रविवार, 17 दिसंबर 2017

48वाँ अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह, गोआ

सिनेमा सदैव ही जीवन की संवेदना का हिस्सा रहा है

(iffigoa2017)

गोआ (goa) में विश्व सिनेमा की भागीदारी वाला भारत सरकार के फिल्म समारोह निदेशालय, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का अड़तालीवाँ अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह सम्पन्न (iffigoa2017) हो चुका है। इस समारोह का शुभारम्भ भारतीय सिनेमा के आज के चर्चित सितारे शाहरुख खान ने किया था। वहीं इसके समापन पर भारतीय सिनेमा के महानायक अमिताभ बच्चन और अक्षय कुमार की उपस्थिति और उद्बोधनों ने समारोह को भावनात्मक रूप से समेटने का उपक्रम किया। देश-दुनिया के शीर्षस्थ फिल्मकार और उनका सिनेमा देखने के अवसर यह समारोह पिछले अड़तालीस बार से जुटाया करता है। पहले यह समारोह एक साल दिल्ली और एक साल देश के किसी एक राज्य में हुआ करता था। देश के अनेक राज्यों को इस समारोह का आतिथेय होने का अवसर मिला। सदैव ही इस समारोह को एक ग्लैमर, एक आभा और एक रौनक प्राप्त होती रही है क्योंकि यह देश का अकेला ऐसा समारोह रहा जिसने दुनिया के उत्कृष्ट सिनेमा को एक प्लेटफाॅर्म पर लाने का प्रयास किया, उन फिल्मकारों को हिन्दुस्तान में इस समारोह का हिस्सा बनने को निमंत्रित किया जिनके नाम और व्यक्तित्व का अर्थात ही समृद्ध सिनेमा हुआ करता था। 

आरम्भ के कुछ वर्षों तक यह समारोह बाॅलीवुड के फिल्मकारों और सितारों की बड़ी आमद का केन्द्र बना रहा लेकिन बाद में धीरे-धीरे देश के दूसरे राज्यों के फिल्मकार, कलाकार, दुनिया के अनेक देशों के फिल्मकार और कलाकार आकृष्ट होना शुरू हुए। पिछले एक दशक में इस समारोह को बावजूद एक ही राज्य में सिमटकर रह जाने, शेष देश और उसके राज्यों से बड़ी दूर हो जाने और देखने वालों के लिए अपेक्षाकृत व्ययसाध्य होने के बाद भी स्थापित हुआ कहा जा सकता है। इस बार का अड़तालीसवाँ अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह अपने आपमें अनेक आकर्षण एवं आयाम समेटकर प्रस्तुत हुआ है। इण्टरनेशनल फेडरेशन आॅफ प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन के साथ मिलकर 195 फिल्मों के साथ इस समारोह की शुरूआत एक अच्छा संकेत था। इस बार के समारोह में 82 देशों के सिनेमा की भागीदारी हुई। इनमें दस वल्र्ड प्रीमियर्स, दस एशियन एवं इण्टरनेशनल प्रीमियर्स एवं 65 भारतीय प्रीमियर्स शामिल थे। ईरान के शीर्षस्थ फिल्मकार माजिद मजीदी की फिल्म बियाॅण्ड द क्लाउड्स से समारोह की शुरूआत तथा समापन अवसर पर पाबलो कैसर की फिल्म इण्डो-अर्जेण्टीनियन फिल्म थिंकिंग आॅफ फिल्म का प्रदर्शन प्रीमियर देखने वालों के लिए रोचक अनुभव रहा। इस बार कनाडा को विशेष रूप से सिनेमा-केन्द्रित किया गया जिसमें श्रेष्ठ फिल्मों के साथ प्रतिष्ठित कलाकारों और फिल्मकारों का भी आना-जाना लगा रहा। 

अड़तालीसवें अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में देश-दुनिया की तकरीबन 30 महिला फिल्मकारों का सिनेमा देखने का अवसर फिल्म समारोह में शामिल होने वाले सिनेप्रेमियों को मिला जो सुखद संकेत है। समारोह का एक बड़ा आकर्षण पिछली सदी के विश्व के दो महान फिल्मकारों फ्रिट्ज लैंग की फिल्म मेट्रोपाॅलिस एवं आन्दे्रई तारकोव्स्की की फिल्म सेक्रीफाइस थीं जो प्रदर्शन के लिए हासिल की गयी। 

विदेशी सिनेमा में जेम्स बाॅण्ड की फिल्मों की समानान्तर सफलता एवं लोकप्रियता का आकर्षण इस बार इस समारोह को भी बचा नहीं पाया है, यही कारण है कि बाॅण्ड की 9 फिल्में इस समारोह का हिस्सा बनी। इनमें शामिल थीं, गोल्डन आई, गोल्ड फिंगर, आॅक्टोपसी, स्कायफाल, आॅन हर मिजेस्ट्रीज़ सीक्रेट सर्विस, इ स्पाय हू लव्ड मी इत्यादि। 

लगभग नौ दिनों के इस समारोह में इतनी सारी फिल्मों का शामिल होना दिलचस्प था, उसकी विविधता उतनी ही आकृष्ट करने वाली भी। एक तरफ अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगी खण्ड में बीट्स पर मिनट, डार्क स्कल, द ग्रेट बुद्धा, कच्चा लिम्बू, शटल लाइफ, विलेज राॅकस्टार जैसी फिल्में थीं तो दूसरी ओर विश्व सिनेमा श्रेणी में ब्लैक लेवल, ब्लडी मिल्क, ब्रीथ, चिल्ड्रन आॅफ द नाइट, डेब्रेक, हाई नून स्टोरी, बैरेज, एलोन डज नाॅट बिलीव इन डेथ, फादर एण्ड सन, लवलेस, मोंपारनास बिएवेन्यू, द स्ट्रेन्ज वन्स आदि। इस बार जैसा कि ऊपर जिक्र आया, कनाडा के सिनेमा को विशेष केन्द्रित किया गया था। द स्टेअर्स, आई आॅन जूलिएट, डोंट टाॅक टू आइरीन, मेडीटेशन पार्क, ओल्ड स्टोन वगैरह। ब्रिक्स फिल्म फेस्टिवल अवार्ड श्रेणी में नीस: द हार्ट आॅफ मेडनेस, अयाण्डा, टर्टल, वेयर हेज़ टाइम गाॅन, द सेकेण्ड मदर आदि को देखना समय के साथ दुर्लभ और दुरूह विषयों पर परिश्रमपूर्वक बने सिनेमा का आस्वादन करना था। 

विश्व सिनेमा के इस बड़े समागम में ब्रिक्स फिल्म फेस्टिवल श्रेणी में नीस: द हार्ट आॅफ मेडनेस देखना संवेदनशील अनुभव था जिसमें चालीस के दशक की एक सच घटना को आधार बनाकर प्रस्तुत किया गया था। यह एक महिला मनोचिकित्सक के साहस और प्रयोगों की कहानी है जो मानसिक रोगियों को करण्ट जैसी चिकित्सा पद्धति के विरुद्ध है और उसे मनुष्य के लिए अत्यन्त पीड़ाजनक और त्रासद मानती है। समकालीन परिवेश और साथी उससे असहमत उसे अलग-थलग कर देते हैं और भयावह रोगियों के बीच काम करने भेज देते हैं जहाँ वह अपनी तरह से अनेक मरीजों को सुधार पाती है, उनको ठीक कर पाती है। राॅबर्टो बर्लिनर की यह ब्राजीलियन फिल्म हमें आज भी सोचने पर विवश करती है। बैरेज(फ्रांस-लोरा स्कोरेडर), फादर एण्ड सन(विएतनाम-लुओंग डिन्ह डुंग), लवलेस(रशिया-एण्ड्री ज्वाइगिनत्सेव) जैसी फिल्मों के मूल में विषय छोटी उम्र के बच्चे हैं जो अलग-अलग कारणों से एकाकीपन, वेदना, उपेक्षा और कठिनाइयाँ झेल रहे हैं। 

आश्चर्य यह होता है कि कैसे अलग-अलग देशों में फिल्मकारों ने यह लगभग एक जैसी मासूम संवेदना और वेदना को अपने सिनेमा का आधार बनाया। बैरेज में एक माँ अपनी बेटी को तब अपने ढंग से परवरिश और सान्निध्य के दबाव डाल रही है जब उसका संसार खुलने को है और वह छोटी ही उम्र से अपनी नानी के पास रह रही है। इस बच्ची की चुप्पी बड़े सवाल खड़े करती है। दूसरी ओर लवलेस जैसी फिल्म जिसमें तलाक लेकर अलग होने को आतुर पति-पत्नी को अपने बच्चे के भविष्य का ख्याल ही नहीं है। वह उसकी उपस्थिति में घर का सौदा कर रहे हैं ताकि घर बेचकर अलग हो जायें। ऐसे में उस बच्चे का एक दिन गायब हो जाने की घटना भी उपेक्षा शिकार हो जाती है। माता-पिता को इतना निर्मम देखना त्रासद लगता है पर यह है दुनिया के ही समाज का सच। तीसरी ओर एक फिल्म फादर एण्ड सन में एक पहाड़ी इलाके में रहने वाले गरीब मछुआरे का अपने बच्चे के साथ कठिन संघर्ष है जो मासूम एक गम्भीर बीमारी का शिकार हो गया है।

भारतीय सिनेमा खण्ड में फीचर फिल्म श्रेणी में कच्चा लिम्बू, कड़वी हवा, क्षितिज-ए होराइजन, पिहू, रुख, टेक आॅफ, वेण्टिलेटर, बिसोर्जन, माछेर झोल, मुरम्बा, न्यूटन और नाॅन फीचर फिल्मों में बलूत, अम्मा मेरी, एपिल, ए वेरी ओल्ड मैन विद एनाॅरमस विंग्स, खिड़की, पलाश, पुष्कर पुराण आदि विषयों की मौलिकता और कथ्य के साथ परदे पर उसके निर्वाह के कौशल और दृष्टिकोण के कारण पसन्द की गयीं। अलावा दादा साहब फाल्के अवार्ड से विभूषित फिल्मकार के. विश्वनाथ की फिल्मों सागर संगमम, शंकराभरणम, स्वाति किरानम को देखा गया। उल्लेखनीय यह भी कि इस साल दिवंगत हुए फिल्मकारों और कलाकारों को श्रद्धांजलि देते हुए सरकार ने ओमपुरी की अर्धसत्य, विनोद खन्ना की अचानक, अब्दुल मजीद की असमिया फिल्म चमेली मेमसाब, टाॅम आल्टर की ओसियन आॅफ एन ओल्ड मैन, रीमा लागू की मराठी फिल्म सवाली, जयललिता की तमिल फिल्म अइयारथिल ओरुवन, कुन्दन शाह की जाने भी दो यारों, दासरि नारायण राव की तेलुगु फिल्म ओसे रामुलम्मा और रामानंद सेनगुप्ता की बंगला फिल्म नागरिक को भी स्थान दिया गया था। हिन्दी मीडियम और सीक्रेट सुपर स्टार जैसी फिल्में भी सुगम और बोधगम्य फिल्मों की श्रेणी में शामिल थीं जो पूर्व प्रदर्शित भी हैं।

समारोह के समापन अवसर पर भारतीय सिनेमा के महानायक अमिताभ बच्चन को साल की इण्डियन फिल्म पर्सनैलिटी के रूप में सम्मानित करने किया गया वहीं लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड प्रसिद्ध कैनेडियन निर्देशक एटाॅम इगोयान दिया गया। समापन अवसर सलमान खान, कैटरीना कैफ और अक्षय कुमार जैसे सितारों की उपस्थिति से और भी यादगार बन गया। कनाडा के सर्वाधिक प्रतिष्ठित फिल्मकार एटाॅम को एक्जोटिका से अन्तर्राष्ट्रीय पहचान मिली। उनकी एक फिल्म द स्वीट हेअरआॅफ्टर भी प्रेक्षकों में पसन्द की गयी थी। अरारत, श्लोए, व्हेयर द ट्रुथ लाइज़, अडोरेशन, डेवल्स नाॅट, द केप्टिव, रिमेम्बर इगोयन उनकी अन्य श्रेष्ठ फिल्में हैं। फ्रांस के सर्वोच्च सम्मान कम्पेनियन आॅफ द आर्डर आॅफ कनाडा से सम्मानित एटाॅम इगोएन विश्व सिनेमा में सर्जनात्मक उपलब्धियों का एक अहम चेहरा हैं। 

गोआ की अनुपम प्रकृति और छटाओं के बीच आयनाॅक्स, कला अकादमी भवन, मेक्विनेज़ भवनों में फिल्मों के प्रदर्शनों ने प्रतिदिन सुबह लगभग नौ बजे से देर रात बारह बजे के बाद तक सिनेमा का ऐसा माहौल बनाया जिसको देखकर लगता था कि दुनिया के सिनेमा को एक जगह पर देख पाने का इससे बेहतर सुअवसर और नहीं है। बड़ी बात यही है कि लगभग पचास साल से यह परम्परा एक बड़े रूप में स्थापित हो चुकी है और दुनिया के फिल्मकारों और सिनेप्रेमियों को इस अवसर का इन्तजार। सिनेमा का वजूद अपने आपमें बहुत मयाने रखता है। उसकी वजहें साफ हैं। सिनेमा का हमारे सपनों से जुड़ा होना, हमारे अचम्भे का हिस्सा होना, हमारी महात्वाकांक्षाओं में शामिल होना और ऐसे अनेक कारण है जो सिनेमा को विशिष्ट बनाते हैं। 

बीसवीं शताब्दी की यह सबसे चमत्कारिक विधा इक्कीसवीं सदी के दो दशकों में आधुनिक तकनीक, संसाधन और क्षण भर में हमसे सम्पर्क कर संवाद स्थापित करने वाली है, निश्चित ही इसकी उतनी ही लाभ-हानियाँ भी हैं लेकिन इसके बावजूद सिनेमा हमारे रोमांच का पर्याय है, हमारी स्फूर्ति का पोषक है, इसे नकारा नहीं जा सकता। 
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शुक्रवार, 8 दिसंबर 2017

खूबियाँ जो धर्मेन्द्र को सदाबहार बनाती हैं....

