यह भी तय मानिए कि इस दबंग पर आम राय बनने के बाद चौथी दबंग तो कम से कम नहीं बनेगी। दस साल की आवृत्ति में यह तीसरी दबंग ही सबसे बड़े अन्तराल के साथ आयी है। 

दबंग तीन आम मसाला और फार्मूला फिल्म है लेकिन उसमें दूसरी मसाला और फार्मूला फिल्मों की तरह बेतरह अनर्गल चीजें नहीं डाल दी गयी हैं। हर तरह के दर्शकों का ध्यान रखते हुए एक ऐसी फिल्म निर्माताओं के बनानी चाही है जो अपने नाम और सफलता के इतिहास के बचे-खुचे प्रभाव में कुछ खींचकर ला सके। बहुत उत्साहजनक ढंग से ये न भी कर पायी तो भी घाटे में फिल्म न रहेगी यह भी तय है।

फिल्म की अच्छाइयों में कई बातें ध्यान आकृष्ट करती हैं। इनमें से एक परिवार के साथ जिन्दगी और दुनिया की कल्पना जिसमें आपसी अनुकूलताएँ, दृश्य और संवाद प्रभावित करते हैं। दिशाहीन नायक का कुछ करने को उदृत होना, जिसे चाहता है उसकी पढ़ाई पूरी हो, अपनी ओर से धन देने की वचन बद्धता सकारात्मक सोच पैदा करते हैं। एक दृश्य वह दिलचस्प है जब वह धोखे से अपनी माँ को ही खुली मालगाड़ी पर पहले छोड़ आता है फिर सच पता चलने पर बचाकर लाता है। मनुष्य की आम बुराइयों को दिखाने में परहेज नहीं किया गया है। अच्छी सिनेमेटोग्राफी, एक्शन, कोरियोग्राफी के साथ संवादों में मर्यादा का प्रदर्शन उल्लेखनीय पक्ष हैं। सलमान खान अपनी लगभग सभी फिल्मों में अच्छी हिन्दी का प्रयोग करते हैं। यहाँ भी की है, विशेषकर ऐसे समय में जब हिन्दी सिनेमा से हिन्दी समाप्त हो रही हो, इस नायक के इस प्रयत्न को नजरअन्दाज नहीं किया जाना चाहिए। 

हिंसक दृश्यों, मारधाड़ के तीव्र प्रदर्शनकारी दृश्यों के बाद भी नायक के चेहरे पर उत्तेजना, आवेग और घृणा या नफरत दिखायी नहीं देती जो एक बैलेन्स और सन्तुलित कलाकार और किरदार को व्यक्त करती है। एक इन्सपेक्टर ऊपर की कमायी से वेल्फेयर सोसायटी भी चला रहा है, सामूहिक विवाह करा रहा है। उसने शादी ब्याह में लूटने वाले को मारपीट कर उसके पुराने व्यावसाय बैण्ड मास्टर के काम से लगा दिया है जो अब उसके साथ हो गया है और फिल्म के अन्त तक दीखता रहता है।

अच्छी सिनेमेटोग्राफी, एक्शन, कोरियोग्राफी के साथ संवादों में मर्यादा का प्रदर्शन, शिष्टता, सभ्यता, मानवीय संवेदना के पक्षों को एक बार फिर याद कर सकते हैं कि कैसे वह कम उम्र की लड़कियों को गलत जगह जाने से बचाता है, कैसे एक इन्स्पेक्टर होने के नाते पल भर में यह निर्णय लेकर लड़कियों से कहता है कि तुम लोग घर जाओ, तुमसे कोई पूछताछ नहीं की जायेगी।

