सोमवार, 31 जुलाई 2017

महाश्वेता देवी की कृतियों का सिनेमा

दुरूह लेकिन उतना ही चुनौतीभरा 



महाश्वेता देवी, कला और सृजन जगत की निरन्तर हाल ही के दिनों में होने वाली असाधारण क्षतियों में एक और बड़ी क्षति हैं। उनका योगदान इतना बड़ा और इतना विस्तीर्ण है कि देश और सृजन संसार उनको अनेकों आयामों और प्रभावों के साथ याद करेगा। साहित्य से लेकर सिनेमा और समाज से लेकर सरोकार तक उम्र के नब्बे साल तक उन्होंने जो किया वह बहुत और विराट है। उसका जितना आकलन होगा, कम होगा। बंगला साहित्य और सृजन के आलोक में भी देश और दुनिया की प्रतिष्ठित लेखिका इन अर्थों में बनीं कि उनका रचा अपनी धारा तक ही सीमित न रहकर अनेकानेक धाराओं में विभक्त होता चला गया। प्रत्येक भाषा में उनके सृजन को आदरपूर्वक लिया गया है उसकी व्याख्या, रूपान्तर, भाष्य और प्रयोग किए गये। महाश्वेता देवी का सर्जनाकाल बहुत लम्बा रहा है। उन्होंने जीवन और पुरुषार्थ को अपने सृजन से संवेदनापूर्वक जोड़ा, इसके लिए वे जानी जाती रही हैं। उनके विस्तीर्ण कृतित्व में शोषण, जुल्म, दमन और मानवीय अस्थिरता के अनेकानेक कोणों की अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ पड़ताल की गयी है। उनकी रचनाधर्मिता से कई चुनौतीपूर्ण कृतियों को हमारे अनन्य कला माध्यमों में प्रयोग करने का साहस रंगकर्मियों और फिल्म निर्देशकों ने किया है। गोविन्द निहलानी जैसे उत्कृष्ट फिल्मकार यह मानते हैं कि हजार चैरासी की माँ बनाते हुए उनके अनुभव चुनौतियोंभरे रहे, उतने ही विलक्षण भी। 

महाश्वेता देवी की चार कृतियों पर भारतीय सिनेमा में महत्वपूर्ण निर्देशकों ने पिछले पचास साल में फिल्में बनायीं हैैंैं । हरनाम सिंह रवैल ने 1968 में दिलीप कुमार, वैजयन्ती माला, बलराज साहनी, संजीव कुमार, जयन्त और सप्रू की प्रमुख भूमिकाओं वाली एक महत्वपूर्ण फिल्म संघर्ष उनकी ही कृति पर बनायी थी। संघर्ष फिल्म अपने प्रदर्शन काल में सुर्खियों में आयी थी क्योंकि फिल्म में बनारस के घाट पर पण्डों के बीच वैमनस्य और अपराध की घटनाओं के बीच एक ऐसा तानाबाना बुना गया था जो रसूख और प्रभाव के पीछे रिश्ते-नातों की परिधि को भी तोड़कर सनसनीखेज वारदात तक जाता है। यह फिल्म अपने आपमें एक साहस है क्योंकि अपने प्रदर्शनकाल में इस फिल्म को भारी विरोध का सामना करना पड़ा था लेकिन यह फिल्म यथार्थ का ऐसा साक्ष्य बनी कि निर्देशक ने इसमें कोई परिवर्तन नहीं किया और आज भी इसे ज्यों का त्यों देखा जा सकता है। धन, बल, रसूख और वर्चस्व की अदम्य कामना किस तरह एक घर-परिवार में हिंसक वैमनस्य को जन्म देती है और ऐसे अपराध तक ले जाती है जिसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती। 

एक और फिल्म रुदाली का निर्माण कल्पना लाजमी ने 1993 में उनके ही उपन्यास पर किया था जिसमें डिम्पल कपाड़िया की मुख्य भूमिका थी और अपने स्वर तथा संगीत से भूपेन हजारिका ने उसके आभासों को एक अलग ही स्पर्श प्रदान किया था जो मन को छूता है, अनेकानेक वेदना-संवेदनाओं से। रुदाली डिम्पल के जीवन की श्रेष्ठ फिल्म है जो राजस्थान में मृत्यु पर स्यापा करने के लिए बुलायी जाने वाली स्त्रियों के विलाप के लोकाचार और परम्परा के विपरीत संवेदनशील प्रश्न खड़ा करती है। यह फिल्म भारतीय सिनेमा की दो शीर्ष अभिनेत्रियों राखी गुलजार एवं डिम्पल कपाड़िया की अपने किरदारों को जीने की असाधारण क्षमता को प्रकट करती है। किस तरह एक दमित परम्परा का निर्वाह अनेक समझौतों, शोषण और गहन वेदना की कीमत पर होता है। देखा जाये तो रुदाली फिल्म का एक गाना जो भूपेन हजारिका और लता मंगेशकर दोनों ने अलग-अलग गाया है, मन हूम हूम करे, घबराये......इस गाने को संवेदना और एकाग्रता से सुनते हुए या देखते हुए पूरा वातावरण बहुत बोझिल लगने लगता है। निर्देशिका कल्पना लाजमी ने इस फिल्म के निर्देशन के साथ रुढ़ियों और परम्पराओं के स्याह पक्ष को बड़े साहस के साथ कुरेदने की कोशिश की है। 

