मंगलवार, 14 मार्च 2017

फिर विस्थापन..............





पता नहीं विस्थापन क्यों होता है? अपने पास इसका ठीक ठीक उत्तर नहीं होता। विस्थापन जब होता है तो हमारे सामने विकल्प नहीं होता, सिवाय विस्थापन का अनुसरण करने के। एक विस्थापन न जाने कितने-कितने बदलाव करता है! शहर से लेकर समाज तक नवाचार करने, नया वातावरण गढ़ने, आधुनिकता की परिभाषा सूझने से लेकर उसको स्थापित करने या लाद देने तक कुछ पता नहीं होता। अमली जामा या कह लें खाका तैयार हो जाने के बाद हमें पता चलता है कि हमारे पीछे से दीवार हटा ली जा रही है। जितना अधिक असावधान होंगे, उतना ही तेजी से विचलित या हतप्रभ हो जायेंगे। सम्हलेंगे तो उस विस्थापना के समर्थन, स्वाभाविक तौर पर मन मारकर आप हो जायेंगे। चलो, उठो, पिछली बार यहाँ कब आये थे, कितना ठहरे रहे और अब कहाँ जाओगे तत्काल तो यह किसी को पता नहीं। दिषायें आपको कितना बदल देंगी, सिरहाना और पैताना बदला हुआ होगा। नये सिरे और पैरे का अभ्यस्त होने में फिर समय लग जायेगा। बदलाव आता है, बदलकर जाता है। थोड़ी-बहुत कतरब्यौंत के बाद आप भी प्रारब्ध के लिए तैयार होते हैं। यह बात अलग है कि आप कितना सहज होते हैं, कितना हँस रहे होते हैं, कितनी उदासी होती है, क्या भीतर-क्या बाहर, सिवा आपके कोई नहीं जानता। आपका हाल दरअसल उसे तो पता ही नहीं होता जिसकी आवाज मतलब का पूर्वरंग होती है और वह आपका हाल पूछ रहा होता है............

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