मैं एक फिल्म समीक्षक होकर भी देखता हूँ और दर्शक होकर भी। किसी एक पक्ष का तराजू भारी नहीं हो यह ध्यान रहता है, अन्ततः सन्तुलन सबसे बड़ी चीज है जो सब्जी बनाते समय मसालों की मात्रा के चयन से लेकर जीवन मूल्यों और व्यवहार में भी मायने रखती है, हमारे पास हर बात का सन्तुलन होना चाहिए, व्यग्रता और आवेग ही सब कुछ नहीं, तुरन्त फैसला कर देना, मित्रगण ऐसे भी जिन्होंने बिना देखे ही यह राय कायम कर ली कि फिल्म अच्छी नहीं है, मेरी समझ में फिल्म बनाने वालों से लेकर उसमें छोटी-छोटी भूमिका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निबाहने वालों के परिश्रम के साथ भी न्याय न कहा जायेगा, बाकी कहने, लिखने की स्वतंत्रता सबकी अपनी है, कुछ भी कहा जा सकता है।    

एक सिनेमा से आप यदि एक भी सकारात्मक बात लेकर बाहर निकलते हैं सिनेमाघर से तो वह एक दर्शक, एक मनुष्य की उपलब्धि है, शेष जैसा आपको ठीक लगे, आपकी राय भी तो शिरोधार्य अर्थात सिरमाथे है.............   

शनिवार, 21 दिसंबर 2019

देखते हुए / फिर फिर दबंग.....दबंग

अपेक्षाओं का कम होते जाना स्‍वाभाविक है.......

(हर बार वही करिश्‍मा कैसे सम्‍भव है)


दबंग, सलमान खान और प्रभुदेवा तीनों का ही ध्यान बना रहता है इस फिल्म को देखते हुए। प्रभुदेवा का सबसे पहले इसलिए कि वाण्टेड निर्देशित करके सलमान खान को बरसों पहले स्टारडम दोबारा लौटाने का श्रेय उन्हीं को है। दबंग सलमान ने पहले अभिनव कश्यप को लेकर बनायी जो सबसे अच्छी थी, दोबारा अरबाज खान ने इसे बनाया तो छायाप्रति में कुछ प्रभाव घटा। इससे सावधानी बरतते हुए तीसरी बार जब दबंग बनने चली तो वाण्टेड प्रभुदेवा को बुला लिया गया। डांसर औ कोरियोग्राफर प्रभु देवा ने इसको बस बना दिया है, अन्यथा यह निर्माता सलमान खान की फिल्म पूरी तरह लगती है और दो दबंग की सफलता के आत्मविश्वास से थोड़ी झूलती हुई भी।

सलमान खान की पिछली किसी फिल्म पर लिखते हुए मेरे लिखने में यह गलत नहीं आया था कि वे बॉलीवुड के रजनीकान्त हो जाना चाहते हैं। अपनी छबि पिछले दस सालों में उन्होंने ऐसी ही बनायी है। यह सही भी है कि फिलहाल तो वे नम्बर वन हैं ही। शेष सब उनके बाद। पहली दबंग से दूसरी दबंग की कहानी कानपुर तरफ चली गयी थी, इस दबंग में भी उत्तरप्रदेश है और वातावरण टुण्डला का है। चुलबुल पाण्डे वही है, उनके मसखरे और हँसोड़ संगी साथी भी उसी तरह जो कंधे पर गोली भी खा लेते हैं, डौल-बेडौल होने के बाद भी गानों में नायक के साथ नाचते भी हैं और सारे पुलिस व्यवहार के यथार्थ का निर्वाह सहजता से करते हैं।

इधर दो दबंग की नायिका से पहले की एक नायिका है नायक की। छेदी सिंह, बच्चा सिंह से होते हुए इस बार खलनायक बाला सिंह है, हिन्दी फिल्मों के लिए नया चेहरा मगर दक्षिण से मजबूत कन्नड़ सिनेमा के लेखक, निर्देशक एवं अभिनेता किच्चा सुदीप। यह रहस्य तीसरी दबंग में खुला कि हमेशा सहज रहते और हँसते-हँसाते रहने वाले नायक का पहला रूमानी दर्द खुशी नाम की लड़की भी है। यह नयी आमद है महेश मांजरेकर की बेटी सई। कुछ दृश्य के लिए है लेकिन कोमल और सॉफ्ट रोमांटिक उपस्थिति में अच्छी लगती है। सोनाक्षी सिन्हा इस तीसरी बार में और भी अधिक आश्वस्त लगती हैं लेकिन श्रेष्ठ नहीं, यह कहा जा सकता है क्योंकि सीमित संवाद और खूब सारी साड़ियाँ बदलते हुए वे अभी कम प्रतिभा के चलते भी चलती रहेंगी। एक गाने के साथ कुछ मादक रूमानी लीलाएँ नायक के साथ उल्लेखनीय हैं जिसमें बाथटब में शराब डालना और अंजुली में भरकर पी लेना शामिल हैं लेकिन यह खूबी है कि नायक ने इस दृश्य को स्तरहीन नहीं होने दिया है।