तीसरी 1998 में बनी फिल्म हजार चैरासी की माँ है जिसमें जया बच्चन एक अरसे बाद परदे पर नजर आयीं थी। इस फिल्म निर्देशन प्रतिष्ठित निर्देशक गोविन्द निहलानी ने किया था। हजार चैरासी की माँ में नक्सली गतिविधियों में लिप्त बेटे का मुठभेड़ में मारा जाना और बाद में पूछताछ तथा पड़ताल की प्रताड़ना को मानवीय अर्थों में विवेचित किया गया है। यह फिल्म एक माँ की निगाह से अपने बेटे के भटकाव और पारिवारिक स्नेह में कमी की स्थितियोें को बड़े ही संवेदनशील ढंग से अभिव्यक्त करने वाली थी। इस फिल्म का वह दृश्य मर्मस्पर्शी है जिसमें घर से जाता हुआ बेटा माँ से हाथ हिलाकर विदा लेता है, माँ सोचती है चला गया लेकिन वह फिर लौटकर मुस्कुराता है और जाने के लिए फिर हाथ हिलाता है। माँ को बाद में हमेशा के लिए चले गये बेटे के अगले ही पल से फिर लौट आने का भरोसा है, यही उम्मीद भी जो कि पूरी नहीं होती। हजार चैरासी की माँ में पिता अनुपम खेर और माँ जया बच्चन दो पृथक ध्रुव हैं जिसमें पिता की अपने तथाकथित अकर्मण्य बेटे के प्रति नफरत और सामाजिक डर तथा माँ का बेटे के प्रति अगाध प्रेम और ममत्व अनेक सशक्त दृश्यों में टकराते हैं। जया बच्चन जिन्होंने सुजाता का किरदार किया है, अपनी चुप्पी और अपनी वेदना में बहुधा अनुपम खेर और उनके चरित्र पर भारी पड़ती हैं। 


एक फिल्म माटी माय है, मराठी में जिसे चित्रा पालेकर ने निर्देशित किया था। महाश्वेता देवी की लघु कथा डायन पर एकाग्र यह फिल्म 2006 में बनी थी लेकिन ज्यादा चर्चा में नहीं आ सकी थी। माटी माय में नंदिता दास, अतुल कुलकर्णी आदि की प्रमुख भूमिकाएँ थीं। इसका प्रदर्शन भी ठीक से नहीं हो पाया था। ब्रेस्ट स्टोरीज किताब में प्रकाशित महाश्वेता देवी की लघु कथा चोली के पीछे पर बनी पाँचवी फिल्म गंगोर है जिसे इतालो स्पिनली ने निर्देशित किया था। यह फिल्म शोषण और बलात्कार की घटनाओं के बीच एक मार्मिक कथा थी। इस फिल्म में तिलोत्तमा शोम, आदिल हुसैन, प्रियंका बोस आदि ने काम किया था। इस फिल्म का एक दृश्य बलात्कार के विरोध में स्त्रियों और पीड़िताओं का आवक्ष प्रदर्शन भी था जिसके फिल्मांकन की बड़ी चर्चा भी हुई थी। गंगोर एक अलग सा प्रयोग था जो सिनेमा में साहस का प्रतीक और पर्याय माना जाता है। हालाँकि लम्बे समय तक होता यह रहा है कि बहुत अच्छा फिल्मांकन, बहुत अच्छा कथ्य और बहुत अच्छे प्रयोग अधिक संख्या में दर्शकों तक पहुँच नहीं पाते। उत्कृष्ट सिनेमा की अपनी यह विडम्बना है कि वह बना-सहेजा कहीं रखा रहता है और दर्शक से उसकी बड़ी दूरी होती है। दर्शक की यह विडम्बना है कि वह इस माध्यम के संवेदनशील धरातल और सार्थक पर्यायों तक पहुँच नहीं पाता। स्वाभाविक रूप से इसमें सिनेमा का कोई दोष नहीं है और न ही माना जाना चाहिए। 

हम फिर भी इस बात को साहसिक ही मानेंगे कि कुछ अलग धारा के फिल्मकारों, लीक से अलग हटकर साहस-दुस्साहस करने वाले निर्देशकों, पटकथकारों ने न केवल हिन्दी बल्कि दूसरी भाषाओं के सिनेमा में अपना सार्थक हस्तक्षेप किया है। यों तो महाश्वेता देवी की और भी कृतियाँ हैं जिन पर फिल्मांकन की चुनौतियाँ उठानी चाहिए लेकिन अब उतने जुझारू फिल्मकार कम दीखते हैं। वास्तव में महाश्वेता देवी का कृतित्व फिल्मांकन की दृष्टि से किसी भी फिल्मकार के लिए आसान कर्म नहीं था। यही कारण था कि कम ही फिल्मकारों का साहस उनकी कृतियों पर काम करने का हुआ लेकिन बावजूद इसके जो कुछ भी चार-पाँच फिल्में उनकी कृतियों पर सिने-इतिहास का हिस्सा हैं, वे उद्वेलित और विचार के धरातल पर सोचने के लिए विवश जरूर करती हैं। 


गुरुवार, 27 जुलाई 2017

याद: अमजद खान

आत्‍मविश्‍वास और बहादुरी परदे पर उनकी बड़ी खूबी थी



भारतीय सिनेमा के सौ साल के इतिहास में पाँच उत्कृष्ट फिल्मों में से एक शोले के प्रमुख पात्र गब्बर सिंह की भूमिका निभाकर अमर हो जाने वाले कलाकार अमजद खान आज ही के दिन नहीं रहे थे। समय देखते ही देखते व्यतीत हो जाता है। पच्चीस साल कब बीत गये पता ही नहीं चला, लगता है कल की ही बात है जब मुम्बई में थमती-बरसती बारिश में आज का दिन और 1992 का साल इस दुखद घटना का था और करोड़ों देशवासी स्तब्ध थे, अमजद खान साहब के नहीं रहने पर। लगभग बीस साल के अपने कैरियर में उन्होंने जो फिल्में कीं, जो भूमिकाएँ कीं, जिन निर्देशकों के साथ काम किया, वह अविस्मरणीय है। 

