मंगलवार, 16 जून 2020

Baton Baton Mein Part 55 I विख्‍यात कथक नृत्‍यांगना एवं गुरु सुश्री मालती श्‍याम से बातचीत.

अनसुलझा रह गया जि़न्‍दगी का मॉंझा : सुशान्‍त सिंह राजपूत



यह मृत्‍यु बहुत दुखी कर गयी है सचमुच। हिन्‍दी सिनेमा जगत को यह एक बड़ा नुकसान है जब एक सौम्‍य, सुशील और नायक के रूप में दर्शकों के दिलों में बड़े गहरे उतरने वाला प्‍यारा सा नायक एक दुर्घटना से हम सबके बीच स्‍मृति शेष होकर रह गया है। यह निरन्‍तर अकल्‍पनीय और अविश्‍वसनीय लगता है कि सुशान्‍त सिंह राजपूत नहीं रहे। मार्च से लेकर अब तक संकट की जो वैश्विक निरन्‍तरता रही है उसमें सिनेमा से बहुमूल्‍य कलाकार एक के बाद एक जाते रहे। निम्‍मी से यह सिलसिला शुरू हुआ और इरफान, ऋषि कपूर, योगेश जैसे सिने जगत के अहम हस्‍ताक्षरों की एक के बाद एक विदाई ने हतप्रभ करके रख दिया है। 

सोशल मीडिया इस समय लोगों और लोगों की संवेदना की परख करता हुआ तरह-तरह से उनको प्रमाणित कर रहा है, इसी माध्‍यम में सुशान्‍त सिंह राजपूत भी एक सक्रिय हिस्‍सा हुआ करता था। मैं निजी रूप से कुछ माह से महसूस कर रहा था कि प्राय: ट्विटर में कविता के माध्‍यम से अपनी बात करते हुए सुशान्‍त जिस तरह सक्रिय रहता था, अचानक अदृश्‍य क्‍यों है। जिज्ञासा में उनके अकाउण्‍ट तक भी गया क्‍योंकि वे नयी पीढ़ी के कलाकारों में मुझे बहुत आकर्षित करते थे। मुझे उनका अकाउण्‍ट तक एक्टिव नहीं दिखा। पिछले 3 जून को उन्‍होंने इन्‍स्‍टाग्राम में अपनी अन्तिम पोस्‍ट डालकर अपनी दिवंगत माँ को याद किया था जो 2002 में उनको छोड़ कर चली गयी थीं। वे मातृप्रेमी, मातृभक्‍त थे और मॉं का बिछोह उनको सदैव ही सालता रहता था। हर साल जब मॉं की पुण्‍यतिथि आया करती थी तब वे बहुत भावुक होकर अपनी व्‍यथा किसी न किसी कविता के साथ लिखा करते थे जो उनके ही मन का भाव होता था। साल-दो साल पहले संवेदना के इसी धरातल पर उनको मेरे द्वारा लिखे गये उत्‍तर पर उनकी तवज्‍जो भी मुझे याद है। निजी रूप से मेरी यह साध थी कि अपने बूते पर अपनी जगह बनाने और विस्‍तारित करने वाले इस कोमल छबि वाले नायक से मुम्‍बई में एक लम्‍बी बातचीत जरूर करूँगा जो अब कभी न हो पायेगी। 


जब वे बारह साल पहले लगभग 2008 में किस देश में रहता है मेरा दिल और उसके बाद पवित्र रिश्‍ता में काम कर रहे थे तब मैं उनके चेहरे को ध्‍यान से देखा करता था, ध्‍यान से इसलिए देखा करता था क्‍योंकि उसमें एक तरह का सच्‍चा और नैतिक आकर्षण लगा करता था। पवित्र रिश्‍ता का नायक मानव बहुत नजदीक का पात्र लगता था। पहले मेरी धारणा यह बनी थी कि इसका चेहरा भावशून्‍य है लेकिन वहॉं शायद मेरी परख सही नहीं रही क्‍योंकि वह भावशून्‍यता जो मुझे दीखती थी वह गहन भावबोध था। वह किरदार में उतरा हुआ कलाकार था। उसका फिल्‍मों में चला जाना या बुला लिया जाना निश्चित रूप से उसकी प्रतिभा का ही परिणाम था क्‍योंकि यही एक माध्‍यम ऐसा होता है जहॉं निर्देशकों और निर्माताओं को बाजार ने इतना हृदयहीन और निर्मम बना दिया है कि वे सोर्स-सिफारिश का जोखिम नहीं लेना चाहते, दूसरे अवसरों में जोड़-जुगाड़ की परिपाटी की तरह। इस तरह पॉंच साल टीवी सीरियलों को देने के बाद सुशान्‍त हिन्‍दी फिल्‍मों का हिस्‍सा बन गया।