जन्मदिन : 8 दिसम्बर


भारतीय सिनेमा के सदाबहार अभिनेता धर्मेन्द्र एक सदैव प्रासंगिक सितारे हैं। 8 दिसम्बर को उनका जन्मदिन है। देश के कोने-कोने से उनके चाहने वाले मुम्बई पहुँचते हैं, यथाक्षमता उपहार, फूल, गुलदस्ता और खूब सारा प्यार लिए। धर्मेन्द्र सबसे मिलते हैं, यह दिन यदि वे मुम्बई में हुए तो उनसे मिलकर जाने वाले के लिए यादगार बन जाता है। बयासी वर्ष की उम्र में वे अनुशासित और अपनी फिटनेस को लेकर सजग रहते हैं। जहाँ तक सक्रियता की बात है तो वे न केवल यमला पगला दीवाना के तीसरे भाग की शूटिंग में व्यस्त हैं बल्कि अपनी भावनात्मक फिल्म अपने का सीक्वेल भी बनाने की तैयारी कर रहे हैं। उनकी ही देखरेख में उनका पोता और सनी का बेटा राजवीर अपनी पहली फिल्म पल पल दिल के पास से सिनेमा में प्रवेश करने जा रहा है। 

धर्मेन्द्र एक साफदिल इन्सान, भीतर-बाहर एक सा व्यक्तित्व हैं। उनका व्यक्तित्व एक खुली किताब की तरह है। वे हमारी-आपकी तरह सहज और सीधे-सादे इन्सान हैं। फिल्म जगत मेें उनका आना, यूँ किसी बड़े सुयोग या चमत्कार से कम न रहा है। फगवाड़ा, पंजाब के एक छोटे से गॉंव ललतों में उनका बचपन बीता। बचपन से उनको सिनेमा का शौक था। अपने तईं जब उनको मौका मिलता था, तब तो सिनेमा वे देखते ही थे, इसके बाद अपनी माँ और परिवार के सदस्यों के साथ भी वे फिल्म देखने का कोई अवसर जाने नहीं देते थे। उन्होंने स्वयं ही बताया कि बचपन में सुरैया के वे इतने मुरीद थे कि चौदह वर्ष की उम्र में उनकी एक फिल्म दिल्लगी उन्होंने चालीस बार देखी थी। धर्मेन्द्र अपने पिता को काफी डरते थे। उनसे सीधे बात करने की हिम्मत उनकी कभी न पड़ती। अपनी माँ के प्रति उनकी गहरी श्रद्घा रही है। 

उन्होंने फिल्म फेयर की नये सितारों की खोज प्रतियोगिता में हिस्सा लेकर अपने सितारा बनने के स्वप्र को साकार करने की दिशा में पहला कदम रखा था। जब उनको मुम्बई बुलाया गया तो खुशी का पारावार न रहा। इस यात्रा के लिए उनको फस्र्ट क्लास का टिकिट और फाइव स्टार होटल में ठहरने के इन्त$जाम के साथ बुलाया गया था। वे इसके लिए फिल्म फेयर के तब के सम्पादक पी. एल. राव को याद करना नहीं भूलते। यह 1958 की बात है। चयन तो उनका हो गया और फिल्म फेयर ने अपने जो स्टार घोषित किए उनमें धर्मेन्द्र भी शामिल थे मगर उनको एकदम से काम नहीं मिला। धर्मेन्द्र लेकिन जिद के पक्के थे। उन्होंने संघर्ष किया। अभिनेता बनने के ही ख्वाहिशमन्द अर्जुन हिंगोरानी और धर्मेन्द्र अक्सर काम के सिलसिले में किसी न किसी ऑफिस में एक-दूसरे को मिल जाते थे। दोनों में ऐसी दोस्ती हुई कि अर्जुन ने हीरो बनने की कोशिश से अपने को दूर करके निर्देशक के रूप में कैरियर शुरू किया तो उनके पहले नायक धर्मेन्द्र थे, दिल भी तेरा हम भी तेरे के साथ। बाद में यह दोस्ती ऐसी परवान चढ़ी कि हिंगोरानी की हर फिल्म के नायक धर्मेन्द्र ही हुए, शोला और शबनम, कब क्यों और कहाँ, कहानी किस्मत की आदि। 

धर्मेन्द्र की फिल्मोग्राफी बड़ी समृद्ध है। शायद ही ऐसा कोई श्रेष्ठï निर्देशक हो, जिनके साथ उन्होंने काम न किया हो। सीक्वेंस में देखें तो निर्माताओं में, निर्देशकों मेें, साथी कलाकारों में, नायिकाओं मेें ऐसे अनेक नाम सामने आते हैं जिनके साथ अपने कैरियर में कई बार, अनेक फिल्मों में उन्होंने काम किया। मोहन कुमार, मोहन सैगल, राज खोसला, बिमल राय, हृषिकेश मुखर्जी, असित सेन, रमेश सिप्पी, दुलाल गुहा,  जे. पी. दत्ता, अनिल शर्मा, ओ. पी. रल्हन, मनमोहन देसाई, रामानंद सागर, चेतन आनंद, विजय आनंद जैसे कितने ही निर्देशक होंगे जिनके साथ धर्मेन्द्र ने अपने समय की यादगार फिल्में की हैं। धर्मेन्द्र के कैरियर का शुरूआती दौर बहुत ही विशेष किस्म की अनुकूलता का माना जाता है। यह वह दौर था जब उन्होंने अपने समय की श्रेष्ठï नायिकाओं के साथ अनेक खास फिल्मों में काम किया। 

लेकिन इस दौर में जिन नायिकाओं के साथ उनकी शुरूआत हुई, उनके साथ आगे काम करने के लगातार मौके आये। जैसे नूतन के साथ बन्दिनी मेें, माला सिन्हा के साथ आँखें, अनपढ़ में, मीना कुमारी के साथ चन्दन का पालना, बहारों की मंजिल, मझली दीदी, फूल और पत्थर, मैं भी लडक़ी हूँ, काजल में, प्रिया राजवंश के साथ हकीकत में, शर्मिला टैगोर के साथ सत्यकाम, अनुपमा, चुपके चुपके, देवर, मेरे हमदम मेरे दोस्त मेें, नंदा के साथ आकाशदीप में, आशा पारेख के साथ आये दिन बहार के, आया सावन झूम के, मेरा गाँव मेरा देश में, राखी के साथ जीवनमृत्यु और बलैक मेल में, हेमा मालिनी के साथ नया जमाना, राजा जानी, प्रतिज्ञा, ड्रीम गर्ल, चाचा भतीजा, शोले, चरस, जुगनू, सीता और गीता, दोस्त, तुम हसीं मैं जवाँ, द बर्निंग ट्रेन, दिल्लगी, बगावत, रजिया सुल्तान में, सायरा बानो के साथ रेशम की डोरी, आयी मिलन की बेला, ज्वार भाटा में, वहीदा रहमान के साथ खामोशी, फागुन में, सुचित्रा सेन के साथ ममता में, रेखा के साथ झूठा सच, गजब, कहानी किस्मत की, कर्तव्य में उनकी जोडिय़ाँ बड़ी अनुकूल और परफेक्ट भी प्रतीत होती हैं। 

लगभग दो सौ से अधिक फिल्मों के माध्यम से धर्मेन्द्र ने न जाने कितने ही किरदारों को परदे पर साकार किया है। दर्शकों के बीच उनके सभी किरदार अपने-अपने ढंग से प्रतिष्ठिïत हैं। रामानंद सागर की फिल्म आँखें ने उनको इण्डियन जेम्स बॉण्ड के रूप में पहचान दी। रूमानी किरदार, बुरा आदमी, कानून का रक्षक, सच्चा और स्वाभिमानी चरित्र, बॉक्सर, फाइटर टाइप के चरित्र हों या इसके अलावा कुछ और, धर्मेन्द्र सभी मेें प्रभावशाली ही नजर आये। कॉमेडी में धर्मेन्द्र कुछ अलग ही रेंज के आदमी दिखायी पड़ते हैं जिसका उदाहरण तुम हसीं मैं जवाँ, प्रतिज्ञा, चाचा- भतीजा, गजब, शोले, चुपके-चुपके, नौकर बीवी का जैसी फिल्में हैं। 

धर्मेन्द्र भारतीय सिनेमा में एक यशस्वी उपस्थिति हैं। उनके साथ सदाबहार कलाकार की पहचान जुड़ी हुई है। धर्मेन्द्र दर्शकों में अपनी छबि को लेकर कहते हैं, कि फिल्मों में काम करते हुए दर्शकों में हमेशा मेरे लिए जो प्यार रहा है, उसको परिभाषित करना कठिन है। हर माँ ने मुझमें अपना बेटा देखा है, हर बहन ने मुझमें अपना भाई देखा है। और हर प्रेमिका ने........ इस पर वे शरमा जाते हैं। धर्मेन्द्र कहते हैं कि इस इण्डस्ट्री ने, इस हिन्दुस्तान ने मुझे जो दिया है, उसको बयाँ करना आसान नहीं है। ये ही वो दुनिया है जिसने धर्मेन्द्र को बनाया है। 


रविवार, 19 नवंबर 2017

IFFI 2017 STELLAR LINE UP IS ANNOUNCED


Lifetime Achievement award to celebrated Canadian director Atom Egoyan.


IFFI 2017 has already garnered a great amount of buzz owing to its stellar announcements that include many firsts. The Festival that is credited with a Grade “A” status by the International Federation of Producers’ Associations (FIAPF) today announced that the festival will be presenting 195 films from over 82 countries of which there will be 10 World Premieres, 10 Asian and International premieres and over 64 Indian premieres as part of the Official programme.

The Festival will open with the much talked about new feature, “Beyond The Clouds” from acclaimed filmmaker MajidMajidi and presented by Namah Pictures and Zee Studios and Close with the World premiere of the Indo Argentinian Co-production “Thinking of Film” directed by Pablo Cesar. It was also announced that while noted actor Shahrukh Khan will grace the opening ceremony of the festival as a special guest, the closing ceremony will be graced by noted actor Salman Khan, this in addition to a galaxy of noted industry professionals, international guests, dignitaries and film celebrities.

The press and delegate screenings that will kick off on the 21st of November will also see the opening of the Indian Panaroma section, with the section being inaugurated by renowned actress Sridevi. The same day will also see the IFFI 2017 Country Focus on Canadabeing celebrated with a grand red carpet opening and amidst the presence of noted Canadian actors and celebrities. The Country focus Canada that has been organized in association with the government of Canada with the collaboration of Telefilm Canada, curated by the Toronto International Film Festival,

The International Competition section of IFFI 2017, which carries a cumulative cash prize of over Rs. 1 Crore(Rupees Ten Million) will showcase 15 of the finest films of this year, competing for the Golden and Silver Peacock awards.  The International Competition jury will be headed by renowned filmmaker Muzaffar Ali, who is joined by his fellow jury members Festival director Maxine Williamson from Australia, Actor-Director Tzahi Grad from Isreal, Russian Cinematographer VladislavOpelyants, Director and Production Designer Roger Christian from the United Kingdom.

This edition of the Festival will also be presenting films from a record number of women filmmakers (Over 30) in addition to a carefully curated section of Restored classics from across the globe, which includes the recently completed restorations of Fritz Lang’s Metropolis and Tarkovsky’s Sacrifice among some other notable films.

Among many other firsts at the Festival, IFFI 2017 will present a specially curated section celebrating the most loved spy in films, James Bond. The section will showcase films featuring the various leading actors who have essayed the iconic character, through a package of 9 films. Additionally the Festival will present 4 films from young filmmakers of the Biennale College as a first of it’s kind collaboration with the the Venice International Film Festival. Speaking about the same, Venice International Film Festival Director, Alberto Barbera said “I am particularly grateful to IFFI for the collaboration that gives the Venice Film Festival the opportunity to present four films produced in the frame of the Biennale College Cinema, a projects we are greatly proud of for the results obtained in supporting young filmmakers from all over the world.  I am sure that the audience of the prestigious IFFI will appreciate the quality of these micro-budget films, and combined efforts of our two institutions to offer them a larger visibility. I wish that we will be able to continue our collaboration, which is based on shared feelings of love for good cinema and passion for young talented film directors”.

The 2017 edition of the Festival will also host a Mixed Reality Sidebar featuring Virtual Reality and Augmented Reality activities in addition to a series of Master Classes and Panel Discussions featuring the who’s who of the entertainment industry, including noted filmmakers Atom Egoyam, ShekharKapur, NiteshTiwari and Farah Khan, as well as Oscar winning sound designer Craig Mann.


IFFI 2017 will present the coveted Indian film personality of the year award on acclaimed actor Amitabh Bachcchan and the Lifetime Achievement award to celebrated Canadian director Atom Egoyan.

शनिवार, 18 नवंबर 2017

गहरी अन्तर्दृष्टि वाले सिने-आलोचक भी थे कुँवर नारायण


मूर्धन्य विद्वान कुँवर नारायण का निधन सृजन के बहुआयामीय व्यक्तित्व का हमारे बीच से चले जाना है। लगभग नब्बे वर्ष की उम्र में वे कुछ दिनों से निरन्तर गहरे अस्वस्थ थे और अपनी रुग्णता से बेहद व्यथित भी क्योंकि सर्जनात्मक सक्रियता के साथ-साथ लिखना-पढ़ना उनको बहुत ऊर्जा देता था और आँखों से देख न पाना उनको बहुत परेशान करने लगा था। साहित्य के अनेक आयामों में अपनी दक्षता के साथ मौलिक दृष्टि, स्वअनुशासन और गहरे भावबोध के साथ अपनी पहचान को प्रतिष्ठापित करते हुए जिस एक और माध्यम में वे प्रभावित करते थे वह था सिनेमा। कुँवर नारायण गहरी अन्तर्दृष्टि वाले सिनेमा आलोचक थे जिनका लिखा गया पढ़ना और बोला गया सुनना बहुत महत्वपूर्ण होता था। 

वे क्लैसिकी रुझान के कवि थे। उनकी कविता तर्क और भावना के विभेद को समाप्त करने वाले बिन्दु पर प्रस्फुरित होती थी। उन्होंने किसी दार्शनिक, सामाजिक, राजनैतिक विचारधारा से प्रतिबद्ध हुए बिना और अतिकारों से बचते हुए तार्किक, संयमित, सुचिन्तित, संयोजित, नैतिक मानवीय सम्वेदन से परिपूर्ण अपनी आत्म-निर्धारित बंदिशों के कठिन चक्रव्यूह में भी अपने समय की ईमानदार कविता लिखी। मूलतः मनुष्य की चिन्ताओं से जुड़ी उनकी कविता समकालीन जीवन के जटिल अन्तर्विरोध, विडम्बनाओं और संत्रास को उसकी समग्रता और पूरी जटिलता में अभिव्यक्त करने वाली थी। प्रत्येक कविता संग्रह में उनका शिल्पगत बरताव, भाषाई लहजा और कलात्मक तेवर बदलते गये हैं। उनकी कविता सभ्यताओं की अमानवीय फिसलनों के विरुद्ध हमेशा एक सार्थक हस्तक्षेप ही मानी गयी। समय की यांत्रिक और उपभोक्ताप्रधान दुनिया में सामान्य व्यक्ति, टकराहट का शहीदी अवसान और विवश समर्पण के क्रमिक आत्मघात से बचकर एक ईमानदार मनुष्य की तरह जी सके, यही चिन्ता उनकी कविता का केन्द्रीय विचार रहा है। 