वे जब शोले के समय के अमजद खान थे तब अपनी स्फूर्ति और सफलता को उन्होंने अनेक आगामी किरदारों में निरन्तर समृद्ध किया था। कुछ ही समय बाद की कार दुर्घटना और दवाइयों के प्रभाव से वजन बढ़ जाने के बाद वे हास्य भूमिकाओं की ओर आये, चरित्र भूमिकाएँ कीं और वहाँ भी सिनेमा के आलोचकों ने उनकी भूमिकाओं को सराहा फिर चाहे वो चमेली की शादी हो, लव स्टोरी हो, कुरबानी हो या इसी तरह की कोई और फिल्में। उनको जीनियस साबित करने वाली सबसे उत्कृष्ट फिल्म शतरंज के खिलाड़ी थी जो प्रेमचन्द के उपन्यास का आधार लेते हुए महान फिल्मकार सत्यजित रे ने बनायी थी। इस फिल्म में वाजिद अली शाह की उनकी भूमिका को देखकर अन्दाजा लगाया जा सकता है कि चरित्र के रूप में रे को जो चाहिए था, उसे अमजद साहब कितने परफेक्शन के साथ देते हैं। 

शोले और शतरंज के खिलाड़ी अमजद साहब के एक्सीलेंस को आँकने के लिए बहुत हैं। यह एक बड़ा अचरज कहा जायेगा कि एक कलाकार के रूप में उनका आत्‍मविश्‍वास गजब का था। शोले उनकी पहली बड़ी फिल्‍म थी जिसमें उनके सामने सारे कलाकार बहुत वरिष्‍ठ और अनुभवी थे लेकिन दृश्‍य करते हुए अमजद खान किसी के प्रभाव में नहीं दीखते। उनका सारा ध्‍यान अपने किरदार और दृश्‍यों में रहा। यही खूबी उनको शोले का सबसे चमकदार सितारा बना ले गयी। उनका अकस्मात निधन सभी के लिए अस्वीकार्य रहा है लेकिन ऊपरवाले के निर्णय के आगे हमारी सारी अस्वीकार्यताएँ विवशताओं सी हैं। जानकार लोग याद करते हैं शोले से भी पहले लव एण्ड गाॅड में उनकी छोटी सी भूमिका और थिएटर के दिनों में एक नाटक चुन चुन करती आयी चिड़िया जिसे लेकर वे देश भर में घूमे थे और यह नाटक बड़ा चर्चित था। 

अमजद खान के बारे में यह सहज ही कहना होगा कि वे सिनेमा की एक पूरी सदी के चन्द प्रमुख कलाकारों में से एक चमत्कारी अभिनेता थे। वे अपनी उसी छाप में, उसी प्रभाव में, अपने योगदान में सदैव उसी तरह याद आयेंगे, शोले के गब्बर सिंह के रूप में जिसका बोला गया एक-एक संवाद, एक-एक शब्द पीढ़ियों को रटा हुआ है, जो तब के नायकों-महानायकों से ज्यादा विख्यात और अविस्मरणीय है..................

मंगलवार, 25 जुलाई 2017

वक्त लेने और वक्त लगने में असरहीन होने वाला सिनेमा

बात जग्‍गा जासूस और उसकी विफलता से शुरू होती है.....



बीते सप्ताह दर्शकों के सामने वो फिल्म आयी जिसे बनने में लगभग चार साल से अधिक समय व्यतीत हो गया। अपनी जिजीविषा से कैंसर जैसी भयावह बीमारी से जीत और जूझकर अच्छे-भले बाहर निकल आये अनुराग बासु को फिल्म के नायक और उनके रूमानी रिश्तों के बनने और टूटने के कारणों ने ऐसी मुश्किलें खड़ी कीं जो इससे पहले उनके सामने कभी पेश न आयीं थीं। यह तब हुआ जब नायक ही फिल्म के निर्माण में भागीदार भी था। यह तब हुआ जब नायक-नायिका के बीच सबसे ज्यादा चर्चित रिश्ता इन्हीं चार साल की अवधि में बना और समाप्त भी हुआ। यह ऐसे दौर में हुआ जब नायक का समय सिनेमा के बाजार में अच्छा नहीं चल रहा है। ऐसे समय में जब नायक और नायिका दोनों को एक अच्छी और सफल फिल्म की जरूरत थी, फिल्म का ज्योतिष ऐसा गड़बड़ा गया कि जग्गा जासूस न उगलने की रही और न निगलने की। उत्तरार्ध में तो यह भी हो गया था कि निर्देशक से लेकर कलाकार तक जैसे तैसे इस फिल्म को पूरा कर गंगा नहाना चाहते थे। प्रदर्शित होने के बाद आलोचकों ने भी इसे पैसेंजर ट्रेन समझकर आकलन किया और एक सहज ग्राहृय मनोरंजनप्रधान फिल्म के मूलतत्व को चर्चा में उपेक्षित कर दिया। दर्शक का भी प्रतिसाद रणबीर और कैटरीना की इस फिल्म को न मिल सका।