सुशान्‍त की खूबी यह थी कि वह योग्‍य और शिक्षित था। इसके बाद डॉंस के लिए श्‍यामक डावर और रंगमंच में अनुभव लेने के लिए वह दो बड़े रंगकर्मियों बैरी जॉन और नादिरा जहीर बब्‍बर के साथ काम कर चुका था। वह टीवी सीरियल जीतेन्‍द्र की बेटी एकता कपूर के साथ करने लगा था और संयोगवश जब फिल्‍म मिली तो जीतेन्‍द्र के भांजे अभिषेक कपूर के निर्देशक में काय पो चे। काई पो चे का ईशान भट्ट फिर एक किरदार था, परिस्थितियों से जूझता हुआ, स्‍वभाव से जूझता हुआ, अपने भीतर की हार-जीत के द्वन्‍द्व से जूझता हुआ। वह अपने आपको इसी किरदार में जैसे सिद्ध करने ही चला आया था तभी फिल्‍म के साथ वह याद भी रह गया। इस फिल्‍म का वह गाना जो बेतरह लोगों के दिलों में उतरा, रूठे ख्‍वाबों को मना लेंगे, उसी में आगे की लाइनें स्‍वानंद किरकिरे गीतकार ने मन को छूती हुई लिखीं थीं, सुलझा लेंगे उलझे रिश्‍तों का मॉंझा.........रिश्‍तों के मॉंझे का जो भी हुआ हो पर जिन्‍दगी का मॉंझा उलझ गया और अन्‍तत: अछोर हो गया। जमीन से उड़ी पतंग आकाश तक जिस तेजी से पहुँची, उसी तेजी से ओझल होकर न जाने कहॉं चली गयी अनन्‍त में।


सुशान्‍त के लिए वही बात दोहराता हूँ कि अपने बूते पर ठीक तो चल रहा था। शुद्ध देशी रोमांस, व्‍योमकेश बख्‍शी, एम एस धोनी: द अनटोल्‍ड स्‍टोरी, केदारनाथ, सोनचिरिया और छिछोरे फिल्‍में निराशाजनक तो थीं नहीं। आगे भी दो-तीन फिल्‍मों के लिए अनुबन्धित था, ड्राइव, दिल बेचारा आदि। क्‍यों अपने को अपने ही में से घटा लिया इस तरह। क्‍या पता क्‍या द्वन्‍द्व रहे होंगे? शायद किसी प्रेम प्रसंग या सम्‍बन्‍धों में भी नहीं था। सब जगह खबर यही तैर रही है कि ड्रिपेशन में था, अवसाद में था। इस निर्णय तक पहुँचा और उस क्षण की अनुभूति जिसमें यह कदम उठाया, अपने साथ ही ले गया यह सुन्‍दर सुकुमार नायक सुशान्‍त जिसके बारे में हम कभी सच न जान पायेंगे। धोनी फिल्‍म के लिए उसकी बहुत सराहना होती है लेकिन केदारनाथ उसकी बहुत अच्‍छी और देखते हुए बड़ी शीतल अनुभूति, उसके किरदार के प्रति बहुत सारा प्‍यार जगाती फिल्‍म लगती थी। सुशान्‍त अब नहीं है। उसके नहीं रहने के दिन की अगली सुबह उसके न जाने कितने चाहने वालों को वेदना में रखेगी। अब तक तीन बार मुझे भी रोना आया। ऐसे किया जाता है क्‍या यार? इतना जल्‍दी में था मॉं के पास जाने की?
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शनिवार, 13 जून 2020

Baton Baton Mein Part 52 I विख्‍यात सरोद वादिका सुश्री चन्द्रिमा मजुमदार से बातचीत.

फिल्‍म / गुलाबो सिताबो

बच्‍चन साहब के साथ लखनऊ पैदल भ्रमण करना हो तो.....