कुँवर नारायण का सिने-लेखन गहरे शोध, भाषा परिमार्जन और बीसवीं सदी के इस सबसे चमत्कारी चाक्षुष माध्यम को देखने की एक दृष्टि प्रदान करने वाला था। वे महान फिल्मकार सत्यजित रे के बारे में कहते थे कि उनकी फिल्में जीवन की गति को कला की लय में बांधने की अद्भुत क्षमता रखती हैं। मुख्यतः पेचीदगी और जटिलता के वे कलाकार नहीं हैं। सरलता और क्लैसिकल अनुशासन उनकी कला की बुनियादी भाषा है जिसके द्वारा वे मानव मन की जटिल से जटिल गुत्थियों को चित्रित और उद्घाटित करते हैं। वे कहते थे कि राय की फिल्में इसलिए महान नहीं हैं कि वे साहित्य की स्पर्धा में अपनी एक अलग दुनिया रचती हों, वे विशिष्ट हैं क्योंकि वे उच्च कोटि के साहित्य के स्तर पर हमारे मन और चिन्तन को आन्दोलित करती हैं।

सिनेमा को देखने और सिनेमा पर बात करने के लिए कुँवर नारायण ने बौद्धिक धरातल पर बड़ी सम्भावनाओं को प्रकाशित करने का काम किया था। वे भारत ही नहीं बल्कि विश्व के अनेक देशों के श्रेष्ठ सिनेमा को देखने, उस पर बात करने और विशेष रूप से हिन्दी में विश्व सिनेमा के गुणग्राहकों और जिज्ञासुओं के लिए एक जीनियस सेतु की तरह थे। मृणाल सेन, मीरा नायर, सत्यजित रे, आन्द्रेई तारकोवस्की, पोवाक्कात्सी आदि शीर्षस्थ फिल्मकारों के सिनेमा को उन्होंने अपनी भाषा और दृष्टि के साथ रेखांकित करने का जो काम किया, वह उनकी मूलभूत सर्जनात्मक साधना से इतर एक श्रेष्ठ आयामीय विलक्षणता की तरह है। उन्हें यदि मृणाल सेन की बहुचर्चित फिल्म खण्डहर ने आकृष्ट नहीं किया तो उसके लिए भी उन्होंने लिखा कि यह फिल्म जिन ऊँचाइयों की ओर संकेत करती है, उन ऊँचाइयों तक पहुँच नहीं पाती। बीच से ही लौट आती है क्योंकि मृणाल सेन की बुनियादी संवेदनाएँ जितनी भाव प्रबल हैं उतनी तर्क प्रबल नहीं, इस फर्क को उनकी ऐसी फिल्मों में भी देखा जा सकता है जिनका मूल विषय भावनात्मक न होकर वैचारिक है। कुँवर जी ने एक जगह पर लिखा था कि खण्डहर विफल फिल्म नहीं है लेकिन मेरी दृष्टि में इतनी सफल भी नहीं है कि मैं उसे निधड़क मृणाल सेन की उत्कृष्ट फिल्मों में रख सकूँ। 

वे एक ऐसे सिने आलोचक थे जो श्रेष्ठ फिल्मकारों से उनके स्तर की अपेक्षाओं को रेखांकित करते थे। महान फिल्मकारों की किसी-किसी फिल्म का कमतर प्रदर्शन उनको निराश करता था तो वे उस बात को बड़े साहस के साथ, अपनी क्षमताभर तार्किकता के साथ व्यक्त किया करते थे। उनका इतन स्पष्ट और भाषा तथा लेखनी में साफ-गो होना बहुत महत्व का माना जाता था। यदि उनको मीरा नायर की फिल्म सलाम बाॅम्बे बहुत ज्यादा प्रभावित करती थी तो वे उस पर लिखते हुए उस पर अपना शीर्षक लिखते थे - एक सार्थक कोशिश से कुछ ज्यादा। वे इस फिल्म को सराहते हुए कहते थे कि सलाम बाॅम्बे देखना एक फर्क तरह के अनुभव से गुजरने की तरह है। पाश्चात्य प्रभाव यदि इस फिल्म में दिखता भी है तो वह उत्कृष्ट तकनीक के रूप में रचनात्क ढंग से आया है। भारतीय समस्याओं को भारतीय दृष्टि से देखने की यह ईमानदार कोशिश है। उन्होंने लिखा था कि घोर यथार्थवादी फिल्म होते हुए भी सलाम बाॅम्बे हमारे मन को एक कविता की तरह छूती है क्योंकि एक कटु यथार्थ की तीव्रता को बरकरार रखते हुए भी वह व्यक्ति की कोमल और उदात्त दोनों भावनाओं को सुरक्षित रखती है। सिनेमा पर विश्लेषणात्मक और निबन्धात्मक लेखन से बहुत गहरे अपनी जगह बनाने वाले कुँवर जी बाद में अनेक सिने विश्लेषकों, आलोचकों के मार्गदर्शक हुए। 

एक पूरी पीढ़ी विष्णु खरे, विनोद भारद्वाज, प्रयाग शुक्ल ने जनमानस में सिनेमा जैसे साधारण मनोरंजन को गम्भीर परिभाषाओं और व्याकरणों से बांधा, सिनेमा बनाने वालों की जिम्मेदारी, इस माध्यम के प्रति प्रतिबद्धता और एक सुथरी परिमार्जनपूर्ण भाषा को व्यवहार में लाने का काम किया। ऐसे में कुँवर नारायण के योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। उनका निधन सिनेमा-संज्ञान के बौद्धिक और भाषायी कैनवास में एक तकलीफदेह रिक्तता है।



रविवार, 12 नवंबर 2017

भविष्य का रंगमंच, अभिनेताकेन्द्रित और वैश्विक सरोकारों वाला

रामगोपाल बजाज की दृष्टि में

भारतीय रंगमंच के गहरे अनुभवी, गुणी और सुप्रतिष्ठित कलाकार, निर्देशक रामगोपाल बजाज को हाल ही में उज्जैन में मध्यप्रदेश शासन का रंगमंच के क्षेत्र के प्रतिष्ठित राष्ट्रीय कालिदास सम्मान से विभूषित किया गया है। उनकी रंगनिष्ठा और सर्जना की सुदूर और नैरन्तर्यभरी यात्रा आधी सदी के विस्तीर्ण फलक पर अनेक श्रेष्ठ प्रतिमानों के कारण उल्लेखनीय रही है।

रामगोपाल बजाज, देश के एकमात्र सबसे बड़े रंग-प्रशिक्षण एवं परिष्कार संस्थान राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के 1965 बैच के स्नातक रहे हैं। आगे चलकर वे इसी संस्थान के छः साल निदेशक भी रहे। निदेशक के पद पर रहते हुए उन्होंने बच्चों के लिए नाट्य उत्सव जश्न ए बचपन और परिपक्व रंगकर्म के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर नाट्य समारोह भारत रंग महोत्सव की परिकल्पना की और स्थापित किया। दोनों ही समारोह इस संस्थान की पहचान को बड़ी व्यापकता प्रदान करने में सफल रहे हैं। 

भारतीय रंगजगत मे अपनी पाँच दशक की निरन्तर सक्रियता और उत्कृष्ट प्रतिमानों से महत्वपूर्ण स्थान और आदर प्राप्त करने वाले रंगकर्मी रामगोपाल बजाज का जन्म 5 मार्च 1940 को दरभंगा, बिहार में हुआ था। उन्होंने बिहार विश्वविद्यालय से स्नातक उपाधि प्राप्त की। रंगमंच के प्रति उनका रुझान छोटी उम्र से ही रहा। युवावस्था में उन्होंने अपने रंगकर्मी मित्रों स्वर्गीय ओम शिवपुरी, स्वर्गीय सुधा शिवपुरी, स्वर्गीय ब.व. कारन्त, स्वर्गीय बृजमोहन शाह एवं मोहन महर्षि के साथ मिलकर दिशान्तर नामक नाट्य संस्था की स्थापना की और अनेक उत्कृष्ट नाट्य कृतियों के मंचन की शुरूआत की। उस समय उन्होंने जो नाटक मंचित किए उनमें सुनो जनमेजय, हयवदन, बेगम का तकिया, घासीराम कोतवाल, अंधा युग, तुगलक एवं किंग लियर आदि शामिल हैं। एक सफल एवं गुणी निर्देशक के रूप में इसी निरन्तरता और सक्रियता के बीच अजातघर, अषाढ़ का एक दिन, सूर्य की अन्तिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक, कैद ए हयात, स्कन्दगुप्त, मुक्तधारा (पंजाबी भाषा में) सी गल, भूख आग है, तलघर, जल डमरू बाजे आदि नाटकों ने उनकी प्रतिष्ठा को और समृद्ध करने का काम किया। 

आरम्भ में नई दिल्ली आकर रामगोपाल बजाज ने अनेक संस्थानों में नाटक प्रभाग के प्रमुख रहते हुए महती कार्य किया इनमें 1969 से 73 तक माॅडर्न स्कूल दिल्ली में नाट्यकला का अध्यापन, पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़ में के भारतीय थिएटर विभाग के रीडर पद पर कार्य एवं 1979 से 80 तक पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला के नाट्य कला विभाग के प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष के रूप में सक्रियता शामिल हैं। इसके अलावा वर्ष 2002 में एक वर्ष डाॅ. राधाकृष्णन पीठ, हैदराबाद विश्वविद्यालय के प्रमुख रूप में भी उन्होंने काम किया। वर्ष 2008 में उन्होंने शब्दाकार थिएटर समूह की स्थापना की और लैला मजनूं नाटक को भव्यतापूर्वक मंचित किया। इस प्रस्तुति को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री, सर्वश्रेष्ठ पटकथा व ध्वनि आकल्पन के लिए तीन पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। समकालीन भारतीय रंगचेतना के विशाल परिदृश्य में सघन, कल्पनाशील और पारखी रंग-दृष्टि के पर्याय श्री रामगोपाल बजाज एक निर्देशक के रूप में जितने बारीक, सूक्ष्म से सूक्ष्म संवेदनाओं और आवेगों के पारखी रहे हैं, एक कलाकार के रूप में उतने ही गहन, भीतरी त्वरा के विलक्षण एवं असाधारण प्रदर्शन में उनको महारथ हासिल है। 

एक गहरे, दृष्टि सम्मत तथा तार्किक गुणों से समृद्ध बज्जू भाई (आत्मीयता और अपनेपन में उनको इसी नाम से सम्बोधित किया जाता है) हमारे समय के एक अत्यन्त विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण कलाकार एवं रंगकर्मी हैं जिनकी प्रतिभा की जरूरत उतनी ही भारतीय सिनेमा को भी है, तभी उनको अनेक फिल्मों में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निरन्तर हासिल हुआ करती हैं। वे इन दिनों सिनेमा और धारावाहिकों में लगातार काम कर रहे हैं। उनकी कुछ महत्वपूर्ण फिल्मों में टेली फिल्म जेवर का डिब्बा, तमस, बसन्ती, फीचर फिल्मों में मैं आजाद हूँ, उत्सव, गोधूलि, मासूम, मिर्च मसाला, हिप हिप हुर्रे, चांदनी, परजानिया, द मैथ, मैंगो ड्रीम्स, जाॅली एल.एल.बी. टू शामिल हैं।

बजाज सजग रंगचेता हैं, उनका कहना है कि सिनेमा के व्यापक प्रसार के कारण अब रंगमंच में यथार्थवाद पर फिर से विचार करने की जरूरत है। हमें सोचना होगा कि रंगमंच में विचार के अलावा मौलिक क्या है? अब मंच पर दृश्यबंध की चकाचैंध से हमारा काम नहीं चल सकता क्योंकि यह सब सिनेमा हमसे अधिक कर रहा है। रामगोपाल बजाज भविष्य के रंगकर्म की कल्पना करते हुए कहते हैं कि भावी रंगमंच स्थानीय भाषा में होगा, अभिनेताकेन्द्रित होगा और उसके सरोकार वैश्विक होंगे। यह रंगमंच अनुभूति-विचारप्रधान होगा। रंगमंच की चकाचैंधभरी दृश्यात्मकता को भाषा के स्तर पर तोड़ना होगा। फार्म के स्तर पर उसे काव्यात्मक बनाना होगा। इसके बाद ही रंगमंच अधिक व्यापक और वैश्विक होगा। जिस प्रकार कविता में बहुस्तरीय अभिव्यक्तियाँ सम्भव हैं, एक कला के रूप में हमारा भविष्य का रंगमंच, कविता का रंगमंच होगा। 

बजाज का कहना है कि दुनिया में संचार का स्वरूप बदल जाने से कोई भी कला अब केवल स्थानीय नहीं रही। अब तक हम जिसे और जिन अर्थों में हिन्दी रंगमंच कहते हैं वह दरअसल भारतीय रंगमंच है जिसकी भाषा हिन्दी है। यह भाषा कन्नड़, मलयालम या पंजाबी भी हो सकती है। मेरा मानना है कि आज जो नाटक लिखे जा रहे हैं, वे वैश्विक हैं। 

रामगोपाल बजाज ने नाटकों की समीक्षाएँ और आलोचना भी अपनी दृष्टि और तटस्थ भूमिका के साथ वर्ष 1969 से 72 तक दिनमान पत्रिका में लिखी हैं। उन्होंने बादल सरकार, बर्तोल्त ब्रेख्त और गिरीश कर्नाड आदि के लगभग पन्द्रह नाटकों को हिन्दी में अनूदित भी किया है। समग्रता में चालीस से अधिक नाटकों में अभिनय, इतने ही नाटकों का निर्देशन उनके प्रतिमान हैं। सुदीर्घ एवं निरन्तर सृजनयात्रा में आपको अब तक अनेक मान-सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। इनमें वर्ष 2003 में पद्मश्री, साहित्य कला परिषद का परिषद सम्मान, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, नांदीकर सम्मान एवं राधारमण सम्मान शामिल हैं। वर्ष 2015 में आपको बिहार राज्य सरकार का बिहार कला पुरस्कार लाइफ टाइम अचीवेंट के लिए प्रदान किया गया है। 


गुरुवार, 9 नवंबर 2017

समय और स्‍वप्‍न से जूझते चरित्र

सीक्रेट सुपर स्‍टार की इन्सिया या तारे जमी पर का ईशान



कुछ समय की फिल्मों में से मन को गहरे छू गयी फिल्म सीक्रेट सुपर स्टार पर यह मेरा तीसरा नोट है। मित्रों का आभारी हूँ कि उनको, इस फिल्म को रेखांकित या विश्लेषित करना मेरा, अच्छा लगा। इतने समर्थन किसी अखबार में न छपने के बाद मिले हैं जो बहुत प्रोत्साहित करते हैं। आपका लिखा यदि दो हजार मित्रों तक पढ़ लिया जाये, तो इससे अधिक सार्थकता और क्या हो सकती है.........