सिनेमा में ऐसे उदाहरण बहुतेरे रहे हैं जब फिल्में अच्छी-खासी बनना शुरू हुईं और अचानक उनकी गति-प्रगति पर ग्रहण लग गया। इस कारण उनकी रफ्तार प्रभावित हुई तथा जिस ऊर्जा के साथ फिल्म सोची गयी थी, पूरी होते-होते वह फिल्म में थकी-थकायी लगन का क्षीण सा प्रतिबिम्ब नजर आने लगी और फिर होना वही था यानी फिल्म का विफल हो जाना। इतिहास में वे उदाहरण अलग हैं जब दो यादगार और अविस्मरणीय फिल्में अच्छा-खासा वक्त लेकर बनी लेकिन उनकी सफलता ने उस सारे परिश्रम का वह परिणाम दिया कि बनाने वालों की पीढ़ियाँ तक न कुछ करें तो भी आनंद में रहेंगी। ऐसी फिल्मों में हम कारदार आसिफ की मुगले आजम, कमाल अमरोही की पाकीजा, आसिफ की ही लव एण्ड गाॅड और रमेश सिप्पी की शोले का जिक्र करते हैं। पहली फिल्म दस साल से अधिक समय लेकर बनी लेकिन शुरू से अन्त तक फिल्म देखते हुए यह लगा ही नहीं कि एक दशक में कलाकारों के चेहरे पर या व्यक्तित्व में कोई परिवर्तन आया है। इसी तरह पाकीजा को बनने में करीब बारह साल लग गये। 

लव एण्ड गाॅड को बनने में लगा समय और फिल्म के नायकों गुरुदत्त और बाद में संजीव कुमार की मृत्यु से उसे अभिशप्त फिल्म कहा जाने लगा। चार साल में बनी शोले तब इतने समय में बनी जब रमेश सिप्पी कर्नाटक के जंगल में रामगढ़ बसाकर सारे कलाकारों को अधिक से अधिक समय के लिए वहीं रखे रहे लेकिन हिन्दी सिनेमा में वह ऐसे उदाहरण वाली फिल्म बनकर याद की जाती है जो लोगों को रटी हुई है। अगर वास्तव में सिनेमा बनाते हुए कोई बड़ा ऐतिहासिक बीड़ा उठाया गया हो जिसमें तमाम शोध किया जा रहा हो, एक-एक बात पर सटीक और सधा हुआ काम किया जा रहा हो, उत्कृष्टता के स्तर पर कोई समझौता न किया जा रहा हो तब उसमें वक्त लगे तो बात जायज हो जाती है और इसका एक ही बड़ा उदाहरण रिचर्ड एटिनबरो की फिल्म गांधी है जिसकी परिकल्पना से प्रदर्शन तक का समय लगभग बीस साल का माना जाता है। यह अपने आपमें एक मापदण्ड, एक इतिहास है जो न तो दोहराया जा सका है और न ही जिसका दोहराया जाना आसान ही होगा। इसके पटकथाकार जाॅन बैले ने सम्पूर्ण गांधी वांग्मय का अध्ययन कर फिल्म की पटकथा तैयार की जिसके लिए उनको मूल पटकथा का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।

ऐसे यशस्वी उदाहरणों को याद करते हुए हम एक बार फिर आज पर आते हैं तो यही लगता है कि वे सितारे भी मौलिकता और रचनात्मकता की परिभाषा नहीं समझते या समझना चाहते जिनका समय प्रतिकूल चल रहा है या जिन्हें लम्बे अन्तराल के बाद एक बार फिर अपने आपको दर्शकों के सामने साबित करने की आवश्यकता है। जग्गा जासूस यों तो नाम ही बहुत बुरा है जो जग्गा के रूप में एक नकारात्मक संज्ञा को आभासित करता है जबकि फिल्म का नायक छबि मेें सुन्दर, मुलायम और खासा मासूम छबि वाला है। जग्गा कुछ खलनायकी आभास देता है सो फिल्म का नाम कुछ और रखा जा सकता था। यह भी समझा जाता है कि निर्देशक पटकथा पहले से पूरी गढ़कर रखने और उसके अनुरूप चलने के बजाय आशु कवि की तरह आशु पटकथा और संवाद लेखक की तरह काम करते रहे हैं। 

नायक के बयानबाजी में प्राय: भावुक और उग्र हो जाने वाले पिता सारा दोष निर्देशक पर मढ़ने में कोई मुरव्‍वत नहीं कर रहे जबकि शायद ये वो भूल गये कि इन्‍हीं अनुराग बासु ने रणबीर को लेकर बरफी जैसी महत्‍वपूर्ण फिल्‍म भी बनायी थी। परिस्‍थतियों को जाने बगैर केवल निर्देशक को दोषी ठहराना न्‍यायोचित नहीं है। नायक पिता को निर्माता बेटे के असमंजसों का भी पता होना चाहिए, भले वो न बताये पर जमाने के साथ वे भी न जान रहे हों, ऐसा हो नहीं सकता। ऐसी स्थिति में जब नायक के पास अपनी प्रेमिका नायिका के पास साथ दो पल सहज होकर बैठने का मन न हो, इस धीरज के साथ कैसे समय निकाल सकता है कि निर्देशक दृश्य लिख-लिखकर देता जा रहा है और पूर्वाभ्यास और फिल्मांकन उसके बाद हो रहा है। सो फिल्म को इस परिणाम तक तो जाना ही था। कुछ सदाशयी आलोचक इस फिल्म को सहनशीलता के साथ देखने का सुझाव देते हैं पर सार्थक एकाग्रता के बिना बनी फिल्म के प्रति सदाशयी होना, सहनशील होना, सहानुभूति रखना दर्शक के सिर पर ठीकरा फोड़ने जैसा नहीं है क्या?