नायक और नायक का भाई निर्माता है, निर्देशक भी वेल-विशर। लगभग हर दृश्य में सलमान खान हैं लेकिन हमेशा की तरह कई दृश्यों में आदर्शवादिता, सभ्यता और सामाजिकता के पक्ष में बात करने के बावजूद वे निर्देशक के हाथ में नहीं हैं यह साबित हो जाता है। पहली दबंग इसीलिए बहुत बेहतर इस कारण लगती है कि अभिनय कश्यप ने लोकप्रियता के इस फलसफे को मौलिकता में गढ़ा था। चुलबुल पाण्डे के किरदार को पहली बार विकसित किया था। आज उसमें दोहराव और तिहराव है।

फिल्म में खलनायक आपको थोड़ी थोड़ी देर के लिए दूसरी आबोहवा में ले जाता है क्योंकि वह यहाँ अपनी पहली परीक्षा दे रहा है। कन्नड़ फिल्मों के सितारे किच्चा सुदीप एक निर्मम और बर्बर वृत्ति के बुरे आदमी के रूप में आकृष्ट करते हैं पर उनका बाला सिंह नाम एक तरह से मिस मैच है जो देहाती सा लगता है जबकि प्रकट तौर पर इस कलाकार ने अपने आपको हृदयहीन आवेगी की तरह प्रस्तुत किया है। वह दृश्य महत्वपूर्ण है जब क्लायमेक्स में खलनायक को मारते हुए नायक कहता है कि यदि तुम किसी से प्यार करते हो और वह तुमसे प्यार न करती हो तो क्या तुम उसको मार डालोगे, एक बड़ा सवाल है जो सलमान, किच्चा सुदीप को दण्ड देते हुए पूछते हैं। आज के समय में भी यह मौजूँ है।

मित्र सोचते होंगे कि सारी बातें कर दी हैं, कहानी नहीं बतायी। उत्तर है कि कहानी है ही नहीं। क्योंकि दबंग एक के बाद दूसरी बनी और दो के बाद जो तीसरी बनी वह दरअसल दबंग एक के भी पहले की दबंग प्रचारित है। इसी कारण यह अलमारी में कसकर रखी किताबों के बीच में एक किताब यह कहकर खोंस देना है कि इसकी जगह पहले हैं। अब दक्षिण भारत का निर्देशक है, वह रोहित शेट्टी तबीयत की फाइटिंग, स्टंट और गाड़ियों के करतब शामिल हैं। मध्यप्रदेश के महेश्वर और माण्डू में फिल्माये हुए दृश्यों को देखते हुए वातावरण में टुण्डला के यथार्थ पर यकीन करना मुश्किल होता है। इस फिल्म में स्कॉर्पियो वाहन का बढ़िया इस्तेमाल है, काफिले से लेकर लड़ाई-झगड़े और स्टंट के विषयों में सफेद स्कॉर्पियो से दृश्य और प्रसंग की आक्रामकता ज्यादा असर देती है।

इस फिल्म को समीक्षक बड़ी कंजूसी से सितारे प्रदान कर रहे हैं और कोई भी डेढ़ से दो को पार नहीं कर रहा। निजी रूप से मैं सोचता हूँ कि दबंग तीन की तुलना में हमारा दिमाग बार-बार दबंग एक और दो के साथ क्यां हो जाता है? इसे उससे अलग हटकर भी देखा जाये। मेरा ख्याल है कि तीन स्टार उचित है।