सीक्रेट सुपर स्टार से रह-रहकर जुड़ना होता है। शायद एकाध बार और देखने जाऊँ। दो कूड़ा फिल्में देखने से ज्यादा बेहतर एक संवेदनशील फिल्म दो बार देख लो, बहरहाल। इस फिल्म में इन्सिया का चरित्र अत्यन्त गहरा है। वह अपनी छोटी उम्र में भी उस उम्र के किसी और बच्चे से ज्यादा गम्भीर, समझदार, सपनों के अर्थ को समझने वाली और सपनों के आगे आने वाली विडम्बना से जूझने वाली बहादुर बच्ची है। मुझे तारे जमी पर का ईशान अवस्थी भी तमाम कमजोरियों के बावजूद बहुत बहादुर लगता है जब वह एक दिन स्कूल से निकलकर दिन भर शहर में घूमता है। मासूम और कोमल मन कई बार अपनी ही क्षमताओं का अतिरेक करता है तो उसे जोखिम का अन्दाजा नहीं होता।

इन्सिया की शिक्षिका को उसके सपनों से कोई सरोकार नहीं है। वो उसी ढर्रे या भेड़चाल का एक औजार है जो हमारी शुरू से लदी-फँदी शिक्षा प्रणाली का पोषक है भले ही वो इस समय पूरी तरह कुपोषण का शिकार हो गयी हो। स्कूल में पढ़ाने से अधिक घर में ट्यूशन एक अलग तरह का रोमांस है अपने प्रोफेशन के साथ। ऐसी ही शिक्षिका इन्सिया से रिपोर्ट कार्ड में उसके पिता के हस्ताक्षर लेकर आने का हठ करती है। खराब रिजल्ट पर पिता का हस्ताक्षर इन्सिया को परेशान करता है, उसका परिणाम और ज्यादा जब उसके पिता निर्मम होकर बरताव करते हैं।

यहाँ पर अपने बचपन का अनुभव लिखने से ठहर नहीं पा रहा हूँ। स्कूल में छठवीं, सातवीं के छमाही इम्तिहानों में हिन्दी छोड़ सभी विषयों में फेल हो जाने का मेरा इतिहास रहा है। उस रिजल्ट पर पिता के साइन हमारे लिए भी अनिवार्य था लेकिन अपने पिता पर गर्व करता हूँ कि मामूली विचलन के बाद वे बिना किसी कठोरता के अपने हस्ताक्षर कार्ड पर कर दिया करते थे। यह मेरे लिए ही ग्लानि का विषय था कि मैं उनकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाता था। आज भी उनके हृदय को नापना मुझ जैसों के बस का नहीं, मुझे नहीं लगता कि इतना बड़ा इंची टेप कोई बना होगा।

सीक्रेट सुपर स्टार की इन्सिया का स्कूल से कूद-फाँदकर मुम्बई तक चले जाना, एक सपनीले पंछी की ऊँची उड़ान है। उड़ता हुआ हवाई जहाज देखकर हमें अपनी बगल से पंख खुलने का एहसास कराता है। यहाँ भी ऐसा ही है। आन्तरिक दृढ़ता और भीतर की सजगता, छोटे बच्चों को भी मजबूत बनाती है। यह अलग बात है कि घर से बाहर निकलकर इन्सिया का मार्ग उतना कंटकभरा, भयावह या निर्मम नहीं है लेकिन यदि ऐसा होता तो भी वह इन परिस्थितियों से भी पार पा सकती थी।

इन्सिया जैसी बेटियों के लिए यह फिल्म है, सीक्रेट सुपर स्टार। यह हमारे समय की फिल्म है। असुरों और पिशाचों की उम्र बहुत थोड़ी होती है। शक्ति ही उनके मर्दन का कारण बनती हैं। कठिन समय को सूझ और हौसले से ही जीता जा सकता है। यह फिल्म ऐसे बहुत से समानान्तर, सकारात्मक सन्देश देती है..........


सोमवार, 6 नवंबर 2017

सीक्रेट सुपर स्‍टार का शक्ति कुमार

आमिर खान होने का अर्थ



सीक्रेट सुपर स्टार पर लिखते हुए आमिर खान पर दो-तीन वाक्य ही लिख पाया था। दरअसल उन पर अलग से लिखने का मन था क्योंकि उनका चरित्र परदे पर और फिल्म के अविभावक के रूप में जिस तरह का सिद्ध है, वह और अधिक की अपेक्षा करता है। किसी भी नायक के लिए उस फिल्म में अपने होने या न होने अथवा कितना होने की स्वतंत्रता बहुत आसान होती है यदि वह उस फिल्म का निर्माता या नियन्ता भी हो। वह यदि उस फिल्म का दृश्य और चरित्र में हिस्सा बन रहा है तो अपनी जगह को पहले रेखांकित कर लेना चाहता है। आमिर इससे उलट हैं। वे अपनी फिल्मों के ऐसे अविभावक रहे हैं जो या तो फिल्म में है ही नहीं और यदि आवश्यकतानुसार है भी तो अपने होने की मात्रा स्वयं तय करके, अपना नियंत्रण भी स्वयं करते हुए। यह बात भी उनको औरों से विशिष्ट बनाती है। 

मैं यह बात इसलिए भी करना चाहता हूँ कि भोपाल के निकट ही एक गाँव में उनकी फिल्म पीपली लाइव बनी थी। उन्होंने उस फिल्म की निर्देशक को पूरी स्वतंत्रता प्रदान की थी। नाॅन स्टाॅप शूटिंग शेड्यूल में बिना कहे, बिना प्रचारे एक रात वे भोपाल एयरपोर्ट पर मुम्बई से आकर उतरे। उनके हाथ में एक किताब भर थी। एयरपोर्ट पर गाड़ी खड़ी थी जो उनको सीधे लोकेशन पर ले गयी। थोड़ी देर वे यूनिट के साथ रहे, प्रगति की जानकारी ली, कलाकारों से बात की, फिर अपने एक-दो साथियों के साथ उस गाँव में घूमने निकल गये। वे रात को कई घरों में गये, बैठे, बात की, बुजुर्गों से, बच्चों से, उनके माता-पिता से, उनका काम धंधा जाना, मुश्किलें कठिनाई जानीं। इस बीच वे अपने साथियों से धीमे धीमे कुछ कहते भी रहे। 

आधी रात वे लोकेशन पर फिर लौट आये और वेनिटी वेन में बैठकर किताब पढ़ने लगे। भोर हुई तो गाड़ी उनको लोकेशन से भोपाल एयरपोर्ट ले आयी और वे मुम्बई चले गये। दिलचस्प यह कि रात जिन घरों में गये, जो कुछ जरूरत की चीज उनको नहीं दिखी, वे चीजें अनेक घरों में उनके साथी अगले दिन रख आये। यह उसी रात का निर्देश था, उनका अपने साथियों को। इसकी कहीं कोई चर्चा नहीं है, न दिखावा न ही पाखण्ड।

आमिर खान ऐसे हैं। वे तारे जमीं पर में भी इण्टरवल में आने वाले निकुम्भ सर हैं। यह दर्शील की फिल्म थी, आमिर ने अपने को लो-प्रोफाइल रखते हुए दर्शील को भरपूर फैलाव दिया। सीक्रेट सुपर स्टार, तारे जमीं पर के ठीक बाद की फिल्म है भले वो अब बनी है मगर दोनों किसी अनमोल किताब के पहले और आखिरी पृष्ठ के आवरण हैं, मजबूत दफ्ती वाले। दर्शकों को, जो सिनेमा को थोड़ा सा भी व्यसन से मुक्त मानते हों, दोनों फिल्में एक के बाद एक देखनी चाहिए, पुनरावलोकन की तरह। सीक्रेट सुपर स्टार भी अविभावकत्व में समाहित मसीहाई कुटैव पर छींटे मारने वाली फिल्म है। बात शुरू इस फिल्म में आमिर खान के किरदार को लेकर हुई थी, शक्ति कुमार..........

ये शक्ति कुमार भी अपने हुनर और स्वभाव का वशीभूत है। उसका अपना एक्सीलेंस अहँकार के सिर चढ़कर बैठता है। उसका पारिवारिक जीवन ठीक नहीं है, दूसरा तलाक भी हो गया, प्रेस से बात करते हुए लगभग फुँफकारता सा शक्ति कुमार बात-बात पर सर्प की तरह साँस छोड़ता है, आप देखिए किस तरह किरदार गढ़ा गया है! आमिर को दृश्य में इस तरह उपस्थित होते हुए देखना अचरज से भरा है। इन्सिया की मदद करने के लिए अपनी तलाकशुदा बीवी की वकील से बात करने का ढंग, इन्सिया की वजह से नरम पड़ना, समझौता करना, वकील के आॅफिस जाना, आदत से मजबूर रसिक मिजाज शक्ति का टेलीफोन आॅपरेटर से ही फ्लर्ट करना, पानी को पूछे न जाने लायक अपमानजनक स्थिति में भी वह इन्सिया के साथ है। 

वह दृश्य बड़े अच्छे हैं जिसमें इन्सिया के साथ नींबू पानी पीते हुए वो बात कर रहा है या कि एयरपोर्ट से भीतर जाती इन्सिया का फिर दौड़कर वापस आना और शक्ति से लिपट जाना। एक बच्ची, सामाजिक रूप से सिद्ध असभ्य, दुष्ट और घमण्डी आदमी में अपने पिता से बेहतर मनुष्य देख पा रही है, यह सब चमत्कार आमिर खान आसानी से करते हैं। शक्ति कुमार जब अपने स्‍वभाव, अपनी पसन्‍द, नफरत के बारे में इन्सिया से कार में बात करता है तब यह नहीं लगता कि एक उम्रदराज और अनुभवी आदमी उस मासूम बच्‍ची से अपने गुरूर का बखान कर रहा है बल्कि यह लगता है कि संवेदना के धरातल पर दो समान समझ वाले आपस में बात कर रहे हैं, पिता और बेटी की उम्र के। परदे पर उनका ऐंठा हुआ चेहरा, अजीब से बाल, पहनावा, मेकअप, आभूषण और सनक देखकर बहुत हँसी आती है। पिछली फिल्म तलाश और दंगल का यह महानायक क्या बनकर आ गया है...........आश्चर्य है!

सीक्रेट सुपरस्टार तो वे भी कहलाये, आमिर खान क्योंकि फिल्म के मूल में होकर भी वे दृश्य में, केन्द्र में नहीं होते। दृश्य और केन्द्र में होती हैं परिस्थितियाँ अपने यथार्थ के साथ जिससे जूझकर, लड़कर, तमाम जोखिम उठाकर ही इन्सिया सीक्रेट सुपर स्टार बन पाती है............


शनिवार, 4 नवंबर 2017

अपनी आँच, अपने ताप में दिखायी देती ऊष्‍मा

Film Review/ Secret Superstar


सीक्रेट सुपर स्टार...............



कई बार लगता है कि हमारे जीवन में ऊष्मा कितनी जरूरी है, ऊष्मा न होगी तो संवेदनहीन जड़ता की बर्फ कैसे पिघलेगी? गनीमत है कि ऊष्मा कभी-कभी अपनी आँच, अपने ताप में दिखायी देती है, महसूस होती है। जब जब ऐसा होता है, बर्फ पिघलती प्रतीत होती है.............

अच्छा ही है, बहुत जल्दी में नहीं था, रहता भी नहीं, सीक्रेट सुपर स्टार देखने का समय और अवसर जुटा पाया तो अपनी धारणा का विश्वास जगा और उसे फिर से दोहराकर लिखने की कोशिश की। मेरे सामने एक फिल्म जैसे किसी उपेक्षित संसार का हिस्सा घटित हो रहा है। वह हिस्सा जो आमतौर पर हमारी भटकी हुई आँखों को दीखता ही नहीं है। हमारा दिन, हमारा जीवन और बहुत सारा समय जिस तरह से अपनी चिन्ताओं में, अपने द्वन्द्व में, अपने स्वार्थ में घटित होता है, कैसे और कब इन्सिया जैसे बच्चों, नजमा जैसी स्त्रियों को अपनी संवेदनाओं के फ्रेम में हम देख पायेंगे, पता नहीं.......