मंगलवार, 18 जुलाई 2017

रचनात्मक जगत में संकीर्णता के मायने

ऐसा माना जाता है कि रचनात्मक जगत प्रायः बहुत उदार हुआ करता है। यद्यपि देखा-देखी, अनुभवों और तजुर्बों के चलते इसके अनेक खण्डन या प्रतिकथ्यी विचार हो सकते हैं लेकिन कामना तो यही लेकर चली जाती है कि यहाँ कम से कम इतना तो लोकतंत्र होता होगा कि थोड़े बहुत स्वप्न या विश्वास लेकर कोई भी कभी भी आ या जा सकता है। उसका भले स्वागत न हो लेकिन उसको घुसपैठिया नहीं कहा जायेगा, ऐसा माना जा सकता है। लेकिन पिछले दिनों टिप्पणीकार के साथ ही ऐसा वाकया हुआ जिसने इस बात को पहले तो कई तरह से सोचकर इसे नजरअन्दाज करने की प्रेरणा दी फिर बाद में एक अन्तःप्रेरणा यह भी हुई कि ऐसी वृत्ति को रेखांकित जरूर किया जाना चाहिए ताकि कम से कम ऐसी अराजकता और स्वेच्छाचारिता नियत्रित हो सके जो सर्जनात्मक संसार को भी अपने बनाये बाड़े या काँटेदार तार में बांधकर रख लेना चाहती है।

पिछले पाँच-सात सालों से सिनेमा और संस्कृति विषयों पर लिखते हुए मैंने नाटक लिखने की भी शुरूआत की। हालाँकि पहला अवसर अनायास आया था जब मैं गढ़ा मण्डला के राजा शंकर शाह और उनके बेटे रघुनाथ शाह की शहादत पर एक नाटक लिखा था। राजा शंकर शाह और उनके बेटे रघुनाथ शाह, रानी दुर्गावती के वंशज थे और भेस बदलकर, गीतों और कविताओं के माध्यम से जनक्रान्ति की अलख जगाते थे। इसके पहले नाटक लिखने का कोई अनुभव नहीं था लेकिन दायित्व मिला और रुझान बढ़ा तो विषय से जुड़े अधिक सन्दर्भों की खोजबीन ने मुझे इस माध्यम में गम्भीरता से प्रविष्ट होने वाला लेखक बनाने में मदद की। पहले मेरे पास तीन-चार पेज के सन्दर्भ थे लेकिन प्रयास करने पर पन्द्रह-बीस दुर्लभ पृष्ठ हाथ आ गये। इस नाटक को लिखना स्वाभाविक रूप से दुरूह था लेकिन छः-सात महीने लगाकर मैंने इसे तैयार किया। मुझे स्मरण हो आता है कि जब इस नाटक का क्लायमेक्स मैं लिख रहा था जिसमें दोनों पिता-पुत्रों को अंग्रेजी हुकूमत तोप में बांधकर उड़ाने की सजा देती है तब कुछ पल को मेरा रक्तचाप बढ़ गया था और तेज घबराहट होने लगी थी। रात ग्यारह बजे करीब पन्द्रह-बीस मिनट सड़क पर टहलकर मैं संयत हुआ था और उसके बाद यह दृश्य लिखा था। मित्र प्रेम गुप्ता ने बड़ी मेहनत के साथ इसको तैयार किया और मंच पर साकार किया। इसके बारह-पन्द्रह प्रदर्शन मध्यप्रदेश में हुए।

मेरे लिए प्रथम प्रदर्शन से लेकर बाद के सभी प्रदर्शन अनुभूतिजन्य रहे। यह विषय और यह नाटक जीवन में ठीक उस क्षण पर आया जब लिखने-पढ़ने की गम्म्भीरता उम्र के साथ ज्यादा सवाल करती थी। इसके बाद एक नाटक तथागत बुद्ध की जातक कथा पर लिखा, गजमोक्ष जिसके सांची, भोपाल, उज्जैन और पिछले दिनों दिल्ली में प्रदर्शन हुए। एक नाटक हवलदार महावीर प्रसाद था जो एक हेड काॅन्स्टेबल के साथ घटी घटना के जरिए हवलदार के पद पर काम करने वालों की मुश्किलों और कठिनाइयों पर था। यह भी भोपाल और उज्जैन में मंचित हुआ। हाल ही एक नाटक महान कवि त्रिलोचन शास्त्री की जन्मशताब्दी के अवसर पर उनकी एक कविता, कवि, ऋषि, देव आदि पीछे हों/ मानव पहले/ ऐसे रहो कि धरती/ बोझ तुम्हारा सह ले से प्रेरित होकर एक बुरे आदमी, एक असामाजिक तत्व पर लिखा था जो अन्ततः लोगों की बद्दुआओं, शाप, आह या कराह कह लीजिए, उसका शिकार होकर मृत्यु को प्राप्त होता है। सौभाग्यवश इस नाटक को भी दर्शकों का अच्छा प्रतिसाद मिला। मेरे लिए यह सुखद ही था कि अनुभवी, वरिष्ठ और युवा दोनों वय और अनुभव के रंगकर्मियों ने इन नाटकों को किया और दर्शकों तक सफलतापूर्वक पहुँचे। 

मेरे लिए स्वाभाविक रूप से सुखद था, टीम खुश थी, मैं भी खुश क्योंकि अच्छा लगता है आपके लिखे पात्र, आपके लिखे शब्दों के साथ मंच पर होते हैं, ऐसे में दर्शकों की हँसी या ताली और सराहना क्यों न आपका हौसला बढ़ायेगी, बिल्कुल बढ़ायेगी। खैर दो-चार दिन इस आत्मसुख के बीते कि नये नाटक ऐसे रहो कि धरती के मुख्य कलाकार विशाल आचार्य ने शहर के किसी युवा रंगकर्मी का फेसबुक वक्तव्य मुझे अवलोकन के लिए भेजा, जो मेरी ही तारीफ में था। मेरे नाम का जिक्र करते हुए लिखा था, कि इन साहब का मन नौकरी में नहीं लग रहा है इसलिए नाटक में घुसपैठिए की तरह घुस आये हैं। आओ, आओ, सब लोग आओ जिनको शो चाहिए हों, इनका लिखा नाटक करो। सहलाओ, सहलाओ, इतना सहलाओ कि लाल हो जाये और मवाद निकलने लगे..........। यह पोस्ट उस युवक ने रात को अपने वाल पर साहसपूर्वक प्रस्तुत की थी पर अगले दिन सुबह उसको हटा भी लिया लेकिन स्वाभाविक रूप से बहुत से मित्रों की निगाह वह दृष्टान्त चढ़ गया। अनेक तरह के स्वभाव के वशीभूत मित्रगण अपनी तरह विचलित, उत्तेजित और क्रोधित भी हुए लेकिन सभी को प्रेमपूर्वक, शपथपूर्वक यह समझाने में सफलता प्राप्त की कि रचनात्मक जगत का सच्चा लोकतंत्र भी यही है कि सबको अपनी राय व्यक्त करने दी जाये। यह भी समझा सका कि रात को पोस्ट डालने में सम्भव है स्वविवेक अथवा प्रेरणाएँ किसी भी आवेगी मनःस्थिति में काम कर रहीं होंगी लेकिन सुबह हटा लेना जरूर माता-पिता की अच्छी शिक्षा का नतीजा है, खैर।

