बुधवार, 20 फ़रवरी 2019

गली बॉय

झेंपते हुए युवक की जिन्‍दगी से......

 

क्या किसी फिल्म को उसकी श्रेष्ठता में अनगढ़ तरीके से देखा जा सकता है! क्या एक जगह बैठकर हम उस जीवन की कल्पना कर सकते हैं जहाँ बहुत सारी कठिनाइयाँ हैं, दुख हैं, पीड़ाएँ हैं, घुटन दिखायी देती है, असहनीयता धुँआ धुँआ दीखती है! क्या हमें उम्मीद होती है कि कोई रास्ता वहाँ की घोर बेचैनी के बीच से भी निकल सकता है! बहुत सारे नकारात्मक उत्तरों के बावजूद कोई फिल्म हमको बांधकर रखती है। बांधकर रखती इसलिए है क्योंकि अनचाहे ही बेखबरी में हम उस फिल्म के किरदारों में अपने को पहचान जाते हैं और उनका हाथ थामकर चल पड़ते हैं। यही किसी फिल्म की सच्ची सफलता भी है बल्कि सराहना पहले है, सफलता बाद में है।

लेखक और शायर पिता, लेखिका और निर्देशिका माँ की बेटी जोया अख्तर अपनी यह तीसरी अहम फिल्म गली बॉय को एक निर्देशक के रूप में, रीमा कागती के साथ एक पटकथाकार के रूप में बहुत कोमलता से बुनकर प्रस्तुत करती हैं। रीमा कागती से उनकी पिछले रचनात्मक सरोकार हैं, दोनों ने मिलकर तलाश फिल्म की रचना की थी जिसे आमिर खान की एक खास फिल्म कहा जाता है। यह गली बॉय मुम्बई महानगर की एक बड़ी झोपड़पट्टी में एक छोटे से घर, गलियों और मोहल्ले में घटती है। बड़े सजीव और वास्तविक सेट्स के बीच कम से कम जगह में नियति से अधिक से अधिक उदारता लेकर जीने के जज्बे को यहाँ देखा जा सकता है।

यहीं एक युवा सपना देख रहा है। प्रेम कर रहा है। डरता है मगर छोटे-मोटे गुनाह भी कर रहा है। पारिवारिक स्थितियों, अख्खड़ पिता की एकतरफा आक्रामकता, दूसरा विवाह और हिंसा को स्वयं भी सह रहा है, माँ को भी सहते देख रहा है। आधुनिक संसार में तकनीकी आविष्कार, विकास, आकर्षण, ग्लैमर के रास्ते बाकी दकियानूसी पूछताछ या आधारकार्ड नहीं देखा करते। कोई-कोई जगह किस्मत का जादू बस्ती के बीच से अचानक प्रकाशित होने वाले रॉकेट की तरह आवाज करता है और ऊँचा उड़ जाता है। यह राकेट मुराद अहमद किस तरह है, यह देखना ही गली बॉय फिल्म के अर्थ को समझना है। मदद करने वाले दोस्तों का भी संसार खूब होता है। अपराधी दोस्त अपनी ही भाषा में पुलिस के द्वारा खूब तोड़ा जाता है लेकिन नायक का नाम नहीं लेता। नायक जब सफल हो जायेगा, पैसा बना लेगा तब जमानत भी ले लेगा, यह भरोसा है।

रणवीर सिंह के जीवन और कैरियर की पहली अच्छी फिल्म है जिसमें न वह सिम्बा टाइप छिछोरा है और न ही खिलजी जैसा वीभत्स। वह एकदम मुराद अहमद है। दब्बू, झेंपू, डरने वाला, सहमा सा लेकिन एक अजीब सी सनकी लड़की से प्यार करने वाला जो आये दिन शक-शुबहा में नायक के जीवन में आने वाली लड़कियों से मारपीट किया करती है। वह अपनी होने वाली सास को यह पूछने पर कि खाना बनाना जानती हो, उत्तर देती है कि एक घण्टे में आपका लिवर ट्रांसप्लाण्ट कर सकती हूँ। फिल्म में अच्छे मानवीय रंग हैं सौतेली माँ को नायक का गाना पसन्द आना, माँ को बेटे का गाना पसन्द आना जैसे कई अच्छे पंच हैं।

सपनों को साकार करने का संघर्ष एक अलग ही पथ का रागी बनाता है मनुष्य को। नकारात्मकता अतिरेक से पहले ही परास्त हो जाती है दृढ़ इच्छाशक्ति और हौसले के आगे। आत्मबल और जुनून जीवन में बदलाव के मील के पत्थर ठहर-ठहर कर गाड़ते हैं, दूरी-दूरी पर गाड़ते हैं पर उन तक पहुँचने का पथ भी प्रशस्त करते हैं, गली बॉय यही बात अपने आपमें एक फिल्म की तरह एक प्रतिभाशाली निर्देशक के माध्यम से सफलतापूर्वक कह जाती है.............

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