सीक्रेट सुपर स्टार, एक ऐसी बच्ची की फिल्म है जो सहमी हुई नहीं है लेकिन मर्यादा में है, उसके स्वप्न बहुत मौलिक और ताजा हैं मगर भय और संकीर्णताओं के कांटेदार तार, नोक उठाये तलुओं को छेद देना चाहते हैं। छोटी सी बच्ची को माँ के साथ हुए सलूक का पता है, उसकी रक्ताभ और सूजी आँख के पीछे की हिंसा का पता है। पिता अपने हठ और अपने दुराग्रहों को दोहराना नहीं चाहता, उसके बदले में हिंसा उसके लिए ज्यादा आसान है। इन्सिया के सपनों का जहाज सचमुच का जहाज नहीं बल्कि कागज का बना वो हल्का सा, बड़ी हद तक चतुर सा वो जहाज है जो बड़ौदा के एक साधारण मध्यमवर्गीय घर से हर विरोधी हवा को धता बताता हुआ, काँख के नीचे से कब उड़कर मुम्बई पहुँच जाता है, पता ही नहीं चलता।

इन्सिया की कहानी एक रेल में छात्राओं के उस समूह से फोकस होकर शुरू होती है जो पिकनिक से लौट रहे हैं। उसी की उम्र का लड़का चिन्तन, इन्सिया के सपनों को कोमल पंखे से झलता है। इस लड़के तीर्थ शर्मा ने पूरी फिल्म में बड़े अनुशासन के साथ काम किया है। जायरा वसीम की यह फिल्म है, वह यदि इन्सिया को उसी आत्मा में इस तरह उतर कर न जीती तो बात न बनती। दंगल से उसे आमिर खान के साथ काम करने का मतलब पता है लिहाजा यह दूसरा तजुर्बा उनके लिए लैण्डमार्क है। मेहर विज, माँ की भूमिका में अपने किरदार से समरस हैं। मैं गुड्डू कबीर साजिद शेख की प्रतिभा का कायल हुआ हूँ। क्या खूब बच्चा है, बहन के साथ, माँ के साथ, भयभीत, माँ को मार खाता देखकर, बहन का लेपटाॅप सुधारता हुआ ओह। पीपली लाइव की बड़ी आपा यहाँ भी हैं। मोना अम्बेगाँवकर एक दृश्य में शक्ति कुमार बने आमिर खान से खूब मोर्चा लेती हैं। मेरे मित्र राज अर्जुन, इन्सिया के पिता फारुख मलिक, सीमित दायरे में सोचने वाले, अपनी ही कुण्ठाओं और संकीर्णताओं में फँसे आततायी और हिंसक पिता के रूप में दर्शकों से जितनी नफरत पाते हैं, उनके लिए वह उतनी ही तारीफ है। अपने किरदार को प्रत्येक दृश्य में वे बिना जरा सा भी विचलित हुए जीते हैं।

आमिर खान के लिए क्या लिखूँ। मुझे लगता है कि उनकी प्रतिबद्धता, काम के प्रति उनकी असाधारण गम्भीरता और एक उत्कृष्ट से अगले उत्कृष्ट तक लांघ-फलांग उनके किसी समकालीन के बस की नहीं है और शक्ति कुमार के रूप में एक अलग सा मूडी, गुणी, अख्खड़ और वक्त पड़ने पर उस संवेदना से चिन्हित होना जिसकी इन्सिया जैसे बच्चों को जरूरत है, यह गहराई उनके जैसे कलाकार ही अपने भीतर से निकालकर प्रकट कर सकते हैं। शक्ति कुमार के किरदार में वे एक फड़कते हुए, चुहलबाज, दिलफेंक और फ्लर्टी आदमी के रूप में जो प्रभाव देते हैं, इन्सिया के साथ दृश्यों में उनकी अलग ही पहचान होती है। वह दृश्य दिलचस्प है जब वे अपनी पत्नी की वकील से इन्सिया के लिए मदद मांगते हैं जिससे वे बेहद चिढ़ते हैं क्योंकि उसी वकील शीना सबावाला ने उनका तलाक करवाया है..........


अद्वैत चन्दन, निर्देशक वाकई यह आपकी फिल्म है। आप फिल्म के एक-एक फ्रेम में अपनी दृष्टि और क्षमताओं के साथ उपस्थित हैं। इतनी बड़ी समीक्षा पढ़ने की फुरसत किसी को नहीं वरना मेरा मन एक-एक डीटेल्स में जाने को करता है, कैसे आप एक निम्न मध्यमवर्गीय घर के कमरे को बनाते हैं, कैसे उसका एक-एक सामान, छू जाने वाली सेट डिजाइनिंग, सिलाई मशीन, घर के लोगों का पहनावा, भोजन, थाली, सिंकती हुई रोटियाँ, संवेदनाओं के दृश्य, नन्हें भाई का बहन के लिए प्रेम, परिवार में बेटे को अधिक महत्व दिये जाने वाले दृश्य और संवाद ओह विचलित करके रख देते हैं आप।

सीक्रेट सुपर स्टार को देखते हुए मेरी तरह और भी कई दर्शक अपने आँसू और नाक पोंछते प्रतीत होते हैं। कोई सिनेमा यदि इस तीव्रता में, इस कोमलता में, इस संवेदना में हृदय को भेद दे तो वह सच्चा सिनेमा कहलाता है, अन्यथा फूहड़ता, घटियापन और भदेस पर दाँत निकालकर ताली बजाने वाले सड़कछाप से लेकर एलीट दर्शकों तक इतने लोग हमारे आसपास हैं कि ऐसी फिल्में बाॅक्स आॅफिस पर अपनी झोली, बिना डकार लिए भरती ही जा रही हैं............


मंगलवार, 24 अक्तूबर 2017

गिरिजा देवी : मेरा तो संगीत ही पूजा है

(बनारस घराने की अप्रतिम गायिका से यह बातचीत 2007 में भोपाल में की गयी थी)


भारतीय शास्त्रीय संगीत परम्परा की यशस्वी और मूर्धन्य विभूति सुश्री गिरिजा देवी से बात करना जैसे सुरीले अमृत तत्वों को अपनी शिराओं में निरन्तर प्रवाहित होना, अनुभव करना है। दो वर्ष बाद गिरिजा देवी अस्सी बरस की हो जाएँगी लेकिन बचपन में पिता बाबू रामदास राय ने अपनी बिटिया को संगीत के साथ-साथ बहादुरी की और भी जिन साहसिक कलाओं में दक्ष किया था, उसी का परिणाम है कि वे चेहरे से हर वक्त तरोता$जा और ऊर्जा से भरपूर दिखायी पड़ती हैं। पाँच वर्ष की उम्र से उन्होंने बनारस घराने के निष्णात कलाकारों स्वर्गीय पण्डित सरजू प्रसाद मिश्र और पण्डित श्रीचंद मिश्र से संगीत सीखना शुरू किया। शास्त्रीय और उप शास्त्रीय संगीत में निष्णात गिरिजा देवी की गायकी में सेनिया और बनारस घराने की अदायगी का विशिष्ट माधुर्य, अपनी पाम्परिक विशेषताओं के साथ विद्यमान है। ध्रुपद, ख्य़ाल, टप्पा, तराना, सदरा, ठुमरी और पारम्परिक लोक संगीत में होरी, चैती, कजरी, झूला, दादरा और भजन के अनूठे प्रदर्शनों के साथ ही उन्होंने ठुमरी के साहित्य का गहन अध्ययन और अनुसंधान भी किया है। भारतीय शास्त्रीय संगीत के समकालीन परिदृश्य में वे एकमात्र ऐसी वरिष्ठï गायिका हैं जिन्हें पूरब अंग की गायकी के लिए विश्वव्यापी प्रतिष्ठïा प्राप्त है। गिरिजा देवी ने पूरबी अंग की कलात्मक विरासत को अत्यन्त मोहक और सौष्ठïवपूर्ण ढंग से उद्घाटित करने का महती काम किया है। संगीत मेें उनकी सुदीर्घ साधना हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के मूल सौन्दर्य और सौन्दर्यमूलक ऐश्वर्य की पहचान को अधिक पारदर्शी भी बनाकर प्रकट करती है।

सुनील मिश्र ने गिरिजा देवी से उनके जीवन-सृजन का सर्वस्व मुग्ध भाव से सुना और जस का तस प्रस्तुत कर दिया। पूरब अंग की मिठास उनकी गायकी में ही नहीं उनकी इस पूरी बातचीत में भी गहरा सम्मोहन रचती है - 

बनारस, मेरा घर और घराना

मेरा जन्म वाराणसी में हुआ और मैं वहीं पर अपने पापा के साथ रहती थी। उन्हें संगीत का बड़ा शौक था और उनको सुनने से मुझे भी शौक हो गया मगर शौक ऐसा हो गया कि पापा ने फिर मेरी पाँच साल की उम्र में ही संगीत सिखाने के लिए गुरु जी को बुलाया और शुरूआत की। वो मेरे पिताजी के गुरु भी थे, उन्होंने भी गाना-वाना उनसे सीखा था लेकिन वो थे सारंगी के नवाज थे स्वर्गीय पण्डित सरजू प्रसाद मिश्र जी बनारस के। लेकिन मेरे पिताजी मुझे गाना सिखाना चाहते थे तो इस तरह फिर मेरा गाना शुरू हुआ, उनसे सीखना। फिर मैं चौदह साल की उम्र तक उन्हीं से गाना सीखती रही और उसके बाद उनकी डेथ हो गयी। अठारह साल की उम्र में फिर मेरे दूसरे गुरु जी हुए। उस बीच मेरी शादी भी हो गयी। उस समय, ज़माने मेें छोटेपन में शादी हो जाया करती थी, मेरी शादी सोलह साल में हो गयी थी। अठारह साल मेें बेबी हो जाने की वजह से बाद में फिर मैंने गाना शुरू किया और बहुत रियाज और बहुत अच्छी तरह से सब करना पड़ता है। 

उस समय ऐसा था कि लड़कियाँ गुरु जी के घर नहीं जाती थीं, गुरु जी ही घर आते थे। घर में शिक्षा-दीक्षा होती थी और मेरे दादा गुरु जी जो थे वो इतना मानते थे कि सुबह नौ, साढ़े नौ बजे आ जाते थे और शाम को चार बजे, साढ़े चार बजे जाते थे, गर्मी के दिन में और जाड़े के दिन में तो जल्दी चले जाते थे। तो वे खाना-वाना खा करके आराम करते थे, हम लोग उनकी तमाखू भरते थे, उनका पीठ दबाना, उनका सिर खुजलाना ये सब करते थे, बच्चे थे तब। तो उस समय गुरु की सेवा करना और गुरु का हमारे माँ-पिता कैसे सम्मान करते थे, तो ये देख-देखकर के बच्चों में एक ची$ज बन जाती है न, इसके बाद पढ़ाई मेरी स्कूल में शुरू किया था लेकिन तीसरे क्लास में जाते-जाते मैंने कहा, मैं नहीं पढूँगी क्योंकि इतना टीचर्स मेरे पिताजी ने रख दिया था, एक संस्कृत, हिन्दी पढ़ाते थे, उर्दू उस जमाने में पढ़ाते थे, एक इंगलिश पढ़ाने वाले आते थे और एक गाने के लिए। चार टीचरों का काम करने से घबड़ा जाते थे, बच्चे तो थे ही, तो इसलिए हमने कहा, हम पढ़ेंगे नहीं, गायेंगे। इस पर मेरी माँ बहुत नारा$ज हुई थीं कि गाना ही गाना सीखेगी, पता नहीं इसका गाना चलेगा कि नहीं चलेगा, पता नहीं क्या, आ आ करवाते रहते हैं दिन भर। तो माँ-पिताजी में कभी-कभी ये भी हो जाता था कि लडक़ी को खाना बनाना, घर गृहस्थी सम्हालना, ये सब भी बताना चाहिए, तो इस पर पिताजी ने कहा, नहीं, ये कुछ और ही लडक़ी हुई है हमको, इसलिए सुबह को जब हमें ले जाते थे टहलने के लिए पिताजी, तो चार बजे, साढ़े चार बजे उठकर पाँच बजे हम लोग जाते थे टहलने के लिए। उस $जमाने में पिताजी ने हमें फिर घोड़ा चलाना सिखा दिया, स्वीमिंग करना सिखा दिया, लाठी चलाना सिखा दिया, याने एक तरह से पूरी बहादुरी और पूरा संगीतमय जीवन उन्होंने कर दिया था। 

तो वो जो असर पड़ा था मेरे सिर पर, तो वो उतरने का नाम ही नहीं लिया। फिर उसके बाद शादी हो जाने के बाद बच्चे को सम्हालें, क्या करें, तो बेबी एक साल की हुई तब इसको माँ के पास छोड़ करके  मैं चली गयी सारनाथ। एक बगीचे में जहाँ कि मैं तीन बजे रात को उठ करके, नहा-धो करके सात बजे तक रिया$ज करती थी। फिर उसके बाद नाश्ता-वाश्ता बना करके, खाना-वाना बना करके, एक मेरे साथ नेपाली नौकर था, एक आया खाना बनाने वाली थी, हम तीन जने ही जाकर वहाँ रहते थे और बच्चे को रोज बुला के, देख-दाख करके छोड़ देते थे। इस तरह से हमारा जीवन चला। पति भी हमारे रात को वहाँ चले जाते थे और गुरु भी जाते थे। तो वो लोग एक क मरे मेें, मने, वरण्डा था, वहाँ सोते थे और कमरे में मैं रहती थी। उस समय बिजली भी नहीं थी और हम लोगों को लालटेन जला करके रहना पड़ता था, सारनाथ में। ये बात मैं बता रही हूँ आपको करीब, पैंसठ साल तो हो ही गया, हाँ तेरसठ-चौंसठ साल पहले की बात है। उस समय बनारस में बिजली आ गयी थी परन्तु सारनाथ तरफ नहीं थी। तो इस तरह से एक बरस वहाँ पर, जिसको कहिए कि हमने अपने को बन्द कर लिया था। न किसी से मिलना, न जुलना। खाली संगीत का अध्ययन। फिर गुरु जी हमारे बैठ के सिखा देते थे। फिर वो लोग रिक्शे में चले आते थे शहर फिर मैं दिन को तीन बजे उठकर रिया$ज करती थी। शाम को गुरु जी फिर आते थे, तब रात आठ बजे से लेकर दस बजे तक उनका रियाज, इस तरह से छ: - सात घण्टे का रियाज चलता था।

इलाहाबाद के रेडियो स्टेशन में पहला प्रोग्राम



फिर जब मैं घर आयी तो सारी गिरस्ती पड़ गयी मेरे ऊपर। मेरे भाई, बहनें, ये सब कोई और रिश्तेदार-नातेदार, शादी - बयाह सभी मेें हिस्सा लेना था लेकिन मैं संगीत के लिए अपना टाइम निकाल लेती थी। इतना सब करते-करते, फिर फॉट्टीनाइन में इलाहाबाद रेडियो स्टेशन बना तो उसमेें मैंने पहला प्रोग्राम दिया, तो उस $जमाने में ऐसा नहीं था, कि ए ग्रेड मिले, बी ग्रेड मिले, सी ग्रेड मिले। ग्रेडेशन का ऐसा कुछ था ही नहीं। सामने ही स्टेशन डायरेक्टर वगैरह बैठे थे, सुनकर ही वो लोग कर देते थे, तो फिर मुझको रैंक वैसा ही दिया जैसे बिस्मिल्लाह भाई, सिद्धेश्वरी देवी और रसूलन बाई का, हरिशंकर मिश्रा जी का, जो लोग गायक वगैरह थे, उन्हीं के ग्रेड में। क्योंकि पता इस तरह से लगा कि जो चेक उन्हें मिलता था, वो ही चेक हमें मिलता था। तो इस तरह पता लगा कि नबबे रुपया उनकी फीस थी तो नबबे रुपया मुझे भी मिल गयी। फस्र्ट क्लास उन्हें भी तीन मिला, हमें भी तीन मिला। तो एक बराबर, समझ में आया कि उन लोगों ने किया था। तो कोई बात नहीं थी, सब भगवान की, गुरु की कृपा थी, मिला, मिला। तो फॉट्टीनाइन से मैंने इलाहाबाद रेडियो स्टेशन से गाना शुरू किया।