बात यह जरूर उठती है कि रचनात्मक जगत में अपनी शुरूआत करते हुए, अपना स्थान बनाने की जद्दोजहद करते हुए, दूसरे बहुत सारे बड़े लोगों के सामने स्वयं समय के साथ पूछे-परखे जाने के समय में यथातार्किकता समय लगते हुए मानस का विद्रोही या अराजक हो जाना स्वाभाविक हो सकता है लेकिन क्षमताओं का सच्चा प्रदर्शन ऐसे वक्तव्यों या तथाकथित बहादुरियों से कहाँ आँका जा सकता है, कोई नहीं आँक रहा होता है। समय की अपनी नसीहतें हैं। उससे आगे दौड़ा नहीं जा सकता और न ही अपने आसपास, आगे-पीछे चल रहे किसी को धक्का ही दिया जा सकता है, न ही रौंदा ही जा सकता है। अपरिपक्वता उम्र, परिवेश और संस्कारों के साथ-साथ हमारी अपनी जड़ता का भी सच है और सच संसार में सबसे बड़ा है।




  

बुधवार, 12 जुलाई 2017

रुधिर में जाकर मिल गये अश्रुओं से......

स्‍मरण : माँ बिछोहे दो साल 



पता नहीं चल पाता, नहीं रोना अपने वश में है या रुलायी आये तो नहीं रोक पाना अपने वश में है, नहीं है। जिन्होंने अपने जिए रहते कभी रोने नहीं दिया, कहने से पहले कामनाओं में जिन्होंने सबकुछ जानकर पूरा कर दिया, जब वो चली गयीं तो उसके बाद भी रोने को जैसे बांध गयीं हों। उनके जाने के दो साल बाद भी आज तक ऐसा एकान्त, ऐसी जगह, ऐसा समय नहीं मिला जब उनके बिछोह में खूब बिलख-बिलखकर रो सकूँ। अभी भी यह सब लिखते हुए ऐसा ही हो रहा है, दो-चार आँसू जैसे हूक उठने पर औपचारिकताएँ प्रकटकर आँखों में ही ठहर गये हैं। बाकी सब ठीक है, जीवन चल रहा है, उनके जाने के बाद भी। उनके जाने के बाद की टूट-फूट अब उनकी कामना करने से ठीक होती है जो पहले उनके एक स्पर्श और थोड़े से उपक्रम से दूर भाग जाती थी।

मुझे कभी लगता ही नहीं था कि कभी जागता हुआ सोऊँगा तो यह सच मन और दिमाग में रहेगा कि माँ नहीं हैं, न कभी यह सोचा कि सोते से जागूँगा तो अकेला ही उठकर बैठना होगा, इस सच के साथ कि माँ नहीं हैं। माँ का चला जाना सहन करना बहुत असहनीय रहा है लेकिन उसको सहन करना जैसे मुझे आप अपनी परीक्षा देना होता रहा है। बचपन में ही स्कूल जाने में बहुत रोता था तो माँ ही प्यार से लेकर डाँट तक कर मुझे स्कूल भेजती थीं। पढ़ने उठना से लेकर परीक्षा देना भी मेरे लिए ऐसा ही रहा है। मुझे लगता है कि उनके जाने के बाद अब हर दिन परीक्षा दिया करता हूँ। यह परीक्षा लगातार विफल करती है, विफलता देती है क्योंकि उनका बिछोह सहन कर पाना आसान नहीं है। एक अजीब किस्म का भटकाव लगातार काम करता है जिसमें उनका आभासित होना भ्रम सही पर बहुत सारे विश्वासों को अपनी अविश्वसनीयता में ही सही, बनाकर रखता है। सबके लिए हँसना होता है, सबसे बात करनी होती है, अपने पास से सबको वह सब उसकी इच्छा और सन्तोष का देना होता है जो उसे चाहिए। यह सब करते हुए बीच-बीच में एकदम अकेला हो जाया करता हूँ। एकदम शून्य में अपने को देखता हूँ कि फिर आसपास कोई चहल-पहल उस इच्छित या चाहे गये शोक से बाहर कर देती है।

माँ के रहते हुए चोट, दर्द, पीड़ा या कराह में उनका उच्चारण नहीं होता था। अब होने लगा है। सहनसीमा के पार चली जाने वाली हर स्थिति में माँ बोले से रुका नहीं जाता। मैं उनको मन, आत्मा और शरीर की अनेकानेक पीड़ाओं से मुक्त होने के बाद भी अपनी मुसीबतों में बुलाने लगता हूँ। मैं उनके रहते भी उनको चैन से बैठने नहीं देता था और उनके नहीं रहने के बाद भी उनको चैन से बैठने नहीं देता हूँ। सच यह है कि मैं चैन से नहीं बैठ पाता हूँ।