 


पीकू टीम की गुलाबो सिताबो उसके बराबर या उससे दो कदम आगे हो यह जरूरी नहीं है। हमारे आसपास सिनेमा को लेकर अब केवल एक ही गणित काम करता है और वह है कमायी। फिल्म ने कितनी कमायी की? जितना लगाया था उससे खूब बढ़कर मिला कि नहीं या जो लगाया था वह भी चला गया?। सिनेमा का बाजार संगीन है तो संज्ञान भी कुछ ज्यादा है। लोग इस बदले समय में अपने घर के भीतर सिनेमा के चले आने से चकित हैं। खुश भी होंगे क्योंकि सभी दर्शकों के लिए मॉल या आयनॉक्स में जाकर खर्चीला सिनेमा देखना शगल नहीं है। बहरहाल, थोड़ा भटककर फिर गुलाबो सिताबो पर।

जैसा कि नाम है, लगा यही था कि अमिताभ बच्चन एक किरदार होंगे, शायद दो बकरियों के मालिक होंगे और वहीं कोई कहानी गढ़ी गयी होगी। लेकिन गढ़ कुछ और दिया गया है इनके नाम पर। पूरी फिल्म में मिर्जा शेख खुटुर-खुटुर करके चलते नजर आ जाते हैं। एक आदमी है असाधारण लोभ-लालच और क्षुद्रता से भरा हुआ लेकिन उम्र और अवस्था है तो सब धक रहा है। अपने से बारह साल बड़ी बेगम के पति हैं जो उम्र और रुग्णता के कारण मसेहरी पर हैं और एक बड़ी पुरानी जर्जर हवेली की मालकिन हैं। मिर्जा को उनके मरने का इन्तजार है ताकि हवेली उन्हें मिल जाये। हवेली के ही कोने-छाते में कुछ किरायेदार रख लिए हैं जिनसे आये दिन अबे-तबे हुआ करती है। जैसे मिर्जा हैं वैसे ही उनका सम्मान भी। माँ और तीन बहनों के साथ रह रहा बाँके रस्तोगी ही उनके और वे बाँके रस्तोगी के लक्षित रहते हैं। फिल्म में मकान मालिक का आये दिन किरायेदारों को त्रास देना, खाली कर देने की चेतावनी, धमकी के बीच कहानी में पुरातत्व विभाग और वकील के आते ही बिल्डर और चापलूस भी आ जाते हैं और सामने रहकर भी न समझ में आने वाली एक गुत्थमगुत्था चलती रहती है। मैंने महसूस किया कि दो घण्टे किसी तरह घसीटी गयी यह फिल्म डेढ़ घण्टे घटित होकर खत्म होने की अवस्था में आ जाती है मगर लेखिका और निर्देशक आत्मविश्वास से भरे हैं तो वे छोटी-छोटी धज्जियाँ बांधकर फिल्म को उबाऊपन की हद तक ले जाते हैं। तब तक दर्शक का क्या होता है कल्पना की जा सकती है।


पटकथा में कोशिश यही की गयी है कि किसी न किसी बहाने दर्शक को उलझाये रखा जाये। यों कुल जमा अमिताभ बच्चन(मिर्जा शेख) को एक किरदार बनकर लखनऊ की खूबसूरत लोकेशन पर घूमते हुए देखने जैसा वृत्तचित्राना अनुभव ही हमारे हाथ लगता है। लगे हाथ उल्लेख कर दें कि सिनेमेटोग्राफी अविक मुखोपाध्याय की है। महानायक ने किरदार में अपने आपको, अच्छा शब्द है, जेक्सचर-पोश्चर उस सबमें ऐसा आयताकार अपने आपको कर लिया है कि चलते-फिरते दूसरे कलाकार के लिए जगह ही नहीं है। आयुष्मान खुराना(बाँके रस्तोगी) बेचारे बोलने में जीभ का इस्तेमाल करके एक शैली अख्तियार करते हैं मगर कई बार भूल भी जाते हैं। बाँके की उजड्ड नोंकझोंक और मिर्जा के उलझने वाले अन्दाज बहुत दिलचस्प हों, ऐसा बहुत कम लगता है।