फिफ्टीवन में मैंने पहला कान्फ्रेन्स आरा में किया। बिहार में आरा एक जगह है, पटना, आरा। तो आरा में जब मैंने वहाँ पर गाया तो बहुत बड़ी बात ये हुई कि एक तो खुले पण्डाल में हो रहा था प्रोग्राम और दूसरे पण्डित ओंकारनाथ जी आने वाले थे बनारस से, उस समय वहीं थे यूनिवर्सिटी में पण्डित ओंकारनाथ जी ठाकुर, तो वो आने वाले थे लेकिन उनकी गाड़ी बीच रास्ते में खराब हो गयी और सुबह उनका प्रोग्राम था ग्यारह बजे से। तो वो नहीं आये और उस जगह हमको बिठा दिया लोगों ने गाने के लिए। इतनी पबलिक आयी थी उनके नाम से कि कह नहीं सक ते, सिर दिख रहा था आदमी का, पता नहीं लग रहा था कितने भरे हुए लोग हैं। तो उस वक्त मैंने जो गाना गाया वहाँ पर। करीब डेढ़ से पौने दो घण्टे मैंने गाना गाया, ख्य़ाल गायी, टप्पा गाया, उसके बाद ठुमरी गायी मगर उसी दिन पहली बार मैंने बाबुल मोरा नैहर छूटो जाये, गाया था, तब से लेकर लगातार उसको कितनी ही बार गया। आज तक लोग पूछते हैं मगर अब मैंने उसे गाना बन्द कर दिया है। गाते-गाते हद्द हो गयी, वो जन गण मन हो गया था मेरे लिए (हँसती हैं) बाबुल मोरा नैहर छूटो जाये। इसलिए वहाँ गायी इक्यावन दिसम्बर में और जनवरी में बनारस में हुआ सन बावन में। तो वहाँ पर हमारे पति ही इसके पे्रसीडेण्ट थे और सारे बड़े लोग जितने वहाँ के थे, सारे मिल कर के इसको किए थे और तीन दिन का कॉन्फ्रेन्स था जिसमें केसर बाई, पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर, पटवर्धन जी, डी वी पलुस्कर, पण्डित रविशंकर जी, अली अकबर खाँ, उस्ताद विलायत खाँ, मने कौन ऐसा नहीं बचा था सितारा देवी, गोपीकृष्ण मने कोई ऐसा, सिद्धेश्वरी देवी, रसूलन बाई, बिस्मिल्ला भाई जितने लोग थे सब भरे हुए थे उसमें और उसमेें मैंने पहला गाना गाया जनवरी में।

डॉ राधाकृष्णन ने फरमाइश की, एक ठुमरी और ..............


पण्डित रविशंकर जी उस समय रेडियो में थे दिल्ली के। तो उन्होंने जाकर जिकर किया, एक होता था कॉन्स्टेशन क्लब का प्रोग्राम तालकटोरा में, तालकटोरा गार्डन में, उसको करने वाली थीं पटौदी, बेगम पटौदी और सुमित्रा, शीला भरतराम, नैना देवी इन सबने मिलकर उसे बनाया था और निर्मला जोशी, डॉ जोशी की लडक़ी थीें, वो ही सेकेट्री थीं। तो किसी तरह उन लोगों को मालूमात हुई तो मुझे बुलाया। मैं भी पहली बार दिल्ली गयी मार्च में और पलुस्कर जी भी पहली बार गये, बड़े गुलाम अली खाँ साहब पहली बार गये। शायद है कि कहीं वो पत्रिका पड़ी होगी मेरे पास। फस्र्ट टाइम था मेरा। तो वहाँ पर सारे राष्टï्रपति, उपराष्टï्रपति, प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरु जी सब लोग आने वाले थे। लेकिन उन लोगों को तो काम हो गया तो वो लोग नहीं आये लेकिन उपराष्‍ट्रपति जी आये डॉ राधाकृष्णन। बाकी सारे पट्टभिसीतारमैया, सुचेता कृपलानी जितने भी थे सारे उन लोग के लिए एक घण्टे का प्रोग्राम वो लोग करती थीं। फिर रात साढ़े नौ बजे से एक-दो बजे तक चलता था उन लोग का प्रोग्राम। तो उसमें मुझे और डी वी पलुस्कर साहब को और बिस्मिल्लाह खाँ साहब को बीस-बीस मिनट टाइम मिला। कहा गया बीस-बीस मिनट सब लोग गा लीजिए। तो पहले बिस्मिल्लाह खाँ साहब ने बजाया फिर डी वी पलुस्कर साहब ने गाया उसके बाद हमें गाना पड़ा। तो जब हमें गाना पड़ा तो पण्डित जी ने कहा, रविशंकर जी जिनको हम दादा बोलते हैं, हम बोले क्या गायें, वो बजा लिए राग-रागिनी, वो गा दिए ख्य़ाल बीस मिनट में मध्य लय का, तो वो बोले तुम पाँच मिनट टप्पा गा दो और पन्द्रह मिनट की ठुमरी। तो हमने कहा, ठीक है, चलिए, अइसइ गा देते हैं। तो मैंने पाँच-छ: मिनट का टप्पा गाया, उस समय तो बहुत तैयारी थी और यंग एज था तो टप्पा गाया और फिर ठुमरी गा लिया और मैंने करीब दो-तीन मिनट पहले ही खतम कर दिया, कि वो लोग न कहें कि खतम करो। शुरू से मेरी आदत थी कि कोई न, न करे हमें। हम हट जाएँ लेकिन हम न नहीं सुनना चाहते। तो इसलिए हमने सत्रह-अठारह मिनट में खतम कर दिया तब तक डॉ राधाकृष्णन ने आदमी भेजा कि हमें एक और ठुमरी सुननी है। तो मैं बोल्ड तो थी क्योंकि मैं तमाम ये घोड़ा चढऩा, ये करना, लडक़ों के जैसा काम करना, सबके ऊपर अपना रुआब जमाये रहती थी। तो मैं स्टेज से बोली कि मैं गाऊँगी $जरूर मगर ऐसा न हो कि बीच में से उठ जाइएगा आप लोग (हँसती हैं) । तो वो थोड़ा हँस दिए फिर कहने लगे, नहीं। तो मैंने कुछ आधा घण्टा एक और ठुमरी गायी। एक ठुमरी मैंने आधा घण्टा गायी। तो उस समय सारे पत्रकार लोग एकदम सक्रिय हो गये। सबने फिर लिखा। पेपर में आ गया। तो पहला आरा, दूसरा बनारस, तीसरा दिल्ली में मैंने गाया। 

सात समुंदर पार तक शिष्य परम्परा की अमरबेल


इसके बाद तो भगवान की कृपा थी। सब जगह मैंने गाया। हिन्दुस्तान में ऐसी कोई जगह नहीं, जहाँ मैंने न गाया हो। विदेशों में भी गयी, विदेशों में भी लोगों ने मेरा देखरेख अच्छी तरह से किया। बहुत इज्जत दिया वहाँ पर भी। कई शिष्याएँ भी हो गयीं वहाँ पर भी जो अपने एन आय आर थे, उन लोगों में भी। इस तरह से तो मेरे संगीत का जीवन चलता रहा मगर संगीत में सबसे बड़ी बात है कि एक तो गुरु को बहुत इज्जत देकर के क्योंकि माँ-पिताजी जन्म देते हैं। पहला गुरु तो माँ ही है जो हमें बात करना सिखाती है, जो ये सिखाती है कि ये माँ है, ये तुम्हारे चाचाजी हैं, पिताजी हैं, काकाजी हैं, इसके बाद के मेरे ज्ञान के गुरु जो थे वे मेरे दादा गुरु जी थे और मेरे पिताजी ने मुझे बहुत सम्हाल करके रखा मगर हम लोग क्या, बहुत छोटेपन में ही शादी हो जाती थी, सोलह-सत्रह की उमर में, शादी हो गयी तो मेरी एक बेबी भी हो गयी अठारह साल की उमर में तो इस व$जह से थोड़ा रुक गया था, मगर इसके बाद फिर मैंने बहुत तबियत से गाना-वाना गाकर के मुकाम बनाया। बस भगवान को याद करके, अपने गुरु को याद करके, बड़ों को याद करके आज तक संगीत का मेरा सफर चला आ रहा है। और ऐसे भी मेरे कई शिष्यों, मतलब ज्य़ादा नहीं दस-पन्द्रह हैं क्योंकि अभी मुझ ही को जानकारी लेने से फुर्सत नहीं मिलती, मेरे रिया$ज से फुर्सत नहीं मिलती। हम कहाँ तक दे सकें लेकिन आई टी सी संगीत रिसर्च एकेडमी ने एक बनाया कलकतते में 1977 में। उसमेें वे लोग मुझे ले गये बनारस घराना की वज़ह से और वहाँ पर भी मैंने तीन-चार शिष्यों को बनाया। अच्छी गाती हैं वो लोग क्योंकि हर गुरु को तीन शिष्य मिलते थे। एक तो मेरे गुरु जी का लडक़ा ही गया था। मेरे गुरु जी की डेथ हो गयी थी, दूसरे वाले, उनका लडक़ा। दो वहाँ से मिले थे लेकिन मेरे गुरु जी का लडक़ा था, एक ही लडक़ा था, चला आया था घर वापस। दूसरी की डेथ हो गयी, तीसरी गाती है। 

फिर उसके बाद मैं हिन्दू यूनिवर्सिटी में आयी। वहाँ एज़ ए वि$जीटिंग प्रोफेसर मैं दो साल थी और फिर उसके बाद घर में ही और फिर प्रोग्राम वगैरह अमेरिका, लन्दन, इधर-उधर जाने में ही बहुत टाइम लग जाता है। दो-दो महीने, डेढ़-डेढ़ महीने वहाँ का प्रोग्राम सब रहता था। फिर इसके बाद मैं घर में सिखाती थी बच्चों को। लेकिन वाराणसी मेें मुझे शिष्य कुछ अच्छे नहीं मिले। जैसा कि मैंने कलकतते मेें देखा शिष्य, तो उनको बहुत ज्य़ादा लालसा होती थी कि संगीतज्ञ बनें, चाहें वो सरोद हो, सितार हो, तबला हो, गाना हो, कुछ भी हो। वहाँ लड़कियाँ सुरीली, समझदार, अच्छी तरह से इसीलिए मैंने कलकतते में ही अपना एक और घर बना लिया। बनारस में तो ही मेरा घर, अभी तक है मेरा घर। मैं हर दो-तीन महीने में जाती हूॅं बनारस। लेकिन कलततते मेें मैं चली आयी क्योंकि मेरी एक ही बेटी है। उसी शादी कलकतते में हुई थी। हमारी देखरेख के हिसाब से भी हम चले आये क्योंकि हमारे पति की डेथ हो गयी थी सेवन्टीफाइव में और सेवन्टीसेवन में मैं चली आयी थी कलकतते। तब से वहीं रहती हूॅं बस आना-जाना लगा रहता है। कलकतते में मुझे चार-पाँच शिष्य बहुत अच्छे मिले। उनको मैंने बहुत प्रेम से सिखाया और गाते भी बहुत अच्छे हैं। वक्त आने पर सबका नाम बताएँगे क्योंकि एक शिष्य का नाम बता दें तो दूसरे शिष्य दुखी होते हैं कि मेरा नाम क्यों नहीं लिया, तो इसलिए। बड़े अच्छे शिष्य तैयार हो रहे हैं और पूरा गायकी हमारे घराने की, बनारस घराने की , सेनिया घराना। जितना ख्य़ाल अंग और ये सब है और बनारस का भी उसमें अंग है ख्य़ाल गाने का, वो मैंने तो याद किया लेकिन इसके बाद टप्पा, तत्कार, सदरा, तराना, ध्रुपद, धमार फिर आपके ठुमरी और होली, चैती, कजरी, झूला ये सब मैंने वहाँ पर सीखा। 

हमें शौक था शादियों के गीत, बच्चा होने के गीत इन सबका, हमेें बचपन मेें गुड्डïा-गुडिय़ों की शादियाँ करने का शौक बहुत था। इसमें गुरु माँ के घर की लड़कियों को और अपने दोस्तों को बुला के ढोलक पर उनका गाना सुनती थी और सबको खाना खिलाती थी। मुझे खाना खिलाने का बहुत शौक है। तो वो सब मेरा बचपन से ही चला आया। उसको कोई रोक नहीं सका। और मैं खाना बनाती हँू चार आदमी का और आठ आदमी को बुला लिया, आओ मेरे साथ खाना खाओ, कुछ इस तरह का रहा है मेरा। और न ही मेरा कोई सिनेमा देखने का शौक है, न ही कोई क्लब, न ही ये सब करने का शौक नहीं था। एक भारतीय स्त्री को जो वास्तव में $जरूरत है, वो ची$जें मुझे मेरे घर से, लोगों के  यहाँ देखने से, मेरे गुरु घराने से, वो ची$ज में मैं पली और बढ़ी। मगर जब बाहर गयी तो वहाँ का भी देखा कि कैसे फॉरेन में लोग रहते हैं, जाते हैं लेकिन मेरी जो चाल थी, उसमें उनकी तरह वैसा कुछ भी मैंने आने नहीं दिया। अपना पहरावा-ओढ़ावा, खान-पान, बातचीत सब कुछ इस तरह से किया जो मेरा अपना संस्कार था। ऐसे दस-बार शिष्य अमेरिका, लन्दन, न्यू जर्सी में हैं, फ्र ांस और इटली में भी हैं, लेकिन बहुत कायदे से, मैंने कहा कि सा रे गा मा से शुरू करके तुम्हारी नींव मजबूत करें फिर तुम्हें अच्छी तरह से बना सकते हैं हम। तो दो-तीन लड़कियाँ अच्छी हैं और खुद भी टीचिंग कर रही हैं अभी। 


फिफ्टीवन से दो हजार सात तक..........