क्या कोई माँ को भुला सकता है? नहीं न। मैं कैसे भुला सकता हूँ। सन्तानों में उनके संघर्ष का पहला साक्षी रहा हूँ। जीवन और संघर्ष की उनकी यात्रा, उनके स्वप्न, उनका परिश्रम, दुख-सुख, एक-एक तिनका उनका संजोना। बहुत बड़ी बाँहें थीं उनकी जिसमें न जाने कितनी जवाबदेहियाँ वे ले लिया करती थीं। उनके अपने शरीर से बस केवल उनकी एक माँ थीं लेकिन हमारे पिता के पक्ष से भरापूरा परिवार। वे स्व-एकाक्य में सबको साथ लेकर चलने वाली ऐसी स्त्री थीं जिनको पारिवारिक लोकतंत्र में बड़ा विश्वास था। सबको खुश करके उनके चेहरे पर बड़ी खुशी मैंने देखी। इन मायनों में मेरा जरा भी स्मृतिलोप नहीं हुआ बल्कि अपने शैशवकाल से अब तक सारा कुछ याद है। 

जीवन में जून की 26 तारीख उनके चले जाने की, उनसे बिछोह की इस तरह बिंधी हुई है कि उसकी मन पर नोेक हमेशा महसूस करता हूँ। वह चुभन चली जाये यह भी नहीं चाहता। चुभन की पीड़ा, उसका लगातार बने रहना बार-बार उस व्यथा, उस दुख को फिर उस सिरे पर न केवल ले जाकर खड़ा कर देता है बल्कि वह सिरा हाथ में पकड़ाकर, उसे पकड़े-पकड़े फिर एक-एक कदम चलते हुए आज तक आने को कहता है। इस बार दो साल हो गये। दो साल में सात सौ तीस दिन बीत गये। ऐसा लगता है कि देह में रुधिर के साथ आँसू भी समरस हो गये हैं। अनेक बार प्रतीत होता है कि मैं स्वयं अपनी देह को ओढ़कर उस ताप में थोड़ा जीवन जियूँ। कई बार मन करता है इस कुनकुनी देह को मैं आप अपनी बाँहों में समेट लूँ और उसकी ऊष्मा, उसका ताप महसूस करूँ। शायद ऐसा कुछ होने भी लगता है। बहुत कुछ होने लगता है फिर भी बिलखकर रोने को तरसता हूँ।

मैं कहीं भाग नहीं सकता, शायद भाग भी न पाऊँगा। माँ की याद आती है तो उनकी कही बात भी याद आती है जो वे अक्सर तकलीफ, कठिनाइयों या मुसीबतों में कहा करती थीं, कि हम कहाँ भाग कर चले जायें? नहीं जा सकते। जो है सब यहीं रहकर है। वो माँ थीं, कहती थीं, मैं भी यही कहता हूँ अपने आपसे कि मैं चाहकर भी नहीं भाग सकता हूँ। मैं उनकी छबि, उनकी आँखों से लगातार आँखें मिलाकर अपने आपको जीते महसूस करना चाहता हूँ। मैं उनके नहीं होने के सच से अपने उनके मुझमें भीतर होने के विश्वास के साथ द्वन्द्वरत रहना चाहता हूँ। कहीं जाना नहीं चाहता। काश मुझे कोई ऐसी कोठरी मिल जाये जिसमें मैं अकेला इस द्वन्द्व से जूझता रहूँ चाहे मन या आत्मा कितनी ही लहुलुहान ही क्यों न हो जाये।

इसी 26 जून जब उनको दो साल हो रहे थे, उनकी स्मृति में नेमावर घाट पर जाकर वहाँ रहने वाले वृद्धों को खाना खिलाने की अपनी इच्छा पूरी करने के लिए घर से निकलकर सड़क पर आया ही था तो क्या देखता हूँ अगले मुहल्ले में खूब भीड़ लगी है। दृष्टव्य घर में कोई दिवंगत हो गया है। घर से थोड़ी दूर पर अन्तिम यात्रा के लिए ले जाने वाला वाहन खड़ा हुआ है जो पीछे से खुला हुआ है। पार्थिव देह रखी जाने के लिए घर से निकाली गयी है। अनेक महिलाएँ, लड़कियाँ, बच्चियाँ बिलख-बिलखकर रो रही हैं। कुछ ढांढस बंधाते पुरुष, एक पुरुष एक महिला के मुँह पर पानी के छींटे मारते हुए क्योंकि वे मूर्च्छित हो रही हैं.......................

मैं अपने आपको रोक नहीं पाया हूँ। मुझे आज का दिन, दो साल पहले का समय और मेरी माँ के साथ इन्हीं दृश्यों का स्मरण हो आया है, मैं भी इन सबके साथ बिलखकर रोने लगा हूँ............मेरा दुख, इनका दुख, हम सबका दुख कितना एक सरीखा है............आज इस परिवार ने भी अपने प्रियजन को खो दिया है...............


सोमवार, 10 जुलाई 2017

अभिनेत्रियों के पुनरागमन की बेला

आज के सिनेमा के नायक-नायिकाओं को माॅं की कमी पूरी होने को है ?