मिर्जा में धन, जायदाद की अदम्य लालसा है, वह उसके पूरे व्यवहार में दिखायी देती है। अपनी ही हवेली के किरायेदारों के बल्व और ताले चुराकर बेच देना, पैसों की जुगाड़ में रहना, बेगम तक की सन्दूकची से पैसे चुराना यह सब किसी व्यक्ति को निकृष्ट बताने के तरीके हैं। बाँके की चादर चुराकर खुद ओढ़कर पसरे रहना और जब बाँके उसे पहचानकर छुड़ाकर ले जाता है तो यह कहना कि हमने दिन भर पादा है उसे ओढ़कर सतही दर्शकों को हँसाने के लिए लिखा होगा जूही ने शायद। हवेली बेचने की फितरत में अक्सर पैसा कब मिलेगा, पैसा कितना मिलेगा, सामने वाले से मिर्जा का यह पूछना दिलचस्प है। कई बार अधिक धन की कल्पना भर से चक्कर खाकर गिर जाना रोचक। इस फिल्म में बाँके की बड़ी बहन को इस हद तक समय से आगे बताना कि कई फ्लर्ट करते हुए किसी के साथ भी अपने स्वार्थ के लिए सोने को तैयार, समझ में नहीं आता है। इसीलिए विजय राज(ज्ञानेश शुक्ला) के साथ के दृश्य पैबन्द की तरह हैं। 


इस फिल्म में फारुख जफर की भूमिका बेगम के रूप में बहुत अच्छी निभी है। बाँके की दो छोटी बहनों की भूमिकाओं के लिए अनन्या द्विवेदी और उजाली राज की सराहना करनी चाहिए। जो उसको ताड़ता है सो वो भी आदमी, गूँगा नौकर नलनीश नील अपने हावभाव में बहुत कुछ कह-कर जाता है। मिर्जा का हवेली का लालच, किरायेदारों को खाली कराये जाने का डर और दूसरे मकान की उम्मीद, बेगम का आश्चर्यजनक ढंग से न केवल ठीक हो जाना बल्कि अपने पहले वाले मियाँ के संग भाग जाना, पुरातत्व कर्मचारी, वकील, बिल्डर का अपना स्वार्थ यह सब उत्तरार्ध में अनेक तरह के भटकाव खड़े करते हैं जिसे निर्देशक शूजित सरकार दृश्य दर दृश्य शूट करते चले जाते हैं। इसमें फिल्म का एडीटर(चन्द्रशेखर प्रजापति) भी कुछ नहीं कर पाता। फिल्म खत्म भी बहुत हास्यास्पद ढंग से होती है जिसमें मिर्जा और बाँके दयनीय अवस्था में हवेली के बाहर एक तरफ खड़े होकर हवेली के भीतर मनाये जा रहे बेगम के जन्मदिन के जश्न की रौनक को देख रहे हैं और सिक्यूरिटी गार्ड से अपमानित हो रहे हैं। फिल्म भी इसी तरह अपनी दयनीय स्थिति को प्राप्त होती है जिसमें अच्छे गीत, अच्छा संगीत(शान्‍तनु मोइत्रा) भी कोई मदद नहीं कर पाते। 
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गुरुवार, 11 जून 2020

Baton Baton Mein Part 50 I बहुआयामी कलाकार, समृद्ध स्‍वर के जादूगर श्री मुकेश कुन्‍दन थाॅमस से बातचीत.

कनक रेले

हमारी अवधारणा में मोहिनीअट्टम का पर्याय कनक रेले भी हैं......

 


मोहिनीअट़टम का पर्याय हो चलीं विदुषी नृत्यांगना डॉ कनक रेले का आज जन्मदिन है। वे 84वें वर्ष में प्रवेश कर रही हैं। उनकी साधना, ऊर्जा और मेधा का ही यह प्रभाव है कि आज भी उनकी अभिव्यक्ति और दिनचर्या में नृत्य और नृत्य की साधना जस की तस है उसमें उम्र का जरा भी असर नहीं हुआ है। उनके जीवट को देखकर प्रेरणा होती है, कला के प्रति उनका वैभवपूर्ण संस्कार हमें इस बात के लिए प्रेरित करता है कि हम आदरपूर्वक उनकी सक्रिय उपस्थिति और अवदान के लिए उनके प्रति और ईश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करें। देश-विदेश में विस्तारित उनकी सुदीर्घ और गुणी शिष्य परम्परा भी यह कर रही है।

डॉ कनक रेले का जन्म 1937 में मुम्बई में हुआ। आरम्भ में उनको कथकली की शिक्षा विख्यात नृत्य गुरु करुणाकर पणिक्कर एवं राघवन नायर से प्राप्त हुई। उनको भरतनाट्यम के लिए प्रशिक्षित किया नाना कसार ने और मोहिनीअट्टम की शिक्षा चिन्नम्मु अम्मा से प्राप्त हुई। आगे चलकर उन्होंने मोहिनीअट्टम पर अपने को एकाग्र किया और मुम्बई विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट उपाधि प्राप्त की। मेनचेस्टर यूनिवर्सिटी यू के से भी शोधोपाधि उन्होंने प्राप्त की। 