तो ये सब भगवान की और गुरु की कृपा है और मेरे बड़ों का आशीर्वाद है कि जो चला आ रहा है अभी तक पचपन-छप्पन साल हो गये। फिफ्टीवन से शुरू किया और आज तो हो गया दो ह$जार सात (पूछतीं हैं, दो ह$जार सात है न, फिर हॉं कहकर आगे बोलती हैं) । दो ह$जार सात चल रहा है और मैं तो आज भी जब भी श्रोताओं के सामने जाती हँू, तो मुझे लगता है कि ये श्रोता नहीं हैं बल्कि भगवान ने जो बनाया है, ईश्वर के सारे रूप यहाँ बैठे हुए हैं और मैं आँख बन्द करके भगवान और अपने गुरु का स्मरण करके गाती हूॅं। लेकिन हर ची$ज का एक समय है। जैसे आज मैं डेढ़ घण्टे बैठकर यमन कल्याण गाऊँ तो कुछ लोग आते हैं टिकिट लेकर के टप्पा सुनने को, कुछ लोग आते हैं ख्य़ाल सुनने को, कुछ लोग आते हैं ठुमरी सुनने को, कुछ लोग आते हैं दादरा सुनने, कुछ लोग आते हैं लोकगीत सुनने, कुछ लोग भजन सुनने आते हैं तो हम पहले ही ऑर्गेनाइ$जर से पूछ लेते हैं कि भई हमें समय कितना है, उन्होंने कहा कि डेढ़ घण्टा तो हम आधे घण्टे, चालीस मिनट में ख्य़ाल थोड़ा कम्पलीट जैसा मेरे गुरु ने सिखाया वैसा ही मैं गा देती हूँ। उसके बाद पन्द्रह मिनट एक ठुमरी, दस मिनट वो, पाँच मिनट वो करके उनका डेढ़ घण्टा मैं पूरा कर देती थी कि लगता ही नहीं था कि समय कहाँ चला जाता है। लोग तब और सुनने की फरमाइश करते थे। हम समय की बहुत इज्ज़त करते हैं। अगर आपने हमको पाँच बजे का समय दिया गाने के लिए तैयार रहने के लिए तो हम चार चालीस पर तैयार होकर के खड़े रहेंगे। इतनी समय की पाबन्दी मुझे हो गयी है। समय की कदर करना चाहिए क्योंकि जो समय चला जाता है फिर वापिस नहीं आता। 

नयी सदी की संस्कृति


ये सब बातें और हिन्दी के बड़े-बड़े लोगों की कहानियाँ, कविताएँ ये सब पढ़ती थी, इसलिए मुझे हिन्दी साहित्य से बहुत ही लगाव है। उसके बाद बंगाल के लोग, महाराष्टï्र के लोग, उनके बारे में जैसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बारे में, का$जी न$जरूल के बारे में जानते हैं और इन लोगों की कविताएँ सुनते हैं तो मुझे बहुत पसन्द आती हैं। महाराष्टï्र में भी इतने लोग हुए हैं, मराठी गाना, मराठी ड्रामा सब मैंने देखा, समझ में नहीं आता था तो पूछ लेते थे। इसलिए हर जगह की अपनी-अपनी एक वेल्यू है और हर जगह में ही विद्वान लोग हैं। मगर अब क्या हो गया है, पहले की फिल्म के, या ऐसे भी गजल, कव्वाली सब होती थी मगर तब उसकी इज्ज़त और सम्मान रखकर लोग बैठते थे। आज न वो गजल में चीज रह गयी, न कव्वाली में, न वो फिल्म संगीत में। इतना कुछ, ज्य़ादा ही कुछ हटता जा रहा है साहित्य से कि कुरता फाड़ के देख लो, कि कऊआ बोल रहा है, और कोई शबद नहीं मिल रहा है सबको कि कोयल बोलती है, मोर बोल रहा है, ये सब नहीं। तो इसलिए दुख भी लगता है कि बहुत दुनिया बदलती चली जा रही है। उस जमाने में कॉन्फ्रेन्स शुरू होती थी रात को नौ बजे तो सुबह पाँच बजे-छ: बजे खत्म करते थे। पूरे रात हम लोग देखते थे उसको। मगर आज तो रात को नौ बजे भी निकलने मेें डर लगता है कि कोई छीना-झपटी न कर दे, कोई कुछ न कह दे। फिर हम तो गाड़ी में जा रहे हैं लेकिन सबके पास तो गाडिय़ाँ नहीं हैं। कोई रिकशे से जा रहा है, कोई मोटर साइकिल से, कोई साइकिल से। तो इस समय इतनी ज्य़ादा घबराहट हो गयी है कि रात का प्रोग्राम नौ-साढ़े नौ बजे तक लोग बन्द कर देते हैं। 

गुरु-शिष्य परम्परा : धीरज और बाजार


आजकल के गुरु को, हम शिकायत नहीं कर रहे हैं, जो शिष्य हैं वो भी चाहते हैं कि हमें इतना जल्दी सिखा दें कि हम एकदम टॉप पर पहुँच जाएँ। टेलीविजन और रेडियो, कॉन्फ्रेन्स सब गाएँ और गुरु सोचता है कि इसको फँसाकर रखो कि इससे पाँच सौ-हजार सिटिंग का जो मिलता है वो बन्द न हो जाए। दोनों में बन नहीं रही है। लेकिन अभी भी अगर खोजा जाए हिन्दुस्तान में, तो दस-बीस अच्छे गुरु मिल सकते हैं जो कि बैठकर के बच्चों को आगे बढ़ाने का जैसा हौंसला मैं किए हूँ कि दस-बीस बच्चे भी हमारे अच्छे निकल जाएँ तो वे सौ अच्छे शिष्य तैयार कर सकेेंगे, ह$जार शिष्य तैयार कर सकेंगे। हम लोग ऐसे अपने दस ही शिष्य बनाएँ तो बहुत है। मगर खाली अपने बच्चों को सिखाकर, अपने परिवार को सिखाकर कला को बांध लेना उचित नहीं है। देखिए, तकदीर भी कोई ची$ज होती है। ईश्वर की कृपा हो, गुरु की कृपा हो, उसकी तकदीर भी होना चाहिए। माँ जन्म देती है लेकिन कर्मदाता नहीं होती, वो जन्मदाता है। तो इसीलिए कितना भी गुरु कर दे, कोई-कोई गुरु इतने तकदीर वाले होते हैं कि जैसे केलूचरण महापात्र। जितनी भी शिष्याएँ निकली हैं, जितने भी शिष्य निकले हैं सबने नाम किया, चाहें संयुक्ता पाणिग्रही हों, चाहें प्रोतिमा बेदी हों, चाहें कुमकुम मोहन्ती हों, चाहें उनका बेटा हो शिबू, और वो क्या नाम है, डोना, वो क्रिकेट खेलते हैं सौरव, उनकी पत्नी, सारे बच्चे लोग अच्छा डांस कर रहे हैं। ऐसे गुरु भी जिनका कि भाग्य हो, ऐसे शिष्य उनका नाम रोशन करें, भाग्यवान हैं। 

हमारे पण्डित बिरजू महाराज के भी अनेक शिष्य हैं। बहुत अच्छे शिष्य निकले उनके, बहुत अच्छा कर भी रहे हैं वो। अब गायन मेें पण्डित ओंकारनाथ जी के शिष्य हैं, वो लोग सर्विस में चले गये क्योंकि उनको इक_ïा रुपया मिल जाता है उनके खर्च के लिए, पन्द्रह हजार-बीस हजार। और आजकल मँहगाई इतनी बढ़ गयी है, कि घर का किराया ले लीजिए, कि घर का खाना ले लीजिए, कि बच्चों की पढ़ाई ले लीजिए, सब इतना ज्य़ादा हो गया है कि वो लोग कड़ी से कड़ी मेहनत करके घर को चलाते भी हैं और उसी मेें शिक्षा भी देते हैं। मैं बुरा नहीं कहती हूँ शिक्षकों को, उनकी भी अपनी बहुत जरूरतें हैं। हर लोग तो लाख रुपया, दो लाख रुपया नहीं ले सकता या पाँच लाख रुपया लेकिन जो लोग बहुत अच्छे हो गये हैं जिनके पास करोड़ों सम्पतित है, उन लोगों को आज जो भारतीय संगीत की इज्ज़त दब रही है, जो माहौल है, ऐसा चलेगा, उतने ही बच्चे हमारे बरबाद होंगे। उन्हेें अच्छी चीज सुनाने-सुनने का मौका मिलना चाहिए। जैसा कि स्पिक मैके कर रहा है, यूनिवर्सिटीज और स्कूल में, कॉलेज मेें प्रोग्राम करते हैं, बहुत अच्छा लेक्चर डिमॉस्ट्रेशन देना, उन्हें समझाना, वैसा हम लोग प्रयत्न कर रहे हैं कि ऐसी कोई और भी संस्था बनना चाहिए जिसमें लोग वर्कशॉप करवाएँ, चाहें भोपाल हो, इन्दौर हो, मुम्बई हो। 

मैंने भी वर्कशॉप किया, मुम्बई में जाकर नेहरु सेंटर में। सभी लोग आए, बच्चियाँ भी, आरती अंकलीकर से लेकर अश्विनी भिड़े भी, पद्मा तलवलकर, सब लोग आये, बहुत लोग आये मगर सात दिन के अन्दर, पाँच दिन के अन्दर हम कितनी ची$जें उन्हें बता सकते हैं। गायकी का रूप या भाव नहीं बता सकते जब तक बैठकर कुछ दिन नहीं सीखेंगे। यदि रेकॉर्ड से सीखेंगे तो भी मैं कैसे उसको कहती हूँ, यह थोड़ी पता लग पायेगा। तो बच्चों को गवर्नमेेंट हेल्प करे या कम्पनीज हेल्प करेें क्योंकि देखिएगा, एक गुरु को भी तो कुछ चाहिए। फ्री तो आ नहीं सकते। अपना खर्चा-वर्चा लगा के आएँ, उनको रहने का, सात-आठ दिन का जैसा, उनकी इज्ज़त हो, उसके ऊपर तो खर्च होगा लेकिन वो बच्चे जो सीखेंगे, कुछ सार्थक रहेगा। इसके ऊपर ध्यान देना चाहिए। सीखने-सिखाने वाले सब लोगों को अच्छी राह दिखानी चाहिए, अच्छी राह पर चलना चाहिए।

पिताजी की याद.......


बाबू रामदास राय मेरे पिताजी का नाम था। मेरे पिताजी तो हर बखत याद आते हैं। हम लोग गाँव में रहते थे। $जमींदारी थी, थोड़े हिस्से की। आधी हमारी और आधी हमारे रिश्तेदारों की जो दादा-परदादा के $जमाने से चली आ रही थी। बाद में पिताजी वो सब हमारे परिवार मेें रखकर के बनारस चले आये थे। काशी आने के बाद ही हमारे घर में गाने-बजाने का माहौल बना। पहले पापा ने सीखा, मेरे को भी आ गया। तो पापा की तो हर बखत याद आती है। जिस समय मैंने सीखा उस समय वो कठिन दौर निकल चुका था जब लड़कियों को गाने-बजाने से रोका जाता था। पण्डित मदन मोहन मालवीय की बेटियाँ सीख रही थीं, इधर महाराष्टï्र में लोग निकल गये थे हीराबाई बड़ोदेकर, केसर बाई, गंगूबाई हंगल ये लोग निकल चुकी थीं। सिद्धेश्वरी देवी भी गा रही थीं लेकिन ये लोग राज दरबार में भी गाती थीं मगर मेरे पिताजी ने और मेरे पति ने कहा, नहीं, हम राज दरबार में नहीं गाएँगे। चाहें वो लाखों दे देते, करोड़ों दे देते, नहीं जाते। 

कलाकार का सच्चा धर्म


एक कलाकार का सच्चा धर्म यही है कि वो अपनी सत्यता को न छोड़े। सत्य का जीवन में पालन करेे। जहाँ तक हो सके, हम यह नहीं कहते कि कृष्ण, राम सब सामने खड़े हैं लेकिन मैं उन्हें मानसिक रूप से मानती हूँ। उनका जो रूप है उसकी मैं पूजा करती हूँ क्योंकि उन्होंने बहुत बड़ा कार्य किया है। वो मोक्ष दिए कि नहीं दिए लेकिन इतने बड़े हो गये हैं कि उन्हें हमें मानना पड़ता है। उनकी बातों को अपने शास्त्रों के  अनुसार अपनी रामायण में, अपनी गीता में जो पढ़ते हैं तो कुछ तो किया है उन्होंने। ऐसे तो कोई निकालेगा नहीं उनकी किताबें। चाहे हिन्दू हों या मुसलमान हों, पहले हम लोगों में कितना मेल था, इतना मेल रहता था, आज के जीवन में देखिए छोटी-छोटी सी बात पर कटुता बढ़ती चली जा रही है। पहले उस्ताद लोग भी बहुत ही सीधे थे और बहुत ही सच्चे थे। जिसको भी वे सचमुच मानते थे कि ये लडक़ा या लडक़ी ठीक है, उसे आशीर्वाद देते थे नहीं तो उसको तुरन्त कहते थे कि न, अभी तुम बाहर जाने लायक नहीं हो। अभी तुम गुरु या उस्ताद से सीखो। ये ची$ज ठीक करो, वो तुम्हारी तानें ठीक नहीं हैं, स्वर सही नहीं हैं, ताल ठीक नहीं है, ये सब वो लोग बताते थे। आज किसी बच्चे को कह दो तो वो कहेगा, वाह, मैं कोई खराब थोड़े ही हूँ, मैं तो बढिय़ा हूँ। ऐसे में कौन बोलेगा भला, झगड़ा मोल लेगा। भाई आप जानिए, आपका काम जाने। तो इस तरह से चलता है ये समाज, ये दुनिया। कुछ न कुछ ऋतु बदलती रहती है।

ईश्वर के बारे में


भइया ईश्वर के बारे में तो बहुत..........हम तो हर बखत उनको याद करते हैं। थोड़ा मेडिटेशन, खरज, ऊँकार मेरा तो संगीत ही पूजा है। उसी से मैं उन्हें सजाती हूँ, उसी से फूल चढ़ाती हूँ और न मेरे पास फूूल है न पतती है। उनका तो हर वक्त हृदय में वास रहता है, जैसे माँ सरस्वती हैं, शिव हैं मेरे आराध्य, उनका ध्यान तो रखना ही पड़ता है। 

दुनिया को कैसे खूबसूरत बनाया जा सकता है?