सिनेमा में ग्लैमर की चकाचौंध ऐसी है कि सितारे ज्यादा समय उससे दूर नहीं रह पाते। हम अक्सर देखते हैं कि सितारे सन्यास ले लिया करते हैं। सच यह भी होता है कि दर्शक का जी भर जाता है तो वे सन्यास दे दिया करते हैं। हम यों भी कह सकते हैं कि ऐसी स्थिति हो जाती है कि सन्यास ले लेना बेहतर होता है, अन्यथा आकर्षण से भरा यह ऐसा माध्यम है जिससे कोई भी रिटायर होना नहीं चाहता। बहरहाल, उस वक्त ऐसे कलाकारों को सारा वातावरण सुखद लगने लगता है जब और उसमें भी लम्बे समय वहाँ ठहरी रहकर अवकाश प्राप्त करना उनकी महात्वाकांक्षाओं के लिए आसान न रहा हो लेकिन वे अरसे के अवकाश के बाद फिर एक बार तेज रोशनी का सामना करने किसी फिल्म के सेट पर पहुँचते हैं अर्थात किसी फिल्म के लिए अनुबन्धित किए जाते हैं। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं रही है। लगातार सामने आते रहे हैं। इसमें सबसे ताजा उदाहरण अब श्रीदेवी का है। बोनी कपूर से शादी कर लेने के बाद और दो बेटियों की माँ बन जाने के बाद उन्होंने धीरजपूर्वक घर ही सम्हाला। लम्बे समय के लिए सिनेमाई सक्रियता से दूर हो गयीं। फिल्मों में नम्बर वन की हैसियत तक पहुँचने उन्होंने इस पूरे समय को सहन किया जो लगभग पन्द्रह या इससे अधिक वर्षों का रहा है। 

कुछ वर्ष पहले जब एक अच्छी फिल्म इंग्लिश-विंग्लिश से उन्होंने वापसी की थी तो फिल्म के अच्छा होने के बावजूद व्यावसायिक सफलता न मिलने से उनका वह कमबैक उनके लिए कोई काम का न रहा। इस बीच पति बोनी कपूर पर यह दबाव बना रहा कि वे श्रीदेवी के लिए कोई अच्छा प्रोजेक्ट तलाशें और उनकी ठीकठाक वापसी हो। मोम को इसी ठीकठाक वापसी वाला परिणाम माना जा रहा है जिसमें वे अक्षय खन्ना और नवाजुद्दीन सिद्दीकी के साथ एक सशक्त भूमिका में आयी हैं। स्वाभाविक रूप से ऐसे सिनेमा का धन से भरापूरा या धनवर्षा जैसा कारोबार नहीं होता लेकिन यदि ऐसी फिल्म श्रीदेवी के सशक्त किरदार और उसी की तरह निभायी गयी उनकी भूमिका के साथ बराबर की तौल करती हैं तो उनकी इस वापसी की सराहना के साथ आगे के लिए उनके सामने कुछेक द्वार जरूर खुल सकते हैं। 

हालाँकि यह भी तय है, जैसा कि फिल्म इण्डस्ट्री का चलन भी है कि सितारे जब युवा पुत्र-पुत्रियों के पिता हो जाते हैं तो उनको फिर अपनी महात्वाकांक्षाओं को दबाते हुए उनके लिए मार्ग प्रशस्त करना होता है। रिटायरमेंट की यह एक दूसरी तरह की अवस्था है जिसमें आपको अपने ही बच्चों के लिए मैदान छोड़ना पड़ता है। इस मनोविज्ञान को अनिल कपूर जैसे सितारे बिल्कुल की मानसिक तौर पर स्वीकार नहीं कर पाये लेकिन बावजूद उसके उनका अवकाश लम्बा हो ही गया। श्रीदेवी भी थोड़े समय बाद अपने निर्माता पति से बेटियों के लिए भी फिल्में बनाने को कहेंगी ही, इस बीच थोड़ा वक्त वह निकल आया है जब वे अपनी अधूरी कामनाओं को रुपहले परदे पर आकर पूरा कर लेने का अवसर बिल्कुल भी नहीं गवाँ रही हैं। 

बच्चों का नायक-नायिका के रूप में कैरियर आजमाने के ठीक पहले तक का बड़ा होना नायिकाओं के लिए ऐसा ही एक अवसर बनकर आया है जब हम काजोल को भी समयसापेक्ष सक्रियता के दौर में देख रहे हैं। पति के खासे स्पर्धी लेकिन अपने अच्छे मित्र शाहरुख खान के लिए उन्होंने दिलवाले फिल्म में काम करना स्वीकार किया था। इस समय उनकी चर्चा दक्षिण की एक फिल्म वेलईल्ला पट्टधारी 2 में रजनीकान्त के दामाद धनुष के विरुद्ध एक ग्रे-शेड की प्रभावी भूमिका के साथ हो रही है। जिन लोगों ने इस फिल्म का टीज़र देखा है वे काजोल के तेवर से चकित हैं। काजोल के बारे में कहा जाता है कि वे फिल्मों में अपने किरदार को लेकर बड़ी सजग रहती हैं। यह भूमिका उन्होंने देखभाल कर ही स्वीकार की है। इस फिल्म को रजनीकान्त की बेटी सौन्दर्या निर्देशित कर रही हैं। 

एक तरह से देखा जाये तो स्थापित अभिनेत्रियों का लौटना हिन्दी सिनेमा के आज के संक्रमणकाल में एक नयी सम्भावनाओं की तरफ संकेत करता है। समय के साथ हमारी फिल्मों में नायिका की सक्रियता की अवधि बहुत कम होती गयी है। नायकप्रधान सिनेमा ने आज की नायिका को गौण कर दिया है। माधुरी दीक्षित, काजोल, जूही चावला, श्रीदेवी आदि का समय स्टारडम में अच्छी-खासी स्पर्धा और रोमांचकारी परिणामों का रहा है। यही दौर अस्सी के बाद से सन 2000 तक नायिकाओं के लिए आखिरी स्वर्णिम काल रहा। यदि ये अभिनेत्रियाँ बदले किरदारों, चरित्र भूमिकाओं के ही सही दमखम के साथ लौटती हैं तो निश्चित ही सिनेमा के आज को एक अलग सा तेवर मिलेगा।