कनक जी ने 1966 में मुम्बई में नालंदा डांस सेंटर की स्थापना करके कला जगत और संस्कृति के लिए बड़ा योगदान किया है। सात साल तक उन्होंने इस केन्द्र में प्रशिक्षण प्रदान करने के उपरान्त उन्होंने नालंदा नृत्य कला महाविद्यालय की स्थापना 1973 में की। उन्होंने इसके लिए सार्थक एवं उपयोगी पाठ्यक्रम तैयार करने के अलावा प्रशिक्षण की सारी समय के साथ आवश्यक प्रतीत होने वाली व्यवस्थाएँ जुटायीं और इसे उसी तरह की ऊँचाई प्रदान की जैसी वे कला जगत में अपनी विलक्षण प्रतिभा से हासिल करती जा रही थीं। उन्होंने नृत्य को मौलिक एवं नवाचारी प्रयोगों से जोड़ते हुए नृत्य चिकित्सा का भी आयाम बनाया। मोहिनीअट्टम पर लिखी कनक जी की किताबें अपने समय का मूल्यवान साक्ष्य या दस्तावेज हैं। 

एक कलाकार के रूप में उनका सर्जनात्मक विस्तार अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं रेखांकित किए जाने योग्य है। अमृत मंथन, दशावतार, श्रीकृष्ण लीला, सन्तवाणी, शिलापदिकरम, कल्याणी, स्वप्नवासवदत्ताम, कंचन मृग, रुक्मिणी स्वयंवर आदि नृत्य नाटिकाएँ उनके संयोजन में अपने अनेक प्रदर्शनों में मंच पर अपनी अनूठी आभा बिखेरने वाली प्रस्तुतियाँ हैं जिनको सदैव सराहा गया है। श्रीकृष्ण लीला एवं आषिमा नृत्य नाटिकाएँ कनक जी ने विशेष बच्चों को लेकर तैयार की थी और प्रत्येक में लगभग पचास से अधिक बच्चों ने सुखद रूप से चकित कर देने वाला काम किया था। 

डॉ कनक रेले, मोहिनीअट्टम की अग्रणी एवं मूर्धन्य नृत्यांगना के रूप में वह पहचान हैं जो मंच पर अभिव्यक्ति की असाधारणता और कलात्मक सौन्दर्यबोध के साथ ही गहरे सम्प्रेषित होने वाली भावाभिव्यक्ति से चमत्कार रचती हैं। मोहिनीअट्टम की आन्तरिक और महीन विशिष्टताओं को आत्मसात करके अपने माध्यम से प्रस्तुत करने का उनका सलीका उनको दूसरी नृत्यांगनाओं से पृथक रखता है। कलाकार और अकादमिक विशेषज्ञ दोनों धरातलों पर वे इस कला को शीर्ष पर स्थापित करने वाली एकमात्र नृत्यांगना हैं। उनकी कला के प्रति आदर व्यक्त करते हुए, उनके सुदीर्घ योगदान का सम्मान करते हुए देश ने उनको गरिमामयी सम्मानों से विभूषित भी किया है जिसमें संगीत नाटक अकादमी सम्मान के साथ ही पद्मभूषण भी शामिल है। मोहिनीअट्टम पर नृत्य भारती शीर्षक से उन्होंने एक लघु फिल्म भी वर्षों पूर्व बनायी थी। 

उनके जन्मदिन पर आज बधाई देते हुए बातचीत में वही गरिमा, वही ऊर्जा और वही कला बोध इस टिप्पणी के लेखक को प्रतीत हुआ है। कला ने उनको इस उम्र में भी उतना ही सजग, जाग्रत और सक्रिय बनाये रखा है यह हमारी उपलब्धि और गौरव की बात है। वे आगे भी इसी दक्षता, विशेषज्ञता और सांस्कृतिकचेता की अपनी भूमिका के साथ आने वाली पीढ़ी की प्रेरणा और मार्गदर्शक बनी रहेंगी, यह आशा है। 
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Baton Baton Mein Part 49 I प्रतिभाशाली शहनाई वादक श्री लोकेश आनंद से बातचीत.