दुनिया को खूबसूरत बनाया जा सकता है, कि सब लोग बहुत प्यार-मोहबबत के आदमी हो जाएँ, बहुत सच्चाई आ जाए सबमें और बहुत शालीनता, खासकर के लड़कियों में भी और लडक़ों में भी। उद्दण्ड रहकर के दुनिया को बिगाडऩा ठीक नहीं है। उद्दण्डता कभी ठीक नहीं रही है क्योंकि मैंने सुना है कि जो उद्दण्ड होते थे वो मार दिए जाते थे या खतम कर दिए जाते थे या जेल बन्द कर दिया जाता था। जैसे कंस हुए। हुआ कि नहीं उनका खात्मा। कृष्ण ने किया जिनके वे मामा थे। लेकिन ये नहीं है कि कृष्ण सखियों के साथ दौड़े भी, रासलीला भी किया, खेल भी किए मगर आन्तरिक उनका ये था कि सबको अपने में बुला रहे हैं, अपने पास बुला रहे हैं। मतलब यही था कि मेरे में वो हो जाएँ। तो आपमेें, हमारे में सब जगह तो भगवान बसे हुए हैं फिर क्यों लोग एक दूसरे के शत्रु इस तरह से बनते जा रहे हैं? दुनिया को खूबसूरत बनाना है तो सबको एक ही विचार ले करके चलना होगा, चाहे वो किसी भी जाति के हों। मैं यह नहीं कहती कि अमीर और गरीब पहले भी रहे हैं। क्या राम के वक्त धोबी, नाई नहीं था? क्या वो पालकी उठाने वाला आदमी नहीं था? क्या वो राजा बन जाता था? नहीं। राजा राज करते थे, प्रजा को देखते थे और प्रजा को अपना बेटा, अपनी बेटी, अपनी सन्तान मानते थे पर आज के जमाने में पहले अपने ही पास सब भर लेते हैं मगर उसके बाद खाली हाथ चले जाते हैं। वो भी बेकार है। लेकिन भगवान जब किसी को कुछ देता है तो तुम्हें भी कुछ देना चाहिए। सब लेकर नहीं जाना चाहिए और ले के जाएगा कहाँ से? हम तो खाली हाथ आये थे और खाली हाथ चले जाएँगे। कहा है न मुट्ठी बांधे आते हैं और खाली हाथ चले जाते हैं। आप देखिए छोटा बच्चा पैदा होता है तो मुट्ठियाॅँ उसकी बंधी होती हैं और जब जाता है आदमी तो हाथ खाली रहता है। तो अगर अच्छा काम करके हम जाएँगे तो सैकड़ों वर्ष हमेें लोग याद रखेंगे और यदि हम किसी की बुराई, किसी का ये, किसी की चोरी, किसी का करजा, किसी का खून, किसी को मारा तो वो बदनाम ही रह जाएगा। इसलिए सब कोई जब तक मिलेंगे नहीं, एक जने कुछ नहीं कर सकते हैं। 

मगर मैं तो अपने बच्चों को, श्रोताओं को अपने सामने जो होते हैं, यही कहती हूँ कि आपस का प्यार रखो अगर तुम्हें किसी से कुछ बुराई है तो मुँह पर ही बोल दो कि अच्छा नहीं लगा हमें। मन में मैल रखकर कभी जीवन चल नहीं सकता। दोस्त भी मानते हो और मैल भी रखते हो, ऐसा क्यों है? और सबमें संगीत है। आप अगर सही नहीं चलिएगा तो लुढक़ जाइएगा। लोग कहेंगे कि बेताले चल रहे हैं। अगर स्वर में नहीं बोले, बाँ बाँ बाँ बाँ किए तो सब कहेंगे बड़ा बेसुरा बोल रहा है भैया। ऐसी औरतें भी हैं और पुरुष भी हैं। तो स्वर और लय तो हर एक की जिन्दगी में है मगर उसकी खोज करना पड़ता है। अरे अभी तो एक ही जिन्‍दगी हमारे लिए कम है कि ठीक से जी सकें। इसके लिए कई जीवन चाहिए हमें। न मेरा रियाज ही पूरा हुआ और न मेरी शिक्षा ही पूरी हुई। मैं इसके बारे में क्या बोलूँ? जो मेरे गुरु ने बताया, जो हमारे बाप, माँ, दादा, दादी ने बताया उन्हीं की बात सार्थक है, मेरी अपनी बात तो कुछ कहने की ही नहीं है, उसके लिए तो एक जीवन और चाहिए तब शायद अपनी बात बता सकें। ये सब सुनी सी, देखी सी और सिखायी बात मैं कर रही हूँ। मेरे में कुछ नहीं है। मेरा सब कुछ अर्पण है मेरे गुरु और मेरे भगवान के ऊपर। मैं कुछ नहीं हूँ। और जो करते हैं वही करते हैं। अभी कोई बात कहना है और गला बन्द हो जाए, बोल ही न पाएँ तो कोई तो है सब करने वाला जिसको हम देख नहीं पा रहे मगर है कोई। तमाम दिमाग, आँख, नाक, कान ये सब बनाया है ईश्वर ने। जानवरों को बनाया, कितने जीव बनाए, करोड़ों जीव-जन्तु। ये किसने बनाया? उसका अगर दर्शन हो जाए, उसकी खोज हो जाए तब तो हम बोलने लायक नहीं रहेंगे। हम तो कहीं चले जाएँगे कैलाश पर्वत। फिर आप लोग हमें छू नहीं सकते, बोलना तो बड़े दूर की बात है। 

लेकिन जब हम जीवन में रह रहे हैं, संसार के जीवन में तो हमें सब कुछ करना पड़ता है। कभी-कभी झूठ भी बोलना पड़ता है। लोग खूब फोन करते हैं तो बेटी से कहते हैं, कह दो सो गयी हैं, कहीं चली गयीं हैं। भगवान का नाम लेते हैं दस बार कि मैंने झूठ बोल दिया। उचित नहीं है यह लेकिन क्या करें, परेशान हो जाते हैं। एक तो उमर भी हो गयी है न, इस उमर में औरतों के लिए, जबकि पचास बरस मेें वो बुड्ढी हो जाती हैं, लडक़े तो साठ-पैंसठ बरस में भी लडक़े ही रह जाते हैं। ऐसा कुछ ईश्वर ने बनाया कि पचास बरस में वो बुड्ढी ही कहलाती हैं लेकिन कोई अस्सी बरस, अठहततर बरस, उन्यासी बरस में इतना साहस करके आते हैं तो इसीलिए कि हमारे लिए संगीत को सर्वोपरि रहना चाहिए। ये कभी नीचे नहीं जा सकता। हमारे लिए हमारे पिता से मिली हिम्मत सबसे बड़ी ची$ज है। यह भगवान की दी हुई है कि गुरु की दी हुई है कि पापा की दी हुई है, पता नहीं मगर मैं हिम्मत कभी नहीं हारती। मेरा तो दो साल पहले बायपास ऑपरेशन हुआ उसके बाद हम तो तीन महीने में ही चले गये थे फ्रांस लन्दन और इटली और अमेरिका प्रोग्राम करने। तो मतलब हिम्मत रखते हैं और उसी हिम्मत से भगवान आप लोग तक हमें पहुँचाए हैं। 
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शनिवार, 21 अक्तूबर 2017

नदी की सन्निधि में.........



दीपावली के अनारों के साथ......


लगता है वो मुझे अपने में एकाग्र होने नहीं देतीं। वो जहाँ पर हैं वहाँ वे इस बात का प्रयत्न करने में और आसानी से सक्षम हैं। धीरे-धीरे दिन सालों में बदलते जा रहे हैं। मैं काँच में अपना चेहरा हर दिन ही देखा करता हूँ। जान नहीं पाता, बड़े आघात कहाँ से क्या कुछ छुड़ाकर अपने साथ ले जाते हैं। ऊपर से कुछ समझ में नहीं आता। भीतर से भी कितना आता है, कहना मुश्किल है। 

स्मृतियों में कौंधता है, एफ टाइप दो मकानों में लगने वाला वह स्कूल जिसमें मैंने पढ़ना शुरू किया था। पहले दिन मुझे अच्छा तैयार किया गया था और बस्ता, जूता-मोजा, हाफ पैण्ट, बुशर्ट आदि पहनाकर वो मुझे स्कूल छोड़ने आयीं थीं। टीचर से भीतर बात की थी और थोड़ी देर में जब प्रार्थना की घण्टी बजी तो बाहर बच्चों की लाइन लगने लगी जिसमें मैं भी खड़ा कर दिया गया। प्रार्थना हो रही थी और लाइन में खड़े मैं उनको देख रहा था। आधी प्रार्थना हो चुकी तो वे मुझे देखते हुए मुस्कराकर जाने लगीं। उनको जाते देखकर मैं रो कर उनकी ओर दौड़ पड़ा और पीछे से जाकर उनकी साड़ी पकड़ ली, कहने लगा घर जाना है। उनको हँसी आ गयी पर मेरा रोना बन्द नहीं हुआ। 

बड़े होते हुए पता नहीं कितने ऐसे अवसर आये होंगे जब उनकी तबियत खराब हुई, वे बीमार पड़ीं पर साथ बनी रहीं। पिछली बार फिर उनको मैं पकड़ न सका, वो एकदम अन्तध्र्यान हो गयीं अपने भीतर से। ओर-छोर हम कुछ भी न समझ पाये। अब वे बहुत सारी फोटुओं में हैं जिन्हें देख पाना सहज नहीं होता, जिन्हें देखते हुए अपने आपको सह पाना भी सहज नहीं होता। 

वे अक्सर अपनी माँ, हमारी नानी को याद करके कहा करती थीं, नहीं रहने के बाद अम्माँ हमें कभी सपने में भी नहीं दीखीं। कभी-कभी वे बतलाती थीं कि तुम्हारी नानी को सपने में देखा, उन्होंने कहा, मुनियाँ, हम अकेली हैं। अब हमारे पास घर भी बड़ा है, तुम भी वहीं चलो। इस पर मैं उनके हाथ जोड़ लिया करता था, यह कहते हुए कि ऐसे सपने मत देखा करो। और नानी की बात भी मानने की जरूरत नहीं है तब वे शरारतन हँसने भी लगतीं, वे हम सबकी घबराहट को भाँप जातीं थीं। त्यौहारों को लेकर उनके अपने सिद्धान्त बड़े स्पष्ट और साफ से थे। हम लोगों के प्रायः अलसाये रहने पर वे कहा करती थीं, सब दिन चंगे, त्यौहार के दिन नंगे। वे चाहती थीं घर के लोग तीज-त्यौहार के दिन सुबह से ही तैयार हो जायें और घर को भी उसी तरह व्यवस्थित करें। 

अब उनके बिना ये त्यौहार पूरे दिन सहना बड़ी हिम्मत का परिचय देने जैसा है जिसमें संयत बने रहना ही सबसे बड़ी परीक्षा होती है। पीर-पके मन में बहुत उथल-पुथल मचती है। कोई कोना-छाता समझ में नहीं आता जहाँ दो पल अपने में उसी व्यथा के साथ रहा जा सके। चारों तरफ ऐसे व्यवधान हैं जो पूरे जीवनभर भ्रमित करते रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे। दीपावली पर उनको अनार बहुत पसन्द थे। पटाखों के साथ अनार उनकी इच्छा से चार-पाँच जरूर लाये जाते। उन अनारों को छुटाने (जलाने) के समय उनको बाहर बुला लिया करते थे। अनारों का भरपूर दम भर ऊपर जाना और एकदम से दानों का बिखर जाना उनको बहुत सुहाता। उतना देखकर वे भीतर चली जातीं हम लोगों का खाना बनाने के लिए। 

इस बार मन किया, उनकी आभासी सन्निधि में कुछ अनार जलाऊँ। नर्मदा, गंगा, संगम और शिप्रा में उनकी आभासी सन्निधियाँ हैं क्योंकि उनके दिव्यांश वहाँ प्रवाहित किए थे। साँझ को इन्हीं इरादों के साथ अपनी व्यथा का मलहम लिए दीपावली के दिन रामघाट पहुँच गया। माँ शिप्रा अपने पूरे ठहराव में थीं किन्तु उनका स्पन्दन महसूस किया जा सकता था। नदी की अपनी भाषा और व्‍याकरण होते हैं, ध्‍यान से सुनो तो शब्‍द भी। मेरा अपना बहिरंग बहुत कोलाहाल से भरा था जबकि अन्‍तरंग, भीतर का लम्‍बा गलियारा पूरी तरह चुप, शान्‍त कमोवेश मौन। 

नदी के दोनों ओर कुछ दिये जल रहे थे। इक्का-दुक्का लोग। मेरे अनुज से मित्र अमित वहाँ मेरे पास थे। हम लोगों ने वहीं किनारे अनार जमाये। अनार जलाने के लिए फुलझड़ी का प्रयोग ज्यादा सहज है। हमने जलायीं, तभी वहीं एक बच्चा कहीं से आ पहुँचा, आठक साल का जिसने कहा, अंकल मैं जलाऊँ अनार, हमने कहा, बेटा क्यों नहीं। वह खुश हुआ। हमने फिर मिलकर एक-एक करके सभी अनार जलाये। 

अनार जल चुके, फुलझड़ी के चार पैकेट बचे थे, इस बीच तीन बच्चे-बच्चियाँ वहाँ से निकले गरीब परिवार के जो दोने में आटे की गोली मछलियों को डालने के लिए बेच रहे थे मगर वहाँ उनका कोई गाहक नहीं था। उनको पास बुलाकर एक-एक पैकेट फुलझड़ी का दिया, एक जो बचा वो अनार चलाने वाले बच्चे को। सबके चेहरे पर जो खुशी आयीं वह अनूठी, प्रीतिकर और सुखकारी थी। सबने अपने विवेक से जले हुए अनार कचरे के डब्बे में डाले और हम लोगों को हैप्पी दीवाली अंकल कहते हुए दौड़ते-भागते अपने घर को चले गये। 

मैं जानता था कि यह मेरा अपना हठ, अपने आप से है, मुझे लगा कि शायद इसमें मैं अकेले ही शामिल हो सकता हूँ। इसलिए मैंने अपनी निजता में यह कर लिया। लौटते हुए रामघाट पर बिताये दस मिनट मेरे लिए अपने मन को जीने का मेरा हठ थे, जिन पर मैं अपना दृश्यबोध छोड़ आया था। माँ शिप्रा का ध्यान करते हुए मोक्षदायिनी नदियों के विषय में मैं सोचने लगा, लाखों-करोड़ों लोगों की पीड़ा और बहते हुए आँसुओं को ये नदियाँ कितनी उदारता से अपने आँचल में समेट लेती हैं। उतना ही सच यह भी है कि इतनी पीर अपने में सहेजे-समेटे वे स्वयं कितनी पीर से भरी रहा करती होंगी। 

शायद यही कारण है कि नदी के किनारे थमकर बैठना, जीवन के अर्थ का सात्विक और सच्चा व्याकरण ग्रहण करने के बराबर है। हमारे पूर्वज नदी की धरोहर हैं और नदी हमारी समूची मानवीय अस्मिता की.................